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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिदेसक एयजीवेण अंतरं उक्क० अंतोमु० । णवरि मणुसिणी पुरिसवे ० अणु० जहष्णु० अंतोमु० । १२०. देवगदीप देवेसु २२६ मिच्छ० - सम्मामि० – सम्म० उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एयस०, सम्म० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०४ सम्मत्तभंगो । बारसक० णवणोक० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक० जह०पु० एयसमओ । एवं भवणादि जाव णवगेवजा त्ति । वरि सगट्ठिदी देणा । उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी और विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ — मनुष्यत्रिक में मिथ्यात्व आदि सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम गुणितकर्मा - शिक जीवके होता है और मनुष्यत्रिक पर्यायके चालू रहते जीवका दो बार गुणितकर्माशिक होना सम्भव नहीं है. इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है : अब रहा अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तर काल सो सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इनमें मिध्यात्व और सम्यक्त्व कर्मके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । कारण कि सम्यक्त्व गुण-स्थान में सम्यक्त्वका और मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता । परन्तु दोनों गुणस्थानोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है । कारणका विचार श्रघ प्ररूपणाके समय कर आये हैं । इन तीनों प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है यह स्पष्ट ही है जो अपनी अपनी कार्यस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके कराने से प्राप्त होता है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तर तिर्यञ्चोंके समान यहाँ घटित हो जानेसे उसे अलग से नहीं कहा है। सो तिर्यञ्चों में इन प्रकृतियोंके अन्तरको जान कर यहाँ पर भी उसे साध लेना चाहिए । यहाँ पर बारह कषाय और नौ नोकषायके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपशमश्र णिकी अपेक्षास कहा है । कारण कि मात्र उपशमश्रेणिमें अन्तर्मुहूर्त काल तक इन प्रकृतियोंका संक्रम नहीं होता । किन्तु इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और तीन संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्षपक मेिं एक समयके लिए होता है । किन्तु इसके पहले और बाद में उनका अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपशमश्र णिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कहा है । मात्र मनुष्यनियोंमें पुरुषवेद के अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय नहीं बनता, क्योंकि परोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए जीवके पुरुषवेदकी क्षपरणाके अन्तिम समय में उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम प्राप्त होता है, इसलिए मनुष्यिनियों में इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । $ १२०. देवगतिमें देवोंमें मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, सम्यवत्वका अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग सम्यक्त्वके समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तर नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ वैयक्तकके देवोंमें कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिए ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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