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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिपदेस कमे सामित्त १६६ गंतूण अप्पष्पणो दुरिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयउव्वेल्लमाण्यस्स तरस जहणओ पदेससंकमो । ६ ६६. एसो वातरणिद्दिष्ट्ठो मिच्छत्तजहण्णसामित्ताहिमुहो खविदकम्मंसियजीवो दंसणमोहक्खवणाए अणभुट्टिय पुत्रमेवतोमुहुत्तमत्थि त्ति संकिले समावरिय परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गदो तो अंतोमुहुत्तेणुव्वेल्लणमाढविय पलिदो० असंखे ० भागमेत्तकालं गंतूण जहाकममप्पप्पणो दुरिमट्ठिदिखंडयस्स चरिमसमय उच्वेल्लमाणगो जादो तस्स पयदकम्माणं जहण्णसामित्तं होदि । चरिमुव्वेल्लगकंडयचरिमफालीए जहण्णसामित्तमेदं किण्ण दिvi ? ण, तत्थ सव्त्रसंकमेण संकमंताणं सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णभावविरोहादो | तो क्खहि चरिमट्ठिदिखंडयदुचरिमादिकालीसु पयदसामित्तविहाणं कस्सामो ति णासंकणिज्जं, तत्थ वि गुणसंक्रमसंभवेण जहण्गभावाणुत्रवतीदो । § ७०. एत्थ जहण्णसामित्त विसई कयदव्त्रयमाणमेवमण गंतव्यं । तं जहा – छावट्ठिसागरोत्रमाणमादीए पढमसम्मत्तमुप्पाए तेग मिच्छत्तस्स दिवडुगुणहाणिमेत्तएइ दियसमयपत्रद्धेहिंतो सम्मत-सम्मामिच्छताणमुवरि गुणसंक्रमेण संका मिददव्त्रमुकडणपडिमा गिय बताकर जब वह अपने अपने द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम समय में उलना करता है तब उसके उक्त कर्मो का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । ६६. यही अनन्तर पूर्व कहा गया मिथ्यात्वके जघन्य स्वामित्व के अभिमुख हुआ क्षपितकर्माशिक जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत होने के अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही संक्लेशको पूरकर परिणामवश मिथ्यात्वमें गया । अनन्तर अन्तर्मुहूर्तमें उद्वेलना आरम्भ करके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालको बिताकर जब क्रमसे अपने अपने द्विचरम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उद्वेलना करनेवाला हुआ तब प्रकृत कर्मोंका जघन्य स्वामित्व होता है । * शंका — अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके समय यह जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया ? समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर सर्वसंक्रमके द्वारा संक्रमको प्राप्त हुए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्यपना होने में विरोध आता है। शंका- तो अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरम आदि फालियोंके समय प्रकृत स्वामित्वका कथन करना चाहिए ? समाधान - ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ पर भी गुणसंक्रम सम्भव होनेसे जघन्यपना नहीं बन सकता । § ७०. यहाँ पर जघन्य स्वामित्वके विषयभावको प्राप्त हुए द्रव्षके प्रमाणका अनुगम करना चाहिए । थथा - दो छयासठ सागरप्रमाण कालके प्रारम्भ में प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके जो मिथ्यात्वके डेढ़ गुणहानिप्रमाण एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धों मेंसे गुणसंक्रम भागहारके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके ऊपर द्रव्य संक्रमित होता है उसमेंसे उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्य
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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