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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिपदेस संकमे भुजगारो ३२३ अप्प ० संका ० जह० एयस० । उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवत० ओघं० । अता ०४ भुज० अवडि० अवत्त० संका० ओघं० । अप्प० संका० मिच्छत्तभंगो । बारसक० - पुरिसवेद-उ० गोकसाय ओधभंगो। णवरि अवत्त० णत्थि । इत्थवेद - एस० भुज० ओघं । अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० तेत्तीस सागरो० देनूणाणि । एवं सत्तमा । एवं छसु उवरिमासु पुढवीसु । गरि सगहिदी । अनंतागु०४ अप्पद० तं । ४११. तिरिक्खेसु मिच्छ० भुज० अवट्ठि० अवत्त० ओवं । अप्प० संका० जह० एस० । उक्क० तिण्णि पलिदो० देसुणाणि । सम्म० णारयभंगो । सम्मामि० भुज० अवत्त० संका० णारयभंगो । अप्प० संका० जह० एयस० । उक० तिगि पलिदो • देणाणि | अणु०४ भुज० अडि० अवत० ओघं । अप्प० संका० जह० एगस० । उक० तिगि पलिदो० सादिरेयाणि । वारसक० - पुरिसवेद - छपणोक० ० भुजगार संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । अवक्तव्य संक्रामकका काल ओघके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकका काल ओघके समान है । अल्पतर संक्रामकका भङ्ग मिध्यात्व के समान है । बारह कषाय, पुरुषवेद और छहनोकपायोंका भङ्ग ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ पर इनका वक्तव्य पद नहीं हैं । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके भुजगार संक्रामकका भङ्ग ओघ के समान है । अल्पतर संक्रामकका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार छह ऊपरकी प्रथिनियोंनें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जहाँ तेतीस सागर कहा है वहाँ अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए | तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अल्पतर संक्रामकका देशोनपना नहीं है । • विशेषार्थ — सामान्यसे नारकियोंमें और सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिए इनमें मिध्यास्त्र, सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद के अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है, क्योंकि इस कालके भीतर इनका सर्वदा अल्पतर संक्रम सम्भव है । शेष कालप्ररूपणा ओघको देखकर जो यहाँ सम्भव हो उसे घटित कर लेना चाहिए । जहाँ ओघ से काल में कुछ विशेषता है। उसका निर्देश किया ही है । § ४११. तिर्यब्चोंमें मिध्यात्वके भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामकका भङ्ग के समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है ! सम्यक्त्वा भङ्ग नारकियों के समान है । सम्यग्मिथ्यात्व के भुजगार और अवक्तव्य संक्रामकका भङ्ग नारकियों के समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पत्य है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायका भङ्ग नारकियोंके समान
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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