Book Title: Gita Darshan Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002408/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाँता दर्शन भाग पांच ओशो Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य | हां अर्जुन को मैं मानकर चल रहा हूं कि वह जैसे आदमी के भीतर का, सबके भीतर का, सार-संक्षिप्त है। है भी। और कृष्ण को मानकर चल रहा हूं कि जैसे वे आज तक इस जगत में जितनी भगवत्ता के लक्षण प्रकट हुए हैं, उन सबका सार-संक्षिप्त हैं। कृष्ण जैसे इस जगत में जो भी भगवान होने जैसा हुआ है, उस सबका निचोड़ हैं। और अर्जुन जैसे इस जगत में जितने भी डांवाडोल आदमी हुए हैं, उन सबका निचोड़ है। इसलिए गीता जो है, वह दो व्यक्तियों के बीच ही चर्चा नहीं है; दो अस्तित्वों के बीच, दो दुनियाओं के बीच, दो लोकों के बीच, दो अलग-अलग आयाम जो समानांतर दौड़ रहे हैं, उनके बीच चर्चा है। इसलिए दुनिया में गीता जैसी दूसरी किताब नहीं है, क्योंकि इतना सीधा डायलाग, ऐसा सीधा संवाद नहीं है। —शेष दूसरे फ्लैप पर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PUBLISHING HOUSE Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन भाग पांच अध्याय 10-11 ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय दस 'विभूति-योग' एवं अध्याय ग्यारह 'विश्वरूप-दर्शन-योग' पर दिए गए सत्ताइस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकेलना Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বিটুনি अध्याय 10-11 भाग पांच ओशो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - - - - - - - - - - - - - T संकलनः स्वामी दिनेश भारती. स्वामी प्रेम राजेंद्र संपादनः स्वामी योग चिन्मय, स्वामी आनंद सत्यार्थी डिजाइनः मा प्रेम प्रार्थना टाइपिंगः मा कृष्ण लीला, मा देव साम्या, स्वामी सत्यम विभव डार्करूमः स्वामी प्रेम प्रसाद संयोजन ः स्वामी योग अमित फोटोटाइपसेटिंगः ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पूना मुद्रण : टाटा प्रेस लिमिटेड, बंबई प्रकाशकः रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पूना कापीराइट ः ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन सर्वाधिकार सुरक्षितः इस पुस्तक अथवा इस पुस्तक के किसी अंश को इलेक्ट्रानिक, मेकेनिकल, फोटोकापी, रिकार्डिंग या अन्य सूचना संग्रह साधनों एवं माध्यमों द्वारा मुद्रित अथवा प्रकाशित करने के पूर्व प्रकाशक की लिखित अनुमति अनिवार्य है। . विशेष राज संस्करणः दिसंबर 1992 प्रतियां : 3000 TTTTTTTTT Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका सृजन का आनंद उत्सव विगत बीस वर्षों से मैं ओशो रजनीश का साहित्य पढ़ता रहा हूं। इसे प्रचलित अर्थों में साहित्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह लिखा नहीं, बोला गया है। यह प्र-वचन है। यह साहित्य ओशो रजनीश की वाणी है। जब इसे पढ़ रहे हों तब भी यह वाणी सुनाई देती है। ऐसा नहीं है कि केवल स्थूल कान इसे सुनते हैं, आपकी अंतरात्मा भी इसे सुनती है। यह आत्म-विद्या की बुद्धत्व प्राप्त वाणी है। __ओशो रजनीश की भाषा एक अलौकिक अनुभूति है। भाषा का उपयोग तो हम सभी करते हैं। हम सोचते हैं तो भाषा के माध्यम से और उसे अभिव्यक्त करते हैं तो भी भाषा का ही उपयोग करते हैं। लेकिन हमारी भाषा एक कुशल, चतुर साधन की तरह व्यवहार करती है। हमारी भाषा, कहने के पश्चात समाप्त होती है, गतप्राण होती है। ओशो रजनीश की भाषा विचार वहन करने के साथ-साथ तत्व चिंतन भी करती है। परंपरागत परिकल्पनाओं, विश्वासों का वह कई बार कठोर होकर खंडन भी करती है। तथापि यह भाषा, कहने के बाद समाप्त नहीं होती। यह भाषा एक सर्जनशील स्थिति बन जाती है ' और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में बसे हुए चेतना केंद्र की ओर ले जाती है। सुनते हैं कि कृष्ण की बांसुरी सुनकर गोप-गोपियां, पशु-पक्षी, सरिता-सरोवर, वृक्ष-लता स्वयं को भूल जाते थे। ओशो रजनीश की भाषा उनके अधरों पर कृष्ण की बंसी हो जाती है। गीता-दर्शन के इस पांचवें खंड में, गीता के दसवें और ग्यारहवें अध्याय पर ओशो रजनीश द्वारा दिए हुए सत्ताइस प्रवचन सम्मिलित हैं। गीता का दसवां अध्याय विभूति योग कहलाता है। एक तरह से इस दसवें अध्याय की रूपरेखा नौवें अध्याय के परिशिष्ट जैसी है। साधारण मनुष्य के लिए योगमार्ग दुर्गम है। इस मार्ग से साधना का आरंभ कर समाधि की स्थिति तक पहुंचना साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं। स्वभावतः, हो सकता है हताशा में घिरकर वह इस मार्ग को ही त्याग दे। इसीलिए नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने यह आश्वासन दिया है, “जो मुझे भक्ति से युक्त होकर कोई फूल, फल, पत्ते या थोड़ा सा जल भी अर्पित करता है तो उसकी वह भेंट मैं प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता हूं।" नौवें अध्याय में उपासना की राजविद्या का विवेचन करने के उपरांत दसवें अध्याय में श्रीकृष्ण स्वयं की विभूति का अर्थात अपने प्रकट रूप का वर्णन करते हैं। यह सृष्टि परमात्मा का प्रकट रूप ही है। उनके श्रीमुख से इस विभूति-रूप का वर्णन सुनकर अर्जुन के चित्त में ईश्वर का विराट रूप देखने की इच्छा उदित होती है। वह कृष्ण से कहता है, “यदि आप समझते हैं कि मैं वह रूप देख सकता हूं तो हे योगेश्वर, आप अपना अव्यय रूप मुझे दिखाइए। अर्जुन की इच्छा-पूर्ति की खातिर भगवान उसे ग्यारहवें अध्याय में अपना विराट रूप दिखाते हैं। यह ग्यारहवां अध्याय विश्व रूप दर्शन योग के नाम से जाना जाता है। यह वर्णन काव्यात्मक रूप से भी एक अपूर्व अनुभूति देता है। ___हमने शिक्षक अनेक देखे हैं। हममें से अनेक लोगों को सिखाने का अनुभव है। जो लोग गीता सिखाते हैं वे कतिपय पांडित्यपूर्ण संदर्भ देकर गीता का अर्थ समझाते हैं। ये अर्थ उस शिक्षक की औकात से बड़े होते हैं। अतः इस शिक्षा में पांडित्य का दर्शन तो होता है परंतु प्रतीति-जन्य वाणी का स्पर्श इसे नहीं होता। ओशो रजनीश के प्रवचन सुनते हुए या पढ़ते हुए हमें यह महसूस नहीं होता कि हम कोई पांडित्यपूर्ण प्रवचन सुन रहे हैं। उनके वचनों से झरती हुई अनुभूति हमें छूती रहती है। कलकल बहता हुआ झरना कोई संगीत सिखाने का इरादा नहीं रखता। उसका होना ही एक गीत होता है, वह बाहर से अर्जित किया हुआ नहीं होता। फूल खिलता है और अपनी खुशबू बिखेरता है। ओशो के प्रवचन और सिखावन कुछ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसी ही है। वह अपनी ही धुन में बहता हुआ झरना है। वह अपनी आंतरिक सुगंध लेकर खिला हुआ सुमन है। क्या सुगंध का खिलना सुमन की हस्ती से भिन्न होता है? ___गीता हो या अष्टावक्र, झेन हो या कबीर या अन्य कोई भी विषय हो, ओशो रजनीश का बोलना ऐसा होता है जैसे भीतर से खिल उठे हों। हम जब उनके प्रवचन पढ़ते हैं या सुनते हैं तो किस अनुभव से गुजरते हैं? हम आशय की सीमाओं को लांघते हैं और उनकी इस आंतरिक खिलावट का स्वाद लेते हैं। दसवें अध्याय के प्रारंभ में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, "शृणु मे परमं वचः।” ओशो के वचनों को प्रवचन नहीं, परम वचन कहना अधिक उचित होगा। ओशो के प्रवचन पढ़ना एक ध्यान प्रक्रिया है। ऐसी प्रक्रिया जो मन और मन के समस्त द्वंद्वों के पार ले जाती है। गीता कहती है, "सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।” यह ध्यान प्रक्रिया ही गीता का सार-सूत्र है। ___ जब हम ओशो रजनीश के प्रवचन पढ़ते हैं तो एक अत्यंत विद्रोही व्यक्ति से परिचित होते रहते हैं। यह विद्रोह विध्वंसक नहीं है बल्कि आत्म-अनुभूति का ही दूसरा पहलू है। कई दफे आध्यात्मिक कोटि के प्रवचनों में एक प्रचार का पुट होता है। यहां पर एक ही समीकरण होता है : श्रद्धा अर्थात बंद आंखों से की गई बुद्धिहीन स्वीकृति। ऐसा माना जाता है कि प्रश्न पूछना या चुनौती देना अध्यात्म के खिलाफ है। इसी से अध्यात्म के नाम पर गुरुडम और अंधी संप्रदाय-निष्ठा पनपती है। ओशो रजनीश न तो कोई परंपरा का स्वीकार करते हैं न दूसरों से स्वीकार करने का आग्रह रखते हैं। प्रश्न पूछने की या चुनौती देने की मूलभूत स्वतंत्रता उनके चिंतन में अंतर्भूत ही है। यह स्वतंत्रता, यह सजगता स्वयं को खोजने की प्रक्रिया का अपरिहार्य अंग है। इस आध्यात्मिक विद्रोह की वजह से ओशो रजनीश का व्यक्तित्व विवादास्पद बन गया। जैसे ही वे परंपरागत धार्मिक विश्वासों और सांप्रदायिकता का खंडन करने लगते हैं, अनेक लोग भय से कांप उठते हैं। ___ इस तेजस्वी स्वातंत्र्य से ओशो रजनीश के समस्त प्रवचन ओत-प्रोत हैं। यह स्वातंत्र्य, अपने श्रोताओं को दी हुई ओशो रजनीश की बहुत बड़ी देन है। इस स्वातंत्र्य के प्रकाश में मैं ओशो का साहित्य पढ़ता हूं। उसे पढ़ते समय मैं निर्भय होकर प्रश्न पूछ सकता हूं। किसी भी लोकमान्य या धर्ममान्य विश्वासों के कटघरे में न उलझकर मैं उसे पढ़ता हूं। ओशो रजनीश की प्रतिभा की गरिमा इसी में है कि वे 'रजनीश' के नाम का कटघरा भी नहीं बनने देते। दसवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं, “मैं ऋतुओं में वसंत हूं।" वसंत याने सृजन का उत्सव। वसंत याने खिलना, कुसुमित होना। इसका अर्थ हुआ, ईश्वर एक उत्सव है खिलने का, पल्लवित होने का। ओशो रजनीश के गीता-प्रवचन पांडित्य की कवायद नहीं है, ये प्रवचन भीतर से खिल उठने का उत्सव है। -सृजन का आनंद उत्सव। मंगेश पाडगांवकर सुप्रसिद्ध मराठी कवि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा मत सोचना कि अर्जुन के पास तो कृष्ण थे, आपके पास तो कोई भी नहीं है। हर अर्जुन के पास कृष्ण है। और जब आप अर्जुन की इस घड़ी में आ जाते हैं, तब आप अचानक पाएंगे कि कृष्ण मौजूद है। आपको भी जो चला रहा है, वह कृष्ण ही है। आपका भी जो सारथी है, वह कृष्ण ही है। ओशो Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम गीता-दर्शन अध्याय 10 अज्ञेय जीवन-रहस्य ...1 रहस्य जीवन का स्वभाव है / ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय / सत्य वचन, असत्य वचन और परम वचन / सत्य और असत्य के पार है-परम वचन / ईश्वर है? -जांच-परख-प्रमाण! / आस्तिकता-नास्तिकता-व्यर्थ विवाद / ए.जे.ऐयर द्वारा परम वचनों को व्यर्थ वचन कहना / अंधे को प्रकाश के प्रमाण देना असंभव / भीतर की आंख / विज्ञान . बाह्य को बदलता है और धर्म-अंतस को / बोध-कथाः नदी का भय-मरुस्थल में खोने का / श्रद्धा का प्रारंभ-बिंदु । रूपांतरण-अनुभव-प्रमाण / परम वचन-जो शाश्वतरूप से सत्य हैं / सत्य को कहने और सुनने के लिए गहन आत्मीयता जरूरी / गुरु पूरब की देन है / गुरु और शिक्षक का फर्क / अर्जुन कृष्ण के प्रति अतिशय प्रेम से भरा / प्रेम में मध्य नहीं होता / अतिशय प्रेम में विचार बंद-और समर्पण घटित / सत्य की कसौटी—जिससे आनंद फलित हो / बुद्ध का होना ही ईश्वर का प्रमाण है / नीत्से की नास्तिकता : परिणति-पागलपन / सभी सत्य हितकारी नहीं हैं / जगत के मूल आधार का ज्ञान संभव नहीं/ बूंद सागर को जाने भी तो कैसे / अज्ञेय में जानने वाले का खो जाना / ईश्वरीय वचन-जब अस्तित्व ही बोलता है / रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजर कर ही अर्थ स्पष्ट / सूफी-ग्रंथ-ध्यान की सात सीढ़ियां-सात अर्थ / परमात्मा है-सब का आदि कारण और अजन्मा / ईश्वर स्रष्टा नहीं; ईश्वर अस्तित्व है / अस्तित्व का न प्रारंभ है, न अंत / जीवन एक लीला है, खेल है / अज्ञान में जो होता है—वह पाप / ज्ञान में जो होता है वह पुण्य / अर्जुन के हित के लिए कृष्ण का बोलना / मनोविश्लेषणः बकवास सुनने का व्यवसाय / अस्तित्व की विराटता के बोध से क्षुद्र पर पकड़ का छूट जाना। 2 रूपांतरण का आधार-निष्कंप चित्त और जागरूकता ... 17 सब परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है / केवल खंड को ही देखने का हमारा ढंग/अर्जुन-खंडित दृष्टि का प्रतीक / कृष्ण-अखंडित दृष्टि के प्रतीक / कृष्ण गिनाते हैं कि मैं कहां-कहां हूं / द्वंद्व, कलह, खंडित होना मन का स्वभाव है। अखंड मन शून्य हो जाता है / मन के खंडों का दल बदलते रहना / पूर्ण निश्चय-मन की समाप्ति / बंगाल का एक भक्त; जीवन में एक बार राम का नाम लेना / ध्यान अर्थात निष्कंप चेतना / निष्कंप क्षण में निश्चय घटित / गुरजिएफ की स्टॉप एक्सरसाइज / फिलॉसफी है मानसिक चिंतन / तत्वज्ञान है—जीवंत अनुभव / सोचना अनुभव नहीं है / पंडित की भूल / शब्दों का सम्मोहन / मौन का दर्पण / भीतर-सपनों की सतत धारा / मूढ़ता अर्थात सोए-सोए जीना / सपनों की धारा को तोड़ना कठिन है / ड्राइवरों का खुली आंख सो जाना / योगी नींद में भी जागा हुआ / भोगी-जागरण में भी सोया हुआ / झेन फकीर बोकोजू : ऊंचे वृक्ष पर चढ़ने का ध्यान-प्रयोग / जागने की संभावना खतरे के क्षणों में / Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु-बोध में सपनों का टूटना / क्षमा अर्थात क्रोध का अभाव / बुद्ध को गालियां : क्रोध का अभाव / क्रोध की अंतर्धारा / अकारण क्रोध / सूली पर चढ़े जीसस का क्षमा-भाव / निंदक नियरे राखिए / जो क्रोध दिलवाएं उनका धन्यवाद / दमन से मन का बलशाली होना / दमन नहीं समझ सूत्र है | ऊर्जा का ज्ञान-ऊर्जा का रूपांतरण / क्रोध ऊर्जा है / क्रोध में रासायनिक मूर्छा घटित / क्रोध पर ध्यान / गुरजिएफ के दादा की शिक्षाः चौबीस घंटे बाद जवाब देना / क्रोध, काम आदि पर ध्यान करने से मनोनिग्रह फलित / द्वंद्वों के स्वीकार और साक्षित्व से अतिक्रमण फलित / समस्त जाग्रत पुरुषों में एक परमात्मा प्रकट। 3 ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य ... 33 ईश्वर अर्थात अभिव्यक्त ऐश्वर्य / जीवन रहस्य की अभिव्यक्तियों में ईश्वर अनुभूति सरलता से / परमात्मा की परम अभिव्यक्ति–बुद्ध, जीसस, सुकरात, मंसूर / हमारा दुर्व्यवहार / अहंकार को पीड़ा / पूजा और हत्या / जीवित बुद्धपुरुष को भगवान मानना कठिन है / ऐश्वर्य के सभी रूप परमात्मा के रूप हैं / क्षुद्र में परमात्मा को पहचानना कठिन है / दोस्तोवस्की की कहानी : जीसस की वापसी : पुनः सूली लगने की स्थिति / मंसूर द्वारा परम ऐश्वर्य की घोषणा / श्रेष्ठ से अहंकार को बेचैनी / निकृष्ट से राहत और सांत्वना / श्रेष्ठ को स्वीकार करें / परमात्मा क्षुद्र से जुड़ता है—अपनी योगशक्ति से / परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है / सागर का आमंत्रण बूंद को / बूंद की क्या सामर्थ्य कि सागर को खोज सके / परमात्मा तो मौजूद है-हमारी आंखें बंद हैं / हीरा जेब में पड़ा है और हम भीख मांग रहे हैं / मानना नहीं जानना / मरते हुए मौन संन्यासी का अंतिम वचन–तत्वमसि-तुम वही हो / संवेदनशीलता को जगाने के प्रयोग / समुद्र तट पर रेत के विभिन्न स्पर्श / उपन्यास के पात्र सिद्धार्थ का नदी से सत्संग / सभी दिशाओं से जीवन का संस्पर्श / बुद्धि उधार हो सकती है—संवेदना नहीं / संवेदनाएं स्वयं जीनी पड़ती हैं / खुला हुआ हृदय / निश्चल-ध्यान-योग / रुको-और पा लो / संसार के लिए दौड़ो; परमात्मा के लिए रुको / धार्मिक व्यस्तताएं / दौड़ ही दूरी है / मौन सीखना / दौड़ समाप्त होते ही परमात्मा से एकीभाव / भाव की सतत धारा / भाव है शब्दरहित बोध। ध्यान की छाया है समर्पण ... 47 निरंतर दौड़ता मन–अतीत में, भविष्य में / वर्तमान के क्षण में मन नहीं होता / दौड़ता हुआ मन रोग है / दौड़ते हुए मन वाला व्यक्ति अधार्मिक है । निश्चल-ध्यान-योग-मन को रोकने की एक विधि / अंडे का टूटना जरूरी / मन जरूरी है-एक सीमा तक / ध्यान है-मन का टूटना, मन का ठहरना / मां के गर्भ में बच्चे की स्थिति / मन अल्पतम-जब चेतना नाभि पर / चेतना को मस्तिष्क से हृदय पर और हृदय से नाभि पर उतारना / गर्भासन में शरीर और श्वास का शिथिल होना और सिर का आगे झुक जाना / व्यक्ति अस्तित्व से जुड़ा है-नाभि के द्वार से / बाइबिल का वचन: बच्चे जैसा हो जाना : ध्यान की एक विधि / मन के तल पर की गई गीता की हजार टीकाएं / मन अनेकः ध्यान एक / मन समाप्त हो-तब परमात्मा में लगता है / नानक की नमाज-नवाब के साथ : बोध कथा / मन खो जाए, तो परमात्मा ही परमात्मा / ध्यान के बाद का सहज समर्पण / हमारी भाषाएं अहंकार-केंद्रित हैं / समर्पण होता है—किया नहीं जाता / समर्पण ध्यान की छाया है / एकीभाव के बाद पूरी जीवन-चर्या प्रभुमय / बुद्ध की कठोर तपश्चर्या से आकर्षित पांच भिक्षु / त्याग का त्याग है महात्याग / तुम्हारा होना ही दूसरों को प्रभु की याद दिलाए। धर्म परिवर्तन-अहंकार का कृत्य। हिंदुओं ने दूसरों को हिंदू बनाने का प्रयास नहीं किया / इस्लाम और ईसाइयत से प्रभावित स्वामी दयानंद / दूसरों को बदलने की चेष्टा में हिंसा है / सहज आनंद से निकली प्रभु-चर्चा / समाधि से बुद्धिमत्ता का जन्म / तथाकथित बुद्धिः उलटा प्रतिबिंब मात्र / मुल्ला का सवार होना-उलटे गधे पर / घड़ा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोड़ने के पहले विद्यार्थी को चपत लगाना / शिक्षित व्यक्ति की मुसीबतों के नए आयाम / ज्यादा शिक्षा-ज्यादा दुख / बुद्धि-बुद्धिमत्ता का धोखा है / बुद्धियोग का आलोक / मनुष्य बीज है-प्रकाश का / संसार है-अज्ञान में देखा गया परमात्मा / परमात्मा है-जाग कर देखा गया संसार / द्वैत का भ्रम / सांप में रस्सी देखना / सांप और रस्सी के बीच क्या संबंध है / मौलिक भ्रम पर खड़े दर्शन-शास्त्र / धर्म एक अंतीति है / शास्त्र-ज्ञान से ज्ञान का भ्रम / कंडीशंड रिफ्लेक्स का सिद्धांत / उधार धर्म संस्कारित करना / यांत्रिक संस्कारों से मुक्ति जरूरी। 15 कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जुन ... 63 किसी व्यक्ति को भगवान मानने में अहंकार को बड़ी कठिनाई / कृष्ण को बुद्धि से समझना असंभव है / गीता समाप्त हो जाए, यदि अर्जुन कृष्ण को पहचान ले / उधार सत्य को गवाही की जरूरत / ऋषि-मुनियों की गवाही / कृष्ण स्वयं प्रमाण हैं / जैनियों ने कृष्ण को सातवें नर्क में डाल रखा है | कृष्ण ने अर्जुन से महायुद्ध करवाया / गवाह जुटाने का अर्थः भीतर संदेह है / बड़े संदेह के लिए बड़ी गवाही की जरूरत / ईश्वर प्रमाणः रामकृष्ण-विवेकानंद संवाद / मानना नहीं जानना / जानने से रूपांतरण घटित / भीड़ के साथ होने में अहंकार को सुविधा / सन् 1917 के बाद पूरे रूस का आस्तिक से नास्तिक हो जाना / श्रेष्ठतम सपना और हलुवे का बटवारा ः बोध-कथा / मन का आधार-द्वंद्व / न्यायाधीश मुल्लाः यह भी सच, वह भी सच / मन में विपरीत सदा मौजूद / संदेह और श्रद्धा के बीच डोलता हुआ अर्जुन / अर्जुन के पास क्षत्रिय का मजबूत अहंकार है / कृष्ण की आभा और अनुकंपा अर्जुन को छूती है / कमजोर आस्था वाले मतांध होते हैं / बुद्ध की प्रतिमा का मुख काला हो जानाः एक जपानी बोध-कथा / अन्य दृष्टिकोणों से बचाना / कैसे तय हो-क्या सच, क्या झूठ: मुल्ला नसरुद्दीन / निष्प्राण श्रद्धा / शिरडी के साईं बाबा : विविध रूपों में एक भक्त के पास जाना / भगवत्ता को पहचानने के लिए व्यक्ति का भीतर अखंडित होना जरूरी / विज्ञान एक श्रृंखला है—एक परंपरा / धर्म निजी व्यक्तिगत अनुभव है / अर्जुन कृष्ण को सीधा नहीं देख पा रहा है / सभी तर्क काटे जा सकते हैं / तर्क से ईश्वर का कोई संबंध नहीं है / कृष्ण हैं-भगवत्ता की साकार प्रतिमा / अर्जुन है-डांवाडोल मन का प्रतिनिधि / अर्जुन को पर्त-पर्त उघाड़ना / गीता एक जीवंत संवाद है। स्वभाव की पहचान ...77 अर्जुन सरल व्यक्तित्व है / स्वयं के प्रति ईमानदार और प्रामाणिक होना / अपनी जटिलता को भुलाना या छिपाना नहीं चाहता अर्जुन / कृष्ण अपने से ही अपने को जानते हैं / गहन अंधेरे में भी स्वयं के होने का बोध स्पष्ट / तीन शिष्यों की परीक्षा : कबूतर मार कर ले आओ, जब कोई न देखता हो / हसन यह न कर सका / चेतना स्व-प्रकाशित है / द्रष्टा आत्मा का विज्ञान निर्मित नहीं हो सकता / द्रष्टा को दृश्य की तरह नहीं देखा जा सकता / परमात्मा होकर ही परमात्मा जाना जा सकता है / निकटता में भी दूरी शेष है / परिचय और ज्ञान का फर्क / प्रेमियों के बीच भी दूरी / सभी प्रेम असफल हो जाते हैं / ज्ञान के लिए एकाकार हो जाना जरूरी / अनेक दीयों का जलना : रोशनी एक / मानना और जानना-इस का स्पष्ट भेद होना चाहिए / बुद्धपुरुष हमें झकझोरते हैं, चेताते हैं / जो श्रद्धा टूट जाए, वह श्रद्धा नहीं है / विकास पीछे नहीं लौटता / मृत्यु-क्षण की झूठी धार्मिकता / अर्जुन मानने से जानने की यात्रा पर जाने को आतुर है / कृष्ण की दिव्य विभूतियों को जानने में असमर्थ, असहाय अर्जुन / कृष्ण ही अनुकंपा करें, तो संभव / प्रेम के मार्ग पर परमात्मा का सगुण रूप / ज्ञानमार्ग में परमात्मा-निराकार, निर्विकार और निर्गुण / भक्तिमार्गी और ज्ञानमार्गी के बीच का विवाद / इस्लाम का मूर्ति-विरोध / ईश्वरानुभूति को व्यक्त करने के अलग-अलग ढंग / शास्त्रीय तालमेल बिठालने की व्यर्थ कोशिश / विराट ईश्वर-सीमित अभिव्यक्ति / अपना-अपना भाव पहचानना जरूरी / स्वयं के स्वभाव का अज्ञान-एक विडंबना / दूसरों पर अपनी पसंद आरोपित करना / हिंद, मुसलमान, ईसाई Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना जन्मगत बातें नहीं हैं / धर्म भावगत है-जन्मगत नहीं / व्यक्ति के दो मुख्य प्रकार-मस्तिष्क-केंद्रित और भाव-केंद्रित / विचार शुद्ध होते-होते शून्य हो जाना—ध्यान-ज्ञान-मार्ग / निर्विचार बोध मात्र शेष / हृदय का मार्ग है—भाव, लीनता, समर्पण, विसर्जन / सूफी फकीरों का गोल घूमना / घूमता शरीर-ठहरी चेतना / नृत्य और संगीत से लीनता में प्रवेश / मैं खो जाए-सब बचे / या सब खो जाए–केवल मैं बचे / गूंगे का गुड़ / एक कवि द्वारा सूर्योदय का सौंदर्य पेटी में बंद करके अपनी प्रेयसी को भेजना / दिव्य विभूतियां कहने में नहीं होने में प्रकट / कृष्णमूर्ति के श्रोताः समझ लिया; कुछ हुआ नहीं / मंदिर, मस्जिद, चर्च-जो छू जाए / मन आदतों का जोड़ है / चूकने की आदत / मानने से जानने तक यात्रा। शास्त्र इशारे हैं ...95 बुद्धपुरुषों के वचन प्रीतिकर हैं, लेकिन प्यास को बढ़ाते हैं / मरते बुद्ध, रोता आनंद : जलस्रोत की खोज / धर्मशास्त्र-जो प्यास दे, जलन दे, अतृप्ति को जगाए / दिव्य-संतोष की एक लपट / परमात्मा के लिए प्यासा–संसार के प्रति संतुष्ट / समस्त प्राण एक ही आयाम में प्रवाहित / अर्जुन स्वयं कृष्ण हो जाए, तो तृप्ति / विस्तार और व्याख्या से समझ का कोई संबंध नहीं है / विस्तार नहीं गहराई जरूरी / विस्तार में भटकनाः गहराई में डूबना / सुकरात की बुढ़ापे में घोषणा : मैं कुछ भी नहीं जानता / संत की सरलता और निर्दोषता / ज्ञान संग्रह नहीं है / संगृहीत ज्ञान बाधा है / गहरा जानने के लिए स्वयं गहरा होना पड़ता है / धन का अहंकार; पांडित्य का अहंकार / समझः जानकारी से नहीं रूपांतरण से / बार-बार पढ़ने पर भी धर्म-ग्रंथ ऊब नहीं लाते / यांत्रिक रूप से गीता कंठस्थ कर लेना / बुद्ध का संन्यास-ऊब और व्यर्थता के बोध से फलित / बुद्ध को दुखों से परिचित न होने देना / अमरीकी सर्वाधिक ऊबा हुआ-संपन्नता के कारण/मुल्ला-सम्राट-और भिंडी की सब्जी/ऊब का अतिक्रमण-ध्यान से / सुख-दुख से ऊब-आनंद से ऊब नहीं / ईश्वर की महिमा अनंत है / कृष्ण कुछ चुने हुए लक्षण कहते हैं / नक्शा इशारा है-यात्रा पर निकलने के लिए / अर्जुन के अनुकूल लक्षण बताना / बुद्धपुरुषों के वचन–श्रोता के अनुकूल / मोहम्मद की देशनाएं–तत्कालीन स्थिति के योग्य / सबके हृदय में स्थित आत्मा हूं / दूसरों के मंतव्यों से अपनी पहचान बनाना / शरीर को भीतर से देखने का ध्यान / शरीर से राग टूट जाए, तो केंद्र की और गति / आत्मा का नाम हृदय है / ब्रह्मयोगी के प्रयोगः दस मिनट हृदय की धड़कन बंद करना / शरीर मरता है; केंद्र की कोई मृत्यु नहीं / जहां-जहां जीवन, वहां-वहां परमात्मा / शरीर ही अलग हैं—आत्मा तो एक है / बाहर है भेद-भीतर अभेद है / बल्ब अलग-अलग हैं–बिजली एक है / सब में वही एक है / कोई पराया नहीं तो प्रेम और करुणा का जन्म / सब का प्रारंभ, मध्य और अंत मैं ही हूं / भारत की अनूठी दृष्टिः सब परमात्मा है—बुराई भी, अंधकार भी, विनाश भी / सर्व स्वीकार का साहस / शैतान का आविष्कार-ताकि पाप को, बुराई को परमात्मा न मानना पड़े / बुराई को भी होने के लिए परमात्मा के सहारे की जरूरत / हिंदू-चिंतन अलग से शैतान का कोई अस्तित्व नहीं मानता / बुराई और भलाई-एक ही चीज के विस्तार / अस्तित्व और परमात्मा पर्यायवाची हैं / भलाई-बुराई : विपरीत का द्वंद्व / द्वंद्वातीत परमात्मा। सगुण प्रतीक-सृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के ... 111 अज्ञात ईश्वर के प्रति कुछ इशारे-ज्ञात प्रतीकों द्वारा / चित्रों की भाषा / ग गणेश का—ग गधे का / हिंदुओं के प्रतीक-ब्रह्मा, विष्णु, महेश / सृजन, संरक्षण, विनाश / तीन मौलिक शक्तियां / त्रिमूर्ति-ट्रिनिटी / विज्ञान की त्रिमूर्ति-इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान / कृष्ण ने कहाः मैं विष्णुहूं / हिंदुओं के सारे अवतार विष्णु के अवतार हैं / जीवन है मध्य में / जीवन विष्णु का फैलाव है / ब्रह्मा के मंदिर नहीं के बराबर / किरणों में सूर्य हूं / ब्रह्मांड Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अरबों-खरबों सूर्य हैं / सूर्य विराट की इकाई है / रोज सैकड़ों सूर्य-परिवार बनते और मिटते हैं / हमारा सूर्य बहुत छोटा-सा सूर्य है / बड रसेल की कहानी : एक धर्मगुरु का दुखस्वप्न / तुम किस पृथ्वी से, किस सौर्य परिवार से आते हो? / अपने को केंद्र मानना—आदमी की नासमझी / परमात्मा के प्रतीक-सूर्य, अग्नि, विद्युत / प्रतीक बहाने हैं-परमात्मा की ओर गति करवाने के / सूर्य, नदी, वृक्ष-परमात्मा के प्रतीक बन जाएं / अहंकार को झुकने के अवसर / साधना है-अपने से निरंतर पार होते जाना / मैं वेदों में सामवेद हूं / सामवेद है-संगीत, गीत, उत्सव का वेद / सामवेद तल्लीनता का शास्त्र है / कृष्ण के व्यक्तित्व का सामवेद से तालमेल / अर्जुन के लिए युद्ध तल्लीनता की साधना है / जापानी समुराई–तलवारबाजी, नृत्य और ध्यान में कुशल / योद्धा का शरीर लचीला और मन विचारशून्य होना जरूरी / युद्ध के द्वार से समाधि की झलक / मेरा स्वभाव, मेरी नियति क्या है-यह जानना अत्यंत जरूरी / मनुष्य की पीड़ा-नियति व ढांचे का अज्ञान / मन है छठवीं इंद्रिय-पांचों इंद्रियों का जोड़ / मन पांचों इंद्रियों का नियोजक है । मन और इंद्रियां बिना एक दूसरे के सहारे के जी नहीं सकते / इंद्रियों में मैं मन हूं / कृष्ण एक-एक सीढ़ी नीचे उतर कर अर्जुन को समझा रहे हैं / ऊपर उठो-धीरे-धीरे ही सही / अज्ञात के लिए ज्ञात को छोड़ते चलना / समझ के नए आयाम / ज्ञात की सुरक्षा–अज्ञात का भय / नई-नई भूलें करना / अंधेरे में भी देखने की क्षमता / प्रतीक खतरनाक हैं, अगर पकड़ कर रुक जाएं / आले पर रखी सींक की पूजा / परमात्मा के मंदिर की तीन सीढ़ियां-शरीर, मन, आत्मा / यूनान के सम्राट द्वारा इपिटैक्टस के हाथ-पैर तुड़वाना / चेतना है-सब कुछ जानने वाला / चेतना सदा विषयी है—विषय कभी नहीं / कृष्ण ने कहा : मैं चेतना हूं / परमात्मा है-सत्, चित्, आनंद / जागे-जाने जीना। मृत्यु भी मैं हूं ... 127 कृष्ण का फिर-फिर प्रयास-अर्जुन के हृदय को छूने का / मृत्यु जीवन के विरोध में नहीं है / जन्म और मृत्यु-एक ही सिक्के के दो पहलू / अर्जुन युद्ध और मृत्यु से घिरा हुआ है / सभी युद्ध पारिवारिक हैं, क्योंकि सब जुड़ा हुआ है / आज मनुष्यता ठीक महाभारत युद्ध की स्थिति में है / भारत तब संस्कृति, विज्ञान और समृद्धि के शिखर पर था / विज्ञान और समृद्धि का अंतिम परिणाम दखद हआ / भारत के मन में इसकी छाप रह गई / संभावित विश्वयुद्ध में सब श्रेष्ठ नष्ट / कृष्ण ने कहा : मृत्यु भी मैं हूं / सृष्टि, विकास और प्रलय का वर्तुल / सब गति वर्तुलाकार है / संसार अर्थात चाक की तरह गोल घूमने वाला / मृत्यु अंत नहीं-विश्राम मात्र है / नींद एक छोटी मृत्यु है / गहरी नींद से गहरा जागरण / कुछ आदिवासी सपने नहीं देखते / श्वास है जीवन-प्रश्वास है मृत्यु / अर्जुन, तू मृत्यु के बाबत चिंतित मत हो / सब हो रहा है / हम बच्चे को पैदा नहीं करते, सिर्फ उसे मार्ग देते हैं । अर्जुन तू निमित्तमात्र है / अमरत्व के खोजियों ने ब्रह्मचर्य को बहुत महत्व दिया है / काम-वासना जन्म और मृत्यु दोनों से जुड़ी हुई है / पार्वती की जिद्द-शिव से ही शादी करने की / हीगल का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद / द्वंद्व भीतर गहरे में जुड़े हुए हैं / द्वैत है ऊपर-भीतर है अद्वैत / नदी के किनारे भीतर से जुड़े हुए हैं / चिंता छूटी कि अहंकार छूटा / अहंकार बचा कर चिंता से छुटकारा संभव नहीं / अर्जुन की तकलीफ है उसका कर्ता भाव / लोग चिंता तो छोड़ना चाहते हैं—पर अहंकार नहीं / अहंकार एक घाव है, जिसमें प्रतिपल चोट लगती है / कृष्ण कहते हैं: यक्ष और राक्षसों में मैं कुबेर हूं / कुबेर अर्थात सबसे ज्यादा धनी / गरीबी के कारण धन में आकर्षण है / राक्षस-जिसके जीवन का केंद्र लोभ है / लोभ से मुक्ति—प्रज्ञा से या अनंत धन मिलने पर / धर्म आत्यंतिक विलास है / मुल्ला कथाः मिर्ची नहीं-पैसे खा रहा हूँ / कृष्ण ने कहाः ध्वनियों में मैं ओंकार हूं / ॐ से अउ म-अ उ म से संसार का विस्तार / भारतीय प्रज्ञा के अनुसार अस्तित्व का मूल आधार ध्वनि है—विद्युत नहीं / विद्युत भी ध्वनि का एक प्रकार है / शास्त्रीय संगीतज्ञों द्वारा संगीत से दीए जलाने की कहानियां / ध्वनि और विद्युत-एक ही ऊर्जा / विज्ञान का महासूत्र-ई इज इक्वल टु एम सी स्क्वेयर / पूरब का महासूत्र-ॐ/ ॐ में छिपा है सारे शास्त्रों का सार / ॐ द्वार है-परमात्मा में प्रवेश का / कृष्ण ने कहा : मैं यज्ञों में जप-यज्ञ हूं / मनुष्य अस्तित्व से टूट गया है / यज्ञ है—व्यक्ति और जगत के बीच सेतु-निर्माण की विधि / ऊपर से देखने पर यज्ञ एक व्यर्थ की क्रियाकांड / फ्रायड का संस्मरण : एक ग्रामीण मित्र की कोशिश विद्युत बल्ब को फूंक कर बुझाने की / यज्ञों का विज्ञान विस्मृत हो चुका है / जप-यज्ञ अर्थात ध्वनि की विशेष व्यवस्था से अस्तित्व के परम नाद से जुड़ना / ध्वनि कंपनों से शरीर का रो-रोआं प्रभावित / जप-यज्ञ सूक्ष्मतम यज्ञ है / हमारा व्यक्तित्व शब्दों का जोड़ मात्र है / जप से ध्वनि तरंगों का एक सूक्ष्म शरीर भीतर निर्मित होना / धीरे-धीरे मन के कंपनों का खो जाना। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिजात्य का फूल ... 143 कृष्ण ने कहा : मैं वृक्षों में पीपल हूँ / पीपल कई अर्थों में अनूठा है / पीपल रात में भी कार्बन डाइ-आक्साइड नहीं छोड़ता / चौबीस घंटे उससे जीवन निःसृत / चेतना और बुद्धि को बढ़ाने वाला रसायन–सर्वाधिक मात्रा में पीपल में उपलब्ध / बुद्ध को संबोधि घटित-पीपल वृक्ष के नीचे / पशुओं और वृक्षों में भी बुद्धि और स्मृति होती है / बोधि-वृक्ष अब भी सुरक्षित है / संबोधि की घटना की स्मृति संजोए / पौधों की भाव-संवेदनाओं पर वैज्ञानिक प्रयोग / पौधे सुखी-दुखी, उदास-प्रसन्न / परस्पर भी संवेदनशील / पौधों की संवेदना कई अर्थों में आदमी से भी शुद्ध / झूठी मुस्कुराहटें-झूठे चेहरे / महावीर की परम संवेदना-पौधों और अन्य प्राणियों के प्रति / पीपल में सर्वाधिक प्रतिभा और प्रज्ञा प्रकट / पीपल की पूजा, पीपल को नमस्कार / प्रज्ञा कहीं भी हो नमस्कार के योग्य है / प्रज्ञावान व्यक्ति के सामने सिर झुकाने में अहंकार को अड़चन / जीवित बुद्धों से बचना-मूर्तियों को पूजना / कृष्णमूर्ति में अहंकारियों की रुचि / शिष्यत्व से, झुकने से बचने वाले लोग / कृष्णमूर्ति की बातों से अहंकारियों का पोषण लेना / हमारी यह सदी सबसे ज्यादा अहंकारग्रस्त / आदमी को आखिरी सत्य मानने पर विकास का कोई उपाय न रहेगा / हिंदुओं ने झुकने के सभी अवसरों का उपयोग किया / यूनानी वैद्य लुकमान की वनस्पतियों से बातचीत / कायसी का बेहोशी में औषधियों के नाम बताना / वनस्पतियों से अंतर्संबंध / अस्तित्व में गहरे उतरने के लिए स्वयं में गहरे उतरना जरूरी / कृष्ण ने कहा : देवर्षियों में मैं नारद हूं / नारद-लीला, उत्सव और गैरगंभीरता के प्रतीक / गंभीरता रोग है / कृष्ण अपने को गंभीर ऋषियों से नहीं जोड़ते / उपयोगी और साफ-सुथरे को चुनने वाले / मुल्ला नसरुद्दीन-एक सूफी संत / जीवन को एक • खेल, एक नाटक समझना / गंभीर आदमी अधार्मिक है / ईसाइयों का यह कहना गलत है कि जीसस कभी हंसे नहीं / उदास लोगों की धर्म में उत्सुकता रुग्ण है / धर्म का जन्म विराट आनंद से / उदास लोगों द्वारा संगठन का निर्माण / गंभीर परिग्रह-गंभीर त्याग / जीवन एक अभिनय है—तो चुनाव की जरूरत न रहेगी / कृष्ण पर्णावतार हैं-अमर्यादित / राम अंशावतार हैं / परे कृष्ण को स्वीकार करना-हिम्मत का काम/सूरदास के बाल कृष्ण केशव के यवा कृष्ण / गांधी महाभारत युद्ध को प्रतीकात्मक मानते हैं / हिंसा से बचने की तरकीब / गांधीः नब्बे प्रतिशत जैन और दस प्रतिशत हिंदू हैं / गांधी के तीन गुरु-राजचंद्र, रस्किन और टाल्सटाय / कृष्ण हैं-असंगत, गैरगंभीर / सिद्धों में मैं कपिल मुनि हूं / जगत में दो निष्ठाएं हैं—सांख्य और योग/ कपिल सांख्य-निष्ठा वाले सिद्ध हैं / योग का अर्थ है : क्रमिक विकास, अभ्यास, साधना / सांख्य की निष्ठा है कि कोई अभ्यास नहीं सिर्फ पुनमरण चाहिए / भेड़ों के बीच पले सिंह की गर्जनाः बोध-कथा / भूलने की दुर्घटना / करने की आदत / अगति, अक्रिया, विश्राम / बुद्ध की कठिन साधनाएं / योग की समाप्ति-सांख्य का उदय / योग भी एक तनाव है / आभिजात्य का फूल-परमात्मा की झलक / कृष्ण के लिए कुछ भी छोटा नहीं है / कहां-कहां मैं खिल गया हूं / सभी तलों पर आभिजात्य प्रकट / रमण महर्षि का नियमित सत्संग करने वाली गाय / बीज और फूल / फूल में पहचानना सरल। 11 काम का राम में रूपांतरण ... 159 कृष्ण ने कहाः जीवन की उत्पत्ति का कारण कामदेव मैं ही हं / काम को भस्म करने के लिए पहले प्रगाढ़ कामवासना चाहिए / समस्त सृजन काम-ऊर्जा निष्पन्न / ऊर्जा का अधोगमन काम है और ऊर्ध्वगमन-आत्मा / जननेंद्रिय के मार्ग से शक्ति प्रकृति में लीन / वही शक्ति सहस्रार से परमात्मा में लीन / आग का उपयोग जीवन के लिए या विनाश के लिए / हमारा परिचय-केवल काम के अधोगामी रूप से ही / दूसरे की ओर बहती ऊर्जा-परतंत्रता का मूल आधार / वासना पर-निर्भरता है / निर्भरता पीडादायी है / विपरीत से पलायन नहीं-स्वयं पर वापसी / बहिर्गमन ऊर्जा का बिखराव है / अंतर्गमन ऊर्जा का इकट्ठा होना है / अपना ही सृजन / बहिर्गमन संसार है / फ्रायड द्वारा प्रस्तावित निदान सही-लेकिन उपचार गलत / Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम में काम-तृप्ति की पूर्ण सुविधाएं / नई अतृप्ति, नई पीड़ा-कामवासना की व्यर्थता का बोध / फ्रायड बुद्ध, महावीर, कृष्ण के साथ जुड़े-तो समाधान / वासना दीन और दरिद्र बनाती है / कामदेव अर्थात ऊर्ध्वगामी काम-ऊर्जा / बहिर्गमन-अंतर्गमन-अगति / तीन कोटिया-मनुष्य, देव, भगवान / देवता के भी पार जाना / सत्यं, शिवं, सुंदरम्-सब काम-ऊर्जा का विस्तार है / खजुराहो और कोणार्क के अदभुत मंदिर / गांधी और पुरुषोत्तमदास टंडन का सुझाव-इन मंदिरों को मिट्टी से ढांकने का / कामवासना से भय और छिपाव का कारण क्या है / ज्ञान शक्ति है; ज्ञान मुक्ति है । काम को दिव्य बनाना है / तंत्र के प्रयोग/ आदमी पशु से भी नीचे गिर सकता है / मनोगत कामविकृति / हमारी कपड़ों में ढंकी नग्नता / हम शरीर को नहीं-मन को ढांकते हैं / कुंठित-रस / झेन कथाः तुम अभी भी युवती को कंधे पर रखे हो / मानसिक व्यभिचार / जिससे लड़ोगे, उस जैसे हो जाओगे / सपना भी आपका है / ध्यान का एक प्रयोगः वासना के क्षणों में चेतना को सिर के ऊपरी भाग पर ले जाना / परम आनंद का जन्म-चेतना के सहस्रार से ऊपर निकलने पर / जीवन का परम स्वीकार कृष्ण में, हिंदू-धर्म में / बुद्ध, महावीर और गांधी के आधार पर श्वीत्जर द्वारा हिंदू-धर्म की आलोचना / ईसाइयत ज्यादा जीवन-निषेधक है / सीता और गोपियों के साथ हमने राम और कृष्ण को भगवान स्वीकार किया है / ईसाइयत की काम-दमन की शिक्षा की प्रतिक्रिया / भारत की मूल-धारा-जीवन का स्वीकार-उसकी समग्रता में, पूर्णता में / शासन करने वालों में यमराज हूं / मृत्यु होगी ही / जीवन में सब असमान है / मृत्यु में सब समान है / मृत्यु में न कोई अपवाद है, न कोई पक्षपात / पूर्ण समाजवाद कभी नहीं आ सकता / नियम बिलकुल तटस्थ है / महावीर ने कहाः नियम काफी है, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं / दैत्यों में मैं प्रह्लाद हूं / विपरीत परिस्थितियों में भी व्यक्ति का धार्मिक होना संभव / परिस्थिति का उपयोग कर लेना / महात्मा गांधी द्वारा अपने पुत्र हरिदास पर अतिशय अनुशासन थोपना / हरिदास की प्रतिक्रिया-मुसलमान हो जाना; सब विपरीत करना / चुनौतियों से विकास / कीचड़ से कमल का जन्म / उलटी खोपड़ी मुल्ला का बालिग हो जाना : व्यंग्य-कथा / जीवन की ध्रुवीय गत्यात्मकता / सम्यक शिक्षा / गिनती करने वालों में मैं समय हूं / आपके हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं होता / जिंदगी के गिने हुए क्षण / संबोधि के बाद बुद्ध का जीना–पूर्व-अर्जित त्वरा से / समय का गणित बिलकुल पक्का है / अर्जुन न तो मार सकता, न जिला सकता / मरने वाले मारे जाएंगे-नियतिवश। शस्त्रधारियों में राम ... 177 वायु स्वतंत्रता और पवित्रता का प्रतीक है / सतत प्रवाह में है जीवंतता / महावीर ने कहा है : संन्यासी तीन दिन से ज्यादा एक जगह न रुके / गृहस्थ डबरा बन जाता है / संन्यासी भी हिंदू है, जैन है, ईसाई है, तो डबरा बन गया / वायु पवित्रता के कारण पारदर्शी है / लोकोक्ति है कि पवित्र पुरुषों की छाया नहीं बनती / हम अशुद्धि के कारण ठोस दीवाल की तरह हो जाते हैं / बोधकथा : फकीर की छाया का स्पर्श जीवनदायी हो गया / पवित्रता में अहंबोध शेष नहीं रह जाता / चेतना अदृश्य है / परमात्मा अदृश्य है / शस्त्रधारियों में मैं राम हूं / परम शांति, आनंद और धन्यता से भरे राम के हाथ में शस्त्र हैं / राम अनूठे हैं / राम हैं-बुद्ध और रावण एक साथ / शस्त्र खतरनाक हैं-रावण के हाथ में / शक्ति हाथ में आते ही भीतरी व्यभिचारवृत्ति प्रकट हो जाती है / कमजोर आदमी का तथाकथित चरित्र / हीनता की ग्रंथि से पीड़ित लोगः पद और प्रतिष्ठा की खोज / पत्थर के शस्त्रों से एटम बम तक यात्रा-आदमी वही का वही / अच्छे लोगों के जीवन संघर्ष से बाहर हट जाने से बुराई को बल मिलना / शक्ति भले आदमी के हाथ में हो / रावण की असली पराजय–कि वह राम को अपने जैसा नहीं बना पाया / राम की ऊंचाइयों का रावण को बोध है / सीता का चोरी जाना युद्ध का कारण नहीं है-युद्ध का बहाना है / राम अभिनेता हैं / गंगा भारत की आत्मा है / गंगा पृथ्वी पर सबसे ज्यादा जीवंत नदी है / गंगा-जल के विशिष्ट रासायनिक गुण-सड़ता नहीं / सब अशुद्धियों को विलीन कर लेना / लाखों-लाखों लोगों को बुद्धत्व घटित-गंगा के किनारे / संबोधि की तरंगों को आत्मसात करने की विशिष्ट क्षमता-पानी में / जान द बेप्टिस्ट द्वारा नदी में शिष्य को खड़ा करके उसे दीक्षित करना / आध्यात्मिक ऊर्जा से तरंगायित गंगा का कण-कण / गंगा एक आध्यात्मिक यात्रा है / पार्श्वनाथ की पहाड़ी पर बाईस तीर्थंकरों का देहत्याग करना / पूरी पहाड़ी चार्ल्ड हो गई / शरीर का और आत्मा का जोड़ टूटने पर विराट ऊर्जा का बिखरना / हिंदुओं द्वारा गंगा पर प्रयोग करना / अरब में कुफा नामक एक गांव पर सूफियों द्वारा प्रयोग / केवल असली मुसलमान का वहां प्रवेश / कृष्ण ने कहाः विद्याओं में मैं आत्म-विद्या हं / स्वयं को छोड़कर शेष सब जान लेना / दस अंधों का अपने को नौ गिनना : बोधकथा / सारी विद्याएं दूसरों को गिनना है-स्वयं को छोड़ कर / मनोवैज्ञानिक की दीनता-स्वयं के मन के संबंध में / रामकृष्ण, मोहम्मद और कबीर-बेपढ़े-लिखे आत्मज्ञानी हैं / मृत्यु जिसे छीन ले, वह ज्ञान नहीं है / जब सिकंदर ने एक संन्यासी भारत से यूनान ले जाना चाहा / श्वेतकेतु, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तूने उस एक को जाना, जिसे जानकर सब जान लिया जाता है | जानने वाले को जान लेना ब्रह्मविद्या है / भारत के मनीषी केवल ब्रह्मविद्या में उत्सुक रहे | अन्य विद्याओं का विकास रुक गया / विद्याएं विकसित होती हैं मनीषियों द्वारा / पूरब की अति-पश्चिम की अति / पूर्ण संस्कृति नहीं बन पाई / सत्य की खोज में तर्क का सदुपयोग / तर्क निष्पक्ष कसौटी बनाना / यूनान में तर्क का व्यवसायः सोफिस्टों द्वारा / तर्क-गुरु जीनो और शिष्य अरिस्तोफेनीज की कश्मकश / मन के पार जाने के लिए तर्क सीढ़ी बने। मैं शाश्वत समय हूं... 195 सब कुछ बदल रहा है / हेराक्लतु : एक ही नदी में दो बार उतरना संभव नहीं है | जीवन की नदी सतत बही जा रही है / सूरज प्रतिपल बदल रहा है / दीवाल भी थिर नहीं है-उसके परमाणु तीव्र गति में हैं / भाषा की गलती : वृक्ष है, नदी है; बच्चा है / सही होगा कहना ः वृक्ष हो रहा है। नदी रही है; बच्चा हो रहा है / वस्तुएं प्रक्रियाएं हैं / सब चीजें समय के भीतर घट रही हैं / समय शाश्वत है / वस्तु के तीन आयाम-लंबाई, चौड़ाई, गहराई / समय चौथा आयाम है / आइंस्टीन का नया शब्द–स्पेसियोटाइम / शाश्वत समय में प्रवेश है—ध्यान, सामायिक / समय अक्षय है / काल प्रवाह में अविरोध बहना / धारा के विपरीत तैरता है अहंकार / मुल्ला की पत्नी: धारा के विपरीत बहना / जीवन का समग्र स्वीकार धार्मिकता है | सूखे पत्ते का हवा में उड़ना लाओत्से की संबोधि / न जन्म हमारे हाथ में है—न मृत्यु / आत्महत्या महा पाप है / अंगुलिमाल-बुद्ध-संवाद / कर्ता होने की 'भ्रांति / जब मुल्ला के हाथ-पैर ठंडे होने लगे / कृष्ण की अहिंसा बुद्ध और महावीर की अहिंसा से ज्यादा गहरी है / गीता की परम अहिंसक दृष्टि / जीवन भी उसके हाथ-मृत्यु भी उसके हाथ / जब एक मछली ने मुल्ला की जान बचाई | कृष्ण ने कहा स्त्रियों में मैं कीर्ति और श्री हूं / आधुनिक स्त्री-वासना का विषय मात्र / वासना को अनजाने आमंत्रित करने की चेष्टाएं / कीर्ति है-निर्वासना का सौंदर्य / मातृत्व की गरिमा / डबल बाइंड-आकर्षित करना और दूर हटाना–साथ-साथ / इस सदी में सर्वाधिक ह्रास-स्त्रैण गुणों का / पुरुष को ब्रह्मचर्य-स्त्री को कीर्ति फलित होने के बाद भी मासिक धर्म जारी / स्वेच्छापूर्वक वीर्य का ऊर्वीकरण / कीर्ति की साधना अलग है / महावीर की साधना पुरुषों के लिए / स्त्री की साधना-~-मातृत्व की / कुरूप शरीर से भी सौंदर्य और आभा विकीर्णित होना / कीर्तिविहीन स्त्री का सौंदर्य केवल चमड़ी तक गहरा / छिछला सौंदर्य क्षण-भंगुर प्रेम-संबंध / स्त्रैण मातृत्व के पार श्री का जन्म / स्त्रैण परमात्मा की धारणा / जर्मन अपने देश को फादरलैंड कहते हैं / पुरुष गुणों के अतिशय विकास की परिणति-युद्ध / स्त्रैण-गुण-विहीन समाज-बहुत दीन / मौन की गरिमा से दिव्य वाक् का जन्म / शब्द आक्रामक हैं / वाचस्पति की नवविवाहित पत्नी-बारह वर्ष मौन प्रतीक्षा / स्त्री का प्रेम-पूरे शरीर में फैला हुआ / पिता-पुत्र का संबंध-बौद्धिक / मां-पुत्र का संबंध-समग्र और आत्मीय / प्रभु-स्मरण हो–व्यक्ति के पूरे अस्तित्व से / पुरुष की ऊर्जा में ही अधीरता है | स्त्री का गहन धैर्य / स्त्री ज्यादा सहनशील है / क्षमा-स्त्री का स्वभाव है / जितना ज्यादा प्रेम और धैर्य-उतनी ही ज्यादा क्षमा / पुरुष-केंद्रित सभ्यता-विश्व-संकट के कगार पर / स्त्रियों की प्रतिक्रिया-गलत दिशाओं से / स्त्री कुरूप हो जाएगी-नंबर दो का पुरुष बन कर / स्त्री को स्वतंत्रता के नाम पर आत्मघाती प्रयास / कृष्ण ने कहाः ऋतुओं में मैं वसंत हूं / परमात्मा है-गीत में, संगीत में, नृत्य में, उत्सव में। 1A परम गोपनीय-मौन ... 213 जीवन का मायिक रूप जुए में प्रकट / वासना के लिए भविष्य जरूरी / वासनाओं के खंडहर / दुष्पूर वासनाएं-ययाति की कथा / हजार साल जी कर भी ययाति की वासनाएं ज्यों की त्यों / जब तक दूसरा-तब तक जुआ / ध्यान की एकांतता में है जुए का अतिक्रमण / मरते समय सिकंदर के हाथ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाली हैं / दूसरों की आंखें...धन-पद-प्रतिष्ठा / कन्फ्यूशियस ने कहा : जुआघर और मरघट का अवलोकन करो / यादव वंश के परम शिखर हैं कृष्ण / पांडव वंश का शिखर है अर्जुन / धीरे-धीरे कृष्ण अर्जुन को उसके खुद के निकट ला रहे हैं / कस्तूरी कुंडल बसै / समस्त विधियों का निष्कर्ष-बोध : जिसे आप खोज रहे हैं, वह आप ही हैं / खुद को कैसे खोजिएगा / मुल्ला नसरुद्दीन का अपने गधे पर सवार हो कर गधे को ही खोजने निकलना / रुकने पर स्वयं का बोध / गति बढ़ने के साथ-साथ आत्म-अज्ञान का गहरा होना / अनेक प्रतीक बता कर अंत में कहते हैं : अर्जुन, तेरे भीतर हूं मैं / स्वयं के भीतर परमात्मा है-यह स्वीकार करना सर्वाधिक कठिन / शरीर बाहर है-मन भी बाहर है / स्वयं के भीतर परमात्मा नहीं दिखा, तो कहीं न दिखेगा। अर्जुन, अपने भीतर देख / गुप्त रखने योग्य भावों में मौन हूं / दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक व्यक्ति ध्यान में, मौन में न जा सकेगा / दूसरों की चिंता ही छूट जाए / अपने मौन को छिपाने के लिए बायजीद के गुरु का अनाप-शनाप बकना / दूसरों के मंतव्यों की चिंता न करना : इब्राहीम का नग्न हो स्वयं को जूता मारते हुए अपनी राजधानी में घूमना / भीतरी शोरगुल-जागते-सोते / मुल्ला का सपने में देवदूत से मोल-भाव करना / 'दूसरों को बातें बताना-प्रभावित करने की लालसा / अपने ही झूठ से प्रभावित मुल्लाः सांझ राजमहल में भोज है / प्रेमियों का पारस्परिक लेन-देन कल्पना के शिखर / प्रेम-विवाह-फिर सपनों का टूटना / स्वयं की प्रशंसा से गति में अवरोध / हमारे और सत्य के बीच शब्दों की दीवाल है / निःशब्द सौंदर्य । लाओत्सू का प्रातः भ्रमण और एक बकवासी मित्र का साथ / भाषा संसार में उपयोगी है—अंतर्यात्रा में बाधा है / शास्त्रज्ञान तत्वज्ञान नहीं है / सत्य का निजी अनुभव है तत्वज्ञान / आस्पेंस्की की गुरजिएफ से पहली भेंट / आस्पेंस्की को बोध हुआ : मैं कुछ भी तो नहीं जानता / अज्ञान से भी ज्यादा भटकाता है-उधार, तथाकथित ज्ञान / उपनिषदों में कहा है : ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं / स्वयं को अज्ञानी स्वीकार करना कठिन है / तीन अनपढ़ ग्रामीण फकीरों की प्रार्थना हे प्रभु! हम तीन, तुम तीन; हम पर कृपा करो / शास्त्र और अधिकृत प्रार्थना-अनुभव के लिए अनिवार्य नहीं / परमात्मा एक अनुभव है | अज्ञान छोड़ना-फिर ज्ञान भी छोड़ना। मंजिल है स्वयं में ... 