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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिपदेससंकमे संक मट्ठा ि पाणं पवई । संकखे मागहारो पुग असंखेजलोगमेत्तो, अधापवत्तभागहारवे असंखेञ्ज लोग-रूवणजोगगुणगाराणमण्णोष्णस वग्गज णिदरासिपमाणत्तादो । पुणो एदेसु बिरलणरासिमेचस तकम्म पक्खेवेसु पढमरूवधरिदसंतकम्मपक्खेवपमाणं घेत्तण पडिरासीकयजहण्णसंतकम्मट्ठा णस्सुवरि पक्खित्ते विदियं सतकम्मट्ठा णमस' खेज्जलो गंभागुत्तरमुपदि । पुणो विदियरूबोवरि द्विदसतकम्म पक्खेवे विदियस कमट्ठाणं पडिरासिय पक्ख दियस कम्माणं होई । एवमेदेण विधिणा अस खेज लोगमेत्तस तकम्म पक्खेवे धेत्तणुप्पण्णुकस्सस तकम्म' पडिरासिय परिवाडीए पक्खित्त पच्चक्खाणलोहस्सासंखेज्जलोगेमेतसंतकम्मट्ठाणाणि समुप्पण्णाणि भवंति । एदेण कमेणुप्पण्णा संखेज्जलोगमेत्तसंतकम्मट्ठाणाणमेगेग संतकम्मम्मि पादेकमसंखेज्जलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि भवंति, सत्थाणमिच्छाइट्ठिम्मि अधापवत्त संकमपाओग्गाणमसंखेञ्ज लोगमेत्तपरिणामट्ठाणाणमत्थिते पडि - सेहाभावाद । तदो रियगदीए एत्तियमेत्तसंक्रमट्ठाणाणि पंच्चक्खाणलोभपडिबद्धाणि होंति वि सिद्धं । ४८६ ८१४. संपहि मिच्छत्तस्स वि णिरयगइप डिबद्धाणि असंखेज लोगमेत्ताणि चैव संक्रमट्ठाणाणि होंति । तं जहा - खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण वेछावट्ठीओ भभिय मिच्छत्तं गंतूण समयाविरोहेण रइएसुत्रवज्जिय अंतोमुहुतेण पुणो वि सम्मत्तं घेत्तूण तदो अंतो मुहुत्तूणतेत्तीसंसा गरोवमाणि तत्थ भट्ठिदिमणुपालिय अंतोमुत्तसेसे सगाउए क्योंकि वह अधःप्रवृत्तभागहार, दो असंख्यात लोक और एक कम योगगुणकारके परस्पर संवर्गसे उत्पन्न हुई राशिप्रमाण है । पुनः इन विरलन राशिप्रमाण सत्कर्मप्रक्षेपोंमेंसे प्रथम रूपके प्रति प्राप्त सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणको ग्रहण कर प्रतिराशिकृत जघन्य सत्कर्मस्थान के ऊपर प्रक्षिप्त करने पर असंख्यात लोक भाग अधिक दूसरा सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है । पुनः विरलन के दूसरे रूपके ऊपर स्थित सत्कर्म प्रक्षेपको दूसरे सत्कर्मस्थानको प्रतिराशि करके उसके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर तीसरा सत्कर्मस्थान होता है । इस प्रकार इस विधि से असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्म प्रक्षेपोंको ग्रहण कर उत्पन्न हुए उत्कृष्ट सत्कर्मको प्रतिराशि कर क्रमसे प्रक्षिप्त करने पर प्रत्याख्यान लोभके असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मस्थान उत्पन्न होते हैं, इस क्रमसे उत्पन्न हुए असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मस्थानोंमें से एक एक सत्कर्म में अलग अलग असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मस्थान होते हैं, क्योंकि स्वस्थान मिध्यादृष्टिके अधःप्रवृत्तसंक्रमके योग्य असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थानों के अस्तित्व में कोई प्रतिषेध नहीं है । इसलिए नरकगतिमें प्रत्याख्यान लोभसे सम्बन्ध रखनेवाले इतने संक्रमस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ । ९ ८१४ अब मिथ्यात्वके भी नरकगति से सम्बन्ध रखनेवाले असंख्यात लोक प्रमाण ही संक्रमस्थान होते हैं । यथा - क्षपितकर्माशिक लक्षणसे आकर तथा दो छ्यासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर मिध्यात्वको प्राप्त हो समय के अविरोध पूर्वक नारकियोंमें उत्पन्न हो अन्तर्मुहूर्त में फिर भी सम्यक्त्वको ग्रहण कर फिर अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर काल तक वह भवस्थितिका पालन कर अपनी आयु में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर सम्यक्त्व के अन्तिम समय में विद्यमान ६२
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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