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________________ गा ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि जहासंभवं तेसि सरिसभावदसणादो । तेणेदेसि गहणं ण कायव्यं । ६७७१. संपहि पढमसमयोपुवचरिमसमयापुयाणं पि सरिसीकरणट्ठमोवट्टणविहाणं वुच्चदे । तं जहा—पढमसमयापुचकरणदव्यमिच्छिय दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपवद्धस्स अंतोमुहुत्तोवट्टिदोकड्डक्कड्डएभागहार०बेछावहिसागरोवमअण्णोण्णब्भत्थरासिपढमसमयगुणस कमभागहारेहि ओवट्टणाए कदाए अपुवकरणपढमसमयजहण्णसं कमदव्यं होइ । पुणो अपुब्धकरणचरिमसमयजहण्णव्वमिच्छामो त्ति एवं चेव भज-भागहारविष्णासो कायव्यो । णवरि पुबिल्लगुणसकमभागहारादो असखेजगुण हीणो चरिमसमयगुणस कमभोगहारो एत्थ ठवेयव्यो । एवं ठविय हेट्ठिमरासिणा उवरिमरासिमोवट्टिय तत्थ भागलद्धपलिदोवमासखेजमाणमेत्तगुणगारेण गुणिदजहण्णदव्यमेत्तं वड्डिऊण द्विदपढमसमयापुन्धकरणपढमसंकमट्ठाणं जहण्णसंतकम्मियचरिमसमयापुधकरणजहण्णसंकमट्ठाणं च दो वि सरिसाणि । एत्तो उवरिमपढमसमयापुचकरणसंकमद्वाणाणि पुणरुत्ताणि चेव होदण गच्छंति, तेणेदेसि पि गहणं ण कायव्यं । तदो अपुचपढमसमयम्मि समुप्पण्णासंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणं हेडिमासंखेजभागविसयसंकमद्वाणाणि चरिमसमयापुबसवसंकमट्ठाणाणि च अपणरुत्ताणि होदण चिट्ठति । णवरि समाधान—क्योंकि प्रथम समय सम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंके साथ और अन्तिम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंके साथ यथा सम्भव उनको सदृशता देखी जाती है । इसलिए इनका ग्रहण नहीं करना चाहिए। ७७१. अब प्रथम समयके अपूर्वकरणके और अन्तिम समयके अपूर्वकरणके भी सदृश करने के लिए अपवर्तना विधानको कहते हैं। यथा-प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरणके द्रव्यको लानेकी इच्छासे डेढ़ गुणहानि गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धमें अन्तमुहूर्तसे भाजित अपकर्षणउत्कर्षण भागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और प्रथम समयके गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर अपूर्वकरणके प्रथम समयका जघन्य संक्रम द्रव्य होता है । पुनः अपूर्वकरणके अन्तिम समयका द्रव्य लाना इष्ट है, इसलिए इसीप्रकार भाज्य-भाजकका विन्यास करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पूर्वके गुणसंक्रमभागहारसे अन्तिम समयका गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा हीन यहाँ पर स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार स्थापित कर अधस्तन राशिसे उपरिम राशिको अपवर्तितकर वहाँ पर भागलब्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकारसे गुणित जघन्य द्रव्यमात्रको बढ़ाकर स्थित जीवके प्रथम समयके अपूर्वकरणके प्रथम संक्रमस्थान और जघन्य सत्कर्मवालेके अन्तिम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणका जधन्य संक्रमस्थान दोनों ही समान है। इससे उपरिम प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थान पुनरुक्त ही होकर जाते हैं, इसलिए इनका भी ग्रहण नहीं करना चाहिए । अतः अपूर्वकरणके प्रथम समयमें उत्पन्न हुए असंख्यात लोकपमाण संक्रमस्थानोंके अधस्तन असंख्यातवें भागके विषयभूत संक्रमस्थान और अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरणके सब संक्रमस्थान अपुनरुक्त होकर स्थित हैं। इतनी विशेषता
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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