231 ईश्वर और अस्तित्व दो नहीं हैं / अस्तित्व शब्द में भाव की कमी है / ईश्वर शब्द में भाव है, दिशा है, जीवंतता है / ईश्वर को बाहर खोजने की भूल / जो निकटतम है, स्वयं के भीतर ही है-उसका बोध कठिन / बोध के लिए अंतराल जरूरी / परमात्मा से अलग होना असंभव / मछली को सागर का बोध नहीं होता / परमात्मा दूर होता, अलग होता, तो हम उसे खोज ही लेते / दूरी होती, तो रास्ता भी बनाया जा सकता था / स्वयं में होने के लिए रुकना जरूरी / परमात्मा की निरंतर मौजूदगी / दो नहीं हैं, दूरी नहीं है / परमात्मा को खोने का कोई उपाय नहीं / मैं ही है या तू ही है / खोज की व्यर्थता से रुकना घटित / न कुछ पाने को है, न कुछ खोजने को है / परमात्मा की विभूतियां अनंत हैं / अपरिभाष्य चीजें / सब अपरिभाष्य चीजों का जोड़ परमात्मा है / व्याख्या नहीं अनुभव संभव है / सौंदर्य क्या है / जी.ई.मूर की पुस्तकः प्रिंसिपिया इथिका / गणितज्ञ आइंस्टीन और कवयित्री पत्नी का संवाद / सागर-लहर-संबंध / शाश्वत है-पन / लहरों के नीचे डुबकी-सागर से मिलन / शिखर अनुभवों में परमात्मा की निकटता / परमात्मा को सीधे झेलना कठिन है / परमात्मा की आंशिक अभिव्यक्तियां-विभूति, कांति और शक्ति के रूप में / अनुभव से यात्रा करके शक्ति ऐश्वर्य बनती है। वृद्धावस्था का ऐश्वर्य / शक्ति का आभा बनना / काम-ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन / आभा-मंडल/ जीवन ऊर्जा का विस्तार / युवा कांतिवान हो / गुरुकुलों में युवकों को कांति की कला सिखाना / युवाशक्ति का सृजनात्मक रूपांतरण / छिद्रों से ऊर्जा का बिखरना / ब्रह्मचर्य का अनूठा सौंदर्य / निष्प्रयोजन प्रश्नों की व्यर्थता / यह जगत ईश्वर का अंशमात्र है / परमात्मा की योग-माया से निर्मित है यह जगत / सम्मोहन का जादू / परमात्मा के भाव मात्र से, विचार मात्र से जगत का निर्माण / जगत की मूल इकाई पदार्थ नहीं-विचार है / समस्त चाहों का एकजुट बल परमात्मा के लिए / परमात्मा की खोज ही जीवन का केंद्र हो / प्रतीक इशारे हैं / सहारों का उपयोग-यात्रा के लिए / बोध कथाः बोकोजू का बुद्ध की काष्ठ प्रतिमा जलाना-सर्दी दूर करने के लिए / प्रतीकों के पार। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन अध्याय 11 विराट से साक्षात की तैयारी ... 247 - श्रम से परमात्मा नहीं मिलता / श्रम से हम ग्रहणशील बनते हैं / प्रसाद मिलता है अनुग्रह से, अनुकंपा से / आग्रह और दावा अहंकार है / योग्यता का दावा-अपात्रता है / पात्र विनम्र होता है | अयोग्यता का बोध / अर्जुन पात्र था / अपात्र है-उलटा घड़ा / अर्जुन मित्र में भी परमात्मा देख पाता है / आकाश में बैठे किसी परमात्मा को सिर झुकाना आसान है / अध्यात्म प्रेम से भी ज्यादा गोपनीय है / प्रेम सार्वजनिक नहीं है / गुरु और शिष्य का आत्मिक मिलन / प्रेमियों को भौतिक अर्थों में एकांत चाहिए / अध्यात्म के लिए बाजार में भी अकेलापन संभव / कृष्ण-अर्जुन-संवाद-युद्ध के मैदान पर घटित / गुरु तो भीतर शून्य हैं / शिष्य भी शून्य हो जाए तो आध्यात्मिक मिलन घटित / भ्रांत धारणाओं का टूट जाना सत्य का आ जाना नहीं है | पंडित के पास ज्ञान है-अनुभव नहीं / अर्जुन ईमानदार है / सबसे बड़ा धोखा-उधार ज्ञान को अनुभव मान लेना / अज्ञानी की आस्तिकता या नास्तिकता-दोनों बेईमानियां हैं / धर्म अनुभव है / शब्दों से संप्रदाय बनते हैं / हिंदू, ईसाई, मुसलमान-शब्दों पर रुक गए लोग / अर्जुन की अब तक की जिज्ञासाएं बौद्धिक थीं / अनुभव की अभीप्सा / अब मैं आपके विराट को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं / चर्म-चक्षुओं से निराकार को नहीं देखा जा • सकता / देखने की क्षमता का एक नए ही आयाम में प्रवाह / दिव्य-चक्षु का खुलना / परमात्मा अनंत गड्डू है / विराट शून्य में मिट जाने का दुस्साहस / बुद्ध के शून्य से भयभीत लोग / असंभव की चाह-मिटने का साहस / विराट की अभीप्सा से शून्य मनुष्य पशु ही है / जीवन को दांव पर लगाना / शिष्य योग्य हो-तो ही गुरु उत्तर देते हैं / अर्जुन ने कहा : योग्य समझें तो ही विराट का दर्शन कराएं / तैयारी पूरी न हो, तो विराट के साक्षात से व्यक्ति के विक्षिप्त हो जाने की संभावना / सूफी साधकों-मस्तों की कठिनाई / आध्यात्मिक अराजकता से वापसी / विराट का संपर्क अस्त-व्यस्त न करे / नीत्शे की विक्षिप्तता-सदगुरु का अभाव / बिना गुरु के अनंत में झांकने की हिम्मत / अपरिपक्व नीत्शे / अधैर्य, रुग्ण चित्त का लक्षण है / ध्यान के लिए अनंत धैर्य चाहिए / गहरी जड़ें: विशाल वृक्ष / अर्जुन तैयार हो गया है / पहली तैयारीः संदेह गंवाए / सवालों से भरा चित्त उत्तर ग्रहण न कर पाएगा / पूछना समाप्त हो, तो देखने की क्षमता आए / प्रश्न अर्थात कुछ सुनाओ / श्रवण उधार है-और साक्षात नगद / जीवन की सामान्य उलझनों से ऊपर उठना जरूरी / दूसरी तैयारी: मुमुक्षा जगी/अथातो ब्रह्म जिज्ञासा / गुरु प्रसन्न होते हैं, जब शिष्य प्रत्यक्ष अनुभव के लिए प्यास से भर जाता है | शंकर ने कहाः संसार स्वप्न है, ताकि सत्य की खोज शुरू हो सके / शंकर का कथन, एक उपाय है / रोजमर्रा संसार से मुक्त हो कर आंख ऊपर उठे / विराट सत्य के अनुभव की तुलना में हमारा संसार स्वप्न जैसा / सूरज की तुलना में दीया / सब शब्द सापेक्ष हैं / क्षुद्र से चेतना हटने पर विराट का स्मरण / समस्त साधनाएं-क्षुद्र को भूलने के उपाय / संसार का विस्मरण-ब्रह्म की जिज्ञासा / दोनों आंखों से बाहर बहती चेतना को भीतर खींचने की साधना / चेतना का बहिर्गमन है-धारा / अंतर्गमन है-राधा / राधा एक यौगिक प्रक्रिया है | हमारे भीतर छिपा साक्षी ही कृष्ण है / अंतर-रास / दो मार्ग–योग और भक्ति / अंतस-रास को उपलब्ध व्यक्ति को समर्पण / समर्पित होते ही अर्जुन कृष्ण की ऊर्जा के साथ बहने लगा। दिव्य-चक्षु की पूर्व-भूमिका ... 263 जीवन क्या है? / अंधा प्रकाश को कैसे जाने / नास्तिक का इनकार / स्वयं का अंधापन स्वीकार करने में अहंकार को चोट / जितना अहंकारी युग, उतना ज्यादा नास्तिक / पिछले तीन सौ वर्षों की उपलब्धियों से मनुष्य का अहंकार सघन हुआ है / वैज्ञानिक यंत्रों से इंद्रियों की क्षमता खूब बढ़ी है / विज्ञान Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहीन जीवन विनम्रता पैदा करता था / बहिर्यात्रा की कमी-अंतर्यात्रा की सुविधा / आज भीतर जाना कठिन हो गया है / आस्तिक का प्रारंभ-मैं अधूरा हं, इसके स्वीकार से / जो नापा जा सके-बुद्धि केवल उसे ही जान सकती है / विज्ञान बुद्धि का विस्तार है / प्रेम अमाप्य है / परमात्मा है असीम / ईश्वर के होने के सभी प्रमाण बचकाने हैं / विचार जुगाली है / ईश्वर को न पढ़ा जा सकता, न सुना जा सकता, न सोचा जा सकता / मनुष्य की इंद्रियों से ज्यादा सशक्त इंद्रियां-पशु-पक्षियों के पास / मनुष्य कितना सीमित है! / अनंत में छलांग कैसे लगे / प्राकृत नेत्रों से कृष्ण को देखना संभव नहीं-दिव्य-नेत्र जरूरी / कृष्ण के मूल को देखा अर्थात स्वयं को देखा / समर्पण होते ही दिव्य-चक्षु उपलब्ध / कृष्ण कैटेलिटिक एजेंट हैं / बिजली की मौजूदगी में ही हाइड्रोजन और आक्सीजन का मिलकर पानी बनना / कृष्ण की मौजूदगी में अर्जुन का समर्पण / मीरा का समर्पण: पहले कृष्ण को अपने भाव से जीवंत करना / मीरा की प्रगाढ़ भाव-ऊर्जा / परम सत्ता कभी तिरोहित नहीं होती, सिर्फ उसके प्रतिबिंब तिरोहित होते हैं / देहधारी कृष्ण के प्रति समर्पित होने में दूसरी कठिनाई है / जहां समर्पण-वहां परमात्मा / अब जाकर अर्जुन समर्पित हुआ / कैटेलिटिक एजेंट के अभाव में समर्पण अति कठिन / संस्मरण : एक जर्मन युवती का तिब्बतन आश्रम में नमस्कार सीखना / झुक जाना अहंकार की मौत है / अहंकार सबसे बड़ा पाप है / भीतर देखने के लिए आंख जरूरी नहीं है / दिव्य-चक्षु अर्थात सिर्फ देखने वाला ही हो-बिना किसी माध्यम के / संसार में थोड़ा भी रस हो, तो समर्पण नहीं हो सकता / कृष्ण ने कहा, तुझे दिव्य-चक्षु देता हूं / भाषा की अड़चन / सारी भाषाएं लेने-देने पर निर्मित हैं / प्रेम प्रेमी से ज्यादा बड़ी घटना है, उसका नियंत्रण संभव नहीं है / गीता की कथा कई तलों में फैली हुई /घटना घटी कृष्ण और अर्जुन के बीच / दूर से देखा संजय ने/संजय ने सुनाया-अंधे धृतराष्ट्र को / संजय के पास दिव्य-दृष्टि नहीं-दूर-दृष्टि है / गीता के चार तल-कृष्ण, अर्जुन, संजय और धृतराष्ट्र / गीता की लोकप्रियता का कारण / अंधे धृतराष्ट्र को कही गई है / हम सब अंधे हैं / कृष्ण ने अपना ऐश्वर्ययुक्त दिव्य स्वरूप अर्जुन को दिखाया / अर्जुन की तैयारी अच्छे-अच्छे को पहले देखने की / बुराई के लिए शैतान को जिम्मेदार बताना / मोजेज, जीसस, मोहम्मद का द्वैत की भाषा बोलना-श्रोताओं के कारण / सारा द्वैत परमात्मा है / गलत विधियों के कारण परमात्मा का विकराल रूप पहले दिखाई पड़ जाना / जन्म-जन्म के लिए बंद-भयभीत होकर / तांडव करते शंकर और बांसुरी बजाते कृष्ण / क्षत्रिय अर्जुन के लिए ऐश्वर्य की भाषा सरल / कृष्ण के सजे-धजे रूप से तपस्वियों को कठिनाई / परमात्मा की पहली झलक व्यक्ति के अनुकूल हो। धर्म है आश्चर्य की खोज ... 279 कृष्ण और अर्जुन के बीच घटी घटना को संजय कैसे देख पाया? / अंश से पूर्ण को पकड़ा नहीं जा सकता, लेकिन छुआ जा सकता है | अर्जुन के पास अनुभव है-अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं / गुरजिएफ का अनुभव-आस्पेंस्की की अभिव्यक्ति / अनुभव और अभिव्यक्ति एक ही व्यक्ति में मिलना कठिन है / अनुभव, वक्ता, श्रोता—विभिन्न तल / स्वप्न में समय की गति / सुख में समय छोटा और दुख में समय लंबा / आनंद में समय शून्य हो जाता है / कृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद-समयशून्यता में घटित / संजय को लंबा समय लगा-धृतराष्ट्र को बताने में / गीता में कृष्ण, अर्जुन, संजय और धृतराष्ट्र का अदभुत संयोग / संजय है बीच की कड़ी / अर्जुन ने पहले परमात्मा का ऐश्वर्यरूप देखा-फिर प्रकाश रूप / ऐश्वर्य धीमा प्रकाश है / परमात्मा के प्रकाशरूप के सीधे साक्षात से खतरा / सूर्य पर एकाग्रता का क्रमिक अभ्यास / सभी धर्मों की सहमति-प्रकाश की परम अनभति पर / प्रकाश ही प्रकाश / अंधों के लिए कोरे शब्द हैं-ईश्वर, आत्मा / अनुभूति के तीन चरण-ऐश्वर्य, प्रकाश, एकता / जब तक पदार्थ दिखे, तब तक अनेकता / एक स्वामी कहते हैं : सोना मिट्टी एक है; फिर भी सोना नहीं छूते / सोना मिट्टी एक-यह कोई नैतिक सिद्धांत नहीं, एक आध्यात्मिक अनुभव है / सोना, मिट्टी, शरीर-सब प्रकाश ऊर्जा से निर्मित / परम प्रकाश के अनुभव के बाद-अद्वैत, अभेद / तर्क और वाद चीजों को खंड-खंड करते हैं / आश्चर्य है-बुद्धि के पार की झलक / आज की आश्चर्य-शून्य सदी / बच्चे के आश्चर्य को नष्ट करना / मस्तिष्क को ट्रांसप्लांट करने के प्रयोग / गर्भ में बच्चे को शिक्षित करना / धर्म है रहस्य / धर्म है आश्चर्य की खोज / बुद्धि से दुख / बुद्धि जो नहीं है, उसे खोजती है / जो है, वह बुद्धि को दिखाई नहीं पड़ता / अर्जुन की बुद्धि गिरी, वह आश्चर्य से भर गया / एक गृहिणी का दुखी होना कि भगवान चार दिन बाद चले जाएंगे / वर्तमान को चूकना / ईश्वर का अनुभव रोएं-रोएं तक स्पंदित / योग-शरीर से आत्मा तक / भक्ति-आत्मा से शरीर तक / सरदार पूर्णसिंह का संस्मरण : स्वामी राम के शरीर से राम की ध्वनि का निकलना / आत्मा के अनुभव से शरीर भी पवित्र हो जाता / आप ही आप श्रद्धा से सिर झुक जाना / अर्जुन झुक गया / हाथ जुड़ गए / आश्चर्य में डूबे, लड़खड़ाते शब्द / अर्जुन का हर्षोन्माद / विराट-दर्शन / अनुभव का वर्णन-गैर-अनुभवियों को पागलपन लगना / मंसूर का उदघोष–अनलहक / योग्य श्रोता मिले, तो ही अनुभव को कहना / विराट-दर्शन के बाद सब कुछ बुद्धि-अतीत। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का भयावह रूप...295 ___ गीता के लेखक संजय हैं या व्यास? / कृष्ण और अर्जुन के बीच मौन संवाद / संजय ने धृतराष्ट्र से उसे कहा / व्यास ने केवल लिपिबद्ध किया / अनेक शास्त्र व्यास के नाम पर हैं / दिव्य-चक्षु क्या सिद्धावस्था के पूर्व भी मिल सकता है / नहीं / सिद्धावस्था और दिव्य-चक्षु एक ही बात / दूर-दृष्टि, दूर-श्रवण मन की क्षमताएं हैं / मन की सूक्ष्म शक्तियों में उत्सुक व्यक्ति अक्सर धार्मिक नहीं होते / दूसरों को प्रभावित करने का रस ही संसार है / दूर-दृष्टि और दिव्य-दृष्टि में फर्क / दृष्टि का अर्थ है : दूसरे को देखने की क्षमता / दिव्य-दृष्टि अर्थात समस्त दृष्टियों से मुक्त होकर द्रष्टा मात्र का रह जाना / लगता है : सब कुछ मेरे भीतर हो रहा है / स्वामी राम को जब पहली दफा समाधि का अनुभव हुआ, तो रोने-हंसने-नाचने लगे / कहाः सब चांद-तारे मेरे भीतर घूम रहे हैं / विनम्रता जानने की शर्त भी है और जानने का परिणाम भी है / अर्जुन अति विनम्र है / मेरा अनुभव-ऐसा दावा नहीं करता / मत और सत्य का फर्क / महावीर का स्यातवाद / हर कथन में सत्य का कुछ अंश तो है ही / अधिक लोग तो चार्वाकवादी ही हैं / नीत्शे ने कहाः ईश्वर मर गया है और अब मनुष्य स्वतंत्र है / चार्वाक की बातें मन को बड़ी प्रीतिकर / ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत / महावीर के अनुसार चार्वाक की बातों में भी थोड़ा सत्य तो है / आग्रह से अहंकार को बल/धर्म परिवर्तन के लिए मतांध आग्रह जरूरी / दूसरे को बदलने की चेष्टा राजनीति है / स्वयं को बदलने की चेष्टा धर्म है / आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं / विज्ञान की बड़ी उपयोगिता है / ईश्वर को जानने की कोई उपयोगिता नहीं है / फिर अर्जुन ने ईश्वर का तपायमान अग्निरूप देखा / जीवन जोड़ है-विपरीत द्वंद्वों का / केवल एक को चुनना संभव नहीं है / खाई और शिखर साथ-साथ हैं / ओल्ड टेस्टामेंट में ईश्वर का कठोर रूप / न्यू टेस्टामेंट में ईश्वर का प्रेम रूप / गुरजिएफ में परमात्मा के दोनों रूप प्रकट हुए थे / पूरे कृष्ण को स्वीकार करना मुश्किल है / ईश्वर के तीन रूप—ब्रह्मा, विष्णु, महेश / जन्म, धारण और विसर्जन / मृत्यु-भय के कारण शिव की बड़ी पूजा / गणेश की पूजा-ताकि वे विघ्न न करें / मृत्यु की अनिवार्यता का बोध / पतझड़ के पीछे छिपा है वसंत / अलौकिक और भयंकर एक साथ / भय के कारण की गई पूजा-प्रार्थना रुग्ण है | आत्मा की खोज अमृत की खोज है / देवता भी मिटने से डरते हैं / जहां वासना-वहां अहंकार / जहां अहंकार-वहां मिटने का डर / इंद्र का सिंहासन डोलना / मिटने का भय-आखिरी सीमा तक / भीतर-बाहर-शून्य चैतन्य / इस परम एकता में भय तिरोहित। अचुनाव अतिक्रमण है ... 313 अस्तित्व विपरीत द्वंद्वों से मिल कर बना है, तो परम सत्य इन द्वंद्वों का जोड़ है या कि इनके अतीत कोई तीसरी सत्ता है? / संसार है-एक द्वंद्वात्मक तनाव की अवस्था / द्वंद्व के शांत होने पर अद्वैत ब्रह्म में प्रवेश / ब्रह्म, जीवन और मृत्यु के पार है / हीगेल और मार्क्स का अधूरा द्वंद्वात्मक विकासवाद | चुनावरहित स्वीकार में द्वंद्वों का अतिक्रमण / अचुनाव में जीने वाला-संन्यासी / जो चुने, वह गृहस्थ / सुख चाहा, तो दुख भी आएगा / फूलों की अपेक्षा की, तो पत्थर भी पड़ेंगे / जो हो, उसके लिए राजीपन / चुनावरहितता संन्यास की गुह्य साधना है / चुनावरहित होने के दो मार्ग-योग और भक्ति / भक्त का समर्पण और स्वीकार भाव / अर्जुन का मार्ग है-प्रेम, भक्ति / आप गीता की इतनी लंबी व्याख्या क्यों कर रहे हैं? / गीता तो स्वयं में पर्याप्त है / लेकिन आप बहरे हैं / बुद्ध हर बात को तीन बार कहते / सुनने के लिए भीतर निर्विचार दशा चाहिए / प्राचीन गीता को युगानुकूल नए प्राण देना / शब्दों पर जम गई धूल को झाड़ना / नए मन के लिए नए शब्द / पांच हजार साल पहले मन का आधार था श्रद्धा / आज मन का आधार है संदेह / विज्ञान है संदेह की कला / धर्म की यात्रा में श्रद्धा अनिवार्य है / आज के मन को श्रद्धा की ओर मोड़ना अति कठिन है / श्रद्धा को अब संदेह के मार्ग से लाना होगा / संदेह को काटने के लिए तर्क और संदेह का ही उपयोग / नया अनूठा प्रयोग / नई पीढ़ी सोच-विचार वाली / संदेह कर-कर के संदेह करने में असमर्थ हो जाना / दौड़-दौड़कर थक गई बुद्धि-फिर विश्राम / अर्जुन ने देखा, विकराल रूप / हमने परमात्मा के केवल सुंदर रूप पर Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोर दिया है / पूरा परमात्मा देखने पर व्याकुलता स्वाभाविक है / तांत्रिकों ने साहस-पूर्वक कुरूप प्रतिमाएं भी बनाई हैं / काली की प्रतिमा में द्वंद्व को इकट्ठा करने की कोशिश / मां का प्रेम और मृत्यु की कठोरता / काली का प्रतीक-मूल्य खोता चला गया है / परमात्मा के सौम्य, सुंदर रूप से हमें राहत मिलती है / मोर-मुकुट बांधे, बांसुरी बजाते हुए कृष्ण / सुख ही सुख, शांति ही शांति-मनोकामना की परिपूर्ति / कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर-सदा युवा / बूढ़े, जीर्ण-जर्जर, रुग्ण व्यक्ति को भगवान मानना कठिन होगा / सब तीर्थंकर और अवतार-बिना दाढ़ी-मूंछ के / हमारी चिंता—कि वे हम जैसे न हों / शरीर के नियमों में अपवाद नहीं होते / रोज दाढ़ी-मूंछ छोलने का मनोवैज्ञानिक अजूबापन / दाढ़ी-मूंछ-पुरुष का प्राकृतिक सौंदर्य / मृत्यु का भय-आत्मा की अमरता की बातें / जीवन का मोह / समाज प्रदत्त झूठा अंतःकरण / भय और लोभ का आधार / आचार-विचार के सामाजिक संस्कार / धारणाशून्य चित्त में परमात्मा का अनुभव / ईश्वर भी माया का हिस्सा है / भक्तों द्वारा निर्मित अलग-अलग भगवान / माया की आखिरी परिधि—ईश्वर / मृत्यु के विकराल मुंह की ओर बढ़ते हुए सारे लोग / अंततः आदमी पहुंचता है कब्र में / मृत्यु का, दुख का कारण परमात्मा ही है / परमात्मा सृष्टि है-और प्रलय भी / अर्जुन की बेचैनी / जुनैद का संस्मरण : पड़ोसी पुण्यात्मा और पापी एक साथ / किसी के पैरों में झुकना एक बड़े निष्कलुष हृदय का लक्षण है / अर्जुन परमात्मा के मृत्यु-रूप को अप्रीतिकर समझ कर हटाना चाह रहा है / यह चुनाव उसे पुनः द्वंद्व में गिरा रहा है। पूरब और पश्चिम : नियति और पुरुषार्थ ... 329 महाभारत युद्ध क्या एक अपरिहार्य नियति था? / दो जीवन दृष्टियां : पुरुषार्थ की और नियति की / पश्चिम का प्रयोगः बाहर समृद्धि, भीतर तनाव, संताप / महंगा सौदा / पूरब का प्रयोगः भौतिक दरिद्रता-आत्मिक शांति और ऐश्वर्य / भविष्य की चिंता नहीं, तो वर्तमान में जीना संभव / कल कभी आता नहीं है / जीने की तैयारी करते-करते जीने वाला ही नष्ट हो जाता है / पाने के लिए गंवाना भी होता है / पश्चिम का नया अनुभव-बाहर समृद्ध होने पर भी भीतर दरिद्र है / पूरब बहुत बार समृद्ध हो चुका है / महाभारत के समय भारत समृद्धि के शिखर पर था / परमाणु ऊर्जा वाले अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख / समृद्धि और युद्ध / आत्मिक दरिद्रता हिंसा लाएगी ही / मनुष्यता विश्वयुद्ध के कगार पर / तीसरे विश्वयुद्ध से बचना करीब-करीब असंभव दिखता है / एक व्यक्ति का रोम जाकर जीसस की मूर्ति तोड़ना / विध्वंस की विक्षिप्तता / विनाश का आनंद / स्वतंत्रता के नाम पर विध्वंसः अति दयनीय, रुग्ण दशा / विश्वयुद्ध की अतिशय तैयारी हो चुकी है / पूरब में समृद्धि का शिखर और खाई अनेक बार घटित / पश्चिम का इतिहास छह हजार साल का / वेद के नब्बे हजार साल से भी ज्यादा पुराने होने की संभावना / मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की प्राचीन सभ्यताएं / आस्ट्रेलिया में उपलब्ध पत्थर पर खुदे चित्र-अंतरिक्ष यात्रियों जैसी वेशभूषा-सत्तर हजार साल पुराने / तिब्बत के एक पहाड़ पर प्राप्त ग्रामोफोन रिकार्ड जैसे पत्थर के सत्तर चके-बीस हजार साल पुराने / पूरब का निष्कर्षः भविष्य की चिंता छोड़ी जा सके, तो ही आत्मा निर्मित होती है / सफलता असंभव है / वासना सदा और ज्यादा की मांग है / नियति की धारणा वाला व्यक्ति निर्भार हो जाता है / महत्वाकांक्षा का अंतिम परिणाम विक्षिप्तता / मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तीन चौथाई मनुष्य जाति का मस्तिष्क गड़बड़ है / मन एक अराजकता है-एक भीड़ / क्रोध अस्थायी पागलपन है / भारत की दृष्टि ः भविष्य को छोड़ दो परमात्मा पर / कल की चिंता के साथ वर्तमान में जीना संभव नहीं / गीता की दृष्टिः भविष्य सिर्फ अनफोल्ड हो रहा है / यह दृष्टि एक उपाय है / रामलीला में कथा को बदलने का कोई उपाय नहीं है / एक रामलीला में रावण का सीता से प्रेम / रावण ने शिवजी का धनुष तोड़ दिया / नकली को असली मान लेने से जीवन में बड़ी उलझन हो जाती है / कृष्ण ने कहाः अर्जुन, जो हो रहा है, उसे होने दे / तू निमित्त मात्र है / बंगाल के अदभुत संन्यासी स्वामी युक्तेश्वर गिरि-योगानंद के गुरु / बोध घटनाः एक शिष्य का मारपीट में भाग न लेना / युक्तेश्वर ने कहा: तूने नि दूसरा बन गया / कृष्ण कह रहे हैं : जो होनी है, वह होने दे-युद्ध, तो युद्ध; संन्यास, तो संन्यास / तू बीच में मत आ / सृजन, फिर विनाश; फिर सृजन, फिर विनाश—इस वर्तुल के पीछे परमात्मा का क्या आशय है? / आदमी निरंतर पूछता रहा है कि इस विराट आयोजन का क्या लक्ष्य है / यदि आत्मज्ञान और मोक्ष लक्ष्य है, तो इतनी ज्यादा बाधाएं क्यों बनाईं / जैनों ने परमात्मा को नहीं माना / आदमी अमुक्त क्यों हुआ? / परमात्मा ने आदमी को अपने राज्य से बाहर क्यों निकाला? / कहते हैं कि शैतान ने अदम को बगावत का खयाल दिया / शैतान को कौन बनाता है? / हिंदू कहते हैं : जगत का कोई प्रयोजन नहीं है; यह लीला है / काम में प्रयोजन होता है / खेल में प्रयोजन नहीं होता / प्रातः सैरः बस, होने का मजा / निष्प्रयोजन घूमने का आनंद / भविष्य से, लक्ष्य से तनाव पैदा होता है / सारी सृष्टि परमात्मा की लीला है-निष्प्रयोजन / परमात्मा खेल रहा है : हाइड एंड सीक / खुद को छिपा रहा है और खुद ही खोज रहा है । धार्मिक आदमी वह है, जिसके लिए सब कुछ खेल हो गया / रावण में भी वही. राम में भी वही / दोनों तरफ से वह दांव Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चल रहा है / परमात्मा की खोज के नाम पर चलते अलग-अलग गोरखधंधे / छोटे बड़े सभी प्राणी तीव्र वेग से मृत्यु के मुख की ओर गति कर रहे हैं | आप उग्र रूप वाले कौन हैं? / आप प्रसन्न होइए / आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं / आप अपनी प्रवृत्तियां सिकोड़ लें / संसार परमात्मा की ही प्रवृत्ति है / हम परमात्मा को पाना चाहते हैं, लेकिन उसकी प्रवृत्ति से बचना चाहते हैं / उग्रता और प्रसन्नता दोनों प्रवृत्तियां हैं / तत्व तो शून्य है / शून्य को तो हम देख नहीं पाते / मौन को तो हम सुन नहीं पाते / एक फ्रेंच महिला के संस्मरण : अनिर्वाण के साथ पांच साल का मौन सत्संग / मौन को सुनने में देश-काल की कोई बाधा नहीं है / जब तक प्रवृत्ति, तब तक चुनाव / प्रवृत्ति नहीं बांधती, चुनाव बांधता है / चुनाव से भीतर का शून्य खंडित होता है । जो शून्य हो जाता है, वह उसे तत्व से जान लेता है। साधना के चार चरण ... 345 दिव्य-दृष्टि को पाकर भी अर्जुन भयभीत क्यों है? / मरण-धर्मा है अहंकार / अंतिम बाधा–अस्मिता / बहुत से मैं / बहुचित्तवान है मनुष्य / भीतरी भीड़ / साधना से भीड़ को काटना और एक-मैं का निर्माण करना / फिर मैं का विसर्जन / फिर न-मैं का भी विसर्जन / गुरजिएफः साधना के चार चरण / बहु मैं, एक मैं, न-मैं, परम शून्य / विराट को झेलने के लिए क्या तैयारी जरूरी है? / मिटने की तैयारी / सभी तरफ से मैं को मजबूत करने की तरकीबें / अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन-प्रचार / बड़ा प्रचार–बड़ा महात्मा / बड़े अपराधी-बड़ा अहंकार / संस्मरण ः एक प्रवचन देते साधु का सामने बैठे हुए सेठों को बार-बार संबोधित करना / अहंकार के प्रति असहयोग और साक्षीभाव / जगत निष्प्रयोजन लीला है, तो फिर इसमें इतनी प्रगाढ़ नियमबद्धता क्यों है? / खेल टिकता ही नियम पर है / विज्ञान नियम की खोज है / स्वीकार से परम विश्राम घटित / स्वप्न में बेचैनी, घबड़ाहट / जागकर हंसना / प्रयोजन से चिंता / शांति से ऊर्जा का संग्रह / सब नियति का खेल मान लें, तो क्या जगत में आलस्य न छा जाएगा? / आलसी कोई नुकसान नहीं करते / सब उपद्रव कर्मठ लोगों द्वारा / जन्मजात आलस्य-जन्मजात कर्मठता / लोकमान्य तिलक का जेल में कोयले से गीता-रहस्य लिखना / बोधकथाः आलसियों का प्रेमी जापानी सम्राट / आलसियों की झोपड़ी में आग लगवाना / आलस्य या कर्मठता-सहज स्वीकार / नियति की धारणा से क्या अपराध में वृद्धि न होगी? / भीतर छिपे अपराधी से भय / नियति का स्वीकार–सभी आयामों में / चोर भी भरोसे वाला साझीदार खोजता है / लाभ का स्वीकार-हानि का भी स्वीकार / सर्व स्वीकार में अहंकार का खो जाना / अहंशून्य व्यक्ति से अपराध संभव नहीं / अहंकारजनित समाज सुधार का उपद्रव / कर्म की विक्षिप्तता / बुराई की जड़ में मैं /...युद्ध की नियति / छिपा हुआ भविष्य / आक्सफर्ड की डेलाबार प्रयोगशाला में कली की फोटो लेने पर उसमें फूल का उभरना / रूस में ऊर्जा-मंडलों का अध्ययन / तीन महीने पहले ही बीमारी का पता लग जाना / चेतना की ऊंचाइयों में भविष्य का स्पष्ट दर्शन / अर्जुन युद्ध का निमित्त है-कारण नहीं / निमित्त बदले जा सकते हैं / अगर अर्जुन नहीं मारेगा, तो कोई और मारेगा / नियति योद्धाओं को मार चुकी है / अर्जुन की जीत निश्चित हो चुकी है / रावण की या दुर्योधन की हार निश्चित / अस्तित्व के विपरीत होने में हार है / अहंकार को मजा-धारा के विपरीत तैरने में / पांडव धारा के अनुकूल हैं / संन्यास अर्जुन के लिए सहज नहीं / जुजुत्सु की कला-विराट के साथ होना / जुजुत्सु का साधक सहयोग करता है-संघर्ष नहीं / शराबी गिरता है-चोट नहीं लगती / बच्चों को भी चोट नहीं लगती / अर्जुन! तू निस्संदेह जीतेगा; युद्ध कर। 8 बेशर्त स्वीकार ... 361 संसार में ही रह कर मन सदा शांत, प्रसन्न और उत्साही कैसे रखें? / अशांति और उदासी के स्वीकार में ही उनका अंत है / अशांत आदमी कुछ भी करे, वह अशांति को बढ़ाएगा / नीम के बीज से नीम का पत्ता ही निकलेगा / कुछ करें मत, सिर्फ राजी हो जाएं / स्वीकार क्रांतिकारी तत्व है / संस्मरणः Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : एक महिला प्रोफेसर का रुका हुआ रुदन / हमारी कोशिश: सुख को पकड़ना और दुख से बचना / दोनों छोड़ देना - संन्यासी के लिए मार्ग / दोनों पकड़ लेना - गृहस्थ के लिए मार्ग / मन आधे के साथ ही जी सकता है / मन का खेल — दो में तोड़ना / बेशर्त स्वीकार का चौबीस घंटे प्रयोग कर के देखें / शांत होना जीवन-दृष्टि है / मन की तरकीब प्रयत्न भी— स्वीकार भी / दोनों हाथ लड्डु – दो नावों पर एक साथ सवारी / सब समझौते झूठे / कर्ता की चिंता विक्षिप्तता लाएगा / सब मिट्टी हो जाता है / कर्ता छोड़ना है - कर्म नहीं / कर्ता का बोझ हटते ही विराट कर्म फलित / कर्तारहित कर्म / पशु की तरह चलना भय से या लोभ से / अहंकार पशु है / सहज स्फूर्त कर्म / जो उसकी मर्जी / क्या आप भगवान हैं? / तुम भी भगवान हो / भगवान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है / सृष्टि और स्रष्टा एक हैं / नृत्य और नर्तक एक हैं / बुद्ध, महावीर, कृष्ण की घोषणाएं / कृष्ण ने अर्जुन को विराट का दर्शन कराया / मैं भी विराट का दर्शन करवा सकता हूं तुम्हें अर्जुन बनना होगा / स्वयं की भगवत्ता को पहचानने में लगें / भविष्य दिखता नहीं, अन्यथा हम उसे सह न सकेंगे / अतीत भूले न, और भविष्य दिखाई पड़ने लगे, तो मुश्किल हो जाए / मृत्यु-बोध का धक्का / भविष्य और विराट को देखकर अर्जुन का कंपना और गदगद भी होना / भविष्य ज्ञात हो, तो खेल का मजा चला जाता है / जीत सुनिश्चित हो, तो अहंकार का रस-भंग / निमित्त मात्र होने में अहंकार को रस नहीं है / परमात्मा के साक्षात्कार से भय भी, हर्ष भी / मन है द्वंद्व / कुछ है जो नष्ट होगा, कुछ है जो पुष्ट होगा / परमात्मा का नाम सुन कर ही रामकृष्ण का समाधिस्थ हो जाना / संसार के प्रति बेहोश, परमात्मा के प्रति होश / यही कीर्तन का अर्थ है / कई मित्रों को यहां हो रहे कीर्तन से अड़चन है / शरीर का होश नहीं / स्त्री-पुरुष साथ-साथ नाच रहे हैं / कीर्तन तो पागलों का रास्ता है / अपने को धारा में छोड़ना - फिर जो हो / कीर्तन बुद्धिमानों का काम नहीं है / कीर्तन की कला खो गई है / हम अति बुद्धिमान हो गए हैं। बुद्धि को छोड़ने की क्षमता चाहिए / विराट के दर्शन से लड़खड़ाती अर्जुन की वाणी / धन्यभाव के वचन / नमस्कार – नमस्कार - नमस्कार / गुरु से उऋण होना शिष्य के लिए असंभव है / शिष्य क्या करे / सिर्फ नमन रह जाता है / नमन की अदभुत धारणा - भारत में विकसित / गुरु चरणों में सब भांति समर्पित हो जाना / धर्म हैकला / कृष्ण के झरोखे से अर्जुन ने विराट में झांका। - - झुकने की - 9 चरण-स्पर्श का विज्ञान 377 — प्रभु से हम क्या मांगें ? क्या प्रार्थना करें ? / प्रार्थना है धन्यवाद, अनुग्रह भाव - मांग नहीं / असीम जीवन हमें मिला है / बोध कथा : मांगने में असमर्थ विवेकानंद / मांग संसार है / मांगने वाले मन में प्रार्थना असंभव / प्रार्थना कृत्य नहीं - अंतर्दशा है / वासना का भिखमंगापन / वासना है दौड़ / प्रार्थना है रुक जाना / प्राणों में पुलकन, थिरकन / मीरा के गीत और नृत्य / नर्तकियां और कवि / बुद्ध की निष्कंप शांति / विश्राम के क्षण में ठहर जाना / परमात्मा तो निराकार है, फिर आप बुद्ध, महावीर और कृष्ण को भगवान क्यों कहते हैं? / सभी कुछ निराकार है/ देखने की सीमित क्षमता से आकार निर्मित / कहां आपका शरीर समाप्त होता है / सूर्य शरीर का हिस्सा है आपका प्रारंभ क्या है और आपका अंत कहां है / अरबों-खरबों वर्षों से चल रहे आपके जीवाणु / सूर्य पर उठे तूफानों से पृथ्वी पर विक्षिप्तता की लहरें / वैज्ञानिक अध्ययन / आप भी असीम हैं / मुक्त और शून्य दृष्टि में विराट की प्रतीति / एक में परमात्मा दिखे तो सब में परमात्मा / बुद्ध पुरुष सदा उपलब्ध हैं हमारे पास आंख नहीं है / बोधकथा बुद्ध जब अज्ञानी थे / भगवान को देखने की आंख / बोधकथा नानक जब मक्का गए / देखने की कला / कोर्तन के समय किस छवि पर मन को केंद्रित करें? / मन को केंद्रित नहीं - विसर्जित करना है / एकाग्रता तनाव है / डूबना, पिघलना, लीन होना / जगत का विस्मरण और परमात्मा का स्मरण / व्यक्ति विराट हो जाता है / छवि को न लाने की चेष्टा करें, न हटाने की / साकार से निराकार में छलांग / कीर्तन से व्यवस्था का कोई संबंध नहीं है / पहले शरीर को छोड़ना फिर मन को / रूसी अंतरिक्षयात्री के भारहीनता के अनुभव / शरीर से अलग साक्षी का बोध / अंतरिक्ष यात्रा का ध्यान के लिए उपयोग / दरवेश नृत्य - व्हिलिंग / गोल घूमने में बच्चों का रस / विराट के दर्शन के बाद अर्जुन की कृष्ण से क्षमायाचना / सब में परमात्मा दिखने से व्यवहार का बदल जाना / रवींद्रनाथ का संस्मरणः बिना अनुभव के गीतांजलि लिखना / एक वृद्ध पुरुष द्वारा पीछा / समाधि की पहली झलक / वृद्ध के प्रति अनुग्रह भाव / अज्ञानी का व्यवहार / अनुभव के बाद पूरे जगत से माफी मांगने का भाव / अर्जुन ने कृष्ण को एक मित्र माना था / चरणों में सिर रखने का भाव / शरीर और मन जुड़े हुए हैं / जेम्स लेंगे का सिद्धांत / मन दुखी हो तो शरीर में ज्यादा रोग / मन प्रसन्न हो तो शरीर में बीमारी का प्रवेश कठिन / क्रोध में दांत और मुट्ठी का भंचना / प्रेम में शरीर और मन शिथिल हो जाता है / सारी दुनिया में अपमान करने के लिए सिर पर जूता मारना / श्रद्धा के क्षणों में किसी चरणों पर सिर रखने की भारतीय परंपरा / चरण-स्पर्श का ऊर्जा - विज्ञान / देह - विद्युत के संबंध में वैज्ञानिक प्रयोग / धन और ऋण विद्युत Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के वर्तुल बनने पर मन का शांत हो जाना / ऊर्जा का प्रवाह-गुरु से शिष्य में / आशीर्वाद / ट्रॅक्वेलाइजर्स के बदले विद्युत तरंगों का उपयोग / वैज्ञानिक साल्टर का बिल्लियों पर प्रयोग / अल्फा वेव्स और ध्यान। मनुष्य बीज है परमात्मा का ... 393 .. कृष्ण के विराट स्वरूप को देखते समय अर्जुन ने सब प्राणियों को मृत्यु-मुख में गिरते देखा / लेकिन स्वयं को गिरते नहीं देखा / ऐसा क्यों? / हम बहुत बार मरे हैं, लेकिन मृत्यु को कभी देखा नहीं है / मरते समय बेहोश हो जाना / मृत्यु के समय होश हो, तो पता चले कि शरीर मरता है-मैं नहीं / मरने की कल्पना करनी भी मुश्किल / सब मर रहे हैं अर्जुन देख रहा है / मृत्यु को देखने की चेष्टा में अमृत का अनुभव / रमण का मृत्यु से साक्षात्कार / योग है स्वेच्छा से मरने की कला/आचार्यो मृत्युः / सदगुरु के पास मृत्यु और अमृत का अनुभव / समाधि में मर्त्य और अमृत की भेद-रेखा स्पष्ट / आत्मा की अमरता ः विश्वास मात्र नहीं अनुभव बने / मृत्यु बड़े से बड़ा आपरेशन है / ध्यान है होश का क्रमिक अभ्यास-देह से भिन्न होने का बोध / नींद को होशपूर्वक देखने का प्रयोग करना / नींद में होश-तो फिर मृत्यु में होश आसान / उपवास का ध्यान-प्रयोगः शरीर को भूख लगी-मुझे नहीं / स्वयं के भीतर अमर्त्य का बोध-फिर सब के भीतर अमर्त्य का दर्शन / रामकृष्ण की अपनी मृत्यु की तीन दिन पूर्व घोषणा / शारदा से कहा-मैं नहीं मरूंगा/ शरीर से तादात्म्य के कारण मृत्यु का भ्रम होना / हम भगवान के अंश हैं—यह समझ में आता है / लेकिन हम भगवान है-यह समझ में नहीं आता! / धर्म का गणित भिन्न है / ईशावास्य उपनिषद कहता है-पूर्ण में से पूर्ण निकाल लो, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष / परमात्मा के टुकड़े संभव नहीं / परमात्मा समग्रता है, उसमें न कुछ जोड़ा जा सकता–न कुछ घटाया / थोड़े-थोड़े परमात्मा का कोई अर्थ नहीं / असीम को खंडों में नहीं बांटा जा सकता / टर्शियम आर्गानम में आस्पेस्की का कथन-टुकड़ा पूरे के बराबर है / आंशिक परमात्मा होने का पूरे के पूरे परमात्मा हैं-अभी और यहीं / संबोधि—जो सदा से मिला ही हुआ था, उसका बोध / अपने को भगवान स्वीकार करने में बेचैनी / भीतर छिपा परमात्मा जब तक प्रकट न हो जाए, तब तक अतृप्ति / विचार भी परिणाम लाते हैं / धारणा का मनोविज्ञान / संस्मरणः विश्वविद्यालय में एक शिक्षक को बीमार होने के सुझाव दिलवाना / आदमी सिर्फ एक संभावना है / डार्विन और फ्रायड की धारणाओं से पश्चिम में हीनता को बल / आप ईश्वर हैं—परम विस्तार की धारणा / परमात्मा होना-आपकी अंतिम नियति है / अखंड भीतर विराजमान है संभावना की तरह / आप बीज हैं परमात्मा के/ अर्जुन कृष्ण का विराट रूप देख हर्षित भी, भयभीत भी / राबिया का हंसना और रोना एक साथ / अर्जुन की घबड़ाहट ः सीमा का असीम से साक्षात / विराट में खोकर मिट जाने का भय / कवि गेटे का मृत्यु-क्षण में हर्षित और कंपित होना / अर्जुन का कृष्ण से निवेदन-विराट से पुनः मनुष्य-देहरूप में वापसी के लिए / वर्तमान से राजी होने की हिम्मत नहीं है / रवींद्रनाथ की कविताः जब वे परमात्मा के द्वार से घबड़ा कर वापस लौट आए / मिटने से भयभीत अर्जुन / रसेल का व्यंग्य ः हिंदुओं के मोक्ष से उसको भय / ऊब के लिए बुद्धि जरूरी / ऊब नहीं है-बुद्धि के नीचे या बुद्धि के पार / आदमी परेशान है-भैंस और भगवान के बीच खड़ा हुआ / अर्जुन का भय-निराकार से साकार में लौटने की आकांक्षा / निराकार में सीधे जाने की तैयारी न हो, तो फिर मूर्तियां उपयोगी / अद्वैत ब्रह्मवादी शंकर द्वारा मूर्ति की पूजा करना / अर्जुन पहला और आखिरी व्यक्ति है जिसे कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया / अर्जुन जैसा व्यक्ति पाना कठिन है / अर्जुन जैसा शिष्य बुद्ध, जीसस, राम-किसी को उपलब्ध नहीं हुआ / तप, साधना आदि से कोई अर्जुन जैसा न बन पाएगा / अर्जुन का अनूठा समर्पण / कृष्ण की हवा में अर्जुन ने अपने पाल खोल दिए। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांग और प्रार्थना ... 409 बच्चे की भांति सरल और ज्ञानशून्य मनुष्य क्या परमात्मा को पा सकता है? / जीसस का प्रसिद्ध वचन–मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश का अधिकारी-जो बच्चे की भांति सरल है / बच्चे की सरलता झूठी है / संत की सरलता अर्जित है / सारी जटिलताएं बच्चे के भीतर अप्रकट पड़ी हैं / मां और बेटी के बीच ईर्ष्या / बाप और बेटे के बीच ईर्ष्या / बचपना सुखद था-बूढ़े की भ्रामक सांत्वना / बच्चे की पीड़ा-परतंत्रता की, असहाय होने की / दुखद स्मृतियों को मन भूल जाता है / बच्चा क्षण-क्षण जीता है, क्योंकि अभी मन विकसित नहीं हुआ है / बच्चे के भीतर सब रोग छिपे हैं / संत के सब रोग गिर गए / चित्त पर अतीत का बोझ / अतीत का बोझ ही बुढ़ापा है / अनुभव और पीड़ाओं से गुजरना जरूरी / दुबारा जन्म-द्विज होने की क्रांति / मन खाली और निर्मल दर्पण रह जाए / क्या आत्मा की तौल हो सकती है? / स्वीडन के डाक्टर जैक्सन का प्रयोग / ईजिप्त के सम्राट फैरोह का प्रयोग-मरते हुए व्यक्ति को कांच की पेटी में बंद करना / डाक्टर जैक्सन ने मरने के बाद मृत शरीर में इक्कीस ग्राम की कमी पाई / यह कमी आत्मा की नहीं निकल गई प्राणवायु की थी / आत्मा अमाप्य है-भाररहित है / प्राणवायु के जलने से शरीर में गर्मी / विज्ञान की सारी व्यवस्था पदार्थ को पकड़ सकती है-आत्मा को नहीं / विज्ञान है पदार्थ के साथ प्रयोग / धर्म है चेतना के साथ प्रयोग / धर्म और विज्ञान में क्या फर्क है? / धर्म है आंतरिक अनुभव-विज्ञान है बाह्य प्रयोग / धर्म है वैयक्तिक-विज्ञान है सामूहिक / धर्म और विज्ञान के आयाम बिलकुल अलग हैं / अर्जुन की पात्रता क्या है? / अर्जुन का प्रेम है--कोई तप नहीं है / जैन व बौद्धों की श्रमण संस्कृति / श्रमण संस्कृति अर्थात परमात्मा मिलेगा-तप से, साधना से, योग से / ब्राह्मण संस्कृति अर्थात समर्पण, प्रार्थना, प्रेम / महावीर परम श्रमण हैं / तप है अहंकार को शुद्ध करने की प्रक्रिया / सोने को आग में तपाना / समर्पण के मार्ग पर जो है, जैसा है-सब कुछ परमात्मा को अर्पित कर देना है / अर्जुन का अतिशय प्रेम ही उसकी पात्रता है / जिंदगी की सारी पीड़ा है-अहंकार को पकड़ने और सम्हालने के प्रयास में / नींद में विश्राम-अहंकार का शिथिल हो जाना / प्रेम है-जागते हुए नींद में गिर जाना / छोड़ने की कला/ ध्यान सरल है-प्रेम दुर्लभ / अनिद्रा का रोग–बुद्धि-केंद्रित जीवन का परिणाम / नींद लाने की कोशिश बाधा है / कुए का विपरीत परिणाम का नियम / नियति की धारणा से विश्राम फलित / अर्जुन का मार्ग है प्रेम / संकल्प के मार्ग पर ईश्वर की धारणा जरूरी नहीं है / अर्जुन अपने को छोड़ सका पूरा का पूरा / हमारी बेईमानी-न श्रम, न समर्पण / तैरने की कला-अपने को ढीला छोड़ देना / आप कहते हैं कि प्रार्थना में कुछ मांगो मत / तो क्या प्रार्थना में कुछ मांगा जाए, वह पूरा नहीं होगा? / मांग पूरी हो जाएगी, लेकिन प्रार्थना बेकार हो जाएगी / बहुत सस्ते में प्रार्थना बेच दी / वासनापूर्ण प्रार्थना में मन की शक्ति से ही फल की प्राप्ति / प्रार्थना है-वासनाशून्य क्षण में विराट से मिलन / मन की शक्तियां / विधायक तरंगों का निर्माण / प्रार्थना मांग नहीं स्वयं को प्रभु-अर्पित करना है / कृष्ण का साकार-सगुण रूप में वापस लौट आना / विराट और व्यक्ति का संबंध-मां-बेटे जैसा / गर्भ के भीतर और गर्भ के बाहर बेटा मां से सूक्ष्म रूप से जुड़ा हुआ है / प्रेमविहीन मां केवल यांत्रिक जननी होगी / रूस में वैज्ञानिक प्रयोगः खरगोश के बच्चे को सताना-मारना-हजारों मील दूर बैठी मां को पीड़ा होना / अस्तित्व हृदयपूर्ण है / अस्तित्व हार्दिक प्रत्युत्तर देता है / कबीर ने कहा है : ऐ मौलवी, अजान में जोर से क्यों चिल्लाता है। क्या तेरा खुदा बहरा हो गया है? / मौलवी का भाव है कि खुदा तो बहरा नहीं, लेकिन मैं बहुत कमजोर हूं / हम जो भी हैं-अपनी ही इच्छाओं के परिणाम हैं / हमारी मांगें बड़ी विरोधाभासी होती हैं / पति शक्तिशाली और आज्ञाकारी एक साथ नहीं होगा / बहुत सुंदर पत्नी का पतिव्रता होना मुश्किल है / अस्तित्व सब वासनाएं पूरी कर देता है-यही आदमी की मुसीबत है / समर्पण अर्थात तू जो ठीक समझे, वह करना / फिर कोई कष्ट नहीं है / सूली पर लटके जीसस की शिकायत—यह तू क्या दिखा रहा है! / तत्क्षण जीसस को होश आया; कहा-तेरी मर्जी पूरी हो / एक क्षण में मरियम का बेटा जीसस, ईश्वर का बेटा क्राइस्ट हो गया / कृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर अर्जुन को धीरज दिया / एक प्राचीन यहूदी कथन-ईश्वर एक भूकंप है / मनुष्य के मनोनुकूल परमात्मा का रूप-महात्मा / कृष्ण को हमने पूर्णावतार कहा / राम को अंशावतार कहा / राम से हमारा तालमेल बैठता है / अर्जुन ने कहा, हे जनार्दन, आपके शांत मनुष्यरूप को देखकर मैं शांत-चित्त हुआ अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूं / मनुष्य का सशर्त होना / तुलसीदास का कृष्ण की मूर्ति के सामने झुकने से इनकार / भक्त और साधक का फर्क / साधक अपने को बदलता है, निखारता है | भक्त कहता है, तुम ही मुझे बदलो-कृपा करो / साधक अपनी सब धारणाएं गिरा देता है / भक्त अपने अनुकूल ईश्वर को पुकारता है और फिर उसकी मर्जी पर अपने को छोड़ देता है / जैसा भी हं, अपने को छोड़ता हूं / तू ही बदल लेना / संकल्प का मार्ग, समर्पण का मार्ग-स्पष्ट बोध जरूरी। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक सौंदर्य ... 427 सृष्टि और स्रष्टा एक हैं और अगर हम स्वयं भगवान ही हैं, तो फिर भगवान को पाने और खोजने की बात भी असंगत है! / खोज व्यर्थ है-यह बोध खोज-खोज कर थक जाने पर ही संभव / खोजने वाला जब चुक जाता है, तब विश्राम / खोजत खोजत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ / परमात्मा खोजने वाले की अंतरात्मा है / जो अभी खोजने भी नहीं निकला है, वह थका नहीं है-वह रुक न सकेगा / जिसने पकड़ा ही नहीं, वह छोड़ेगा कैसे! / जब बाहर खोजने को कुछ नहीं बचता, तभी चेतना अंतर्गामी होती है / शास्त्र पढ़ कर ही उनकी व्यर्थता का बोध / गुरु और शास्त्र से नहीं मिलेगा-यह सदा से सदगुरु समझाते रहे हैं / ट्रेन पर चढ़ना भी पड़ता है, फिर उतरना भी पड़ता है / ज्ञान के पूर्व का अज्ञान / ज्ञान के गिर जाने के बाद का अज्ञान / कहीं न जाती चेतना स्वयं में प्रज्वलित हो उठती है / सीढ़ी पर चढ़ो-फिर ऊपर पहुंच कर सीढ़ी छोड़ दो / भोग के बाद त्याग; खोज के बाद विश्राम / भक्त का अपने ईष्ट-देव का दर्शन करना क्या परम ज्ञान की अवस्था है? / परम ज्ञान से पहले की अवस्था / भक्त और भगवान / परम अवस्था में न काली, नकृष्ण, न क्राइस्ट बचते / अद्वैत परम ज्ञान है / दृश्य और द्रष्टा दोनों खो गए, सिर्फ होश रह गया / रामकृष्ण की साधना काली और रामकृष्ण-केवल दो बचे / अद्वैत के गुरु ने कहा, तलवार उठाकर काली को काट डाल / भक्त की आखिरी हिम्मत / आखिरी छलांग-सीढ़ी भी छोड़ देना / मार्टिन बूबर की प्रसिद्ध किताब-आई एंड दाऊ / यहूदी, ईसाई और मुसलमान-आखिरी छलांग की हिम्मत नहीं करते / मंसूर की हत्या कर दी गई, क्योंकि वह अद्वैत की घोषणा कर रहा था / अद्वैत में छलांग के लिए द्वैत तक आना जरूरी/ भगवान की मूर्ति बनाना, उसकी पूजा करना, फिर एक दिन पानी में डुबा आना / बिना शरीर से सम्मिलित हुए क्या मन ही मन कीर्तन नहीं किया जा सकता? / अभी तुम्हारा शरीर और मन जुड़े हुए हैं / अभी तो शरीर से शुरू करें / प्रेम का और शराब का शरीर और मन दोनों पर प्रभाव / संत फरीद से एक जिज्ञासु का पूछना-जीसस को सूली लगी, मंसूर को टुकड़े-टुकड़े काटा गया / क्या उन्हें पीड़ा नहीं हुई / फरीद का उदाहरण-कच्चे नारियल और सूखे नारियल के खोल और गिरी की अवस्था / जीसस और मंसूर सूखे नारियल थे/कीर्तन में शरीर से सम्मिलित न होने के पीछे भय कारण है / दूसरे क्या कहेंगे? / मस्त आदमी से दुखी समाज ईर्ष्या करता है / एक पति ध्यान में मस्त होने लगे, तो पत्नी उन्हें पागल समझने लगी / आप शरीर में हैं, वहीं से शुरू करें / कुरूप स्त्री भी क्यों सुंदर पुरुष को पाना चाहती है? / कोई भी अपने को कुरूप नहीं मानता / स्वयं की कुरूपता का बोध-रूपांतरण का पहला चरण / अहंकार की कुरूपता / कुरूप व्यक्ति भी प्रामाणिक हो, तो एक आंतरिक सौंदर्य का जन्म / शरीर का सौंदर्य कोई महत्व का नहीं / शारीरिक सौंदर्य के बदलते हुए मापदंड सौंदर्य की अलग-अलग मान्यताएं-चीनी, अफ्रीकी, हिंदुस्तानी / भीतर का सौंदर्य ही असली बात है / मैं एक स्त्री के प्रेम में हूं, लेकिन वह मुझे प्रेम नहीं करती / उसे कैसे समझाऊं? / दो व्यक्तियों की धारणाओं का मेल होना बहुत मुश्किल है / प्रेम दो प्रेम मांगो मत / कृष्ण ने कहा, अर्जुन, तूने मेरा चतुर्भुज रूप देखा, यह अति दुर्लभ है / चार हाथ-काव्य-प्रतीक / परमात्मा हमें सब ओर से सम्हाले हुए है / विराटरूप देख कर अर्जुन बहुत घबड़ा गया है; अब उसे गहन प्रेम की सुरक्षा चाहिए / मां का ऐसा प्रेम जो इस जगत में भी रक्षा करे और उस जगत में भी / गर्भ में परम सुख में है बच्चा / मनोवैज्ञानिकों की मान्यता : गर्भ में अनुभव किए गए सुख का विस्तार है-मोक्ष की धारणा / शांति की आकांक्षा-गर्भ में मिले अनुभव के कारण / स्वर्ग में कल्पवृक्ष की कल्पना / आत्मघाती इच्छाएं / परमात्मा का चतुर्भुज रूप भक्त को ही उपलब्ध साधक को नहीं / साधक का सत्य-रूखा-सूखा / भक्त का अनुभव-काव्य का, प्रेम का, रस का / अरस्तू ने कहा है-परमात्मा परम गणितज्ञ है / मीरा के लिए परमात्मा परम नृत्य है / बुद्ध के लिए सत्य है-परम शून्य, शांति, मौन / महावीर के लिए चतुर्भुज रूप का कोई अर्थ नहीं है / भयभीत अर्जुन पूरे अस्तित्व को मां के रूप में देखना चाहता है। अनन्य भक्ति से चतुर्भुज रूप का अनुभव घटित / प्रेम में दूसरे पर भरोसा होता है / प्रेमी अपने को छोड़ सकता है / बोधकथाः नव विवाहित दंपति की जहाज-यात्रा; समुद्र में तूफान; वर निश्चित; सब परमात्मा पर छोड़ा है; जो होगा—मंगल ही होगा / पति, पत्नी, बच्चे–सबके प्रति जो प्रेम है उसकी गहराई ही प्रभु-प्रेम बनता है / कृष्ण कहते हैं, सारा प्रेम मुझे दे दे / प्रेम के सभी रूप प्रभु-प्रेम का स्मरण बन जाएं / तो स्वभावतः वैर-भाव न रह जाएगा / साधारणतः प्रेम टूटने पर घृणा बन जाता है / साधु-संतों की स्त्री-निंदा / कृष्ण कहते हैं, प्रेम इतना गहन हो जाए कि किसी के प्रति वैर-भाव न बचे / संसार से प्रेम को मत तोड़ना; संसार के प्राणों तक प्रेम को पहंचा देना। Page #30 --------------------------------------------------------------------------  Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 पहला प्रवचन अज्ञेय जीवन-रहस्य Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 श्रीमद्भगवद्गीता अज्ञेय से अर्थ है, जिसे हम किसी भांति पहचान भी लेते हैं, फिर अथ दशमोऽध्यायः | भी नहीं कह सकते कि हमने उसे जान लिया। ऐसे अज्ञात, ऐसे अज्ञेय के संबंध में जो वचन हैं, कृष्ण उन्हें परम वचन कहते हैं। श्रीभगवानुवाच | इस सूत्र में जो बहुत कीमती शब्द है, वह है परम वचन। उसे हम भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः । थोड़ा समझें। यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।१।। ___ कृष्ण ने कहा, हे महाबाहो, फिर भी मेरे परम वचन श्रवण कर, नमे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । जो कि मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा से अहमादिहि देवानां महषीणां च सर्वशः।।२।। | कहूंगा। यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । साधारणतः, परम वचन शब्द को पढ़ते समय कोई विशेष असंमूढः स मत्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।३।। खयाल मन में नहीं आता है। और इसीलिए उसके विशेष अर्थ भी भगवान श्रीकृष्ण बोले, हे महाबाहो, फिर भी मेरे परम वचन | चूक जाते हैं। एक वचन तो होता है, जिसे हम कहते हैं, सत्य श्रवण कर, जो कि मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए | वचन। एक वचन होता है, जिसे हम कहते हैं, असत्य वचन। परम हित की इच्छा से कहूंगा। वचन क्या है? अगर भाषाकोश में खोजने जाएंगे, तो भाषाकोश हे अर्जुन, मेरी उत्पत्ति को अर्थात विभूतिसहित लीला से कहेगा, सत्य वचन ही परम वचन है। लेकिन वह ठीक नहीं है प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही बात। सत्य वचन का अर्थ ही होता है, जिसके विपरीत भी असत्य जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और वचन हो सकता है। महर्षियों का भी आदि कारण हूं। परम वचन का अर्थ होता है, जिसके विपरीत कोई वचन नहीं हो और जो मेरे को अजन्मा, अनादि तथा लोकों का महान सकता, जिसके विपरीत किसी वक्तव्य की कोई संभावना नहीं है। ईश्वर तत्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुष पहली बात। संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। सत्य, जो आज सत्य मालूम पड़ता है, कल असत्य हो सकता . है। जो आज असत्य मालूम पड़ता है, कल खोज से पता चले कि सत्य है। इसलिए विज्ञान जिसे सत्य कहता है, कल उसे असत्य जीवन है एक रहस्य। गणित की पहेली जैसा नहीं कि | कहने को मजबूर हो जाता है। न्यूटन का जो सत्य था, वह UII श्रम से उसे हल किया जा सके। रहस्य जीवन का | | आइंस्टीन का सत्य नहीं है। और आइंस्टीन का जो सत्य है, वह त्य जीवन का स्वभाव आने वाली सदी का सत्य नहीं होगा। और आज कोई भी वैज्ञानिक है। जीवन है रहस्य ही। | यह नहीं कह सकता कि हम जो सत्य उदघोषित कर रहे हैं, वह सदा अज्ञात है बहुत कुछ, अननोन है बहुत कुछ, लेकिन वह ज्ञात हो | ही सत्य रहेगा। जाएगा। आज नहीं कल, हम उसे जान लेंगे। जो आज नहीं जाना सत्य असत्य हो सकते हैं। असत्य भी कल खोजे जाएं और पता है, वह भी कल जाना जा सकेगा। जो कभी भी जाना जा सकता है, | चले, तो सत्य बन सकते हैं। उसका नाम रहस्य नहीं है। परम वचन का अर्थ है, जिसे हम न सत्य कह सकते हैं और न रहस्य से अर्थ है, जो कभी भी जाना नहीं जा सकेगा, जो अज्ञेय असत्य कह सकते हैं। क्योंकि हम जिसे सत्य कह सकते हैं, वह है, अननोएबल है। जानने की आकांक्षा प्रगाढ़ है जिसके लिए, हमारे कारण कल असत्य भी हो सकता है। परम वचन का अर्थ है जिस तक पहुंचने के लिए जीवन दौड़ता है, जिससे मिलने की प्यास | कि हमारे सत्य और असत्य दोनों के जो पार है; हम जिसके संबंध है और फिर भी समस्त श्रम और समस्त इच्छाएं और सारी अभीप्सा में कभी भी निर्णायक न हो सकेंगे। और सारी प्यासें व्यर्थ रह जाती हैं और हम उसके निकट ही पहुंच इस संबंध में जो लोग आधुनिक चिंतन से परिचित हैं, उन्हें ज्ञात पाते हैं, उसका स्पर्श होता है, लेकिन उसे जान नहीं पाते। होगा कि बड रसेल, विगिंस्टीन, ए.जे.अय्यर, ऐसे कुछ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अज्ञेय जीवन-रहस्य ॐ पश्चिम के मनीषियों ने, जिन्हें कृष्ण ने परम वचन कहा है, उन्हीं गया; और नास्तिक के तर्क इतने प्रभावशाली सिद्ध हुए कि सुबह वचनों को नानसेंस, उन्हीं वचनों को व्यर्थ वचन कहा है। ए.जे. | | होते-होते आस्तिक नास्तिक हो गया। गांव की मुसीबत जारी रही! अय्यर ने बड़ी मेहनत की है यह बात सिद्ध करने की कि कुछ वचन | | गांव में एक महाआस्तिक और एक महानास्तिक बना रहा। ऐसे हैं, जो अर्थहीन हैं, मीनिंगलेस हैं, नानसेंस हैं। अब तक जितने भी वक्तव्य आस्तिकों और नास्तिकों ने दिए हैं, उन वचनों को अय्यर ने अर्थहीन कहा है, जिनको न तो हम सत्य उनसे कुछ भी सिद्ध नहीं होता। न तो यह सिद्ध होता है कि ईश्वर सिद्ध कर सकें, और न असत्य। जिनके पक्ष में भी कोई प्रमाण न है; और न यह सिद्ध होता है कि ईश्वर नहीं है। और ऐसी कोई दिया जा सके और जिनके विपक्ष में भी कोई प्रमाण न दिया जा कसौटी नहीं है, जिस पर जांचा जा सके कि कौन सही है। इसलिए सके। जैसे कोई आदमी कहता है कि ईश्वर है। अय्यर, अय्यर और उनके साथी दार्शनिक कहते हैं कि ये वक्तव्य नानसेंस विगिंस्टीन और रसेल कहेंगे कि यह वचन अर्थहीन है। क्योंकि | | हैं। इन वक्तव्यों से कुछ अर्थ नहीं निकलता, ये अर्थहीन हैं। तो ईश्वर है, यह भी अब तक सिद्ध नहीं किया जा सका; और नहीं है, | | अय्यर कहता है कि न तो ईश्वर है, यह सत्य वचन है और न यह यह भी सिद्ध नहीं किया जा सका। और आदमी के पास कोई भी | असत्य वचन है। यह दोनों नहीं है। यह व्यर्थ वचन है। उपाय नहीं है इस वचन की सत्यता या असत्यता को परखने के । कृष्ण इसी वचन को परम वचन कहते हैं। तो थोड़ा समझना लिए। वेरीफिकेशन के लिए कोई उपाय नहीं है। ' पड़ेगा कि कृष्ण का प्रयोजन क्या है? अगर अय्यर और . तो जिस वक्तव्य की जांच का कोई उपाय ही न हो, उस वक्तव्य विगिंस्टीन सही हैं, तो कृष्ण का वचन अर्थहीन वचन है। लेकिन को न तो सत्य कहा जा सकता है. और न असत्य। क्योंकि असत्य कष्ण उसे परम वचन कहते हैं। और अर्जन से वे कहते हैं कि मैं का अर्थ हआ कि जांचा और पाया कि गलत है। सत्य का अर्थ हआ तुझे तेरे प्रेम के कारण और तेरे हित की दृष्टि से कुछ परम वचन कि जांचा और पाया कि सत्य है। कहूंगा, तू उन्हें सुन। . लेकिन ईश्वर है, इस वक्तव्य के पक्ष या विपक्ष में कोई भी इसे हम ऐसा बांट लें। सत्य वचन उसे कहते हैं, जिसके लिए प्रमाण आज तक इकट्ठे नहीं किए जा सके। आस्तिक कहे चले जाते यथार्थ से प्रमाण उपलब्ध हो जाएं। अगर मैं कहूं, आग हाथ को हैं, ईश्वर है; नास्तिक कहे चले जाते हैं, ईश्वर नहीं है। आस्तिकों | जलाती है, तो यह सत्य वचन है। क्योंकि आप आग में हाथ की दलीलों का नास्तिकों पर कोई प्रभाव नहीं है; और नास्तिकों की डालकर देख सकते हैं और प्रमाण मिल जाएगा कि आग जलाती दलीलों का आस्तिकों पर कोई प्रभाव नहीं है। और कभी-कभी | | है या नहीं जलाती है। अगर मैं कहूं, आग शीतल है, तो आप हाथ ऐसा भी होता है कि आस्तिक नास्तिक हो जाते हैं, नास्तिक डालकर देख सकते हैं कि यह वचन असत्य है। क्योंकि आग आस्तिक हो जाते हैं। लेकिन वक्तव्य वैसे के वैसे ही खड़े रहते हैं। शीतल नहीं है, इसका प्रमाण मिल जाता है; वचन के अतिरिक्त खलील जिब्रान ने एक छोटी-सी कहानी लिखी है। लिखा है, प्रमाण उपलब्ध हो जाता है। एक गांव में एक महाआस्तिक और एक महानास्तिक था। सारा अय्यर कहता है कि एक तीसरे तरह का वचन है, और समस्त गांव परेशान था उनके कारण। क्योंकि आस्तिक लोगों को समझाता | | धार्मिक वचन, मेटाफिजिकल स्टेटमेंट्स अय्यर के हिसाब से व्यर्थ था कि ईश्वर है; नास्तिक समझाता था कि नहीं है। आखिर गांव ने | हैं, क्योंकि उनका कोई भी प्रमाण नहीं मिलता। कृष्ण के हिसाब से उन दोनों से कहा कि तुम निर्णय पर पहुंच जाओ कुछ, ताकि हमारी | वे वचन परम हैं, क्योंकि उनका इस जगत के अनुभव में तो कोई परेशानी कम हो। प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन अगर दूसरे जगत में कोई प्रवेश करने .. पूर्णिमा की एक रात, गांव ने विवाद का आयोजन किया और को तैयार हो, तो उनका प्रमाण मिलता है। अप्रमाणित वे नहीं हैं। नास्तिक और आस्तिक ने प्रबल प्रमाण दिए। आस्तिक ने ऐसे एक अंधे आदमी के लिए, प्रकाश है, यह अप्रमाणित वचन प्रमाण दिए, जिनका खंडन मुश्किल था। नास्तिक ने ऐसा खंडन होगा। क्योंकि अंधे के सामने कोई भी प्रमाण नहीं जुटाया जा किया कि आस्तिकता के पैर डगमगा जाएं। रातभर विवाद चला | | सकता कि प्रकाश है या नहीं है। अंधा अय्यर के साथ राजी हो और विवाद बड़ा परिणामकारी रहा। आस्तिक के प्रमाण इतने | जाएगा और कहेगा कि यह वचन व्यर्थ है, क्योंकि न तो इसके पक्ष प्रभावशाली सिद्ध हुए कि सुबह होते-होते नास्तिक आस्तिक हो में तुम कोई प्रमाण दे सकते हो, और न विपक्ष में। क्योंकि अंधा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 58 तैयार है, अगर प्रकाश हो तो मैं उसे हाथ से छूकर देख लूं; कान | बदलने को राजी हों, तो उनके हमें प्रमाण मिल सकते हैं। परम से सनकर देख लं: या जीभ से चखकर देख लं। अंधा राजी है।। वचन का अर्थ हुआ, हम जैसे हैं, वैसे ही रहकर अगर हम उनका उसके पास जो भी इंद्रियां हैं, उन इंद्रियों के माध्यम से प्रमाण मिल | प्रमाण चाहें, तो प्रमाण नहीं मिलेंगे। अगर हम अपने को बदलने सकता हो, तो अंधा प्रमाण खोजने के लिए राजी है। को राजी हों, तो प्रमाण मिल जाएंगे। लेकिन हाथ प्रकाश को छू नहीं सकते, फिर भी प्रकाश है। और | यहां दो बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। कान प्रकाश को सुन नहीं सकते, फिर भी प्रकाश है। और जीभ | विज्ञान आदमी को बदलने की कोई जरूरत नहीं मानता। विज्ञान प्रकाश का स्वाद नहीं ले पाएगी, फिर भी प्रकाश है। और नासारंध्र | मानता है कि आदमी जैसा है, सत्य वैसे ही पाया जा सकता है। प्रकाश की गंध नहीं पा सकेंगे, फिर भी प्रकाश है। और अंधे की | | विज्ञान चीजों को बदलता है, चीजों को तोड़ता है, चीजों का चार इंद्रियां, जिसको कहें कि कोई प्रमाण नहीं है, अंधा कैसे मानने विश्लेषण करता है। अगर अणु की खोज करनी पड़ी है, तो दो को राजी हो कि जो वक्तव्य है, वह व्यर्थ नहीं है! अंधे की सीमा | हजार वर्ष लग गए हैं। हेराक्लतु से लेकर आइंस्टीन तक दो हजार के भीतर प्रमाण नहीं जुटाए जा सकते, इससे कोई चीज गलत नहीं वर्षों तक अणु का चिंतन चला है, अणु की शोध चली है, अणु का हो जाती। इससे यह भी हो सकता है कि अंधे की सीमा बहुत खंडन चला है, और तब जाकर हमें अणु के सत्य का पता चला है। सीमित है। अंधे की सीमा भी बड़ी की जा सकती है। अंधे की आंखें | दो हजार साल हमें अणु के साथ मेहनत करनी पड़ी है। ठीक की जा सकती हैं। आंखों के ठीक होते ही प्रकाश का प्रमाण विज्ञान वस्तु के साथ मेहनत करता है, धर्म व्यक्ति के साथ मिल जाएगा। | मेहनत करता है। विज्ञान कहता है, वस्तु को हम ऐसी स्थिति में लेकिन हमारी कठिनाई यह है कि स्वभावतः हम सभी अंधे हैं। ले आएं, जहां सत्य का उदघाटन हो जाए। धर्म कहता है, व्यक्ति जिस आंख से जीवन के परम सत्य का अनुभव हो सके, वह आंख को हम ऐसी स्थिति में ले आएं, जहां वह सत्य को देखने में समर्थ सबके पास है, लेकिन बंद है। इसलिए कभी अगर एक व्यक्ति की | | हो जाए। आंख भी खुल जाए, तो वह प्रमाण उसके लिए ही प्रमाण होता है, विज्ञान की सारी चेष्टा वस्तु के साथ है, धर्म की सारी चेष्टा शेष के लिए प्रमाण नहीं होता है। व्यक्ति के साथ है। व्यक्ति बदले, तो सत्य का पता चलेगा। विज्ञान हमने मीरा को नाचते देखा है, लेकिन मीरा हमें पागल मालूम | कहता है, वस्तु को हम समझ लें, तो सत्य का पता चल जाएगा। पड़ती है। क्योंकि हमें मीरा का नाच ही दिखाई पड़ता है; वह नहीं | स्वभावतः, विज्ञान की खोज पदार्थ की खोज है, धर्म की खोज दिखाई पड़ता है, जिसको देखकर मीरा नाच रही है। हमने कबीर | चेतना की खोज है। को गीत गाते देखा है। लेकिन हमें कबीर के गीत ही सुनाई पड़ते कृष्ण कहते हैं, ये परम वचन हैं। परम वचन का अर्थ है, अर्जुन, हैं, कबीर के भीतर गीत का जन्म हुआ है जिसके स्पर्श से, उसका | अगर तू बदले, तो इनके प्रमाण को जान सकेगा। पहली बात। हमें कोई पता नहीं चलता। हमने बुद्ध को मौन होते देखा है, हमने | अर्जुन की बदलाहट पर ही तय होगा कि ये वचन सत्य हैं या बुद्ध को शांत होते देखा है, ऐसी शांति जैसी कि पृथ्वी पर | असत्य। अर्जुन जैसा है, वैसा रहते हुए इन वचनों के संबंध में कुछ कभी-कभार उभरती है. कभी-कभार उतरती है। लेकिन क्या भी नहीं बोल सकता है। देखकर बुद्ध शांत हो गए हैं, क्या देखकर उनका मन ठगा रहकर । इसलिए धर्म ने श्रद्धा को आधारभूत बनाया है। क्योंकि इन परम चुप हो गया है, उसका हमें कोई भी पता नहीं। वचनों को मानकर चले बिना कोई उपाय नहीं है। तो हमारे भीतर जिसकी आंख भी खुलती है, वह हम अंधों के __एक सूफी बोध-कथा मुझे स्मरण आती है। एक छोटी-सी नदी बीच अंधा मालूम पड़ने लगता है, क्योंकि हमने अपने अंधेपन को | | सागर से मिलने को चली है। नदी छोटी हो या बड़ी, सागर से आंख समझा हुआ है। हमसे जो भिन्न होता है, वह हमें अंधा मालूम | | मिलने की प्यास तो बराबर ही होती है, छोटी नदी में भी और बड़ी पड़ता है। नदी में भी। छोटा-सा झरना भी सागर से मिलने को उतना ही आतुर परम वचन कृष्ण की दृष्टि में वे वचन हैं, जो हमारी मौजूद | होता है, जितनी कोई बड़ी गंगा हो। नदी के अस्तित्व का अर्थ ही हालत में तो प्रमाण नहीं बन सकते, लेकिन अगर हम अपनी हालत | सागर से मिलन है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 अज्ञेय जीवन-रहस्य 8 नदी भाग रही है सागर से मिलने को, लेकिन एक रेगिस्तान में ___ लेकिन नदी को भरोसा कैसे आए! नदी ने कहा, यह मेरा भटक गई, एक मरुस्थल में भटक गई। सागर तक पहुंचने की | अनुभव नहीं है। मिटने की हिम्मत नहीं जुटती। और फिर अगर मैं कोशिश व्यर्थ मालूम होने लगी, और नदी के प्राण संकट में पड़ सागर से मिल भी गई मिटकर, तो सागर में मेरा होना रहेगा! मैं गए। रेत नदी को पीने लगी। दो-चार कदम चलती है, और नदी बचूंगी! क्या भरोसा? कैसे श्रद्धा करूं? जो मेरा अनुभव नहीं है, खोती है, और सिर्फ गीली रेत ही रह जाती है। उसे कैसे मानूं? नदी बहुत घबड़ा गई। सागर तक पहुंचने के सपने का क्या ___ तो उस मरुस्थल की रेत ने कहा, दो ही उपाय हैं। या तो अनुभव होगा? नदी ने रोकर, चीखकर रेगिस्तान की रेत से पूछा कि क्या | हो, तो मानना आ जाता है; और या मानना हो, तो अनुभव की यात्रा मैं सागर तक कभी भी नहीं पहुंच पाऊंगी? क्योंकि रेगिस्तान मालूम | शुरू होती है। अनुभव तुझे नहीं है, और बिना यह माने कि मिटकर पड़ता है अनंत, और चार कदम मैं चलती नहीं हूं और रेत में मेरा | भी तू बचेगी, तुझे अनुभव भी कभी नहीं होगा। इसे तू श्रद्धा से पानी खो जाता है, मेरा जीवन सूख जाता है। मैं सागर तक पहुंच | | स्वीकार कर ले। पाऊंगी या नहीं? परम वचन का अर्थ है, जो हमारा अनुभव नहीं है, लेकिन रेत ने कहा कि सागर तक पहुंचने का एक उपाय है। ऊपर देख, जिसकी हमें प्यास है। जिससे हमारा परिचय नहीं है, लेकिन हवाओं के बवंडर जोर से उड़े चले जा रहे हैं। रेत ने कहा कि अगर जिसकी हमारे हृदय में आकांक्षा है। जिसे हमने जाना नहीं है, तू भी हवाओं की तरह हो जा, तो सागर तक पहुंच जाएगी। लेकिन लेकिन जिसे खोजना है। ऐसी जिसकी अभीप्सा है, उसे कहीं न अगर नदी की तरह ही तूने सागर तक पहुंचने की कोशिश की, तो कहीं किसी न किसी क्षण में ऐसा कदम भी उठाना पड़ेगा, जो रेगिस्तान बहुत बड़ा है, यह तुझे पी जाएगा। और हजारों-हजारों अज्ञात में है, अननोन में है। साल की कोशिश के बाद भी तू एक दलदल से ज्यादा नहीं हो अर्जुन सरिता की भांति है। उसे कुछ भी पता नहीं है। वह जिस पाएगी, सागर तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। तू हवा की यात्रा पर | अज्ञात सत्य को जानने की प्रेरणा से भर गया है, उसका उसे कोई निकल। भी अनुभव नहीं है। वह जिस परम गुह्य की तलाश कर रहा है, उस नदी ने कहा कि रेत, तू पागल तो नहीं है? मैं नदी हूं, मैं | प्रश्न पूछ रहा है, जिज्ञासा कर रहा है, उसकी उसे कोई भी प्रतीति आकाश में उड़ नहीं सकती! रेत ने कहा कि तू अगर मिटने को राजी | नहीं है। इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि मैं परम वचन तुझसे हो, तो आकाश में भी उड़ने का उपाय है। अगर तू तप जाए, कहता हूं। वाष्पीभूत हो जाए, तो तू हवाओं पर सवार हो सकती है; हवाएं तेरे परम वचन का दूसरा अर्थ हुआ कि अर्जुन, अभी तुझे श्रद्धा से वाहन बन जाएंगी और तुझे सागर तक पहुंचा देंगी। ही मान लेना पड़ेगा। जैसा तू है, ऐसी स्थिति में तेरी बुद्धि काम उस नदी ने कहा, मिटने को! मैं स्वयं रहते ही सागर से मिलने नहीं पड़ेगी। अगर तू श्रद्धा से मान ले और यात्रा पर निकल जाए की आकांक्षा रखती हूं, मिटकर नहीं। मिटकर मिलने का मजा ही | रूपांतरण की, तो तू भी जान सकेगा। जो मैं कह रहा हूं, वह सत्य क्या? अगर मैं मिट गई और सागर से मिलना भी हो गया, तो | है। लेकिन वह सत्य तेरे रूपांतरित चित्त को ही अनुभव में उसका सार क्या है? मैं बचते हुए, रहते हुए सागर से मिलना आएगा। तू जैसा है, वैसा ही उस सत्य से तेरा कोई संबंध नहीं हो चाहती हैं। सकता। परम वचन का यह भी अर्थ है कि उसे श्रद्धा से ही नदी की बात को सुनकर रेत ने कहा, तब फिर कोई उपाय नहीं स्वीकार कर लेना पड़ेगा। है। आज तक सागर से मिलने जो भी चला है, मिटे बिना नहीं मिल और तीसरा अर्थ भी खयाल में ले लें, तो फिर यह सूत्र हमारी पाया है। और जिसने अपने को बचाने की कोशिश की है, वह समझ में आसान हो जाएगा। मरुस्थल में खो गया है। मैंने और नदियों को भी मरुस्थल में खोते परम वचन का अर्थ तीसरा, आत्यंतिक अर्थ है, ऐसा वचन, जो देखा है, और मैंने कुछ नदियों को आकाश पर चढ़कर सागर तक | समय और काल से रूपांतरित नहीं होता, परिवर्तित नहीं होता। पहुंचते भी देखा है। तू मिटने को राजी हो जा। तुझे अभी पता नहीं हमारे सारे सत्य सामयिक हैं। समय बदल जाए, सत्य को बदलना कि मिटकर ही तू वस्तुतः सागर हो पाएगी। पड़ता है। हमारे सभी सत्य समय की शर्तों से बंधे हुए हैं। लेकिन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग- 50 क्या कोई ऐसा सत्य भी है, जो समय की शर्त से बंधा हुआ नहीं। दो व्यक्तियों के बीच जितना गहरा हो संबंध, उतने ही गहरे सत्य है? कितना ही समय बदले और जीवन का कितना ही रूपांतरण हो । | संवादित किए जा सकते हैं। तो सत्य कह देना, सिर्फ कह देने वाले जाए, उस सत्य में कोई अंतर नहीं पड़ेगा। पर निर्भर नहीं है। सत्य कहना, सुनने वाले पर भी उतना ही निर्भर आपने रास्ते पर बैलगाड़ी को चलते हुए देखा है। चाक चलता है, जितना कहने वाले पर। है, चलता चला जाता है। प्रतिपल चलना ही उसका काम है। कृष्ण अर्जुन से ये सत्य कह सके, क्योंकि एक बहुत गहरी मैत्री लेकिन उस चाक के बीच में एक कील है, जो खड़ी रहती है, जो | और गहरे प्रेम का संबंध था। ठीक यही सत्य हर किसी से नहीं कहे चलती नहीं। मीलों चल जाए चाक, कील अपनी जगह ही बनी जा सकते। जब सत्य कहा जाता है, तो कहने वाला और सुनने रहती है। कील ठहरी हुई है। और मजा यह है कि ठहरी हुई कील वाला, दोनों एक ऐसी समरसता में होने चाहिए, जहां सत्य कहा जा के आधार पर ही चाक का घूमना होता है। अगर कील भी घूम जाए, सके, और सुना भी जा सके। प्रेम वैसा द्वार है, जहां से गहरी बातें तो चाक इसी वक्त गिर जाए और रुक जाए। चाक चलता है | की जा सकती हैं। इसलिए, क्योंकि कील ठहरी है। इस कील और चाक के बीच गहरा । सिर्फ पूरब ही इस राज को समझ पाया। पश्चिम में शिक्षक होते समझौता है। कील के ठहरे होने पर चाक की गति है। | | हैं, लेकिन गुरु केवल पूरब की उत्पत्ति है। गुरु मात्र शिक्षक नहीं जीवन तो पूरा ही बदलता रहता है चाक की तरह, इसलिए हमने | है। गुरु और शिक्षक में यही फर्क है। शिक्षक को प्रयोजन नहीं है उसे संसार कहा है। संसार का अर्थ होता है, दि व्हील; उसका अर्थ कि विद्यार्थी का कोई संबंध भी है उससे या नहीं। उसे जो कहना है, होता है, चाक, घूमता हुआ। चाक की तरह है संसार तो। लेकिन | वह कह देगा; वह एकतरफा है, वन वे ट्रैफिक है। . क्या कुछ कील भी है इस संसार में? शिक्षक स्कूल में पढ़ा रहा है, यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहा है। क्योंकि भारतीय मनीषा का ऐसा अनुभव है कि जहां भी परिवर्तन | विद्यार्थी सहानुभूति से सुन रहा है, श्रद्धा से सुन रहा है, सुन भी रहा हो, उसके आधार में कुछ जरूर होगा, जो अपरिवर्तित है। जहां है, नहीं सुन रहा है, ये बातें प्रयोजनीय नहीं हैं। शिक्षक जैसे दीवाल गति हो, वहां केंद्र में कुछ होगा, जो ठहरा हुआ है। जहां तूफान हो, | से बोल रहा हो। यह प्रोफेशनल, व्यावसायिक वक्तव्य है। दूसरे वहां बिंदु होगा बीच में कोई एक, जहां परम शांति है। क्योंकि | से कोई प्रयोजन नहीं है; शिक्षक को बोलने से प्रयोज़न है। उसे जो जीवन विपरीत के बिना असंभव है। जन्म होगा, तो मृत्यु होगी। कहना है, वह कह देगा। गति होगी, तो कोई ठहरा हुआ होगा। चाक होगा, तो कील होगी। गुरु और शिक्षक में यही अंतर है। गुरु जो कहना है, वह तभी विपरीत अनिवार्य है। दिखाई पड़े, न दिखाई पड़े; समझ में कह सकेगा, जब सुनने वाला तैयार हो। जब सुनने वाला खुला हो, आए, न समझ में आए; विपरीत अनिवार्य है। विपरीत के बिना | उन्मुक्त हो, उसके हृदय के द्वार बंद न हों। और जब सुनने वाला जीवन के खेल का कोई उपाय नहीं है। सिर्फ सुनने वाला ही न हो, बल्कि अपने को रूपांतरित करने की परम वचन का अर्थ है, जब सारे सत्य बदल जाते हैं, सारे दर्शन आकांक्षा से भी, अभीप्सा से भी भरा हो। और जब कि सुनने वाला और धर्म बदल जाते हैं, सिद्धांत बदल जाते हैं, चिंतन की धाराएं | केवल सत्य की खोज में ही न आया हो, बल्कि उस व्यक्ति के प्रेम बदल जाती हैं, तब भी जो ठहरा ही रहता है, जिसमें कोई अंतर नहीं | का आकर्षण भी उसे खींचा हो। पड़ता। ऐसे कुछ वचन कृष्ण अर्जुन से कहना चाहते हैं। ध्यान रहे कि जहां प्रेम नहीं है, जहां एक आंतरिक संबंध, एक एक और कीमती बात इस सूत्र में उन्होंने कही है। और वह | | इंटिमेसी नहीं है, वहां सत्य नहीं कहे जा सकते। कहा है कि तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए, तेरे हित की| | महावीर के पास एक युवक आया है। और वह जानना चाहता इच्छा से कहूंगा। है कि सत्य क्या है। तो महावीर कहते हैं कि कुछ दिन मेरे पास रह। एक तो परम सत्य केवल उनसे ही कहे जा सकते हैं, जो और इसके पहले कि मैं तुझे कहूं, तेरा मुझसे जुड़ जाना जरूरी है। अतिशय प्रेम से भरे हों। एक सिम्पैथी, एक गहरी सहानुभूति | एक वर्ष बीत गया है और उस युवक ने फिर पुनः पूछा है कि चाहिए। क्षुद्रं बातें कहने के लिए सहानुभूति की कोई भी जरूरत | | वह सत्य आप कब कहेंगे? महावीर ने कहा कि मैं उसे कहने की नहीं है। जितनी गहरी कहनी हो बात, उतना गहरा संबंध चाहिए। निरंतर चेष्टा कर रहा हूं, लेकिन मेरे और तेरे बीच कोई सेतु नहीं Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अज्ञेय जीवन-रहस्य 3 है, कोई ब्रिज नहीं है। तू अपने प्रश्न को भी भूल और अपने को | | गांव में सबसे ज्यादा बुद्धिमान था। कनफ्यूशियस ने पूछा कि उसे भी भूल। तू मुझसे जुड़ने की कोशिश कर। और ध्यान रख, जिस बुद्धिमान मानने का कारण क्या है ? तो उस ग्रामीण ने कहा, कारण दिन तू जुड़ जाएगा, उस दिन तुझे पूछना नहीं पड़ेगा कि सत्य क्या है कि वह अगर एक कदम भी उठाए, तो तीन बार सोचता है। है? मैं तुझसे कह दूंगा। | इसलिए गांव उसे बुद्धिमान कहता है। कनफ्यूशियस ने कहा कि मैं फिर अनेक वर्ष बीत गए। वह युवक रूपांतरित हो गया। उसके | | उसे बुद्धिमान न कहूंगा। क्योंकि जो एक ही बार सोचता है, वह जीवन में और ही जगत की सुगंध आ गई। कोई और ही फूल उसकी | कम बुद्धिमान है। और जो तीन बार सोचता है, वह दूसरी अति पर आत्मा में खिल गए। एक दिन महावीर ने उससे पूछा कि तूने सत्य | | चला गया। दो बार सोचना काफी है। मध्य में रुक जाना चाहिए। के संबंध में पूछना अनेक वर्षों से छोड़ दिया? उस युवक ने कहा, | बुद्धिमान आदमी को मध्य में रुक जाना चाहिए। लेकिन प्रेम पूछने की जरूरत न रही। जब मैं जुड़ गया, तो मैंने सुन लिया। तो में कोई मध्य नहीं होता, इसलिए तथाकथित बुद्धिमान आदमी प्रेम महावीर ने अपने और शिष्यों से कहा कि एक वक्त था, यह पूछता | | से वंचित रह जाते हैं। प्रेम में होती है अति। कनफ्यूशियस खुद था. और मैं न कह पाया। और अब एक ऐसा वक्त आया कि मैंने | भी प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम में मध्य होता ही नहीं। या तो इस इससे कहा नहीं है और इसने सुन लिया! । पार, या उस पार। महावीर की परंपरा कहती है कि महावीर ने अपने गहनतम सत्य ___ तो कृष्ण कहते हैं, तेरा अतिशय प्रेम है मेरे प्रति, इसलिए तुझसे वाणी से उदघोषित नहीं किए, उन्होंने वाणी से नहीं कहे। जो सुन | कहूंगा। अतिशय, टु दि एक्सट्रीम, आखिरी सीमा तक, जहां अति सकते थे, उन्होंने सुने; महावीर ने कहे नहीं। हो जाती है। यह बहुत मजेदार बात है। इससे उलटी बात भी सही है, कि जो जब प्रेम अतिशय होता है, तो सोच-विचार बंद हो जाता है। नहीं सुन सकते हैं, उनसे महावीर कितना ही कहें, तो भी नहीं सुन और जहां सोच-विचार बंद होता है, वहीं आंतरिक संवाद हो सकते सकते। सुनना एक बहुत बड़ी कला है। हैं। जहां तक सोच-विचार जारी रहता है, वहां तक संदेह काम इसलिए कृष्ण कहते हैं कि तुझसे कहूंगा, क्योंकि तू अतिशय करता है, वहां तक डाउट काम करता है। प्रेम से भरा है। अतिशय प्रेम! साधारण प्रेम भी कृष्ण ने नहीं कहा। | अगर कृष्ण को परम वचन कहने हैं, तो ऐसी अवस्था चाहिए कहा, अतिशय प्रेम। इतने प्रेम से भरा है, जहां आदमी प्रेम में | अर्जुन की, जहां सोच-विचार बंद हो। जहां अर्जुन सुने तो जरूर, पागल हो जाता है। सोचे नहीं। जहां अर्जुन खुला तो हो, लेकिन उसके भीतर विचारों पागल होने से कम में वह घटना नहीं घटती, जिसे हम आंतरिक | की बदलियां न हों। जहां अर्जुन आतुर तो हो, लेकिन अपनी कोई संबंध कहें। अगर प्रेम भी बुद्धिमान हो, तो होता ही नहीं। अगर धारणाएं न हों। जहां अर्जुन के पास अपने कोई सिद्धांत न हों, प्रेम भी गणित की तरह हिसाब-किताब से हो, तो होता ही नहीं। अपनी कोई समझ न रह जाए। प्रेम तो जब होता है, तब अतिशय ही होता है। | शिष्य बनता ही कोई तभी है. जब उसे पता चलता है कि अपनी एक मजे की बात है, प्रेम में कोई मध्य स्थिति नहीं होती; अतियां | कोई समझ काम नहीं पड़ेगी। तभी समर्पण है, उसी अतिशय क्षण होती हैं, एक्सट्रीम्स होती हैं। या तो प्रेम होता ही नहीं; एक अति। | में समर्पण है। और या प्रेम होता है, तो बिलकुल पागल होता है; दूसरी अति। प्रेम कृष्ण कहते हैं, तेरे अतिशय प्रेम के कारण मैं तुझसे परम वचन में मध्य नहीं होता। इसलिए प्रेम में बुद्धिमान आदमी खोजने बहुत | कहूंगा। और एक बात कहते हैं कि तेरे हित के लिए। इसे थोड़ा मुश्किल हैं। कोई मध्य बिंदु नहीं होता। समझ लें। कनफ्यूशियस ने कहा है कि बुद्धिमान आदमी मैं उसको कहता | | ऐसे सत्य भी कहे जा सकते हैं, जिनसे किसी का हित न होता हूं, जो मध्य में ठहर जाए। कनफ्यूशियस एक गांव में गया। गांव हो। ऐसे सत्य भी कहे जा सकते हैं, जिनसे किसी का अहित होता के रास्ते पर ही था कि एक गांव के निवासी से मिलना हुआ। तो हो। ऐसे सत्य भी खोजे जा सकते हैं, जिनसे अकल्याण हो। विज्ञान कनफ्यूशियस ने पूछा कि तुम्हारे गांव में सबसे ज्यादा बुद्धिमान | ऐसे बहुत-से सत्यों को खोज रहा है, जिनसे अहित होगा, अहित आदमी कौन है? तो उस आदमी ने उस आदमी का नाम लिया, जो हो रहा है। अभी पश्चिम के अनेक विचारशील वैज्ञानिक यह Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 सोचने लगे हैं कि सभी सत्य हितकारी नहीं हैं। इसलिए किसी बात अपने आप में अर्थपूर्ण नहीं है—आनंद! का सत्य होना काफी नहीं है। __ कृष्ण कहते हैं, तेरे हित की कामना से, तेरे हित की इच्छा से और फ्रेड्रिक नीत्शे ने तो एक बहुत अनूठी बात कही है। उसने कहूंगा। यहां कोई सत्य को कहना ही मेरा प्रयोजन नहीं है। और न कहा है कि बहुत बार तो असत्य भी हितकारी होते हैं। अगर सभी | | ही सत्य को सिद्ध करना प्रयोजन है। तेरा हित, तेरा कल्याण, तेरा सत्य हितकारी नहीं होते, तो दूसरी बात भी सही हो सकती है कि | आनंद फलित हो सके, इस दृष्टि से कहूंगा। असत्य भी हितकारी हो सकते हैं। और नीत्शे ने यह भी कहा है कि __यहां धर्म और साधारण विचार में फासले पड़ जाते हैं। एक यह जो आज के मनुष्य के चित्त की इतनी विकृत दशा है, इसका | आदमी कहता है, ईश्वर है, क्या यह सत्य है? एक आदमी कहता एक मात्र कारण यह है कि हम बिना समझे-बुझे कि क्या हितकर | है, मुक्ति है, क्या यह सत्य है? सवाल यह नहीं है। सवाल यह है है और क्या अहितकर है. निपट सत्य की खोज में लगे हए हैं। सत्य कि जिन्होंने मुक्ति की बात कही, उनके चेहरों में देखें और उनकी अपने आप में मूल्यवान नहीं है। सत्य भी एक डिवाइस, एक उपाय | | आंखों में झांकें। और जिन्होंने ईश्वर को कहा कि है, उनके जीवन है। सत्य भी कहीं पहुंचने का साधन है। की सुगंध और उनके जीवन के प्रकाश को देखें। और जिन्होंने मनुष्य का परम मंगल, जिस सत्य से फलित हो, कृष्ण कहते | | कहा, ईश्वर नहीं है, उनके जीवन के आस-पास जो अंधेरा घिर हैं, वह मैं तुझसे कहूंगा, तेरे हित के लिए। गया है, उसे देखें। ___ अब यह बहुत सोचने जैसी बात है। हम आमतौर से सोचते हैं । ईश्वर का होना सत्य है या नहीं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है। कि सत्य तो अपने आप में हितकारी है। और हममें से बहुत-से | | जो, ईश्वर है, इस आधार पर जीता है, उसके होने में एक.और तरह लोग सत्य का इस तरह उपयोग करते हैं, जिससे दूसरे को नुकसान की सुगंध है, एक और तरह के जगत का आविर्भाव हो जाता है; पहुंचे। इतना काफी नहीं है। मंगल ध्यान में रखना जरूरी है। और | पंख लग जाते हैं; वह किसी और आकाश में उड़ने लगता है। इसलिए कृष्ण उसी सत्य की बात करेंगे, जो अर्जुन के लिए यह सवाल नहीं है कि बुद्ध ने जो कहा है, वह सही है या मंगलकारी है, जो उसके जीवन को रूपांतरित करे। | गलत। बुद्ध का होना ही काफी प्रमाण है। यह भी सवाल नहीं है सत्य की भी अंतिम कसौटी आनंद ही होगी। इसे थोड़ा ठीक से | | कि नीत्शे ने जो कहा, वह सही है या गलत। नीत्शे का होना ही समझ लें। सत्य की एक कसौटी तो तर्क है, कि जो तर्क से सिद्ध काफी प्रमाण है। हो वह सत्य है। सत्य की परम कसौटी आनंद है, कि जिससे आनंद | नीत्शे ने बहुत तर्कयुक्त बातें कहीं, लेकिन जीवन का अंत फलित हो, वह सत्य है। पागलखाने में हुआ। नीत्शे ने बहुत तर्कयुक्त बातें कही हैं। संभवतः बुद्ध ने कहा है, जो पहुंचा दे परम स्थिति तक, वह सत्य है। मनुष्य-जाति के इतिहास में नीत्शे के मुकाबले दूसरा आदमी और हम दूसरी कसौटी नहीं जानते हैं। बद्ध ने कहा है, नाव हमखोजना कठिन है, जो इतना तर्कयक्त हो, और जिसने सत्य के उसे कहते हैं, जो उस पार पहुंचा दे। हम और दूसरी कसौटी नहीं | | संबंध में ऐसी तार्किक खोज की हो। लेकिन नीत्शे का अंत एक जानते। कई बार यह भी हो सकता है कि तर्क से जो सही मालूम | | पागलखाना है। और नीत्शे का पूरा जीवन दुख की एक लंबी कथा पड़ता है, वह इसी किनारे पर बांधकर रोक रखे। तर्क से जो सही | | है, जहां सिवाय उदासी के और पीड़ा के और संताप के कुछ भी मालूम पड़ता है, वह उस पार भी ले जा सकेगा या नहीं! और कई | नहीं है। नीत्शे का तर्क हम देखें या नीत्शे को देखें? बार यह भी हो सकता है कि इस पार के तर्क से जो गलत मालम | कष्ण ने जो कहा. वह तर्कयक्त है या नहीं. उसे हम देखें. या पड़ता है, वह भी उस पार ले जाने की नाव बन जाए। कृष्ण को और कृष्ण की बांसुरी को देखें ? नीत्शे को और कृष्ण को बुद्ध ने कहा है, सवाल यह नहीं है कि तुम क्या मानते हो। देखने चलें, तो ही पता चलेगा कि सत्य भी सप्रयोजन है। समस्त सवाल यह है कि तुम क्या हो जाते हो उसे मानकर। सवाल यह | | सिद्धांत सप्रयोजन हैं। उनसे मनुष्य का हित, उनसे मनुष्य का मंगल नहीं है कि तुम्हारा क्या है मार्ग। सवाल यह है कि तुम किस मंजिल सधता है या नहीं सधता है? पर पहुंचते हो उस मार्ग पर चलकर। मार्ग अपने आप में व्यर्थ | - तो कृष्ण ने कहा है कि मैं तेरे हित की दृष्टि से यह परम वचन है-मंजिल! तर्क अपने आप में व्यर्थ है-निष्पत्ति! और सत्य | कहूंगा। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अज्ञेय जीवन-रहस्य - हे अर्जुन, मेरी उत्पत्ति को अर्थात विभूतिसहित लीला से प्रकट अज्ञात ही रहेगा, अज्ञेय ही रहेगा। होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन, क्योंकि मैं सब | | मेरी उत्पत्ति को न देवता जानते, न महर्षि, क्योंकि मैं सब प्रकार प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी आदि कारण हूं। से देवताओं और महर्षियों का भी आदि कारण हूं। ___ मेरी उत्पत्ति को, मेरी विभूति को, मेरे सत्य को न देवता जानते । समस्त दिव्यता मेरा ही रूप है, और समस्त ज्ञान मेरा ही ज्ञान हैं और न महर्षि! | है। मेरा ही ज्ञान लौटकर मुझे नहीं जान पाएगा, जैसे मेरी ही आंख बहुत आश्चर्यजनक वचन है। और परम श्रद्धा हो, तो ही समझ लौटकर मुझे नहीं जान पाएगी। लेकिन आंख एक काम कर सकती में आ सकता है। देवता भी नहीं जानते, और जिन्हें हम जानने वाले है। दर्पण में अपने को देख सकती है। यद्यपि दर्पण में जो दिखाई कहते हैं, वे महर्षि भी नहीं जानते मेरी उत्पत्ति को। क्यों नहीं पड़ता है, वह आंख नहीं है; केवल प्रतिबिंब है, केवल छाया है। जानते? तीन बातें। ऋषियों ने भी जिसे जाना है, वह भी परमात्मा की छाया है, परमात्मा - एक तो, इस जगत का जो भी मल आधार है, उस मूल आधार | नहीं। और देवता भी जिसकी अर्चना करते हैं, वह परमात्मा का को कोई भी नहीं जान सकेगा, क्योंकि वह मूल आधार सभी के प्रतिबिंब है. परमात्मा नहीं। होने के पहले है। देवता नहीं थे, तब भी वह था; और महर्षि जब जिस दिन प्रतिबिंब भी छूट जाते हैं, जिस दिन जानने वाला भी नहीं थे, तब भी वह था। अपने को भूल जाता है, जिस दिन जानने वाला भी शेष नहीं रहता, ___ मैं अपनी आंखों से सबको देख सकता हूं, अपनी आंखों भर | उस दिन! लेकिन उस दिन ऋषि ऋषि नहीं होता; देवता देवता नहीं को नहीं देख सकता। मैं अपनी आंखों से आंखों के बाहर सब | होता; उस दिन तो लहर खो जाती है सागर में और सागर ही हो कुछ देख सकता हूं, आंखों के पीछे नहीं देख सकता। मैं अपनी जाती है। इस मुट्ठी से सब कुछ पकड़ सकता हूं, लेकिन इस मुट्ठी को ही कृष्ण महर्षि नहीं हैं, और उन्हें महर्षि न कहने का यही कारण है। नहीं पकड़ सकता। | वे कोई ज्ञाता नहीं हैं, और न कृष्ण कोई देवता हैं। कृष्ण अपने को जो मौलिक है, जो मूल है, जिससे देवता भी पैदा होते और छोड़ दिए हैं उस परम के साथ। कृष्ण अब नहीं हैं, अब वह परम महर्षि भी; जिससे सब पैदा होते हैं और जिसमें सब लीन हो जाते | ही अपनी अभिव्यक्ति उनके द्वारा कर रहा है। हैं, उसके जन्म को, उसके होने को, उसके अस्तित्व के मूल कारण ___ इसलिए एक बहुत मजे की बात, और बहुत विचित्र, और को कोई भी नहीं देख पाएगा। कोई उपाय नहीं है। उसका स्वयं का जिसके कारण बहुत विवाद दुनिया में चला है, वह आपको इस वक्तव्य ही केवल एकमात्र वक्तव्य है। और उस वक्तव्य को श्रद्धा संदर्भ में कहूं। के अतिरिक्त स्वीकार करने का और कोई उपाय नहीं है। हिंदू मानते हैं कि वेद ईश्वरीय वचन है। इस्लाम मानता है कि महर्षि तो हम कहते ही उसे हैं. जो जानता है। लेकिन कष्ण के | कुरान इलहाम है, रिवीलेशन है; ईश्वर से सीधा प्रकट हुआ है। इस सूत्र का अर्थ हुआ कि जो जानते हैं, वे भी नहीं जानते। तब | ईसाई भी मानते हैं कि बाइबिल ईश्वरीय, रूहानी किताब है। लेकिन महर्षि का एक और भी परम गुह्य अर्थ प्रकट होगा। तब जो सोचते ये कोई भी ठीक से सिद्ध नहीं कर पाते कि इनका मतलब क्या है। हैं कि महर्षि हैं, वे महर्षि नहीं हैं। तब तो केवल वे ही जानते हैं, जो | और जो भी सिद्ध करने जाते हैं, वे बहुत बचकानी बातें इकट्ठी कर इस अनुभव पर आ जाते हैं कि उन्हें कुछ भी पता नहीं है। कोई | लेते हैं। और उनको गलत करना बहुत कठिन नहीं है। सुकरात, कोई उपनिषद का ऋषि, जो कहता है कि मुझे कुछ भी जो कहते हैं कि वेद ईश्वर की किताब है, उनको गलत करना पता नहीं, वही, शायद उसे ही थोड़ा पता लगा है। बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि वेद में जो भी बातें हैं, वे बिलकुल नहीं जान सकेगा कोई भी, क्योंकि हम सब उसके हिस्से हैं। मानवीय हैं और मनुष्यों के वक्तव्य मालूम होते हैं। कुरान में भी जो सागर तो बूंद को जान सकता है, बूंद सागर को जानेगी भी तो कैसे! बातें हैं, वे भी मानवीय हैं और मनुष्यों के वक्तव्य मालूम होते हैं। और वृक्ष की पत्तियां जड़ों से बंधी हैं, लेकिन जड़ों को जानेंगी तो | | अत्यंत बुद्धिमत्तापूर्ण, लेकिन फिर भी मनुष्यों के। और बाइबिल में कैसे! और वृक्ष की पत्तियां अगर उस बीज को जानना चाहें, जिससे | | | भी वही बात है। कोई भी, एक भी वचन ऐसा नहीं है, जो मनुष्य न वृक्ष हुआ, तो उस बीज को कैसे जानेंगी! जिससे सब हुआ है, वह दे सके। कोई भी वचन मनुष्य दे सकता है। कोई भी वचन ऐसा नहीं Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-583 है, जो कि मानने को मजबूर करे कि वह ईश्वरीय है। क्षमता नहीं है, वह हमारी सीमा के बाहर छूट जाता है। __ अत्यंत बुद्धिमान लोगों के वचन होंगे, श्रेष्ठतम प्रतिभाओं के सूफियों के ग्रंथ हैं। एक-एक ग्रंथ के सात-सात अर्थ हैं। और वचन होंगे, लेकिन ईश्वरीय होने का कोई कारण नहीं मालूम सूफी फकीर जब किसी साधक को साधना में प्रवेश करवाता है, तो पड़ता। इसलिए जो इनके विपरीत बातें करते हैं, वे सरलता से बातें किताब को पढ़वाता है। एक किताब है सूफियों की, किताबों की कर सकते हैं। लेकिन ईश्वरीय मानने का कारण दूसरा है, वह इस | किताब उसका नाम है, दि बुक आफ दि बुक। छोटी-सी है; वह सूत्र में है। साधक को पढ़ाई जाएगी। और उससे कहा जाएगा, इसका अर्थ तू इस जगत के मौलिक आधार के संबंध में जो भी वक्तव्य है, वह | लिख डाल। जो भी अर्थ तुझे सूझता हो, वह लिख। . वक्तव्य इस जगत के मूल से ही आ सकता है, किसी दूसरे के द्वारा __फिर छः महीने साधना चलेगी। और छः महीने के बाद वही नहीं दिया जा सकता। और अगर दूसरा उस वक्तव्य को देगा, तो किताब, वही छोटी-सी किताब फिर पढ़ाई जाएगी। और साधक से वह वक्तव्य मिथ्या होगा, फाल्स होगा। कहा जाएगा, इसके अर्थ अब तू जो भी चाहे लिख। उसे पहले अर्थ यह जगत ही अपने संबंध में अपना वक्तव्य है। ईश्वर ही कहे | नहीं दिखाए जाएंगे। लेकिन इन छः महीनों में उसने यात्रा की है, अगर. तो ही सार्थक है बात। सागर ही अगर कहे कि मैं ऐसा हं. वह ध्यान की किसी अवस्था को पार हुआ है, वह दूसरे अर्थ तो ठीक है। कितनी ही बड़ी लहर सागर के संबंध में कुछ भी कहे, | लिखेगा। और ऐसा सात बार किया जाएगा। ध्यान की सात वह वक्तव्य अधूरा होगा, और लहर का ही होगा। सीढ़ियां पार कराई जाएंगी, और यह किताब सात बार पढ़ाई यह वेद, बाइबिल या कुरान का जो आग्रह है कि ये वचन | जाएगी, और सात बार अर्थ लिखवाए जाएंगे। ईश्वरीय हैं, इनका क्या कारण है? इनका कारण यह है कि इन | ___ जब सातों अर्थ पूरे हो जाएंगे, तो उस साधक को वे सातों अर्थ वचनों को मानकर जो भी यात्रा करता है, एक दिन उसका लहर दिए जाएंगे, और उससे कह जाएगा, क्या तू भरोसा कर सकता है होना मिट जाता है और सागर होना हो जाता है। इन वचनों को | कि ये सातों तेरे ही अर्थ हैं? आज लौटकर वह खुद भी भरोसा नहीं मानकर जो भी यात्रा पर निकलता है, वह खुद भी एक दिन मिट कर सकता कि ये उसके ही अर्थ हैं। और उसी एक ही आदमी ने जाता है और ईश्वर ही शेष रह जाता है। एक ही किताब से ये सात अर्थ निकाल लिए! जिन लोगों ने इन्हें ईश्वरीय कहा, उनके कहने का प्रयोजन इतना हम जो भी अर्थ निकालते हैं, वह निकालते कम हैं, डालते ही है कि इन वचनों को मानकर अगर कोई चले, तो अंततः मनुष्य ज्यादा हैं। जब भी हम वेद पढ़ते हैं, तो हम वेद नहीं पढ़ते, वेद के और मनुष्यता की सीमा के पार चला जाता है। और जिस क्षण इन द्वारा अपने को पढ़ते हैं। तो जो हम होते हैं, वह अर्थ निकलता है। वचनों की अंतिम घड़ी उपलब्ध होती है, उस क्षण व्यक्ति स्वयं भी जब हम बदल जाते हैं तब वेद पढ़ते हैं, तब जो अर्थ होता है, वह मौजूद नहीं रहता, बूंद खो जाती है, सागर ही शेष रह जाता है। तो दूसरा होता है। और जब हम स्वयं उस जगह पहुंच जाते हैं, जहां जिन वक्तव्यों को मानकर अंततः बूंद मिट जाती हो और सागर ही व्यक्ति का अहंकार खो जाता है और परमात्मा ही शेष रह जाता है, बचता हो, वे वक्तव्य बूंद के नहीं हो सकते। वे वक्तव्य सागर के तब जो अर्थ निकलता है, वह दूसरा ही अर्थ होता है। ही होंगे। क्योंकि बूंद तो जान ही कैसे सकती है! जिन्होंने ये सात सीढ़ियां पूरी की हैं ध्यान की, उन्होंने जाना है लेकिन हमारी तकलीफ है। हम अगर कुरान या बाइबिल या वेद | कि यह वक्तव्य कुरान में जो है, मोहम्मद का नहीं है। उन्होंने जाना को पढ़ते हैं, तो हम जैसे हैं, वैसे ही पढ़ना शुरू करते हैं, बिना कि ये जो वेद में वक्तव्य हैं, ये ऋषियों के नहीं हैं। उन्होंने जाना कि किसी यात्रा पर गए। हम अपनी आरामकुर्सी पर बैठकर वेद पढ़ | ये जो बाइबिल में वक्तव्य हैं, ये मनुष्य से इनका कोई संबंध नहीं सकते हैं। बिना किसी रूपांतरण में गए, बिना जीवन को बदले, | है। ये मनुष्य के पार से आए हुए हैं। मनुष्य के पार से लेकिन तभी बिना किसी अल्केमी से गुजरे, बिना अपने अनगढ़ पत्थर को हीरा | कोई चीज आती है. जब मनष्य मिटने को और दरवाजा बनने को बनाए, हम जैसे हैं, वैसे ही वेद को पढ़ें, कुरान को पढ़ें, बाइबिल राजी हो जाता है। को पढ़ें-वे वक्तव्य हमें मनुष्य के ही वक्तव्य मालूम पड़ेंगे। ___ तो कृष्ण कहते हैं, न मुझे ऋषि जानते हैं, न मुझे देवता जानते क्योंकि हम वही पढ़ सकते हैं, जो हमारी क्षमता है। जो हमारी | हैं, क्योंकि मैं उनका भी आदि कारण हूं, मैं उनसे भी पहले हूं। और Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञेय जीवन-रहस्य 3 जो मेरे को अजन्मा, अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर तत्व से व्यवस्थित जगत बिना ईश्वर के बनाए नहीं बन सकता। जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो | __ आस्तिक यह दलील शायद इसलिए देते हैं कि उनकी बुद्धि भी, जाता है। | जगत बिना बनाया है, ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन तब फिर क्या किया जाए? महर्षि नहीं जानते, ज्ञानी नहीं जानते, | उन्हें पता नहीं है कि एक ही कदम आगे बढ़कर मुसीबत शुरू हो दिव्य पुरुष नहीं जानते, फिर क्या किया जाए? फिर इस परम तत्व | जाएगी। और नास्तिक पूछते हैं कि अगर जगत बिना बनाया नहीं को जानने के लिए क्या है उपाय? | बन सकता, तो तुम्हारे ईश्वर को किसने बनाया है? और तब तो कृष्ण कहते हैं, जो मेरे को अजन्मा...। आस्तिक के पैर के नीचे से जमीन खिसक जाती है। तब अक्सर अब यह बड़ी कठिन बात शुरू हुई। और मनुष्य की श्रद्धा की | | आस्तिक क्रोध में आ जाएगा, क्योंकि आस्तिक बड़े कमजोर हैं। कसौटी वहां है, जहां कठिन बात शुरू होती है। अति कठिन, वह कहेगा, ईश्वर को बनाने वाला कोई भी नहीं है। बल्कि कहें असंभव। लेकिन तब उसके अपने ही तर्क के प्राण निकल गए। और ईसाई फकीर तरतूलियन ने कहा है कि मैं ईश्वर को मानता हूं, | | नास्तिक उससे कहता है कि अगर ईश्वर को बनाने वाले की कोई क्योंकि ईश्वर असंभव है। उसके भक्तों ने उससे कहा, आपका | | जरूरत नहीं है, तो तुम स्वीकार करते हो कि बिना बनाए भी कुछ मस्तिष्क तो ठीक है? तरतूलियन ने कहा कि अगर ईश्वर संभव है, हो सकता है। तो फिर जगत के ही बिना बनाए होने में कौन-सी तो फिर मुझे उसे मानने की कोई जरूरत ही न रही। सूरज को मैं | | तकलीफ है! तत्वतः यह स्वीकार करते हो कि कुछ हो सकता है जो मानता नहीं, क्योंकि सूरज संभव है। आकाश को मैं मानता नहीं, | | बिना बनाया है, तो इस जगत को क्या अड़चन है! और जब यह क्योंकि आकाश है। मैं ईश्वर को मानता हं, क्योंकि ईश्वर का होना मानना ही है, तो जगत पर ही रुक जाना बेहतर है, और एक ईश्वर बुद्धि के लिए असंभावना है, इंपासिबल है। को बीच में लाने की क्या जरूरत है? यहां आपको तकलीफ होगी। और जब बुद्धि किसी असंभव को मानती है, तो बुद्धि टूट जाती | | कृष्ण कहते हैं कि वही मुक्त होगा अज्ञान से, जो मुझे अजन्मा है और शून्य हो जाती है। असंभव से टकराकर नष्ट होती है बुद्धि। जानता है। जो मुझे मानता है कि मेरा कोई जन्म नहीं, और मैं हूँ; असंभव से टकराकर विचार खो जाते हैं। असंभव की स्वीकृति के | और मेरा कोई प्रारंभ नहीं, और मैं हूं। साथ ही अहंकार को खड़े होने की जगह नहीं मिलती। यह असंभव इसलिए जो छोटा-मोटा आस्तिक है, वह तो दिक्कत में पड़ेगा, की बात शुरू होती है। यह आपने बहुत बार गीता में पढ़ी होगी और | क्योंकि उसकी तो सारी तर्क की व्यवस्था ही यही है कि अगर कुछ आपको कभी खयाल में न आया होगा कि असंभव है। | है, तो उसका बनाने वाला चाहिए। इसलिए हमने ईश्वर को भी और जो मेरे को अजन्मा, कृष्ण कहते हैं, जो मुझे मानते हैं | | स्रष्टा, दि क्रिएटर, बनाने वाला, इस तरह के शब्द खोज लिए हैं, अजन्मा, अनबॉर्न, जो कभी पैदा नहीं हुआ। अनादि, जिसका कोई | | जो कि गलत हैं। प्रारंभ नहीं है। ऐसा जो मुझे तत्व से मानते हैं, ऐसा ईश्वर, वे ईश्वर बनाने वाला नहीं है; ईश्वर अस्तित्व है। वही है। उसके मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। | अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वह यह अत्यंत कठिन बात है। इसे हम थोड़ा समझें। | कोई ईश्वर से भिन्न और अलग नहीं है। उसकी ही अभिव्यक्ति है, हम सभी जानते हैं, तथाकथित धार्मिक लोग लोगों को समझाते | | उसका ही एक अंश है, उसका ही एक हिस्सा है। सागर का ही एक हैं कि ईश्वर है। क्योंकि अगर ईश्वर न होगा, तो जगत को बनाया हिस्सा लहर बन गया है। अभी थोड़ी देर बाद फिर सागर हो किसने? आस्तिक सोचते हैं, बड़ी गहरी दलील दे रहे हैं। बहुत | जाएगा। फिर लहर बन जाएगा। लहर सागर से अलग नहीं है। बचकानी है दलील। आस्तिक सोचते हैं कि बड़ी गहरी दलील दे | । यह जो सृष्टि है...। हमारे शब्द में ही कठिनाई घुस गई है, हमने रहे हैं कि अगर ईश्वर न होगा. तो जगत को बनाया किसने? सोचते-सोचते इसको सृष्टि ही, क्रिएशन ही कहना शुरू कर दिया आस्तिक कहते हैं कि एक छोटा-सा घड़ा भी बनाना हो, तो कुम्हार | है। यह जो दिखाई पड़ रहा है हमें चारों तरफ, यह जो प्रकृति है, की जरूरत होती है। अगर घड़ा है, तो कुम्हार भी रहा होगा। होगा। यह प्रकृति परमात्मा का ही हिस्सा है। यह उतनी ही अजन्मी है, बिना बनाए घड़ा भी नहीं बन सकता। और इतना विराट, इतना | जैसा परमात्मा अजन्मा है। 