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________________ ४७६ गा० ५८ ] उत्तरपयडिपदेससंकमै संकट्ठा ि करणम्मि संकमट्ठाणुप्पायणे मिच्छतादो णत्थि किं पि णाणतं, तत्थेदेसिं गुणसंकमसंभवं पडि भेदाभावादो | सव्त्रसंकमेत्रिण किंचि णाणत्तमत्थि । एवं लोहसंजलणस्स वि । रिसको गुणसंकमो च णत्थि । अपुव्यकरणावलियपविट्ठचरिमसमय जहण्णसंकम मादि काढूण जास्ससंक्रमट्ठाणे ति ताव अधापवत्तसंक्रममस्सिऊणासंखेञ्ज लोग मेत्ताणि चैत्र संक्रमणाणि लोहसंजलणस्स समुप्पाइय गेदिव्त्राणि । ९७८५. पुरिसवेद-कोह- माण-माया संजलणाणमुवसम सेढीए चिराणसंतकम्मं सव्ववसामय वकबंधोवसामणाए वावदस्स चरिमसमए जहण्णसामित्तं होइ त्ति तत्थ - तायिट्टिपरिणाममेयवियप्पमस्सिदूग सेढीए असंखे ० भागमेत्तसंतवियप्पेहिं सेढीए असंखे ० भागमेताणि चैत्र संकमट्ठाणाणि समुप्पाइय गेव्हियन्त्राणि । एवं दुवरिमादिसमसु वि विसेसाहियकमेण संकमट्ठायाणि उप्पाइय ओदारेयव्वं जाव णवकबंधोवसामणाए पढमसमयो ति । ९ ७८६. एवमुप्पादे जोगट्ठाण द्वाणायामेण समयुणदो आवलियविक्खंमेण ण पदकम्माणं संक्रमट्ठाणपदरमुप्पण्णं होई । एत्थ सेसो विधी पदेसविहत्तिभंगेण वत्तव्वो । धावत्कममस्सिऊदेसि लोभसंजलणसंगेण द्वाणपरूवणा कायव्वा । खवग कराने में मिथ्यात्वसे कुछ भी भेद नहीं है, क्योंकि वहाँ इनका गुणसंक्रम सम्भव होनेके प्रति भेद नहीं पाया जाता । सर्वसंक्रम में भी कुछ भेद नहीं है । इसी प्रकार लोभसंज्वलन के विषयमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसका सर्वसंक्रम और गुणसंक्रम नहीं है । पूर्वकरणके अवलिप्रविष्ट अन्तिम समय में जघन्य संक्रमस्थान से लेकर उत्कृष्ट संक्रमस्थानके प्राप्त होने तक अघः प्रवृत्तसंक्रमका आश्रय कर असंख्यात लोकमात्र ही संक्रमस्थान लोभसंज्वलन के उत्पन्न कर ग्रहण करने चाहिए | - ७८५ पुरुपवेद, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन और मायासंज्वलन के उपशमश्र गिमें समस्त प्राचीन सत्कर्मको उपशमा कर नवकबन्धकी उपशामना में व्यापृत हुए जीवके अन्तिम समय में जघन्य स्वामित्व होता है, इसलिए वहाँके एक विकल्परूप अनिवृत्तिकरणके परिणामका श्राश्रय कर जग के असंख्यातवें भागमात्र सत्कर्म विकल्पोंसे जगन पिके असंख्यातवें भागमात्र ही संक्रमस्थानोंको उत्पन्न कर ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार द्विचरम आदि समयोंमें भी विशेष अधिक के क्रमसे संक्रमस्थानोंको उत्पन्न कर नवकबन्धकी उपशामनाके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए । ६ ७८६. इस प्रकार उत्पन्न कराने पर प्रकृत कर्मोंका संक्रमस्थानप्रतर योगस्थानोंके अध्वानके बराबर आयामवाला और एक समय कम दो आवलिप्रमाण विष्कम्भवाला उत्पन्न होता है । यहाँ पर शेष विधि प्रदेशविभक्तिके समान कहनी चाहिए। नीचे भी अधःप्रवृत्तसंक्रमका आश्रयकर इनकी लोभसंज्वलन के समान स्थानप्ररूपणा करनी चाहिए । क्षपकश्र णिमें भी नवक
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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