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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिपेदेससंकमे संकमट्ठाणा ि ठविय जोगगुणगारेण गुणिदे पयदविसयुक्तस्सदन्धं होइ । एत्थ जहण्णदव्वेणुकस्सदव्वे भागे हिदे भागलद्धमोकडकड्डणभागहार० - बेछावट्ठि ० अण्णोष्णन्मत्थरासि जोगगुणगाराणमण्गोण्णसंवग्गमेत्तं होइ । पुणो एदेण भागल द्वेण रूवणेण जहण्णदव्वे गुणिदे जहण्णदव्वकस्सदवादी सोहिय सुद्ध सेसदव्यमागच्छइ । ४५३ -एय ९ ७४५. संपहि एवं दव्यं संतकम्मपक्खेवपमाणेण कस्सामो । तं जहा - जहण्णसंतकम्ममेत्तदव्वादो जइ विज्झादभागहारबे असंखेज्ज लोगाणमण्णोण्णभासजणिंदरासिमेत्ता संतकम्मपक्खेवा लब्भंति तो ओकडकड्डण ० भागहारवेछावट्ठि- अण्णोष्णन्मत्थरासि जोगगुणगाराणमणोष्णसं त्रग्गज णिद रूवणरा सिमेतजह संत कम्मे केत्तियमेत्ते संतकम्मपक्खेवे लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओबट्टिदाए ओकड्डु० भागहारवेछावसागरोवम अण्णोष्णन्भत्थरा सि- जोगगुणगार - विज्झाव भागहार वेअसंखेज लोगाणमण्णोष्णसंवग्गमेत्ता संतकम्मपक्खेवा लद्धा हवंति । तदो इमे छब्भागहारे अण्णोन=मत्थसरूवे विरलेऊण पुब्बिन्लसुद्ध सेसदन्धे समखंड करिय दिण्णे बिरलणरूवं पडि एगे संत कम्म पक्वपमाणं पावेदि त्ति एत्थुप्पण्णा से ससंतकम्मट्ठाणपरिवाडीणमायामो विरलणरा सिमेत्तो चैव होइ । णवरि जहण्णसंतकम्मविसयजहण्णपरिवाडीसंगहणमेसा - प्रकार स्थापित कर उत्कृष्ट द्रव्य लानेकी इच्छा से डेढ़ गुणहानि से गुणित एकेन्द्रिय सम्बन्धी एक समय प्रबद्धको स्थापित कर योगगुणकारके द्वारा गुणित करने पर प्रकृत विषय सम्बन्धी उत्कृष्ट द्रव्य होता है । यहाँ पर जघन्य द्रव्यका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देने पर जो लब्ध श्रावे वह अपकर्षणउत्कर्षणभागद्दार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्तराशि और योगगुणकारके परस्पर संवर्गित प्रमाण होता है । पुनः एक कम इस भाग लब्धसे जघन्य द्रव्य के गुणित करने पर जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट द्रव्य में से घटा कर शुद्ध शेष द्रव्य आता है । ९ ७४५. अब इस द्रव्यको सत्कर्म प्रक्षेप प्रमाण करते हैं। यथा- एक जघन्य सत्कर्ममात्र द्रव्यसे यदि विध्यात भागद्दार और दो असंख्यात लोकोंके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशि - प्रमाण सत्कर्म प्रक्षेप प्राप्त होते हैं तो अपकर्षण- उत्कर्षणभागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और योगगुणकार के परस्पर संवर्गसे उत्पन्न हुई एक कम राशिप्रमाण जघन्य सत्कर्मों में कितने सत्कर्म प्रक्षेप प्राप्त होंगे इस प्रकार फल गुणित इच्छा में प्रमाणका भाग देने पर अपेकर्षण- उत्कर्षणभागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, योगगुणकार, विध्यात भागद्दार और दो असंख्यात लोकोंके परस्पर संवर्गमात्र सत्कर्मप्रक्षेप प्राप्त होते हैं । इसलिए परस्पर गुणितरूप इन छह भागद्दारोंका विरलनकर पूर्व के शुद्ध शेष द्रव्यको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक विरलन के प्रति एक एक सत्कर्म प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ पर उत्पन्न हुई समस्त सत्कर्मस्थान परिपाटियोंका आयाम विरलन राशिप्रमाण ही होता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि जघन्य सत्कर्मविषयक जघन्य परिपाटीका संग्रह करनेके लिए यह विरलन एक अधिक करना
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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