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सर्वघाति और देशघाति ऐसे दो भेद हैं। अतएव संक्रमकी अपेक्षा भी उसके दो भेद प्राप्त होते हैं। उसमें भी उन संक्रमरूप अनुभागस्पर्धकोंकी एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिकरूपसे मीमांसाका नाम स्थानसंज्ञा है। अन्यत्र लता, दारु, अस्थि और शैल ये संज्ञाएँ श्राई हैं । जहाँ मात्र लतारूप अनुभाग उपलब्ध होता है उसकी एकस्थानिक संज्ञा है, जहाँ लता और दारुरूप या मात्र दारुरूप अनुभाग उपलब्ध होता है उसकी द्विस्थानिकसंज्ञा है, जहाँ दारु और अस्थिरूप अनुभाग उपलब्ध होता है उसकी त्रिस्थानिक संज्ञा है तथा जहाँ दारु, अस्थि और शैलरूप अनुभाग उपलब्ध होता है उसकी चतुःस्थानिक संज्ञा है। यहाँ मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंमेंसे किस प्रकृतिका अनुभाग घाति और स्थानकी अपेक्षा किस प्रकारका होता है इसका स्पष्टीकरण करते हए बतलाया है कि मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंका अनुभाग सर्वघाति तो होता ही है । उसमें भी वह विस्थानिक, त्रिस्थानिक या चतुःस्थानिकरूप ही होता है। एकस्थानिक नहीं होता, क्योंकि एकस्थानिक अनुभाग नियमसे देशघाति होता है। उसमें भी उत्कृष्ट अनुभाग नियमसे चतुःस्थानिक होता है और जघन्य अनुभाग नियमसे विस्थानिक होता है। शेष अनुत्कृष्ट और अजघन्य अनुभाग विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक तीनों प्रकारका होता है। सम्यगमिथ्यात्व यद्यपि सर्वघाति प्रकृति है परन्तु उसका उत्कृष्ट श्रादि चारों प्रकारका अनुभाग द्विस्थानिक ही होता है। संज्वलन और पुरुषवेदके अनुभागका विचार अक्षपक और अनुपशामकके तो मिथ्यात्वके समान हो है । मात्र उपशामक और क्षपकके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम द्विस्थानिक और सर्ववाति ही होता है जो अपूर्वकरणमें चढ़ते हुए प्रथम समयमें उपलब्ध होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक या एकस्थानिक तथा सर्वघाति या देशघाति दोनों प्रकारका होता है। इसका एकस्थानिक अनुभागसंक्रम अन्तरकरणके बाद एकस्थानिक अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके शुद्ध नवकबन्धके संक्रमणके समय और कृष्टिवेदक कालके भीतर उपलब्ध होता है। तथा देशघातिपना भी वहीं पर उपलब्ध होता है। इनका जघन्य अनुभागसंक्रम देशघाति और एकस्थानिक होता है जो यथासम्भव नवकबन्धकी कृष्टियोंके संक्रमणके अन्तिम समयमें उपलब्ध होता है और अजघन्य अनुभागसंक्रम अनुत्कृष्ट एकस्थानिक या द्विस्थानिक तथा सर्वघाति या देशघाति दोनों प्रकारका होता है। अब रही सम्यक्त्व प्रकृति सो इसका अनुभागसंक्रम नियमसे देशघाति होकर एकस्थानिक या द्विस्थानिक होता है। उसमें उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम नियमसे विस्थानिक ही होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक या एकस्थानिक दोनों प्रकारका होता है । क्षपणाके समय इसकी स्थिति अाठ वर्षकी रहने पर वहाँसे लेकर एकस्थानिक अनुभाग होता है और इससे पूर्व द्विस्यानिक अनुभाग होता है। इसका जघन्य अनुभागसंक्रम नियमसे एकस्थानिक होता है, क्योंकि एक समय अधिक श्रावलिप्रमाण निषेक रहने पर एकस्थानिक जघन्य अनुभागसंक्रम उपलब्ध होता है। तथा अजघन्य अनुभागसंक्रम एफस्थानिक या द्विस्थानिक दोनों प्रकारका होता है। स्पष्टीकरण सुगम है। इस प्रकार संज्ञाके विचारपूर्वक पूर्वमें कहे गये अनुयोगद्वारोंके क्रमसे विचार कर उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रम प्रकरण समाप्त किया गया है।
प्रदेशसंक्रम यह प्रदेशसंक्रम अधिकार है। इसका निर्देश करते हुए प्रारम्भ में बतलाया है कि मूल प्रकृति प्रदेशसंक्रम नहीं है । क्यों नहीं है इस प्रश्नका उत्तर देते हुए बतलाया है कि ऐसा स्वभाव है। बात यह है कि ज्ञानावरण कर्म अपने सत्त्वकालमे ज्ञानावरणरूप ही रहता है, दर्शनावरण कर्म दर्शनावरणरूप ही रहता है। यही व्यवस्था अन्य कर्मोकी भी है। यही कारण है कि यहाँ पर मूलप्रकृति प्रदेशसंक्रमका निषेध किया है।