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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ * दंसणमोहणीयक्खवयस्स दुचरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जहरिया हाणी | ९४८ १. कुदो दुरिमाणुभागखंडयसंकमा दो अनंतगुणहाणीए हाइदूण चरिमाणुभागखंडयसरूवेण परिणदस्स पढमसमए जहण्णभावसिद्धीए वाहावलंभादो । * तस्स चेव से काले जहणणयमवद्वाणं । १३० ६ ४८२. तस्स चैव जहण्णहाणिसंकमसामियस्स से काले जहण्णयभवद्वाणं होड़, तत्थ जाणिमाव कमावद्वाणदंसणादो । * ताणबंधीणं जहणिया वड्डी कस्स ? ४८३. सुगमं । * विसंजोएदूण पुणो मिच्छत्तं गंतूण तप्पात्रोग्गविसुद्ध परिणामेण विदियसमए तप्पा ओग्गजहणणाणुभागं बंधिऊण आवलियादीदस्स तस्स जहरिया वड्डी | ९ ४८४. एदस्स सुत्तस्स अत्थो । तं जहा - अणताणुबंधिच उक्क विसंजोएदृण पुणो तप्पाओग्गविसुद्धपरिणामेण मिच्छत्तं गंतूण विदियसमए त्रि तप्पा ओग्गविसुद्धपरिणामेण परिणदो संतो जो तप्पा ओग्गजहण्णाणुभागं बंधिऊणावलियादीदो तस्स पयदजहण्णसामित्त होइ ति * जो दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव सम्यग्मिथ्यात्वके द्विचरम अनुभागकाण्डकका घात कर चुकता है वह उसकी जघन्य हानिका स्वामी है । ९४८१. क्योंकि द्विचरम अनुभागकाण्डकसंक्रमसे अनन्तगुणहानिद्वारा अन्तिम अनुभागकाण्डकरूपसे परिणत हुए जीवके प्रथम समयमें जघन्यभावकी सिद्धि होने में कोई बाधा नहीं उपलब्ध होती । * तथा वही अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । ६ ४८२. जघन्य हानिसंक्रमका स्वामी है उसीके अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है, क्योंकि वहाँ पर जघन्य ह निके प्रमाणरूपसे ही संक्रमका अवस्थान देखा जाता है । * अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? ६ ४८३. यह सूत्र सुगम है । * जो विसंयोजना करके पुनः मिथ्यात्वमें जाकर तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामसे दूसरे समय में तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागका बन्ध कर एक आवलि काल व्यतीत करता है। वह उनकी जघन्य वृद्धिका स्वामी है । ६४८४. इस सूत्र का अर्थ, यथा - अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके पुनः तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम के साथ मिध्यात्वमें जाकर दूसरे समय में भी तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामसे परिणत होकर जिसने तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागका बन्ध कर एक आवलि काल व्यतीत किया है उसके प्रकृत
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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