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________________ गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे समुक्त्तिणा ४३७. ___ 8 इत्यि-णवुसयवेद-हस्स-रह-अरह-सोगाणमत्थि दो वड्डी हाणीओ प्रवत्तव्वयं च । ७२३. कुदो ? एदेसु कम्मेसु असंखेजभागवहि-हाणि-असंखेजगुणबड्डि-हाणिअवत्तव्वसंकमाणं चेव संभवदंसणादो । तं कधं, एदेसि कम्माणं सगबंधकाले आवलियादीदस्स असंखेजभागवहिसंकमो चेव जाव पडिवक्खबंधगद्धापढमावलियचरिमसमओ ति । पुणो पडिवक्खबंधकाले सव्वत्थासंखेजभागहाणिसंकमो चेव, तत्थ पयारंतरासंभवादो। खवगोवसमसेढीसु गुणसंकमबसेणासंखेजगुणवहिसंकमो उवसामगस्य गुणसंक्रमादो कालं कादूर्ण देवेसुप्पण्णस्स पढमसमए असंखेजगुणहाणिसंकमो होइ । णवरि इत्थि-णवंसयवेदाणमण्णत्थ वि असंखेजगुणवहि-हाणीओ संभवंति, सम्माइडिम्मि मिच्छत्तं पडिवण्णे मिच्छाइट्ठिम्मि वि सम्मत्तगुणेण परिणदम्मि जहाकम तदुभयसंभवदंसणादो। सबोवसामणापडिवादे च सव्वेसिमवत्तव्यसंभवो दट्ठव्यो । एवं सम्बेसि कम्माणमोघसमुकित्तणा गयो । एत्तो आदेससमुकित्तणा च जाणिय णेयव्वा । ___ तदो समुक्त्तिणा समत्ता । ® सामित्ते अप्पाषहुए च विहासिदे वड्डी समत्ता भवदि । * स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकके दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्यसंक्रम होते हैं। ६७२३. क्योंकि इन कर्मों में असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यसंक्रम ही सम्भव देखे जाते हैं। शंका-वह कैसे ? समाधान -क्योंकि इन कर्मों के नवकबन्धके कालमें एक आवलिके.बाद असंख्यातभागवृद्धिसंक्रम ही होता है जो प्रतिपक्षबन्धक कालकी प्रथम प्रावलिके अन्तिम समय तक होता हैं। पुनः प्रतिपक्ष बन्धक कालके भीतर सर्वत्र असंख्यातभागहानिसंक्रम ही होता है, क्योंकि यहाँ पर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । क्षपक और उपशमनेणियोंमें गुणसंक्रमके कारण असंख्यात गुणवृद्धिसंक्रम होता है। उपशामक जीवके गुणसंक्रमसे मरकर देवोंमें उत्पन्न होने पर प्रथम समयमें असंख्यातगुणहानिसंक्रम होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके पन्यत्र भी असंख्यातगणवृद्धिसंक्रम और असंख्यातगुणहानिसंक्रम सम्भव है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवके मिश्यात्वको प्राप्त होनेपर तथा मिथ्यादृष्टि जीवके भी सम्यक्त्वगुणरूपसे परिणत होनेपर क्रमसे वे दोनों संक्रम सम्भव देखे जाते हैं। सर्वोपशामनासे गिरने पर सभी कर्मों का अवक्तव्यसंक्रम सम्भव देखा जाता है । इस प्रकार सब कर्मों की ओघसमुत्कीर्तना समाप्त हुई । आगे आदेशसमुकीर्तना जानकर कर लेनी चाहिए। इसके बाद समुत्कीर्तना समाप्त हुई। * स्वामित्व और अन्पहत्वका व्याख्यान करने पर वृद्धि समाप्त होती है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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