11 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 लेकिन तब बिना बनाए कोई चीज हो सकती है? बिना प्रारंभ के ईश्वर का अर्थ है, दि टोटेलिटी। इस संपूर्ण अस्तित्व का कोई चीज हो सकती है? हमारा प्रारंभ है, हमारा जन्म होता है; धार्मिक नाम ईश्वर है। विज्ञान जिसे एक्झिस्टेंस कहता है, अस्तित्व हमारी मृत्यु होती है। हम जगत में ऐसी किसी चीज को नहीं जानते, | कहता है, प्रकृति कहता है, धर्म उसे ही परमात्मा कहता है। जिसका प्रारंभ न होता हो और अंत न होता हो। सभी चीजें शुरू कृष्ण कहते हैं, जो मुझे अजन्मा, अनादि, ऐसा जानने में समर्थ होती हैं, और सभी चीजें समाप्त हो जाती हैं। आप किसी ऐसे हो जाए, वह सब पापों के पार हो जाता है। अनुभव को जानते हैं जिसका प्रारंभ न हो, अंत न हो? हमारे। लेकिन क्यों? अगर आप जान भी लें कि ईश्वर का कोई प्रारंभ अनुभव में ऐसा कोई भी अनुभव नहीं है। इसीलिए इस सूत्र को नहीं, कोई अंत नहीं, तो आप पाप के पार कैसे हो जाएंगे? यह स्वीकार करने में बुद्धि को अड़चन है, भारी अड़चन है। बहुत अजीब-सी बात है। मैं चोर हूं, मैं बेईमान हूं, मैं हत्यारा हूं। अजन्मा, अनादि, ऐसा जो मुझे मानता है, ऐसा जो मुझे जानता | | अगर मैं यह जान भी लूं कि ईश्वर का कोई जन्म नहीं और ईश्वर है. वह मनुष्यों में ज्ञानवान है और संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। का कोई अंत नहीं, तो मैं पाप के क्यों पार हो जाऊंगा? मेरे इस जान यह ज्ञान कुछ दूसरे ही प्रकार का ज्ञान है। जितना हम सोचेंगे, | | लेने से मेरे पाप के विसर्जन का क्या संबंध है? यह और भी जटिल जितना हम विचार करेंगे, उतना ही हमें मालम पड़ेगा कि सब चीजों | बात है। लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है। का प्रारंभ है और सब चीजों का अंत है। कहीं चीज शुरू होती है। जैसे ही मैं यह जान लूं कि ईश्वर का कोई प्रारंभ नहीं है और और कहीं समाप्त होती है। जन्म होता है कहीं, मृत्यु होती है कहीं। ईश्वर का कोई अंत नहीं है, वैसे ही मुझे यह भी पता चल जाता है हम खुद अपने ही भीतर खोज करें, तो कुछ पता नहीं चलता कि कि मेरा भी कोई प्रारंभ नहीं है और मेरा भी कोई अंत नहीं है। वैसे जन्म के पहले भी हम थे, कि मृत्यु के बाद भी हम होंगे! ही मुझे यह भी पता चल जाता है कि आपका भी कोई प्रारंभ नहीं झेन फकीर जापान में अपने साधकों को कहते हैं कि ध्यान करो, है, आपका भी कोई अंत नहीं है। तो मैंने जो हत्याएं की हों या मेरी और खोजो उस चेहरे को, जो जन्म के पहले तुम्हारा था, हत्या की गई हो, मैंने जो पाप किए हों या मेरे साथ पाप किए हों, ओरिजिनल फेस। जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम्हारी शक्ल | वे सब मूल्यहीन हो जाते हैं। एक शाश्वत जगत में खेल से ज्यादा कैसी थी? या तुम जब मर जाओगे, तब तुम कैसे होओगे, इसकी | उनकी स्थिति नहीं रह जाती। एक अभिनय और एक नाटक से . तलाश करो ध्यान में! ज्यादा उनका मूल्य नहीं रह जाता। जब भी कोई साधक अपने भीतर खोज लेता है उस सूत्र को, जो | | अगर मैं मृत्यु के बाद भी शेष रहता हूं और जन्म के पहले भी जन्म के भी पहले था या मृत्यु के भी बाद बचेगा, तभी इस सूत्र को मैं था, तो जीवन में जिन बातों का हम बहुत मूल्य मान रहे हैं, वे समझने में समर्थ हो पाता है। मूल्यहीन हो जाती हैं। तब स्थिति केवल यह हो जाती है कि जैसे नहीं; इस अस्तित्व का न कोई प्रारंभ है, और न कोई अंत है। एक मंच पर एक नाटक चलता हो, रामलीला चलती हो, और मंच हो भी नहीं सकता। वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि हम रेत के एक के पात्र पर्दे के पीछे जाकर गपशप करते हों। यहां राम की सीता छोटे-से कण को भी नष्ट नहीं कर सकते। तोड़ सकते हैं, बदल | | खो जाती हो और राम छाती पीटते हों और वृक्षों से पूछते हों कि सकते हैं, रूप दूसरा हो सकता है, लेकिन विनाश असंभव है। और सीता कहां है! और पीछे, पर्दे के पीछे बैठकर भूल जाते हों सीता वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि हम रेत के एक छोटे-से नए कण को को, सीता के खो जाने को, आंसुओं को। क्यों? निर्मित भी नहीं कर सकते। अगर यह मंच ही सब कुछ है और मंच के पहले राम का कोई इस जगत की जो भी गुणात्मक, परिमाणात्मक स्थिति है, वह अस्तित्व नहीं है और मंच के बाद भी राम का कोई अस्तित्व नहीं है, उतनी की उतनी ही है; उसमें रत्तीभर न कभी बढ़ता है और न कभी तो फिर बहुत कठिनाई है, फिर जिंदगी बहुत वास्तविक हो जाएगी। घटता है। क्योंकि घटने या बढ़ने का अर्थ होगा, या तो शून्य से। लेकिन मंच पर आने के पहले भी राम हैं, मंच से उतर जाने के कोई चीज पैदा हो और जगत में बढ़ जाए; घटने का अर्थ होगा, बाद भी राम हैं, तो राम होना एक पात्र, एक लीला का हिस्सा रह कोई चीज खो जाए और शून्य में लीन हो जाए। लेकिन इस जगत गया; और राम की जो सातत्यता है, जो कंटिन्युटी है, जो भीतर का के बाहर न कोई स्थिति है, न कोई स्थान है, न कोई उपाय है। | अस्तित्व है, वह अंतहीन, अनादि हो गया। उसमें न मालूम कितनी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञेय जीवन रहस्य लीलाएं होंगी, न मालूम कितनी सीताएं खोएंगी और न मालूम कितने युद्ध होंगे, लेकिन अब उन युद्धों का मूल्य एक नाटक से ज्यादा नहीं रहा । इसलिए हमने राम के इस पूरे खेल को रामलीला कहा है। उसको हमने बहुत सोचकर लीला कहा है। कृष्ण के जीवन को हमने कृष्णलीला कहा है, बहुत सोचकर । लीला का अर्थ है कि इसका मूल्य अब खेल से ज्यादा नहीं है। एक लहर उठी है सागर में, हवाओं में, थपेड़ों में। उछलेगी, कूदेगी, नाचेगी, सूरज से मिलने की होड़ करेगी; फिर गिर जाएगी, खो जाएगी। अनेक बार उठी है यह लहर पहले भी, अनेक बार बाद में भी उठेगी। अगर यह लहर यह जान जाए कि जब मैं नहीं उठी थी, तब भी थी, और जब गिर जाऊंगी, तब भी रहूंगी, तो फिर इस लहर का होना एक खेल हो गया। तब इसमें से भार, गंभीरता, बोझ विलीन हो गया। तब मिटना भी एक आनंद है, होना भी एक आनंद है, न हो जाना भी एक आनंद है। क्योंकि न होकर भी हम मिटते नहीं हैं, और होकर भी हम नए नहीं होते हैं। एक सातत्य है, एक कंटीनम है। यह शब्द वैज्ञानिक है। आइंस्टीन ने इस शब्द का उपयोग किया है, कंटीनम, एक सातत्य | चीजें सदा हैं। इसलिए चीजों का जो रूप आज दिखाई पड़ता है, वह बहुत मूल्यवान नहीं रह जाता। तब पाप भी मूल्यवान नहीं है और पुण्य भी मूल्यवान नहीं है। तब मैंने जो किया, वह मूल्यवान नहीं है; वरन मैं जो हूं, वही मूल्यवान है। तब मेरे साथ जो किया गया, वह भी मूल्यवान नहीं है; तब होना, बीइंग कीमत की चीज है। डूइंग, करना गैर- कीमती चीज है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जान लेगा इस सातत्य को - जो मेरे अजन्मा होने को, अनादि, अनंत होने को जान लेगा - वह सब पापों के पार हो जाएगा। लेकिन कोई चाहे कि पापों के पार होना है, इसलिए मान लो कि कृष्ण अनादि हैं, अजन्मा हैं, भगवान का होना सदा से है - इस भूल में आप मत पड़ना । इससे पाप नष्ट नहीं होंगे। यह आप जान लेंगे, तो पाप नष्ट हो जाएंगे। लेकिन आप पाप नष्ट करने के लिए ही अगर इसको मान लेंगे, तो पाप नष्ट नहीं होंगे। पाप तो हम सभी नष्ट करना चाहते हैं, लेकिन बिना ज्ञान की उस ज्योति को उपलब्ध हुए, जहां पाप का अंधेरा गिर जाता है। पाप हम नष्ट करना चाहते हैं, लेकिन ज्ञान की ज्योति को जन्माने की चेष्टा नहीं करना चाहते। तो फिर हम मानकर बैठ जाते हैं कि ठीक है, हम मानते हैं कि ज्ञान की ज्योति है; मानते हैं कि ईश्वर अजन्मा | है। लेकिन जो भी हम करते हैं, उससे सिद्ध होता है कि न हमें ईश्वर का पता है, न उसके अजन्मा होने का पता है। कृष्ण के सामने अर्जुन की तकलीफ यही है। अर्जुन कह यह रहा है कि मेरे मित्र हैं, प्रियजन हैं, सगे-संबंधी हैं, युद्ध में इनको काटूं, यह बड़ा पाप है। इनसे लडूं, यह बड़ा पाप है। इससे तो अच्छा है, मैं संन्यास ले लूं। मैं यह सब छोड़ दूं । मैं भाग जाऊं, मैं विरत हो जाऊं । कृष्ण उससे कह रहे हैं कि जब तक तू देख नहीं पा रहा है कि इन सारी लहरों के भीतर एक ही सागर है। जब ये लहरें नहीं थीं, तब भी वह सागर था; और जब कल ये लहरें सब गिर जाएंगी, तब भी सागर रहेगा। अगर तू इस अनादि, अजन्मा को देख ले, तो फिर तुझे यह जो पाप की और पुण्य की धारणा पैदा होती है, यह तत्काल विसर्जित हो जाए । परम ज्ञानी के लिए न कोई पाप है और न कोई पुण्य । इसका यह अर्थ नहीं कि वह पाप करता है। वह पाप कर ही नहीं सकता। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह पुण्य नहीं करता। वह पुण्य ही कर सकता है। पुण्य और पाप की परिभाषा ज्ञानी के जीवन में दूसरी ही हो जाती है। अभी हम उसे पाप कहते हैं, जो नहीं करना चाहिए, यद्यपि करते हैं। और उसे पुण्य कहते हैं, जो करना चाहिए और नहीं करते हैं। | जैसे ही कोई व्यक्ति ईश्वर के इस सातत्य को अनुभव करता है, | वैसे ही पाप और पुण्य की परिभाषा बदल जाती है। तब वह व्यक्ति जो करता है, वह पुण्य कहलाता है। और वह जो नहीं करता है, | वह पाप कहलाता है । और जो नहीं करता है, वह करना भी चाहे, तो नहीं कर सकता है। और वह जो करता है, अगर चाहे भी कि न करूं, तो बच नहीं सकता है। 13 पुण्य अनिवार्यता है ज्ञान में। और पाप अनिवार्यता है अज्ञान में। लाख उपाय करो, अज्ञान में पाप से बचा नहीं जा सकता; पाप होगा ही । और लाख उपाय करो, ज्ञान में पुण्य से बचा नहीं जा सकता; पुण्य होगा ही । ज्ञान में जो होता है, उसका नाम पुण्य है; और अज्ञान में जो होता है, उसका नाम पाप है। इसलिए अज्ञान में जिन्हें | हम पुण्य समझकर करते हैं, वह हम समझते ही होंगे कि पुण्य हैं, पुण्य होते नहीं । अज्ञान में एक आदमी मंदिर बनाता है भगवान का, तो सोचता है, पुण्य कर रहा है। लेकिन मंदिर जिस ढंग से बनाता है, जहां से Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग- 50 पैसा खींचकर लाता है, उसे उसका कोई हिसाब नहीं है। मंदिर बनाता चलेगा। अगर उनको चार दिन अकेले बंद कर दो, तो वे दीवालों है शोषण से; सोचता है, पुण्य कर रहा हूं! और जिस पुण्य को करने | से बातचीत शुरू कर देंगे। जाना गया है ऐसा। के लिए भी पाप करना पड़ता हो, वह कितना पुण्य होता होगा! | | कारागृह में कैदी बंद होते हैं, तो थोड़े दिन के बाद दीवालों से और मंदिर बनाता है भगवान के नाम से, लेकिन तख्ती अपनी बातचीत शुरू कर देते हैं। मकड़ी हो ऊपर, तो उससे बातचीत करने लगाता है। वह भगवान तो गौण है, वह जो मंदिर पर पत्थर लगता लगते हैं; छिपकली हो, तो उससे बातचीत करने लगते हैं। कोई न है अपने नाम का, वही असली बात है। मंदिर उसी के लिए बनाया | हो, तो अपने को ही दो हिस्सों में बांट लेते हैं। एक तरफ से प्रश्न जाता है। भगवान की प्रतिमा भी उसी पत्थर के लिए भीतर रखी उठाते हैं, दूसरी तरफ से जवाब देते हैं। जाती है। अहंकार जिस मंदिर में प्रतिष्ठित हो रहा हो, वह कितना ___ हम सभी करते रहते हैं। कोई न मिले, जरूरी भी नहीं। हमेशा पुण्य है? श्रोता मिलना आसान नहीं। और जैसे दिन खराब आते जा रहे हैं, इसलिए अज्ञानी कुछ भी करे, कितने ही मंदिर बनाए और | श्रोता बिलकुल नाराज है; सुनने को कोई राजी नहीं है। पति कुछ कितनी ही तीर्थयात्राएं करे-मक्का जाए, और जेरूसलम जाए, | कहना चाहता है, पत्नी सुनने को राजी नहीं है। मां कुछ कहना और काशी जाए, और जो भी करना चाहे करे–अज्ञानी कुछ भी चाहती है, बेटा सुनने को राजी नहीं है। बाप कुछ कहना चाहता है, करे, अज्ञान के कारण वह जो भी करेगा, वह पाप ही होगा। पुण्य | | कोई सुनने को राजी नहीं है! श्रोता मुश्किल होता जा रहा है। और के कितने ही मुलम्मे चढ़ाए और पुण्य के कितने ही वस्त्र ढांके, बोलना है, कहना है! एक बीमारी है। भीतर जब भी खोदकर जाएंगे, तो पाप ही मिलेगा। बड रसेल ने इक्कीसवीं सदी की कहानी लिखी है एक। उसमें इससे उलटी बात और भी कठिन है समझनी, कि ज्ञानी कुछ भी | | उसने लिखा है कि जगह-जगह हर बड़े नगर में तख्तियां लगी हैं, करे, पुण्य ही होगा। इसलिए तो कृष्ण उससे कह रहे हैं कि तू लड़ने | | जो बड़ी अजीब हैं। उन तख्तियों पर लिखा हुआ है कि आपको कुछ की फिक्र छोड़, ज्ञान की फिक्र कर। और अगर तुझे ज्ञान मिल जाए, | भी कहना हो, तो हम सुनने को राजी हैं। सुनने की इतनी फीस! तो मैं तुझसे कहता हूं, तू काट डाल इन सारे लोगों को, जो तेरे | | और अभी ऐसा हो रहा है। पश्चिम में जिसको साइकोएनालिसिस सामने खड़े हैं, और पाप नहीं होगा। और अगर ज्ञान न हो, तो तू | | कहते हैं, मनोविश्लेषण कहते हैं, वह कुछ भी नहीं है; आपकी भाग जा जंगल, चींटी को भी मत मार, फूंक-फूंककर पैर रख; और | | बकवास सुनने की फीस! सालों चलता है एनालिसिस। पैसा जिनके मैं तुझसे कहता हूं कि पाप ही होगा। पास है, वे एक बड़े मनोवैज्ञानिक के पास सप्ताह में तीन दफा, चार यह परम ज्ञान उस सातत्य के साथ अपना एकत्व अनुभव होने | दफा जाकर घंटेभर, जो उनको बकना है, बकते हैं। वह बड़ा से होता है। मनोवैज्ञानिक शांति से सुनता है। यह कठिन सूत्र है। फिर इस सूत्र को समझाने के लिए ही पूरा | | सालभर की इस बकवास से मरीजों को लाभ होता है। लाभ अध्याय है। इस सूत्र को खयाल में ले लें। इसमें परम वचन, ऐसा | इलाज से नहीं होता है, इस बकवास के निकल जाने से होता है। वचन कृष्ण कहने जाने की घोषणा कर रहे हैं, जिसे बुद्धि से नहीं | | यह बीमारी है; कैथार्सिस हो जाती है सालभर। और एक बुद्धिमान समझा जा सकता, तर्क से जिस तक पहुंचने का उपाय नहीं है। हां, | | आदमी, प्रतिष्ठित आदमी, योग्य आदमी, सुशिक्षित आदमी बड़ी प्रेम और श्रद्धा का संबंध हो, तो संवाद हो सकता है। अर्जन के लगन से आपकी बात सुनता है, क्योंकि आप उसको सुनने के पैसे हित की दृष्टि से कह रहे हैं। कहने का कोई मजा नहीं है। | देते हैं। वह आपकी लगन से बात सुनता है। आप कुछ भी कहिए, एक तो आदमी होते हैं, जिन्हें कहने का मजा होता है। जिन्हें | | वह उसको ऐसे सुनता है, जैसे कि परम सत्य का उदघाटन किया इससे प्रयोजन नहीं होता कि आपका कोई हित होगा, इसलिए कह | जा रहा हो! रहे हैं। जिन्हें कहना है, जैसे कि खुजली खुजलानी है। उन्हें कुछ | | तो पश्चिम में बड़े घरों के लोग एक-दूसरे से पूछते हैं, कितनी कहना है, वे कह रहे हैं। दिनभर हम जानते हैं चारों तरफ लोगों को, | बार साइकोएनालिसिस करवाई? कितने दिन तक? पैसे वाले का जो सुबह अखबार पढ़ लिए और फिर निकले किसी से कहने! लक्षण आज अमेरिका में यही है; खास कर स्त्रियों का। पैसे वाली उनको कहना है। कहना उनके लिए बीमारी है। बिना कहे उनसे नहीं स्त्रियों का लक्षण यही है कि उन्होंने कितने बड़े मनोवैज्ञानिक के Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञेय जीवन-रहस्य 3 साथ कितने साल तक मनोविश्लेषण करवाया है! कहते हैं, असंख्य! गलती में मत पड़ना। और मनोविश्लेषण का कुल मतलब इतना है कि मनोवैज्ञानिक ___ आम आंख से आदमी चार हजार तारों से ज्यादा तारे नहीं कहता है, लेट जाओ इस कोच पर, और जो भी मन में आए, फ्री | देखता। अच्छी से अच्छी आंख चार हजार तारे देखती है, बस। एसोसिएशन आफ थाट्स, जो भी मन में आए, कहे चले जाओ। | चूंकि आप गिन नहीं पाते, इसलिए सोचते हैं, असंख्य। लेकिन जो भी आए। संगत-असंगत का कोई सवाल नहीं। लोग बड़े हल्के | | दूरदर्शक यंत्र से देखिए, तो तीन अरब तारे अब तक देखे जा चुके होकर लौटते हैं। हैं। लेकिन वे तीन अरब तारे जगत की सीमा नहीं हैं। जगत उनके एक तो कहने वाले वे लोग हैं, जिन्हें कहना एक बीमारी है। | भी पार, उनके भी पार, उनके भी पार है। अब वैज्ञानिक कहते हैं, उनके भीतर कुछ भरा है, उसे निकालना है। लेकिन उससे दूसरे का | हम कहीं भी तय न कर पाएंगे कि जगत की सीमा है। हित कभी नहीं होता। अगर इस असीम का पता चले, तो आपको अपना कमरा और कृष्ण कहते हैं, मैं तेरे हित के लिए कहूंगा। कुछ कहने का आपका राजा होना उस कमरे में, कितना मूल्यवान मालूम पड़ेगा? सवाल नहीं है। लेकिन तेरे सुनने की घड़ी आ गई, तेरे सुनने का अगर आपको इस अनंत विस्तार का पता चले, तो पड़ोसी से क्षण आ गया, वह परिपक्व मौका आ गया, जब तेरा हृदय राजी आपकी एक इंच जमीन के लिए जो अदालत में मुकदमा चल रहा है, तो में तुझसे परम सत्य कहूंगा। और यह परम सत्य, इस सूत्र है, वह मुकदमा कितना मूल्यवान मालूम पड़ेगा? उसकी कोई की व्याख्या होगी अंततः, कि जीवन अजन्मा है, अनादि है। रेलिवेंस, उसकी कोई संगति मालूम नहीं पड़ेगी। अस्तित्व का न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत। और हम इस अस्तित्व __ अगर आप पीछे लौटकर देखें, तो अरबों-अरबों लोग इस में छोटी लहरों से ज्यादा नहीं। हमारे कृत्य इस परम विस्तार को | | जमीन पर रहे हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि जहां आप बैठे हैं, उस जगह ध्यान में रखकर सोचे जाएं, तो लीला मात्र, खेल मात्र रह जाते हैं। | पर कम से कम दस आदमियों की कब्र बन चुकी है; हर जगह पर। .. अगर इस परम विस्तार को छोड़ दिया जाए, तो हमारे कृत्य बड़ी | जहां आप बैठे हैं, वहां दस मुर्दे गड़े हैं। इतने आदमी हो चुके हैं कि महिमा ले लेते हैं, बड़ी गरिमा ले लेते हैं, बड़े महत्वपूर्ण हो जाते अगर हम पूरी जमीन पर भी गड़ाएं, तो हर इंच पर दस मुर्दे गड़ हैं। और हम सबकी नजर इतनी छोटी है कि इस विस्तार को हम जाएंगे। उनके भी झगड़े थे, उनकी भी अकड़ थी, उनकी भी नहीं देख पाते। राजनीति थी, उनके भी छोटी-छोटी बातों पर बड़े-बड़े विवाद थे, __ अपने घर में आप बैठे हैं अपनी कुर्सी पर, अपने कमरे के भीतर, | | वे सब खो गए। आज उनका कोई विवाद नहीं है। कल हमारा भी तो आप सम्राट मालूम होते हैं। थोड़ा बाहर आइए; फिर फैले हुए कोई विवाद नहीं होगा। इस विराट आकाश को देखिए, फिर इन चांद-तारों को देखिए, तब __ अगर हम इस सातत्य को, इस विस्तार को अनुभव करें, तो कहां आपको अपना अनुपात अलग मालूम पड़ेगा। तब आपके छोटे-से | टिकेगा पाप? कहां टिकेगा पाप? कहां टिकेगा अहंकार? कहां कमरे में आप जो सम्राट मालूम होते थे, वह अब नहीं मालूम पड़ेंगे। टिकूँगा मैं? वे सब खो जाएंगे। और उनके खो जाने पर व्यक्ति नहीं ___ यह छोटे-छोटे दड़बों में आदमी बंद है, फ्लैट्स में, छोटी-छोटी बचता, परमात्मा ही बचता है। कोठरियों में आदमी बंद है, उसकी वजह से उसकी अकड़ बहुत आज इतना ही। बढ़ गई है। उसे थोड़ा खुले आकाश के नीचे लाना चाहिए, तो उसे लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट बैठेंगे। पांच मिनट हमारे पता चले कि अपना अनुपात कितना है! संन्यासी कीर्तन में लीन होंगे, उनके साथ आप भी लीन हों। विराट आकाश। और जितना आकाश आपको दिखता है, उतना तालियां बजाएं। कीर्तन में भाग लें। कोई भी उठेगा नहीं। यह प्रसाद ही नहीं है. यह तो आपकी आंख की कमजोरी की वजह से इतना समझें, और इसको लेकर जाएं। दिखता है। यह आकाश और भी विराट है। तो एक बड़े दूरदर्शी यंत्र से देखिए। तब आपको दिखाई पड़ेगा कि जितने तारे आपको दिखाई पड़ते हैं, ये तो कुछ भी नहीं हैं। आपने हालांकि सोचा होगा, क्योंकि हमारी गणना कितनी है! आप रात में तारे देखते हैं, तो 15 Page #46 --------------------------------------------------------------------------  Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 दूसरा प्रवचन रूपांतरण का आधारनिष्कंप चित्त और जागरूकता Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-53 बुद्धिनिमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। आश्चर्य की बात कि हम जिस अखंड की खोज में मंदिर और सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ।।४।। मस्जिद और गुरुद्वारे में जाते हैं, हम अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। हमारा गुरुद्वारा भी हमें खंड-खंड करने में सहयोगी होते हैं। हम भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ।।५।। मंदिर और मस्जिद के बीच भी एक को नहीं देख पाते हैं। हिंदू और ___महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मुसलमान और ईसाई के पूजागृहों में भी हमें फासले की दीवालें मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।। ६ ।। और शत्रुता की आड़ें दिखाई पड़ती हैं। मंदिर भी अलग-अलग हैं, और हे अर्जुन, निश्चय करने की शक्ति एवं तत्वज्ञान तो यह पूरा जीवन तो कैसे एक होगा? और अमूढ़ता, क्षमा, सत्य तथा इंद्रियों का वश में करना ___ मंदिर अलग नहीं हैं, लेकिन हमारे देखने का ढंग केवल खंड और मन का निग्रह तथा सुख-दुख, उत्पत्ति और प्रलय | को ही देख पाता है, अखंड को नहीं देख पाता है। तो हम जहां भी एवं भय और अभय भी तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, अपनी दृष्टि ले जाते हैं, वहां ही हमें टुकड़े दिखाई पड़ते हैं। वह दान, कीर्ति और अपकीर्ति, ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार | समग्र, जो सभी को घेरे हुए है, हमें दिखाई नहीं पड़ता है। के भाव मेरे से ही होते हैं। अर्जुन की भी तकलीफ वही है। उसे भी अखंड का कोई अनुभव और हे अर्जुन, सात महर्षिजन और चार उनसे भी पूर्व में होने | नहीं हो रहा है। उसे दिखाई पड़ता है, मैं हूं। उसे दिखाई पड़ता है, वाले सनकादि तथा स्वायंभुव आदि चौदह मनु, ये मेरे में | मेरे मित्र हैं, प्रियजन हैं, शत्रु हैं। उसे दिखाई पड़ता है कि सुख क्या भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, कि । | है, उसे दिखाई पड़ता है कि दुख क्या है। उसे दिखाई पड़ता है कि जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है। | पाप क्या है, पुण्य क्या है। उसे सब दिखाई पड़ता है; सिर्फ एक, | जो सभी के भीतर छिपा हुआ है, वह भर दिखाई नहीं पड़ता है। और इसलिए कृष्ण और अर्जुन के बीच जो चर्चा है, वह दो दृष्टियों से आकाश ने सबको घेरा हुआ है, जैसे जीवन की | के बीच है। ऊर्जा सभी में परिव्याप्त है, वैसे ही कण-कण, चाहे ___ अर्जुन खंडित दृष्टि का प्रतीक है और कृष्ण अखंडित दृष्टि के। पदार्थ का हो का, परमात्मा की ही कृष्ण समग्र की, दि होल, वह जो परा है. उसकी बात कर रहे हैं अभिव्यक्ति है। कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रहे हैं कि मेरे | और अर्जुन टुकड़ों की बात कर रहा है। शायद इसीलिए दोनों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पहले इस मौलिक धारणा को | बीच बात तो हो रही है, लेकिन कोई हल नहीं हो पा रहा है। उन समझ लें, फिर हम सूत्र को समझें। | दोनों का जीवन को देखने का ढंग ही भिन्न है। जैसा हम देखते हैं, तो सभी चीजें अलग-अलग मालूम पड़ती ___ इस सूत्र में कृष्ण अर्जुन को एक-एक बात गिना रहे हैं कि मैं हैं। कोई एक ऐसा तत्व दिखाई नहीं पड़ता, जो सभी को जोड़ता हो। | कहां-कहां हूं। इतना ही कहना काफी होता कि मैं सब जगह हूं। इतना जब हम देखते हैं, तो माला के गुरिए ही दिखाई पड़ते हैं। वह माला | ही कहना काफी होता कि सभी कुछ मैं ही हूं। लेकिन यह बात अर्जुन के भीतर जो पिरोया हुआ सूत का धागा है, जो उन सबकी एकता है, | को स्पष्ट न हो पाएगी। अर्जुन को खंड-खंड में ही गिनाना पड़ेगा वह हमारी आंखों से ओझल रह जाता है। जब भी हम देखते हैं, तो |कि कहां-कहां मैं हूं। शायद उसे खंड-खंड में यह एक की झलक हमें खंड दिखाई पड़ते हैं, लेकिन अखंड का कोई अनुभव नहीं होता। मिल जाए, तो खंड खो जाएं और अखंड की प्रतीति हो सके। ___ यह अखंड का जब तक अनुभव न हो, तब तक परमात्मा की | | इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, निश्चय करने की शक्ति एवं कोई प्रतीति भी नहीं है। इसीलिए हम कहते हैं कि परमात्मा को | | तत्वज्ञान और अमूढ़ता...। मानते हैं, मंदिर में श्रद्धा के फूल भी चढ़ाते हैं, मस्जिद में उसका । ये तीन शब्द बहुत कीमती हैं। निश्चय करने की शक्ति! स्मरण भी करते हैं, गिरजाघर में उसकी स्तुति भी गाते हैं। लेकिन । जैसा हमारे पास मन है, अगर हम ठीक से समझें, तो हम कह फिर भी वह परमात्मा, जिसके चरणों में हम सिर झुकाते हैं, हमारे सकते हैं, मन है अनिश्चय करने की शक्ति। मन का सारा काम ही हृदय के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है। भीतर यह है कि वह हमें निश्चित न होने दे। मन जो भी करता है, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपांतरण का आधार-निष्कंप चित्त और जागरूकता रहता है। अनिश्चय में ही करता है। कोई भी कदम उठाता है, तो भी पूरा मन | | ज्यादा हिस्सा जहां कहता है, वहां हम चले जाते हैं। साठ प्रतिशत कभी कोई कदम नहीं उठाता। एक हिस्सा मन का विरोध करता ही | | मन जो कहता है, वही हम हो जाते हैं। चालीस प्रतिशत जो मन कहता है, उसे हम नहीं करते। बहुमत मन का जो कहता है, हम अगर आप किसी को प्रेम करते हैं, तो भी मन पूरा प्रेम नहीं | उसके पीछे चले जाते हैं। करता; मन का एक हिस्सा, जिसे आप प्रेम करते हैं, उसी के प्रति लेकिन जो अभी बहुमत है, वह कल सुबह तक बहुमत रहेगा, घृणा से भी भरा रहता है। और इसीलिए किसी भी दिन प्रेम घृणा यह पक्का नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे पार्लियामेंट में भी पक्का नहीं बन सकता है। मन में घृणा तो मौजद ही है। जिसे आप प्रेम करते है कि जो अभी बहुमत है, वह कल सुबह तक भी बहुमत रहेगा। हैं, किसी भी क्षण उसी के प्रति क्रोध से भर सकते हैं। एक क्षण में दलबदलू वहां ही नहीं हैं, मन के भीतर भी हैं। प्रेम की शीतलता क्रोध की अग्नि बन सकती है, क्योंकि मन तो | सांझ जिसने तय किया था कि सबह चार बजे उठंगा और सोचा क्रोध से भरा ही है। | था, दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकेगी; सुबह चार बजे घड़ी और पूरे मन से न हम प्रेम करते हैं, और न पूरे मन से हम शांत | का अलार्म बजता है, वही आदमी करवट लेकर कहता है, ऐसी भी होते हैं, और न पूरे मन से हम सच्चे होते हैं। पूरा मन जैसी कोई | क्या बात है, अभी सर्दी बहुत है और अगर आधी घड़ी सो भी लिए, चीज ही नहीं होती। यह समझने में थोड़ी कठिनाई पड़ेगी। तो हर्ज क्या है! वही आदमी सुबह सात बजे उठकर पछताता है .. जहां पूरा हो जाता है मन, वहां मन समाप्त हो जाता है। जब तक | और कहता है, यह कैसे हुआ! क्योंकि मैंने संकल्प किया था कि अधूरा होता है, तभी तक मन होता है। इसे हम ऐसा समझें कि चार बजे उठूगा ही, चाहे कुछ भी हो जाए। फिर मैं चार बजे उठा अधूरा होना, मन का स्वभाव है। अपने ही भीतर बंटा होना, मन क्यों नहीं? दुखी होता है। का स्वभाव है। अपने ही भीतर लड़ते रहना, मन का स्वभाव है। - ये तीन बातें एक ही आदमी कर लेता है! सांझ तय करता है, द्वंद्व, कलह, खंडित होना, मन की नियति और प्रकृति है। | उलूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए। चार बजे तय कर लेता है, छोड़ो भी, आपने जीवन में बहुत बार निर्णय लिए होंगे, रोज लेने पड़ते हैं, | | कुछ ऐसा उठना अनिवार्यता नहीं है; किसी की गुलामी तो नहीं है। लेकिन मन से कभी कोई निर्णय पूरा नहीं लिया जाता। मेरे पास | घड़ी बज जाए, हम कोई घड़ी के गुलाम तो नहीं हैं कि उठ जाएं। लोग आते हैं, वे कहते हैं, संन्यास हमें लेना है, लेकिन अभी सत्तर | और सुबह सात बजे यही आदमी पछताता है। प्रतिशत मन तैयार है; अभी तीस प्रतिशत मन तैयार नहीं है। कोई यह एक ही आदमी इसलिए कर पाता है, क्योंकि मन का बहुमत आता है, वह कहता है, नब्बे प्रतिशत मन तैयार है; अभी दस | बदल जाता है। सांझ नब्बे प्रतिशत से निर्णय लिया था, लेकिन उसे प्रतिशत मन तैयार नहीं है। जब मेरा परा मन तैयार हो जाएगा. तब भी पता नहीं कि छः घंटे सोने के बाद आलस्य की ताकतें बढ़ गई मैं संन्यास में छलांग लगाऊंगा। मैं उनसे कहता हूं कि पूरा मन | | होंगी; और नींद के क्षण में मन का वह हिस्सा वजनी हो जाएगा, तुम्हारा किसी और चीज में कभी तैयार हुआ है? जो रात को कमजोर था; सांझ अल्पमत में था, सुबह चार बजे पूरा मन कभी तैयार होता ही नहीं। और जब कोई व्यक्ति पूरा | बहुमत में हो जाएगा। फिर वही आदमी सात बजे पछताता है, तैयार होता है, तो मन शून्य हो जाता है; मन तत्क्षण विदा हो जाता | क्योंकि सुबह जागकर सांझ की बुद्धि का खयाल आता है। होश है। अधूरे आदमी के पास मन होता है, पूरे आदमी के पास मन नहीं | | बढ़ता है। सुबह के सूरज के साथ भीतर भी प्रकाश बढ़ता है। वह होता। बुद्ध, या राम, या कृष्ण जैसे व्यक्तियों के पास मन नहीं | | जो अल्पमत में हो गया था चार बजे रात के अंधेरे में, वह फिर होता। और जहां मन नहीं होता, वहीं आत्मा के दर्शन, वहीं बहुमत में हो गया है। पछतावा शुरू हो जाता है। यह आदमी सांझ परमात्मा की झलक मिलनी श | फिर तय करेगा, रात फिर बदलेगा, सुबह फिर पछताएगा। पूरी साधारण-सी बात में भी मन झिझकता है! बाएं रास्ते से जाऊ || जिंदगी आदमी की ऐसी है। या दाएं से, तो भी मन सोचता है। तो भी आधा मन कहता है बाएं | मन कोई भी निर्णय पूरा नहीं ले पाता। से, आधा मन कहता है दाएं से। और अगर हम कभी जाते भी हैं, | | सुना है मैंने, बंगाल में एक भक्त हुआ। कभी मंदिर में नहीं तो वह निर्णय डेमोक्रेटिक होता है, पार्लियामेंटरी होता है। मन का गया। पिता बहुत धार्मिक थे। तो पिता चिंतित थे, स्वभावतः। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-58 लेकिन बेटा बड़ा ज्ञानी था, शास्त्रों का बड़ा ज्ञाता था। दूर-दूर तक जब तक तू उस पूरे निश्चय को नहीं कर पाएगा, तब तक मुझे नहीं बड़ी ख्याति थी। नव्य न्याय का, न्याय का, तर्क का बड़ा पंडित समझ पाएगा। था। साठ वर्ष का हो गया, तो अस्सी वर्ष के पिता ने कहा कि अब पूर्ण निश्चय हमने कभी भी नहीं किया है। छोटे-मोटे निश्चय बहुत हो गया, अब तू भी बूढ़ा हो गया, अब मंदिर जाना जरूरी है! | भी हमने पूर्ण नहीं किए हैं। अगर आप पांच मिनट के लिए भी तय ___ उस साठ वर्ष के बूढ़े बेटे ने कहा, मंदिर तो मैं कई बार सोचा करें कि मैं आंख को नहीं झपडूंगा, तो भी आपको परमात्मा की कि जाऊं, लेकिन पूरा मन कभी मैंने पाया नहीं कि मंदिर जाऊं। झलक मिल जाए। लेकिन पांच मिनट में आंख पच्चीस बार झपक और अगर अधूरे मन से गया, तो मंदिर में जा ही कैसे पाऊंगा? जाएगी। अगर आप तय करें कि मैं पांच मिनट बिना हिले खड़ा आधा बाहर रह जाऊंगा, आधा भीतर जाऊंगा. तो जाना हो ही नहीं | रहूंगा, तो भी परमात्मा की झलक मिल जाए। लेकिन पांच मिनट पाएगा। और फिर मैं आपको भी रोज मंदिर जाते देखता हूं वर्षों से; | में पच्चीस बार आप हिल जाएंगे। जिस मन से आप तय कर रहे चालीस वर्ष का तो कम से कम मुझे स्मरण है; लेकिन आपकी | | हैं, उस मन का स्वभाव कंपन है। तो पूर्ण निश्चय तभी होता है, जिंदगी में मैंने कोई फर्क नहीं देखा। तो मैं मानता हूं कि आप मंदिर | | जब कोई व्यक्ति मन के पार उठ पाए। अभी पहुंच ही नहीं पाए हैं। आप जाते हैं, आते हैं, लेकिन पूरा | | समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं मन के पार उठने के उपाय हैं। मन मंदिर और पूरा मन कहीं मिल नहीं पाते। तो आपको देखकर भी | | का अर्थ है, विचलित चेतना। और ध्यान का अर्थ है, अविचलित मेरी हिम्मत टूट जाती है। जाऊंगा एक दिन जरूर, लेकिन उसी | | चेतना। ध्यान का अर्थ है, मन की मृत्यु। दिन, जिस दिन पूरा मन मेरे पास हो। | इसलिए झेन फकीरों ने ध्यान के लिए नाम दिया है. नो माइंड। और दस वर्ष बीत गए। बाप मरने के करीब पहुंच गया। अभी कबीर ने भी ध्यान को अ-मनी अवस्था कहा है; ए स्टेट आफनो तक वह प्रतीक्षा कर रहा है कि किसी दिन उसका बेटा जाएगा। माइंड। ध्यान का अर्थ है, जहां मन न रह जाए, जहां मन न बचे, सत्तरवीं उसकी वर्षगांठ आ गई। और बेटा उस दिन सुबह बाप के | | जहां कोई विकल्प न हो, जहां कोई द्वंद्व न हो। पैर छूकर बोला कि मैं मंदिर जा रहा हूं। अगर एक क्षण को भी मैं इस आंतरिक समता को पा जाऊं, जहां बेटा मंदिर गया। घड़ी, दो घड़ी, तीन घड़ी बीतीं। बाप चिंतित | मन में कोई द्वंद्व न हो, जहां कोई विपरीत भाव न हो, जहां कोई . हुआ; बेटा मंदिर से अब तक लौटा नहीं है! फिर आदमी भेजा। कलह न हो, कोई काफ्लिक्ट न हो-एक क्षण को भी अगर यह मंदिर के पास तो बड़ी भीड़ लग गई है। फिर बूढ़ा बाप भी पहुंचा। समरसता भीतर आ जाए, तो मैं निश्चय को उपलब्ध हुआ। पुजारियों ने कहा कि इस बेटे ने क्या किया, पता नहीं! इसने आकर उसी क्षण मुझे परमात्मा उपलब्ध हो जाए; उसी क्षण उसकी मुझे सिर्फ एक बार राम का नाम लिया और गिर पड़ा। झलक मिल जाए; धागे की झलक मिल जाए, मनकों के भीतर जो एक पत्र वह अपने घर लिखकर रख आया था। जिसमें उसने | छिपा है। लिखा था कि एक बार राम का नाम लूंगा, पूरे मन से। अगर कुछ । सूफी फकीर एक ध्यान का अभ्यास करते और करवाते हैं। हो जाए, तो ठीक; अगर कुछ न हो, तो फिर दुबारा नाम न लूंगा। | पश्चिम में जार्ज गुरजिएफ ने भी उस ध्यान के प्रयोग को बहुत क्योंकि फिर दुबारा लेने का क्या प्रयोजन है? प्रचलित किया इस सदी में। सूफी फकीर उस प्रयोग को कहते हैं, एक ही बार राम का नाम पूरे मन से लिया गया; वह शरीर से | दि एक्सरसाइज आफ हाल्ट। और गुरजिएफ ने उसे कहा है, स्टाप मुक्त हो गया। लेकिन पूरे मन से तो हम कुछ ले नहीं पाते। पूरे मन एक्सरसाइज-रुक जाने का प्रयोग। का मतलब ही होता है कि मन समाप्त हुआ। मन का कोई अर्थ ही | गुरजिएफ अपने साधकों को कहता था कि जब मैं कहूं स्टाप, नहीं होता, जब मन पूरा हो जाए। रुक जाओ, तो तुम जो भी कर रहे होओ, वैसे ही रुक जाना। अगर तो कृष्ण पहला सूत्र का हिस्सा कहते हैं, निश्चय करने की | तुम्हारा बायां पैर चलने के लिए ऊपर उठा हो, तो वह वहीं ठहर शक्ति मैं हूं। जाए। अगर तुम्हारा होंठ खुला हो बोलने के लिए, तो वहीं रुक तो जिस दिन भी अर्जुन, तू पूर्ण निश्चय कर पाएगा, उस दिन तू जाए। अगर तुम्हारी आंख खुली हो, तो ठहर जाए। तुम फिर कुछ मुझे समझ लेगा कि मैं कौन हूं, मैं किसकी बात कर रहा हूं। लेकिन भी बदलाहट मत करना; वैसे ही रुक जाना। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपांतरण का आधार-निष्कंप चित्त और जागरूकता सूफी फकीर कहते हैं कि अगर एक क्षण को भी कोई पूर्णता से | पानी तो मेरे भीतर भर गया, लेकिन मैं पहली दफा भीतर विचारों रुक जाए, तो उसी पूर्णता के रुकावट के क्षण में, ठहरे होने के क्षण | से खाली हो गया। बाहर से तो मेरे प्राण संकट में पड़ गए, लेकिन में, उस अगति में, उसे निश्चय का अनुभव हो जाएगा। पहली दफा मैंने भीतर उसके दर्शन कर लिए जिस पर कभी कोई गुरजिएफ यह प्रयोग कर रहा था, तिफलिस, रूस के एक संकट नहीं पड़ सकता है। मैं मर भी जाता, तो अब कोई हर्ज न था, छोटे-से नगर में। एक नहर के पास पड़ाव डालकर अपने साधकों | क्योंकि मैंने उसकी झलक पा ली, जो कभी नहीं मरता है। के साथ पड़ा था। तंबू के भीतर बैठा था सुबह ही और पास में ही _ निश्चय का अर्थ है, ऐसी अवस्था, जहां मन का कोई कंपन न नहर थी। लेकिन नहर बंद थी, पानी उसमें था नहीं। अचानक उसने | | हो। चिल्लाकर तंबू के भीतर से कहा, स्टाप, रुक जाओ! तो कृष्ण कहते हैं, निश्चय में मैं हूं, तत्वज्ञान में मैं हूं। तीन साधक नहर को पार कर रहे थे, सूखी नहर को, वे वहीं | तत्वज्ञान का अर्थ फिलासफी नहीं होता। तत्वज्ञान का अर्थ रुक गए। जो साधक ऊपर थे, वे ऊपर रुक गए। और तभी | | विचारशास्त्र, दर्शनशास्त्र नहीं होता। बड़ी भूल हुई है। पश्चिम में अचानक नहर किसी ने खोल दी। पानी आ गया। एक चिंतना की धारा विकसित हुई है, जिसे फिलासफी कहते हैं। पानी को देखकर एक साधक ने सोचा कि गुरजिएफ तो भीतर | | उस अर्थ में भारत में फिलासफी जैसी कोई भी चीज कभी विकसित है तंबू के, उसे क्या पता कि हम कहां फंस गए हैं! अगर मैं रुका, | | नहीं हुई। भारत में जो विकसित हुआ, वह तत्वज्ञान है। तो जान को खतरा है। लेकिन फिर भी वह जब तक गले तक पानी जर्मनी के एक विचारशील आदमी हरमन हेस ने तत्वज्ञान के आया, तब तक रुका रहा। गले के ऊपर पानी जाने लगा, वह | | लिए एक नया शब्द प्रयोग किया है, फिलोसिया। वह ठीक है। छलांग लगाकर बाहर निकल गया। दूसरे साधक ने सोचा कि और | फिलासफी उसका अनुवाद नहीं है। फिलासफी का अर्थ होता है, थोड़ी देर रुकू; शायद गुरजिएफ आज्ञा दे दे। लेकिन जब नाक भी | | चिंतन, मनन, विचार। तत्वज्ञान का अर्थ होता है, दर्शन, पानी में डूबने लगी, तो उसने सोचा कि अब पागलपन है। हम यहां साक्षात्कार, अनुभूति। एक अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में ध्यान सीखने आए हैं, कोई जान गंवाने नहीं। और वह पागल भीतर | | सोचता रहे, तो वह फिलासफी है; और अंधे आदमी की आंख बैठा हुआ है, उसे शायद पता भी नहीं है कि बाहर हम नहर में फंस | | खुल जाए और वह प्रकाश को देख ले, तो वह तत्वज्ञान है। गए हैं। वह भी छलांग लगाकर बाहर निकल गया। लेकिन तीसरे तत्वज्ञान का अर्थ है, अनुभूत। फिलासफी का अर्थ है, साधक ने सोचा कि जब तय ही कर लिया, तो अब कोई बदलाहट | मानसिक। तत्वज्ञान का अर्थ है, वास्तविक। फिलासफी का अर्थ नहीं। उसके सिर पर से पानी बहने लगा। है, सोचा हुआ। तत्वज्ञान का अर्थ है, जाना हुआ। सोचना तो बहुत गुरजिएफ भागा हुआ तंबू के बाहर आया, छलांग लगाकर नहर | आसान है, जानना बहुत कठिन है। क्योंकि सोचने के लिए बदलने में कूदा। उस तीसरे साधक को बेहोश बाहर निकाला गया। बेहोश, की कोई भी जरूरत नहीं; जानने के लिए तो स्वयं को बदलना बाहर से। शरीर में पानी भर गया; शरीर से पानी निकाला गया। अनिवार्य है। लेकिन जैसे ही उसका शरीर होश में आया, उस व्यक्ति ने तो भारत का जोर तत्वज्ञान पर है, चिंतना पर नहीं, विचारणा पर गुरजिएफ के चरणों में सिर रख दिया; और उसने कहा कि अब मुझे नहीं। कोई कितना ही सोचे, सोचकर कहीं कोई पहुंचता नहीं। कोई सीखने को कुछ भी नहीं बचा, मैंने जान लिया। गुरजिएफ ने कहा | | कितना ही सोचे, हाथ में विचार की राख के सिवाय कछ भी लगता कि इन सबं शेष को भी कह दो कि तुमने क्या जाना। नहीं। कोई कितना ही सोचे, खाली शब्द का संग्रह बढ़ जाता है। उसने कहा कि जिस क्षण मैं जान को भी खोने के लिए तैयार हो | | लेकिन प्रतीति, प्रत्यभिज्ञा नहीं होती, उसकी पहचान नहीं होती। गया, उसी क्षण मैंने जाना कि मन भी खो गया। जब तक मेरे मन | | उसे तो जानना पड़े आमने-सामने। उससे तो पहचान करनी पड़े, में जरा-सा भी द्वंद्व था कि निकल जाऊं या रुकुं, तब तक मन था; | | मुलाकात करनी पड़े। सोचने से नहीं होगा। तब तक भीतर कोई चीज चल रही थी; गति थी, विचार थे, | कोई आदमी प्रेम के संबंध में बहत सोचे. तो भी प्रेम का उसे हलन-चलन था। लेकिन जैसे ही मैंने तय किया कि ठीक है, जान पता नहीं चलता, जब तक कि वह प्रेम में डूब ही न जाए। प्रेम में बचे या जाए, लेकिन हटना नहीं है, वैसे ही सारे विचार खो गए। डूबना बिलकुल दूसरी बात है। और ऐसा भी हो सकता है कि जो 21 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-50 प्रेम में डूब जाए, वह प्रेम के संबंध में कुछ भी न सोचा हो। और जानने का संबंध पूरे अस्तित्व से है। जानने का संबंध सोचने से यह भी हो सकता है, और अक्सर होता है, कि जिन्होंने प्रेम के कम, मौन हो जाने से ज्यादा है। जानने का संबंध शब्द से कम, संबंध में बहुत सोचा है, वे प्रेम करने में असमर्थ ही हो जाएं। निःशब्द, शून्य, शांत से ज्यादा है। सोचने से ही उनको परितृप्ति मिल जाए, या सोचने को ही वे ___ जब कोई शांत हो जाता है शब्दों से, तो दर्पण बन जाता है। और परिपूरक, सब्स्टीटयूट समझ लें। | उस दर्पण में जो झलक मिलती है, वह जानना है। और जब कोई बहुत-से लोग ईश्वर के संबंध में सोचते रहते हैं। उस सोचने शब्दों के धुएं से भरा रहता है, तो कोई झलक नहीं मिलती। कोई को ही वे समझते हैं कि अनभव हो रहा है। सोचना अनभव नहीं झलक नहीं मिलती। है। सोचना सहयोगी हो सकता है, सोचना उपयोगी हो सकता है, | | पंडित अपने ही शब्दों में भटकता है, अपने ही शब्दों में उलझता लेकिन सोचना अनुभव नहीं है। और सोच-सोचकर कोई कहीं भी | | रहता है, अपने ही शब्दों को हल करता रहता है। अपने ही सवाल, नहीं पहुंचता है, कभी नहीं पहुंचा है। जानना पड़े। तो तत्वज्ञान से अपने ही जवाब देता रहता है। दर्शनशास्त्र-फिलासफी के अर्थों अर्थ है, जानना। में अपना ही सवाल है, अपना ही जवाब है। कृष्ण कहते हैं, जानना मैं हूं। विचारणा नहीं, थिंकिंग नहीं, | तत्वज्ञान सवाल अपना है, जवाब उसका है। सवाल पूछकर नोइंग। साधक चुप हो जाता है, शून्य हो जाता है। जैसे झील शांत हो जाए विचार का अर्थ है कि जिसका मुझे पता नहीं है, उसके संबंध | और सारी लहरें बंद हो जाएं और आकाश का चांद झील में झलकने में, जो मुझे पता है, उसके आधार पर कुछ धारणा बनानी है। | लगे। और झील में लहरें हों, तो भी आकाश का चांद तो.झलकता जिसका मुझे पता नहीं है, उस संबंध में, जिन चीजों का मुझे पता है, लेकिन लहरें उसे हजार खंडों में तोड़ देती हैं। है. उनके आधार पर कोई धारणा निर्मित करनी है. बौद्धिक कोई देखें. पर्णिमा के दिन कभी झील पर जाकर देखें। चांद तो एक खयाल निर्मित करना है। कोई इमेज, कोई प्रतिमा निर्मित करनी है। है ऊपर, लेकिन झील में हजार टुकड़ों में बिखरा होता है। हजार लेकिन विचारों की। और विचार क्या हैं? शब्दों के संग्रह हैं। शब्दों खंडों में बंटा हुआ झील की लहरों पर बहता होता है। चांद नहीं टूट से-न तो शब्द की आग से कोई जल सकता है, और न शब्द के गया है, लेकिन झील का दर्पण टूटा हुआ है, इसलिए हजार चांद : फूल से कोई सुगंध मिलती है। शब्द के परमात्मा से भी कोई दिखाई पड़ते हैं। झील शांत हो जाए, ऐसी शांत कि दर्पण बन जाए, अनुभव नहीं मिलता। - तो चांद जो ऊपर है, वही एक चांद नीचे दिखाई पड़ने लगता है। शब्द परमात्मा परमात्मा नहीं है। तो कोई कितना ही शब्द को फिर झील जब बिलकुल शांत होती है, तो पता ही नहीं चलता कि रटता रहे और परमात्मा-परमात्मा दोहराता रहे, शब्द को ही झील है भी। सिर्फ दर्पण ही रह जाता है। दोहराता रहे, तो कहीं पहुंचेगा नहीं। यह भी हो सकता है कि ठीक ऐसे ही मन पर जब विचार होते हैं, तो तरंगें होती हैं। उन्हीं दोहराते-दोहराते इस भ्रम में पड़ जाए कि मैं जानता हूं। बहुत लोग तरंगों से जो व्यक्ति सोच-सोचकर तय करता है कि चांद कैसा है, पड़ जाते हैं। पंडित की यही भूल है। | उसका चांद खंडों में बंटा हुआ होगा। __ और इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पंडित अज्ञानियों से भी | कृष्ण कहते हैं, तत्वज्ञान मैं हूं। ज्यादा भटक जाते हैं। पंडित की यही भूल है। शब्द का धनी होता जब कोई पूर्ण शांत हो जाता है, तब उसे तत्व का पता चलता है। है। शास्त्र का ज्ञाता होता है। सिद्धांत उसे स्मरण होते हैं। उसके वह जो है, दैट व्हिच इज़, उसका पता चलता है। जो है, उसका नाम पास धनी स्मृति होती है। उसी स्मृति को दोहराते-दोहराते वह इस तत्व है। उसका कोई और नाम नहीं है। जो भी है, शांत हो गए व्यक्ति भ्रांति में पड़ जाता है कि जो मैं दूसरों को कहता हूं, वह मैं भी जानता के भीतर झलकता है। और तब जो अनुभूति होती है, जो ज्ञान होता हूं। अपने ही शब्द सुनते-सुनते आत्म-सम्मोहित हो जाता है। है, वह मैं हूं। और उस क्षण में अखंड का अनुभव होता है। जब तक अपने ही शब्दों को दोहराते-दोहराते एक गहरी तंद्रा में खो जाता है | मन है खंडित, तब तक हम जो भी जानेंगे, वह खंडित होगा। जब और लगता है कि मैं जानता हूं। मन होगा अखंडित, तब जो हम जानेंगे, वह अखंड होगा। जानना बड़ी दूसरी बात है। जानने का संबंध बुद्धि से कम, ___ तीसरा शब्द कृष्ण ने कहा है, अमूढ़ता मैं हूं, असम्मोह। 