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________________ गा०५८ ] उत्तरपयडि णुभागसंकमे भुजगार संकमस्स एयजीवेण अंतरं १११ भावाद | वरि सव्वे सिमवत्तव्त्रसंकामयं तर संभागओ विसेसो अस्थि ति तदंतरपमाण विणिण्णयमुत्तरमुत्त कलावमाह - * णवरि अवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ४०० सुगमं । * जहणणेण अंतोमुहुत्तं । ४०१. बारसक० - णत्रणोक ० सosts सामणादो परिवदिय अत्तव्त्रसंकमं कादूतरिय पुणो विसबल हुमुत्रसमसेढिमारुहिय सन्वोवसामणं काऊण परिवदमाणयस्स पढमसमयम्मि लद्धमंतरं होई । अणतारणुबंधीणं विसंजोयणापुव्त्रसंजोगेणादिं कादूग पुणो वि अंतोमुहुत्तेण विसंजोजिय संजुत्तस्स लद्धमंतरं वत्तं । * उक्कस्सेण उवडपोग्गल परियहं । ९ ४०२. पुव्यविहाणेणादिं कादूणद्धपोग्गलपरियड परिभमिय पुणो पडिवण्णभावम्मि तदुवलीद । एवमवत्तव्त्रसंकामयंतरं गयं । विसेसमेदेसिं परूविय अनंतापुबंधियमणं च विसेसजा परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ अवस्थितपदका संक्रम करनेवाले जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि इस कथनमें परस्पर कोई विशेषता नहीं है । मात्र इन सब प्रकृतियोंके वक्तब्यपदके संक्रामकोंके अन्तरकालमें कुछ विशेषता है, इसलिये उस अन्तरके प्रभारणका निर्णय करनेके लिए गेका सूत्रकलाप कहते हैं * मात्र इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ४००. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । §४०१. क्योंकि जो जीव बारह कषाय और नौ नोकषायोंका सर्वोपशमनासे गिरते हुए अवक्तब्यसंक्रम करके तथा उसका अन्तर करके फिर भी अतिशीघ्र उपशमश्र पि और सर्वोपशमना करके गिरते हुए अपने अपने संक्रमके प्रथम समयमें प्रवक्तब्यपद करता है उसके इसके वक्तब्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना पूर्वक होनेवाले संयोगद्वारा अवक्तव्यपदके अन्तरका प्रारम्भ कराके फिर भी अन्तर्मुहूर्त में विसंयोजनापूर्वक संयोजना करनेवाले के प्राप्त हुए अन्तरका कथन करना चाहिए । * उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। ४०२. क्योंकि पूर्व विधिसे इनके अवक्तव्यपद पूर्वक अन्तरका प्रारम्भ करके और उपार्ध पुद्गल परिवर्तनकाल तक परिभ्रमण करके पुनः अवक्तव्यपदके प्राप्त होने पर उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण प्राप्त होता है । इस प्रकार अवक्तव्यपदके संक्रामकोंके अन्तरका कथन किया । इस प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायसम्बन्धी विशेषताका कथन करके अब अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी अन्य विशेषताका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं -
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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