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________________ ४२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधमा ६ ६७०६. किं कारणं ? उवसमसेढोए सव्वुकस्सगुणसंकमदव्वं पडिच्छिय कालं कादूण देवेसुववण्णस्स समयाहियावलियाए अणूणाहियतकालभावे अधापवत्तसंकमेण हाणिववहारब्भुवगमादो। हीयमाणसंकमदब्बे पमाणत्तेण घेप्पमाणे को एत्थ दोसो चे ? ण, तहावलंबिजमाणे पुचिल्लावट्ठाणदव्यादो एदस्स विसेसाहियत्तं मोत्तणासंखेजगुण. हीणत्तप्पसंगादो । णेदमसिद्धं, हीयमाणदव्यागमणटुं दिवडगुणहाणीए अधापयत्तभागहारवग्गस्स पडिभागदसणादो । तं जहा-उवसामगचरिमसमयसव्वुकस्सगुणसंकमदव्येण सहदिवड्डगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धे ठविय तेसिमधापवत्तभागहारेणोबट्ठणाए कदाए आवलियोववण्णदेवस्स तप्पाओग्गुक्कस्सअधापयत्तसंकमदधमागच्छदि । पुणो तमेगभागं मोत्तण सेसबहुभागे घेत्तण अण्णेण अधापयत्तभागहारेण भागे हिदे भागलद्धमेत्तं समयाहियावलियदेवस्स हाणिसाभित्तविसयमधापवत्तसंकममदव्वं होइ । पुणो पुबिल्लदव्वादो कय सरिसच्छेदादो एदम्मि दव्वे सोहिदे सुद्धसेसदव्यमागच्छदि । तं पुण पुधसमयसंफमदव्यं अधापवतभागहारेण खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तं होइ । तदो सुद्धसेसदव्यागमग8 अधापरत्तभागहारवग्गो, दिवगणहाणीए पडिभागो वि सिद्धं । तम्हा सेसदबावलंबणे विरोसाहियत्तमेदस्स ण संभवदि ति अणणाहियसामित्तसमयसंकमदनमेव घेत्तण विसेसाहियत्तमेवमणुगंतव्वं । तं कधं ? अवठ्ठाणसंक्रमो णाम सत्थाणगुणिदकम्मंसियस्स तप्पाओग्गुकस्स ६७०६. क्योंकि उपशम श्रेणिमें सर्वोत्कृष्ट गुणसंक्रमद्रव्यको संक्रमित कर तथा मरकर देवों में उत्पन्न हुए जीवके एक समय अधिक एक आवलिकाल होने पर न्यूनाधिकतासे रहित अधा प्रवृत्तसंक्रमके द्वारा हानिव्यवहार स्वीकार किया है। शंका-हीयमान द्रव्यको प्रमाणरूपसे ग्रहण करने पर यहाँ पर क्या दोष है ? समाधान-नहीं. क्योंकि प्रमाणके विषयरूपले अवलम्बन करने पर पहलेके अवस्थानद्रव्यसे यह विशेषाधिक न होकर संख्यातगुणा हीन प्राप्त होता है। और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि हीयमान द्रव्य लाने के लिए डेढ़ गुणहानि अधःप्रवृत्त भागहारके वर्गका प्रतिभाग देखा जाता है । यथा-उपशामकके अन्तिम समयमें सर्वोत्कृष्ट गुणसंक्रम द्रव्यके साथ डेढ़गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंको स्थापितकर उनके अधःप्रवृत्तसंक्रम भागहारसे भाजित करने पर देवों में उत्पन्न होनेके एक प्रावलिके अन्तमें तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य आता है। पुनः उसमें से एक भागको छोड़कर शेष बहुभागको ग्रहणकर अन्य अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना देवके एक समय अधिक एक आवलिके अन्तमें हानिसम्बन्धी स्वामित्वविषयक अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य होता है। पुनः पहलेके द्रव्य में से समान छेद करके इस द्रव्यके घटाने पर शुद्ध शेष द्रव्य पाता है । परन्तु वह पूर्व समयके संक्रमद्रव्यको अधःप्रवृत्तभाग हारके द्वारा भाजित करने पर वहाँ एक खण्डप्रमाण होता है, इसलिए शुद्ध शेष द्रव्यको लानेके लिए अधःप्रवृत्तभागहारका वर्ग डेढगुणहानिका प्रतिभाग होता है यह सिद्ध हुआ। इसलिए शेष द्रव्यका अवलम्बन करने पर इसका विशेष अधिकपना सम्भव नहीं है, अतः न्यूनाधिकतासे रहित स्वामित्व समयभावी संक्रमद्रव्यको ही ग्रहण कर विशेषाधिकपना ही जानना चाहिए ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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