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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ पुव्त्रावरविरोहो होह त्तिण पञ्चवट्ठेयं, जत्थ जहावलंविजमाणे सुत्तविरोहो ण होइ, तत्थ ता वक्खाणावलंबणादो। अधवा सुद्ध सेस दव्वावलंबणे वि जहा विसेसाहियत्तं ण विरुज्झदे ता वक्खायन्त्रं, सुहुमदिट्ठीए णिहालिजमाणे तत्थ विसेसाहियत्तं मोत्तण पयारंतरावलंभादो । एसो एत्थ परमत्थो । एवमोघेणुकस्सप्पा बहुअं परूविदं । एदीए दिसाए आदेसपरूवणा वि कायव्त्रा । तदो उकस्सप्पा बहुअं समत्तं । ४२८ * एतो जहण्णयं । १७०८. एतो उवरि जहण्णयमप्पा बहुअं वत्तइस्सामो त्ति पइण्णावकमेदं । तस्स दुविहो णिद्द सो ओघासभेएण । तत्थोघपरूवणा ताव कीरदे, तत्तो चैव देसामा सयमावेणादेस परूवणावगयोववत्तीदो । * मिच्छत्तर-सोलसकसाय- पुरिसवेद-भय-दुर्गुछाणं जहरिणया वड्डी हाणी अवद्वाणं च तुल्लाणि । ९७०६. कुदो ? एदेसि कम्माणमेगसंतकम्मपक्खेवावलंबणेण जहण्गवड्डि- हाणिअडाणा सामित्त पडिलंभादो । कथन किया जाता है । किन्तु यहाँ पर प्रकारान्तरका अवलम्बन करने पर पूर्वापरका विरोध होता है सो ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि जहाँ पर जिस प्रकारसे अवलम्बन करने पर विरोध नहीं होता है वहाँ पर उस प्रकारके व्याख्यानका अवलम्बन लिया है। अथवा शुद्ध शेष द्रव्यका अवलम्बन करने पर भी जिस प्रकार विशेषाधिकपना विरोधको नहीं प्राप्त होवे उस प्रकार व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर वहाँ पर विशेपाधिकपनेको छोड़कर दूसरा प्रकार उपलब्ध नहीं होता । यह यहाँ पर परमार्थ है । इस प्रकार ओघ से उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका कथन किया । इसी पद्धतिसे आदेश प्ररूपणा भी करनी चाहिए । इसके बाद उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । * आगे जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है । § ७०८. इसके श्रागे जघन्य अल्पबहुत्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है । और देश के भेदसे उसका निर्देश दो प्रकारका है । उसमें सर्व प्रथम प्ररूपणा करते हैं, क्योंकि उसीके द्वारा देशामर्षकभावसे आदेश प्ररूपणाका ज्ञान हो जाता है । * मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तुल्य है । § ७०६. क्योंकि इन कर्मों के एक. सत्कर्म प्रक्षेपका अवलम्बन करनेसे जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानका स्वामित्व प्राप्त होता है । १ आ. प्रतौ एसोत्थ ता. प्रतौ, एसो [ ए ] स्थ इति पाठः । २. ता० प्रतौ मिच्छत्त [ स ] सोलस - दि० प्रतौ मिच्छत्तस्स सोग्लस - इति पाठः ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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