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४३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ७१३. कि कारण ? पुव्युत्तेणेव कमेणागंतूण सण्णिपंचिदिएसु अप्पप्पणो पडिक्क्वबंधगद्धं गालिय सगधपारंभादो समयाहियावलियाए वट्टमाणस्स पुग्विल्लसंतादो विसेसाहियसंतकम्मविसयत्तेण पडिवष्णजहणभावत्तादो। एवमोघपरूवणा समत्ता एत्तो आदेसपरूवणा च विहासियब्वा ।
तदो पदणिक्खेशे समतो।। * वड्डीए तिरिण अणियोगदाराणि समफित्तणा सामित्तमप्पापहुभं च ।
. ६७१४. एत्तो पदेससंकमस्स. बड्डी कायचा। तत्थ समुक्त्तिणादीणि तिण्णि अणियोगद्दोराणि णादव्याणि भवंति । अण्णस्थ बढीए तेरस अणियोगाद्दाराणि कथमेत्य तेसिमंतब्भावो ? ण, देसामासयमावणेस्थ तेसिमंत भावदसणादो।
* समुकित्तणा।
६७१५. जुगमं वोत्तमसत्तीदो पढम ताव समुक्त्तिणा कायव्या ति भणिदं होइ । तत्थोघादेसमेएण दुविहणिदेससंभवे ओघसमुक्त्तिणं ताव कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ ।
8 मिच्छत्तस्स अत्थि असंखेजभागवड्डिहाणी असंखेनगुणवड्डिहाणी श्रवट्ठाणमवत्तव्वयं च ।
६:१३ क्योंकि पूर्वोक्त क्रमसे ही अाकर संज्ञी पञ्चेन्द्रियों में अपने अपने प्रतिपक्ष बन्धक कालको गलाकर अपने बन्धके प्रारम्भ होनेसे लेकर एक समय अधिक एक प्रावलिके अन्तमें विद्यमान हुए जीवके पहले के सत्कर्मसे विशेष अधिक सत्कर्मके विषयरूपप्ले जघन्यपना प्राप्त होता है। इस प्रकार अंवत्ररूपमा समाप्त हुई । श्रागे श्रादेशप्ररूपणाका व्याख्यान करना चाहिए।
इसके बाद पदनिक्षेप समाप्त हुआ। * वृद्धि में तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ।
७१४. श्रागे प्रदेशसंक्रम वृद्धि करनी चाहिए । उसमें समुत्कीर्तना आदि तीन अनुयोगद्वार जानने चाहिए।
शंका-अन्यत्र वृद्धिके तेरह अनुयोगद्वार कहे हैं इनमें उनका अन्तर्भाव कैसे होता है ? समाधान--देशामर्पकभावप्ते इसमें उनका अन्तर्भाव देखा जाता है। * समुत्कीतना करनी चाहिए ।
६७१५. एक साथ सवका कथन करना शक्य न होनेसे सर्व प्रथम समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसका ओघ और प्रादेशसे दो प्रकारका निर्देश सम्भव है, उसमें सर्वप्रथम ओघ समुत्कोतना को करते हुए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं
* मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्यपद होते हैं।