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________________ ग!० ५८ ] उत्तरपर्याडप्रणुभागसँक पदणिक्खेवे सामित्त सुत्तत्संबंधो । एत्थ तप्पा ओग्गविसुद्धपरिणामेणे ति णिद्देसो पढमसमयजहण्णाणुभागधादो विदियसमए जहण्णवुड्डिसंगहणडो । एत्थ पढमसमयजहण्णबंधादो विदियसमय तप्पा ओग्गजहण्णाणुभागबंधी कदमाए वड्डीए वढिदो ? अनंतगुणबड्डीए । कुदो एवं चैत्र ? संजुत्त पढम समय पहुडि जाव अंतोमुहुत्तं तात्र अणंतगुणबड्डीए संकिलेस डिि परमइरिओवसादो | एवं वृत्तविहाणेण विदियसमए वड्ढिदूण तत्तो आवलियादीदस्स तस्स जहणिया बड्डी, अगइच्छाविदबंधावलियम्स णवकबंधस्स संक्रमपाओग्गभावाणुववत्तीदो । एत्थ मिच्छत्तस्सेव सुहुमहदसमुप्पत्तियकम्मादो अर्णतभागबड्डीए वड्डिदस्स जहण्णसामित्तं काव्यमिदि णासंका कायन्त्रा णत्रकबंधसरूवादो एदम्हादो तस्साणंतगुणत्तेण तहा कादुमसकियत्तादो । णानंतगुणत्तम सिद्धं, उवरिमसुत्तबलेण सिद्धसरूवत्तादो | * जहरिणया हाणी कस्स ? १३९ ४८५. सुगमं । * विसंजोएऊण पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुहुत्त संजुते वि तस्स सुहमस्स हेट्ठदो संतकम्मं । जघन्य स्वामित्व होता है । इस प्रकार यह सूत्रार्थका सम्बन्ध है । यहाँ पर सूत्रमें 'तप्पा ओग्गविसुद्धिपरिणामेण' यह निर्देश प्रथम समय में होनेवाले जघन्य अनुभागबन्धसे दूसरे समय में होनेवाली जन्य वृद्धि के संग्रह के लिए दिया है । शंका—यहाँ पर प्रथम समयके जघन्य बन्धसे दूसरे समयका तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्ध कौनसी वृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ है ? समाधान — अनन्तगुणवृद्धिके द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ है । शंका- ऐसा किस कारण से है ? समाधान —क्योंकि संयुक्त होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक अनन्तगुणवृद्धिरूप से संक्लेशकी वृद्धि होती है ऐसा परम आचार्यो का उपदेश है । इस प्रकार उक्त विधि से दूसरे समय में वृद्धि करके वहाँसे एक आवलिके बाद स्थित हुए जीवके जघन्य वृद्धि होती है, क्योंकि अतिस्थापनारूपसे स्थापित बन्धावलि कालके भीतर नवकबन्ध संक्रमके योग्य नहीं होता । यहाँ पर मिथ्यात्व कर्मके समान सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिककर्म से जिसका अनन्तानुबन्धीचतुष्क अनन्तभागवृद्धि के द्वारा वृद्धिगत हुआ है उसके जघन्य स्वामिल करना चाहिए ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि नवकबन्धरूप इससे वह अनन्तगुणा है, इसलिए वैसा करना अशक्य है । वह अनन्तगुणा है यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उपरिम सूत्रके बलसे सिद्ध ही है । * उनकी जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? ९४८५. यह सूत्र सुगम है । . * बिसंयोजना करके तथा पुनः मिथ्यात्वमें जाकर संयुक्त होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल होने पर भी जिसके उक्त प्रकृतियोंका सत्कर्म सूक्ष्म एकेन्द्रियके सत्कर्मसे कम है ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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