22 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपांतरण का आधार-निष्कंप चित्त और जागरूकता 28 यह शब्द साधकों के लिए बहुत उपयोगी है। मूढ़ता का अर्थ है, | उलझे होने की वजह से भीतर के सपने दिखाई नहीं पड़ते। इसलिए ऐसा व्यक्ति, जो जागा हुआ मालूम पड़ता है, लेकिन जागा हुआ | आरामकुर्सी पर जरा लेट जाएं, बाहर की दुनिया से आंख बंद कर नहीं है। सोया-सोया व्यक्ति, जैसे नींद में चल रहा हो। लें, और दिवास्वप्न, डे-ड्रीमिंग शुरू हो जाती है। वह चल ही रही कभी रास्ते के किनारे खड़े हो जाएं, और रास्ते से गुजरते हुए | | थी, आपने आंख बंद की, तो दिखाई पड़ने लगती है। आप आंख लोगों को देखें। गौर से देखें, आंख गड़ाकर देखें कि लोग कैसे खोलकर बाहर लग जाते हैं, तो भूल जाते हैं। लेकिन भीतर चौबीस चल रहे हैं। तो थोड़ी ही देर में आपको लगेगा कि लोग सोए-सोए | | घंटे, भीतर के छबिगृह में सपने चल रहे हैं। वे सपने इस बात की चल रहे हैं। कोई आदमी चलते-चलते बात करता जा रहा है। कोई खबर हैं कि हम सोए हुए हैं। उसके साथ नहीं है, अकेला है। अपने हाथ से इशारा कर रहा है। बुद्ध के पास कोई आता था, तो बुद्ध उससे पूछते थे कि तेरे उसके होंठ चल रहे हैं। वह किसी से बात कर रहा है। उसके चेहरे | सपने अभी बंद हो गए या नहीं? अगर सपने बंद हो गए हैं, तो के भाव बदल रहे हैं। करने को बहत कम काम बाकी है। और अगर सपने बंद नहीं हुए, यह आदमी होश में है या नींद में है? यह कोई सपना देख रहा तो बहुत बड़ा काम बाकी है। क्योंकि सपनों से लड़ना, इस जगत है। यह इस सड़क पर बिलकुल नहीं है। यह किसी और सड़क पर | में सबसे बड़ी लड़ाई है। सपने दिखाई तो पड़ते हैं कि सपने हैं, होगा, यह किसी और के साथ होगा। यह किससे बातें कर रहा है? | लेकिन जब कोई उन्हें तोड़ने जाता है, तब पता चलता है कि कितना यह किसकी तरफ हाथ के इशारे कर रहा है? यह किसी के साथ | | कठिन है। इतनी कमजोर चीज, सपना भी हम तोड़ नहीं पाते! है, सपने में। | उसका कारण है कि हम उससे भी कमजोर हैं। __ हम सब सपने में चल रहे हैं। हम सबके भीतर सपने चल रहे मूढ़ता का अर्थ है, एक तरह की निद्रा। मूढ़ता का अर्थ मूर्खता हैं। हम कछ भी कर रहे हों. हमारे भीतर एक सपनों का जाल चल नहीं है। इसलिए पंडित भी मढ हो सकता है। तथाकथित ज्ञानी भी रहा है। और ध्यान रहे. सपना तभी चल सकता है, जब भीतर निद्रा मढ हो सकता है। अज्ञानी भी मढ हो सकता है। मढ होना अलग हो। बिना नींद के सपना नहीं चल सकता। और सपने हम सबके | ही बात है। भीतर चौबीस घंटे चलते हैं। जरा आंख बंद करो, सपना दिखाई | ___ मूढ़ का अर्थ है, निद्रित चलना, सोए-सोए जीना। भीतर सपने पड़ना शुरू हो जाएगा। आंख जब आप बंद नहीं करते, तब आप | चलते रहते हैं और हम बाहर चलते रहते हैं। हम जागे हुए नहीं हैं। यह मत सोचना कि भीतर सपना नहीं चलता है। भीतर तो सपना | हम ठीक से जागे हुए नहीं हैं। इसकी आप कोशिश करें, तो आपको चलता है, लेकिन बाहर की जरूरत के कारण आपको उस सपने | पता चलेगा कि कितनी गहरी नींद है। अपनी हाथ की घड़ी पर आंख का पता नहीं चलता। आंख बंद करो, सपने का पता चलना शुरू | गड़ाकर बैठ जाएं और तय कर लें कि पूरा एक मिनट, जो सेकेंड हो जाएगा। | का कांटा है, उसको आप देखते रहेंगे स्मृतिपूर्वक, और बीच में दिन में आप देखते हैं आकाश की तरफ, तारे दिखाई नहीं पड़ते। कोई दूसरा विचार और सपना नहीं आने देंगे—एक मिनट सिर्फ। लेकिन आप यह मत सोचना कि तारे खो जाते हैं। तारे तो अपनी आप पाएंगे कि दस दफा बीच में सपने आ गए, दस दफे झोंक जगह होते हैं। दिन में दिखाई नहीं पडते. क्योंकि सरज की रोशनी आ गई, दस दफे निद्रा लग गई, दस दफे आप चक गए। कांटे को इतनी तेजी से बीच में आ जाती है कि आपकी आंखें तारों को नहीं | भूल गए; मन कहीं और चला गया। कोई और खयाल बीच में आ देख पातीं। लेकिन दिन की भरी रोशनी में ही आप किसी गहरे कुएं | गया और आपको ले गया। एक मिनट में दस बार आपके मन में में चले जाएं, तो गहरे कुएं में से देखें, तो आपको तारे दिखाई सपना आपको झकझोर डालेगा। तब आपको पता चलेगा कि मैं पड़ेंगे। क्योंकि तब बीच का अंधेरा तारों को उघाड़ने में सहयोगी कैसा सोया हुआ आदमी हूं! होता है। रास्तों पर कोई रात तीन बजे और चार बजे के बीच अधिक ठीक ऐसे ही हमारे भीतर रात सपने चलते हैं. ऐसा मत एक्सिडेंट होते हैं। तो डाइवर्स के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक सोचना; दिनभर सपने चलते हैं, चौबीस घंटे सपने चलते हैं। दिन वक्त रात के तीन और चार के बीच में है। मनोवैज्ञानिक बहुत दिन की जरूरत में, दिन की रोशनी में, उलझन में, दूसरे काम में, बाहर से इस खोज में थे कि बात क्या होगी? यह तीन और चार के बीच Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 में जो इतनी दुर्घटनाएं होती हैं, अधिकतम दुर्घटनाएं, इसका कारण | रातभर वैसे ही रखे रहते हैं! करवट भी आप बदलते नहीं। इंचभर क्या होगा? भी पैर आपका हिलता नहीं, हटता नहीं। बात क्या है? क्या रातभर अब वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि तीन और चार के बीच में सपने भी सम्हलकर सोते हैं? इतने प्रगाढ़ हो जाते हैं। सोया आदमी हो, तब तो पता नहीं चलता। तो बुद्ध ने कहा, सम्हलने की कोई जरूरत नहीं। शरीर ही सोया जागा हुआ आदमी हो, तो आंख खुली भी रहे, तो भी ड्राइवर सपनों होता है, मैं सोता ही नहीं। मैं जागा ही रहता हूं। तो अगर करवट में खो जाता है। सपने में कुछ भी हो सकता है फिर। और इसलिए मुझे बदलनी हो, तो वह मेरे निर्णय से होगा। शरीर करवट नहीं बहुत-से ड्राइवर कहते हैं कि मैं बिलकुल जागा हुआ था। आंख मेरी बदल सकता। मैं बेहोश नहीं हूं, मैं पूरे होश में हूं। . खुली थी। और मेरी समझ के बाहर है कि यह दुर्घटना कैसे हो गई! - और जब कोई व्यक्ति नींद में भी जाग जाए, तो योग को उपलब्ध एक क्षण को भी अगर सपने ने खींच लिया हो, तो दुर्घटना होने हुआ। कृष्ण ने कहा है कि जो नींद में भी जागा हुआ है, वही योगी और आंख खली हो, तो भ्रम पैदा हो सकता है है। इससे उलटा सत्र भी हम बना सकते हैं कि जो जागकर भी सोया कि आंख खुली थी, इसलिए मैं जागा हुआ था। | हुआ है, वही भोगी है। इस भूल में कोई भी न रहे। आंख का खुला होना और जागे होने इस जागरण का क्या अर्थ हुआ? कभी आपने जागरण का कोई का कोई भी संबंध नहीं है। बुद्ध की आंख भी बंद हो, कृष्ण की | | क्षण अनुभव किया है? आंख भी बंद हो, तो भी वे जागे हुए होते हैं। हमारी आंख भी खुली | थोडा मश्किल है। कभी-कभी अचानक भी हो जाता है। अगर हो, तो हम सोए हए होते हैं। सोना और जागना आंतरिक घटनाएं अचानक दो आदमी एकांत रास्ते पर आपको पकड़ लें और एक हैं, आंख से इसका कोई संबंध नहीं है। आदमी छुरा आपकी छाती पर रख दे, तो उस क्षण में आपके भीतर तो सोने का अर्थ हुआ कि हमारे भीतर विचारों की, सपनों की, | | कोई विचार होंगे? अचानक! उस क्षण आपके भीतर कोई विचार चित्रों की एक भीड़ है, वह चल रही है। उस भीड़ के कारण हमें नहीं होंगे। उस क्षण आपके भीतर सब सपने छूट जाएंगे। उस क्षण कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, कुछ भी सूझता नहीं। हम अंधे की तरह | एक क्षण को आप पूरे जागे होंगे, जैसे कोई बुद्ध कभी जागा हो। जी रहे हैं; टटोल-टटोलकर जी रहे हैं। किसी तरह रास्ते से गुजर लेकिन यह बाहर की परिस्थिति पर होगा। छुरा हट जाए, या ' जाते हैं, घर आ जाते हैं, काम कर लेते हैं, तो सोचते हैं कि हम चेहरा पहचान में आ जाए कि मित्र ही है, मजाक कर रहा है, सपने जागे हुए हैं। लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में यह जागरण नहीं है, इसे वापस दौड़ पड़ेंगे। या छुरा न भी हटे, तो एक क्षण को आकस्मिक मूढ़ता...। था, इसलिए आपके भीतर की बंधी हुई धारा को तोड़ने में सफल कृष्ण कहते हैं, अमूढ़ता मैं हूं। हुआ। अगर न हटे, तो आप तत्काल सोचने में लग जाएंगे कि अब अमूढ़ता का अर्थ है, जागरण, बुद्धत्व। मैं क्या करूं, कैसे बचूं, कैसे भागू, क्या जवाब दूं! बुद्ध का नाम था सिद्धार्थ गौतम, लेकिन जब वे जाग गए, तब | खतरे के क्षण में हमें कभी-कभी नैसर्गिक रूप से जागरूकता उन्हें नाम मिला गौतम बुद्ध। गौतम दि अवेकंड, दि एनलाइटेंड; | | उपलब्ध होती है; खतरे के क्षण में। और हमने अब जिंदगी ऐसी जागा हुआ गौतम। बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो जो घटना घटी, वह बना ली है कि उसमें खतरे का कोई ज्यादा क्षण नहीं है। सब तरफ क्या थी? वह घटना थी, उनकी नींद टूट गई। उनके भीतर कोई | से हमने व्यवस्था कर ली है कि कोई खतरा न हो। इसलिए जागरण बेहोशी न रही। वे भीतर परम जाग्रत हो गए। फिर वे सोते भी तो | का क्षण और भी कम होता जाता है। भी भीतर की नींद जैसी कोई घटना नहीं घटती थी; शरीर ही सोता, ___ एक झेन फकीर था, बोकोजू। वह अपने साधकों को वृक्षों पर भीतर जागरण बना रहता। चढ़ना सिखाता था-ध्यान के लिए। ऊंचे वृक्षों पर चढ़ना। आनंद, उनका शिष्य, वर्षों तक उनके साथ रहा। एक दिन राजकुमार देश का, उसके पास ध्यान सीखने आया था। तो बोकोजू आनंद ने बुद्ध को पूछा कि मैं बहुत चकित हूं। आप जिस भांति ने उससे कहा कि तू वृक्ष पर चढ़। वृक्ष देखकर वह मु सोते हैं सांझ, जहां रखते हैं दायां पैर, जहां रखते हैं बायां पैर, जिस पड़ा। उसने कहा कि चढ़ना मैं बिलकल नहीं जानता। गिर पड़ा तरह रखते हैं हाथ, जिस तरह एक हाथ रखते हैं सिर के नीचे, आप | हाथ-पैर चकनाचूर हो जाएंगे। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 रूपांतरण का आधार-निष्कंप चित्त और जागरूकता सझाव दे बोकोजू ने कहा कि मैंने जानने वालों को तो कभी-कभी गिरते | कहा कि सावधान! तभी उसे याद आया, तभी उसके भीतर ताजगी देखा है, न जानने वालों को मैंने कभी गिरते नहीं देखा। तू चढ़। | | खो गई थी, भीतर के द्वार बंद हो गए थे। दीया बुझ गया था। सूरज क्योंकि न जानने वाला इतना खतरे से भरा रहता है कि भीतर होश | | डूब गया था। अंधेरा पकड़ रहा था। और उसे सपने आने शुरू हो रहता है, एक-एक कदम सम्हालकर रखता है। जो सोचता है कि गए थे। नींद घिर गई थी। मैं चढ़ना जानता हूं वृक्ष पर, वह कभी-कभी गिर भी जाता है, ___कभी खतरे के क्षण में हमें थोड़ा-बहुत होश आता हो, तो आता क्योंकि उसे होश रखने की कोई जरूरत नहीं होती। हो। लेकिन हम इतने कुशल हैं नींद में कि हम खतरे के क्षण को वह राजकुमार चढ़ा। कोई सौ फीट ऊंचा वृक्ष! वह चढ़ता | भी धोखा देकर, बचकर निकल जाते हैं। आखिरी कगार पर पहुंच गया, तब तक उसका गुरु नीचे आंख बंद __एक मित्र के घर मैं गया था, उनके घर में कोई मर गए थे। अब करके बैठा रहा। उसने कई बार नीचे झांककर भी देखा कि गुरु कुछ | घर में कोई मर जाए, तो बड़ा खतरा है। जो मर गया उसको नहीं, , कोई मार्ग-दर्शन देगा, लेकिन वह आंख बंद करके वह तो खतरे के बाहर हआ; जो जिंदा हैं उनको। अगर उनमें थोड़ी बैठा है। फिर जब वह ऊपर पहंच गया. तो उसे आज्ञा थी कि ऊपर भी समझ हो. तो मौत उनके लिए जिंदगी का रूपांतरण हो सकती से पहुंचकर वापस लौटना शुरू कर देना, आखिरी सीमा तक है। क्योंकि एक की मौत सबकी मौत की खबर है। और जब भी मैं पहुंचकर लौट आना। किसी को मरते देखता हूं, तो उसका मतलब है कि फिर मुझे खबर - जब राजकुमार दस फीट के करीब था जमीन से वापस लौटते आई कि मैं मरूंगा। वक्त, तब गुरु अचानक चौंककर उठा और उसने चिल्लाकर कहा __ लेकिन घर में मैं गया, तो वे सारे लोग रो-पीट रहे थे। जो चल कि जरा सावधानी से उतरना! उस राजकुमार ने कहा, आप भी बसे थे, उनकी पत्नी ने मुझसे पूछा कि आपका आत्मा की अमरता पाराल मालूम पड़ते हैं। क्योंकि जब तुम्हारी सहायता की और | में तो विश्वास है न? मेरे पति की आत्मा तो बचेगी? चेतावनी की जरूरत थी, तब तुम आंख बंद किए बैठे रहे। और | मैंने उस पत्नी को कहा कि तू और नए सपनों में खोने का उपाय जब मैं जमीन के अब करीब आ गया हूं, जब कि अब कोई खतरा | कर रही है। यह शरीर मर गया है, इस मौके को मत चूक। तेरा शरीर ही नहीं है, तब तुम चेतावनी दे रहे हो! भी मरेगा। यह तीर तेरे भीतर इस क्षण अगर गहरे में प्रवेश कर जाए, __ जब वह राजकुमार नीचे उतर आया, तब उसके गुरु ने कहा कि | तो तेरी नींद टूट जाए। लेकिन तू होशियार है। तू अपने बाबत सोच निश्चित ही, मैंने तभी तुझे चेतावनी दी, जब तू निश्चित हो गया। ही नहीं रही है! तू सोच रही है कि मेरे पति की आत्मा तो अमर है न! जब तुझे लगा कि जमीन करीब आ गई और तेरे भीतर के सपने | थोड़ी ही देर में यह खतरा समाप्त हो जाएगा, यह लाश घर से उठ शुरू हो गए, तभी तू चूक सकता था और गिर सकता था। नींद | | जाएगी। दो-चार दिन में यह घाव पुरना शुरू हो जाएगा। साल, छ: शुरू हो गई। ऊपर के शिखर पर जब था, तब तो नींद के आने का | महीने में यह बात पुरानी पड़ जाएगी। इस क्षण में, इस खतरे के क्षण कोई उपाय न था। तू खुद ही जागा हुआ था; हमारी कोई जरूरत ही | | में, जब कोई निकटतम मर गया है, तब इस मौत के तीर को अपनी न थी। वह तो जब मुझे लगा कि अब जमीन है करीब, और अब तरफ मोड़, तो शायद तुझे ध्यान उपलब्ध हो जाए। तू सो सकता है...। मैं तुझसे पूछता हूं कि जब मैंने चेतावनी की __लेकिन उसने मुझसे कहा, आप भी कैसी बातें कर रहे हैं! मेरे आवाज दी, तब तेरे भीतर कोई फर्क पड़ा था? पति मर गए हैं और आप ध्यान की बात कर रहे हैं! आपको ध्यान तब उस राजकुमार को स्मरण आया-हम इतने सोए हुए हैं कि के सिवाय कुछ और सूझता ही नहीं? मेरे पति मर गए हैं! वह हमारे भीतर भी क्या होता है, उसका भी हमें स्मरण कहां है-तब | अपनी छाती पीटने लगी। उसे स्मरण आया कि यह बात ठीक है। जब तक वह शिखर के | यह छाती पीटना मौत के तथ्य को भुलाने का उपाय है। वह रोने ऊपर था, तब तक उसके भीतर ऐसी ताजगी और जागरूकता थी, लगी। उसकी आंख आंसू से भर गई। वह अपने पुराने सपने देखने जैसे सुबह का सूरज निकला हो और सब तरफ ताजगी हो। जैसे लगी, जब उसकी शादी हुई होगी और जब बैंड-बाजे बजे होंगे, फूल खिले हों ताजे, और सब तरफ ताजगी हो। जैसे दीया जल रहा और जब वह इस घर की तरफ आई होगी बहुत सपनों को लेकर, हो और सब तरफ रोशनी हो। और जैसे ही वह गुरु ने चिल्लाकर | | और वह सब याददाश्त। और यह जो तथ्य का क्षण, एक सत्य का 25 . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 क्षण, एक तीर की तरह चुभ जाए चेतना में कोई घड़ी सामने खड़ी | बुद्ध एक गांव से गुजरते हैं, कुछ लोग गालियां देते हैं। और है, वह इसे खो देगी। हम ऐसा अपने को धोखा देते हैं। बुद्ध उनसे कहते हैं कि अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो, तो मैं अमूढ़ता मैं हूं, कृष्ण कहते हैं। उसका अर्थ है, जागरूकता मैं जाऊ! उनमें से एक आदमी पूछता है, आप पागल तो नहीं हैं! हूं। जब भी कोई जागता है भीतर, तभी मैं उपलब्ध हो जाता हूं। जब क्योंकि हमने बातें नहीं की हैं, गालियां दी हैं। बुद्ध कहते हैं, अगर भी कोई जागता है भीतर, तब वह जागा हुआ व्यक्ति मेरा ही भाग पूरी न हुई हो बातचीत, तो जब मैं लौटूंगा, तब थोड़ा ज्यादा समय हो जाता है। लेकर यहां रुक जाऊंगा। लेकिन अभी मुझे दूसरे गांव जल्दी ये तीन शब्द खयाल में ले लें, निश्चय करने की शक्ति, | पहुंचना है। तत्वज्ञान, अमूढ़ता मैं हूं। निश्चित ही, वे दो तरह की भाषाएं बोल रहे हैं। उस गांव के क्षमा, सत्य, इंद्रियों को वश में करना-दम, और मन का | | लोग गालियां समझ सकते हैं; गालियों के उत्तर में गालियां दी निग्रह-शम, तथा सुख-दुख, उत्पत्ति-प्रलय एवं भय और अभय | | जाएं, यह भी समझ सकते हैं। गालियां क्षमा कर दी जाएं; बुद्ध कह भी मैं हूं। दें कि जाओ मैंने माफ किया तुम्हें, यह भी समझ सकते हैं। लेकिन इन सूत्रों को भी थोड़ा-सा समझ लें। बुद्ध कहते हैं, तुम्हारी बात अगर पूरी हो गई हो, तो मैं जाऊं! न क्षमा। थोड़ा कठिन है। कठिन इसलिए कि हम क्षमा से जो अर्थ क्रोध है, न क्षमा है। गालियां जैसे दी ही नहीं गईं। और अगर दी लेते हैं, वह कृष्ण का अर्थ नहीं है। हो भी नहीं सकता। असल में भी गई हैं, तो कम से कम ली तो गई ही नहीं हैं। हमारी और कृष्ण की भाषा एक नहीं हो सकती। और जब भी हम एक आदमी पूछता है, लेकिन हम ऐसे न जाने देंगे। हम जानना कष्ण को अपनी भाषा में अनवादित करते हैं संस्कत से हिंदी में चाहते हैं कि पागल आप हैं कि पागल हम हैं? हम गालियां दे रहे नहीं-कृष्ण की भाषा को अपनी भाषा में जब हम अनुवादित करते | हैं, इनका उत्तर चाहिए! बुद्ध ने कहा, अगर तुम्हें इनका उत्तर चाहिए हैं, तब बुनियादी भूलें हो जाती हैं। जैसे क्षमा; अगर हम पूछे अपने था, तो तुम्हें दस वर्ष पहले आना था। तब मैं तुम्हें उत्तर दे सकता से कि क्षमा का क्या अर्थ है? तो साफ है अर्थ कि अगर किसी पर | था। लेकिन जो उत्तर दे सकता था, वह तो समय हुआ, मर गया। क्रोध आ जाए तो उसे क्षमा कर देना। तुम गालियां देते हो, यह तुम्हारा काम है, लेकिन मैंने तो बहुत • लेकिन कृष्ण की भाषा में क्षमा का यह अर्थ नहीं होता। कृष्ण समय हुआ जब से गालियां लेना ही बंद कर दीं। देने की जिम्मेवारी की भाषा में क्षमा का अर्थ होता है, क्रोध का न आना। हमारी भाषा तुम्हारी है, लेकिन अगर मैं न लूं, तो तुम क्या करोगे? कम से कम में अर्थ होता है, क्रोध का आना और क्षमा करना। कृष्ण की भाषा इतनी स्वतंत्रता तो मेरी है कि मैं न लूं। और अब मैं व्यर्थ चीजें नहीं में अर्थ होता है, क्रोध का न आना, क्रोध का अभाव। हमारा अर्थ लेता। तो मैं जाऊं, अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो! है, क्रोध को लीपना-पोतना। पर लोगों को बड़ी मुश्किल है। बुद्ध गालियां दे दें, तो भी लोग मुझे आप पर क्रोध आ गया। पीछे पछतावा आता है; फिर मैं | घर शांति से लौट जाएं। बुद्ध क्षमा कर दें और कहें कि नासमझ हो क्षमा मांग लेता है। तो क्रोध से जो भल हई थी. उसे मैं पोंछ देता तम. तम्हें कछ पता नहीं. तो भी लोग घर शांति से लौट जाएं। हूं। एक लकीर गलत पड़ गई थी, उसे काट देता हूं। लेकिन क्रोध | | लेकिन अब इन लोगों की नींद हराम हो जाएगी, क्योंकि यह बुद्ध हो गया। और यह जो क्षमा है, यह केवल क्रोध को पोंछने का उपाय | इनको अधर में लटका हुआ छोड़ गए। इन्होंने गाली दी थी; नदी करती है; नकारात्मक है, निगेटिव है। इस क्षमा का बहुत उपयोग | के एक तरफ से सेतु बनाया था; दूसरा किनारा ही न मिला! इन्होंने नहीं है। यह तो हम करते रहते हैं। चलता रहता है। अगर इसी क्षमा | तीर छोड़ा था, निशाना ठीक जगह लगे; हर्ज नहीं, गलत जगह में अनुभव होता हो परमात्मा का, तो हम सबको हो गया होता। | लगे; लगे तो। निशाना लगा ही नहीं। और तीर चलता ही चला कृष्ण का क्षमा से अर्थ है, जहां क्रोध पैदा नहीं होता। जहां क्रोध | जाए और निशाना लगे ही नहीं, तो जैसी मजबूरी में, जैसी तकलीफ जन्मता नहीं, जहां क्रोध की घड़ी मौजूद होती है और भीतर क्रोध | में तीर पड़ जाए, वैसी तकलीफ में ये पड़ जाएंगे। का कोई रिएक्शन, कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं होती, कोई प्रतिकर्म | | तो बुद्ध उन्हें तकलीफ में देखकर कहते हैं कि तुम बड़ी तकलीफ पैदा नहीं होता। | में पड़ गए मालूम पड़ते हो। तुम्हारी सूझ-बूझ खो गई, तो मैं तुम्हें Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 रूपांतरण का आधार-निष्कंप चित्त और जागरूकता एक सुझाव देता हूं। पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयों का थाल का कोई मौका न दे, तो जैसी बेचैनी होती है, वैसी बेचैनी क्रोध लेकर मुझे देने आए थे, लेकिन मेरा पेट था भरा और मैंने उनसे | करने से भी नहीं होती। मनसविद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आदमी कहा कि तुम इन्हें वापस ले जाओ। तो वे अपनी मिठाइयों का थाल को क्रोध करने का मौका न मिले, तो वह मौका खोज लेता है। वह वापस ले गए। मैं तुमसे पूछता हूं, उन्होंने क्या किया होगा? तो एक ऐसी बात में से मौका निकाल लेता है, जहां कि आप कल्पना भी आदमी ने भीड़ में से कहा, क्या किया होगा! गांव में जाकर मिठाई नहीं कर सकते थे कि यहां क्रोध की कोई जरूरत है। वह चारों तरफ बांट दी होगी। तो बुद्ध ने कहा, अब तुम क्या करोगे? तुम गालियों तलाश में रहता है। वह चारों तरफ अपने आस-पास अज्ञात का थाल भरकर लाए, और मैं लेता नहीं हूं। तुम जाकर गांव में इन्हें | फीलर्स छोड़ देता है; खोजते रहते हैं कि कहीं जरा मौका मिल जाए बांट लेना, ताकि तुम रात शांति से सो सको! और वह क्रोध से भर जाए। क्षमा का अर्थ है, वैसी चित्त की दशा, जहां क्रोध व्यर्थ हो जाता अगर इस आदमी को बंद कर दें तीन महीने एकांत में, तो यह है। क्षमा का अर्थ है, चित्त की वैसी भाव-दशा, जहां क्रोध जन्मता | दीवालों से लड़ेगा। यह दीवालों से सिर फोड़ेगा। यह खाली आकाश ही नहीं। में गालियां देगा। यह अपने को भी चोट पहुंचा सकता है; अपने को यह बहुत मजे की बात है कि क्रोध हमें इसलिए जन्मता है- | भी मार सकता है। क्रोध अपने पर भी प्रकट कर सकता है। । इसलिए नहीं कि लोग क्रोध जन्मा देते हैं-क्रोध हमें इसलिए __ क्रोध आपकी एक अवस्था है। ध्यान रखें, अगर क्रोध सिर्फ एक जन्मता है कि क्रोध हमारे भीतर सदा है। जब कोई आपको गाली | प्रतिक्रिया है किसी के द्वारा पैदा की गई, तब तो क्षमा असंभव है। देता है, तो आप इस भ्रांति में मत पड़ना कि उसने आपमें क्रोध पैदा | क्रोध आपकी एक अवस्था है; और अगर आप अपने को बदल करवा दिया। क्रोध तो आपके भीतर मौजूद था। उसकी गाली तो | | लें, तो क्षमा भी आपकी अवस्था हो सकती है। और तब कोई केवल उसे बाहर लाने का काम करती है। आपके भीतर बाल्टी डाले, तो क्षमा भरकर बाहर निकले। . जैसे कोई एक बाल्टी को रस्सी में बांधकर कुएं में डाल दे और ___ जीसस को सूली पर लटकाया है। और जीसस से कहा गया है खींचे औ र पानी भरकर बाहर आ जाए, तो क्या आप यह कहेंगे कि कि अगर तुम्हें कोई अंतिम प्रार्थना करनी हो, तो मृत्यु के पहले कर इस आदमी ने कएं में पानी भर दिया? यह सिर्फ बाल्टी डालता है. लो। तो वे प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मा। इन सबको क्षमा कर कएं में जो पानी भरा ही था, वह बाहर निकल आता है। अगर यह देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। आदमी खाली कुएं में, सूखे कुएं में बाल्टी डाले, तो बाल्टी ___ गाली नहीं, सूली डाली गई है भीतर! और यह आदमी कहता है, भड़भड़ाएगी, परेशान होगी; खाली वापस लौट आएगी। इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं, ये क्या कर रहे हैं! भीतर बुद्ध में जब कोई गाली डालता है, तो खाली, सूखे कुएं में बाल्टी | | क्षमा हो, तो क्षमा निकलेगी। भीतर क्रोध हो, तो क्रोध निकलेगा। डाल रहा है। बाल्टी वापस लौट आएगी। मेहनत व्यर्थ जाएगी। इस बात को एक मौलिक सूत्र की तरह अपने हृदय में लिखकर हमारे भीतर जब कोई बाल्टी डालता है, गाली डालता है, तो भरी रख छोड़ें कि जो आपके भीतर है, वही निकलेगा। इसलिए जब भी हुई लौटती है, लबालब लौटती है; ऊपर से बहती हुई लौटती है। कुछ आपके बाहर निकले, तो दूसरे को दोषी मत ठहराना। वह और हम सोचते हैं, इस आदमी ने गाली दी, इसलिए मुझमें क्रोध | | आपकी ही संपदा है, जिसको आप अपने भीतर छिपाए थे। पैदा हुआ! नहीं। क्रोध आपके भीतर था, इस आदमी ने कृपा की, इसलिए कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी गाली दी और आपको आपके क्रोध के दर्शन करवाए। इसने आपके छबाय। अपनी निंदा करने वाले को आंगन और कुटी छवाकर क्रोध को आपके समक्ष प्रकट किया। अपने पास ही रख लेना चाहिए, ताकि भीतर जो भी कचरा है, वह क्रोध किसी की गाली से पैदा नहीं होता, नहीं तो बुद्ध में भी पैदा उसका दर्शन करवाता रहे। वह बार-बार ऐसी बातें कहता रहे कि होगा। क्रोध तो है ही, मौके उसे प्रकट करने में सहयोगी हो जाते भीतर जो भी है, वह दिखाई पड़ता रहे। ताकि किसी दिन उससे हैं। और अगर मौके न मिलें और क्रोध भीतर हो, तो हम मौके खोज छुटकारा भी हो जाए। लेते हैं। लेकिन हम प्रशंसकों को पास रखना पसंद करते हैं। क्योंकि जो आप सबको पता होगा, अगर दो-चार-आठ दिन क्रोध करने हमारे भीतर नहीं है, वह वे बताते रहते हैं। जो हमारे भीतर नहीं है Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 58 वह! और जो हमारे भीतर है, उसे छिपाते रहते हैं। हम मित्र उनको सोचते हैं, इंद्रियों को वश में करना, तो कोई संघर्ष, कोई युद्ध, कोई कहते हैं नासमझी हमारी हह की है हम मित्र उनको कहते हैं. लडाई कोई भीतरी कलह का खयाल आता है। जब भी हम सोचते जो हमारे भीतर नहीं है, उसका हमें दर्शन कराते रहते हैं। और हम | | हैं, मन का निग्रह करना, तो कोई जबरदस्ती, कोई दमन, कोई शत्रु उनको कहते हैं—नासमझी हमारी हद्द की है कि जो हमारे | रिप्रेशन करने का खयाल मन में आता है। भीतर है, उसका दर्शन कराएं, तो हम उन्हें शत्रु मान लेते हैं! वे बड़े गलत खयाल हैं। और जो व्यक्ति भी अपनी इंद्रियों को __ अगर कोई गाली दे और भीतर क्रोध आए, तो उसे धन्यवाद देना | | दुश्मन की तरह वश में करने जाएगा, वह मुसीबत में पड़ेगा। वह कि उसने एक अवसर दिया, एक मौका जुटाया, एक परिस्थिति | | मालिक तो कभी न हो पाएगा, विक्षिप्त हो सकता है। और जो समें आपका क्रोध आपको दिखाई पड़ा। और अगर कोई व्यक्ति जबरदस्ती अपने मन को ठोंक-पीटकर वश में करने की व्यक्ति गाली देने वाले को भी धन्यवाद दे पाए, तो एक दिन उसके | | चेष्टा में लगेगा, उसका मन विद्रोही हो जाएगा, मन बगावती हो भीतर क्षमा की शक्ति पैदा होगी। वह क्षमा पाजिटिव है। वह क्षमा जाएगा; और मन उसे ऐसी जगह ले जाने लगेगा, जहां-जहां वह किसी किए गए क्रोध का पछतावा नहीं है; किसी क्रोध के लिए | चाहता है कि मन न जाए। जहां-जहां चाहेगा कि न जाए मन, मांगी गई माफी नहीं है। वहां-वहां जाने लगेगा। जहां-जहां रोकेगा मन, मन वहां-वहां और ___ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप क्रोध करना, तो माफी मत | भी बहने लगेगा। इंद्रियों पर जितनी जबरदस्ती करेगा. उतना ही मांगना। यह मैं नहीं कह रहा हूं। लेकिन उस माफी को कृष्ण की | | पाएगा कि ऐंद्रिक और सेंसुअल होता चला जा रहा है। क्षमा मत समझना। वह हमारे बाजार की क्षमा है। हमारी दुनिया की | । इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई जबरदस्ती क्षमा है। वह कारगर है, लुब्रिकेटिंग है, उसका बड़ा उपयोग है। ब्रह्मचर्य को थोपने बैठ जाए, तो उसके चित्त में कामवासना जितनी आप मुझे गाली दे गए, फिर अगर आप मुझसे क्षमा न मांगें, तो भयंकर हो जाती है, तूफान ले लेती है, उतना किसी गहरे से गहरे मेरे और आपके बीच चका बिलकुल जाम हो जाएगा, लुब्रिकेशन | कामी के मन में भी नहीं होती। मुश्किल हो जाएगा। थोड़ा तेल चाहिए; चके चलते रहते हैं। और | | आपको पता होगा, अगर किसी दिन उपवास करें, तब आपको जिंदगी बड़े चकों का जाल है। चके में चके उलझे हुए हैं। यहां | | पता चलेगा कि भोजन की याद उपवास के दिन ही आती है। ऐसे अगर बिलकुल क्षमा वगैरह मत करिए, तो आप जाम हो जाएंगे, | | भोजन की कोई याद आती है! आदमी भोजन कर लेता है और भूल अटक जाएंगे; हिलना मुश्किल हो जाएगा। मांग ली क्षमा; थोड़ा | | जाता है। आप सड़क पर निकलते हैं, आपको कभी खयाल आया तेल पड़ गया चके में; चके फिर चलने लगे। बस हमारी क्षमा का | | कि आप कपड़े पहने हुए हैं! एक दिन नग्न निकलकर सड़क पर तो इतना ही उपयोग है। लेकिन उपयोग है, और जिंदगी चलती है | | देखें, तब आपको कपड़े ही कपड़े याद आएंगे। इस लुब्रिकेशन से। जबरदस्ती किसी चीज को रोका जाए, तो वह स्मृति में गहन हो लेकिन कृष्ण की क्षमा कोई और बात है। इस क्षमा में उस अखंड | जाती है। जोर से आती है, प्रगाढ़ हो जाती है। उसका बल, उसकी का दर्शन नहीं होगा। अगर क्षमा आपका स्वभाव बन जाए, क्रोध ताकत बढ़ जाती है। संभव ही न हो, अक्रोध सहज हो जाए। कोई नींद में भी आपको इंद्रिय-निग्रह या मन-निग्रह जबरदस्तियां नहीं हैं, वैज्ञानिक डाल दे आपके भीतर कुछ, तो क्षमा ही बाहर आए। आपके | | विधियां हैं। इसे खयाल में ले लें। वैज्ञानिक विधियां हैं। लड़ाई का रोएं-रोएं से आशीष ही बहने लगें, आपका कण-कण शुभकामना सवाल नहीं है, समझ का सवाल है। और जो व्यक्ति मन से और मंगल से भर जाए, तो क्षमा है। लड़ेगा, वह कभी मन का मालिक न होगा। जो व्यक्ति मन को कृष्ण कहते हैं, क्षमा मैं हूँ, सत्य मैं हूं, इंद्रियों का वश में करना | समझेगा, वह मन का मालिक तत्काल हो जाएगा। समझ सूत्र है, मैं हूं, मन का निग्रह मैं हूं। दमन नहीं। मन का निग्रह, इंद्रियों को वश में करना इस संबंध में | लेकिन हम लड़ते रहते हैं। एक आदमी को क्रोध आता है, तो थोड़ी-सी बात खयाल में ले लें। वह क्रोध को दबाता है कि क्रोध करना अच्छा नहीं है। शास्त्र में एक, व्यापक रूप से गलत धारणा हमारे भीतर है। जब भी हम पढ़ा है, गुरुओं से सुना है, क्रोध करना बुरा है। क्रोध आता है; अब 28 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपांतरण का आधार-निष्कंप चित्त और जागरूकता बहत वह क्या करे? उसे दबा लेता है। दबाया हुआ और भीतर पहुंच दुरुपयोग हो सकता है, सदुपयोग हो सकता है। जब कोई उस जाता है। दबाया हुआ और रग-रग, रोएं-रोएं में फैल जाता है। | शक्ति का दुरुपयोग करता है, तो जीवन नर्क हो जाता है। क्रोधी का दबाया हुआ नए रास्तों से निकलना शुरू हो जाता है। दबाया हुआ जीवन शक्ति का दुरुपयोग है। और जब कोई उसी शक्ति का धीरे-धीरे स्वभाव में जहर की तरह फैल जाता है। सदुपयोग करता है, तो वही शक्ति क्षमा बन जाती है। और इसलिए देखें आप, जो आदमी को यह वहम हो कि मैंने क्रोध | | क्षमाशील का जीवन स्वर्ग हो जाता है। पर काबू पा लिया है, उसके आप रोएं-रोएं में क्रोध को झलकता | । कृष्ण जब कहते हैं, इंद्रियों के निग्रह में मैं हूं, मनोनिग्रह में मैं हुआ देखेंगे। जिस आदमी को खयाल हो कि मेरा अहंकार | | हूं, तो उनका अर्थ है कि जो व्यक्ति इंद्रियों को जानकर, इंद्रियों को बिलकुल समाप्त हो गया है, मैं तो बिलकुल विनम्र हो गया हूं, समझकर, ज्ञान से उनके पार हो जाता है; जो व्यक्ति मन को उसकी आंख की झलक में, उसके चेहरे के भाव में, जगह-जगह | | पहचानकर, मन के प्रति जागरूक होकर, मन के ऊपर उठ जाता आप अहंकार की छाप पाएंगे। है, उसे मेरी झलक मिलनी शुरू हो जाती है। जिस आदमी को खयाल हो कि मैंने संसार को लात मार दी है, दमन से नहीं, रूपांतरण से। लड़कर नहीं, जानकर। संसार को छोड़ दिया है, त्याग कर दिया है, उसको अगर आप यह सूत्र थोड़ा बारीक है। क्योंकि जानने का क्या अर्थ? कभी थोडा भी गौर से देखेंगे तो उसे संसार में इस बरी तरह फंसा हआ आपने सोचा है कि आपने क्रोध को जाना? आप पाएंगे, जिसका हिसाब नहीं। संसार नहीं होगा उसके चारों तरफ, | जाना। रोज जानते हैं। लेकिन फिर भी मैं आपसे कहूंगा, आपने तो भी फंसा हुआ पाएंगे। क्योंकि एक छोटी-सी लंगोटी भी पूरा कभी नहीं जाना। क्योंकि जब क्रोध होता है, तब आपका जानना साम्राज्य बन सकती है। बिलकुल ही नहीं होता है। आपका जानना खो गया होता है। तब जो दबाया जाता है, वह विषाक्त कर देता है। आप बिलकुल पागल होते हैं। नहीं; कृष्ण का अर्थ दमन से नहीं है। इसलिए जो दमित करेगा | क्रोध जो है, वह अस्थायी पागलपन है। उस वक्त होश वगैरह अपने को, वह तो और भी परमात्मा की झलक से दूर हो जाएगा। | आपके भीतर बिलकुल नहीं होता। उस वक्त आप जो करते हैं, वह कृष्ण का प्रयोजन है रूपांतरण से, ट्रांसफार्मेशन से, एक क्रांति से, | | आप करते हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। आप से होता है, ऐसा जो ज्ञान से संभव होती है। ही कहना ठीक है। क्योंकि क्रोध के बाद आप ही पछताते हैं और जिस व्यक्ति को क्रोध के बाहर जाना हो, उसे क्रोध को समझना | | कहते हैं कि मेरे बावजूद, इंस्पाइट आफ मी, मुझसे हो गया। यह चाहिए, उसे क्रोध को पहचानना चाहिए। क्रोध ताकत है। जैसे मैं सोचता तो नहीं था कि इस बच्चे को उठाकर खिड़की के बाहर आकाश में बिजली कौंधती है। एक दिन हम उससे डरते थे और | फेंक दूंगा और यह मर जाएगा। यह मैंने सोचा ही नहीं था, लेकिन घबड़ाते थे। आज वही बिजली प्रकाश देती है। एक दिन आकाश | यह हो गया। यह मैंने किया नहीं है; यह हो गया है। लेकिन फिर में कौंधती थी, तो हम घुटने टेककर जमीन पर, प्रार्थना करते थे, | किसने किया? क्रोध इतना हावी हो गया था कि आपकी चेतना कि जरूर परमात्मा नाराज है, देवता रुष्ट हैं। आज उस बिजली को | | बिलकुल खो गई थी और आप बिलकुल मूढ़ हो गए थे, सो गए हमने बांध दिया। आज कोई आकाश में चमकती बिजली को | थे, बेहोश थे। देखकर घबड़ाता नहीं है, क्योंकि अब हम जानते हैं उस बिजली के | एक मुसलमान खलीफा हारुन अल रशीद अपने घोड़े पर विज्ञान को राजधानी से निकल रहा है बगदाद में। एक आदमी अपने छप्पर पर क्रोध भी आपके भीतर कौंधती हुई बिजली है। और मजा तो यह | | खड़े होकर खलीफा को गालियां देने लगा। अभद्र गालियां थीं। है कि आकाश की बिजली को बांधने में हम समर्थ हो गए, आदमी | खलीफा ने सुना और अपने सिपाहियों को कहा कि कल सुबह इस के भीतर की बिजलियां अभी भी गैर-सम्हली पड़ी हैं। आदमी को दरबार में पकड़कर ले आओ। वह आदमी उसी समय क्रोध शक्ति है। अगर एक बच्चा ऐसा पैदा हो, जिसमें क्रोध हो | | पकड़कर बंद कर दिया गया। दूसरे दिन सुबह उस आदमी को ही नहीं, तो वह बच्चा जिंदा नहीं रह सकेगा; मर जाएगा। नपुंसक दरबार में लाया गया। होगा; उसमें बल ही नहीं होगा। क्रोध शक्ति है। लेकिन शक्ति का तो खलीफा ने उससे पूछा कि कल तुमने छप्पर के ऊपर खड़े 29 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-53 होकर गालियां किस प्रयोजन से दी थीं? उस आदमी ने कहा कि जवाब मत देना। उससे कह देना कि मैं आऊंगा। चौबीस घंटे का क्षमा करें, जिसने गालियां दी थीं, वह अब मैं नहीं हूं। खलीफा ने मुझे मौका दें, ताकि मैं सोचूं, विचारूं। मैं चौबीस घंटेभर बाद कहा कि तुम वह नहीं हो? शक्ल मैं तुम्हारी ठीक से पहचानता हूं। | आकर जवाब दे दूंगा। और सिपाहियों ने कहा कि यही आदमी है। लेकिन उस आदमी ने | गुरजिएफ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मुझे जवाब देने का कहा कि और सब ठीक है। शक्ल भी वही है। आदमी भी वही है | | मौका कभी नहीं आया। चौबीस घंटे बहुत लंबा वक्त था, इतनी देर एक अर्थ में। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं, वह मैं नहीं हूं, क्योंकि | | जहर टिकता नहीं। वह तत्काल हो जाए, तो हो जाए। कल मैंने शराब पी रखी थी। और जब सुबह मैं होश में आया, तो मगर हम बड़े होशियार लोग हैं। अगर कोई भला काम करना मैंने सोचा, अरे, यह मैंने क्या किया! | हो, तो हम कहते हैं, जरा सोचेंगे। बुरा काम करना हो, तो हम बड़े खलीफा ने उसे मुक्त कर दिया। तत्काल! फिर हम कभी नहीं कहते कि सोचेंगे। अगर कोई कहे कि लेकिन आपको पता है कि जब आप क्रोध में होते हैं, तब भी एक दो पैसे दान कर दो, तो हम कहेंगे, सोचेंगे। और कोई एक शराब आपके रग-रग रेशे-रेशे में दौड़ जाती है! अब तो वैज्ञानिक | गाली दे, तो हम कभी नहीं कहते कि जरा सोचेंगे। फिर सोचने का कहते हैं कि आपके शरीर के भीतर ग्रंथियां हैं जहर की। जब आप | कोई सवाल नहीं है। फिर हम तत्काल! फिर हमसे ज्यादा त्वरा और क्रोध में होते हैं, तो वे ग्रंथियां जहर को छोड़ देती हैं और आप तीव्रता में और जल्दी में कोई नहीं होता। बेहोश हो जाते हैं; केमिकली आप बेहोश हो जाते हैं। ___ यह जल्दी क्या है, आपको पता नहीं। यह जल्दी केमिकल है, तो आपने क्रोध को कभी जाना नहीं। क्योंकि जब क्रोध होता है, यह जल्दी रासायनिक है। वह जहर जो आपके खून में छूटा है, वह तब आप नहीं होते। और जब आप लौटते हैं, तब तक क्रोध जा कहता है, जल्दी करो! क्योंकि अगर दो क्षण भी चूक गए, तो वह चका होता है। आपकी मुलाकात नहीं हुई है क्रोध से अभी। क्रोध जहर तब तक खून में विलीन हो जाएगा। वह जहर जो आपकी नसों को जानने का, या और वासनाओं को जानने का एक ही उपाय है | में फैलकर अकड़ गया है, वह कहता है, उठाओ घुसा और मारो! कि जब क्रोध मौजूद हो, तब आप आंख बंद करें और क्रोध पर क्योंकि अगर नहीं मारा, तो यह जहर तो बेकार चला जाएगा। ध्यान करें कि यह क्या है? कैसे उठ रहा है? कहां से आया है? | क्रोध जब हो, तब ध्यान का क्षण समझें। आंख बंद कर लें। । कहां जा रहा है? क्या प्रयोजन है? यह क्या है शक्ति? इसका क्या | बीच सड़क पर भी हों, तो वहीं आंख बंद कर, एक किनारे पर है रूप? यह क्या करना चाहता है? बैठकर ध्यान कर लें कि भीतर क्या हो रहा है! लोग शायद आपको लेकिन जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपकी नजर दूसरे पर | पागल समझें, लेकिन आप पागल नहीं हैं। क्योंकि क्रोध को जो होती है, जिसने क्रोध करवाया। उसी में आप चूक जाते हैं। जब | जान लेगा, वह सब पागलपन के ऊपर उठ जाता है। जब आप क्रोध में हों, तो नजर अपने पर रखें। दूसरे को भूल जाएं, | कामवासना आपको पकड़े, तब रुक जाएं। ध्यान करें उस पर। उस जिसने गाली दी। उससे तो घड़ीभर बाद भी मुलाकात हो सकती है। | वासना को पहचानें भीतर से, क्या है? कौन-सी ऊर्जा भीतर उठकर लेकिन यह क्रोध जो आपके भीतर है, यह घड़ीभर बाद नहीं होगा; | | इतना धक्का दे रही है कि आप पागल हए जा रहे हैं? यह बह गया होगा। फिर इससे मुलाकात नहीं होगी। इस मौके को | | तो आप बहुत शीघ्र उस ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, जिस ज्ञान मत चूकें। | में ये इंद्रिय-निग्रह, मनो-निग्रह सरलता से फलित हो जाते हैं। गुरजिएफ ने लिखा है अपने संस्मरणों में कि मेरे पिता ने मरते कृष्ण कहते हैं, वह भी मैं ही हूं। वक्त मुझसे कहा था-एक छोटी-सी बात, वही मेरे जीवन में वे कहते हैं, सुख और दुख, उत्पत्ति और प्रलय, भय और अभय बदलाहट बन गई–उन्होंने मरते वक्त मुझसे कहा था कि मेरे पास भी मैं ही हूं। देने को तुझे कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक छोटी-सी सलाह है, जिसने इन तीन द्वंद्वों को एक साथ उपयोग करने का प्रयोजन है। हम मेरी जिंदगी को सोना बना दिया, वह मैं तुझे देता हूं। और वह | | सब सोचते हैं, हम सबने सोचा है बहुत बार कि परमात्मा आनंद सलाह यह थी कि जब तुझे कभी कोई गाली दे, तो तू चौबीस | है। लेकिन कभी सोचा है कि परमात्मा दुख भी है? यह सूत्र बहुत घंटेभर बाद जवाब देना; चौबीस घंटे बाद जवाब देना, इसके पहले खतरनाक है। 30 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपांतरण का आधार-निष्कंप चित्त और जागरूकता कृष्ण कहते हैं, सुख भी मैं और दुख भी मैं। सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है। हम सब सोचते हैं कि परमात्मा सुख का धाम है। परम सुख | | इस सूत्र का अर्थ है कि जितने भी जानने वाले हुए हैं अब तक, अगर चाहिए, तो परमात्मा की तरफ जाओ। लेकिन कृष्ण कह रहे | | जिन्होंने भी जाना है इस सत्य को, इस जीवन को, वे भी मेरे ही हैं कि सुख भी मैं और दुख भी मैं! तो क्या वे वेदों की, उपनिषदों संकल्प थे, मेरे ही भाव थे; वे भी मुझसे अलग नहीं हैं। जिन्होंने की जो परम उक्ति है, सच्चिदानंद की, उसके खिलाफ बोल रहे हैं? भी कभी उस परम अनुभव को पाया है, चाहे वे पहले हुए नहीं; उसके खिलाफ नहीं बोल रहे हैं। लेकिन अगर उस तक | ऋषि-महर्षि हों, चाहे मनु आदि हों, वे सब भी मेरे ही भाव की जाना हो, तो इस सूत्र को मानकर चलने वाला ही उस तक पहुंचता अवस्थाएं हैं। है, जहां परमात्मा मात्र आनंद रह जाता है। इस सूत्र को मानने __ कृष्ण यह कह रहे हैं कि इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम फूल वाला-सुख और दुख, दोनों में जो परमात्मा को देखता है, वह | खिलते हैं अनुभव के, वे सब मेरी ही सुगंध से परिव्याप्त हैं। और एक दिन परम आनंद को उपलब्ध होता है। जब भी कोई अपनी परम दशा में पहुंचता है, तो मुझको ही उपलब्ध हम सुख में तो परमात्मा को देख सकते हैं, लेकिन दुख में! दुख | | हो जाता है। में नहीं देख सकते। और जो दुख में नहीं देख सकता, वह समता लेकिन उस परम दशा में वे ही लोग पहुंच पाते हैं, जो द्वंद्व के बीच को उपलब्ध नहीं होगा, शांति को उपलब्ध नहीं होगा। लेकिन जो | | अपने को समता में ठहरा लेते हैं। जो दो के बीच चुनाव नहीं करते, दुख में भी देख सकता है, वह समता को उपलब्ध हो जाएगा। अगर | | जो यह नहीं कहते कि हमें सुख चाहिए, दुख नहीं चाहिए। जो कहते आपको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप दुख से भागना | | हैं, दुख में भी तू है, और सुख में भी तू है। जो यह नहीं कहते कि न चाहेंगे। परमात्मा से कोई भागना चाहता है? अगर दुख में जन्म तो प्यारा है, जीवन तो प्यारा है; मृत्यु नहीं चाहिए, हमें तो अमर परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप प्रार्थना न करेंगे कि दुख से मुझे | जीवन चाहिए। जो ऐसा नहीं कहते हैं। जो कहते हैं, मृत्यु भी तेरी, छुड़ाओ! क्योंकि परमात्मा से कोई छूटना चाहता है? जन्म भी तेरा। दोनों हमें प्रीतिकर हैं, क्योंकि दोनों ही तेरे हैं। और जिसको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़ जाए, उसके लिए इस जगत में जो चुनाव नहीं करते हैं, इस जगत में जो फिर कोई दुख जगत में नहीं रह जाएगा। क्योंकि दुख का मतलब च्वाइसलेस, चुनावरहित जीने के उपक्रम में प्रवेश करते हैं, वे ही तभी तक है, जब तक हम उससे बचना चाहते हैं, भागना चाहते | सभी, चाहे किसी काल में हुए हों, वे सभी महर्षिगण, मुझको ही, हैं। जिस दिन कोई दुख को भी आलिंगन करके गले लगा ले; और मेरे ही संकल्प को, मेरे ही भाव को उपलब्ध होते हैं। कहें कि वे जिस दिन दुख को भी कोई कहे कि प्रभु आए द्वार मेरे, स्वागत है। | मेरे ही भाव के अंश हैं, वे मेरी ही लहरें हैं। लेकिन वे ऐसी लहरें उस दिन फिर कोई दुख नहीं बचेगा। और जिसके जीवन में कोई | हैं, जो मेरे सागर होने को भी अनुभव कर लेती हैं। दुख नहीं बचता, उसके जीवन में सभी कुछ सुख हो जाता है। । __ आज इतना ही। फिर कल हम बात करेंगे। हमारे जीवन में दुख से बचने की और सुख को पकड़ने की लेकिन पांच मिनट रुकेंगे। कोई भी बीच से उठे न। पांच मिनट आकांक्षा होती है। लेकिन परिणाम क्या है? परिणाम इतना है कि | | प्रसाद लेकर जाएं। राम-नाम का प्रसाद। पांच मिनट कीर्तन में दुख ही दुख हो जाता है; सुख तो कहीं मिलता नहीं। सम्मिलित हों। और बीच में कोई उठे न। जब कीर्तन बंद हो, तभी कृष्ण कहते हैं, सुख भी मैं, दुख भी मैं; उत्पत्ति भी मैं, प्रलय भी | | आप उठे। मैं; जन्म भी मैं, मृत्यु भी मैं। सारे द्वंद्व मैं हूं। भय भी मैं, अभय भी मैं। जहां-जहां द्वंद्व दिखाई पड़ें, दोनों में मैं ही हूं। ऐसा जो मुझे देखेगा, वह आगे के सूत्रों को समझना और आसान हो जाएगा। तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अपकीर्ति, ऐसे ये जो नाना प्रकार के भाव प्राणियों में होते हैं, वे मेरे से ही होते हैं। और हे अर्जुन, सात महर्षिजन, और चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायंभुव आदि चौदह मनु, ये मेरे भाव वाले सब के 31 Page #62 --------------------------------------------------------------------------  Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 तीसरा प्रवचन ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-58 एतां विभूति योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः। | किनारे पड़ा है। लेकिन वही पत्थर जब एक सुंदर मूर्ति बन जाता है, सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।७।। | तब उससे प्रकट होना उसे आसान हो जाता है। ईश्वर तो कण-कण अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते । में है, लेकिन उसके दो रूप हैं। छिपा हुआ रूप, गुप्त रूप, जब वह इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ।।८।। | दिखाई नहीं पड़ता और अनुभव में नहीं आता; और उसका प्रकट और जो पुरुष इस मेरी परम ऐश्वर्यपूर्ण विभूति को और | रूप, जब उसकी अभिव्यक्ति होती है और वह दिखाई पड़ता है। योगशक्ति को तत्व से जानता है, वह पुरुष निश्चल ध्यान ऐश्वर्य का अर्थ है, जीवन के परम रहस्य की अभिव्यक्ति, योग द्वारा मेरे में ही एकीभाव से स्थित होता है, इसमें कुछ | उसका एक्सप्रेशन, उसकी अभिव्यक्ति की आखिरी सीमा।. भी संशय नहीं है। कृष्ण ने इस सूत्र में कहा है कि जो पुरुष मेरी परम ऐश्वर्यपूर्ण में ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूं और मेरे से ही | विभूति को...। जगत सब चेष्टा करता है, इस प्रकार तत्व से समझ कर, ___ हम सभी सुनते हैं और कहते भी हैं कि सब जगह ईश्वर छिपा श्रद्धा और भक्ति से युक्त हुए बुद्धिमान जन मुझ परमेश्वर | है, लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है कि जब भी उस ईश्वर की परम को ही निरंतर भजते हैं। | विभूति प्रकट होती है, तो हम उसे नहीं पहचान पाते हैं। जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, वे भी कहते थे, कण-कण में ईश्वर छिपा है, लेकिन जीसस को वे न पहचान पाए। जिन लोगों ने बुद्ध को " र जो पुरुष इस मेरी परम ऐश्वर्यपूर्ण विभूति को और पत्थर मारे, वे लोग भी कहते थे कि कण-कण में परमात्मा का वास । योगशक्ति को तत्व से जानता है, वह पुरुष निश्चल है, लेकिन बुद्ध को वे न पहचान पाए। जिन्होंने महावीर के कानों ध्यान योग द्वारा मेरे में ही एकीभाव से स्थित होता है, में खीले ठोंक दिए, वे भी सोचते थे कि परमात्मा तो सब जगह इसमें कुछ भी संशय नहीं है। | छिपा है, लेकिन महावीर में उन्हें वह परमात्मा दिखाई न पड़ा। इस सूत्र में प्रवेश के लिए कुछ बातें प्राथमिक रूप से समझें। । | यह बहुत आश्चर्य की बात है कि जो लोग मानते हैं कि सब जीवन के परम रहस्य को हमने ईश्वर कहा है। जीवन के परम जगह छिपा है. वे भी जब उसकी परम अभिव्यक्ति होती है. तो न आधार को हमने ईश्वर कहा है। और रोज हम ईश्वर शब्द का केवल उसे नहीं पहचान पाते, बल्कि उसके विपरीत खड़े हो जाते प्रयोग भी करते हैं। लेकिन शायद हमें खयाल न हो कि ईश्वर शब्द हैं। निश्चित ही, इनका कहना सिर्फ कहना ही होगा; इन्होंने जाना ऐश्वर्य का ही रूप है। जहां भी ऐश्वर्य प्रकट होता है, जिस आयाम | | नहीं है, इन्होंने पहचाना नहीं है। अन्यथा जीसस को सूली लगनी में भी, वहां ईश्वर की झलक निकटतम हो जाती है। | असंभव थी, क्योंकि वह परमात्मा को ही सूली है। अन्यथा बुद्ध जब कोई फूल अपने परम सौंदर्य में खिलता है, तो उस परम को पत्थर मारे जाने असंभव थे, क्योंकि वे परमात्मा को ही मारे गए सौंदर्य का नाम ऐश्वर्य है। और जब कोई ध्वनि संगीत की | पत्थर हैं। आत्यंतिक ऊंचाई को छू लेती है, तो उस ध्वनि का नाम भी ऐश्वर्य | __ और मजे की बात तो यह है कि पत्थर में भी परमात्मा छिपा है, है। और जब कोई आंखें सौंदर्य की गहनतम स्थिति में डूब जाती | | लेकिन उसे कोई पत्थर मारने नहीं जाता है। लेकिन बुद्ध में जब हैं, तो उस सौंदर्य का नाम भी ऐश्वर्य है। परमात्मा प्रकट होता है, तो लोग पत्थर मारने पहुंच जाते हैं! जहां ऐश्वर्य का अर्थ है, किसी भी दिशा में और किसी भी आयाम | | परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता, वहां शायद हम पूजा भी कर लें; में जो परम उत्कर्ष है. जो अंतिम सीमा है. जिसके पार नहीं जाया | लेकिन जहां परमात्मा दिखाई पड़ता है, वहां हम शत्रु हो जाते हैं। जा सकता है। चाहे वह सौंदर्य हो, चाहे वह सत्य हो, चाहे वह | जरूर कुछ गहरा कारण होगा। और गहरा कारण समझने जैसा है। शिवम् हो, कोई भी हो आयाम, लेकिन जहां जीवन अपनी अत्यंत | | जहां परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता, वहां हम कितना ही कहें कि आत्यंतिक स्थिति को छू लेता है, अपने परम शिखर को पहुंच जाता | | परमात्मा है, हम उस परमात्मा से बड़े बने रहते हैं और हमारे है, गौरीशंकर को छू लेता है, वहां ईश्वर निकटतम प्रकट होता है। | अहंकार को कोई बाधा नहीं पहुंचती। लेकिन जब परमात्मा अपने ईश्वर तो सब जगह छिपा है, उस पत्थर में भी जो रास्ते के परम ऐश्वर्य में प्रकट होता है कहीं भी, तो हमारे अहंकार को चोट 34 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य लगनी शुरू होती है। हम छोटे पड़ जाते हैं, हम नीचे हो जाते हैं। हो जाता है। चाहे कोई एक संगीतज्ञ अपने संगीत की ऊंचाई को तो हम पत्थर की मूर्ति पूज सकते हैं, लेकिन जीवित बुद्ध को हम | छूता हो। और चाहे कोई एक चित्रकार अपनी कला की अंतिम पत्थर मारेंगे ही। फिर हम मरे हुए जीसस के आस-पास बड़े-बड़े | सीमा को स्पर्श करता हो। चाहे कोई बद्ध अपने मौन में डूबता हो। चर्च और बड़े कैथेड्रल खड़े कर सकते हैं, लेकिन जीसस को तो चाहे कोई भी हो दिशा, जहां भी अभिजात्य है. जहां भी जीवन हम सूली देंगे ही। जीसस में पहचानना तो तभी संभव है, जब हम | किसी अभिजात्य को छूता है, वहीं परमात्मा अपनी सघनता में कृष्ण के इस सूत्र को समझ जाएं, कि जो व्यक्ति तत्व से मेरे परम | प्रकट होता है और पारदर्शी हो जाता है, ट्रांसपैरेंट हो जाता है। ऐश्वर्य को पहचानता है! नीचे भी वही है; हमारे पैरों के नीचे भी जो जमीन है, वहां भी वही मान लेना परंपरा से, तत्व से पहचानना नहीं है। मान लेना | है; लेकिन वहां उसे देखना बहुत मुश्किल होगा। वहां हम मान भी सुनकर, संस्कार से, तात्विक पहचान नहीं है। क्योंकि वह पहचान | लें, तो भी देखना मुश्किल होगा। आसान होगा कि हम आंखें उठाएं हमारी क्षणभर में डगमगा जाती है। और सबसे ज्यादा वहां | और आकाश के तारों की विभूति में उसे देखें। वहां आसान होगा। डगमगाती है, जहां परमात्मा का ऐश्वर्य प्रकट होता है। लेकिन हमें कठिनाई है। हम पैर के नीचे की जमीन में मान लें, कृष्ण को आज भगवान मान लेना बहुत आसान है। कृष्ण की लेकिन आकाश के तारों में मानना बहुत मुश्किल हो जाता है। जो मौजूदगी में भगवान मानना बहुत कठिन था। कृष्ण की गैर-मौजूदगी | | भी हमसे ऊपर है, उसे मानना बहुत मुश्किल हो जाता है। जो हमसे में भगवान मान लेने में कोई अड़चन नहीं है, क्योंकि हमारे अहंकार | | नीचे है, उसे हम मान भी लें, क्योंकि उसे मानकर भी हम ऊपर बने को कोई भी पीड़ा, कोई तुलना नहीं होती। लेकिन कृष्ण की | | रहते हैं। मौजूदगी में भगवान मानना बहुत कठिन है। इसलिए यह दुर्घटना मनुष्य के इतिहास में घटी कि हमने क्षुद्र शायद अर्जुन भी मन के किसी कोने में कृष्ण को भगवान नहीं | | लोगों को मान लिया है। मंदिर के पुजारी को मानना बहुत कठिन मान पाता होगा। शायद अर्जुन के मन में भी कहीं न कहीं किसी नहीं है, लेकिन अगर मंदिर की मूर्ति जीवित हो जाए, तो पूजा करने अंधेरे में छिपी हुई यह बात होगी कि कृष्ण आखिर कर मेरे सखा वाले ही दुश्मन हो जाते हैं! हैं, मेरे मित्र हैं, और फिलहाल तो मेरे सारथी हैं! किन्हीं ऊंचाई के दोस्तोवस्की ने एक छोटी-सी कथा लिखी है। लिखा है कि क्षणों में मन के भला लगता हो कि कृष्ण अद्वितीय हैं, लेकिन | जीसस के मरने के अठारह सौ वर्ष बाद जीसस को खयाल आया अहंकार के क्षण में तो लगता होगा कि मेरे ही जैसे हैं। कि मैं पहले जो गया था जमीन पर, तो बेसमय पहुंच गया था। वह अगर अर्जुन भी मान पाता कि कृष्ण भगवान हैं, तो शायद इतनी | | ठीक वक्त न था, लोग तैयार न थे और मुझे मानने वाला कोई भी चर्चा की कोई जरूरत भी न थी। इतना समझाना पड़ रहा है उसे | न था। मैं अकेला ही पहुंच गया था। और इसलिए मेरी दुर्दशा हुई; कृष्ण को, उसका कारण यही है। उसका कारण यही है। कृष्ण जो | और इसलिए लोग मुझे स्वीकार भी न कर पाए, समझ भी न पाए। कह रहे हैं, इसके लिए भी कृष्ण को तर्क देने पड़ रहे हैं, क्योंकि | | और लोगों ने मुझे सूली दी, क्योंकि लोग मुझे पहचान ही न सके। अर्जुन की समझ-कृष्ण जो कह रहे हैं, वह परमात्मा का वचन | | अब ठीक वक्त है। अगर मैं अब वापस जमीन पर जाऊं, तो आधी है-ऐसी नहीं है। एक मित्र की सलाह है। तो विवाद जरूरी है, | जमीन तो ईसाइयत के हाथ में है। हर गांव में मेरा मंदिर है। चर्चा जरूरी है। और राजी हो जाए चर्चा से, तो ठीक है, मान भी | | जगह-जगह मेरे पुजारी हैं। जगह-जगह मेरे नाम पर घंटी बजती लेगा। लेकिन परमात्मा की आवाज हो, तो फिर सोचने-विचारने | | है, और जगह-जगह मेरे नाम पर मोमबत्तियां जलाई जाती हैं। का उपाय नहीं रह जाता। फिर सोचना-विचारना गिर ही गया। । | आधी जमीन मुझे स्वीकार करती है। अब ठीक वक्त है, मैं जाऊं। कृष्ण का अर्जुन से यह कहना महत्वपूर्ण है कि जो मेरे परम | | और जीसस यह सोचकर एक रविवार की सुबह बैथलहम, ऐश्वर्य को तत्व से जान पाता है! उनके जन्म के गांव में वापस उतरे। सुबह है। रविवार का दिन है। यह परम ऐश्वर्य बहुत रूपों में प्रकट होता है। अगर ठीक से लोग चर्च से बाहर आ रहे हैं। प्रार्थना पूरी हो गई है। और जीसस समझें, तो ऐश्वर्य के सभी रूप परमात्मा के रूप हैं। और जहां भी एक वृक्ष के नीचे खड़े हो गए हैं। उन्होंने सोचा है कि आज वह श्रेष्ठतर दिखाई पड़े, दिशा वह कोई भी हो, वहां परमात्मा पारदर्शी अपनी तरफ से न कहेंगे कि मैं जीसस क्राइस्ट हूं। क्योंकि पहले 35 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 एक दफा कहा था, बहुत चिल्लाकर कहा था कि मैं जीसस क्राइस्ट | अपने ही लोग पकड़ेंगे, यह भरोसे के बाहर था। और जीसस को मैं ईश्वर का पत्र हं: मैं तम्हारे लिए संदेश लेकर आया परम जाकर चर्च की एक कोठरी में ताला लगाकर बंद कर दिया गया। जीवन का; और जो मुझे समझ लेगा, वह मुक्त हो जाएगा, क्योंकि आधी रात किसी ने दरवाजा खोला; कोई छोटी-सी लालटेन को सत्य मुक्त कर देता है। लेकिन इस बार, अब तो वे लोग मुझे वैसे लेकर भीतर प्रविष्ट हुआ। जीसस ने उस अंधेरे में थोड़े से प्रकाश ही पहचान लेंगे, घर-घर में तस्वीर है। अब तो कोई जरूरत न होगी में देखा, पादरी है; वही पुरोहित! मुझे घोषणा करने की। वे चुपचाप खड़े रहे। उसने लालटेन एक तरफ रखी, दरवाजा बंद करके ताला लोगों ने पहचाना जरूर, लेकिन गलत ढंग से पहचाना। भीड़ लगाया। फिर जीसस के चरणों में सिर रखा और कहा कि मैं इकट्ठी हो गई, और लोग हंसने लगे, और मजाक करने लगे। और पहचान गया था। लेकिन बाजार में मैं नहीं पहचान सकता हूं। तुम किसी ने कहा कि बिलकुल बन-ठनकर खड़े हो! बिलकुल जीसस हो पुराने उपद्रवी! हमने अठारह सौ साल में किसी तरह व्यवसाय जैसे ही मालूम पड़ते हो! खूब स्वांग रचा है! अभिनेता कुशल हो, | ठीक से जमाया है। अब सब ठीक चल रहा है, तुम्हारी कोई जरूरत जरा भी भूल-चूक निकालनी मुश्किल है! नहीं; हम तुम्हारा काम कर रहे हैं। तुम हो पुराने उपद्रवी! अगर तुम जीसस को कहना ही पड़ा कि तुम गलती कर रहे हो। मैं कोई वापस आए, तो तुम सब अस्तव्यस्त कर दोगे, तुम हो पुराने अभिनय नहीं कर रहा हूं। मैं वही जीसस क्राइस्ट हूं, जिसकी तुम | अराजक। तुम फिर सत्य की बातें कहोगे और सब नियम भ्रष्ट हो पूजा करके बाहर आ रहे हो। तो लोग हंसने लगे और उन्होंने कहा | जाएंगे। और तुम फिर परम जीवन की बात कहोगे, और लोग कि जल्दी से तुम यहां से भाग जाओ, इसके पहले कि मंदिर का स्वच्छंद हो जाएंगे। हमने सब ठीक-ठीक जमा लिया प्रधान पुरोहित बाहर निकले। नहीं तो तुम मुसीबत में पड़ोगे। और | तुम्हारी कोई भी जरूरत नहीं है। अब तुम्हें कुछ भी करना हो, तो रविवार का दिन है, चर्च में बहुत लोग आए हुए हैं, व्यर्थ तुम्हारी | हमारे द्वारा करो। हम तुम्हारे और मनुष्य के बीच की कड़ी हैं। तो मारपीट भी हो जा सकती है। तुम भाग जाओ। मैं तुम्हें भीड़ में नहीं पहचान सकता हूं। और अगर तुमने ज्यादा जीसस ने कहा, क्या कहते हो, ईसाई होकर! पहली दफा जब | गड़बड़ की, तो मुझे वही करना पड़ेगा, जो अठारह सौ साल पहले मैं आया था, तो यहूदियों के बीच में आया था, कोई ईसाई न था; | दूसरे पुरोहितों ने तुम्हारे साथ किया था। हम मजबूर हो जाएंगे तुम्हें तो मुझे कोई पहचान न सका। यह स्वाभाविक था। लेकिन तुम भी सूली पर चढ़ाने को। तुम्हारी मूर्ति की हम पूजा कर सकते हैं और मुझे नहीं पहचान पा रहे हो! तुम्हारे क्रास को हम गले में डाल सकते हैं, और तुम्हारे लिए बड़े • और तभी पादरी आ गया। चर्च के बाहर और लोग आ गए मंदिर बना सकते हैं, और तुम्हारे नाम का गुणगान कर सकते हैं, ' और बाजार में भीड़ लग गई। जीसस पर जो लोग हंस रहे थे, वे | लेकिन तुम्हारी मौजूदगी खतरनाक है। जीसस के पादरी के चरणों में झक-झककर नमस्कार करने लगे। जब भी ईश्वर अपने परम ऐश्वर्य में कहीं प्रकट होगा. तब लोग जमीन पर लेट गए। बड़ा पादरी! बड़ा पुरोहित मंदिर के । | उसकी मौजूदगी खतरनाक हो जाती है। वे जो हमारे क्षुद्र अहंकार बाहर आया है! | हैं, उन क्षुद्र अहंकारों को बड़ी पीड़ा शुरू हो जाती है। जब भी विराट जीसस बहुत चकित हुए। फिर भी जीसस के मन में एक आशा | | ईश्वर सामने होता है, तो हमारा क्षुद्र अहंकार बेचैन हो जाता है। थी कि लोग भला न पहचान पाएं, लेकिन मेरा पुजारी तो पहचान | | हम मरे हुए ईश्वर को पूज सकते हैं, जीवित ईश्वर को पहचानना ही लेगा! लेकिन पादरी के जब लोग चरण छू चुके, और उसने मुश्किल है। आंखें ऊपर उठाकर देखा, तो कहा कि बदमाश को पकड़ो और कृष्ण का यह सूत्र कीमती है। इसमें ऐश्वर्य शब्द को ठीक से नीचे उतारो! यह कौन शरारती आदमी है? जीसस एक बार आ| पहचान लेना। और जहां भी, जहां भी कोई झलक मिले उसकी, जो चुके, और अब दुबारा आने का कोई सवाल नहीं है। पार है, दूर है, तो उसे प्रणाम करना, उसे स्वीकार करना। सको पकड़ लिया। जीसस को अठारह सौ साल पदार्थ में भी झलक मिलती है उसकी। फल पदार्थ ही है। लेकिन पहले का खयाल आया। ठीक ऐसे ही वे तब भी पकड़े गए थे। | जीवंत होकर जब खिलता है, तो पदार्थ के पार जो है, उसकी खबर लेकिन तब पराए लोग थे और तब समझ में आता था। लेकिन अब | आती है उसमें। वीणा भी पदार्थ है। लेकिन जब कोई गहरे प्राणों से Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य उसके तारों को छूता है, तो उन स्वरों में भी उसका ही स्वर आता है। सजातीयता है। श्रेष्ठ को देखकर हम बड़े बेचैन होते हैं। उससे हम जहां भी कोई चीज श्रेष्ठता को छूती है, अभिजात्य को छूती है, अपना कोई समझौता नहीं कर पाते, उसके साथ हमें बड़ी अड़चन वहीं उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाती है। लेकिन उतनी ऊंची | होने लगती है। आंखें उठाना हमें बड़ा मुश्किल है। नीत्शे ने कहा है कि अगर कहीं कोई ईश्वर है, तो मैं उसे तभी मंसूर को सूली लगी, और मंसूर के लोगों ने हाथ-पैर काट | बर्दाश्त कर सकता हूं, जब उसी के बराबर के सिंहासन पर मैं भी डाले। क्योंकि मंसूर ने कहा कि मैं परमात्मा हूं। और जब मंसूर को | विराजमान होऊ। और अगर कहीं कोई ईश्वर है, तो मैं इनकार करता सूली पर लटकाया गया और उसके पैर काट डाले गए, तो एक | ही रहूंगा तब तक, जब तक कि मैं भी उसी ऊंचाई पर न बैठ जाऊं। आदमी ने मंसूर की तरफ आंख उठाकर देखा। - इसलिए श्रेष्ठ को स्वीकार करना बड़ा कठिन हो जाता है। यह थोड़ी बारीक घटना है। भीड़ इकट्ठी थी। एक लाख आदमी | यही तो कठिनाई है। अगर कोई आदमी आपसे आकर कहे कि थे सूली देने को। सूली देने में हमारी इतनी उत्सुकता है, जिसका | | फलां आदमी असाधु है, बेईमान है, चोर है, तो हम बड़ी प्रफुल्लता हिसाब नहीं! दूर-दूर से लोग चलकर आए थे। और उस आदमी | से स्वीकार कर लेते हैं। कोई आकर कहे कि फलां आदमी साधु है, का कसूर कुल इतना था कि उसने घोषणा की थी कि मैं मिट गया | | सज्जन है, संत है, तो कभी आपने खयाल किया है कि आपके हूं और केवल परमात्मा है। उसकी घोषणा में इतनी ही गलती थी | | भीतर स्वीकार का भाव बिलकुल नहीं उठता। आप कहते हैं कि कि उसने परम ऐश्वर्य को घोषित किया था। और उस आदमी में | | तुम्हें पता नहीं होगा अभी, पीछे के दरवाजों से भी पता लगाओ कि था। उसकी आंखों में थी बात। उसके हृदय में थी बात। | वह आदमी साधु है? क्योंकि हमने बहुत साधु देखे हैं। तुमने सुन और जब कोई मंसूर से कहता था कि तुम अपने को ईश्वर कहते | लिया होगा किसी से। कोई दलाल, कोई एजेंट तुम्हें मिल गया होगा हो! तो मंसूर कहता था, जब तक मैं था, तब तक तो मैंने अपने को साधु का, उसने तुमसे प्रशंसा कर दी। जरा सावधान रहना। इस आदमी भी नहीं कहा। जब से मैं नहीं रहा हूं, तब से ही मैंने कहा | | तरह के जाल में मत फंस जाना। है कि ईश्वर हूं। मैं नहीं हूं, ईश्वर ही है। लेकिन लोग कहते कि सब अगर हम यह न भी कहें, तो यह भाव हमारे भीतर होता है। बातें हैं। | अगर यह भाव हमें पता भी न चले, तो भी हमारे भीतर होता है। भीड़ इकट्ठी थी, लेकिन कम ही लोगों की आंखें ऊपर की तरफ | कोई श्रेष्ठ है, इसे स्वीकार करने में बड़ी बेचैनी है। कोई निकृष्ट है, थीं, जहां मंसूर के गले में सूली लगने वाली थी। लोग तो नीचे | | इसे स्वीकार करने में बड़ी राहत है। पत्थर उठा रहे थे झुके हुए; पत्थर मारने की तैयारियां कर रहे थे। | जब हमें पता चलता है कि दुनिया में बहुत बेईमानी हो रही है, एक आदमी ने मंसूर की तरफ देखा तो चकित हुआ, क्योंकि चोरी हो रही है, हत्याएं हो रही हैं, तो हमारी छाती फूल जाती है। उसके होंठों पर मुस्कुराहट थी। और मंसूर बड़े आनंद से भरा था। | तब हमें लगता है, कोई हर्ज नहीं, कोई मैं ही बुरा नहीं हूं, सारी तो उस आदमी ने पूछा कि मंसूर, तुम किस आनंद से भरे हो? तो | दुनिया बुरी है। और इतने बुरे लोगों से तो मैं फिर भी बेहतर हूं। मंसूर ने जो कहा था, उसे मैं बहुत धीरे से आपसे कहता हूं। मंसूर ने | | रोज लोग अखबार पढ़ते हैं, उसमें पहले वे देखते हैं, कहां हत्या कहा, मैं इसलिए खुश हो रहा हूं कि शायद मुझे देखने को ही तुम्हारी | | हो गई, कहां चोरी हो गई, कौन किस की स्त्री को लेकर भाग गया आंखें थोड़ा ऊपर उठ सकें। सूली लंबी है, शायद मुझे देखने को ही है। तब वे छाती फुलाकर बैठते हैं कि मैं बेहतर हूं इन सबसे। किसी तुम्हारी आंखें थोड़ी ऊपर उठ सकें। इस बहाने ही सही, तुम एक बार की स्त्री को भगाने की योजना तो मैं भी करता हूं, लेकिन कार्यरूप ऊपर देख सको, तो मेरा सूली लगना भी सार्थक हुआ। | में कभी नहीं लाता! हत्या करने का मेरे मन में भी कई बार विचार लेकिन पता नहीं, वे लोग समझ पाए कि नहीं समझ पाए। उठता है, लेकिन सिर्फ विचार है। ऐसे तो मैंने किसी को कभी क्योंकि यह तो बड़ी प्रतीक की बात थी। हम ऊपर देखने के आदी कंकड़ भी नहीं मारा। ऐसे चोरी तो मेरे मन में भी आती है, लेकिन ही नहीं हैं। हमारी आंखें जमीन में गड़ गई हैं। हमारी आंखें जमीन सपनों में ही आती है; वस्तुतः मैं चोर नहीं हूं। की कशिश से बंध गई हैं। ऊपर उठाने में हमें आंखों को बड़ी पीड़ा अखबार में अगर गलत खबरें न हों, तो पढ़ने में रस ही नहीं होती है। क्षुद्र को देखकर हम बड़े प्रसन्न होते हैं। उससे हमारी बड़ी आता। इसलिए अखबार साधुओं की कोई खबर नहीं दे सकते, 37 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-58 क्योंकि उनको पढ़ने में किसी की कोई उत्सुकता नहीं है। अखबारों जिसके द्वारा परमात्मा की विराटता क्षुद्रता से जुड़ी होती है, और को चोरों को खोजना पड़ता है, बेईमानों को खोजना पड़ता है, | जिसके द्वारा सागर बूंद से जुड़ा होता है। को, बीमारों को, रुग्ण-विक्षिप्तों को खोजना पड़ता है। कबीर ने कहा है कि मेरी बंद सागर में गिर गई. अब मैं उसे इसलिए अखबार अगर निन्यानबे प्रतिशत राजनीतिज्ञों की खबरों से कैसे खोजूं! भरा रहता है, तो उसका कारण है, क्योंकि राजनीति में निन्यानबे हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई; प्रतिशत चोर और बेईमान और सब हत्यारे इकट्ठे हैं। बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई। लेकिन हमें क्यों रस आता है इतना? बूंद खो गई सागर में, उसे कैसे निकालूं वापस। और कबीर आप भागे चले जा रहे हैं दफ्तर। और रास्ते पर दो आदमी छुरा खोजते-खोजते खुद ही खो गया। खोजने निकला था प्रभु को, खुद लेकर लड़ने खड़े हो जाएं, तो आप भूल गए दफ्तर! साइकिल | खो गया। बूंद उसके सागर में गिर गई। अब मैं उस बूंद को कैसे टिकाकर आप भीड़ में खड़े हो जाएंगे। और अगर झगड़ा ऐसे ही | वापस पाऊं! निपट जाए; कोई बीच में आकर छुड़ा दे, तो आप बड़े उदास लौटेंगे यह पहला वक्तव्य है। लेकिन कबीर ने तत्काल दूसरा वक्तव्य कि कुछ भी नहीं हुआ। कुछ होने की घड़ी थी, एक्साइटमेंट था, इसी के नीचे लिखा है और उसमें लिखा हैः । उत्तेजना थी; रस आने के करीब था। कुछ होता; लेकिन कुछ भी | हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई नहीं हुआ! कोई नासमझ बीच में आ गया और सब खराब कर समुंद समाना बंद में, सो कत हेरा जाई। दिया। इतना बुराई को देखने का इतना रस क्यों है? बुराई में इतनी खोजते-खोजते कबीर खो गया। और यह तो बड़ी मुश्किल हो उत्सुकता क्यों है? गई। पहले तो मैंने समझा था, बूंद सागर में गिर गई, अब उसे कैसे उसका कारण है। जब भी हमें कोई बुरा दिखाई पड़ता है, हम | | वापस पाऊ! अब मैं पाता हूं कि यह तो सागर ही बूंद में गिर गया, बड़े हो जाते हैं। जब भी हमें कोई भला दिखाई पड़ता है, हम छोटे | अब मैं बूंद को कैसे वापस पाऊ! हो जाते हैं। बूंद सागर में गिरती है, वह हमारा योगशास्त्र है। और जब सागर लेकिन जो बड़े को देखने में असमर्थ है, वह परमात्मा को | बूंद में गिरता है, तब वह भगवान का योग, वह भगवान की समझने में असमर्थ हो जाएगा। इसलिए जहां भी कुछ बड़ा दिखाई | योगशक्ति है। पड़ता हो, श्रेष्ठ दिखाई पड़ता हो, कोई फूल जो दूर आकाश में | निश्चित ही, मिलन तो दो का होता है। यात्रा दो तरफ से होगी। खिलता है बहत कठिनाई से, जब दिखाई पड़ता हो, तो अपने इस एक यात्रा के संबंध में हमने सुना है कि आदमी परमात्मा की तरफ मन की बीमारी से सावधान रहना। परम ऐश्वर्य को कोई समझ | जाता है। एक और भी यात्रा है, जिसमें परमात्मा आदमी की तरफ पाए, तो ही आगे गति हो सकती है। आता है। सच तो यह है कि हम एक कदम चलते हैं परमात्मा की दूसरा शब्द कृष्ण ने कहा है, और मेरी योगशक्ति को। | तरफ, तो तत्काल परमात्मा का एक कदम हमारी तरफ उठ जाता यह थोडा कठिन है। क्योंकि आदमी के लिए योग तो अर्थपर्ण | है। यह संतुलन कभी नहीं खोता। जितना अ है, क्योंकि योग का अर्थ होता है, वह शक्ति, जो व्यक्ति को परमात्मा आपकी तरफ बढ़ आता है। परमात्मा से जोड़ दे। इसे थोड़ा समझें। योग का अर्थ है आदमी के | आप यह मत सोचना कि जब परमात्मा से मिलना होता है, तो लिए, क्योंकि योग का अर्थ है, वह जोड़ने वाली शक्ति, जो परमात्मा के घर में होता है। बिलकुल नहीं। यह बीच यात्रा में होता परमात्मा से जोड़ दे व्यक्ति को, जो क्षुद्र को विराट से जोड़ दे, जो है। आप चलकर पहुंचते हैं कुछ, परमात्मा चलकर आता है कुछ, बूंद को सागर से जोड़ दे। लेकिन परमात्मा की योगशक्ति क्या और ठीक बीच में यह मिलन होता है। होगी? आदमी की योग की प्रक्रिया समझ में आती है, कि आदमी | | आप ही मिलने को आतुर हैं परम से, ऐसा अगर होता, तो योग साधे और परमात्मा को उपलब्ध हो जाए। लेकिन परमात्मा की | जीवन बड़ा साधारण होता। परम भी आतुर है आपसे मिलने को। तरफ से योगशक्ति क्या होगी? वही जीवन का रस और आनंद है। अगर आदमी ही परमात्मा की ठीक विपरीत शक्ति परमात्मा की तरफ से योगशक्ति है। तरफ दौड़ रहा है और यह वन वे ट्रैफिक है, एक ही तरफ से यात्रा त 38| Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य होती हो, और परमात्मा जरा भी उत्सुक नहीं है आदमी के भीतर आने को, तो आप परमात्मा से मिल भी जाते, तो भी तृप्ति न होती, क्योंकि यह प्रेम एकतरफा होता । नहीं, जितने आतुर आप हैं, उतना ही आतुर परमात्मा भी है। सागर भी उतना ही आतुर है सरिता से मिलने को, जितनी सरिता आतुर है सागर से मिलने को। ये प्रेम की धाराएं दोनों तरफ से प्रवाहित हैं। वह जो परमात्मा के मिलने की शक्ति है, उस शक्ति का नाम यहां योगशक्ति है। इसके तो बहुत अर्थ होंगे। इससे तो पूरा एक जीवन-दर्शन विकसित होगा । इसका अर्थ यह हुआ कि जब आप परमात्मा की तरफ चलते हैं....। सूफी फकीरों में कहावत है कि उसे खोजने तब तक कोई नहीं निकलता, जब तक वह खुद ही उसे खोजने न निकल आया हो। कहावत है कि परमात्मा की तरफ तब तक कोई नहीं चलता, जब तक कि परमात्मा ने ही साधक की तरफ चलना शुरू न कर दिया हो। कहावत है कि प्यास ही नहीं जगती, जब तक उसकी पुकार न गई हो। सूफी फकीर हुआ झुन्नून, इजिप्त में हुआ। कहा है झुन्नून ने अपने संस्मरणों में कि जब मेरी मुलाकात हुई उस परम शक्ति से— प्रतीक कथा है— कि जब मैं प्रभु से मिला, तो मैंने प्रभु से कहा कि कितना तुझे मैंने खोजा ! तो प्रभु मुस्कुराए और उन्होंने कहा कि क्या तू सोचता है, तूने ही मुझे खोजा ? काश, तुझे पता हो कि कितना मैंने तुझे खोजा ! और परमात्म शक्ति ने झुनून को कहा कि तूने मुझे खोजना ही तब शुरू किया, जब मैं तुझे खोजना शुरू कर चुका था। क्योंकि अगर मैं ही तुझे खोजने न निकलूं, तो तू मुझे खोजने में कभी समर्थ न हो सकेगा ! अज्ञानी कैसे खोज पाएगा? नासमझ कैसे खोज पाएंगे ? जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, जिन्हें यह भी पता नहीं है कि वे खुद कौन हैं, वे कैसे खोज पाएंगे? अगर यह परम विराट ऊर्जा भी साथ न दे रही हो इस खोज में, अगर उसका भी हाथ न हो इसमें, अगर उसका भी सहारा न हो, अगर उसका भी इशारा न हो, तो यह खोज न हो पाएगी। इसलिए धर्म व्यक्ति से परमात्मा की तरफ संबंध का नाम ही नहीं है। धर्म व्यक्ति से परमात्मा की तरफ और परमात्मा से व्यक्ति की तरफ संवाद, मिलन, आलिंगन का संबंध है। यह खोज इकतरफा नहीं है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, तत्व से जो इसे जान ले कि परमात्मा भी खोज रहा है। 39 वह भी खोज रहा है। विराट भी आपको पुकार रहा है। सागर ने भी आह्वान दिया है, आओ! तो बूंद की शक्ति हजार गुना हो जाती है। सामर्थ्य बढ़ जाता है, साहस बढ़ जाता है, यात्रा बड़ी सुगम हो जाती है। यात्रा फिर यात्रा ही नहीं रह जाती है, बहुत हलकी हो जाती है, निर्भार हो जाती है। अगर विराट भी मुझे खोज रहा है, तो फिर मिलन सुनिश्चित है। अगर मैं ही उसे खोज रहा हूं, तो मिलन सुनिश्चित नहीं हो सकता । मैं क्या खोज पाऊंगा उसको! मेरी सामर्थ्य क्या ? मेरी शक्ति कितनी? लेकिन अगर वह भी मुझे खोज रहा है, तो मैं कितना ही भटकूं, और कितना ही भूलूं, और कितना ही चूकूं, कुछ भी हो जाए, मिलन होकर रहेगा। परमात्मा की तरफ से योगशक्ति का अर्थ है, परमात्मा की हमसे मिलने की शक्ति । निश्चित ही, हम जिस दिन परमात्मा को पा लेंगे, उस दिन हम कहेंगे कि पा लिया। लेकिन परमात्मा तो अभी भी जानता है कि उसने हमें पाया हुआ है। बुद्धको ज्ञान हुआ, तो बुद्ध को देवताओं ने पूछा कि तुम्हें क्या मिला ? बुद्ध ने कहा, मुझे कुछ मिला नहीं। जो मुझे मिला ही हुआ था, केवल उसका पता चला। जो मेरे पास था जो संपत्ति ही थी, मेरे ही भीतर, लेकिन मुझे जिसका कोई स्मरण न था, | उसकी स्मृति आई तो मुझे कुछ मिला नहीं है, जो मिला ही हुआ उसका मुझे पता चला। था, परमात्मा से जिस दिन हमारा मिलन होगा, हमें पता चलेगा कि मिलन हुआ। परमात्मा को पता चलने का कोई कारण नहीं कि मिलन हुआ; मिलन हुआ ही हुआ है। वह हमारे चारों तरफ मौजूद है। बाहर-भीतर, रोएं - रोएं में, श्वास- श्वास में वह मौजूद है। हम | उसमें मौजूद नहीं हैं। वह हममें मौजूद है; हम उसमें मौजूद नहीं हैं। जैसे अंधा आदमी खड़ा हो सूरज की रोशनी में। बरसती हो रोशनी चारों तरफ | रोए रोएं पर चोट करती हो कि द्वार खोलो। और उस आदमी को कोई भी पता न हो कि सूरज है। और फिर वह आदमी आंख खोले, और तब वह पाए कि चारों तरफ सूरज है। आंख का मिलन हुआ सूरज से। सूरज तो तब भी मिल रहा था आंख से, भला आंख बंद रही हो। सूरज तो तब भी द्वार पर ही खड़ा था। सूरज के लिए कोई नई घटना नहीं घट रही है। लेकिन सूरज भी दस्तक दे रहा था; वह भी द्वार खटखटा रहा था। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 परमात्मा के लिए तो हम उसके ही भीतर हैं, लेकिन वह हमारे से। रास्ते से गुजर रहा था नाचता हुआ। अंग्रेजों की छावनी पड़ी भीतर नहीं है। जब मैं कहता हूं, वह हमारे भीतर नहीं है, तो यह थी, गदर का मौसम था, हवा खराब थी। अंग्रेजों के लिए संकट कोई अस्तित्वगत वक्तव्य नहीं है। जब मैं कहता हूं, वह हमारे । का समय था। उन्होंने पकड़ लिया उसे। उससे पूछा, कौन हो? भीतर नहीं है, तो इसका कल इतना मतलब हआ कि वह तो हमारे संदिग्ध पाया. क्योंकिन वह आदमी बोले। नाचे जरूर, हंसे जरूर: भीतर है, लेकिन हमें उसके भीतर होने का कोई भी पता नहीं है। बोले नहीं! तो समझा कि कोई जासूस है और छावनी के इर्द-गर्द यह ज्ञानगत वक्तव्य है। कुछ पता लगाने आया है। तो उसकी छाती में भाला मार दिया। आपके खीसे में हीरा रखा है। आपको पता नहीं है। आप सड़क उस संन्यासी ने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि मरते वक्त एक बार पर भीख मांग रहे हैं। हीरे के होने और न होने में कोई फर्क नहीं है। बोलूंगा। छाती में भाला लगा, तो बस एक मौका था उसे जीवन में न होता, तो भी आप भीख मांगते; है, तो भी भीख मांग रहे हैं। बोलने का। उसने जो शब्द बोले, वह तत्व से जानता होगा, आप भिखारी हैं। हीरा आपकी जेब में पड़ा है। हीरा है या नहीं है, इसलिए बोले। . बराबर है। उसके होने, न होने का कोई भी बाजार के मूल्य में फर्क | उसने उपनिषद के महावचन का उपयोग किया, तत्वमसि नहीं है। श्वेतकेतु। उसने कहा, दैट आर्ट दाउ श्वेतकेतु। उस अंग्रेज से, लेकिन आपका हाथ खीसे में जाए। कोई आपको खीसे का पता जिसने छाती में भाला भोंका, उससे कहा कि तुम भी परमात्मा हो, बता दे। आप हाथ भीतर डालें। हीरा आपको मिल जाए। तो आप श्वेतकेतु। और गिर गया। यही कहेंगे कि हीरा मुझे मिला। लेकिन ज्यादा उचित होगा कहना मृत्यु के क्षण में जब कोई छुरा भोंक रहा हो छाती में या भाला कि हीरा मेरे पास था; मुझे मिला ही हुआ था; सिर्फ मुझे पता नहीं | | भोंक रहा हो, तब भी उसमें परमात्मा को देखने की क्षमता तत्व से था। मुझे स्मरण आया। मुझे पहचान आई। मैंने जाना कि हीरा है। आती है, विश्वास से नहीं आती। मान लेने से नहीं आती, समझ कृष्ण का अर्थ है यहां कि जो पुरुष मेरी योगशक्ति को तत्व से लेने से नहीं आती, जान लेने से आती है। जानता है, वह निश्चित हो जाता है। वह जानता है कि परमात्मा में तो एक तो ईश्वर की धारणा है, जो हम समझ लेते हैं बुद्धिगत मैं स्थापित ही हूं, मिला ही हुआ हूं। उसका हाथ मेरे हाथ तक आ रूप से, इंटलेक्चुअली। उसका बहुत मूल्य नहीं है। एक ईश्वर की ही गया है। सिर्फ मुझे मेरे हाथ को बांधना है, सिर्फ मुझे मेरे हाथ प्रतीति है, जो हम संवेदना से जानते हैं, सेंसिटिवली। इन थोड़े दो को उसके हाथ में दे देना है। हाथ उसका दूर नहीं है। उसके हृदय शब्दों को ठीक से समझ लें-इंटलेक्चुअली, बुद्धि से; संवेदना की धड़कन मेरे हृदय की ही धड़कन है। मेरे हृदय की धड़कन ही से, सेंसिटिवली, प्रतीति से। उसके हृदय की धड़कन भी है। हवाएं छूती हैं शरीर को, तो अनुभव होता है, वही छू रहा है। ऐसा जो तत्व से जानता है! आंख उठती है सूरज की तरफ, तो अनुभव होता है, उसी की रोशनी यह तत्व शब्द का बहुत प्रयोग कृष्ण जगह-जगह करते हैं, सिर्फ | है। फूल खिलता है, तो लगता है, उसी की सुगंध है। कोई सुंदर एक फासला बनाने को कि सुनकर जान लेने से नहीं कुछ होगा। चेहरा दिखाई पड़ता है, तो लगता है, उसी का सौंदर्य है। रोएं-रोएं मैंने आपसे कहा, आपने सुन लिया। एक अर्थ में आपने जान | | से, उठते-बैठते, सोते-चलते, जो भी संवेदना होती है, सभी लिया। आप मान सकते हैं कि ठीक है। मान लिया। लेकिन इससे | संवेदनाओं में उसी का संदेश प्रतीत होता है। तो धीरे-धीरे जीवन कुछ भी न होगा। आपकी जिंदगी तो वैसी ही चलती रहेगी, जैसी | के सब द्वार उसी की खबर लाने लगते हैं। और भीतर एक तब चलती थी, जब आपने यह नहीं जाना था। और जिंदगी में कोई | क्रिस्टलाइजेशन, एक तत्व संगृहीत होता है। और भीतर एक केंद्र, फर्क न पड़ेगा। आदमी क्या मानता है, इससे उसके धार्मिक होने एक सेंटरिंग घटित होती है। का कोई पता नहीं चलता। आदमी कैसा जीता है, इससे उसके ___ उस जानने को, कृष्ण तत्व से जानना कहते हैं। उस जानने को, धार्मिक होने का पता चलता है। तत्व से जानना कहते हैं। अठारह सौ सत्तावन में एक मौन संन्यासी को अंग्रेजों ने छाती | क्या करें इसके लिए? हमारी तो संवेदना बोथली हो गई है, मर में भाला भोंक दिया था, भूल से। नग्न संन्यासी था, मौन था वर्षों गई है। किसी का हाथ भी छूते हैं, तो कुछ पता नहीं चलता। चमड़ी 40 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य से चमड़ी भला स्पर्श करती हो, लेकिन चमड़ी के पार भी कोई चीज | समझने लगता है। धीरे-धीरे नदी के भाव समझने लगता है, मूड छुई जा रही है, इसका पता नहीं चलता। समझने लगता है। नदी कब नाराज है, नदी कब खुश है, कब नदी अभी योरोप और अमेरिका में बड़े व्यापक पैमाने पर प्रयोग | नाचती है और कब नदी उदास होकर बैठ जाती है! कब दुखी होती चलते हैं सेंसिटिविटी के, संवेदना के। लोग गिरोहों में इकट्ठे होते है, कब संतप्त होती है, कब प्रफुल्लित होती है, वह उसके सारे हैं, एक-दूसरे के शरीर को छूने और जानने के लिए कि छूने का स्वाद, उसके सारे अनुभव, नदी की अंतर्व्यथा और नदी का अनुभव क्या है। उसका प्रशिक्षण चलता है। आपको मैं थोड़ा-सा अंतर्जीवन, नदी की आत्मकथा में डूबने लगता है। कोई उदाहरण दूं, तो खयाल में आ जाए। धीरे-धीरे नदी उसके लिए बडी शिक्षक हो जाती है। वह इतना आप गए हैं जुहू के तट पर, रेत में बैठे हुए हैं। आंख बंद कर संवेदनशील हो जाता है कि वह पहले से कह सकता है कि आज लें, रेत को हाथ से छुएं, कांशसली। रेत तो बहुत बार छुई है, बहुत सांझ नदी उदास हो जाएगी। वह पहले से कह सकता है कि आज बार उस पर चले हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, रेत की आपको रात नदी नाचेगी। वह पहले से कह सकता है कि आज नदी कुछ कोई संवेदना नहीं है। आंख बंद कर लें, शांत हो जाएं, विचार शांत गुनगुना रही है, आज उसके प्राणों में कोई गीत है। वर्षों-वर्षों नदी के हो जाने दें, फिर रेत को हाथ से छुएं। उसका टेक्सचर, उसको किनारे रहते-रहते, नदी और उसके बीच जीवंत संबंध हो जाते हैं। अनुभव करें-क्या है-हाथ से छूकर। उलटे हाथ से छुएं; तब नदी ही परमात्मा हो जाएगी। इतनी संवेदना अगर आ जाए, उसकी ठंडक, उसकी गर्मी, एक-एक दाने का अलग-अलग | तो अब किसी और परमात्मा को खोजने जाना न पड़ेगा। भाव। लेट जाएं, सिर रेत में रख लें। आंखें रेत में गपा दें, बंद जिन ऋषियों को गंगा में परमात्मा दिखा, वे कोई आप जैसे गंगा आंखें। अनुभव करें आंखों की पलकों पर-रेत की प्रतीति, रेत के तीर्थयात्री नहीं थे, कि गए, और दो पैसे वहां फेंके, और पंडे से का फैलाव, रेत का अस्तित्व। मुट्ठी में बांधे; अनुभव करें। पूजा करवाई, और भाग आए अपने पाप गंगा को देकर! जिन्होंने एक घंटेभर रेत के साथ संवेदना को विकसित करें। और तब | अपने पुण्य गंगा को नहीं दिए, वे गंगा को कभी नहीं जान पाएंगे। आप पहली दफा अनुभव करेंगे कि रेत में भी बड़े आयाम हैं। पाप भी देकर कहीं कोई जान पा सकता है? उसका भी अपना होना है। रेत के भी बड़े अनुभव हैं, रेत की भी इसलिए हमारे लिए गंगा एक नदी है। हम कितना ही कहें कि बड़ी स्मृतियां हैं, रेत का भी बड़ा लंबा इतिहास है। रेत भी सिर्फ रेत पवित्र है, हम भीतर जानते हैं कि बस नदी है। हम कितना ही कहें, नहीं है। वह भी अस्तित्व की एक दिशा है। और तब बहुत कुछ पूज्य है, लेकिन सब औपचारिक है। प्रतीति होगी। बहुत कुछ प्रतीति होगी। लेकिन जिन्होंने वर्षों-वर्षों गंगा के तट पर रहकर उसके जीवन हरमन हेस ने किताब लिखी है, सिद्धार्थ। उसमें सिद्धार्थ एक | की धार से अपनी जीवन की धार मिला दी होगी, उनको पता चला पात्र है, वह नदी के किनारे वर्षों रहता है, नदी को अनुभव करता | | होगा। तब किसी भी गंगा के किनारे पता चल जाएगा। तब किसी है। कभी नदी जोर में होती है, तूफान होता है, आंधी होती है, तब । खास गंगा के किनारे ही जाने की जरूरत नहीं है, तब कोई भी नदी नदी का एक रूप प्रकट होता है। कभी नदी शांत होती है, मौन होती गंगा हो जाएगी और पवित्र हो जाएगी। है, लीन होती है अपने में, लहर भी नहीं हिलती है, तब नदी का | संवेदना-रेत में भी, वृक्ष के पत्ते में भी, फूल में भी, व्यक्ति एक और ही रूप होता है। कभी नदी वर्षा की नदी होती है, विक्षिप्त | | के हाथों में भी, लोगों की आंखों में भी-जीवन को एक संवेदना और पागल, सागर की तरफ दौड़ती हुई, उन्मत्त। तब नदी में एक बनाएं। सब तरफ से जितना ज्यादा जीवन को स्पर्श कर सकें, उतना उन्माद होता है, एक मैडनेस होती है; उसका भी अपना आयाम है, स्पर्श करें। इस स्पर्श से आपके भीतर एक केंद्र का जन्म होगा। अपना अस्तित्व है। और कभी धूप आती है, गर्मी के दिन आते हैं, वही केंद्र परमात्मा की योगशक्ति को जान पाता है। उसी केंद्र को और नदी सूख जाती है, क्षीण हो जाती है; दीन-दुर्बल हो जाती है, पता चलता है कि जब मैं बहता हूं संवेदना में, और जब मेरे द्वार पतली, एक चांदी की चमकती धार ही रह जाती है। तब उस नदी | खुलते हैं संवेदना के लिए, जब मैं एक नदी के लिए अपने हृदय की दुर्बलता में, उस नदी के मिट जाने में कुछ और है। | के द्वार खोल देता हूं, जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी के लिए खोल धीरे-धीरे सिद्धार्थ उस नदी के किनारे रहते-रहते नदी की वाणी | दे या कोई प्रेयसी अपने प्रेमी के लिए खोल दे, तब एक नदी से भी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 03 गीता दर्शन भाग-508 परमात्मा का ही आगमन शुरू हो जाता है। और जो व्यक्ति अपनी जिसको हम धार्मिक कहते हैं, तथाकथित धार्मिक, वह धार्मिक संवेदना के सभी द्वार खुले रख दे, उस व्यक्ति को, परमात्मा भी | कम, पैथालाजिकल, रुग्ण ज्यादा है। और सब तरफ से अपने को मुझसे मिलने को आतुर है, इसका पता चलेगा। बंद कर लेता है। बुद्धि से यह पता नहीं चलेगा। बुद्धि बहुत आंशिक घटना है, | ठीक धार्मिक तो सब तरफ से अपने को खोल देगा। ठीक और बहुत पुरानी और बासी। संवेदना ताजी, जीवंत घटना है। और धार्मिक तो जहर में भी अमृत को खोज लेगा। और गलत धार्मिक मजा यह है कि बुद्धि तो उधार भी मिल जाती है, संवेदना उधार नहीं अमृत में भी जहर को खोज लेता है। ठीक धार्मिक तो निकृष्ट में भी मिलती। अगर पानी को छूकर मेंने जाना है कि वह ठंडा हे या गर्म, । श्रेष्ठ को अनुभव कर लेगा, और गलत धार्मिक श्रेष्ठ में भी निकृष्ट अगर पानी को छूकर मैंने जाना है कि मैत्रीपूर्ण है कि मैत्रीपूर्ण नहीं, को ही पकड़ पाता है। तो यह मैं ही जान सकता हूं। पानी की ठंडक या पानी की गर्मी, या यह हम पर निर्भर करता है। अगर हमारी संवेदनशीलता प्रगाढ़ पानी की मैत्री या अमैत्री, मेरा ही अनुभव होगी। यह दूसरे के है, तीव्र है, तो हम जीवन में कहीं से भी प्रवेश कर सकते हैं। और अनुभव से मैं नहीं जान सकता हूं। परमात्मा हममें कहीं से भी प्रवेश कर सकता है। परमात्मा की • संवेदनाएं उधार नहीं मिलतीं। लेकिन बुद्धि उधार मिल जाती है। विभूति, उसका ऐश्वर्य हमारे स्मरण में हो, हम उसके ऐश्वर्य को हमारे विश्वविद्यालय, विद्यालय बद्धि को उधार देने का काम कर स्वीकार करने की क्षमता जटाएं. इतने विनम्र हों कि उसके ऐश्वर्य रहे हैं। बुद्धि उधार मिल जाती है; शब्द उधार मिल जाते हैं; को स्वीकार कर सकें और इतने संवेदनशील हों कि उसकी जो संवेदनाएं स्वयं जीनी पड़ती हैं। और इसीलिए तो हम संवेदनाओं | योगशक्ति है, वह भी हमारी प्रतीति का विषय बन सके। से धीरे-धीरे टूट गए। क्योंकि हम इतने उधार हो गए हैं कि जो | | तो कृष्ण ने कहा है, वह पुरुष निश्चल ध्यान योग द्वारा मेरे में उधार मिल जाए, बाजार में खरीदा जा सके, वह हम खरीद लेते हैं। | ही एकीभाव से स्थित होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। ऐसा मिल जाए, वह हम ले लेते हैं, चाहे जिंदगी ही उसके जो पुरुष है, वह निश्चल ध्यान योग द्वारा मुझमें ही एकीभाव से बदले में क्यों न चुकानी पड़े। लेकिन जो खुद जानने से मिलता है, स्थित हो जाता है, यह निस्संदिग्ध है। उतनी झंझट, उतना श्रम कोई उठाने को तैयार नहीं है। इसमें एक बात है. निश्चल ध्यान योग द्वारा। तो हमने धीरे-धीरे जीवन के सब संवेदनशील रूप खो दिए। व्यक्ति का परमात्मा की तरफ जाने का जो उपक्रम है, वह जाने और उन्हीं की वजह से हमें पता नहीं चलता कि परमात्मा भी | । जैसा कम और ठहर जाने जैसा ज्यादा है। व्यक्ति की परमात्मा की पुकारता है, वह भी आता है, वह भी हम से मिलने को आतुर है। तरफ जो यात्रा है, वह दौड़ने जैसी कम और सब भांति रुक जाने चारों तरफ से उसके हाथ हमारी तरफ आते हैं, लेकिन हमें जैसी ज्यादा है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। संवेदनहीन पाकर वापस लौट जाते हैं। जगत में हम जो भी खोजते हैं, वह दौड़कर खोजते हैं। इसलिए परमात्मा की योगशक्ति का अर्थ आपको तभी पता चलना शुरू जगत में जो जितनी तेजी से दौड़ सकता है, उतना सफल होगा। जो होगा, जब आप उसके मिलन की संभावनाएं जहां-जहां हैं, | दूसरों की लाशों पर से भी दौड़ सकता है, वह और भी ज्यादा वहां-वहां अपने हृदय को खोलें। सफल होगा। जो पागल होकर दौड़ सकता है, उसकी सफलता लेकिन जिसको हम साधक कहते हैं आमतौर से, वह तो और | | सुनिश्चित हो जाएगी, जगत में। जितनी तेजी से दौड़ेंगे, उतना बंद कर लेता है। वह अपनी संवेदनाएं और सिकोड़ लेता है। वह | ज्यादा इस जगत में आप सफल हो जाएंगे। लेकिन भीतर आप अपने द्वार-दरवाजे और घबड़ाहट से सब तरफ खीलें ठोक देता है | | विक्षिप्त और पागल भी हो जाएंगे। ठीक परमात्मा की तरफ जाने कि कहीं से कुछ भीतर न आ जाए। सौंदर्य देखकर डरता है कि कहीं | | वाली बात बिलकुल दूसरी है। वहां तो जो जितना शांति से खड़ा वासना न जग जाए। सुंदर फूल देखकर डरता है कि कहीं यह हो जाता है, उतना ज्यादा सफल हो जाता है। शारीरिक सौंदर्य का स्मरण न बन जाए। गीत सुनने में भयभीत होता जब आप दौड़ते हैं, तो आपका मन भी दौड़ता है। मन दौड़ता है, क्योंकि गीत की कोई गहरी कड़ी भीतर छिपी किसी वासना को है, इसीलिए तो आप दौड़ते हैं। आप तो पीछे जाते हैं मन के मन जगा न दे। संगीत से डरता है। सब तरफ से भयभीत हो जाता है। बहुत पहले जा चुका होता है। अगर आपको लाख रुपए पाने हैं, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य तो मन तो पहुंच गया लाख पर; अब आपको दौड़कर यात्रा पूरी संसार में कुछ पाना हो तो दौड़ो; और परमात्मा में कुछ पाना हो कर लेनी है। मन तो पहंच चका. अब आप आ जाएं। | तो ठहरो, स्टाप। जहां हो भीतर, वहीं ठहराव हो जाए; कोई चीज अगर आपको एक बड़ा मकान बनाना है, मन ने बना डाला। | दौड़ती न हो, कोई तरंग न उठती हो। बड़ा कठिन है। हम तरंगें अब आप जो और जरूरी काम रह गए करने के, वे कर डालें और | बदल सकते हैं, वह आसान है। वहां पहुंच जाएं। लक्ष्य तो मन पहले ही पा लेता है, फिर शरीर मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम समझे। लेकिन कुछ उसके पीछे घसिटता रहता है। और जब आप बड़े महल में पहुंचते सहारा चाहिए। आप कहते हो, धन के बाबत मत सोचो, नहीं हैं, तब तक आपके मन ने दूसरे बड़े महल आगे बना लिए होते हैं। सोचेंगे। लेकिन फिर हम क्या सोचें? कुछ सोचने को दें। तो हम धर्म इसलिए मन आपको कहीं रुकने नहीं देता, दौड़ाता रहता है। के बाबत सोचेंगे। आप कहते हैं, हिसाब-किताब, खाता-बही को ___ मन दौड़ता है, इसलिए आप दौड़ते हैं। आपकी दौड़ आपके भूल जाएं; ठीक। तो हमें कोई रामायण, कोई महाभारत, कोई गीता, मन का ही प्रतिफलन है। जब मन ठहर जाता है, तो आप भी ठहर | | कुछ हमें पकड़ा दें, हम उसमें लग जाएं। लेकिन कुछ चाहिए! जाते हैं। परमात्मा में जिसे जाना है, उसे संसार से ठीक उलटा ___ ध्यान रहे, खाते-बही में लगा हुआ मन, दूसरा खाता-बही मिल उपक्रम पकड़ना पड़ता है। उसे ठहर जाना पड़ता है, उसे रुक जाना | जाए, तो उसे कोई अड़चन नहीं है; उसमें लग जाएगा। नाम कुछ पड़ता है। भी हो, उसमें लग जाएगा। लेकिन उससे कहो, नहीं, किसी में भी निश्चल ध्यान योग का अर्थ है, मन की ऐसी अवस्था, जहां कोई | मत लगो। बस, खाली रह जाओ थोड़ी देर। तो बहुत घबड़ाहट दौड़ नहीं है। मन की ऐसी अवस्था, जहां कोई भविष्य नहीं है। मन | होती है कि यह कैसे हो सकता है! यह कैसे हो सकता है! की ऐसी अवस्था, जहां कोई लक्ष्य नहीं है। मन की ऐसी अवस्था एक पागल आदमी पश्चिम की तरफ दौड़ रहा है। हम उससे कि मन कहीं आगे नहीं गया है. यहीं है. अभी. इसी क्षण. कहीं कहते हैं. रुक जाओ। व्यर्थ मत दौडो। वह कहता है. मैं रुक सकता नहीं गया है। इसका नाम है, निश्चल ध्यान योग। हूं, पश्चिम की तरफ नहीं दौडूंगा; तो मुझे पूरब की दिशा में दौड़ने आमतौर से लोग सोचते हैं, ध्यान का मतलब है, परमात्मा पर | दो। मगर दौड़ने दो। ध्यान लगाना। अगर आपने परमात्मा पर ध्यान लगाया, तो ___ अब पागलपन उसका पश्चिम में दौड़ने के कारण नहीं है, दौड़ने परमात्मा तो बहुत दूर है, आपका ध्यान दौड़ेगा; परमात्मा की तरफ | | के कारण है। तो पूरब में दौड़े, तो कोई फर्क नहीं पड़ता; कि दक्षिण दौड़ेगा, लेकिन दौड़ेगा। और जब तक चित्त किसी भी तरफ | | में दौड़े, कि उत्तर में दौड़े, कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन वह पागल दौड़ता है, तब तक परमात्मा को नहीं जान सकता। एक बहुत | यह कहता है कि पश्चिम से दिक्कत होती है? पश्चिम न दौड़ेंगे! पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी बात है। पूरब दौड़ने दो, दक्षिण दौड़ने दो, उत्तर दौड़ने दो। कहीं भी दौड़ने जो लोग परमात्मा को पाना चाहते हैं, उन्हें परमात्मा को पाने की दो। पूरब को छोड़ देते हैं, लेकिन दौड़ को नहीं छोड़ सकते। चिंता भी छोड़ देनी पड़ती है। वह चिंता भी बाधा है। वह भी वासना | पागलपन दौड़ में है, पूरब में नहीं है। धन में पागलपन नहीं है। वासना है, लेकिन वासना है। तो जो परमात्मा को भी ध्यान रहे। इसलिए जनक जैसा आदमी धन के बीच भी गैर-पागल पाने के लिए बेचैन है...। कोई धन पाने के लिए बेचैन है, कोई | हो सकता है। धन में कोई पागलपन नहीं है। यश में भी कोई यश पाने के लिए बेचैन है, कोई ईश्वर को पाने के लिए बेचैन है। पागलपन अपने में नहीं है। पागलपन दौड़ में है। धन का पागल लेकिन बेचैनी है। जब कभी-कभी धन से ऊब जाता है और सभी चीजों से जिंदगी . ध्यान रहे, धन मिल सकता है बेचैनी के साथ। यश भी मिल में हम ऊब जाते हैं-धन हो गया, हो गया, दौड़ भी हो गई, तो सकता है बेचैनी के साथ। परमात्मा नहीं मिल सकता है बेचैनी के | वह कहता है, अब धर्म के लिए दौड़ेंगे, लेकिन दौड़ेंगे जरूर। साथ। क्योंकि परमात्मा को पाने की तो पहली शर्त ही यही है कि | | दुनिया के तर्क अंत तक पीछा करते हैं। दौड़ एक तर्क है, कि चैन आ जाए, भीतर सब चुप और मौन हो जाए, सब ठहर जाए। सब चीजें दौड़कर पाई जा सकती हैं। कोई चीज ऐसी भी है, जो दौड़ ईश्वर को वे पाते हैं, जो खड़े हो जाते हैं, ठहर जाते हैं, रुक जाते | | छोड़कर पाई जा सकती है, वह हमारे तर्क का हिस्सा नहीं है। हैं। उलटी बात है। सूत्र बना सकते हैं हम। परमात्मा अगर कहीं और होता, तो आपको दौड़कर मिल जाता। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-50 लेकिन परमात्मा वहीं है, जहां आप हैं। इसलिए दौड़कर वह नहीं थे, वह यहीं मौजूद है। लेकिन बिना दौड़े यह भी पता नहीं चलता। मिलेगा। दूसरे को पाना हो, तो दौड़कर पा सकते हैं। खुद को पाना | | दौड़कर भी पता चल जाए, तो बहुत है। हम काफी दौड़ लिए, हो, तो दौड़कर कैसे पाइएगा! खुद को पाने के लिए दौड़ बिलकुल | फिर भी कुछ पता नहीं चलता। एक चीज चूकती ही चली जाती बेमानी है, पागलपन की बात है। | हैजो हम हैं, जो भीतर है, जो यहां और अभी है, वह हमें पता इसलिए झेन फकीर हुवांग पो ने कहा है कि जो ईश्वर को खोजने | नहीं चलता। निकलेगा, वह खो देगा। निकलना ही मत खोजने। निश्चल ध्यान योग का अर्थ है, दौड़ को छोड़ दें और कुछ घड़ी बुद्ध घर लौटे। रवींद्रनाथ ने एक बहुत व्यंग्य-कथा लिखी है, बिना दौड़ के हो जाएं; कुछ घड़ी, घड़ीभर, आधा घड़ी, बिना दौड़ एक व्यंग्य-गीत लिखा है। बुद्ध घर लौटे। यशोधरा नाराज थी। के हो जाएं। ध्यान का इतना ही अर्थ है। छोड़कर, भागकर चले गए थे। गुस्सा स्वाभाविक था। और बुद्ध | ध्यान का यह मतलब नहीं है कि आप लेकर माला, और माला इसीलिए घर लौटे कि उसको एक मौका मिल जाए। बारह वर्ष का | | | के साथ दौड़ने लगें। वह दौड़ है। एक गुरिया हटाया, दूसरा हटाया, लंबा क्रोध इकट्ठा है, वह निकाल ले। तो एक ऋण ऊपर है, वह | जल्दी हटाए, चक्कर लगाए माला का। लंबा दौड़ नहीं लगा रहे हैं भी छूट जाए। आप; माला में चक्कर मार रहे हैं। छोटे बच्चे होते हैं न, उनको बुद्ध वापस लौटे। तो रवींद्रनाथ ने अपने गीत में यशोधरा द्वारा एक कोने में खड़ा कर दो, तो वहीं कूदते रहेंगे। यह माला वाला बुद्ध से पुछवाया है; और बुद्ध को बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। वही काम कर रहा है। छोटे बच्चे हैं, उनसे कहो, मत दौड़ो। ठीक यशोधरा से पुछवाया है रवींद्रनाथ ने। यशोधरा ने बुद्ध को है। आन दि स्पाट! वे वहीं उछल-कूद करते रहेंगे। उछल-कूद जो बहुत-बहुत उलाहने दिए और फिर कहा कि मैं तुमसे यह पूछती हूं उनके भीतर चल रही थी, वह जारी रहेगी। इससे कोई फर्क नहीं कि तुमने जो घर से भागकर पाया, वह क्या घर में मौजूद नहीं था? | | पड़ता कि जगह कितनी घेरी। एक छोटे-से गोल घेरे में आदमी दौड़ बुद्ध बड़ी मुश्किल में पड़ गए। यह तो वे भी नहीं कह सकते | | सकता है। माला फेर रहा है कोई। कोई बैठकर राम-राम, कि घर में मौजूद नहीं था। और अब पाकर तो बिलकुल ही नहीं कह | | राम-राम, राम-राम किए चला जा रहा है। लेकिन दौड़ जारी है। सकते। अब पाकर तो बिलकुल ही नहीं कह सकते। आज से बारह | ___ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप माला मत फेरना। बुरा नहीं है। साल पहले यशोधरा ने अगर कहा होता कि तुम जिसे पाने जा रहे आधा घंटा माला फेरी, न मालूम कितने उपद्रव नहीं किए, वह भी हो, क्या वह घर में मौजूद नहीं है? तो बुद्ध निश्चित कह सकते थे | | काफी है। अपनी जगह पर ही कूद रहे हैं, दूसरे के घर में नहीं कूदे, कि अगर मौजूद घर में होता, तो अब तक मिल गया होता। नहीं | | यह भी काफी है। है, इसलिए मैं खोजने जा रहा हूं। लेकिन अब तो पाने के बाद बुद्ध | मैं यह नहीं कह रहा कि आप माला मत फेरना। फेरना जरूर, को भी पता है कि जो पाया है, वह घर में भी पाया जा सकता था। | लेकिन मत यह समझ लेना कि वह ध्यान है। वह ध्यान नहीं है। तो बुद्ध बड़ी मुश्किल में पड़ गए। ___ मैं यह भी नहीं कह रहा कि आप राम-राम मत करना। मजे से रवींद्रनाथ तो बुद्ध को मुश्किल में देखना चाहते थे, इसलिए | कर लेना। क्योंकि कुछ तो आप करेंगे ही। कुछ तो करेंगे ही, बिना उन्होंने बात आगे नहीं चलाई। लेकिन मैं नहीं मानता हूं कि बुद्ध | | किए तो रह नहीं सकते। तो एक फिल्म स्टार का नाम लेने से उत्तर नहीं दे सकते थे। वह रवींद्रनाथ बुद्ध को दिक्कत में डालना | | राम-राम का नाम लेना बहुत बेहतर है। कुछ न कुछ तो भीतर चलेगा चाहते थे, इसलिए बात यहीं छोड़ दी उन्होंने। यशोधरा ने पूछा, | | ही, खोपड़ी आपकी चुप नहीं रह सकती। तो ठीक है, राम प्यारा और बुद्ध मुश्किल में पड़ गए। लेकिन निश्चित मैं जानता हूं कि | | शब्द है, उसको दोहरा लेना। लेकिन उसे ध्यान मत समझ लेना। अगर बुद्ध से ऐसा यशोधरा पूछती, तो बुद्ध क्या कहते! | ध्यान का तो मतलब ही निश्चल ध्यान होता है। ध्यान का तो बुद्ध ने निश्चित कहा होता कि मैं भलीभांति जानता हूं कि जिसे | मतलब ही निश्चल हो जाना होता है, मन का बिलकुल न मैंने पाया, वह यहां भी पाया जा सकता है। लेकिन बिना दौड़े यह दौड़ना—न माला में, न राम में, न स्वर्ग में, न मोक्ष में कहीं भी पता चलना मुश्किल था कि दौड़ व्यर्थ है। यह दौड़कर पता चला। न दौड़ना। मन का ठहर जाना, रुक जाना। एक क्षण को भी ऐसी दौड़-दौड़कर पता चला कि बेकार दौड़ रहे हैं। जिसे खोजने निकले घड़ी बन जाए, एक क्षण को भी ऐसा परम मुहूर्त आ जाए, जब . