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________________ गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भजगारो ३५१ ६५०६. परियत्तमाणबंधपयडीसु भुजगारप्पयरकालस्स अंतोमुहुत्तपमाणस्स अण्णोbणंतरभावेण समुवलद्धीए विसंवादाणुवलंभादो। एवमेदेण बीजपदेण सेसमग्गणा वि जाणिऊण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । * पाणाजीवेहि भंगविचयो। ६५०७. अहियारसंभालणपरमेदं सुत्तं । * अट्ठपदं कायव्वं । F५०८. तत्थ भंगविचये अद्रुपदं ताव कायन्वं; अण्णहा तबिसयणिण्णयाणुप्पत्तीदो। ॐ जा जेसु पयडी अत्यि तेसु पयदं । ६५०६. जेसु जीवेसु जा पयडी अस्थि, तेसु चेव पयद। कुदो ? अकम्मेहि अव्ववहारादो। * सव्वजीवा मिच्छत्तस्स सिया अप्पयरसंकामया च असंकामयाच। ६५१०. एत्थ सबजीवणिद्दे सेण मिच्छत्तसंतकम्मियसव्वजीवाणं गहणं कायव्वं । कुदो १ एवमणंतरणिहिट्ठपदसामत्थियादो। तेसु अप्पयरसंकामया असंकामया च णियमा अस्थि । कुदो ? मिच्छत्तप्पयर-संकामयवेदयसम्माइट्ठीणं तदसंकामय मिच्छाइट्ठीणं च सव्वकालमवट्ठाणणियमदंसणादो । 8५०६. क्योंकि परिवर्तमान बन्ध प्रकृतियोंमें भुजगार और अल्पतर संक्रमका उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त प्रमाण है। उसके परस्पर अन्तरकाल रूपसे उपलब्ध होने में कोई विसंवाद नहीं पाया जाता । इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार शेष मार्गणाप्रोमें भी जानकर अनाहारक माणा तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल समाप्त हुआ। * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्ग विचयका अधिकार है। ६५०७. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र है। * उसमें अर्थपद करना चाहिए। ६५०८. उसमें अर्थात् भङ्गविचयमें सर्व प्रथम अर्थपद करना चाहिए अन्यथा उसके विषय का निर्णय नहीं हो सकता। * जिनमें जो प्रकृति विद्यमान है उनमें प्रकृत है। ६५०६. जिन जीवोंमें जो प्रकृति विद्यमान है उनमें ही प्रकृत है, क्योंकि कर्मरहित जीवोंका यहाँ उपयोग नहीं है। * सब जीव मिथ्यात्वके कदाचित् अल्पतर संक्रामक हैं और असंक्रामक हैं। ६५१०. यहाँ पर सर्व जीव पदके निर्देश द्वारा मिथ्यात्वके सत्कर्म वाले सब जीवोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अनन्तर निर्दिष्ट अर्थपदकी सामर्थ्यसे ऐसा ही निर्णय होता है। उनमें अल्पतर संक्रामक और असंक्रामक जीव नियमसे हैं, क्योंकि मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्राम वेदक सम्यग्दृष्टियों के और मिथ्यात्वके असंक्रामक मिथ्यादृष्टियोंके सर्वदा अवस्थानका नियम देखा जाता है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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