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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
* दंसणमोहणीयक्खवयस्स विदियअणुभागखंडयपढमसमयसंकामयस्स तस्स उक्कस्सिया हाणी |
$ ४६६. दंसणमोहक्खवणाए अपुव्त्रकरणपढमाणुभागखंडयं घादिय विदियाणुभागखंड माणस पढमसमए पयदकम्माणमुकरसहाणी होइ, तत्थ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमणुभागसंतकम्मरसागंताणं भागाणमेकवारेण हाणी होतॄणाणंतिमभागे' समवाण
दो |
* तस्स चेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं ।
६ ४६७. तस्स चैत्र उकस्सह । णिसामियस्स तदणंतरसमए उकस्सयमवद्वाणं होई, वडहा वित्तियमेते चैव तदवाणदंसणादो । एवमोघो समत्तो ।
$ ४६८. आदेसेण मणुसतिए ओवं । एवं रइयस्स । णवरि सम्मा मि० उक्क० हाणी णत्थि । सम्मत० विहत्तिभंगो | एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख- पंचिदियतिरिक्खदुग - देवा सोहम्मद जाव सहस्सार ति । विदियादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेत्र । णवरि सम्मत्त ० उक्क० हागी णत्थि । एवं जोणिणि० - भगण० - चाण० - जोदिसिए ति । पंचिं० तिरिक्ख
* जो दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव द्वितीय अनुभाग काण्डका प्रथम समय में संक्रमण कर रहा है वह उनकी उत्कष्ट हानिका स्वामी है ।
§ ४६६. दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में अपूर्वकरण परिणामोंके द्वारा प्रथम अनुभाग काण्डका घातकर जो दूसरे अनुभाग काण्डक में विद्यमान है अर्थात् जिसने दूसरे अनुभागकाण्डकके घातका प्रारम्भ किया है वह उसके प्रथम समय में प्रकृत कर्मोंकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है, क्योंकि वहाँ पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यके अनुभागसत्कर्म के अनन्त बहुभागों की एकबार में हानि होकर अनन्त भागप्रमाण अनुभाग में अवस्थान देखा जाता है ।
* तथा वही जीव अनन्तर समयमें उनके उत्कष्ट अवस्थानका स्वामी है ।
९ ४६७. जो उत्कृष्ट हानिका स्वामी है उसीके अनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थान होता है, क्योंकि वृद्धि और हानिके बिना उतने में ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामकका स्थान देखा जाता है ।
इस प्रकार घ प्ररूपणा समाप्त हुई ।
४६. आदेश से मनुष्यत्रिक में के समान भङ्ग हैं। इसी प्रकार नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट हानि नहीं है । तथा सम्यक्त्वका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इसी प्रकार पहिली पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में जानना चाहिए। दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि नहीं है । इसी प्रकार योनिनी तिर्यञ्च, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिपी देवों में जानना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनादि
१ ता०प्रतौ ' -वारेण हो (हा) दूगारांतिभागे' श्रा० प्रती ' -वारेण होइदूगारांतिमभागे' इति पाठः ।