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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमद्वाराणि ५०३ असिद्धो, एदम्हादो चै सुत्तादो तेसिं तहाभावोवगमादो । एवमेदं परूत्रिय संपि अपि यदप्पा हुअविसय मत्थपदं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * जस्स कम्मस्स सव्वसंकमो पत्थि तस्स कम्मस्स असंखेज्जाणि पदेस संकमद्वाणाणि । जस्स कम्मस्स सव्वसंकमो अत्थि तस्स कम्मस्स अताणि पदेससंकमट्ठाणाणि । १८३७. णिरयगदीए सव्वघादिमिच्छत्तपदेस संकमा रोहिंतो देसघादिहस्सपदेससंकमट्ठाणाणमसंखेज्ञगुणत्तं । तत्थ जइ को विदेसघादिपा हम्ममस्तिऊणाणंतगुणत्तं विष्ण होदि ति भणे तदो तस्स तहाविहविप्पडिवत्तिणिराय रणमुहेण देसघादीणं सव्वघादीणं च सव्वसंकमादो अण्णत्थासंखेजा लोगमेत्ताणं चैव संक्रमट्ठाणाणं संभवपदुप्पायणमिदं सुत्तमोइण्णं । ण चासंखेज लोगमेत्तेसु संक्रमट्ठाणेसु अनंतगुणत्त संभवो अस्थि विप्पडिसेहादो । असंखेजगुणतं पुण पुव्वत्तेण कमेणागुगंतव्यमिदि । ६८३८. अहवा देसघादि लोहसं जलणपदेस संक मट्ठाणेहिंतो सव्त्रघादिमिच्छत्तस्सासंखेज दिभागभूदसम्मत्त पदेसस कमट्ठाणाणमोघपरूवणाए णिरयादिसु चाणंतगुणतं विद, कधमेदं जुञ्जदि ति विप्पडिवण्णस्स सिस्सस्स तहाविहविप्पडिवत्तिणिरायरणदुवारेण तन्त्रिसय णिच्छय समुपायण मेमोइण्णमिदि । एदस्स सुत्तस्सावयारो परूवेयच्यो, परिणामस्थानोंका इस प्रकारका होना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि इसी सूत्रसे उनका उस प्रकारका हो जाना जाता है । इस प्रकार इसका प्ररूपण कर अब अन्य भी प्रकृत अल्पबहुत्व विषयक अर्थपदका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * जिस कर्मका सर्वसंक्रम नहीं है उस कर्मके असंख्यात प्रदेदसंक्रमस्थान होते हैं। जिस कर्मका सर्वसंक्रम है उस कर्मके अनन्त प्रदेशसंकमस्थान होते हैं । ९ ८३७. नरकगतिमें सर्वघाति मिथ्यात्व के प्रदेशसंक्रमस्थानोंसे देशघाति हास्यके प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं । वहाँपर यदि कोई भी देशघाति के माहात्म्यका आश्रय कर अनन्तगुणे क्यों नहीं होते ऐसा कहे तो उसकी उस प्रकारकी शंकाके निराकरण द्वारा देशघाति और सर्वघातियों के सर्वसंक्रमके सिवा अन्यत्र असंख्यात लोकमात्र ही संक्रमस्थान सम्भव हैं यह कथन करने के लिए यह सूत्र आया है । और असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थानोंमें अनन्तगुणेपने की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि इसका निषेध हैं। असंख्यात गुणापना तो पूर्वोक्त क्रमसे जान लेना चाहिए । ८३८. अथवा देशघाति लोभसंज्वलन के प्रदेशसंक्रम स्थानोंसे सर्वघाति मिध्यात्व के असंख्यातवें भागभूत सम्यक्त्वके प्रदेशसंक्रमस्थान ओघप्ररूपणा में और नरकादि गतियोंमें अनन्तगुणे कहे हैं सो यह कैसे बन सकता है इस प्रकार शंकाशील शिष्यकी उस प्रकार की शंकाके निराकरण द्वारा तद्विषयक निश्चयको उत्पन्न करने के लिए यह सूत्र आया है। इस प्रकार इस
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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