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________________ गा०५८ उत्तरपडिपदेससंकमे सामित्त २०३ ६७४. सुगम। * एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु ागदो, संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो, चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइंदिएमु गदो, असंखेज्जाणि वस्साणि अच्छिदो जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलंति । तदो तसेसु ागदो, संजमं सव्वलहुं लडो, पुणो कसायक्खवणाए उवहिदो तस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए अट्ठएहं कसायाणं जहएणो पदेससंकमो। ७५. एत्थ एई दियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगमणकारणं पुन्वं व वत्तव्यं । एवमणेयवारं सम्मत्ताणविद्धसंजमादिपरिणामेहि गुणसेढिणिज्जरं कादूण पुणो चदुक्खुत्तो कसायोवसामणाए च वावदो। एत्थ . वि कारणं गुणसेढिणिज्जराबहुत्तं गुणसंकमेण बहुदव्वावणयणं च दट्टन्छ । एवमेत्थ गुणसेढिणिज्जराए बहुदनगालणं कादण पुणो वि मिच्छत्तपडिवादेणेइ दिएसु पइट्ठो त्ति जाणावणहमिदं वयणं-'तदो एईदिएसु गओ' ति । णेदं णिरत्थयं, पलिदो० असंखे०भागमेत्तमप्पयरकालं तत्थच्छिऊण ट्ठिदिखंडयघादवसेणवसामयसमयपबद्धं गालणाए सहलत्तदसणादो ति पदुप्पायण?मेदं वुत्तं—'असंखेज्जाणि वस्साणि अच्छिदो' इच्चादि । ण च तत्थतणबंधबहुत्तमस्सिऊण पयदत्थविहडावणं जुत्तं, ६७४. यह सूत्र सुगम है। * जो एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें आया। संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्त किया। तथा चार बार कषायोंका उपशमं करके अनन्तर एकेन्द्रियोंमें गया। वहाँ उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोके गलनेमें लगनेवाले असंख्यात वर्ष काल तक रहा । अनन्तर त्रसोंमें आकर और अतिशीघ्र संयमको प्राप्त कर पुनः कषायोंकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें आठ कषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। ६७५. यहाँ पर एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कर्मके साथ त्रसोंमें आनेके कारणका पहलेके समान कथन करना चाहिए । इस प्रकार अनेक वार सम्यक्त्वसे युक्त संयम आदि रूप परिणामोंके द्वारा गुणश्रेणिनिर्जरा करके पुनः चार बार कषायोंकी उपशामना करनेमें व्याप्त हुआ। यहाँ पर गुणश्रेणिनिर्जराके बहुत्वरूप और गुणसंक्रमके द्वारा बहुत द्रव्यके अपनयनरूप कारणको जानना चाहिए । इस प्रकार यहाँ पर गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा बहुत द्रव्यका गालन करके फिर भी मिथ्यात्वमें गिरकर एकेन्द्रियोंमें प्रविष्ट हुआ इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'अनन्तर एकेन्द्रियोंमें गया' यह बचन कहा है और यह वचन निरर्थक भी नहीं है, क्योंकि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अल्पतर काल तक वहाँ रहकर स्थितिकाण्डकघातके वशसे उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंकी गलनेरूप सफलता देखी जाती है, इसलिए इस बातके कथन करनेके लिए 'असंख्यात वर्ष तक रहा' इत्यादि वचन कहा है। यदि कहा जाय कि वहाँ पर होनेवाले बहुत बन्धके आश्रयसे प्रकृत
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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