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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ ११७. पंचि०तिरि०३ मिच्छ० - सम्मामि० सम्म उक्क० पदे० संका० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एयस०, सम्म० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुव्त्रकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । सोलसक० - णवणोक० तिरिक्खभंगो । ११८. पंचिंदियतिरि० अपञ्ज० - मणुसअपज० पणुवीसपय० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक० जह० एयस० । सम्म० - सम्मामि० उक्क० अणुक्क० पदे ० संका ० णत्थि अंतरं । २२८ ११६. मणुसतिए मिच्छ० - सम्मामि० सम्म० उक्क० पदे० संका ० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० अंतोमु०, सम्मामि० एयस०, उक्क० तिष्णिपलिदो० पुव्वकोडिपुध० । अनंताणु०४ तिरिक्खभंगो । बारसक० - णवणोक० उक्क० पदे० संका० णत्थि अंतरं । अणुक• जहष्णु • अंतोसु० । णवरि पुरिसवे० तिण्णिसंज० अणु० जह० एयस० । ११७. पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, सम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । सोलह कषाय और नौ नोकषायका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । विशेषार्थ — पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिककी उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य होने से यहाँ पर मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । ११८. पञ्चेन्द्रिय तिर्थ अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पचीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल विशेषार्थ —— उत्कृष्ट स्वामित्वको देखनेसे विदित होता है कि इन जीवोंमें पच्चीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम भवके प्रथम समयमें न होकर मध्यमें होता है। साथ ही वह पर्याप्त पर्याय से आकर होता है, इसलिए इनमें पच्चीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके अन्तरका तो निषेध किया है और अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है । तथा शेष तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम भवके प्रथम समयमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों प्रकारके प्रदेशसंक्रमका अन्तर सम्भव न होनेसे दोनोंके अन्तरका निषेध किया है। ११. मनुष्यत्रिमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, सम्यग्मिथ्यात्वका एक समय है और सबका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पत्य है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग तिर्योंके समान है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेश संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और तीन संज्वलनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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