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________________ ४६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बधगो ६ सम्माइद्विचरिमसमयन्मि वट्टमाणस्स मिच्छत्तजहण्णसंकमपाओग्गं जहण्णसंतकम्मट्ठाण होदि । एदम्हादो उपरि परमाणुतरादिकमेण जाव मिच्छत्तसंकमपाओग्गुकस्ससंतकम्मद्वाणं पावदि ताव वड्डिदु संभवो ति जहण्णदव्यमुक्कस्सदव्वादो सोहिय सुद्धसेसम्मि संतकम्मपक्खेवपमाणाणुगम कस्सामो । तं जहा ६८१५. सुद्धसेसदव्यमोकड्डक्कड्डणभागहार-वेछावद्विसागरोवमकालभंतरणाणागुणहाणिसलागण्णोण्णबभत्थरासि-तेत्तीस०अण्णोण्णभत्थरासि-विज्झादभागहार-वेअसंखेजलो.. जोगगुणगाराणमेदेसि सत्तण्हं रासीणमण्णोण्णसंवग्गजणिदरासिमसंखेजलोगपमाणं विरलिय समखंडं कादूण दादच्वं । एवं दिण्णे एक कस्स स्वस्स एगेगसंतकम्मपक्खेवपमाणं पावदि। ८१६. संपहि एदे विरलणरासिमेत्तसंतकम्मपक्खेबे घेत्तूण मिच्छत्तजहण्णसंतवाणं पडिरासिय परिवाडीए पक्खित्ते असंखेजलोगमेत्तागि चेव संतकम्मट्ठाणाणि मिच्छत्तपडिबद्धाणि भवंति । एदेहितो समुप्पज्जमाणसंकमट्ठाणाणि वि असंखेजलोगमेत्ताणि होदण पच्चक्खाणलोभसंकमट्ठाणेहितो असंखेजगुणहीणाणि होति । तत्थतणसंकमपाओग्गसंतकम्मवियप्पेहितो एत्थतणसंकमपाओग्गसंतकम्मवियप्पाणमसंखेजगुणत संते कुदो एस संभवो ति णासंकणिजं, संतकम्माणं तहाभावे विज्झादसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणेहितो अधापवत्तसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणमसंखेजगुणाहियत्तब्भुवगमादो । णाब्भुवगममेतउसके मिथ्यात्वका जघन्य संक्रमके योग्य जघन्य सत्कर्मस्थान होता है। इसके ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे मिथ्यात्वके संक्रमके योग्य उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ान। सम्भव है, इसलिए जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट द्रव्ममेंसे घटाकर जो शुद्ध शेष रहे उसमें सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणका अनुगम करेंगे। यथा ८१५. शुद्ध शेष द्रव्यको अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, दो छयासठ सागर कालके भीतर उत्पन्न हुई नाना गुणहानिशालाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, तेतीस सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, विध्यातभागहार, दो असंख्यात लोक और योगगुणकार इन सात राशियोंके परस्पर संवर्गसे उत्पन्न हुई असंख्यात लोकप्रमाण राशिका विरलन कर उस पर समखण्ड करके देना चाहिए। इस प्रकार देने पर एक एक रूपके प्रति एक एक सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। ८१६. अब इन विरलन राशिप्रमाण सत्कर्मप्रक्षेपोंको ग्रहण कर मिथ्यात्वके जघन्य सत्कर्मस्थानको प्रतिराशि कर क्रमसे प्रक्षिप्त करने पर असंख्यात लोकप्रमाण ही मिथ्यात्वसे सम्बन्ध रखनेवाले सत्कर्मस्थान होते हैं। तथा इनसे उत्पन्न हुए संक्रमस्थान भी असंख्यात लोकप्रमाण होकर प्रत्याख्यान लोभके संक्रमस्थानोंसे असंख्यातगुणे हीन होते हैं। . शंका-वहाँके संक्रमप्रायोग्य सत्कर्मविकल्पोंसे यहाँके संक्रमप्रायोग्य सत्कर्म विकल्प असंख्यातगुणे होने पर यह सम्भव कैसे है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि संक्रमस्थानोंके वैसा होने पर विध्यातसंक्रमके कारणभूत परिणामस्थानोंसे अधःप्रवृत्तसंक्रमके कारणभूत परिणामस्थान असंख्यात
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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