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________________ २३१ गा०५८] उत्तरपयडिदेससंकमे एयजीवेण अंतरं ® जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ६१२४. तं जहा-चिराणसंतकम्ममेदेसिमुवसामिय घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धचरिमसमयणकवंधसंकामयचरिमसमयम्मि जहण्णसंकमस्सादि कादूण विदियादिसमएसु अंतरिय उवरिं चढिय ओइण्णो संतो पुगो वि सबलहुमंतोमुहुत्तेण विसुज्झिदूण सेढिसमारोहणं करिय पुवुत्तपदेसे तेणेव विहिणा जहण्णपदेससंकामओ जादो, लद्धमंतरं । * उकस्सेण उवड्यूपोग्गलपरिय। । १२५. तं कथं १ पुव्वुत्तकमेणेवादि करिय अंतरिदो संतो देसूणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालं परियट्टिदूण पुणो अंतोमुहुत्तसेसे संसारे उवसमसेढिमारुहिय जहण्णपदेससंकामओ जादो, लद्धमुक्कस्संतरं । 8 सेसाणं कम्माणं जाणिऊण णेदव्वं । ६१२६. सेसाणं कम्माणमंतरमत्थि णत्थि ति णादण णेदव्वमिदि सोदाराणमत्थ समप्पणं कयमेदेण सुत्तेण । ६ १२७. संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदत्थस्स परूवणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा-जह० पयदं। दुविहो णिदेसो--ओघे० आदेसे० । ओघेण मिच्छ ०-सम्म०-सम्मामि० जह० पदे०संका० णस्थि अंतरं । अजह० जह० एयस०, उक्क. उबड्डपोग्गलपरियट्ट । * जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहते है। ६ १२४. यथा-जो इन कर्मों के प्राचीन सत्कर्मको उपशमा कर घोलमान जघन्य योगके द्वारा अन्तिम समयमें बाँधे गये नवकबन्धके संक्रमके अन्तिम समयमें जघन्य संक्रमका प्रारम्भ करके और द्वितीयादि समयोंमें उसका अन्तर करके ऊपर चढ़कर उपशमणिसे उतर आया है। तथा फिर भी सबसे लघु अन्तमुहूर्तके द्वारा विशुद्ध होकर और उपशमणि पर आरोहण करके पूर्वोक्त स्थानमें जाकर उसी विधिसे उक्त कर्मों के जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक हुआ है इस प्रकार उक्त कर्मो को जघन्य प्रदेश संक्रमका जघन्य अन्तरकाल प्राप्त हो गया। * उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। १२५. वह कैसे ? पूर्वोक्त विधिसे ही जघन्य संक्रमका प्रारम्भ करके और उसका अन्तर करके कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके पुनः संसारके अन्तमुहूर्त प्रमाण शेष रहने पर उपशमणि पर आरोहण करके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक हो गया, इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हुआ। * शेष कर्मों का अन्तरकाल जानकर ले आना चाहिए । ६ १२६. शेष कर्मो का अन्तरकाल है या नहीं है ऐसा जानकर उसे ले आना चाहिए । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा श्रोताओंको अर्थका ज्ञान कराया गया है। ६१२७. अब इस सूत्र द्वारा सूचित हुए अर्थका कथन करने के लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेश
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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