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________________ गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स णाणाजीवहिं कालो ११५ ६ ४१६. तेसिं चेव संखेज्जवारमणुसंधिदपवाहाणमप्पयरकालस्स तप्पमाणत्तोवलंभादो। * गवरि सम्मत्तस्स उक्कसेण अंतोमुहुत्तं । ६ ४१७. कुदो ? अणुसमयोवट्टणाकालस्स संखेज्जवारमणुसंधिदस्स गहणादो । * अवढिदसंकामया सव्वडा।। 5 ४१८. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवद्विदसंकामयपवाहस्स सव्वकालमबोच्छिण्णसरूवेणावट्ठाणादो । * अवत्तव्वसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? ६४१६. सुगमं । * जहपणेण एअसमत्रो। ६४२० संखेजाणमसंखेज्जाणं वा णिस्संतकम्मियजीवाणं सम्मत्तुप्पयणाए परिणदाणं विदियसमयम्मि पुवावरकोडिववच्छेदेण तदुवलंभादो। * उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। ६४२१. तदुवकमणवाराणमेत्तियमेत्ताणं णिरंतरसरूवेणावलंभादो । * अणंताणुबंधीणं भुजगार-अप्पयर-अवढिदसंकामया सव्वडा । ६ ४१६. क्योंकि संख्यातबार प्रवाहक्रमसे अनुसन्धानको प्राप्त हुए उन्हीं जीवोंके अल्पतर पदका काल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है। * इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल अन्तमु हुर्त है। ६ ४१७. क्योंकि संख्यात बार अनुसन्धानको प्राप्त हुए प्रति समयसम्बन्धी अपवर्तनाकालका यहाँ पर ग्रहण किया है। * अवस्थितसंक्रामकोंका काल सर्वदा है। ६.१८. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिश्यात्वके अवस्थितसंक्रामकोंका प्रवाह सर्वदा विच्छिन्न हुए बिना अवस्थित रहता है। * अवक्तव्यसंक्रामकोंका कितना काल है ? ६४१६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है। ६४२०. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित जो संख्यात या असंख्यात जीव सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेमें परिणत हुए हैं उनके दूसरे समयमें अवक्तव्य संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय उस अवस्थामें पाया जाता है जब इससे एक समय पूर्व या एक समय बाद अन्य जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न कर अवक्तव्यपदवाले न हों। * उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४२१. क्योंकि सम्यक्त्क्के अन्तर रहित उपक्रमबार इतने ही पाये जाते हैं। * अनन्तानुबन्धियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदोंके संक्रामकोंका काल सर्वदा है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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