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________________ गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्त २०५ पढमावलियचरिमसमए अधापवत्तसंक्रमेणेदं सामित्तं कायनमिदि । जइ एवं, अपुधकरणचरिमसमए जहण्णसामित्तमेदेसिं दाहामो, अपुव्वगुणसेढिणिज्जराए णिजिण्णसेसाणं तत्थ सुङ जहण्णभावोववत्तोदो त्ति ण पचवट्ठाणं कायव्वं, तत्थतणगुणसेढिणिजरादो समयं पडि अरइ-सोगादिअवज्झमाणपयडीहितो गुणसंकमेण ढुक्कमाणदव्वस्सासंखेज्जगुणत्तेण तहा कादुमसकियत्तादो। कोहसंजलणस्स जहएणो पदेससंकमो कस्स ? ७८. सुगमं । * उवसामयस्स चरिमसमयपबद्धो जाधे उवसामिज्जमाणो उवसंतो ताघे तस्स कोहसंजलणस्स जहएणो पदेससंकमो। ७६. अण्णदरकम्मसियलक्खणेणागंतूण उवसमसेढिमारूढस्स जाधे कोषसंजलणचरिमसमयजहण्णणवकबंधो बंधावलियवदिक्कतसमयप्पहुडि संकमणावलियम्भंतरे कमेणोवसामिज्जमाणो उवसंतो ताधे तस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ त्ति घेत्तव्यं । ॐ एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । ६८० जहा कोहसंजलणस्स उवसामयचरिमसमयणवकबंधसंकमणचरिमसमयम्मि जहण्णसासित्तं दिण्ण एवमेदेसि पि कम्माणं कायव्वं, विसेसाभावादो। स्वामित्व करना चाहिए। यदि ऐसा है तो अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें इन कर्मो का जघन्य स्वामित्व देना चाहिए, क्योंकि अपूर्व गणश्रेणिनिर्जराके द्वारा निर्जीर्ण होकर शेष बचे अनन्त कर्म परमाणुओंकी अत्यन्त जघन्यरूपसे उपपत्ति बन जाती है सो ऐसा निश्चय करना ठीक नहीं है, क्योंकि बहाँ होनेवाली गुणश्रेणि निर्जराकी अपेक्षा प्रत्येक समयमें नहीं बंधनेवाली अरति और शोक आदि प्रकृतियोंमेंसे गुणसंक्रमके द्वारा प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा होनेसे वैसा करना अशक्य है। * क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? ६७८. यह सूत्र सुगम है। * उपशामकके अन्तिम समयवर्ती समयप्रबद्ध जब उपशमको प्राप्त होता हुआ उपशान्त होता है तब उसके क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। ६७६. अन्यतर क्षपितकमांशिकविधिसे आकर उपशमश्रेणि पर आरूढ़ हुए जीवके जब क्रोधसंज्वलनका अन्तिम समयवर्ती जघन्य नवकबन्ध बन्धावलिके बाद प्रथम समयसे लेकर संक्रमणावलिके भीतर क्रमसे उपशमको प्राप्त होता हुआ उपशान्त होता है तब उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। * इसी प्रकार मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए। ८०. जिस प्रकार उपशामकके अन्तिम समयवर्ती नवकबन्धके संक्रमणके अन्तिम समयमें क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्वामित्व दिया है उसी प्रकार इन कर्मों का भी जघन्य स्वामित्व करना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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