SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेससंक मे संक मट्ठाारिण ८३१. सुगममेदमप्पणासुत्तं, विसेसाभावमस्सिऊण पयट्टत्तादो । णिरयगइअप्पाबहुअं णित्रयवमेत्थाणुगंतव्त्रं । णवरि अणुद्दिसादि जाव सव्त्रट्ठे ति सम्मत्तपदेससंकमडाणा णि णत्थि । सम्मामिच्छत्तपदेस संकमट्ठा णाणि च सव्वत्थोवाणि कायव्वाणि । तदो मिच्छत्ते पदेस संकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । तसो अपच्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्टणाणि असंखेजगुणाणि । तत्तो विसेसाहियकमेण वेदव्वं जाव पच्चक्खाणलोभपदेससंक्रमणाणि ति । तदो इत्थि० पदेससंकमट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि । णवुंसय० पदेससंक्रमणाणि संखेञ्जगुणाणि । हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेञ्जगुणाणि । रदीए पदेससंकमद्वाणाणि विसेसाहियाणि । एवं जाव० लोहसंजलणे त्ति दव्वं । तदो अर्णताणु०माणे पदेससंक्रमडाणाणि अनंतगुणाणि । कोह-माया लोहेसु नहाकमं विसेसाहियाणि ति एसो विसेसो सुत्ते ण वित्रक्खिओ, गइसामण्णप्पणाए भेदाभावमस्सिऊण सुत्तस्स पयट्टत्तादो । तिरिक्खगईए णत्थि किचि णाणत्तं । णवरि पंचिदियतिरिक्खअपजस उवरि भण्णमाणएइ दियप्पोबहुअभंगो । * मणुसगई ओघभंगो । ८३२. सुगममेदं, मणुसग इसामण्णप्पणाए ओमंगादो भेदावलंभादो । मणुस अपजत्तसु एवं गइमग्गणा समत्ता । ४६६ पञ्जतमणुसिणिविवक्खाए च पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । ८३१. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि विशेषाभावका आश्रय कर यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है । नरकगतिसम्बन्धी यह अल्पबहुत्व समस्त यहाँ जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व के प्रदेशसंक्रमस्थान नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्व के प्रदेश संक्रमस्थान सबसे स्तोक करने चाहिए। उनसे मिध्यात्व में प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यात - गुणे हैं। उनसे प्रत्याख्यान मानमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। इससे आगे प्रत्याख्यान लोभके प्रदेशसंक्रमस्थानोंके प्राप्त होने तक विशेष अधिकके क्रमसे ले जाना चाहिए। उनसे स्त्रीवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं | उनसे नपुंसकवेद में प्रदेशसंकमस्थान संख्यातगुणे हैं। उनसे हास्यमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे रतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान • विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार लोभसंज्वलन तक ले जाना चाहिए। उनसे अनन्तानुबन्धी मानमें प्रदेशसंक्रुमस्थान अनन्तगुणे हैं। उनसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, माया और लोभमें क्रम से विशेष अधिक हैं। यह विशेष सूत्र में विवक्षित नहीं है, क्योंकि गति सामान्यकी मुख्यतासे भेदाभावका श्राश्रय कर सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है। तिर्यञ्चगतिमें कुछ भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्व अपर्याप्तकोंमें आगे कहे जानेवाले एकेन्द्रिय सम्बन्धी अल्पबहुत्व के समान भंग है । * मनुष्यगतिमें ओघके समान भंग है । ९८३२. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि मनुष्यगति सामान्यकी विवक्षा में तथा मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंकी विवक्षामें प्रोघभंगसे भेद नहीं उपलब्ध होता । मनुष्य अपर्याप्तकों में पन्चेन्द्रिय तिर्यन, अपर्याप्तकों के समान भंग है । इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy