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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ त्ति । कुदो उण तारिसस्स संकमभेदस्स भुजगार-ववएसो १ ण, बहुदरीकरणं च भुजगारो त्ति तस्स तव्ववएसोववत्तीदो। ® एपिंह पदेसअप्पदरगे संकामेदि ओसकाविदे बहुदरपदेससंकमादो । एस अप्पयरसंकमो। ३०६. अत्रापि पूर्ववत्पदघटना, ततोऽयं सूत्रार्थः-इदानीमल्पतरकान् प्रदेशान् संक्रामयतीत्ययमल्पतरसंक्रमः । कुतोऽल्पतरत्वमिदानीतनस्य प्रदेशसंक्रमस्य विवक्षितमिति चेदनन्तरातिक्रान्तसमयसम्बन्धिबहुतरप्रदेशसंक्रमविशेषादिति । ॐ ओसकाविदे एण्हिं च तत्तिगे चेव पदेसे संकामेदि त्ति एस अवहिदसंकमो। ६३०७. अनन्तरव्यतिक्रान्तसमये साम्प्रतिके च समये तावत एव प्रदेशाननूनाधिकान् संक्रामयतीत्यतोऽवस्थितसंक्रम इत्युक्तं भवति ।। .. असंकमादों:संकामदि त्ति अवत्तव्वसंकमो। ६३०८. पूर्वमसंक्रमादिदानीमेव संक्रमपर्यायमभूतपूर्वमास्कन्दयतीत्यस्यां विवक्षायामवक्तव्यसंक्रमस्यात्मलाभ इत्युक्तं भवति । अस्य चावक्तव्यव्यपदेशोऽवस्थात्रयपति'एसो' अर्थात् इस प्रकारके लक्षणवाला भुजगार संक्रम जानना चाहिए। शंका-इस प्रकारके संक्रमके भेदकी भुजगार संज्ञा क्यों है ? समाधान नहीं, क्योंकि बहुतर करना भुजगार है, इसलिए इसकी भुजगार संज्ञा बन जाती है। * अनन्तर व्यतीत हुए समयमें हुए बहुतर संक्रमसे वर्तमान समयमें अल्पतर प्रदेशोंका संक्रम करता है यह अल्पतर संक्रम है। ६ ३०६. यहाँ पर भी पहलेके समान पदघटना है, इसलिए सूत्रका अर्थ इस प्रकार होता हैइस समय अल्पतर प्रदेशोंको संक्रमाता है, इसलिए यह अल्पतर संक्रम है। इस समयके प्रदेशोंका अल्पतरपना किसकी अपेक्षासे विवक्षित है ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं कि अनन्तर व्यतीत हुए समय सम्बन्धी बहुतर प्रदेशसंक्रम विशेषकी अपेक्षासे यह विवक्षित है । * अनन्तर व्यतीत हुए समयमें और वर्तमान समयमें उतने ही प्रदेशोंको संक्रमाता है यह अवस्थितसंक्रम है। ६३०७. अनन्तर व्यतीत हुए समयमें और वर्तमान समयमें न्यूनाधिकतासे रहित उतने ही प्रदेशोंको संक्रमाता है, इसलिए यह अवस्थित संक्रम है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * असंक्रमसे प्रदेशोंको संक्रमाता है यह अवक्तव्य संक्रम है। . . ६३०८. पहले असंक्रमरूप अवस्था थी उससे इस समय ही संक्रमरूप अभूतपूर्व पर्यायको प्राप्त होता है इस प्रकार इस विवक्षाके होने पर अवक्तव्य संक्रमका आत्मलाभ होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसकी अवक्तव्य संज्ञा अवस्थात्रयके प्रतिपादक शब्दोंके द्वारा अनभिलाप्य
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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