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________________ २१८ जयधवनासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ६१०१. आदेसेण जेरइय० मिच्छ० जह० पदे०संका० जहण्ण एयस० । अजह० जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्म० ओघं। सम्मामि०. अर्णताणु०४ जह० पदे०संका० जहण्ण० एयस० । अजह० जह० एयस०, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सत्तणोकसांय० । णवरि अज० जह० अंतोमु० । बारसक०भय-दुगुछ० जह० पदे०संका० जहण्णु० एयस० । अजह० जह० दसवस्ससहस्साणि समयूणाणि, उक्क० तेतीसं सागरो । एवं सतमाए। णवरि बारसक०-भय-दुगुछ० अज० जह० वावीसं सागरो । अणंताणु०४ अंतोमु० । होता है, इसलिए उसका सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। अब रहा अजघन्य प्रदेशसंक्रमके कालका विचार सो सम्यग्दर्शनका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर होनेसे मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्नुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है। यहाँ पर साधिक छयासठ सागरसे उपशम सम्यक्त्व और मिथ्यात्वकी क्षरणा होनेके पूर्व तकका वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल लेना चाहिए। उसमें भी जब तक मिथ्यात्वका संक्रमण होता रहता है उस समय तकका काल लेना चाहिए। सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जधन्य काल एक समय जघन्य संक्रमके एक समय पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त कराकर ले आना चाहिए। तथा उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण इसके उत्कृष्ट उद्वेलना कालको ध्यान में रखकर ले आना चाहिए। सम्यग्मिथ्यात्वके अजवन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर जिस प्रकार अनुत्कृष्टका घटित करके बतला आये हैं उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है यह स्पष्ट ही है। ६१०१. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ठ काल कुछ कम तेतीस सागर है । सम्यक्त्वका भङ्ग ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सात नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहर्त है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका एक समय कम दसहजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रबार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, भय और जुगुप्साके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल बाईस सागर है और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ- यहाँ व आगे सर्वत्र सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपने-अपने स्वामित्वकी अपेक्षा एक समय है यह स्पष्ट है, अतः उसका सर्वत्र उल्लेख न कर केवल अजघन्य प्रदेशसंक्रमके जघन्य व उत्कृष्ट कालका खुलासा करेंगे। नरकमें सन्यक्त्वका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरको ध्यानमें रखकर यहाँ पर मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जो काल ओघके समान बतलाया है वह यहाँ भी बन जाता है, अतः इस प्ररूपणाको यहाँ पर ओघके समान जाननेकी सूचना की है । सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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