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________________ ४२७ गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो संतकम्मविसयत्तेण पडिलद्धक्कस्सभावो । हाणिसंस्मो पुण गुणिदकम्मंसियसत्थाणुकस्ससंतकम्मादो गणसंक्रमलाहबसेण सिसाहियउवसामसेविणिवंधणुकस्ससंतकम्मपडिवतो। तेण विसेसाहियतमेदस्स तत्तो ण विज्झदे, रिसाहियतकम्मविसयसंकमस्स वि तहाभावसिद्धीए विरोहाभावादो। तम्हा णिजरापरिसुद्धगुणसंकमलाहस्सासंणेजभागमेत्तविसेसाहियपमाणमिदि घेत्तव्यं । संपहि एदमेव णथमस्सिऊग बढीए विसेसाहियत्तपदुप्पायणट्ठभुत्तरसुत्तमाह। * वड्डी विसेसाहिया। ६७०७. केत्तियमेतो एत्थ विरोसो ? खगगणसंकमलाहस्सासंखेजभागमेतो। कि कारणं ? उभयत्थ अणणाहियअधापयत्तसंकमण सामित्तपडिलंभे : समाणे संते उपसमसेढिगुणसंकमलाहादो असंखेजगणलगसंक्रमलाहमेतेणुकस्सडिविसयसंतकम्मस्स विसेसाहियत्तदंसणादो। ण च विसेसाहियसंतकम्मादो समुप्पण्णसंकमस्स विसेसाहियत्तमसि, कारणाणुसारिकजपवुत्तीए सव्यत्याडिबंधाभावादो। कारणे कजुवयारेणावट्ठाणादिसंकमणिबंधणसंतकम्माणमेवेदमप्पाबहुअमिदि वा पयदत्थसमत्थणा कायद्या, विरोहाभावादो । सव्वत्थ सुद्धसेसदव्यालंबणेणाप्पाबहुअपरूवणं कादूण एत्थ पयारंतरावलंबणे शंका--वह कैसे ? समाधान--स्वस्थान गुणितकर्मा शिक जीवके तत्यायोग्य उत्कृष्ट सत्कर्म विषयरूपसे जो उत्कृष्टता प्राप्त होती है वह अवस्थान संक्रम है। परन्तु गुणितकर्माशिकके स्वस्थान उत्कृष्ट सत्कर्मकी अपेक्षा गुणसंक्रमरूप लाभके कारण उपशमणिनिमित्तक विशेष अधिक उत्कृष्ट सत्कर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला हानिसंक्रम है, इसलिए उससे इसका विशेष अधिकपना विरोधको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि विशेष अधिकसत्कर्मविषयक संक्रमके भी उस प्रकारसे सिद्ध होने में कोई विरोध नहीं आता । इसलिए निर्जरा परिशुद्ध गुणसंक्रम सम्बन्धी लाभके असंख्यातवें भागमात्र विरोषाधिकका प्रमाण है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए । अब इसी नया आश्रय लेकर वृद्धि के विशेष अधिकपनेका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं * उससे वृद्धि विशेष अधिक होती है। ६७०७. शंका -यहाँ पर विशेष प्रमाण कितना है ? समाधान-क्षपकके गुणसंक्रम सम्बन्धी लाभके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि उभयत्र न्यूनाधिकतासे रहित अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा स्वामित्वकी प्राप्ति समान होने पर उपशम श्रेणिमें प्राप्त हुए गुणसंक्रमविषयक लाभसे क्षपकसम्बन्धी असंख्यातगुणे संक्रमविषयक जो लाभ है उतनी वृद्धिविषयक सत्कर्ममें विशेषाधिकता देखो जाती है : और विशेष अधिक सत्कर्मसे उत्पन्न हुए संक्रमकी विशेष अधिकता असिद्ध है यह बात भी नहीं है, क्योंकि सर्वत्र कारण के अनुसार कार्यकी प्रवृत्ति होनेमें कोई रुकावट नहीं है। अथवा कारणमें कार्यका उपचार कर अवस्थानादि संक्रमकारणक सत्कर्मोंका ही यह अल्पबहुत्व है ऐसा प्रकृत अर्थका समर्थन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा अर्थ करनेमें विरोधका अभाव है। सर्वत्र शुद्ध शेष द्रव्यका अवलम्बन कर अल्पबहुत्वका
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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