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________________ २३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो६ ॐ सेसाणं कम्माणं संकामो णियमा अणुक्कस्सं संकामेदि । ६१३८. कुदो ? सव्वेसिमप्पप्पणो गुणिदकम्मंसियक्खवयचरिमफालीसंकमे लद्धक्कस्सभावाणमेत्थाणुकस्सभावसिद्धीए विसंवादाभावादो। * उक्कस्सादो अणुकस्सं णियमा असंखेज्जगुणहीणं । ६ १३६. किं कारणं ? अप्पप्पणो खवयचरिमफालिसंकमादो एस्थतणसंकमस्स असंखेज्जगुणहीणतं मोत्तण पयारंतरा संभवादो। * वरि लोभसंजलणं विसेसहीणं संकामेदि। ६१४०. कुदो ? दंसणमोहक्खवणाविसए लोहसंजलणस्स अधापयत्तसंकमादो चरित्तमोहक्खवयसामित्तविसईकयअधापवत्तसंक्रमस्स . गुणसेढिणिज्जरापरिहोणगुणसंकमदनस्सासंखेज्जदिमागमेत्तेण विसेसाहियत्तदंसणादो। 8 सेसाणं कम्माणं साहेयव्वं । ६१४१. सम्मत्तादिसेसपयडीणं एदेणाणुमाणेणुकस्ससण्णियासविहाणं जाणिऊण भाणिदामिदि सिस्साणमत्थसमप्पणं कयमेदेण सुत्तपदेण । संपहि एदेण सुत्तेण समप्पिदत्थस्स परिप्फुडीकरणट्ठमुच्चारणाणुगममिह कस्सामो। तं जहा–सण्णियासो दुविहो, जह० उक्कस्सओ च । उक्क० पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० उक्क० * वह शेष कर्मों का संक्रामक होता हुआ नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रमण करता है। ६१३८. क्योंकि सबका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अपने-अपने गुणितकर्मा शिक क्षपकसम्बन्धी अन्तिम फालिके संक्रमणके समय प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ पर उनके प्रदेशसंक्रमके अनुत्कृष्टरूपसे सिद्ध होनेमें किसी प्रकारका विसंवाद नहीं है। ___* किन्तु वह अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हीन होता है। ६१३६. क्योंकि अपने अपने क्षपकसम्बन्धी अन्तिम फालिके संक्रमणसे यहाँ पर होनेवाला संक्रमण असंख्यातगुणा हीन होता है इसके सिवा प्रकृतमें अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है। * इतनी विशेषता है कि लोमसंज्वलनको विशेषहीन संक्रमण करता है। ६१४०. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाविषयक लोभसज्वलनके अधःप्रवृत्तसंक्रमसे चारित्र मोहक्षपकसम्बन्धी स्वामित्वको विषय करनेवाला अधःप्रवृत्तसंक्रम गुणोणिनिर्जरासे हीन गुणसंक्रमद्रव्यके असंख्यातवाँ भाग अधिक देखा जाता है। * शेष कर्मो का सनिकर्ष साध लेना चाहिए । ६१४१. सम्यक्त्व आदि शेष प्रकृतियोंका भी इस अनुमानसे उत्कृष्ट सन्निकर्ष विधान जान कर कहना चाहिए। इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा शिष्योंको अर्थका समर्पण किया गया है। अब इस सूत्रके द्वारा समपित अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणाका अनुगम करते हैं। यथा-सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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