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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
१७५४. संपहि जहण्णसंतद्वाणप्पहुडि अंगुलस्सा संखेज दिमागमेत्तमुवरि चढिदसंतकम्मट्ठाणद्धाणमेगखंडयपमाणं करिय तदो एरिसाणि एक-दो-तिणिआदि जाव असंखेज लोगमेत्तखंडयाणि गंतूणादि संत (म्म पढमपरिवाडिपट मसंकमट्ठाणादो तत्थेव विदियसंक्रमणविसेसमेतदव्वं पवि होइ । विज्झादभागहारेणुवरिमविरलणमोट्टिय तत्थ लद्धरूत्रमे तकंडएस गदेसु जं संतकम्मट्ठाणं तत्थ संकमट्ठाण विसेसमेतदव्वं संतकम्मरूण पट्टमिद जं वृत्तं होइ ।
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९७५५. संपहि एत्तियमेत्तदव्वे पविट्ठे जं संतकम्मट्ठाणं तस्स जहण्णसंकमट्ठाणं जहण्णसंतङ्काणविदियसंकमा रोग सह सरिस होइ, आहो ण होदि ति पुच्छिदेण होदि । किं कारणं ? जहण्णसंतद्वाणादो णिरुद्धसंतट्ठाणम्मि अहियदव्वमवणिय पुध विदू पुणो से सदम्म अंगुलस्सासंखेज दिभागेण भागे हिदे भागलद्धं जहण्णसंतट्ठाण' पढमसंकमट्ठाणं च दो त्रिव सरिसाणि । पुणो अवणिददव्यस्स वि तेणेव मागो घेप्पदि त्ति अंगुलस्सा संखेजदिभागमेत हेट्ठिमविरलणाए तम्मि दव्त्रे समखंड करिय दिष्णे तत्थेयरूत्रधरिदमेत्तमेत्थ संकमसरूवेण वडिददव्त्रं होई । एदं घेत्तूण पडिरा सिदजहण्णसंकमट्ठाणम्मि पक्खित्ते निरुद्धसंतद्वाणपढम संकमट्ठाणमुप्पजदि । एदं च हेट्ठिमट्ठाणेसु विसह सरिसं ण होदि, जहण्णसंकमद्वाणादो संक्रमट्ठाणवि से सस्सा संखेजदिभागमेत्तदव्वेणान्भहियत्तादो |
§ ७५४. अब जघन्य सत्कर्मस्थान से लेकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण ऊपर प्राप्त हुए सत्कर्मस्थान के अध्वानको एक खण्ड प्रमाण करके वहाँसे इसी प्रकारके एक, दो और तीन से लेकर असंख्यात लोकप्रमाण खण्ड जाकर स्थित हुए सत्कर्मस्थानमें प्रथम परिपाटी के प्रथम संक्रमस्थानसे वहीं पर दूसरे संक्रमस्थानका विशेषमात्र द्रव्य प्रविष्ट होता है । बिध्यात भागद्दारसे उपरि विरलनको भाजित कर वहाँ पर जितने रूप प्राप्त हों उतने काण्डकोंके जाने पर जो सत्कर्म स्थान है उसमें संक्रमस्थान विशेषमात्र द्रव्य सत्कर्मरूपसे प्रविष्ट हुआ है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
७५५. अब इतनेमात्र द्रव्यके प्रविष्ट होनेपर जो सत्कर्मस्थान है उसका जघन्य संक्रमस्थान जघन्य सत्कर्मस्थानके दूसरे संक्रमस्थानके समान होता है या नहीं होता है ऐसा पूछने पर नहीं होता है, क्योंकि जघन्य संत्कर्मस्थानरूपसे विवक्षित सत्कर्मस्थानमेंसे अधिक द्रव्यको घटाकर और पृथक् स्थापित कर पुनः शेष द्रव्यमें अंगुलके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उतना जघन्य सत्कर्मस्थान और प्रथम संक्रमस्थान होता है, इसलिए ये दोनों समान हैं । पुनः घटाये गये द्रव्यका भी उसी प्रकार भागग्रहण करना चाहिए, इसलिए अंगुल के श्रसंख्यातवें भागप्रमाण अघस्तन विरलनके ऊपर उसी द्रव्यको समान खण्ड करके देने पर वहाँ एक अंकके प्रतिजितना द्रव्य प्राप्त हो उतना यहाँ पर संक्रमरूपसे वृद्धिको प्राप्त हुआ द्रव्य होता है । इसे प्रहण कर प्रतिराशिरूप जघन्य संक्रमस्थानमें प्रक्षिप्त करने पर विवादित सत्कर्म स्थानका प्रथम संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । और यह अधस्तन स्थानोंमें किसीके भी साथ समान नहीं होता है, क्योंकि जघन्य संक्रमस्थानसे संक्रमस्थानविशेष असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यरूपसे अधिक होता है ।