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________________ जयधवला सहिदे कसा पाहुडे [ बंधगो ६ I ६ ६५६. एदस्स सुत्तस्सत्थो बुच्चदे - - जस्स कमस्स निरंतरबंधवसेणावट्ठिद संकमो संभवइ तस्स जहण्णवड्डि- हाणि-अवट्ठाणपमाणमसंखेज्जलोगपडिभागो होइ । किं कारणं ? अणसं कमपाओग्गपयडीसु एगेगसंतकम्मपक्खेवुत्तरकमेण संतकम्मवियप्पाणं पयदजहणवड्डि-हाणि-अबट्ठापणिबंधणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो । एत्थ विसेसणिण्णयमुवरिमसामणि से कस्साम । तदो जेसिं कम्माणमवद्विद संक्रमसंभवो अस्थि तेसिमसंखेज्जलोगपडिभागेण जहण्णवडिहाणिअवट्ठाणसामित्ताणुगमो कायन्वो त्ति सिद्धं । संपहि जेसि - मट्ठाणसंभवो णत्थि तेसिमेस कमो ण संभवदि त्ति पदुप्पायणट्टमुत्तरमुत्तमोहणं — * जस्स कम्मस्स अवदिकमो पत्थि तस्स वड्डो वा हाणी वा असंखेज्जा लोगभागो ए लभइ । ३६८ § ६६०. किं कारणं १ तत्थ तदुवलंभकारणसंतकम्मवियप्पाणमगुप्पत्तीदो । तदो तत्थागम - णिज्जरावसेण पलिदो ० असंखे० भागपडिभागेण संतकम्मस्स वड्डी वा हाणी वा sts ति तदणुसारेणेव संक्रमपवुत्ती दट्ठव्वा । * एसा परूवणा अट्ठपदभूदा जहरिणयाए वड्डीए वा हाणीए वा अवट्ठास्स वा । ६६१. एस अनंतरणिद्दिट्ठा परूवणा जहण्णवड्डि-हाणि - अवट्ठागाणं सरूवावहारण ६५६. अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - जिस कर्मका निरन्तर बन्ध होनेसे अवस्थित संक्रम सम्भव है उसकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानका प्रतिभाग असंख्यात लोकप्रमाण होता है, क्योंकि अवस्थानसंक्रमके योग्य प्रकृतियोंमें एक एक सत्कर्म प्रक्षेप अधिक के क्रमसे प्रकृत जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान के कारणभूत सत्कर्म विकल्पोंकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता । यहाँ पर विशेष निर्णय आगे स्वामित्वका निर्देश करते हुए करेंगे, इसलिए जिन कर्माका अवस्थित संक्रम सम्भव है उनकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वका अनुगम असंख्यात लोकको प्रतिभाग बना कर करना चाहिए यह सिद्ध हुआ । तत्काल जिनका अवस्थान संक्रम नहीं होता उनका यह क्रम सम्भव नहीं है यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र आया है - * जिस कर्मका अवस्थितसंक्रम नहीं होता इस कर्मके असंख्यात लोक प्रतिभाग रूप से वृद्धि और हानि नहीं उपलब्ध होता । § ६६०. क्योंकि वहाँ पर उसकी उपलब्धिके कारणभूत सत्कर्म विकल्प नहीं उत्पन्न होते । इसलिए वहाँ पर आय और निर्जराके कारण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतिभागरूपसे सत्कर्मकी वृद्धि और हानि होती है, अतएव तदनुसार ही संक्रमकी प्रवृत्ति जाननी चाहिए । * यह प्ररूपणा जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानकी अर्थपदभूत है । ६६६१. यह अनन्तर पूर्व कही गई प्ररूपणा जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वरूपका निचय करने के लिए अर्थपदभूत है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस प्रकार कहे गये
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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