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________________ ७७ गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे णाणाजीवेहि कालो * उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। ६२४७. कुदो ? आवलि. असंखे०भागमेत्ताणं चेव णिरंतरोक्कमणवाराणमेत्थ संभवदंसणादो। 8 एदेसि कम्माणमजहरणाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति ? ६२४८. सुगमं। 8 सव्वडा। ६ २४६. एदं पि सुगमं । एवमोघो समतो । आदेसेण सधणेरइय०-सव्यतिरिक्ख मणुसअपज०-देवा जाव णवगेवजा ति हित्तिभंगो । मणुसेसु विहत्तिभंगो । णवरि इत्थि०णवंस० जह० जहण्णु० अंतोमु० । अज० सबद्धा। मणुसपज्ज०-मणुसिणी० मिच्छ०अटुक० जह० जह• एयस०, उक० अंतोमुहुत्तं । अज० सधद्धा । सेसं मणुसभंगो । णपरि मणुसिणी० पुरिस० छण्णोक भंगो । अणुदिसादि सबट्ठा त्ति विहत्तिभंगो । एवं जाव० । * उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६२४७. क्योंकि श्रावलिके असंख्यात भागप्रमाण ही निरन्तर उपक्रमणवार यहाँ पर सम्भव देखे जाते हैं। * इन कर्मो के अजघन्य अनुभागके संक्रामकोंका कितना काल है ? ६ २४८. यह सूत्र सुगम है। * सर्वदा है। ६ २४६. यह सूत्र भी सुगम है । इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और नौंवेयक तकके देवों में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । मनुष्योंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागके संक्रामकोंका काल सर्वदा है। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मिथ्यात्व और आठ कवायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजवन्य अनुभागके संक्रामकोंका काल सर्वदा है। शेष भङ्ग मनुष्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियों में पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषाथे-मनुष्यों में जिसप्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बन जाता है उस प्रकार यह काल यहां नहीं बनता, क्योंकि यहाँ पर अन्तिम अनुभागकाण्डकके पतनका काल विवक्षित है, इसलिए वह जवन्य भी अन्तर्मुहूर्त कहा है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहुर्त कहा है। यहां इतना और विशेष जानना चाहिए कि मनुष्यिनियोंमें नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसंक्रम नहीं होता, इसलिए 'मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकपायोंके समान है' ऐसा कहते समय पुरुषवेदके साथ नपुंसकवेदका उल्लेख नहीं किया है। शेष कथन सुगम है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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