SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे सामित्त १२७ अपज०-मणुसअपज०-आणदादि सबट्ठा ति विहत्तिभंगो। एवं जाव० । ___एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । ६४६६. संपहि जहण्णसामित्तविहासणट्ठमुवरिमो सुत्तसंदभो मिच्छत्तस्स जहणिया वड्डी कस्स ? ६४७० सुगमं । * सुहुमेइंदियकम्मेण जहएणएण जो अणंतभागेण वड्डिदो तस्स जहएिणया वड्डी। ६४७१. जो जीवो सुहुमेई दियकम्मेण जहण्गएण अच्छिदो संतो परिणामपच्चएणाणंतभागेण वडिदो तस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ ति सुत्तत्थसब्भावो । कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकको छोड़कर अन्यत्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ नहीं होता, इसलिए सामान्य नारकी, प्रथम पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यश्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानिका निषेध किया है । किन्तु इन मार्गणाओंमें कृतकृत्यबेदकसम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है और उसके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि भी देखी जाती है। फिर भी वह ओघके समान सम्भव न होनेसे उसे अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, योनिनी तिर्यञ्च, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इनमें सम्यग्मिथ्यात्वके समान सम्यक्त्वके जाननेकी सूचना की है। वहां सम्यक्त्य और सम्यग्मिथ्यात्वके सिवा अन्य सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है । अब रहीं पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव ये मार्गणाएं सो इनमें अनुभागविभक्तिमें जिस प्रकार स्वामित्वका निर्देश किया है उसी प्रकार यहाँ स्वामित्वके प्राप्त होने में कोई . बाधा नहीं आती, इसलिए इनमें अनुभागविभक्तिके समान स्वामित्वके जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है। ___ इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ६४६६. अब जघन्य स्वामित्वका ब्याख्यान करनेके लिए आगेके सूत्रसंदर्भको प्रकाशमें लाते हैं * मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? ६४७०, यह सूत्र सुगम है। * जो जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कर्मके साथ उसमें अनन्तभागवृद्धि करता है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। ६४७१. जो जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ स्थित होता हुआ परिणमवश अनन्तभागवृद्धिको प्राप्त हुआ उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है इस प्रकार सूत्रार्थका सद्भाव है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy