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________________ ५०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ संकमपाओग्गसतकम्मट्ठाणाणि सरिसाणि होदूण लद्धाणि भवंति । पुणो एत्थेव माणस्स संतकम्मट्ठाणाणि समताणि । कोहस्स पुण ण समप्पंति, पुनमवणेऊण पुधट्टविदपयडिविसेसमेतदव्यस्स बहिब्भावदसणादो। तेण तं पि दव्वं माणसंतकम्मपक्खेवपमाणेण कस्सामो ति पुनविरलणाए पासे अण्णो असखेजलोगभागहारो विरलेयव्यो । एदस्स पमाणं केतियं ? पुचिल्लविरलणरासोऐ असंखेज्जदिमागमेत्त । तस्स को पडिभागो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । तदो एवंभूदसं पहियविरलणाए पयडि विसेसदव्यं समखंडं करिय दिण्णे एक कस्स रुवस्साणंतरपरूविदसतकम्मपक्खेवपमाणं पावदि । एत्थेगेगरूवधरिदं घेत्तणमणुकस्ससतकम्मट्ठाणसमाणकोहस कमट्ठाणप्पहुडि परिवाडीए पक्खिविय णेदव्वं जाव संपहिय विरलणरूवमेत्ता संतकम्मपक्खेवा णिद्विदा ति । एवं णीदे माणसंतकम्मट्ठाणेहितो कोहसकमट्ठाणाणि संपहिय विरलणमेत्तसतकम्मट्ठाणेहि क्सेिसाहियाणि जादाणि ति, एदेहितो समुप्पजमाणसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि जादाणि। संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणहमिदमाह 8 एदेण कारणेण माणपदेससंकमहापाणिं थोवाणि । * कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । पर दोनोंके ही सक्रमके योग्य सत्कर्मस्थान सदृश होकर प्राप्त होते हैं। पुनः यहीं पर मानके सत्कर्मस्थान समाप्त हो गये, परन्तु क्रोधके समाप्त नहीं हुए, क्योंकि पहले निकाल कर पृथक स्थापित प्रकृतिविशेष मात्र पृथक देखा जाता है। इसलिए उस द्रव्यको भी मानसत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करते हैं, इसलिए पूर्व विरलनके पासमें अन्य असंख्यात लोक भागहारका विरलन करना चाहिए। शंका-इसका प्रमाण कितना है ? समाधान-पहलेकी विरलन राशिका असंख्यातवां भागमात्र है। शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-श्रावलिका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग हैं । अतः इस प्रकारके साम्प्रतिक विरलनके ऊपर प्रकृतिविशेषद्रव्यको समखण्ड करके देने पर एक एक रूपके प्रति अनन्तर कहे गये सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ पर एक एक रूपके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण कर अनुत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके समान क्रोधसंक्रमस्थानसे लेकर क्रमसे प्रक्षिप्त करके साम्प्रतिक विरलन रूपमात्र सत्कर्मप्रक्षेप समाप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार ले जाने पर मान सत्कर्मस्थानोंसे क्रोध संक्रमस्थान साम्प्रतिक विरलन मात्र सत्कर्मस्थानोंसे विशेप अधिक हो जाते हैं, इसलिए इससे उत्पन्न होनेवाले सत्कर्मस्थान विशेष अधिक हो जाते हैं । अब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए यह सूत्र कहते हैं * इस कारणसे मानप्रदेश संक्रमस्थान थोड़े हैं। * क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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