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________________ गा०५८] उत्तरपब्पिदेससंकमे संकमट्ठाणाणि ४४१ हुडि असंखेजलोगमेतपरिणामट्ठाणेहि परिणमिय संकामेमाणस्स अण्णमपुणरुत्तमसंखेजलोगभागुत्तरसंकमट्ठाणमुप्पजदि ति । एत्थ वि पुवं व विदियादि-परिणामपञ्चागेण जहण्णपरिणामट्ठाणस्सेव संगहो कायव्यो । णवरि पुविन्लजहण्णपरिणामट्ठाणादो संपहियजहण्णपरिणामट्ठाणमणंतगुणमहियमसंखेजलोगमेतछटाणाणि, तत्तो समुन्लंघिय एदस्सावट्ठाणदंसणादो। एवमेदेण विहिणा सेसपरिणामट्ठाणेसु असंखेजलोगमेतद्धाणं गंतूण एगेगपरिणामट्ठाणपुणरुत्तसंकमट्ठाणुप्पत्तिणिमित्तमुवलन्मइ ति तहाभूदाणं चेव परिणामट्ठाणाणमुच्चिणिदण गहणं कायव्वं जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयसव्यपरिणामडाणाणि णिट्ठिदाणि ति । एवमुच्चिणिदण गहिदासेसपरिणामट्ठाणाणमण्णोण्णं पेक्खिऊणार्णतगुगब्महियकमेणावहिदाणमवद्विदपक्खेवुत्तरकमेणासंखेज लोगमागुत्तरविसरिससंकमहाणुप्पत्तिणिमित्तभूदाणं पमाणमसंखेजा लोगा। ६७३१. संपहि एदेखि परिणामट्ठाणाणमधापवत्तकरणचरिमसमये कमेण रचणं कादण णाणाकालमस्सिऊण णाणाजीवेहि परिवाडीए परिणमाविय सुत्ताणुसारेण पढमसंकमट्ठाणपरिवाडिपरूवणं कस्सामो । तं जहा–अधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि सबजहण्णपरिणामट्ठाणं परिणमिय पुवणिरुद्धजहण्णसंतकम्मं संकमेमाणस्स जहण्णसंकमट्ठाणं होइ । पुणो एदं चेव जहण्णसंतकम्ममधापवत्तकरणचरिमसमयविदियपरिणामट्ठाणेण१ परिणमिय परिणाम स्थानोरूपसे परिणमन कर संक्रम करनेवाले जीवके असंख्यात लोक भाग अधिक अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । यहाँ पर भी पहलेके समान द्वितीयादि परिणामोंका त्यागकर जघन्य परिणामस्थानका ही ग्रहण करना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वोक्त जघन्य परिणामस्थानसे साम्प्रतिक जघन्य परिणामस्थान अनन्तगुणा अधिक है, क्योंकि उससे .असंख्यात लोकमात्र छह स्थानोंको उल्लघन कर इस स्थानका अवस्थान देखा जाता है । इस प्रकार इस विधिसे शेष परिणामस्थानों में असंख्यात लोकमात्र अध्वान जाकर संक्रमस्थानकी उत्पत्तिका निमित्तभूत एक एक अपुनरुक्त परिणामस्थान उपलब्ध होता है, इसलिए अधःकरणके अन्तिम समयके सब परिणामस्थानोंके प्राप्त होने तक उस प्रकारके परिणामस्थानोंको ही संचय करके ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार एक दूसरेको देखते हुए जो कि अनन्तगुण अधिकके क्रमसे अवस्थित हैं और जो अबस्थित प्रक्षेप अधिकके क्रमसे असंख्यात लोकभाग अधिक विसदृश संक्रमस्थानोंकी उत्पत्तिके निमित्तभूत हैं ऐसे उचलकर ग्रहण किये गये उन समस्त परिणामस्थानों का प्रमाण असंख्यात लोक है। ६७३१. अब इन परिणामस्थानोंकी अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें क्रमसे रचना करके नाना कालका आश्रय लेकर नाना जीवोंके द्वारा क्रमसे परिणमा कर सूत्रके अनुसार प्रथम संक्रमस्थानकी परिपाटीकी प्ररूपणा करेंगे। यथा-अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें सबसे जघन्य परिणामस्थानको परिणमा कर पूर्वमें विवक्षित हुए जघन्य सत्कर्मका संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य संक्रमस्थान होता है। पुनः इसी जघन्य सत्कर्मको अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें दूसरे परिणामस्थानके द्वारा परिणमा कर पूर्वमें विवक्षित किये गये जघन्य सत्कर्मका १. ता प्रतौ 'ट्ठा [णा ] णं णा-' इति पाठः ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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