________________
गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे घादिसण्णा-हाणसण्णापरूवणा
२५ अणु० सव्वघादी देसघादी वा । जह० देसघादी । अज० सबघादी वा देसघादी वा । सम्म० उक०-अणुक०-जह०-अजह० देसघादी चे । एवं मणुसतिए । णवरि मणुसिणी० पुरिसवेद० उ०-अणुक०-जह०-अजह० सव्वघादी। सेसमग्गंणासु विहत्तिभंगो।
६७२. ढाणसण्णाणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ०पारसक०-अट्ठणोक० उक० चउट्ठा० । अणु० चउट्ठा० तिहाणि० वेढाणिओ वा । जह० विद्वाणि । अज० विठ्ठाणि० तिहाणि० चउहाणिओ वा । सम्म०-सम्मामि०-चदुसंजल०पुरिसवेद० विहत्तिमंगो। एवं मणुसतिए। णवरि मणुसिणीसु पुरिसवेद० छण्णोकसायमंगो । सेसमम्गणासु विहत्तिभंगो।
भी है और देशघाति भी है। जघन्य अनुभागसंक्रम देशघाति है। वथा अजघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाति भी है और देशघाति भी है। सम्यक्त्वका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रम देशघाति ही है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जवन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाति ही है। शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-मनुष्यिनीके पुरुषवेदकी सत्त्वव्युच्छित्ति छह नोकषायोंके साथ ही हो लेती है, इसलिए यहाँ पर मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका चारों प्रकारका अनुभागसंक्रम सर्वघाति ही बतलाया है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
६ ७२. स्थानसंज्ञानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम चतुःस्थानिक होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, या द्विस्थानिक होता है। जघन्य अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक होता है। तथा अजघन्य अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक या चतुःस्थानिक होता है। सम्यक्त्व, सम्यम्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और पुरुषवेदका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
- विशेषार्थ-स्थानसंज्ञाके प्रसङ्गसे अनुभागको चार प्रकारका बतलाया है-एकस्थानिक, विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । केवल लताके समान अनुभागको एकस्थानिक अनुभाग कहते हैं, लता और दारुके समान मिले हुए अनुभागको विस्थानिक अनुभाग कहते हैं, दारु और मस्थिके समान मिले हुए अनुभागको त्रिस्थानिक अनुभाग कहते हैं तथा दारु, अस्थि और शैलके समान मिले हुए अनुभागको चतु:स्थानिक अनुभाग कहते हैं । लताके समान एकस्थानिक अनुभाग तथा लता और दारुके अनन्तवें भाग तकका विस्थानिकअनुभाग देशघाती होता है और शेष सब अनुभाग सर्वघाति होता है। पहले मिथ्यात्व आदि कर्मोमें किस कर्मका अनुभाग किस प्रकारका है इसका विचार कर आये हैं सो उसे इस विवेचनको ध्यानमें रख कर घटित कर लेना चाहिए। यद्यपि सम्यग्मिथ्यात्वमें केवल दारुके अनन्तवें भागप्रमाण मध्यका सर्वघाति अनुभाग ही उपलब्ध होता है। फिर भी उसे उपचारसे विस्थानिक संज्ञा दी गई है। इसी प्रकार अन्यत्र सर्वघांति अनुभागों में द्विस्था निक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक संज्ञाओंकी सार्थकता घटित कर लेनी चाहिए। माना कि इन सर्वघाति अनुभागोंमें देशघातिकी सीमा तकका अनुभाग उपलब्ध नहीं होता फिर भी