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________________ गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि ૪૫૭ जाव गणिदकम्मंसियअधापवत्तचरिमसमयपोओग्गुक्कस्ससंकमदवं पत्तं ति । संपहि तस्सेव संतकम्मे ओदारिजमाणे गोवुच्छदव्यं विज्झादसंकमदव्यमेत्तं पुणो एगसमयमोकड्डणाए विणासिददव्यमेत्तं च वड्डाविय द्विदचरिमसमयअधापवत्तकरणो च अण्णेगो पुव्वविहाणेणागंतूण दुचरिमसमए द्विदो च दो वि सरिसा । एवं जाणिऊणोदारेयव्यं जाब विज्झादसंकमपढमसमयो ति । एवमोदारिदे मिच्छत्तस्स विज्झादसंकममस्सिऊण हाणपरूवणा समत्ता होइ। ६७५०. संपहि सुत्तसामित्तमस्सिऊण हाणपरूवणे कीरमाणे बेछावद्विसागरोवमाणि सागरोवमपुधत्तं च पयदपरूवणाए विसयो होइ ? तत्थ कालपरिहाणीए संतकम्मोदीरणाए च एसो चा भंगो णिरवसेसमणुगंतव्यो, विसेसोभावादो। णवरि भज-भागहारविसयं किंचि णाणत्तमत्थि त्ति तं जाणिय वत्तव्यं । एवमुप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणमसंखेजलोगमेत्तविक्खंभायामाणं एगपदरागारेण रचणं कादूण एत्थ पुणरुत्तापुणरुत्तभावपरिक्खा कीरदे । तं जहा ६७५१. पढमपरिवाडिजहण्णसंकमट्ठाणमसंखेजलोगेहिं खंडेऊण तत्थेयखंडे तम्मि चेव पडिरासिय पक्खित्ते तत्थेव विदियसंकमट्ठाणं होइ । पुणो एदेण असंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणपरिवाडीओ समुल्लंघिऊणावट्ठिदसंकमट्ठाणपरिवाडीए पढमसंकमट्ठाणं च समाणं चाहिए । अब उसी के सत्कर्मके उतारने पर विध्यातसंक्रमसम्बन्धी द्रव्यके बराबर गोपुच्छाके द्रव्यको और एक समयमें अपकर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाकर स्थित हुआ अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरण जीव तथा पूर्वोक्त विधिसे आकर द्विचरम समयमें स्थित हुआ जीव ये दोनों समान हैं। इस प्रकार जानकर विध्यातसंक्रमके प्रथम समयके प्राप्त होनेतक उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर विध्यातसंक्रमके आश्रयसे मिथ्यात्वकी स्थानप्ररूपणा समाप्त होती है। ६७५०. अब सूत्र में निर्दिष्ट स्वामित्वका आश्रय लेकर हानि प्ररूपणाके करने पर दो छयासठ सागर और पृथक्त्व प्रमाणकाल प्रकृत प्ररूपणका विषय होता है । वहाँ पर काल परिहानिके आश्रयसे और सत्कर्मकी उदीरणाके आश्रयसे यही भंग पूरी तरहसे जानना चाहिए, क्योंकि इसमें उससे कोई विशेषता नहीं है । किन्तु भज्यमान-भागहारविषयक कुछ भेद है सो उसे जानकर कहना चाहिए। इस प्रकार उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थानोंके असंख्यात लोकप्रमाण विष्कम्भरूप आयामोंकी एक प्रतराकाररूपसे रचना करके यहाँ पर पुनरुक्त और अपुनरुक्तभावकी परीक्षा करते : हैं । यथा ६७५१. प्रथम परिपाटीसम्बन्धी जघन्य संक्रमस्थानको असंख्यात लोकोंसे भाजित कर उसमेंसे एक खण्डके उसीमें प्रतिराशि बनाकर प्रक्षिप्त करने पर वहीं पर दूसरा संक्रमस्थान होता है । पुनः असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान परिपाटियोंको उल्लंघन कर अवस्थित संक्रमस्थान परिपाटीका प्रथम संक्रमस्थान इसके समान होता है। शंका-वह कैसे ?
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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