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________________ २६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ * दुगुंछाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । ६ २१६. कुदो ? धुवबंधित्तादो। * भए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। हु २२०. सुगममेदं पयडिविसेसमेत्तकारणपडिबद्धत्तादो। ® पुरिसवेदे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६ २२१. कुदो १ दोण्हं धुवबंधित्तेण समाणविसयसामित्तपडिलमे वि पयडिविसेसमस्सिऊण पुग्विन्लादो एदस्स विसेसाहियत्तसिद्धीए विरोहाभावादो। * कोहसंजलणे उकस्सपदेससंकमो संखेज्जगुषो। ६ २२२. को गुणगारो ? एगरूवचउभागाहियाणि छरुवाणि । कुदो ? कसायचउभागेण सह सयलणोकसायभागस्स कोहसंजलणायारेण परिणदस्सुवलंभादो। एत्थ संदिट्ठीए मोहणीयसव्वदव्वमेत्तियमिदि घेत्तव्वं ४० । तदद्धमेत्तं कसायदव्वमेदं २० । णोकसायदव्वं पि एत्तियं चेव होइ २० । पुणो एदस्स पंचभागमेत्तो पुरिसवेदुक्कस्ससंकमो एत्तिओ होइ ४ । एदं छग्गुणं करिय चउभागाहिए कदे कोहसंजलणदव्यमेत्तियं होइ २५ । माणसंजलणे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६ २२३. केत्तियमेत्तेण १ पंचमभागमेत्तेण । तस्स संदिट्ठी ३० । * उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६ २१६. क्योंकि यह ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है। * उससे भयका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६ २२०. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि यह प्रकृतिविशेषमात्र कारणसे सम्बन्ध रखता है। * उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२२१. क्योंकि दोनों ध्रुवबन्धी होनेसे इनका स्वामी समान विषयसे सम्बन्ध रखता है तो भी प्रकृति विशेषका आश्रय कर पूर्व प्रकृतिसे इसके विशेष अधिकके सिद्ध होनेमें कोई विरोध नहीं पाता। * उससे क्रोध संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है। ६२२२. गुणकार क्या हे ? एकका चतुर्थभाग अधिक छहरूप गुणकार है, क्योंकि कषायके चतुर्थभागके साथ नोकषायोंका समस्त भाग क्रोधसंज्वलनरूप से परिणत होता हुआ उपलब्ध होता है। यहाँ पर संरष्टिके लिये मोहनीयका समस्त द्रव्य ४० ग्रहण करना चाहिए । उसका अर्धमात्र कषायका द्रव्य इतना है २० । नोकषायोंका द्रव्य भी इतना ही होता है २०। पुनः इसका पाँचवाँ भागमात्र पुरुषवेदका उत्कृष्ट संक्रम इतना होता है ४ । इसे छहसे गुणा करके उसने इसका चतुर्थभाग अधिक करने पर क्रोधसंज्वलनका द्रव्य इतना होता है २५ । • उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२२३. कितना अधिक है ? पाँचवाँ भागमात्र अधिक है । उसकी संदृष्टि ३० है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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