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य आपका मन कुछ भी न कर रहा हो, कहीं भी न जा रहा हो, गोइंग __गुरु आंख बंद करके अपने ध्यान में चला गया। वे चारों बड़ी नो व्हेयर, वहीं रह गया हो जहां आप हैं। | मुश्किल में पड़े! कुछ करने को दे देता, तो ठीक था। कुछ करने तो कृष्ण कहते हैं, निश्चल ध्यान योग द्वारा मेरे में ही एकीभाव को नहीं दिया, और चुप बैठे रहना! एक दो-चार मिनट ही बीते से स्थित होता है। जैसे ही यह निश्चल ध्यान फलित होता है, वैसे होंगे, उनमें से एक ने कहा कि रात हो गई और दीया अब तक जला ही व्यक्ति मुझ में एकीभाव से स्थित हो जाता है। तब उसमें और नहीं। दूसरे ने कहा कि क्या कर रहा है! मौन के लिए कहा है! तीसरे मुझमें जरा भी फासला नहीं है। तब उसके और मेरे बीच जरा भी | | ने कहा कि दोनों नासमझ हो। मौन तोड़ दिया। नसरुद्दीन अब तक दूरी नहीं है। | चुप था, वह खिलखिलाकर हंसा और उसने कहा कि सिर्फ मुझे इसका मतलब हुआ, दौड़ ही दूरी है। जितना आप दौड़ते हैं, | छोड़कर और कोई भी मौन नहीं है! उतना ही आप दूर हैं। इसका अर्थ हुआ, रुक जाना ही पहुंच जाना | एक क्षण चुप रहना भी बहुत मुश्किल है। कोई बहाना मिल ही है। इसका अर्थ हुआ, ठहर जाना ही मंजिल है। जैसे ही कोई शांत | जाएगा। एक क्षण ठहरना मुश्किल है, दौड़ का कोई कारण मिल ठहर जाता है, अचानक द्वार खुल जाता है। उस ठहरेपन में ही, उस ही जाएगा। एक क्षण ठहरना मुश्किल है, कोई न कोई वासना वेग शांत क्षण में ही, वह एक हो जाता है परमात्मा से। द्वैत टूट जाता | बन जाएगी और आपको उडाले जाएगी। इसलिए जब मैं कह रहा है, दुई मिट जाती है। था, तब मैं आपकी आंखों में देख रहा था, तब मुझे खयाल आया एकीभाव से स्थित होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। | कि यह कृष्ण को बार-बार कहना पड़ता है, इसमें कुछ भी संशय कृष्ण को न मालूम कितनी बार गीता में अर्जुन से कहना पड़ता | | नहीं है। ये बेचारे अर्जुन को बार-बार देखकर समझते होंगे कि है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। अर्जुन की आंख में संशय दिखाई | | संशय आ रहा है, अब इसकी पकड़ के बाहर हुई जा रही है बात। पड़ता होगा बार-बार, इसलिए वे कहते हैं, इसमें कुछ भी संशय तब उन्हें बलपूर्वक कहना पड़ता है कि अर्जुन, इसमें कोई संशय नहीं है। यह अर्जुन के बाबत खबर है। क्योंकि कृष्ण इसे दोहराएं, नहीं है। ऐसा करेगा, तो ऐसा हो ही जाएगा। बुद्ध ने बहुत बार कहा यह सार्थक नहीं है। इसको बार-बार कहने की कोई जरूरत नहीं है है, ऐसा करो और ऐसा होगा ही। ऐसा मत करो, और ऐसा कभी कि इसमें कोई संशय नहीं है। लेकिन अर्जुन की आंख में संशय | नहीं होगा। दिखाई पड़ता होगा। जीवन भी एक गहन कार्य-कारण है, एक गहरी काजेलिटी है। अभी जब मैं कह रहा था, अगर उस वक्त आपकी आंखों के | अगर कोई ठहर जाए, तो परमात्मा से मिलन होगा ही। यह हो चित्र पकड़े जा सकें, जब मैं कह रहा था कि दौड़ें मत, ठहर जाएं; सकता है कि कभी सौ डिग्री पर पानी भाप न बने, और यह भी हो एक क्षण को मन बिलकुल रुक जाए, तो आप परमात्मा के साथ | | सकता है कि कभी आपको ऊपर की तरफ फेंक दें और जमीन का एक हो जाएंगे; उस वक्त अगर आपकी आंख के चित्र लिए जा | | गुरुत्वाकर्षण काम न करे, जगत के सब नियम भला टूट जाएं, एक सकें, तो मुझे भी कहना पड़ेगा कि इसमें कोई भी संशय नहीं! | नियम शाश्वत है कि जिसका मन ठहरा, वह परमात्मा से तत्क्षण क्योंकि आपकी आंख बता रही है कि यह नहीं होने वाला। यह कैसे | | एक हो जाता है। उसमें कुछ भी संशय नहीं है। लेकिन वह ठहरना होगा! इतनी सरल बात कह रहे हैं आप! दुरूह और कठिन बात है। लेकिन यह बहुत कठिन है, यह रुकना हो नहीं सकता। मन तो | ___ मैं ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूं और मेरे से ही सब चलता ही रहेंगा, मन तो चलता ही रहेगा, वह रुकेगा ही नहीं। और | | जगत चेष्टा करता है। इस प्रकार तत्व से समझकर, श्रद्धा और भक्ति उसके चलने के ढंग इतने अजीब हैं, जिसका हिसाब नहीं है! | | से युक्त हुए बुद्धिमानजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं। ___ मुल्ला नसरुद्दीन अपने तीन मित्रों के साथ एक गुरु के पास गया | | आखिरी बात। मैं ही कारण हूं समस्त अस्तित्व का, मुझसे ही था ध्यान सीखने। तो गुरु ने कहा कि एक काम करो, ध्यान तो बहुत | | सारा जगत चेष्टा करता है, मैं ही गति हूं, इस प्रकार तत्व से समझ दूर की बात है; सांझ हो गई है, सूरज ढल गया है, तुम एक घड़ीभर | | कर, श्रद्धा और भक्ति से युक्त हुए बुद्धिमानजन मुझ परमेश्वर को के लिए चुप बैठ जाओ चारों। एक घंटेभर तुम बिलकुल चुप | निरंतर भजते हैं। रहना। फिर मैं तुमसे पीछे बात कर लूंगा। अभी मैंने कहा कि हम राम-राम, कृष्ण-कृष्ण, हरि-हरि, कुछ 45 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 कहते रहें, उससे कुछ होगा नहीं। आप कहेंगे, कृष्ण तो कहते हैं कि मुझे निरंतर भजते हैं! इसमें ध्यान रखना, निरंतर शब्द कीमती है। अगर आप राम-राम कहते हैं, तो भी भजन निरंतर नहीं होगा, क्योंकि दो राम के बीच में थोड़ी-सी जगह तो बिना राम के छूट ही जाएगी। मैंने कहा, राम; मैंने फिर कहा, राम, बीच में थोड़ी जगह छूट ही जाएगी। इसलिए कोई कितनी ही तेजी से राम-राम कहे, वह निरंतर भजन नहीं है; उसमें बीच में गैप होंगे; डिसकंटिन्युटी हो जाएगी। निरंतर भजन का तो एक ही अर्थ हो सकता है कि शब्द न हो, भाव हो, क्योंकि भाव में गैप नहीं होता । भाव में बीच-बीच में अंतराल नहीं होते; शब्द में तो अंतराल होते हैं। शब्द में तो अंतराल होंगे ही, नहीं तो एक शब्द दूसरे शब्द के ऊपर चढ़ जाएगा और शब्दों का अर्थ ही खो जाएगा। वह तो एक्सिडेंट हो जाएगा, जैसे मालगाड़ी टकरा जाएं दो, और डिब्बे एक-दूसरे के ऊपर चढ़ । शब्दों में तो अंतराल जरूरी है। एक शब्द और दूसरे शब्द के बीच में खाली जगह है। उस खाली जगह में क्या है? जब मैं कहता हूं, राम; और जब मैं कहता हूं, राम; दो राम के बीच में क्या है ? वहां तो राम नहीं होगा। या आप कहेंगे कि हम तीसरा राम वहां रख लेंगे। तो ध्यान रहे, तीसरा राम रख लेंगे, तीन राम हो जाएंगे तीन अंगुलियों की तरह, तो दो अंतराल हो जाएंगे एक ही जगह; ' दो खाली जगह हो जाएंगी! और आप यह सोचते हों कि हम दो में और दो रख लेंगे, तो ध्यान रखना, अंतराल उतने ही बढ़ जाएंगे। अंतराल, इंटरवल, तो रहेगा ही शब्दों में। सिर्फ भाव अविच्छिन्न होता है। लेकिन भाव बड़ी और बात है। समझाना कठिन है। कबीर ने कहा है...। किसी ने कबीर से पूछा कि कैसे उसका स्मरण करें कि अविच्छिन्न हो? कैसे उसका भजन हो कि बीच में कुछ अंतराल न हो, सतत हो, निरंतर हो? तो कबीर ने कहा, बड़ी कठिन बात पूछी। जाओ नदी के किनारे, वहां से ग्राम-वधुएं पानी भरकर मटकियां सिर पर लेकर गांव की तरफ लौट रही होंगी। तुम जरा उन्हें गौर से देखना । गांवों में ग्राम-वधुएं नदी से पानी भरकर घड़ा सिर पर रखकर लौटती हैं, दोनों हाथ छोड़ देती हैं; घड़ा सिर पर होता है। चर्चा करती रहती हैं । गीत भी गा सकती हैं। यात्रा भी करती हैं, चलती भी हैं। लेकिन उस घड़े का स्मरण तो पूरे समय बना रहता है, नहीं तो वह गिर जाए। लेकिन वह स्मरण है शब्दरहित; जस्ट ए 46 रिमेंबरिंग विदाउट एनी वर्ड्स; सिर्फ स्मरण है। घड़ा सिर पर है, उसका सिर्फ स्मरण है, भाव है। जरा ही घड़ा डिगेगा, हाथ सम्हाल | लेगा। फिर बातचीत वे करने लगेंगी। भाव का अर्थ है, शब्दरहित बोध | एक मां है, सो रही है, उसका बच्चा उसके पास सो रहा है। | वैज्ञानिक चिंतक बड़े हैरान हुए। तूफान आ जाए, आकाश में बादल गड़गड़ाने लगें, बिजलियां कौंधने लगें, मां की नींद नहीं खुलती । और बच्चा जरा-सा, जरा-सा हिले-डुले, जरा-सी आवाज कर दे, और मां का हाथ बच्चे के ऊपर पहुंच जाता है। क्या मामला होगा ? आकाश में बादल गरजते हों, तो मां की नींद नहीं टूटती; और | बच्चा जरा-सा कुरमुर कर दे, तो उसकी नींद टूट जाती है! तो मनोचिकित्सक सोचते थे बहुत कि बात क्या होगी ? तब खयाल में आना शुरू हुआ कि कोई एक शब्दरहित स्मरण, जो भीतर रात नींद में भी मौजूद रहता है! शब्दरहित स्मरण, नींद में भी बना रहता है। वह जो प्रतीति है, कृष्ण उसी प्रतीति के लिए कह रहे हैं। श्रद्धा और भक्ति से युक्त हुए बुद्धिमानजन मुझ परमेश्वर को निरंतर भजते हैं। निरंतर भजते हैं अर्थात निरंतर मेरे भाव में रहते हैं। S भाव क्या है? भाव, वह निश्चल ध्यान के द्वारा एकता की जो प्रतीति हुई है, उस प्रतीति को सतत बनाए रखते हैं। बनाए रखते हैं, कहना ठीक नहीं; बनी रहती है। निश्चल ध्यान योग से जो प्रतीति होती है, उस प्रतीति का स्मरण भीतर ऐसे ही बना रहता है, जैसे श्वास चलती रहती है। श्वास में भी गैप होते हैं, उसमें वह गैप भी नहीं होते । श्वास भी चलती है, फिर थोड़ी रुकती है, फिर निकलती है; उसमें भी अंतराल होते हैं, आना-जाना होता है। लेकिन स्मरण सतत होता है। उस सतत भाव की दशा का नाम ही भक्ति है। और सतत भाव की दशा का नाम ही भजन है। आज इतना ही। पांच मिनट रुकें। शायद उस भजन का कोई खयाल यहां चलने वाले भजन से आ जाए। पांच मिनट रुकें। कोई उठे नहीं। जब मैं यहां से उठूं, तभी आपको उठना है। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 चौथा प्रवचन ध्यान की छाया है समर्पण Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ गीता दर्शन भाग-5 मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। ९ ।। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। १० ।। तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्था ज्ञानदीपेन भास्वता । । ११ ॥ और वे निरंतर मेरे में मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा ! और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझ में ही निरंतर रमण करते हैं। उन निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्वज्ञान रूप योग देता हूं, जिससे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं। और हे अर्जुन, उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही मैं स्वयं उनके अंतःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ अज्ञान से उत्पन्न हुए अंधकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक द्वारा नष्ट करता हूं। म न की दो अवस्थाएं हैं, एक दौड़ता हुआ मन, एक ठहरा हुआ मन । दौड़ता हुआ मन, निरंतर ही जहां होता है, वहां नहीं होता। ऐसा समझें कि दौड़ता हुआ मन कहीं भी नहीं होता। दौड़ता हुआ मन सदा ही भविष्य में होता है । आज नहीं होता, अभी नहीं होता, यहां नहीं होता । कल, आगे, कहीं और, कल्पना में, सपने में, कहीं दूर भविष्य में होता है। और भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है वर्तमान का, अभी का, इसी क्षण का । जब कहता हूं इसी क्षण का, इतना कहने में भी वह क्षण वर्तमान का जा चुका। इतनी भी देर हम वर्तमान के क्षण को चूक जाते हैं। जानने में जितना समय लगता है, उतने में भी वर्तमान चुका होता है। एक क्षण हमारे हाथ में है अस्तित्व का, लेकिन मन सदा वासना में, भविष्य में होता है। भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं । इसलिए दौड़ता हुआ मन कहीं होता ही नहीं। जहां हो सकता है, वहां होता नहीं; और जहां हो ही नहीं सकता, वहां होता है। वर्तमान में हो 48 सकता था, लेकिन वर्तमान में दौड़ता हुआ मन नहीं होता। आप वर्तमान में दौड़ नहीं सकते; जगह नहीं है, स्पेस नहीं है। दौड़ने के लिए भविष्य का विस्तार चाहिए। वासना के लिए अनंत विस्तार चाहिए। वर्तमान का क्षण बहुत छोटा है। उस छोटे-से क्षण में आपकी वासना न समा सकेगी। यह जो दौड़ता हुआ मन है, यह दौड़ता ही रहता है। कहीं भी ठहरने का इसे उपाय नहीं है। ठहर सकता है, वर्तमान में, वहां ठहरता नहीं। और भविष्य तो है नहीं। वहां सिर्फ दौड़ सकता है। ठहरने की वहां कोई सुविधा नहीं है। यह दौड़ता हुआ मन ही हमारी बीमारी है, रोग है । अगर अधार्मिक आदमी की हम कोई परिभाषा करना चाहें, तो वह परिभाषा ऐसी नहीं हो सकती है। वह आदमी, जो ईश्वर को | न मानता हो। क्योंकि ऐसे बहुत-से व्यक्ति हुए हैं, जो ईश्वर को नहीं मानते और धार्मिक हैं। महावीर हैं, बुद्ध हैं, वे ईश्वर को नहीं मानते हैं, पर परम धार्मिक हैं। उनकी आस्तिकता में रत्तीभर भी संदेह नहीं । और अगर बुद्ध और महावीर की धार्मिकता में संदेह होगा, तो इस पृथ्वी पर फिर कोई भी आदमी धार्मिक नहीं हो सकता। अधार्मिक आदमी उसे नहीं कह सकते हैं, जो ईश्वर को न मानता हो। अधार्मिक आदमी उसे भी नहीं कह सकते, जो वेद को न मानता हो, बाइबिल को न मानता हो, कुरान को न मानता हो । | अधार्मिक आदमी केवल उसे कह सकते हैं कि जिसके पास केवल दौड़ता हुआ मन है, ठहरे हुए मन का जिसे कोई अनुभव नहीं । फिर वह कुछ भी मानता हो - ईश्वर को मानता हो, आत्मा को मानता हो; वेद को, कुरान को, बाइबिल को मानता हो – अगर दौड़ता | हुआ मन है, तो वह आदमी धार्मिक नहीं है। और फिर चाहे वह कुछ भी न मानता हो, लेकिन अगर ठहरा हुआ मन है, तो वह आदमी धार्मिक है। क्योंकि मन जहां ठहरता है, वहीं तत्क्षण उस परम सत्ता से संबंध जुड़ जाता है। हम उसे क्या नाम देते हैं, यह गौण बात है। कोई उसे ईश्वर कहे, यह उसकी मर्जी । और कोई उसे आत्मा कहे, यह भी उसकी मर्जी । और कोई उसे कोई भी नाम न देना चाहे, यह भी उसकी मर्जी । और कोई उसके संबंध में चुप रह जाए, यह भी उसकी मर्जी । कोई उसे शून्य कहे, कोई उसे मिट जाना कहे, कोई उसे पूरा हो जाना कहे, यह उसकी मर्जी की बात है। लेकिन जहां मन ठहरा, वहीं आदमी धार्मिक हो जाता है। इस मन को ठहराने के लिए कल के सूत्र में कृष्ण ने जो शब्द Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ध्यान की छाया है समर्पण उपयोग किया है, उसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें, तो इस सूत्र में | | फैलाकर आकाश में उड़ता है। और अंडा अगर रुका रह जाए, तो प्रवेश आसान हो जाएगा। समझना कहना शायद ठीक नहीं, जो अंडा पक्षी को सम्हालने के लिए था, उसकी सुविधा और क्योंकि समझ तो हम बहुत बार लेते हैं, फिर भी कोई समझ पैदा | व्यवस्था के लिए था, उसकी सुरक्षा के लिए था, वही–वही उसके नहीं होती। शायद उचित होगा कहना कि हम उस सूत्र को थोड़ा कर | लिए कब्र बन जाएगा। अंडे को टूटना ही चाहिए। लें, तो यह सूत्र समझ में आ सकेगा। 'मन जरूरी है। आदमी बिना मन के पैदा हो, तो वैसा ही होगा कृष्ण ने कहा है, निश्चल ध्यान योग को जो उपलब्ध होता है, | जैसा बिना अंडे के कोई पक्षी पैदा हो, तो मुश्किल में पड़ जाए। वह मेरे में एकीभाव से ठहर जाता है। मन बिलकुल जरूरी है; लेकिन अंडे की तरह ही जरूरी है। एक निश्चल ध्यान योग क्या है, वह मैंने कल आपसे कहा। लेकिन सीमा तक साथी है, एक सीमा के बाद दुश्मन हो जाता है। एक कैसे आप उसे कर सकते हैं, वह मैं आज आपसे कहना चाहूंगा। | जगह तक बचाता है, एक सीमा के बाद हानि पहुंचाने लगता है। क्या है, एक बात है; कैसे किया जा सकता है, बिलकुल दूसरी बात | एक सीमा तक सहारा है, एक सीमा के बाद कारागृह हो जाता है। है। निश्चल ध्यान योग का अर्थ समझ लेना एक बात है; निश्चल और हमारा मन करीब-करीब कारागृह है। अनेक-अनेक जन्मों ध्यान योग की प्रक्रिया में उतर जाना बिलकुल दूसरी बात है। और से हम उस मन को लेकर चल रहे हैं, जो हमें कभी का तोड़ देना प्रक्रिया में उतरे बिना कोई भी जान नहीं पाएगा; समझ कितना ही ले। चाहिए था। लेकिन अंडे के भीतर जो छिपा हुआ पक्षी है, उसे भी इसलिए बहुत बार जिन्हें हम समझदार कहते हैं, उनसे नासमझ तो कुछ पता नहीं आकाश का। और उसे यह भी तो डर समाता आदमी खोजने मश्किल होते हैं। वे सब समझते हैं और जानते कछ होगा कि अंडे को तोड दं तो फिर मेरा क्या होगा। वही तो मेरी भी नहीं। सच तो यह है कि वे इतना समझते हैं कि सोचते हैं, जानने | | सुरक्षा है, वही मेरी आड़ है, उसी से तो मैं बचा हूं; वह मेरा घर है। की अब कोई जरूरत ही न रही। शब्द का उनके पास भंडार हो | स्वाभाविक है कि हम मन को ही अपनी सुरक्षा मानकर जीते हैं। सकता है, अनुभव का उनके पास कण भी नहीं होता। अनुभव का | | इसलिए अगर कोई आपके शरीर को बीमार कह दे, तो आप नाराज संबंध, ध्यान क्या है, इसे समझने से नहीं है; ध्यान कैसे होता है, नहीं होते। कोई अगर कह दे कि आप दुबले दिखाई पड़ते हैं, बीमार इसमें उतर जाने से है। मालूम होते हैं, तबीयत खराब है! तो सहानुभूति मालूम पड़ती है। ध्यान एक अनुभूति है। ध्यान के सैकड़ों प्रकार हैं। और सैकड़ों लगता है, यह आदमी मित्र है। लेकिन कोई आपसे कह दे कि मार्गों से लोग ध्यान को उपलब्ध हो सकते हैं। निश्चल ध्यान योग आपका मन बीमार मालूम पड़ता है, कुछ मन में ज्वर मालूम होता की तरफ पहुंचने के लिए भी सैकड़ों रास्ते हैं। और पृथ्वी पर | | है, मन में कुछ विक्षिप्तता दिखाई पड़ती है, पागलपन मालूम पड़ता अनेक-अनेक रास्तों से चलकर लोग उस क्षण को उपलब्ध हो गए | है। तो फिर यह आदमी मित्र नहीं मालूम पड़ता, यह दुश्मन मालूम हैं, जिसे हम मन का ठहर जाना कहें। एक छोटी-सी प्रक्रिया मैं | | पड़ता है। क्योंकि शरीर को हम अपने से दूर मान पाते हैं, लेकिन आपसे कहूंगा, सरल, जिसे आप कर सकें। मन के साथ तो हम अपने को एक ही मानते हैं। इसलिए जब कोई और आपको निश्चल मन की थोड़ी-सी झलक और छाया भी | कहता है, आपका शरीर बीमार है, तो वह यह नहीं कहता कि आप मिलनी शुरू हो जाए, तो आपकी जिंदगी रूपांतरित होने लगेगी। बीमार हैं। आपका शरीर बीमार है। लेकिन जब कोई कहता है कि एक नए आदमी का जन्म आपके भीतर हो जाएगा। पुराना आदमी आपका मन रुग्ण है, तो आपको तत्काल लगता है कि इसका बिखरने, पिंघलने लगेगा; और एक नई चेतना, एक नया केंद्र, | मतलब हुआ कि मैं पागल हूं, मैं रुग्ण हूं! देखने का एक नया ढंग, जीने की एक नई प्रक्रिया, होने की एक मन के साथ हमारा तादात्म्य. हमारी आइडेंटिटी गहरी है। हमने नई व्यवस्था आपके भीतर पैदा हो जाएगी। जैसे अचानक अंधे की | अपने को मन के साथ एक समझ रखा है। और इस तरह पक्षी अंडे आंख खुल जाए, या जैसे अचानक बहरे को कान मिल जाएं, या | के बाहर होने में असुविधा पाता है, उपाय नहीं रह जाता। अंडे को जैसे अचानक कोई मरा हुआ पुनरुज्जीवित हो जाए; ठीक ध्यान के | ही पक्षी समझ ले कि मेरा होना है, तो कठिनाई हो जाती है। अनुभव से ऐसी ही व्यापक क्रांतिकारी घटना चेतना में घटती है। ___ ध्यान मन के तोड़ने का नाम है। या कहें मन के ठहरने का नाम, मन तो एक अंडे की तरह है। अंडा जब टूटता है, तो पक्षी पंख | या कहें मन के तोड़ने का नाम, या कहें मन के पार हो जाने का Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 नाम, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। एक छोटी प्रक्रिया आपसे कहता | या मुसलमानों को आपने नमाज पढ़ते देखा हो, तो जिस भांति हूं, जिससे आप इस अंडे के बाहर आ सकते हैं। घुटने मोड़कर वे बैठते हैं, वैसे घुटने मोड़कर बैठ जाएं। बच्चे के अगर आपने चित्र देखे हों बच्चों के उनके मां के पेट में, गर्भ | | घुटने ठीक उसी तरह मुड़े होते हैं मां के गर्भ में। आंख बंद कर लें, में। मां के पेट में बच्चा जिस हालत में होता है, गर्भ में, उस | शरीर को ढीला छोड़ दें और श्वास को बिलकुल शिथिल छोड़ दें, अवस्था में मनोवैज्ञानिक कहते हैं, योग की गहरी खोज कहती है, | रिलैक्स छोड़ दें, ताकि श्वास जितनी धीमी और जितनी आहिस्ता कि मां के पेट में जब बच्चा होता है जिस पोश्चर में, जिस आसन आए-जाए, उतना अच्छा। श्वास जैसे न्यून हो जाए, शांत हो जाए। में, उस समय बच्चे के पास न्यूनतम मन होता है, न के बराबर मन श्वास को दबाकर शांत नहीं किया जा सकता है। अगर आप होता है। कह सकते हैं, होता ही नहीं। और बच्चे की चेतना रोकेंगे, तो श्वास तेजी से चलने लगेगी। रोकें मत, सिर्फ ढीला मस्तिष्क में नहीं होती मां के पेट में। और न ही बच्चे की चेतना छोड़ दें। हृदय में होती है। शायद आपको पता न हो कि मां के पेट में बच्चे आंख बंद कर लें, और अपनी चेतना को भीतर नाभि के पास का हृदय नहीं धड़कता। नौ महीने बच्चा बिना हृदय धड़कने के | | ले आएं। सिर से उतारे हृदय पर, हृदय से उतारें नाभि पर। नाभि होता है। के पास चेतना को ले जाएं। श्वास का हल्का-सा कंपन पेट को इसलिए एक बात और समझ लेना कि हृदय की धड़कन से | | नीचे-ऊपर करता रहेगा। आप अपने ध्यान को आंख बंद करके जीवन का कोई संबंध नहीं, क्योंकि बच्चा बिना हृदय की धड़कन | | वहीं ले आएं, जहां नाभि कंपित हो रही है। श्वास के धक्के से पेट के नौ महीने जिंदा रहता है। जीवन और गहरी बात है। ऊपर-नीचे हो रहा है, आंख बंद करके ध्यान को वहीं ले आएं। हमसे अगर कोई पूछे कि आपकी चेतना कहां है, तो सिर पर | | शरीर को ढीला छोड़ते जाएं। थोड़ी ही देर में शरीर आपका आगे हाथ जाएगा। चेतना जब मन में केंद्रित होती है, तो सिर केंद्र हो | | झुकेगा और सिर जाकर जमीन से लग जाएगा। उसे छोड़ दें और जाता है। जब प्रेम में केंद्रित होती है, भाव में केंद्रित होती है, तो | झुक जाने दें। हृदय केंद्र हो जाता है। इसलिए प्रेमी हृदय पर हाथ रखेगा। और जब सिर आपका जमीन से लग जाएगा, तब आप ठीक उस त को सुलझाने वाला आदमी अगर गणित में उलझ जाए, तो हालत में आ गए, जिस हालत में बच्चा मां के पेट में होता है। शांत सिर को खुजलाएगा, हृदय पर हाथ नहीं रखेगा। हाथ जाएगा ही | होने के लिए इससे ज्यादा कीमती आसन जगत में कोई भी नहीं है। नहीं हृदय पर। और प्रेमी अगर प्रेम में पड़ा हो और सिर पर हाथ | | आसन ऐसा हो जाए, जैसा गर्भ में बच्चे का होता है; और आपका रखे, तो बहुत बेहूदा मालूम पड़ेगा। सिर से कोई संबंध नहीं है। । ध्यान नाभि पर चला जाए। बच्चे का ध्यान और चेतना नाभि में चेतना जब भाव में होती है, तो हृदय केंद्र होता है। और चेतना | होती है। आपका ध्यान भी नाभि पर चला जाए। जब विचार में होती है, तो मस्तिष्क केंद्र होता है। लेकिन मस्तिष्क अनेक बार ध्यान उचट जाएगा, कहीं कोई आवाज होगी, ध्यान बहत बाद में विकसित होता है। और हृदय भी नौ महीने के बाद चला जाएगा। कहीं कोई बोल देगा कुछ, ध्यान चला जाएगा। नहीं धड़कता है। उसके भी पहले चेतना एक केंद्र पर होती है, वह नाभि कहीं कुछ होगा, तो भीतर कोई विचार आ जाएगा, और ध्यान हट है। बच्चा मां से नाभि से जुड़ा होता है। जीवन का पहला अनुभव | जाएगा। उससे लड़ें मत। अगर ध्यान हट जाए, चिंता मत करें। बच्चे को नाभि पर होता है। जैसे ही खयाल में आए कि ध्यान हट गया, वापस अपने ध्यान को जिन लोगों को मन के पार जाना है. उन्हें हृदय. मस्तिष्क दोनों नाभि पर ले आएं। किसी कलह में न पड़ें, किसी कांफ्लिक्ट में न से उतरकर नाभि के पास वापस लौटना होता है। अगर आप फिर | पडें कि यह मन मेरा क्यों हटा। यह मन बडा चंचल है. यह क्यों से अपनी चेतना को नाभि के पास अनुभव कर सकें, तो आपका | हटा! नहीं हटना चाहिए। इस सब व्यर्थ की बात में मत पड़ें। जब मन तत्क्षण ठहर जाएगा। भी खयाल आ जाए, वापस नाभि पर अपने ध्यान को ले आएं। तो इस ध्यान की प्रक्रिया के लिए, जिसको मैं निश्चल ध्यान योग । और चालीस मिनट कम से कम-ज्यादा कितनी भी देर कोई की तरफ एक विधि कहता हूं, दो बातें ध्यान में रखने जैसी जरूरी रह सकता है-ठीक ऐसे बच्चे की हालत में मां के गर्भ में पड़े रहें। हैं। जैसा कि सूफी फकीरों को अगर आपने देखा हो प्रार्थना करते, संभावना तो यह है कि दो-चार-आठ दिन के प्रयोग में ही आपको Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की छाया है समर्पण एक गहरी निश्चलता भीतर अनुभव होनी शुरू हो जाएगी। ठीक आप बच्चे के जैसी सरल चेतना में प्रवेश कर जाएंगे। मन ठहरा हुआ मालूम पड़ेगा। जितना नाभि के पास होंगे, उतनी देर मन ठहरा रहेगा। और जब नाभि के पास रहना आसान हो जाएगा, तो मन बिलकुल ठहर जाएगा। मन भी चलता है, हृदय भी चलता है, नाभि चलती नहीं । मन की भी दौड़ है, विचार की भी दौड़ है, भाव की भी दौड़ है, नाभि की कोई दौड़ नहीं। अगर ठीक से समझें, तो मन भी भविष्य में होता है, हृदय भी भविष्य में होता है, नाभि वर्तमान में होती है— जस्ट इन दि मोमेंट, हियर एंड नाउ, अभी और यहीं । जो आदमी नाभि के पास जितना जाएगा अपनी चेतना को लेकर, उतना ही वर्तमान के करीब आ जाएगा। जैसे बच्चा नाभि जुड़ा होता है मां से, ऐसे ही एक अज्ञात नाभि के द्वार से हम अस्तित्व से जुड़े हैं। नाभि ही द्वार है। जिन लोगों को — शायद दो-चार लोगों को यहां भी – कभी अगर शरीर के बाहर होने का कोई अनुभव हुआ हो। पृथ्वी पर बहुत लोगों को कभी-कभी, अचानक, आकस्मिक हो जाता है। अचानक लगता है कि मैं शरीर के बाहर हो गया। तो जिन लोगों कभी शरीर के बाहर होने का आकस्मिक, या ध्यान से, या किसी साधना से अनुभव हुआ हो, उनको एक अनुभव निश्चित होता है, कि जब वे अपने को शरीर के बाहर पाते हैं, तो बहुत हैरानी से देखते हैं कि उनके और उनके शरीर के बीच, नीचे पड़ा है, उसकी नाभि से कोई एक प्रकाश की किरण की भांति कोई चीज उन्हें जोड़े हुए है। पश्चिम में वैज्ञानिक उसे सिल्वर कॉर्ड, रजत-रज्जु का नाम देते हैं। जैसे हम मां से जुड़े होते हैं इस भौतिक शरीर से, ऐसे ही इस बड़े जगत, इस बड़े अस्तित्व से, इस प्रकृति या अस्तित्व के गर्भ से भी हम नाभि से ही जुड़े होते हैं। तो जैसे ही आप नाभि के निकट अपनी चेतना को लाते हैं, मन निश्चल हो जाता है। जीसस का बहुत अदभुत वचन है— शायद ही ईसाई उसका अर्थ समझ पाए - जीसस ने कहा है कि तुम तभी मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकोगे, जब तुम छोटे बच्चों की भांति हो जाओ। लेकिन मोटे अर्थ में इसका यही अर्थ हुआ कि हम बच्चों की तरह सरल हो जाएं। लेकिन गहरे वैज्ञानिक अर्थ में इसका अर्थ होता है कि हम बच्चे की उस आत्यंतिक अवस्था में पहुंच जाएं, जब बच्चा होता ही नहीं, मां ही होती है। और बच्चा मां के सहारे 51 ही जी रहा होता है। न अपनी कोई हृदय की धड़कन होती है, न अपना कोई मस्तिष्क होता; बच्चा पूरा समर्पित, मां के अस्तित्व का अंग होता है। ठीक ऐसी ही घटना निश्चल ध्यान योग में घटती है। आप समाप्त हो जाते हैं और परमात्मा के साथ एकीभाव हो जाता है। और परमात्मा के द्वारा आप जीने लगते हैं। यह जो कृष्ण ने कहा है कि निश्चल ध्यान योग से मुझमें एकीभाव को स्थित हो जाता है, इसका ठीक वही अर्थ है, जो बच्चे और मां के बीच स्थूल अर्थ है, वही अर्थ साधक और परमात्मा के | बीच सूक्ष्म अर्थ है। इस प्रयोग को थोड़ा करेंगे, तो जो अर्थ स्पष्ट होंगे, वे अर्थ शब्दों से स्पष्ट नहीं किए जा सकते। अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें। और वे मेरे में निरंतर मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, सदा ही आपस में मेरे प्रभाव को जाते |हुए तथा मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझमें ही निरंतर रमण करते हैं। अब इस सूत्र का पूरा अर्थ बदल जाएगा, अगर आपने मेरी पहली बात समझी तो। क्योंकि निश्चल ध्यान योग के बाद ही इस सूत्र का अर्थ खुल सकता है, अन्यथा इस सूत्र का गलत अर्थ किया जाएगा। गीता पर हजारों टीकाएं हैं। अधिक टीकाएं पंडितों के द्वारा हैं, जिनके पास काफी ज्ञान है, लेकिन शायद ध्यान नहीं है। इसलिए भारी विवाद है शब्दों का। सैकड़ों अर्थ किए गए हैं। स्वाभाविक है। सैकड़ों अर्थ होंगे ही। सैकड़ों मन अर्थ करेंगे, तो सैकड़ों अर्थ होंगे। ध्यान रहे, ध्यान तो एक ही होता है, चाहे कोई भी ध्यान को उपलब्ध हो; लेकिन मन तो उतने ही होते हैं, जितने लोग होते हैं। शायद यह भी कहना कम है, क्योंकि एक आदमी के पास भी एक ही मन नहीं होता। सुबह दूसरा था, दोपहर दूसरा है, सांझ तीसरा है! शायद यह कहना भी ठीक नहीं है, एक ही आदमी के पास भी एक साथ बहुत-से मन होते हैं । अभी, एक ही साथ कई मन होते हैं। इसलिए पुराने एक मन की धारणा को मनोविज्ञान धीरे-धीरे तिलांजलि दे रहा है। मनोविज्ञान अब कहता है कि आदमी पोलीसाइकिक है, बहु- चित्तवान है। बहुत से मन हैं उसके पास, एक मन नहीं है। तो मन से जो अर्थ किए जाएंगे, वे तो अनेक होंगे ही। अगर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 एक ही आदमी जिंदगी में दो-चार-पांच बार गीता का अर्थ करे, तो दो-चार-पांच अर्थ निकलेंगे, क्योंकि उसका मन बदलता चला तो एक तो वे अर्थ हैं, वे कमेंट्रीज और टीकाएं हैं, जो मन से की गई हैं; उनका बहुत मूल्य नहीं है। वे कितनी ही गहरी हों, फिर भी छिछली होंगी, क्योंकि मन और बुद्धि का कोई गहरा होना होता ही नहीं। बुद्धि कितना ही शोरगुल मचाए, वह सतह पर ही होती है, गहरी कभी जाती नहीं। ध्यान गहरा जाता है। तो एक तो उपाय यह है कि गीता के शब्दों को समझें, उनकी व्याख्याएं समझ लें, और तृप्त हो जाएं। उसका अर्थ हुआ कि आप गीता से चूक गए; गीता आपके काम न आई। शायद नुकसान भी हुआ, क्योंकि आपको भ्रम होगा कि आपने जान भी लिया । दूसरा रास्ता है कि ध्यान से प्रवेश करें और फिर गीता को समझें। और तब एक मजेदार बात घटती है। लोग मन से गीता को समझेंगे, वे गीता की भी हजार टीकाएं करेंगे। दो टीकाकार दुश्मन की तरह लड़ेंगे। मन से, तो गीता की भी हजार टीकाएं हो जाएंगी, और हर टीकाकार गीता का एक अर्थ करेगा और शेष को गलत कहेगा। अगर ध्यान से कोई प्रवेश करे, तो एक और दूसरी घटना घटती है, गीता का भी वही अर्थ होगा, बाइबिल का भी वही होगा, कुरान का भी वही अर्थ होगा। मन से कोई चले, तो गीता के हजार अर्थ होंगे। और ध्यान से कोई चले, तो दुनिया में जितनी गीताएं हैं, जितने धर्म-ग्रंथ हैं, उन सबका अर्थ एक हो जाएगा। ध्यान एक नया पर्सपेक्टिव, एक नया परिप्रेक्ष्य दे देता है; देखने का एक नया ढंग, जानने का, स्पर्श करने की एक नई व्यवस्था । इसलिए मैंने कहा, इस सूत्र को अब समझें, तो फर्क पड़ेगा । अगर हम पहले समझते, तो इसका अर्थ होता, वे मेरे में निरंतर मन लगाने वाले, तो इसका अर्थ होगा कि निरंतर ईश्वर को स्मरण करने वाले, निरंतर उसका नाम लेने वाले। और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, मुझमें ही जो अपने को समर्पण कर देते हैं, ऐसे लोग, सदा मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए, एक-दूसरे को मेरा प्रभाव समझाते हुए, तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझमें ही निरंतर रमण करते हैं। तब इसका अर्थ बहुत साधारण होगा। जो कि भक्त प्रभु-चर्चा में, सत्संग में, ईश्वर का गुणगान करने में, ईश्वर की स्तुति करने में करते हैं। यह अर्थ ध्यान से बिलकुल बदल जाएगा। ध्यान इसकी सारी की सारी दिशा को मोड़ दे देता है। 52 मेरे में निरंतर मन लगाने वाले का अर्थ ध्यान से जो जानेगा, उसको पता चलेगा, वही, जिसका कोई मन न रहा। क्योंकि परमात्मा में मन वही लगा सकता है, जिसका मन समाप्त हो जाए। अगर आपका मन जारी है, तो मन संसार में ही लगा रहेगा। आप बीच-बीच में परमात्मा का नाम ले सकते हैं, लेकिन मन संसार में ही लगा रहेगा। इसलिए हम देखते हैं कि भक्तजन, तथाकथित भक्तजन मंदिरों बैठे हैं, पर आप इस भूल में मत रहना कि उनका मन वहां है। मंदिरों में बैठना आसान है; प्रभु का नाम उच्चार करना भी बहुत आसान है; लेकिन मन का वहां होना उतना आसान नहीं है । नानक के जीवन में उल्लेख है कि नानक एक गांव में आए। उस गांव के मुसलमान नवाब ने नानक को कहा कि सुना है मैंने, तुम कहते हो कि हिंदू-मुसलमान सब एक हैं! नानक ने कहा, एक हैं ही; मैं कहता हूं इसलिए नहीं। एक हैं, इसलिए मैं कहता हूं। तो उस नवाब ने कहा कि आज नमाज का दिन है, तो हमारे साथ मस्जिद में चलकर नमाज पढ़ो। सोचा उसने कि नानक इनकार करेंगे। एक हिंदू मस्जिद जाने से इनकार करेगा । नानक तो बड़ी खुशी से तैयार हो गए। नवाब थोड़ा चिंतित हुआ । उसने कहा, लेकिन ध्यान रखिए, नमाज में मेरे साथ सम्मिलित होना पड़ेगा। नानक ने कहा कि अगर तुम नमाज पढ़ोगे, तो मैं भी पढूंगा। लेकिन नवाब न समझा कि यह बात गहरी हो गई। आप भी एकदम से न समझे होंगे कि इसमें क्या गहराई हो गई। नमाज शुरू हुई। नानक एक दीवाल के किनारे सटकर खड़े हो गए। नवाब बीच-बीच में झुककर और आंख खोलकर नानक को देखता है कि वे नमाज पढ़ रहे हैं कि नहीं पढ़ रहे हैं! और नानक नमाज नहीं पढ़ रहे हैं। तो नवाब को बहुत गुस्सा आने लगा। नमाज तो भूल गई, नानक पर गुस्सा आने लगा कि यह आदमी बेईमान है, धोखेबाज है। और उसने जल्दी-जल्दी प्रार्थना पूरी की, ताकि इस आदमी को ठीक कर सके। प्रार्थना पूरी करने के बाद वह नानक पर टूट ही पड़ा। उसने कहा, तुम धोखेबाज हो । बेईमान हो। अपने वचन का भी कोई खयाल नहीं! तुमने कहा था कि नमाज पढूंगा, फिर तुमने पढ़ी नहीं ? नानक ने कहा, मैंने कहा था, अगर तुम नमाज पढ़ोगे, तो मैं भी पढूंगा। लेकिन तुमने नमाज कहां पढ़ी? तुम हाथ-पैर से कवायद पूरी कर रहे थे नमाज की । व्यायाम तुम पूरा कर रहे थे। लेकिन मन तुम्हारा मेरी तरफ था, परमात्मा की तरफ नहीं। तो मैं तो बड़ी Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की छाया है समर्पण मुश्किल में पड़ा कि अब मैं क्या करूं! वचन देकर बुरा फंस गया। से बच जाएं, तो बचने का कोई उपाय नहीं है। आप भागना चाहें, एक नमाज चूक गई मेरी भी! क्योंकि वचन मैंने दिया था, तुम | उससे दूर निकल जाएं, तो दूर नहीं निकल सकते। आप आंख बंद प्रार्थना करोगे, तो मैं भी प्रार्थना करूंगा। तुम ही प्रार्थना में न गए! करें, तो वह मौजूद होगा। आप आंख खोलें, तो वह मौजूद होगा। मन का अर्थ ही आपका जगत से जो संबंध है, उसका जोड़ आप कुछ भी करें, वह मौजूद होगा। तभी निरंतर मन लगाने का आपका मन है। तो आप मन को परमात्मा में लगा नहीं सकते। मन अर्थ जाहिर होगा। फिर कोई उपाय नहीं रह जाता आपके हाथ में। तो संसार में ही लगेगा। हां, मन न रह जाए, तो जो लगाव घटित आप होते ही उसमें हैं। जैसे मछली सागर में है, ऐसे आप उसमें होगा, वह परमात्मा से होगा। इसलिए जब यह सूत्र ध्यान के अर्थ | | होते हैं। चारों ओर वही होता है। लेकिन यह अर्थ ध्यान से खुलेगा। से समझेंगे, तो इसका अर्थ होगा-मेरे में निरंतर मन लगाने वाले, | अगर शब्द से खोलने जाएंगे, तो यह सूत्र उलटा मालूम पड़ेगा। इसका अस्तित्वगत, ध्यानगत अर्थ होगा—जिन्होंने अपना मन खो मेरे में निरंतर मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण दिया और मुझमें निरंतर रहने लगे। करने वाले भक्तजन! मन को आप परमात्मा में लगा ही नहीं सकते। मन का अर्थ ही | कौन करेगा अर्पण प्राणों को? आप कर सकते हैं? सोचकर तो बीमारी है। मन का अर्थ ही तरंगें है। मन का अर्थ ही बेचैनी है। मन | नहीं कर सकते, विचारकर तो नहीं कर सकते, मनपूर्वक तो नहीं को आप परमात्मा में नहीं लगा सकते। जब तक मन है, तब तक | कर सकते। क्योंकि जब कोई मनपूर्वक कहता है कि मैं अपने प्राण आप भी परमात्मा में नहीं लग सकते। मन जहां शांत, शून्य हो | | अर्पित करता हूं, तो भी अंतिम निर्णायक वही रहता है। कल वह जाता है, वहां आप परमात्मा में लग गए। और यह लगना बहुत | कह सकता है कि वापस लिया। प्राण अब अर्पित नहीं करते! तो अलग तरह का है। क्योंकि मन को लगाते हैं, तो चेष्टा करनी पड़ती | परमात्मा क्या करेगा? जब आप मंदिर में जाकर सिर रखते हैं चरणों है, फिर भी मन भागता है। यह लगना चेष्टा का नहीं है; चेष्टारहित | | में, तो यह भी आपका निर्णय है। आप चाहें तो रखें और चाहें तो है। अब आप भागना भी चाहें, तो परमात्मा से भाग नहीं सकते। | | न रखें। और जब आप कहते हैं कि परमात्मा, मैं अपने प्राण तुझे नानक के जीवन में दूसरा उल्लेख है। वे मक्का गए और पैर | | देता हूं, तो भी आप हैं देने वाले! कल आप वापस ले सकते हैं। करके सो गए पवित्र मंदिर की तरफ। रात पुजारियों ने उन्हें हिलाया, | | आप मौजूद रहते हैं, मिटते नहीं। उठाया और जगाया और कहा कि तुम नासमझ मालूम पड़ते हो! लेकिन ध्यान के बाद जो समर्पण होता है, वह आपका कृत्य नहीं यह सोचकर कि तुम एक फकीर हो, हमने ठहर जाने दिया मंदिर | है, वह आपका कर्म नहीं है। ध्यान से जो समर्पण होता है, वह में। और तुम पवित्र मंदिर की तरफ पैर करके सो रहे हो? तुम्हें | आपकी मजबूरी है, वह आपकी हेल्पलेसनेस है, आप असहाय हैं। परमात्मा की तरफ पैर करते हुए शर्म नहीं आती! तो नानक ने कहा, | जैसे ही ध्यान में कोई उतरता है, फिर ऐसा नहीं लगता है कि मैं शर्म तो मुझे बहुत आती है। लेकिन मेरी भी अपनी मुसीबत है। मैं | अपने प्राण परमात्मा को समर्पित करूं। फिर ऐसा उसे पता चलता तुमसे कहता हूं, मेरे पैर तुम उस तरफ कर दो, जहां परमात्मा न हो। | है कि मेरे प्राण सदा से उसी को समर्पित हैं। मेरे प्राण उससे ही चल मैं राजी हूं। रहे हैं, मेरी श्वास उसकी ही श्वास है। मैं उससे अलग नहीं हूं कि पजारी मश्किल में पड़ गए। पैर कहां किए जा सकते हैं, जहां. समर्पण कर सके। इतना भी अलग नहीं हैं कि समर्पण कर सके। परमात्मा न हो! नानक ने कहा, मेरी मुसीबत यह है कि मैं कहां पैर मैं समर्पित हूं। करूं! जहां भी पैर करूं, वहीं परमात्मा है। इसलिए कहीं भी पैर यह बहुत अलग बात है। अब समर्पण वापस नहीं लिया जा करूं, अब कोई फर्क नहीं पड़ता। सकता। यह अनुभव–कि मैं उसमें ही जी रहा हूं, वही मुझमें जी जिस व्यक्ति का मन खो जाएगा, उसे परमात्मा में ध्यान लगाना | रहा है, मेरी कोई पृथकता नहीं है—इस अनुभव का नाम है, मेरे में नहीं पड़ता; वह जहां भी जाए, जहां भी ध्यान लगाए, परमात्मा ही | ही प्राणों को अर्पण करने वाले। है। वह जो भी करे, सब तरफ परमात्मा ही है। मन वाले आदमी | | लेकिन भाषा की अपनी मजबूरियां हैं। यह भाषा में जो भी कहा को कोशिश कर-करके परमात्मा में लगना पड़ता है, फिर भी लग गया है, यह बहुत उलटा है। भाषा अक्सर चीजों को उलटा कर नहीं पाता। और मन खोया कि आप कोशिश भी करें कि परमात्मा देती है। क्योंकि भाषा के पास जितने भी शब्द हैं किसी भी भाषा 53 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 के पास-वे सभी अहंकार-केंद्रित हैं। आदमी ने बनाई हैं भाषाएं, | | में, उसके सब ओर, उसके समस्त कृत्यों में परमात्मा का ही आदमी उनका स्रष्टा है। अहंकार केंद्र पर है। इसलिए हर चीज गुणगान शुरू हो जाता है। अहंकार से जुड़ी हुई है। बुद्ध को सोचें चलते हुए आपके बीच से। उन्हें कहना न पड़ेगा। तो जब हम अहंकार के पार की कोई बात कहना चाहते हैं, तब उनका चलना! बड़ी मुसीबत होती है। कहना पड़ता है, समर्पण करो। यह _ ऐसी घटना घटी कि बुद्ध ने जब साधना शुरू की और छः वर्ष बिलकुल गलत वाक्य है। क्योंकि समर्पण कोई कैसे करेगा? और | | तक कठोर तपश्चर्या की, तो पांच उनके भक्त थे। तरह-तरह के जब करेगा, तो वह समर्पण कैसे होगा? कृत्य, कर्म कैसे समर्पण | भक्त होते हैं। वे भक्त बुद्ध के भक्त नहीं थे। वे बुद्ध जो तपश्चर्या हो सकता है? कर्ता तो मैं रहूंगा। मैंने किया, तो समर्पण नहीं हो करते थे, उसके भक्त थे। बुद्ध अपने शरीर को सुखा डालते, इससे सकता। लेकिन हमें कहना पड़ता है, समर्पण करो। जब कि ठीक | वे बड़े प्रभावित थे। बुद्ध से नहीं, शरीर सूख जाए इससे। मानते थे होगा, उचित होगा कहना, समर्पण होता है, किया नहीं जाता। कि बुद्ध महातपस्वी है। भूखा रहता है, लंबे उपवास करता है, लेकिन अगर ऐसा कहा जाए कि समर्पण होता है, किया नहीं | | काया की चिंता नहीं करता, कंकड़-पत्थरों पर सोता है, कांटों में जाता, तो हमारा मन तत्काल दूसरी गलत बात समझ लेगा। वह | चलता है, सूख गया, हड्डी-हड्डी हो गया। कहेगा, फिर अपने वश की बात न रही। होगा, तब हो जाएगा। हम ___ उस समय की बनाई गई एक प्रतिछवि और उस समय की बनाई क्या कर सकते हैं! या तो हम करेंगे समर्पण, तो अहंकार मौजूद गई एक प्रतिमा है, जिसमें बुद्ध का सिर्फ अस्थिपंजर शेष रहा है। रहेगा, समर्पण होगा नहीं। और या फिर हम कहेंगे, हम कर ही क्या उनका पेट, पीछे पीठ से जुड़ गया है। सिर्फ हड्डियां छात्री की भर सकते हैं! हम प्रतीक्षा करेंगे; होगा, तब हो जाएगा। तब भी हम | | दिखाई पड़ती हैं। सब मांस खो गया है। वे पांच उनके बड़े भक्त थे। धोखा दे रहे हैं। फिर बुद्ध को पता चला कि इस तरह अपने को सताकर मैं कहीं हम समर्पण नहीं कर सकते, लेकिन हम मन को ठहरा सकते हैं। भी नहीं पहुंचा। यह तो एक तरह की क्रमिक आत्महत्या है। तो बुद्ध हम समर्पण नहीं कर सकते, लेकिन हम मन को तोड़ सकते हैं। और । | ने जैसे एक दिन भोग छोड़ दिया था और महल छोड़ दिए थे, वैसे जब मन टूट जाता है, मन ठहर जाता है, तो समर्पण हो जाता है। ही एक दूसरा महात्याग किया, त्याग भी छोड़ दिया। समर्पण बाइ-प्रोडक्ट है, ध्यान की छाया है। ध्यान हम कर | | यह जरा कठिन है समझना। क्योंकि कोई महल को छोड़कर सकते हैं, समर्पण छाया की तरह पीछे चला आता है। जिनके जीवन जाए, हम सब समझ लेते हैं, क्योंकि महल हमारे पास नहीं है और में ध्यान आता है, उनके जीवन में समर्पण अचानक, बिना कोई महल को पाने की आकांक्षा हमारे भीतर है। तो जब कोई महल को पगध्वनि किए, बिना कोई आहट किए, बिना कोई खबर दिए, छोड़ता है, हमें लगता है, महात्यागी है। बुद्ध ने एक दिन महल अतिथि की भांति चुपचाप, मौन, भीतर प्रवेश कर जाता है। इस छोड़ा, तो वे महात्यागी थे। फिर एक दिन उन्होंने पाया कि यह त्याग समर्पण की तरफ ही इशारा है। | भी मेरा ही अहंकार है। यह भी मेरा ही कर्ता का भाव है कि मैं तप मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले, सदा आपस में मेरे प्रभाव | कर रहा हूं, साधना कर रहा हूं, योग कर रहा हूं। यह भी सब मेरा को जनाते हुए...। अहंकार है। एक दिन उन्होंने इसे भी त्याग दिया। इसका यह मतलब नहीं है कि एक-दूसरे से प्रभु की स्तुति की यह महात्याग है। त्याग को भी जब कोई छोड़ पाता है-भोग बातें कर रहे हैं कि वह बहुत महान है, कि वह बड़ा दयालु है, कि | | को भी छोड़ देता है, त्याग को भी छोड़ देता है—तब आदमी वह बड़ा प्रेमी है। यह सब, यह बातों से कोई किसी को जना नहीं | | वीतराग हो जाता है, तब वह परम स्थिति को पहुंचता है। सकता। लेकिन जो व्यक्ति एकीभाव को उपलब्ध हो जाता है, वह लेकिन पांचों भक्त बुद्ध को छोड़कर चले गए, उन्होंने कहा, यह आंख की पलक भी उसकी हिलती है. तो भी परमात्मा की ही खबर तो भ्रष्ट हो गया। इसने उपवास बंद कर दिए। अब कोई भोजन लाता उसके चारों तरफ फैलती है। उसका पैर भी चलता है, तो परमात्मा है, तो यह भोजन ग्रहण कर लेता है। कोई कपड़े दे जाता है, तो कपड़े ही उससे चलता है। उसके उठने में, उसके बैठने में, उसके चलने | | भी पहन लेता है। अब धूप में न बैठकर वृक्ष की छाया में बैठ जाता में, उसके फिरने में, उसके आचरण में, उसके शब्द में, उसके मौन है, यह भ्रष्ट हो गया। वे पांचों बुद्ध को छोड़कर चले गए। