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________________ १५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ५७७. एवमणेण विहाणेण पच्छाणुषुब्बीए ताव णेदव्वं जाव पढममणंतगुणहीणबंधट्ठाणमपावेऊण तत्तो उपरिमर्दुकट्ठाणं पत्तो ति । कुदो ? तेसि सव्वेसिं बंधसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणत्त सिद्धीए पडिसेहाभावादो। तत्तो हेट्ठा वि एसा चेव परूवणा होइ, किंतु एत्थंतरे को वि विसेससंभवो अस्थि ति पदुप्पाएमाणो सुत्तपबंधमुत्तरमाह * पुव्वाणुपुवीए गणिजमाणे जं चरिममणंतगणं बंधहाणं तस्स हेट्ठा अणंतरमणंतगुणहीणमेदम्मि अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि। ६ ५७८. एदस्स सुत्तस्स अत्थविहासणं कस्सामो। तं जहा-पुवाणुपुवी णाम सुहुमहदसमुप्पत्तियसव्वजहण्णसंतकम्मट्ठाणप्पहुडि छबड्डीए अवद्विदाणमणुभागबंधट्ठाणाणमादीदो परिवाडीए गणणा । ताए गणिजमाणे जं चरिममणंतगुणवंधट्ठाणं पजवसाणट्ठाणादो हेट्ठा रूवणछट्ठाणमेत्तमोसरिदूणवद्विदं तस्स हेट्ठा अणंतरमणंतगुणहीणबंधट्ठाणमपावेदूण एदम्मि अंतरे घादट्ठाणाणि समुप्पजंति । केत्तियमेत्ताणि ताणि त्ति वुत्ते असंखेजलोगमेत्ताणि त्ति तेसिं पमाणणिदेसो कदो। कदो ? रूवणट्ठाणपमाणउवरिमबंधट्ठाणेसु पादेकमसंखेजलोगमेत्ताणुभागघादहेदुविसोहिपरिणामेहिं घादिजमाणेसु रूवणछट्ठाणविक्खंभपरिणामट्ठाणायामहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं हदहदसमुप्पत्तिट्ठाणसहगयाणमसंखेजलोगत्ताणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो । ६५७७. 'एवं' अर्थात् इस विधिसे पश्चादानुपूर्वी के अनुसार प्रथम अनन्त गुणहीन बन्धस्थानको नहीं प्राप्त करके उससे आगे अष्टांकस्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए. क्योंकि उन सबके बन्धसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थानत्वकी सिद्धिमें कोई प्रतिषेध नहीं है । इससे नीचे भी यही प्ररूपणा है। किन्तु यहाँ पर अन्तरालमें कुछ विशेष सम्भव है, इसलिए उसका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं- . ___ * पूर्वानुपूर्वीसे गणना करने पर जो अन्तिम अनन्तगुणित बन्धस्थान है और उसके नीचे अनन्तरवर्ती जो अनन्तगुणहीन वन्धस्थान है, इन दोनोंके मध्यमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं। ६५७८. इस सूत्रके अर्थका व्याख्यान करते हैं। यथा-सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी सबसे जघन्य हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थानसे लेकर छह वृद्धिरूपसे अवस्थित अनुभागवन्धस्थानोंकी प्रारम्भसे परिपाटीक्रमसे गणना करना पूर्वानुपूर्वी कहलाती है। उसके अनुसार गणना करने पर जो अन्तिम अनन्तगुणित बन्धस्थान अन्तिम स्थानसे नीचे एक कम छह स्थानमात्र उतरकर स्थित है। उसके नीचे अनन्तर अनन्तगुणहीन बन्धस्थानको नहीं प्राप्त करके इस अन्तरालमें घातस्थान उत्पन्न होते हैं । वे कितने होते हैं ऐसा पूछने पर असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं इस प्रकार उनके प्रमाणका निर्देश किया, क्योंकि एक कम षट्स्थानप्रमाण उपरिम बन्धस्थानोंका अलग-अलग असंख्यात लोकप्रमाण अनभागघातके हेतभत परिणामोंके द्वारा घात करने पर हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंके साथ प्राप्त हुए असंख्यात लोकप्रमाण एक कम षट्स्थानप्रमाण विष्कम्भवाले तथा परिणामस्थानप्रमाण आयामवाले
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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