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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ ६१३२. देवगई देवेषु मिच्छ०-अनंतापु० चउ० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीस सागरो० देभ्रूणाणि । एवं सम्म० सम्मामि० । णवरि अज० जह० एयस० । बारसक० चदुणोक० जह० अज० णत्थि अंतरं । पंचणोक० जह० पदे० संका ० णत्थि अंतरं । अजह० जहण्णु० एयस० । एवं भवणादि जाव णवगेवजा ति । वरि सगदी देखणा । २३६ ६१३३. अणुद्दिसादि सब्बट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि० - सोलसक० तिण्णिवे ०भय-दुगु ० जह० अजह० णत्थि अंतरं । हस्स - रइ-अरह-सोग ज० पदे ० संका ० णत्थि अंतरं । अजह • जहणु० एयस०, एवं जाव० । विशेषार्थ — साधारण श्रोधप्ररूपणा के समय जो अन्तरकाल घटित करके बतला श्राये हैं उसके अनुसार यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए। मात्र कायस्थिति और इनमें वेदकसम्यक्त्वके साथ अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनाकाल आदिकी अपेक्षा जो विशेषता आती है उसे अलग से जान लेना चाहिए । १३२. देवगति में देवोंमें मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है । बारह कषाय और चार नोकषायके जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । पाँच नोकपायोंके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । विशेषार्थ — देवोंमें मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसंक्रम भवस्थिति अन्तिम समय में प्राप्त होनेसे इनके जघन्य प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा इनमें उक्त प्रकृतियोंका अजघन्य प्रदेशसंक्रम कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिक-से-अधिक कुछ कम इकतीस सागर काल तक न होकर इस कालके पूर्व और बादमें हो यह सम्भव है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियों के अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यह अन्तरकाल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इन प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम उद्वेलनाके समय द्विचरम काण्डक पतनके समय होता है, अतः इनका अजघन्य प्रदेशसंक्रम इसके बाद भी प्राप्त होनेसे इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है। शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल यहां पर भी तिर्योंके समान बन जानेसे उसे उनके समान यहां पर भी घटित कर लेना चाहिए। विशेष खुलासा हम पहले कर ही आये हैं । भवनवासी आदिमें यह अन्तरकाल इसी प्रकार है । मात्र उनकी भवस्थिति अलग अलग होनेसे जहां कुछ कम इकतीस सागर अन्तरकाल कहा है वहाँ उसका विचार कर लेना चाहिए। ६१३३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषार, तीन वेद, भय और जुगुप्सा के जघन्य और श्रजघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । हास्य, रति, अरति और शोकके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अनन्तरकाल नहीं है । अजघन्य
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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