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________________ गा५८) उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ३०७ ६ ३४४. सुगममेदमोघेण मिच्छत्तभजगारसंकामयस्स जहण्णुक्कस्सकालणिदेसावेक्खं पुन्छासुत्तं । * जहएणेण एयसमो ।। ६३४५. तं जहा--पुबुप्पण्णेण सम्मत्तेण मिच्छतादो वेदगसम्मत्तभागयस्स पढमसमए विज्झादसंकमे गावत्तव्यसंकमो होइ । पुणो विदियादीणमण्णदरसमए जत्थ वा तत्थ वा चरिमावलियमिच्छाइद्विणा वविदणबंधणवकबंधसमयपबद्ध बंधावलियादिक्कंतं भुजगारसरूवेण संकामिय तदणंतरसमए अप्पदरमवद्विदं वा गयस्स लग्गो' मिच्छत्तभुजगारसंकामयस्स जहण्णकालो एयसमयमेत्तो। * उकस्सेण पावलिया समयूणा । ६३४६. तं कधं ? पुव्वुप्पण्णसम्मतपच्छायदमिच्छाइद्विणा चरिमावलियाए णिरंतरमुदयावलियं पविसमाणगोवुच्छेहितो अभहियकमेण बंधिदूण वेदगसम्मत्ते पडिवण्णे तस्स पढमसमए अवत्तव्यसंकमो होदूण पुणो विदियादिसमएसु पुव्वुत्तणवकबंधवसेण णिरंतरं भुजगारसंकमे संजादे लग्गोर मिच्छत्तभुजगारसंकमस्स समयूणावलियमेत्तो उक्कस्सकालो। एवं ताव पुव्वुप्पण्णसम्मत्तमिच्छाइडिणवकबंधावलंबणेण समयूणावलियमेत्त-मिच्छत्त भुजगारसंकमुक्कस्सकालसंभवं परूविय संपहि गुणसंकमकालावेक्खाए अंतोमुहुत्तमेत्तो पयदुकस्स ६३४४. ओघसे मिथ्यात्वके भजगारसंक्रामकके जघन्य और उत्कृष्टकालके निर्देशकी अपेक्षा करनेवाला यह पृच्छासूत्र सुगम है। * जघन्यकाल एक समय है। ६३४५. यथा-पहले उत्पन्न हुए सम्मक्त्वके साथ मिथ्यात्वसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा अवक्तव्यसंक्रम होता है। पुनः द्वितीय आदि समयोंमेंसे किसी समयमें जहाँ कहीं अन्तिम आवलिमें विद्यमान मिथ्यादृष्टिके द्वारा बढ़ाकर बाँधे गये नवकबन्ध समयप्रबद्धको बन्धावलिके बाद भुजगाररूपसे संक्रमा कर तदनन्तर समयमें अल्पतर या अवस्थितसंक्रमको प्राप्त हुए जीवके मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। * उत्कृष्ट काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण है। ३४६. शंका-वह कैसे ? समाधान-पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे पीछे पाये हुए मिथ्यादृष्टिके द्वारा चरमावलिके निरन्तर उदयावलिमें प्रवेश करनेवाले गोपुच्छासे अधिक रूपसे बाँधकर वेदकसम्यक्त्वके प्रान होने पर उसके प्रथम समय में प्रवक्तव्यसंक्रम होकर पुनः द्वितीयादि समयों में पूर्वोक्त नवकबन्धके वशसे निरन्तर भुजगारसंक्रमके होने पर मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रमका उत्कृष्ट काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण उपलब्ध हुआ । इस प्रकार सर्वप्रथम पूर्वोत्पन्न सम्यक्त्वसे मिथ्यादृष्टि होकर वहाँ पर हानवाल नवकबन्धक अवलम्बनसे मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रमके एक समय कम एक आवलिप्रमाण उत्कृष्टकालको सम्भावनाका कथन करके अब गुणसंक्रम कालकी अपेक्षासे प्रकृत उत्कृष्ट काल १. 'लो' ता०।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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