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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो दंसणादो | एवं पढमसम्मत्तप्पत्तीए विदियादिसमएस अंतोमुहुत्तमेत्तगुणसंकमकालपडिबद्धं भुजगार संकमसामित्तं परूविय - पयारंतरेण वि तस्स संभवपदुष्पायणमुवरिमत्तं मणइ । * जो वि दंसणमोहणीयक्खवगो पुव्वकरणस्स पढमसमयमादिं कादूण जाव मिच्छ्रुत्तं सव्वसंकमेण संछुहदि त्ति ताव मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो । २६५ $ ३१७. जो विदंसणमोहणीय खत्रगो सो वि मिच्छत्तस्स भुजगार संकामगो होदित्ति एत्थ पदाहिसंबंधी । तत्थ वि अधापवत्तकरणपढमसमयप्पहुडि भुजगार संकमसामित्ताइप्प संगे तण्णिवारणमिदं वुत्तमपुव्यकरणघढमसमयमादि काढूण इच्चादि । अपुत्रकरणद्धार सव्वत्थ अणियट्टिकरणद्धाए च जाव मिच्छत्तस्स सव्त्रसंकम समयो ? ताव अंतमुत्तमेत्तकालं गुणसंक्रमेण भुजगार संकामगो होइ त्ति भणिदं होइ । वसो विदियो सामित्तपयारो शिद्दिट्ठो । संपहि तदियो वि पयारो मिच्छत्तभुजगारपदेस संक्रामयस्स संभवइति पदुप्पाएमाणो सुत्तपबंधमुत्तरमाह * जो वि पुव्वुप्परणेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो सम्मत्तमागदो तस्स पढमसमयसम्माइट्ठिस्स जं बंधादो आवलियादोदं मिच्छत्तस्स पदेसग्गं तं विज्झादसंकमेण संकामेदि । श्रावलियचरिमसमयमिच्छाइडिमादिं काढूण देखा जाता है । इस प्रकार प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होने पर द्वितीयादि समय में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण गुणसंक्रमकालसे सम्बन्ध रखनेवाले भुजगार संक्रम सम्बन्धी स्वामित्वका कथन करके प्रकारान्तरसे भी वह सम्भव है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं - * और जो भी दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव है वह अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर जिस स्थान पर सर्वसंक्रमके द्वारा मिथ्यात्वका संक्रमण करता है उस स्थान तक मिथ्यात्वका भुजगार संक्रामक है । 1 § ३१७. जो भी दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव है वह भी मिथ्यात्वका भुजगारसंक्रामक होता है इस प्रकार यहाँ पर पदसम्बन्ध करना चाहिए। उसमें भी अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समयसे लेकर भजगार संक्रमके स्वामित्वका अतिप्रसङ्ग प्राप्त होने पर उसका निवारण करनेके लिए " पूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर' इत्यादि वचन कहा है । अपूर्वकरणके काल में सर्वत्र और निवृत्तिकरण के कालमें जब जाकर मिथ्यात्वका सर्व संक्रम होता है वहाँ तक अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणसंक्रमके द्वारा भुजगार संक्रामक होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार यह दूसरा स्वामित्व प्रकार निर्दिष्ट किया है । अब मिथ्यात्वके भजगार प्रदेश संक्रामकाका तीसरा प्रकार भी सम्भव है इस बातका कथन करते हुए आगे सूत्र प्रबन्धको कहते हैं - * तथा जो भी पूर्वोत्पन्न (वेदक ) सम्यक्त्वके साथ मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वमें आया है उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके बन्धकी अपेक्षा जो एक आवलि पूर्वके अर्थात् द्विचरमावलि मिथ्यात्वके प्रदेश हैं उन्हें विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रमाता है । आवलिके १. विसयो ता० ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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