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________________ ४८८ जयधवला सहिदे कसायपाहुढे * लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * पच्चक्खाणमाणे पदेससंक मट्ठाणाणि विसे साहियाणि । * कोहे पदेससंकमट्ठाषाणि विसेसाहियाणि । * मायाए पदेस संक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * लोह पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ८१२. दाणि सुत्ताणि पयडिबिसेसमेतकारणपडिबद्धाणि सुगमाणि । * मिच्छत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ९८१३ तं जहा - पच्चक्खाण लोभस्स ताव णिरयगइप डिवद्धाणि असंखेज्ज़लोगमेत्ताणि संकमट्ठाणाणि भवंति । तं कथं ? खविदकम्मं सयलक्खणेणागदासष्णिपच्छायदणेरइयपढमसमयम्मि सन्त्रजहण्णसंकमपाओग्गं पच्चक्खाणलोमजहण्णसंत कम्मट्ठाणं होइ पुणो म्हादो उवरि परमाणुत्तरादिकमेण संतकम्मे वड्डाविज्जमाणे जाव गुणिदकम्मंसियस्स / पच्चक्खाण लोभसं कम पाओग्गुकस्ससंत कम्मट्ठाणे ति ताव चत्तारि पुरिसे अस्सिऊण वडिदु संभवों अस्थि ति जहण्णसंतद्वाणमुक्कस्ससंतकम्मट्ठाणादो सोहियं सुद्धसेसद विरलिय संतकम्मपक्खेवभागहास्स समखंड काढूण दिपणे एक कस्स रूवस्स सव्वकम्मपक्खेव * उनसे लोभमें प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे प्रत्याख्यानमान में प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे क्रोधमें प्रदेश क्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे माया में प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे लोभमें प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । [ बंधगो ६ ६ ८१२. प्रकृति विशेषमात्र कारणसे सम्बन्ध रखनेवाले ये सूत्र सुगम हैं । * उनसे मिथ्यात्वमें प्रदेशसं क्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं । ९८१३. यथा— प्रत्याख्यान लोभके तो नरकगतिसम्बन्धी संक्रमस्थान असंख्यात लोकमात्र होते हैं । शंका- वह कैसे ? समाधान — पितकर्मा' शिकलक्षण के साथ असंज्ञियोंमेंसे आये हुए नारकी के प्रथम समय सबसे जघन्य संक्रमके योग्य प्रत्याख्यान लोभका जघन्य संत्कर्मस्थान होता है । पुनः इससे ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे सत्कर्मके बढ़ाने पर गुणितकर्माशिक जीवके प्रत्याख्यान लोभके संक्रमके योग्य उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक चार पुरुषोंका आश्रय कर वृद्धि करना सम्भव है, इसलिए जघन्य सत्कर्मस्थानको उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानमेंसे घटाकर शुद्ध शेष द्रव्यका विरलन कर उसके ऊपर सत्कर्मप्रक्षेपभागद्दारके समान खण्ड कर देयरूपसे देने पर एक एक रूपके प्रति सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। सत्कर्मप्रक्षेपभागद्दार तो असंख्यात लोकप्रमाण है,
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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