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________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो६ ६४०६. इत्थिवेदस्सेव एसो जहण्णकालो साहेयन्नो। * उफस्सेण अंतोमुहुतं । . ६४०७. अप्पप्पणो बंधकाले भुजगारसंकमो होइ, पडिवक्खपयडिबंधकाले एदेसिमप्पयरसंकमो होदि ति पयदुक्कस्सकालसिद्धी वत्तव्या। * अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालादो होदि। ६४०८. सुगमं । जहएणुकस्सेण एयसमयो। ६४०६. सुगमं । एवमोघेण कालाणुगमो कादूण संपहि आदेसपरूवणमुत्तरसुत्त भणइ। 8 एवं चदुगदोसु भोघेण सादूण णेदव्यो। ६४१०. एवमेदीए दिसाए चदुसु वि गदीसुः भुजगारादिसंकमयाणं कालो ओघपरूवणाणुसारेण चितिय णेदव्यो ति वुत्त होइ । संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदमत्थमुच्चारणावलंबणेण वत्तइस्सामो। तं जहा-आदेसेण णेरइय०-मिच्छ० भुज० अवढि० अवत्त० संका० ओघं । अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० तेतीसं सागरोषमाणि देसूणाणि । सम्म० भुज० अवत्त० ओघं । अप्प० संका० जह• एयस० उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मामि० भुज० संका० जह• एयसमओ। उक० अंतोमुहुत्त । ६४०६. स्त्रीवेदके इन पदोंके जघन्य काल के समान यह जघन्य काल साध लेना चाहिए। * उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूते है। ६४०७. अपने अपने बन्धकालमें भजगारसंक्रम होता है तथा प्रतिपक्षप्रकृतिके बन्धकालमें इनका अल्पतरसंक्रम होता है इस प्रकार प्रकृत उत्कृष्ट कालकी सिद्धि कहनी चाहिए । * अवक्तव्य संक्रमका कितना काल है ? ६४०८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । ६ ४०६. यह सूत्र सुगम है इस प्रकार ओघसे कालका अनुगम करके अब आदेश का कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इस प्रकार चारों गतियोंमें ओषसे साध कर ले जाना चाहिए । ६४१०. 'एवं' अर्थात् इस दिशाके अनुसार चारों ही गतियोंमें भुजगार आदि संक्रामकोंका काल ओघप्ररूपणाके अनुसार विचार कर ले जाना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इ। सूत्रके द्वारा सूचित हुए अर्थको उच्चारणाका अवलम्बन लेकर बतलाते हैं । यथा-आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामकका काल ओघके समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । सम्यक्त्वके भुजगार और प्रवक्तव्य संक्रामकका काल ओघके समान है। अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । सम्यग्मिश्यात्वके
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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