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________________ १४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बंधगो ६ . ६५३०. दसणमोहक्खवणाए अणंतगुणहाणिसंभवो हाणीदो अण्णत्थ सव्वत्थोवावट्ठाणसंकमसंभवो असंकमादो संकामयत्तमुवगयम्मि अवत्तव्यसंकमो तिण्हमेदेसिमेत्थ संभयो ण विरुज्झादे । सेसपदाणमेत्य णत्थि संभवो। ___ अणंताणुबन्धोणमथि छव्विहा वड्डी छव्विहा हाणी अवठ्ठाणमवत्तव्वयं च। ६५३१. मिच्छत्तभंगेणेत्र छब्भेयभिण्णवढि हाजोगमवट्ठाणस्स य संभवधिसयो गिरवसेसमेत्थाणुगंतव्यो । अवत्तव्यसंकमो पुण मिसंजोयणापुत्रसंजोगे दट्टयो। ॐ एवं सेसाणं कम्माणं। $ ५३२. एत्थ सेसग्गहणेण बारसक०-णवणोक०गहणं कायव्यं । तेसिमणंताणुबंधीणं व छववि-हाणि-अट्ठाणावत्तव्ययाणं समुकित्तगा कायया, विसेसाभावादो। णारि सव्योवसामणापडिवादे अबत्तासंभवो वत्तव्यो । एत्रमोघो समत्तो।। ५५३३. आदेसेण मणुसतिए ओघभंगो । सेससव्यमगणासु विहत्तिभंगो । ५३०. दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें अनन्तगुणहानि सम्भव है, हानिके सिवा अन्यत्र सर्वत्र ही अवस्थानसंक्र । सम्भव है और असंक्रमसे संक्रमरूप अवस्थाको प्राप्त होने पर अवक्तव्यसंक्रम होता है । इस प्रकार इन तीनोंका सद्भाव यहाँ पर विरोधको नहीं प्राप्त होता। मात्र शेप पद यहां पर सम्भव नहीं है। * अनन्तानुबन्धियोंके छह प्रकारको वृद्धियाँ, छह प्रकारको हानियाँ, अवस्थान और अवक्तव्यपद होते हैं। । ६५६१. जिस प्रकार मिथ्यात्वक प्रसङ्गसे कथन कर आये हैं उसी प्रकार छह प्रकारकी वृद्धियों यह प्रकारकी हानियों और अवस्थानकी सम्भावना पूरी तरह से यहाँ पर जान लेना चाहिए। परन्तु अवक्त संक्रम विसंयोजनापूर्वक संयोगके होने पर जानना चाहिए। * इसी प्रकार शेष कर्मों के विषय में जानना चाहिए। ६५३२. यहाँ पर शेष पदके ग्रहण करनेसे वा ह कपाय और नौ नोकपायोंका ग्रहण करना चाहिए । अर्थात् उनके अनन्तानुबन्धियोंके समान छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थान और अवक्तव्यपदोंकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए, क्योंकि उनके कथनसे इनके तथनमें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि सर्वोपशमनासे गिरने पर अक्तव्यपद सम्भव है ऐसा कहना चाहिए। इस प्रकार ओघनरूपणा समाप्त हुई। ६५३३. आदेशसे मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भड़ा है। शेष सब मार्गणाओं में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकर्म ओघप्ररूपणकी सव विशेषताएँ सम्भव होनेसे उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है । परन्तु गतिसम्बन्धी अन्य सब मार्गणाओंमें ओघसम्बन्धी सब प्ररूपणा घटित न होकर अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग बन जानेसे उनमें अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है। इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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