SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बधगी ६ * गुणिदकम्म सिओ तप्पा ओग्गउक्कस्सियादो अधपवत्तसंकमादो सम्मत्तं यडिवज्जिऊण विज्झादसंकामगो जादो, तस्स पढमसमयस॑म्माइट्ठिस्स उक्कस्सिया हाणी । ९ ६२६. गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मिच्छाइट्ठिचरिमसमए तप्पा ओग्गुकस्सएण अधापवत्तसंक्रमेण परिणमिय तदणंतरसमए सम्मत्तपडिलंभवसेण विज्झाद संकामगो जादो तस्स पढमसमयसम्माइट्ठिस्स पयदुक्कस्सहाणिसामित्ताहिसंबंधो । सेसं सुगमं । * उक्कस्सयमवट्ठाणं कस्स ? ३८८ ६२७. सुगमं । * जो अधापवत्तसंकमेण तप्पा ओग्गुक्कस्सएण वडिदू अवट्ठिदो तस् उक्कस्सयमवट्ठाणं | ६६२८. जो गुणिदकम्मंसिओ तप्पा ओग्गुकस्सएणाधापवत्तसंक्रमेण विवक्खियसमयम्मि वडऊण तदणंतरसमए तेत्तियमेत्तेणावट्ठिदो तस्स पयदसमित्ताहिसंबंधोति सुत्तत्थसमुच्चयो । एत्थुक्कस्सहाणिविसय मुकस्सावद्वाणं गेण्हामो, पयदवसिय संकमा - वाणादो तस्सासंखेजगुणत्तसमुवलंभादो १ ण एस दोसो, गुणिदकम्मंसियलक्खणा गंतूण सम्मत्तमुप्पाइय उक्क सहाणीए परिणदस्स विदियसमए अवट्ठाणकरणोवायाभावादो । तं * जो गुणितकर्माशिक जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमसे सम्यक्त्वको प्राप्त कर विध्यातसंक्रामक हो गया उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट हानि होती है । ६ ६२६. क्योंकि गुणितकर्मा शिकलक्षणसे आकर मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट श्रधःप्रवृत्तसंक्रमरूपसे परिणम कर तदनन्तर समय में सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके कारण विष्यात संक्रामक हो गया उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवके प्रकृत उत्कृष्ट हानिके स्वामित्वका अभिसम्बन्ध है । शेष कथन सुगम है । * उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? § ६२७. यह सूत्र सुगम है । * जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा वृद्धि कर अवस्थित है उसके उत्कृष्ट अवस्थान होता है । ६६२८. क्योंकि जो गुणितकर्माशिक जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा विवक्षित समय में वृद्धि करके तदनन्तर समय में उतने ही संक्रमरूपसे अवस्थित है उसके प्रकृत स्वामित्वका सम्बन्ध होता है यह सूत्रार्थका समुच्चय है । शंका – यहाँ पर उत्कृष्ट हानि विषयक उत्कृष्ट अवस्थानको ग्रहण करते हैं, क्योंकि प्रकृत वृद्धिविषयक संक्रमके अवस्थानसे वह असंख्यातगुणा उपलब्ध होता है ? समाधान — यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि गुणितकर्माशिक लक्षणसे आकर और सम्यक्त्वको उत्पन्न कर उत्कृष्ट हानिरूपसे परिणत हुए जीवके दूसरे समय में अवस्थान करनेका कोई उपाय नहीं है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy