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________________ गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे समुक्कित्तणा ६७१६. मिच्छत्तपदेससंकमविसये एदाणि पदाणि संभवंति त्ति समुकितिदं होदि । संपहि एदेसि पदाणं संभवविसयो वुच्चदे । तं जहा पुव्वुप्पण्णसम्मत्तपच्छायदमिच्छाइट्ठिणा वेदयसम्मत्ते पडिवण्णे तस्स पढमावलियाए अवत्तव्यपुरस्सरो असंखेजभागवद्धिसंकमो होइ । अवट्ठाणं पि विसयंतरपरिहारण तत्थेव दट्ठव्यं, मिच्छाइद्विचरिमावलियणवकबंधवसेण तत्थ तदुभयसंभवे विरोहाभावादो। पुणो सम्मत्तं घेत्तण चिट्ठमाणस्स वेदयसम्यत्तकालभंतरे सव्वत्थेवासंखेऊभागहाणी होद्ग गच्छइ जाव दंसणमोहक्खवयअधापवत्तकरणचरिमसमयो ति । तदो अपुयाणियट्टिकरणेसु गुणसंकमवसेणासंखेजगुणवड्डिसंकमो जायदे । अण्णं च उवसमसम्मत्तग्गहणपढमसमए ‘अवत्तव्यसंकमो होदूण पुणो गणसंकमकालभंतरे सव्वत्थेवासंखेजगणवडिसंकमो होइ, तत्थ पयारंतरासंभवादो । पुणो तत्थेव गणसंक्रमादो विज्झादपदिदपढमसमयम्मि असंखेजगुणहाणी जायदे । तत्तो परमसंखेजभागहाणी चेव एवमेदेसि संभवो अस्थि ति कादण तेसिमेत्थ समुक्त्तिणा कदा । ® एवं बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं । ६७१७. जहा मिच्छत्तस्स असंखेजभागवतिहाणि-असंखेजगुणवतिहाणिअवट्ठाणाणमवत्तव्यसहगयाणमत्थित्तं समुक्कित्तिदं एवमेदेसि पि कम्माणं समुकित्तेयध्वं, विसेसा ६७१६. मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम होने पर ये पद सम्भव है यह कहा गया है। अब ये पद किस विषयमें सम्भव हैं यह कहते हैं। यथा-जो पहले सम्यक्त्वको उत्पन्न कर मिथ्यादृष्टि हुया है उसके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करने पर उसकी प्रथम आवलिमें अवक्तव्य संक्रमपूर्वक असंख्यात भाग वृद्धि संक्रम होता है । विषयान्तरका परिहार कर अवस्थित पद भी वहीं पर जानना चाहिए, क्योंकि मिथ्यादृष्टिकी अन्तिम आवलिमें हुए नवकबन्धके कारण वहाँ पर उन दोनोंके सम्भव होने में विरोध नहीं है। पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण कर ठहरे हुए जीवके वेदकसम्यक्त्वके कालके भीतर सर्वत्र असंख्यातभाग हानि होकर जाती है जो दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के अन्तिम समय तक होती है। उसके बाद अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें गुणसंक्रमके कारण असंख्यातगुण वृद्धिसंक्रम होता है। दूसरे उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रम होकर पुनः गुणसंक्रमके कालके भीतर सभी जगह असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम होता है, क्योंकि वहाँ पर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । पुनः वहीं पर गुणसंक्रमसे विध्यातसंक्रममें आने पर उसके प्रथम समयमें असंख्यातगुणहानि संक्रम होता है। उसके बाद असंख्यातभाग हानिसंक्रम ही होता है । इस प्रकार ये संक्रम सम्भव हैं ऐसा करके उनकी यहाँ पर समुत्कीर्तना की है। * इसी प्रकार बारह कपाय, भय और जुगुप्साके विषयमें जानना चाहिए। ६ ७१७. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुण. वृद्धि, असख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके साथ प्राप्त हुए संक्रमोंके अस्तित्वकी समुत्कीर्तना की उसी प्रकार इन कर्मों के उक्त संक्रमांकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए, क्योंकि कोई
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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