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________________ २१६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे संका • जहण्णुक० एयस० । अणु० जह० अंतोसु०, सम्म० -सम्मामि ० सव्वेसिमुक अंतोमु० । [ बंधगो ६ ० एगस०, 1 ६८. मणुसतिए मिच्छ० सम्म० तिरिक्खभंगो । सम्मामि :- सोलसक० णवणोक० उक० पदे ० संका • जहण्णु० एयस० । अणुक० जह० अंतोमु०, सम्मामि० अनंताणु ०४ एयस०, उक्क०' तिष्णि पलिदो ० पुव्त्रको ० । ० ६ ६६. देवेसु मिच्छ० उक्क० पदेससंका • जहण्णुक्क० एयस०, अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमं । एवं बारसक० - णवणोक० । सम्म० णारयभंगो । सम्मामि०-अणंताणु०४ उक्क० पदे०संका० जह०गु० एयस० । अणु० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीस सागरोत्रमं । एवं भवणादि णवगेवज्जा ति । णरि सगट्ठिदी । अणुद्दिसा दि सव्त्रट्ठा त्ति मिच्छ० - सम्मामि० उक्क० पदे ० संका ० जहष्णु० एयस० । अणु० जह० जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय है और सबका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । त्रिशेषार्थ — उक्त जीवोंपें एक मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होनेसे मिध्यात्वका प्रद ेशसंक्रम सम्भब नहीं, इसलिए उसके कालका निर्देश नहीं किया। शेष प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बन जानेसे उक्त प्रमाण कहा है। मात्र सम्यक्त्व और सम्य मिथ्यात्वका जघन्य काल नारकियोंके समान एक समय भी वन जाता है, इसलिए उसका अलगसे निर्देश किया है। शेष कथन सुगम है । ६८. मनुष्यत्रिक में मिथ्यात्व और सम्यक्यका भङ्ग तिर्यञ्चों के समान है । सम्य मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानन्धी चतुष्कका एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । विशेषार्थ – मनुष्यत्रिककी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य होनेसे इनमें सम्यग्मिभ्यात्त्र आदि छब्बीस प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहां है । मात्र सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जवन्य काल एक समय भी बन जाता है, इसलिए इसका अलग से निर्देश किया है। शेष कथन सुगम है । § ६६. देवोंमें मिथ्यात्त्रके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जवन्य काल अन्तम हूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकपायोंका भङ्ग जानना चाहिए। सम्यक्त्रका भङ्ग नारकियोंके समान है । सम्यग्मियात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार भवनवासी देवोंसे लेकर नौ प्रवेयक तकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अनुदिशले लेकस्सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में मिध्यात्व १. ता० - श्रा० प्रत्योः श्रंतोमु०, उक्क० इति पाठः ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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