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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिअणुभागसँकमे सामित्तं રૂપ सेसकसायाणमणुभागो चिराणसंतसरूवो अगंताणुबंधिणत्रकबंधस्सुवरि संकमंतओ अत्थित्तेण पञ्चवट्ठेयं, 'बंधे संकमो' त्ति णायादो, बंधानुसारेणेत्र परिणदस्स तस्स जहण्णभावाविरोहित्तादो । दो दिगंतरपरिहारेणेत्येव सामित्तमिदि णिवरअं । * कोहसंजलणस्स जहएणाणुभागसंकामत्रो को होइ ? ६१. सुगमं । * चारिमाणुभागबंधस्स चरिमसमय पिल्लेवगो । ६२. कोहवेदयस्स जो अपच्छिमो अणुभागबंधो सो चरिमाणुभागबंधो णाम । सो किट्टिसरूवो, कोहतदिय किट्टिवेदएण णिव्त्रत्तिदत्तादो । तस्स चरिमाणुभागबंधस्स चरिमसमयअणिल्लेगो त्ति भगिदे माणवेदगद्धाए दुसमयूणदो आवलियाणं चरिमसमए वट्टमाणओ घेत्तव्त्रो । सो पयदजहण्णसामिओ होइ । एत्थ जइ वि सुत्ते सोदएण सामित्त - मिदि विसेसिऊग ण भणिदं तो वि१ सोदणेत्र सामित्तमिह गहेयव्त्रं, सेसकसायोदएण चढिदखत्रयम्मि फद्दयसरूवेणेत्र पिल्ले विजमाणकोहसंजलणाणुभागस्स जहण्णभावाणुलद्धीदो । * एवं माण- मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । सत्कर्मसे कम होता है' इस सूत्रवचन से भी वैसा होना उचित है । यद्यपि संयुक्त होने के प्रथम समय में ही शेष कषायका प्रचीन सत्तारूप अनुभाग अनन्तानुबन्धियोंके नवकबन्धके ऊपर संक्रम करता हुआ रहता है ऐसा निश्चित होता है, क्योंकि 'बन्ध में संक्रम होता है' ऐसा न्याय है । परन्तु वह बन्धके अनुसार ही परिणत हो जाता है, इसलिए उसके जघन्य होने में कोई विरोध नहीं आता, इसलिए अन्य विवक्षा के परिहारद्वारा प्रकृतमें ही जघन्य स्वामित्व बनता है यह कथन निर्दोष है । * क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? ६१. यह सूत्र सुगम है । * अन्तिम अनुभागबन्धका अन्तिम समयवर्ती अनिर्लेपक जीव क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी है । ६२. क्रोधवेदक क्षपकका जो अन्तिम अनुभागबन्ध है उसकी यहाँ 'चरमानुभागबन्ध' संज्ञा है । परन्तु वह कृष्टिस्त्ररूप है, क्योंकि क्रोधकी तीसरी कृष्टिके वेदक जीवके द्वारा वह निर्वृत्त हुआ है । उसको अन्तिम अनुभागबन्धका अन्तिम समयवर्ती अनिर्लेपक ऐसा कहने पर मानवेदक कालके दो समय कम दो आवलि कालके अन्तिम समयमें विद्यमान जीव लेना चाहिए। वह प्रकृतमें जवन्य स्वामी है । यहाँ पर सूत्रमें यद्यपि स्वोदयसे स्वामित्व होता है ऐसा विशेषण लगाकर नहीं कहा है तो भी यहाँ पर स्वोदय से स्वामित्वको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि शेप कषायों के उदयसे चढ़े हुए क्षपक क्रोधसंभलनका अनुभाग स्पर्वकरूपसे ही निर्लेपनको प्राप्त होता है, इसलिए उसमें जघन्यपना नहीं बन सकता । 1 * इसी प्रकार मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए | १. ता०प्रतौ 'भणिदं [ण] तो वि' इति पाठः ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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