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ध्यान की छाया है समर्पण फिर बुद्ध को परम ज्ञान हुआ। तो बुद्ध को खयाल आया अपने | से करते हैं कि दूसरों के कान में, चाहे वे सो ही रहे हों, अगर पांच उन शिष्यों का, कि उन्हें जाकर मैं पहली खबर उन्हीं को दूं, | भगवान का नाम पहुंचा, तो बड़ा लाभ होगा। क्योंकि वर्षों तक वे मेरे साथ थे। तो बुद्ध उनका पता लगाते हुए | इधर मैंने सना है कि ऐसे करने वाले लोग नर्क भेज दिए जाते बोध-गया से काशी आए, क्योंकि सारनाथ में वे पांचों भिक्षु ठहरे | हैं। क्योंकि वे केवल दूसरों की नींद हराम कर रहे हैं, और कुछ भी हुए थे। बुद्ध बोध-गया से पैदल चलते हुए उन भिक्षुओं को खोजते नहीं कर रहे हैं। और उन पर तो चिढ़ आती ही है सोने वालों को, हुए सारनाथ पहुंचे। इस भगवान के नाम तक से भी धीरे-धीरे चिढ़ आने लगेगी। सांझ होने का वक्त था और वे पांचों एक चट्टान के पास बैठकर कोई जबरदस्ती किसी को भगवान का नाम नहीं दिलवा सकता सत्संग कर रहे थे। देखा बुद्ध को आते हुए, तो उन पांचों ने कहा | है। और न ही कोई किसी को भगवान की स्तुति करवाकर प्रभावित कि भ्रष्ट हो गया गौतम आ रहा है। देखो, इसके शरीर पर अब कर सकता है। लेकिन जब कोई भगवान को जीता है, तो उसके हड्डियां नहीं दिखाई पड़ती; अब मांस-मज्जा आ गई है। बिलकुल | उठने में, बैठने में, चलने में, उसके बोलने में, उसके चुप होने में, भ्रष्ट हो गया है। यह आ रहा है। हम इसे उठकर नमस्कार भी न | उसकी भाव-भंगिमा में, उसकी मुद्राओं में, सब तरफ भगवान की करें। हम इसकी तरफ देखें भी न। अगर यह हमें नमस्कार भी करे, स्तुति शुरू हो जाती है। तो हम इसका उपेक्षा से उत्तर दें। हम इससे बैठने को भी न कहें, बुद्ध से किसी ने आकर पूछा है कि मैंने सुना है कि आप ईश्वर क्योंकि यह भ्रष्ट हो गया है। को नहीं मानते हैं! बुद्ध ने कहा, सुनने की फिक्र छोड़ो, तुम मुझे बुद्ध उनके जैसे-जैसे पास आए, वैसे-वैसे उनका संकल्प गौर से देखो। मैं क्या कहता हूं, यह मूल्यवान नहीं है। मैं क्या हूं, पिघलने लगा। बुद्ध जैसे-जैसे उनके पास आए, वैसे-वैसे भूल यह मूल्यवान है। लेकिन वह आदमी जमीन पर अपनी आंखें गड़ाए गए वे कि हमने निर्णय किया है कि उठकर नमस्कार न करेंगे। और हए है, वह कहता है कि मेरे सवाल का जवाब आपने नहीं दिया। एक उठकर बद्ध के चरणों में गिरा. दसरा बद्ध के चरणों में गिरा. आप मेरे प्रश्न का उत्तर दें। मैंने सना है कि आप लोगों से कहते हैं फिर वे पांचों बद्ध के चरणों में गिर गए। तब बद्ध ने उनसे पहली कि कोई ईश्वर नहीं है! बात कही कि मैं जब दूर था, तब मैंने अंतर्ध्वनि सुनी कि तुमने | इस सूत्र को ध्यान से समझेंगे, तो इसका अर्थ हुआ, आपस में निर्णय किया है कि तुम उठकर मुझे नमस्कार नहीं करोगे। फिर तुम | मेरे प्रभाव को जनाते हुए; उनके व्यवहार से, उनके होने से, उनके अपने संकल्प को क्यों छोड़ रहे हो? अस्तित्व से मेरी सुगंध को उड़ाते हुए। तो उन पांचों की आंखों में आंसू बहने लगे और उन्होंने कहा, | ___ वही स्तुति है परमात्मा की। आपके कहने से कोई राजी न होगा, हम अपने संकल्प को न छोड़ते, लेकिन तुम्हारा आना ठीक वैसा आपके होने से कोई राजी होगा। आप क्या कहते हैं, कौन चिंता ही आना है, जैसे परमात्मा आ रहा हो। जब तक तुम दूर थे और करता है! आप क्या हैं? हम तुम्हें देख न पाए और तुम्हारी आंखों की रोशनी हम पर न पड़ी, | | और यह बड़े मजे की बात है कि आप क्या कहते हैं, वह दो तब तक हम अपने संकल्प में दृढ़ थे। जैसे-जैसे तुम पास आने | कौड़ी का हो जाता है, अगर आप उसके विपरीत हैं। और आप कुछ लगे, तो जैसे सूरज उगने लगे और रात छंटने लगे और तारे डूबने | भी न कहें, लेकिन जो आप कहना चाहते हैं, अगर उसके अनुकूल लगें, वैसे ही हमारा मन, हमारा संकल्प सब खोने लगा। और तुम | हैं, तो बिना कहे भी वह कह दिया जाता है। लेकिन इस सूक्ष्म भाव जब पास आए, तब हमें याद भी न रहा कि हम क्या कर रहे हैं। का खयाल तो, आप भीतर उतरें और उस एकीभाव की झलक यह तो तुमने हमसे कहा कि तुमने अपना संकल्प क्यों छोड़ा, | | मिले, तो ही स्पष्ट हो सकता है। इसलिए हमें अपने पुराने संकल्प की याद आती है। तथा मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं! इस सत्र का अर्थ ऐसा नहीं है कि हम एक-दसरे को भगवान | | यह बडा प्रीतिकर. बडा प्रीतिकर वचन है कि मेरा कथन करते की स्तुति का गान करके, और भगवान की तरफ स्मरण दिलाएंगे। हुए संतुष्ट होते हैं। अगर हम कभी ईश्वर का कथन भी किसी से ऐसे कोई स्मरण नहीं होता। ऐसा बहुत-सा स्मरण चलता है। लोग | | करते हैं, तो हम संतुष्ट कथन करते वक्त नहीं होते। हम संतुष्ट होते माइक लगाकर अखंड कीर्तन कर देते हैं चौबीस घंटे! इसी खयाल | हैं, अगर दूसरा राजी हो जाए, कनवर्ट हो जाए। अगर मैं किसी को 55 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-588 अपने विचार में ढाल लूं, तब मैं संतुष्ट होता हूं। | तक बढ़ चुकी थी कि बैंक चलेगा, कोई डर की बात नहीं है! लेकिन वह संतोष अहंकार का संतोष है। सब कनवर्शन करीब-करीब कनवर्टिंग माइंड इसी तरह के होते हैं। दूसरा जब अहंकार-केंद्रित हैं। अगर मैं इस चेष्टा में लगा हूं कि जो मैं मानता बदल जाए, तो खुद भी भरोसा आता है कि ठीक है, हम जो मानते हूं, वही आपको मनवा दूं; और अगर आपको मनवाने में सफल हैं, वह ठीक है। वह किताब, वह शास्त्र, वह संदेश सही होना हो जाता हूं, तो जो संतोष मिलता है, वह अहंकार का संतोष है; | चाहिए, नहीं तो यह आदमी कैसे राजी हो जाता! वह पाप है। ___ इसलिए जब आपसे कोई राजी नहीं होता, तो आप बड़े नाराज नहीं, यह सूत्र यह नहीं कहता है। यह सूत्र कहता है, मेरा कथन | | होते हैं। वह आप उस पर नाराज नहीं हो रहे हैं; वह आपको अपने करते हुए संतुष्ट होते हैं। आप राजी हुए या नहीं हुए, आपने सुना भीतर, आपका खोखलापन आपको अब दिखाई पड़ रहा है कि भी या नहीं सुना, यह निष्प्रयोजन है, यह व्यर्थ है। इसकी बात ही | | कोई मुझसे राजी नहीं हो रहा; किसी को मैं सहमत नहीं करवा पा क्या उठानी! उन्होंने प्रभु की चर्चा कर ली, यह काफी संतोष है। | रहा हूं। तब आपकी जड़ें हिलने लगीं, आपका भरोसा टूटने लगा। यह काफी संतोष है कि उन्हें प्रभु की चर्चा करने का एक क्षण | अगर दो दिन तक ये दो आदमी इसके पास बैंक में जमा करवाने न मिला। उनके जीवन की समस्तता से प्रभु का गुणगान हो सका, यह | आते, तो तीसरे दिन यह तख्ती निकालकर अपना कोई दूसरा काम संतुष्टि है। शुरू कर देता। इसलिए एक बहुत अदभुत बात है, हिंदू धर्म कनवर्टिंग धर्म नहीं | | हिंदू धर्म नान-कनवटिंग रिलीजन है, किसी को बदलने की है। हिंदू धर्म किसी को रूपांतरित नहीं करना चाहता। हिंदू धर्म ने | | आकांक्षा नहीं है। दयानंद ने पहली दफा हिंदू विचार में बदलने का अपने इतिहास में दूसरे को रूपांतरित करने की अपने धर्म में, कभी | | खयाल दिया। इसलिए दयानंद को मैं पक्का हिंदू नहीं कहता हूं। कोई चेष्टा नहीं की। यह बड़ी अदभुत बात है। क्योंकि बड़ा | | उनमें ईसाइयत और मुसलमान होने के गहरे लक्षण हैं। बुरे हैं, ऐसा स्वाभाविक यह है, मन की यह स्वाभाविक आकांक्षा होती है कि | नहीं कहता। लेकिन हिंदू की जो एक अपनी धारा थी, उसको तोड़ने जो मैं मानता हूं, वही दूसरा भी मान ले। वाले हैं, ऐसा जरूर कहता हूं। शायद आपने सोचा न हो, यह आकांक्षा क्यों होती है। यह ___ क्योंकि हिंदू मानता है, किसी को क्या बदलना! अगर मेरे जीवन आकांक्षा इसलिए होती है कि मुझे खुद भी पक्का भरोसा नहीं है, की सुगंध किसी को बदल दे, तो काफी है। लेकिन मैं क्यों बदलने जो मैं मानता हूं, उस पर। जब मैं दूसरे को भी राजी कर लेता हूं, जाऊ! और बदलना एक तरह का आक्रमण है, हिंसा है। क्यों मैं तो थोड़ा भरोसा आता है। जब भीड़ बढ़ने लगती है और मेरे साथ | चोट करूं किसी के ऊपर कि तुम गलत हो! और क्यों तुम्हें राजी बहुत लोग राजी होने लगते हैं, तो मैं समझता हूं कि जो मैं कह रहा | | करने के लिए आग्रहशील बनूं! अगर मेरा जीवन तुम्हें बदल दे, तो हूं, वह सत्य है। अन्यथा इतने लोग कैसे मानते! मनोवैज्ञानिक ठीक है। अगर तुम खुद इस सुगंध से प्रभावित होकर आ जाओ, कहते हैं कि भीतरी इनफीरिआरिटी, भीतरी हीनता है; भीतर पक्का | तो ठीक है। अगर मंदिर की बजती हुई घंटी ही तुम्हें बुला ले, तो भरोसा नहीं है। दूसरे को राजी करवाकर अपने पर भरोसा आता है। | काफी है। और अलग से तुम्हें बुलाने जाने की कोई जरूरत नहीं है। सुना है मैंने कि जिस आदमी ने न्यूयार्क में सबसे पहला बैंक और कभी कोई किसी को जबरदस्ती बुलाकर ला भी नहीं पाता। खोला, उससे जब बाद में पूछा गया कि तुझे बैंक खोलने का कैसे और ले भी आए, तो शरीर ही आता है, आत्मा पीछे छूट जाती है। खयाल आया और कैसे तूने बैंक खोला? तो उसने कहा कि मैंने ईश्वर की स्तुति-अस्तित्व से, व्यक्तित्व से, होने से। तब फिर बैंक खोला। मेरे पास पचास डालर थे। कोई और धंधा नहीं था. जी करने में नहीं है तो मैंने सोचा, चलो बैंकिंग। तो मैंने एक दफ्तर खोला, तख्ती | | अभिव्यक्ति में है। तब संतोष जो मेरे भीतर था, उसको सुवासित लगाई, बोर्ड लगाया बैंक का, और मैं दफ्तर में बैठ गया। एक | | कर देने में है, उसे बाहर फैला देने में है। दूसरे पर क्या परिणाम आदमी आया और सौ डालर जमा कर गया। दूसरे दिन दूसरा | हुआ, यह विचारणीय भी नहीं है। आदमी आया और तीन सौ डालर जमा कर गया। तो तीसरे दिन | ___ इधर मैं देखता हूं, एक बड़े विचारक हैं, अब उम्र के आखिरी मेरे जो पचास डालर थे, वे भी मैंने जमा कर दिए। मेरी हिम्मत तब दिन हैं उनके। जिंदगीभर उन्होंने कोशिश की लोगों को समझाने .. रोष अपनी 56 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ध्यान की छाया है समर्पण की, अब बहुत फ्रस्ट्रेटेड हैं, अब बहुत विषाद है मन में। विषाद यह को समझने के लिए। बुद्ध ने तीन शब्दों पर सारी की सारी अपनी है कि कुछ भी हो नहीं पाया; कोई राजी नहीं हुआ, कोई बदला नहीं! | चिंतना को केंद्रित किया है। वे तीन शब्द हैं, शील, समाधि और लेकिन यह विषाद धार्मिक आदमी के मन में होना नहीं चाहिए। प्रज्ञा। शील से अर्थ है, जो आप करते हैं। समाधि से अर्थ है, जो नहीं तो फिर तो धर्म भी दुकान हो गई, कि मैं दिनभर दुकान खोले | | आप हो जाते हैं। और प्रज्ञा से अर्थ है, जो आप में खिलता है। बैठा रहा और कोई ग्राहक आया नहीं! और जिंदगी हो गई, और | शील से अर्थ है, आपका जीवन रूपांतरित हो। समाधि से अर्थ माल की कोई बिक्री न हुई, तो मेरी जिंदगी बेकार चली गई। है. आपकी चेतना रूपांतरित हो। और प्रज्ञा से अर्थ है कि जब ये नहीं; यह सवाल ही नहीं है। जो ध्यान में गहरा उतर जाता है, दोनों रूपांतरण घटित होते हैं, तो जो संपदा आपको उपलब्ध होती उसे फिर परमात्मा की स्तुति सिर्फ उसका आनंद है, सिर्फ उसका | है, जो धन आपको मिलता है, जो परम धन आपको मिलता है। आनंद है; वह उसमें ही संतुष्ट है। इससे आगे, इससे आगे का कोई | | कृष्ण ने उस परम धन को बुद्धियोग कहा है। हिसाब मन में अगर है, तो अभी ध्यान के बिना ही आप परमात्मा __हमें थोड़ी हैरानी होगी, क्योंकि हम सब अपने को बुद्धिमान की तरफ चल पड़े हैं, इसे समझना। आप मन से ही चल पड़े हैं, | | मानते हैं। और कृष्ण के हिसाब से बुद्धि तब उपलब्ध होती है, जब इसे समझना। कोई व्यक्ति परमात्मा के साथ एक हो जाता है। तो जिसको हम ___ मन तो सब जगह दुकान खोल लेता है, धंधा बना लेता है। मन बुद्धि कहते हैं, वह क्या होगी? तो सब जगह अहंकार के लिए रास्ते खोजने लगता है। मन तो जैसे कोई आदमी झील के किनारे खड़ा हो। तो आप खयाल अहंकार का भोजन जुटाता है। | करें। झील शांत है, आदमी किनारे खड़ा है, तो उस आदमी का और वे मुझमें ही निरंतर रमण करते हैं! प्रतिबिंब झील में बनता है। लेकिन प्रतिबिंब उलटा बनता है। बनेगा वे मुझमें ही डूबते-उतराते हैं, वे मुझमें ही डुबकियां लेते रहते | ही। प्रतिबिंब सभी उलटे होते हैं। अगर आपने झील के किनारे खड़े हैं। यह मन से संभव नहीं है। यह मन से बिलकुल ही असंभव है। आदमी को न देखा हो और केवल झील में बनने वाले प्रतिबिंब पर इसलिए मैंने कहा, इस सूत्र को ध्यान का सूत्र समझें। कामपदों। ही आपकी आंख हो, तो आदमी आपको सिर के बल खड़ा हुआ उन निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले मालूम पड़ेगा। लेकिन अगर आपने झील के ऊपर खड़े आदमी को भक्तों को, मैं वह तत्वज्ञान रूपी योग देता हूं, जिससे वे मेरे को ही | | देखा ही न हो, तो यही आदमी की ठीक स्थिति होगी! प्राप्त होते हैं। और हे अर्जुन, उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही | | जिसको हम अभी बुद्धि कह रहे हैं, वह हमारे मन की झील पर मैं स्वयं उनके अंतःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ, अज्ञान से बनी हुई हमारी बुद्धिमत्ता का केवल प्रतिबिंब है, रिफ्लेक्शन है। उत्पन्न हुए अंधकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक द्वारा नष्ट | हमारी मन की झील पर जो प्रतिबिंब बन रहा है, उसी को अभी हम करता हूँ। बुद्धि कह रहे हैं। वह बुद्धि नहीं है, बुद्धि का प्रतिबिंब है। और मजा ऐसी जिसकी चित्त-दशा निर्मित हो गई हो, कि जो परमात्मा में यह है कि प्रतिबिंब उलटा होता है। डूबता-उतराता हो, उसमें ही डुबकियां लेता हो, उसी में रमण करता। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि जिनको हम बुद्धिमान कहते हो, उसके अलावा जिसका कोई संसार न बचा हो; कहें, परमात्मा | | हैं, वे उस परम बुद्धि की दृष्टि से बिलकुल उलटे आदमी होते हैं। ही जिसका संसार हो गया हो; परमात्मा ही हो जिसकी वासना, जिनको हम उलटी खोपड़ी के आदमी कहते हैं। वे किसी भी चीज परमात्मा ही हो जिसकी इच्छा, परमात्मा ही हो जिसकी प्रार्थना; | को सीधा नहीं समझ सकते; उसको तत्काल उलटा कर लेते हैं। वे सभी कछ. सभी कुछ जिसका परमात्ममय हो गया हो-ऐसे परमात्मा की बात में से भी ऐसी बातें निकालते हैं कि परमात्मा तक व्यक्ति को, कृष्ण ने कहा है, बुद्धि उपलब्ध होती है, बुद्धियोग | | पहुंचना असंभव हो जाए। वे धर्म में भी इस तरह का तर्क खोजते उपलब्ध होता है। ऐसे व्यक्ति में प्रतिभा का जन्म होता है। ऐसा | | हैं कि धर्म तत्काल व्यर्थ मालूम होने लगे। वे जो भी करते हैं, वह व्यक्ति पहली दफा बुद्धिमत्ता को, जिसको बुद्ध ने प्रज्ञा कहा है, | कुछ उलटा होता है। उस उलटे का कारण है। क्योंकि प्रतिबिंब को उसको पाता है। जिन्होंने बुद्धि समझा, वे उलटे चलेंगे ही। बुद्ध ने तीन शब्दों का उपयोग किया है, वे उपयोगी होंगे इस सूत्र हमारी इस सदी में, जिसको हम कह सकते हैं कि बुद्धि की Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 सदी–प्रतिबिंब वाली बुद्धि, रिफ्लेक्टेड इंटलेक्ट। निश्चित ही, मोड़ना पड़ता और तकलीफ देनी पड़ती। इतनी बुद्धिमान सदी कभी नहीं थी जमीन पर। लेकिन इतनी। लेकिन एक मजे की बात हुई। सम्राट ने कहा कि इस आदमी को बुद्धिहीन सदी भी खोजनी मुश्किल है। यही उलटापन है। न इतनी ले जाओ, क्योंकि अब आगे बात करनी ठीक नहीं है। शिक्षा थी, न इतने शास्त्र थे, न इतने विचार थे, लेकिन आदमी हम कैसे देखते हैं, कहां से देखते हैं, किस बिंदु से देखते हैं, हमसे ज्यादा बुद्धिमान था। इस पर सब निर्भर करता है। निश्चित ही, अगर बुद्ध को हम मैट्रिक की परीक्षा में बिठाएं, तो नसरुद्दीन बैठा है अपने स्कूल में। उसका छोटा मदरसा है, मैं नहीं मानता कि अगर वे चोरी वगैरह करें, तब तो बात अलग, जिसमें वह बच्चों को पढ़ाता है। और एक बच्चे को कहता है कि स नहीं हो सकते। सीधे तो पास नहीं हो सकते। नकल जाकर कएं से इस घडे में पानी भर ला। और जैसे ही वह बच्चा वगैरह कर लें, तब तो बुद्ध भी पास हो रहे हैं, बुद्ध भी हो जाएंगे! घड़ा लेकर जाने लगता है, उसे वापस बुलाता है, कान पकड़कर नहीं तो फेल होना निश्चित है। और हमारे तथाकथित बुद्धिमान दो चांटे उसे रसीद करता है और कहता है कि सम्हलकर, घड़े को आदमी अगर बुद्ध से विवाद करने जाएं, तो निश्चित जीत जाएंगे; फोड़ मत डालना! बुद्ध हार जाएंगे। लेकिन फिर भी बुद्ध बुद्धिमान हैं और हम जिसको एक आदमी मेहमान की तरह मिलने आया था, वह हैरान हो बुद्धिमान कह रहे हैं, वह केवल उलटा है। गया। दुनिया में उसने बहुत तरह के दंड देखे थे। लेकिन कसूर बुद्धि का एक और रूप भी है। जब तक हम मन के पार न उठे, | करने के पहले दंड उसने कभी नहीं देखा था। अभी लड़का घड़ा तब तक वह सीधा रूप हमें दिखाई नहीं पड़ेगा। हमारी झील से लेकर गया ही नहीं, गिराने का तो सवाल ही नहीं है! उसने आंख उठे, तब हमें दिखाई पड़ेगा कि कोई आदमी झील पर खड़ा नसरुद्दीन से कहा कि और सब तो ठीक है, लेकिन यह उलटी बात है, उसके पैर नीचे हैं, सिर ऊपर है। और प्रतिबिंब में पैर ऊपर हैं | | मेरी समझ में नहीं आती। अभी लड़के ने घड़ा गिराया ही नहीं और और सिर नीचे है। तब हमें पता चलेगा कि प्रतिबिंब उलटा था। आपने उसको दो चांटे मार दिए! लेकिन जिन्होंने प्रतिबिंब ही देखा है...! | नसरुद्दीन ने कहा, घड़ा गिरा दे, फिर चांटा मारने से फायदा क्या सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन की काफी बदनामी हो गई थी। | है? नसरुद्दीन ने कहा, यह देखने-देखने की बात है। यह उलटी बदनामी ऐसी कि गांव के पंडितों ने, पुरोहितों ने जाकर सम्राट को नहीं है; यह सीधी है। घड़ा गिरा दे, फिर चांटा मारने से फायदा? कहा कि यह आदमी इस तरह की बातें कर रहा है कि लोग च्युत | | अब न तो घड़ा गिरेगा और न चांटा मारने की आगे जरूरत पड़ेगी। हो जाएंगे मार्ग से। यह आदमी खतरनाक है, यह आदमी उलटी | उलटा और सीधा सापेक्ष हैं, रिलेटिव हैं। लेकिन अगर दोनों बातें करता है लोगों से। तो सम्राट ने उसे बुलाया दरबार में। मुल्ला बातें हमारे खयाल में हों। एक ही बात हमारे खयाल में हो, तो अपने घर से निकला, अपने गधे पर बैठा और दरबार की तरफ सीधे-उलटे का सवाल ही नहीं उठता। जो होता है, उसे हम सीधा चला। लेकिन एक भीड़ उसके साथ चलने लगी और लोग उस पर मानकर चलते हैं। हंसी-मजाक करने लगे, क्योंकि वह गधे पर उलटा बैठा हुआ था। हम मन में ही देखे हैं छबि अभी अपनी संभावना की। मन में लेकिन उसने अपनी गंभीरता कायम रखी। | हमने प्रतिबिंब देखा है, उसको हम बुद्धि समझते हैं। और उसको जब वह दरबार में पहुंचा, तो सम्राट ने खुद देखकर उसे कहा ही हम शिक्षित करते हैं विश्वविद्यालयों में। ट्रेन करते हैं, प्रशिक्षित कि नसरुद्दीन, तुम गधे पर उलटे क्यों बैठे हुए हो? नसरुद्दीन ने | | करते हैं, उसी प्रतिबिंब को। हमारा बड़े से बड़ा बुद्धिमान प्रतिबिंब कहा कि महाराज, अपनी-अपनी नजर की बात है। मैं तो समझता | से ज्यादा नहीं है। हूं कि गधा उलटा खड़ा है; हम तो सीधे ही बैठे हैं। आप जरा गधे । । एक और बुद्धिमत्ता है, कृष्ण उसकी बात कर रहे हैं। वे कहते की तरफ देखें! नसरुद्दीन ने कहा, इट डिपेंड्स। यह निर्भर करेगा हैं, जब कोई ध्यान को उपलब्ध होता है और जब कोई मुझमें डूब कुछ बातों पर कि कौन उलटा है। मैं तो बिलकुल सीधा बैठा हूं। जाता है,.तब उसे बुद्धियोग, तब पहली दफा उसे बुद्धिमत्ता का पता गधा इसी तरफ मुंह किए हुए खड़ा था; मैं सीधा बैठ गया। अगर चलता है कि बुद्धि क्या है। जिसको आप सीधा कहते हैं, वैसा मैं बैठता, तो गधे को मुझे हमारी जो बुद्धि है, वह हमें ही नुकसान पहुंचाती है। कभी 158 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान की छाया है समर्पण 8 आपने खयाल किया है कि आपकी बुद्धि आपको सिवाय नुकसान | जाती है...। हमारी बुद्धि तो दुख की तरफ ले गई है। अगर दुख पहुंचाने के कुछ और भी करती है? आदमी कितने संकट में रोज ही कसौटी हो, तो हम जिसे बुद्धि कहते हैं, वह जहर है। और अगर बढ़ता जाता है, उसका बहुत कुछ कारण तो उसकी बुद्धि है। वह | आनंद कसौटी हो, तो फिर कृष्ण और बुद्ध जिसे बुद्धि कहते हैं, जितनी बुद्धिमानी करता है, पाता है, उतने ही संकट उसने बढ़ा | उसी की तरफ ध्यान को हटाना पड़ेगा। लिए, अनंत गुना हो गए। यह बुद्धि कुछ और है। यह उन्हें उपलब्ध होती है, जो निरंतर हमने सोचा था, हमारे बुद्धिमानों ने, तथाकथित बुद्धिमानों | मेरे ध्यान में लगे हुए हैं, जो निरंतर मेरी भक्ति में, मेरे स्मरण में ने-अगर हम दो सौ वर्ष के बुद्धिमानों के नाम गिनें, तो हमें पता डूबे हुए हैं। उन्हें मैं वह तत्वयोग, बुद्धियोग देता हूं, जिससे वे चलेगा-उन सभी तथाकथित बुद्धिमानों ने कहा था कि सारी दुनिया अंततः मुझे उपलब्ध हो जाते हैं, अंततः परमात्म रूप हो जाते हैं। को शिक्षित करने से सुख का साम्राज्य उतर आएगा, युनिवर्सल और हे अर्जुन, उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही मैं स्वयं उनके एजुकेशन चाहिए। और उनकी बात हम सबको जंचती थी। अब अंतःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ, अज्ञान से उत्पन्न हुए हमने करीब-करीब आधी दुनिया को शिक्षित कर लिया है। और अंधकार को प्रकाशमय दीपक द्वारा नष्ट करता हूं। तत्वज्ञान रूप जहां-जहां हमने शिक्षित कर लिया है, वहां पहली दफा मुसीबत के दीपक द्वारा! नए आयाम शुरू हो गए हैं, जिनका हमें पता ही नहीं था। यह जो बुद्धि जब भीतर पैदा होती है, यह जो बुद्धियोग उपलब्ध आज अमेरिका सबसे ज्यादा सुशिक्षित है। लेकिन अमेरिका के | होता है; जब जीवन दिखाई पड़ता है उसकी समग्रता में, जैसा वह बच्चे आज जो कर रहे हैं, वह ज्यादा से ज्यादा सैवेज, ज्यादा से | | है; हमारे विचारों के अनुसार नहीं, हमारे चश्मों के अनुसार नहीं, ज्यादा जंगली हालत में जो किया जाना चाहिए, वह कर रहे हैं। | हमारी दृष्टियों के अनुसार नहीं, वरन जैसा है, उसकी वास्तविकता लेकिन बुद्धिमानों ने कहा था कि सबको सुशिक्षित कर दो, दुनिया | | में, उसके तत्वरूप में जब दिखाई पड़ता है, तो यही प्रज्ञा दीया बन में बड़ा सुख आ जाएगा। लेकिन जितनी शिक्षा बढ़ी है, उतना दुख | जाती है। और यह सारा अज्ञान, जिसमें हम अब तक जीए हैं, | जिसको हमने अब तक अपना जीवन समझा है, जिसमें हम भटके और शिक्षित आदमी लगता है, सुखी हो ही नहीं सकता। ऐसा | | हैं, ठुकराए गए हैं, ठोकर खाए हैं, दुखी हुए हैं, नर्को-नों का मालूम पड़ता है कि वह जो शिक्षित नहीं है, शायद सुखी हो जाए; परिभ्रमण किया है, वह सारा अंधकार विलीन हो जाता है, शून्य हो लेकिन जो शिक्षित है, वह तो सुखी हो ही नहीं सकता। शायद इतनी जाता है। महत्वाकांक्षा बढ़ जाती है, शायद सुख की इतनी प्रगाढ़ आकांक्षा मनुष्य एक संभावना है प्रकाश की। मनुष्य बीज है प्रकाश का; हो जाती है, शायद सुख पर मुट्ठी बांधने की इतनी तीव्रता हो जाती एक ज्योति उसमें छिपी है। जैसा मैंने कहा, अंडे में छिपा है एक है कि जिस पर मुट्ठी बांधते हैं, वह मुट्ठी से छूट जाता है। और पक्षी; पंख खोल आकाश में उड़ जाए। ऐसा ही एक ज्योतिर्मय पक्षी शायद शिक्षा इतने तनाव बढ़ा देती है कि बुद्धिमान होने का खयाल आपके भीतर छिपा है। एक ज्योति, जो पंख खोले और आकाश तो आ जाता है, लेकिन बुद्धिमत्ता बिलकुल नहीं होती। और तब की तरफ लपट बन जाए, वह आपके भीतर छिपी है। जिंदगी बड़े खिंचाव में, बड़ी बेचैनी में उलझ जाती है। लेकिन मन को तोड़ना पड़े, और अहंकार को ईंधन बनाना पड़े। बुद्धिमान जिनको हम कहते हैं, उनकी मानकर दुनिया चल रही अहंकार बने तेल और जले, तो वह प्रकाश की ज्योति, वह है। जिनको कृष्ण बुद्धियोगी कहते हैं, उनको मानकर दुनिया अब बुद्धियोग आपके भीतर सघन हो। उस बुद्धियोग से जो जाना गया तक चली नहीं। पूजा वगैरह हम उनकी कर लेते हैं। वह आसान है, वही धर्म है। उस प्रकाश में जो पाया गया है, वही मोक्ष है। और तरीका है उनसे निपटने का। जिससे निपटना हो, उसकी पूजा करो उसके बिना जो भी हम जान रहे हैं अंधकार में, वह संसार है। और अपने घर जाओ; उससे निपट गए; उससे झंझट खतम हुई। _इसे हम ऐसा परिभाषित करें, अज्ञान में जो जाना जाता है, वह ठीक है; कि नमस्कार कर लेते हैं आपको। अब हमें क्षमा करें। | संसार है। वही जब ज्ञान से जाना जाता है, तो परमात्मा है। संसार अब हम जाएं। और परमात्मा दो चीजें नहीं हैं। संसार और परमात्मा एक ही यह जो दूसरी बुद्धिमत्ता है, जो जीवन को आनंद की तरफ ले अस्तित्व के दो दर्शन हैं, एक ही अस्तित्व के दो अनुभव हैं। अज्ञान बढ़ा है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 में एक अनुभव होता है, वह संसार है। परमात्मा को हम अज्ञान न, वे भी नहीं गए हैं। उन्होंने भी खबर सुनी है दो तरह के लोगों में जैसा जानते हैं, उसका नाम संसार है। और ज्ञान में हम जैसा | से। अज्ञानी तो कम से कम सांप देखकर लौटा है। वे उतने भी नहीं संसार को जानते हैं, उसका नाम परमात्मा है। ये दो नाम हैं, ये गए हैं कि सांप भी देखकर लौट आएं। वे अपने घर में ही बैठकर हमारे मन की दो स्थितियों के अनुरूप नाम हैं; इनका दो चीजों से | खबरों का हिसाब जोड़ रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं, सांप है; कुछ संबंध नहीं है। लोग कहते हैं, रस्सी है! तो जरूर दो चीजें हैं, इन दोनों के बीच लेकिन आदमी अदभुत है, और होगा, क्योंकि उसकी उलटी क्या संबंध है? बद्धि है। उलटा खड़ा हआ वह जगत को देख रहा है। तो अगर हम | सारी दुनिया में इन दो के बीच, दो के नाम कुछ भी हों-संसार कभी सोचते भी हैं परमात्मा का, तो हम सोचते हैं, परमात्मा कुछ हो, मोक्ष हो; आत्मा हो, पदार्थ हो; माइंड हो, मैटर हो-कुछ भी और है, संसार कुछ और है। दुकान कुछ और है, और मंदिर कुछ नाम हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। दो के बीच संबंध क्या है? और है। शरीर कुछ और है, और आत्मा कुछ और है। पत्थर कुछ | दुनिया में सैकड़ों दर्शनशास्त्र विकसित हुए हैं। कोई कहता है, दोनों और है, और परमात्मा कुछ और है। जब हम सोचते भी हैं, तो हम | पैरेलल हैं, समानांतर हैं। कोई कहता है, दोनों के बीच संबंध है। दो हिस्सों में सोचते हैं। हम दो अस्तित्व बना लेते हैं। उन दो कोई कहता है, दोनों के बीच कोई भी संबंध नहीं है, दोनों अपने अस्तित्वों के बीच और कठिनाई खड़ी हो जाती है, क्योंकि वे दोनों | स्वभाव से ही वर्तन करते रहते हैं। कोई कहता है कि एक झूठ है, झूठ हैं। वे दोनों झूठ हैं। दूसरा सत्य है। कोई कहता है, दूसरा झूठ है, पहला सत्य है। बुद्ध से कोई पूछता है कि जब आपको ज्ञान हुआ, तो फिर संसार | लेकिन ये सब वे ही लोग हैं, जिन्होंने प्रकाश ले जाकर देखा नहीं और सत्य में क्या संबंध होता है, वह आप बताएं। जब आपको कि वहां दो हैं भी! ज्ञान हुआ, तो आत्मा और शरीर में क्या संबंध होता है, वह आप __ कृष्ण कहते हैं कि अज्ञान, अंधकार मिट जाता है। इस बुद्धियोग बताएं। जब आपको ज्ञान हुआ, तो आप संसार में किस भांति जीते | | के द्वारा जो ज्योतिप्रज्ञा प्रकट होती है, जो ज्योति प्रकट होती है, हैं, वह आप हमें बताएं। अंधकार मिट जाता है। बुद्ध ने कहा कि एक आदमी गुजरता हो रास्ते से, अंधेरा हो, इस अंधकार मिट जाने में दो नहीं रह जाते, एक ही रह जाता है। और रस्सी पड़ी हो, और सांप उसे खयाल में आ जाए। भागे, दौड़े, शायद यह भी कहना ठीक नहीं कि एक रह जाता है, क्योंकि एक तड़फड़ाए, पसीना-पसीना हो जाए। घबड़ा जाए। खून की रफ्तार | से हमें तत्काल संख्या का बोध होता है। इसलिए इस देश ने बड़ा बढ़ जाए। रक्तचाप बढ़ जाए। हृदय की धड़कन होने लगे। बेचैन कीमती शब्द खोजा, अद्वैत। यह भी नहीं कहा कि एक रह जाता है। हो जाए। फिर कोई उसे कहे, घबड़ाओ मत। यह लालटेन हाथ में कहा कि बस, दो नहीं रह जाते। क्योंकि एक रह जाता है, इसमें भी लो और चलो। वह आदमी कहे कि मैं चलूंगा बाद में। मैं आपसे | ऐसा लगता है कि हमें संख्या का आग्रह है। और जब भी आप एक पूछता हूं कि आपने लालटेन लेकर उस सांप को देखा है? अगर का सोचेंगे, तो दो का तत्काल खयाल आएगा। आपने लालटेन लेकर उस सांप को देखा है, तो मुझे यह बताइए | एक का कोई अर्थ ही नहीं होता, अगर दो न होते हों। एक का कि सांप और रस्सी में क्या संबंध है? तो वह आदमी जिसके हाथ | कुछ अर्थ ही होता है दो के संदर्भ में। इसलिए फिर जिन्होंने जाना में लालटेन है, क्या कहेगा? वह कहेगा, जब लालटेन लेकर वहां | था प्रकाश में, उन्होंने इतना ही कहा कि दो नहीं हैं वहां। एक है, कोई जाता है, तो रस्सी ही रह जाती है; सांप होता ही नहीं। और | यह भी हम नहीं कहते। हम इतना ही कहते हैं, दो वहां नहीं हैं। वे जब अंधेरे में कोई जाता है, तो सांप होता है; रस्सी होती ही नहीं। | दोनों वहां नहीं हैं, जो तुमने जाने हैं, जो तुमने सुने हैं। वहां कुछ लेकिन एक आदमी खबर देता है रस्सी की और एक आदमी | | है, एक्स, अज्ञात, रहस्यमय, और वह जानने से ही जाना जा खबर देता है सांप की, तो सुनने वाले को लगता है कि दो चीजें हैं, | सकता है। कहे हुए वक्तव्य, सुने हुए वचन, पढ़े हुए शब्द, उसको सांप है और रस्सी है। फिर वह पूछता है, सांप और रस्सी के बीच नहीं जनाते हैं। संबंध क्या है? फिर बुद्धिमान लोग हैं हमारे पास, जो संबंध के धर्म एक अंतर-क्रांति है, एक अल्केमी है, एक कीमिया है, लिए बड़े-बड़े शास्त्र निर्मित करते हैं कि क्या संबंध है। | जिसमें आदमी अपने को बदले और जानने के नए तलों पर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ध्यान की छाया है समर्पण स्थापित हो, नए प्रकाश और नई आंखें उपलब्ध हों, नई ज्योति और | औपचारिक बात है। कर लेते हैं, सुन लेते हैं बचपन से, फिर नया चैतन्य आविर्भूत हो, तो दिखाई पड़ता है। | उसे दोहराए चले जाते हैं। फिर जिंदगीभर कभी खयाल भी नहीं हम सब जानने के पहले जानना चाहते हैं। इससे इस दुनिया में | | करते कि जो हम कह रहे हैं, उन शब्दों के पीछे कोई प्राण हैं ? बहुत-सा मिथ्या, बहुत-सा फाल्स, सूडो ज्ञान प्रचलित हो जाता है। उन्हें हमने जाना? हम सब जानने के पहले जानना चाहते हैं! पक्षी उड़ने के पहले जानना | मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूं, जो अपने एक-एक शब्द चाहता है कि उड़ना क्या है! तैरने के पहले हम जानना चाहते हैं कि | को तौलेगा। ईश्वर को मैंने जाना हो, तो ही इस शब्द को होंठ पर स्वाद क्या है उस तैरने का! स्वतंत्रता के पहले, आकाश में पंख | | लाऊं। अन्यथा यह शब्द बहुत कीमती है और उन होंठों पर लाने फैलाने के पहले, हम जानना चाहते हैं, स्वतंत्रता का अर्थ क्या है! | के योग्य नहीं है, जिन होंठों ने सिर्फ बासे शब्द को उधार ले लिया तब हमें बताने वाले लोग भी मिल जाते हैं। क्योंकि दुनिया में | हो और दोहरा रहे हों। जब किसी चीज की मांग हो, डिमांड हो, तो सप्लाई भी हो जाती | __ आत्मा मैंने जानी है? तो मत करें उपयोग उसका, शब्द को ही है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि जिस चीज की भी मांग करो, कोई न मत उपयोग करें। अगर शब्द से आप बच सकें, तो शायद बेचैनी कोई देने वाला जरूर मिल जाएगा। बस मांग होनी चाहिए; बाजार | | अनुभव हो कि मैं भी तो जानूं कि क्या है यह? लेकिन हम शब्दों का नियम है। से इतने राजी हैं, इतने राजी हैं! यह लंबी कंडीशनिंग है। तो जब हम मांग करते हैं कि बिना जाने हमें जानना है, तो पंडितों ___ एक आखिरी बात। रूस में एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ, का एक बड़ा वर्ग है सारी दुनिया में, जो आपको बिना जाने जनाने पावलव। उसने कंडीशंड रिफ्लेक्स का एक सिद्धांत प्रस्तावित के लिए राजी है। जो कहता है, क्या जरूरत है! ठीक है; यह रही | किया। कीमती सिद्धांत है। और आत्यंतिक रूप से सही नहीं है, किताब, ये रहे शब्द; इन्हें कंठस्थ कर लो। इनको पी जाओ। इनको | फिर भी बहुत दूर तक सही है। एक कुत्ते के सामने वह रोटी करता याद कर लो। इनको दोहराने लगो। तोतों की तरह इनको रट लो। था, रोटी देता था और तभी घंटी बजाता था। रोटी देखकर कुत्ते की ज्ञान हो जाएगा! लार टपकती थी, तभी वह घंटी भी सुनता था। फिर पंद्रह दिन के हमारे पास ऐसा ज्ञान है। कभी आपने सोचा है कि आपका | बाद रोटी तो नहीं दी, सिर्फ घंटी बजाई और कुत्ते के मुंह से लार ईश्वर आपकी आत्मा तोते की तरह रटा हआ ज्ञान है। आपके पिता टपकने लगी। से आपको मिल गया है। कृपा करके आप अपने बेटे को भी दे अब घंटी से लार के टपकने का कोई भी संबंध नहीं है। कितनी जाएंगे। कोई आपको रटा गया, आप किसी और को रटा देंगे। | ही घंटी बजाओ, कुत्ता लार नहीं टपकाएगा। लेकिन यह पावलव लेकिन अनुभव की, खुद की प्रतीति, खुद के साक्षात्कार की एक | का कुत्ता लार टपकाने लगा। तो पावलव कहता था, यह किरण भी भीतर नहीं है! कंडीशनिंग हो गई, यह संस्कार हो गया। रोटी दी, कुत्ते की लार इसीलिए तो धर्म की इतनी चर्चा होती है और धर्म इतना व्यर्थ | | टपकी। रोटी के साथ घंटी बजी, कान ने घंटी सुनी। रोटी और घंटी मालूम होता है। और धर्म का इतना-इतना व्यापक काम चलता है, | संयुक्त हो गए, एसोसिएटेड हो गए। अब रोटी तो नहीं दी, सिर्फ और परिणाम कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता। सारी दुनिया में प्रकाश | |घंटी बजाई। घंटी बजते ही कान में घंटी पड़ी, लार की ग्रंथियों ने की चर्चा है और घनघोर अंधकार है! और जहां देखो वहां परमात्मा | लार छोड़नी शुरू कर दी। का विचार चल रहा है-मंदिर में, मस्जिद में, चर्च में, गुरुद्वारे में। | हम भी करीब-करीब शब्दों के साथ इसी तरह कंडीशंड हो गए सब जगह प्रभु की स्तुति चल रही है, और प्रभु की कहीं भी कोई | | हैं। मंदिर दिखा, हाथ जोड़ लिए। यह बिलकुल कंडीशनिंग है। झलक किसी आंख में दिखाई नहीं पड़ती! अजीब धोखा है! | बचपन से पिता के साथ गए होंगे, कहा कि मंदिर है, पिता ने हाथ और आदमीयत अपने को धोखा देने में इतनी कुशल मालूम | | जोड़े, आपने हाथ जोड़ लिए। अब कंडीशनिंग हो गई। अब मंदिर पड़ती है कि जिसका हिसाब नहीं। जो है ही नहीं हमारे जीवन में | | दिखता है, हाथ जुड़ जाता है। आप सोचते हैं, आप बड़े धार्मिक बिलकुल, उसकी हम कितनी चर्चा कर रहे हैं! और चर्चा से ही हैं! यह सिर्फ घंटी बजी और लार टपकने लगी! तृप्त हैं। और चर्चा करके सोच रहे हैं, समाप्त हुआ काम। एक | इतना आसान नहीं! हाथ जोड़े, चले गए। निपटारा हो गया 61 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-500 मंदिर से। कभी कोई उत्सव आ गया धर्म का, मना लिया। तो धर्म एक सामाजिक कृत्य होकर रह जाता है। __इससे जागना पड़े। इससे जागना पड़े, तो हम किसी दिन जान पाएं उस प्रकाश को, उस अमृत को, उस आशीर्वाद को, उस लोक को, जिसकी कृष्ण जैसे लोग चर्चा करते हैं। वह हमारे बिलकुल निकट है, बस जरा ही मुड़ने की बात है। और हम अपने इस तथाकथित बंधे हुए मन से जरा भी हिल सकें, तो वह किनारे ही है हमारे। एक छलांग में वह हमें उपलब्ध हो जाए। लेकिन हम इस मन को ही पकड़कर बैठे रहें, तो शब्दों की घंटियां बजती रहेंगी और अनुभव की झूठी लार टपकती रहेगी, कहीं उसका कोई संबंध नहीं है। किसी ने कहा, ईश्वर; किसी ने कहा, गीता; और हमारे भीतर जरूर कोई घंटी बज जाती है। ___ मैं इधर हैरान हुआ। अगर मैं गीता के नाम से वही बात कहूं, तो घंटी बज जाती है आपके भीतर। और अगर गीता का नाम न लं और वही बात कहूं, कोई घंटी नहीं बजती! यही बात मैं कुरान का नाम लेकर कहं, मुसलमान के भीतर घंटी बजने लगती है। यही बात गीता का नाम लेकर कहूं, घंटी बंद हो जाती है! आश्चर्यजनक है। बहुत आश्चर्यजनक है! ऐसा बंधा हुआ, ऐसा तोते जैसा मन, यंत्र जैसा मन, धार्मिक नहीं हो सकता। इस मन को तोड़ना, इस मन को रोकना, इस मन के पार होना जरूरी है। आज इतना ही। लेकिन कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट बैठे। संन्यासी कीर्तन करेंगे। राम-नाम का प्रसाद लें, और फिर जाएं। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 पांचवां प्रवचन कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जुन Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 अर्जुन उवाच | क्वालिटेटिव हो जाता है। वह फिर गुण का अंतर है। फिर वह परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् । | परिमाण और मात्रा का भेद नहीं है। फिर हमारे और उसके बीच पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।। १२ ।। कोई सेतु, कोई संबंध नहीं है। वह दूसरे ही लोक का अस्तित्व है। आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षि रदस्तथा। हमारे और उसके बीच एक अलंघ्य खाई है। असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। १३ ।। ___ इसलिए किसी व्यक्ति को महामानव मान लेने में अड़चन नहीं ___ सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। . है, महात्मा मान लेने में अड़चन नहीं है। हमसे संबंध नहीं टूटता। नहि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ।। १४ ।। हमारे ही रास्ते पर कोई हमसे दो कदम आगे होता है, कोई दस इस प्रकार श्रीकृष्ण के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला,हे कदम आगे होता है। अहंकार को तकलीफ होती है इसमें भी कि भगवन, आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र है, | किसी को मैं आगे मानूं! लेकिन फिर भी अहंकार इससे नष्ट नहीं क्योंकि आपको सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों | होता। हम किसी को अपने से आगे मान सकते हैं। का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं, वैसे ही कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपने से किसी को आगे मानने देवऋषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि । में भी अहंकार को तृप्ति मिलती है। वह तृप्ति जरा सूक्ष्म है। जिसे व्यास और स्वयं आप भी ऐसा मेरे प्रति कहते हैं। । | हम अपने से आगे मानते हैं, यह मानने के कारण ही हम उससे और हे केशव, जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस ।। | संयुक्त हो जाते हैं। और यह मानने के कारण ही हम उसको समस्त को मैं सत्य मानता हूं। हे भगवन, आपके लीलामय | पहचानने वाले हो जाते हैं। और यह मानने के कारण ही हम भी स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं। | अपने भविष्य में कभी उस जैसा होने की संभावना का अहंकार पोषित कर सकते हैं। लेकिन किसी व्यक्ति को ईश्वर मानने में हमारी सारी - ष्ण ने जो भी अर्जुन को कहा, वह बुद्धि से मानने जैसा तर्क-सरणी टूट जाती है, हमारी सारी अंतर्व्यवस्था अस्तव्यस्त हो पा नहीं है; तर्क उसके विरोध में जाएगा, विचार उस पर | जाती है। ईश्वर मानने का अर्थ ही यह हुआ कि वह हमसे बिलकुल ८ संदेह करेंगे। अहंकार अस्वीकार करना चाहेगा उस | | भिन्न है। भिन्नता इतनी गहरी है कि हम उसे समझ भी नहीं पा सकते सबको। क्योंकि कृष्ण ने जो कहा है, उससे ज्यादा कठिन बात, कि वह क्या है। अहंकार को मानना, दूसरी नहीं हो सकती। कृष्ण ने जो भी कहा है, वह असंभव है। असंभव है बुद्धि के कृष्ण भी वैसे ही हड्डी, मांस, मज्जा से बने हैं, जैसे हड्डी, मांस, लिए। अर्जुन उसके उत्तर में जो कह रहा है, वह बहुत सोचने जैसा मज्जा से अर्जुन बना है। कृष्ण को भी वैसे ही भूख लगती है, जैसी | | है। और जैसा ऊपर से दिखाई पड़ता है, वैसा उसका अर्थ नहीं है। अर्जुन को लगती है। कृष्ण भी वैसे ही थकते हैं और विश्राम करते | | और जैसा भी आपको अर्थ दिखाई पड़ता रहा होगा, थोड़ा गहरे हैं, जैसा अर्जुन थकता है और विश्राम करता है। कृष्ण को अर्जुन | | उतरेंगे, तो उससे बिलकुल विपरीत अर्थ पाएंगे। मान सकता है महामानव सरलता से, लेकिन ईश्वर मानने में बड़ी अर्जुन ने कृष्ण की ये सारी बातें सुनकर कि मैं परमात्मा हूं; मैं कठिनाई है। ईश्वर मानने का अर्थ ही ठीक से हम समझ लें, तो | | ही सबमें व्याप्त हूं; सब कुछ मेरे ही द्वारा धारण किया गया है। कठिनाई भी समझ में आ जाए। | समस्त ऋषियों में मेरे ही भाव प्रकट हुए हैं; और समस्त श्रेष्ठताओं जब हम एक किसी व्यक्ति को महामानव मानते हैं, तो भी हम | और समस्त शक्तियों का मैं ही आधार और बीज है; और जहां भी अपने और उसके बीच जो अंतर देखते हैं, वह क्वांटिटी का, | | जीवन में कोई सुगंध ऊंचाई छूती है, और जब भी कोई शिखर डिग्रीज का, क्रम का, परिमाण का है। हमारे जैसा ही, हमारे ही गौरीशंकर होता है, तब उस श्रेष्ठता की अंतिम स्थिति में जो आयाम में, हमसे थोड़ा ज्यादा। लेकिन जैसे ही हम किसी व्यक्ति खिलता है, जो फूल खिलता है, वह मैं ही हूं। मैं ही इस जीवन का को भगवान मानते हैं, हमारा उससे सब संबंध टूट जाता है। और आभिजात्य, मैं ही इस जीवन का रस, मैं ही इस जीवन का प्राण, हमारे और उसके बीच जो अंतर है, वह क्वांटिटेटिव नहीं, मैं ही इस जीवन का केंद्र हूं। ये बातें कृष्ण ने कहीं, जो बड़ी असंभव 164 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जुन हैं किसी बुद्धि को मानने के लिए। अर्जुन ने जो उत्तर दिया, इसलिए बहुत सोचने जैसा है। इस प्रकार कृष्ण के वचनों को सुनकर अर्जुन ने कहा, हे भगवन्, आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र हैं। आपको ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। वैसे ही देवऋषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास और स्वयं आप भी ऐसी ही घोषणा मेरे प्रति करते हैं। और हे केशव, जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस समस्त को मैं सत्य मानता हूं। हे भगवन्, आपके लीलामय स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं। ठीक ऊपर से देखने पर लगेगा कि अर्जुन ने सब कुछ स्वीकार कर लिया। काश, अर्जुन यह सब कुछ स्वीकार कर ले, तो गीता यहीं समाप्त हो जाती; आगे गीता निष्प्रयोजन है। फिर कहने को कुछ और बचता नहीं, और समझाने को भी कुछ बचता नहीं । आखिरी बात पूरी हो गई । अल्टिमेट, जो आत्यंतिक घटना घटनी चाहिए अर्जुन के भीतर, वह घट गई। लेकिन गीता समाप्त नहीं | होती है और कृष्ण को और भी श्रम लेना पड़ता है। यह वक्तव्य जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं होगा, इसीलिए। इसमें तीन बातें खयाल में ले लेने जैसी हैं। अर्जुन कहता है कि आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र हैं, क्योंकि ऐसा ही ऋषियों ने भी कहा है, महर्षियों ने भी कहा है। अर्जुन को अभी भी यह सीधी प्रतीति नहीं है। अभी भी गवाह की जरूरत है; साक्षी की, विटनेस की जरूरत है। अर्जुन मानता है, क्योंकि सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों के भी आदिदेव, . अजन्मा और सर्वव्यापी आपको स्वीकार करते हैं। देवऋषि नारद — ये बड़े नाम हैं; उस युग के बड़े नाम हैं— असित और देवल और महर्षि व्यास, और इतना ही नहीं, आप स्वयं भी मेरे प्रति ऐसा ही कहते हैं। ध्यान रहे, जब भी हमें साक्षी की, गवाह की जरूरत पड़ती है, तो उसका अर्थ होता है, सत्य का साक्षात्कार सीधा नहीं है। अर्जुन यह नहीं कहता कि ऐसा मैं अनुभव करता हूं। अर्जुन कहता है, जिनकी बात मानी जा सके, वे भी ऐसा ही कहते हैं । अर्जुन कहता है, आप जो कह रहे हैं, वह प्रामाणिक मालूम पड़ता है; क्योंकि जो भी विचारशील हैं, जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने भी ऐसा ही कहा है । यह इमीजिएट, यह सीधा-सीधा अनुभव नहीं है। कहीं ऐसा अगर हो कि महर्षि व्यास ऐसा न कहें, और देवल और असित 65 इनकार कर दें, और नारद कह दें कि नहीं, ये कृष्ण भगवान नहीं हैं, तो अर्जुन की क्या गति हो? तो अर्जुन डांवाडोल हो जाए। उसका सत्य, उसका अपना सत्य नहीं है, गवाहों का सत्य है । किन्हीं की गवाही पर वह अपनी मान्यता को निर्धारित कर रहा है। गवाही बहुत मजबूत है। साधारण आदमी की यही मनोदशा है। उसके पास अपना कोई | सत्य नहीं होता । कोई और कहता है, तो वह मान लेता है । कोई और बदल जाएगा कल, तो वह भी बदल जाएगा। लेकिन महर्षि व्यास जो कहते हैं, वह सत्य कहते हैं, यह अर्जुन कैसे जानेगा ! बड़ी मजे की बात है। तब अर्जुन खोजेगा कि और कौन-कौन ऋषि हैं, जो महर्षि व्यास को महर्षि मानते हैं! वह भी निर्भर करेगा किसी गवाही पर । यह तो इनफिनिट रिग्रेस है, इसमें तो कहीं कोई उपाय नहीं हो सकता। अ को आप मानते हैं, क्योंकि ब कहता है। ब को आप मानते हैं, क्योंकि स कहता है । स को आप मानते हैं, क्योंकि द कहता है। लेकिन आप दूसरे पर निर्भर हैं। और जो मान्यता दूसरे पर निर्भर है, वह कभी भी गहरी नहीं हो सकती। क्योंकि जब कृष्ण को सीधा सामने पाकर सीधा नहीं माना जा सकता, तो महर्षि व्यास के वक्तव्य को कैसे गहरे में माना जा सकता है ? कृष्ण सामने खड़े हैं—यह बहुत मजे की बात है - यह ऐसी स्थिति है कि अंधा सूरज के सामने खड़ा हो और कहे कि हां, मैं मानता हूं कि तुम सूरज हो और तुममें प्रकाश है, क्योंकि अ ने भी ऐसा कहा है, ब ने भी ऐसा कहा है, स ने भी ऐसा कहा है ! बड़े-बड़े ज्ञानी भी यही कहते हैं कि सूरज में प्रकाश है; और तुम भी मेरे प्रति कहते हो कि तुम प्रकाशवान हो ! लेकिन अंधे को खुद दिखाई नहीं पड़ रहा। क्योंकि अगर अंधे को खुद दिखाई पड़ता हो, तो गवाही की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य के लिए गवाही की कोई भी जरूरत नहीं है। केवल असत्य के लिए गवाही की जरूरत पड़ती है। सत्य तो स्वयं ही अपनी गवाही है। और अगर सत्य स्वयं अपनी गवाही नहीं दे सकता, तो फिर और कौन उसकी गवाही दे सकेगा? अर्जुन को प्रतीति सीधी नहीं है। अर्जुन अभिभूत है, प्रभावित है, लेकिन बड़े गवाहों के नाम से; सीधे कृष्ण से नहीं। अगर उसे पता चल जाए कि महर्षि व्यास ने नहीं कहा है ऐसा, तो उसके सब आधार डगमगा जाएं, उसकी श्रद्धा का पूरा भवन गिर जाए। दूसरे की गवाही पर निर्भर जो भी व्यक्ति जीता है, वह बहुत Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 दरिद्र है, उसके पास सीधी देखने की आंख नहीं है। एक बात । दूसरी बात ; अर्जुन कृष्ण को प्रेम करता है, यह जरूर सच है। और प्रेम करता है इसीलिए उसने, अर्जुन ने उन लोगों की गवाहियां चुन ली हैं, जो कृष्ण भगवान कहते हैं। अगर अर्जुन कृष्ण को प्रेम न करे, तो वह दूसरे गवाह चुनेगा, जो भगवान कृष्ण को नहीं कहते। और ऐसा नहीं है कि दूसरे गवाह नहीं हैं। कृष्ण के चचेरे भाई नेमिनाथ जैनियों के तीर्थंकर हैं। वे जैन-दीक्षा लेकर जैन संन्यासी हो गए थे। और फिर जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में एक स्थान पर पहुंच गए। लेकिन आप जानकर हैरान होंगे कि जैन मानते हैं कि कृष्ण ने इतना पाप किया और करवाया कि वे सातवें नर्क में सड़ रहे हैं ! बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। जैनों की दृष्टि से बात में थोड़ा मजा है, सोचने जैसा मजा है। क्योंकि जैन यह कहते हैं कि अर्जुन तो भाग रहा था और अहिंसक होना चाहता था। कहता था, नहीं करूंगा युद्ध । इन अपने लोगों को काटने से क्या है सार? और धन भी पाकर क्या मिलेगा? और राज्य भी मिल गया, तो क्या होगा? वह तो विरत हो रहा था, विराग जग रहा था। वह तो छोड़कर जा रहा था युद्ध को। वह तो संन्यास, त्याग, पलायन में प्रवेश कर रहा था। लेकिन कृष्ण ने उसे समझा-बुझाकर युद्ध में जूझने को राजी कर लिया। निश्चित ही, महाभारत का अगर कोई भी पाप है, तो कृष्ण के नाम जाएगा, अर्जुन के नाम नहीं जा सकता – अगर कोई पाप है। अर्जुन तो भाग ही रहा था। यह गीता अर्जुन को समझाने के लिए कृष्ण ने कही है कि वह युद्ध में खड़ा रहे ; भागे न। अगर कोई पुण्य है, तो वह कृष्ण के नाम जाएगा; अगर कोई पाप है, तो कृष्ण के नाम जाएगा। अब यह हम पर निर्भर करेगा कि हम उसे पुण्य मानें या पाप मानें। जैनों की दृष्टि में चूंकि अहिंसा कसौटी है समस्त पाप-पुण्य की; चूंकि भयंकर हिंसा हुई, इसलिए पाप हुआ । जिम्मेवार कृष्ण हैं । इसलिए जैनों ने बड़ी हिम्मत की है। हिम्मत की बात है। कृष्ण जैसे व्यक्ति को नर्क में डालना हिम्मत की बात है। हाथ में तो हमारे है, क्योंकि किताब हम लिखते हैं, नर्क हमारे हैं। कृष्ण नर्क में हैं या नहीं, इसका तो कोई जानने का उपाय नहीं है। लेकिन जैन की दृष्टि कृष्ण नर्क में होने चाहिए। तो सातवें नर्क में उनको डाला है। लेकिन पीड़ा तो जैनों को भी मन में रही है, क्योंकि आदमी तो लाजवाब था; उनके सिद्धांत से मेल नहीं खाया। आदमी तो गजब का था, प्रतिभा तो उसकी अनूठी थी। सिद्धांत से मेल नहीं खाया, इसलिए सातवें : में डाला है। लेकिन अपराध भी भीतर मन में लगा होगा कि यह आदमी नर्क में डालने जैसा नहीं है, स्वर्ग में बिठाने जैसा है। इसलिए फिर उन्होंने एक तरकीब की व्यवस्था की। आदमी का मन बड़ी चालाकिया करता है, गणित बिठाता है। 66 तो जैनों ने एक नियम बनाया कि कृष्ण इस युग में तो सातवें नर्क में हैं, लेकिन आने वाले कल्प में जैनों के पहले तीर्थंकर होंगे! एक बैलेंस, एक संतुलन हो गया । श्रेष्ठतम वे जो कर सकते थे, वह यह कि आने वाले कल्प में जब सृष्टि विनष्ट हो जाएगी और पुनर्निर्मित होगी, तो जो पहला तीर्थंकर होगा जैनों का, वह कृष्ण की आत्मा ही पहली तीर्थंकर होगी। इस महाभारत की हिंसा में उलझने के कारण तीर्थंकर की हैसियत के आदमी को सातवें नर्क में डालने की मजबूरी है। लेकिन इस दुख को भोगकर और अनुभव से गुजरकर ऐसी भूल कृष्ण अब दुबारा नहीं करेंगे। आदमी तो गजब के हैं, अब यह भूल उनसे दुबारा नहीं होगी। तो वे पहले तीर्थंकर हो सकते हैं। निश्चित ही, अर्जुन के मन में अगर कृष्ण के प्रति प्रेम न होता, तो उसने गवाही दूसरी चुनी होतीं। ये तीन-चार जो गवाहों के नाम लिए हैं, ये ही गवाह नहीं थे, और भी गवाह थे । वे लोग भी थे, जिन्होंने कृष्ण को नर्क में डाला है। हम अपने प्रेम से अपनी गवाही चुन लेते हैं। अर्जुन का प्रेम है ' कृष्ण के प्रति लगाव है। उसने जो कृष्ण के अनुमोदन में हैं, उन लोगों के नाम चुन लिए हैं। लेकिन यह प्रेम श्रद्धा नहीं है, यह मित्र के प्रति प्रेम है। यह लगाव समान तल पर है। अर्जुन कहता है कि मानता हूं, आप जो भी कहते हैं, सत्य मानता हूं। लेकिन यह मान्यता सीधी नहीं है, यह बात ठीक से समझ लें। काश यह मान्यता सीधी होती, तो उसी क्षण गीता समाप्त हो जाती । बात पूरी हो गई थी। फिर कृष्ण का आदेश मानने के अतिरिक्त और कोई उपाय न था । लेकिन अभी भी आदेश माना नहीं जा सकता। अर्जुन कहता है कि आप भगवान हैं, लेकिन अभी संदेह किए चला जाएगा। और जब कृष्ण बुद्धि से उसे सब | जगह से काट-छांट डालेंगे और जब उसकी बुद्धि को कोई उपाय नहीं मिलेगा, तो वह कहेगा कि ऐसे मेरी तृप्ति नहीं होती। आप तो | अपना विराट भगवान का रूप दिखाएं, तब शायद! नहीं, अभी उसका स्वयं का राजी होना नहीं हुआ है। बुद्धि से गवाह जुटाकर वह अपने को समझा रहा । इस सूत्र में जगह-जगह उसकी खबर है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जुन ऋषि तो कहते हैं कि आप परम ब्रह्म हैं; और इतना ही नहीं, | | समझने मैं नहीं आया हूं। अगर आप जानते हों, तो हां कह दें, या स्वयं आप भी ऐसा मेरे प्रति कहते हैं। वह कृष्ण को भी गवाहियों न कह दें। आप जानते हों, तो बोलें, अन्यथा चुप रह जाएं। की कतार में खड़ा कर रहा है। वह इनकी बात भी न मानता। लेकिन क्योंकि शास्त्र तो मैं भी पढ़ लूंगा। देवेंद्रनाथ की हिम्मत न जुटी बड़ी मुश्किल है। कृष्ण खुद कह रहे हैं कि मैं भगवान हूं। तो वह कहने की कि हां, मैं जानता हूं। कहता है कि और आप भी ऐसा ही मेरे प्रति कहते हैं। तो उसकी बाद में विवेकानंद कहते थे कि देवेंद्रनाथ की झिझक ने सब कुछ हिम्मत नहीं जुट पाती कि वह संदेह खड़ा करे। लेकिन संदेह उसके कह दिया। जानते थे बहुत, लेकिन वह सब किसी और के द्वारा भीतर है। जानते थे; सीधी कोई प्रतीति न थी। जिसके भीतर संदेह नहीं है, वह गवाह नहीं जुटाएगा। गवाह फिर यही युवक रामकृष्ण के पास गया। उतनी ही अकड़ से, हम जुटाते इसलिए हैं कि भीतर के संदेह को काटने का और कोई उतने ही जोर से। रामकृष्ण को भी हाथ पकड़कर पूछा है कि ईश्वर उपाय नहीं है। भीतर के संदेह जितने बड़े होंगे, उतने बड़े गवाह है? लेकिन हालत बिलकुल बदल गई। जैसे देवेंद्रनाथ कंप गए थे हम जुटाएंगे। आधी रात इसका सवाल सुनकर; रामकृष्ण ने जब देखा आंख अर्जुन को अगर सड़क चलता हुआ कोई भी आदमी कह दे कि । उठाकर विवेकानंद की तरफ, तो विवेकानंद खुद कंप गए। कृष्ण भगवान हैं, तो वह मानेगा नहीं; उसका संदेह बड़ा है। जब | रामकृष्ण ने कहा, है या नहीं, यह छोड़ो। तुम्हें जानना हो तो बोलो? महर्षि व्यास ही तराजू पर न बैठकर कहें कि हां, ये भगवान हैं, तब और अभी जानना है ? हाथ-पैर कंप गए विवेकानंद के। विवेकानंद तक वह मानेगा नहीं! ने कहा कि मैं जरा सोचकर आऊं। यह मैं सोचकर नहीं आया! जितना बड़ा हो संदेह, उतनी बड़ी गवाही चाहिए। यह थोड़ा रामकृष्ण ने कहा, है या नहीं, यह सवाल बेकार है। तुम्हें जानना उलटा मालूम पड़ेगा! हम जितनी बड़ी गवाही खोजते हैं, उतने बड़े हो, तो मैं जना सकता हूं। संदेह की खबर देते हैं। अगर संदेह बिलकुल न हो, तो गवाही की रामकृष्ण ने विवेकानंद का हाथ पकड़ लिया। इस बातचीत में बिलकुल जरूरत न पड़ेगी। अगर संदेह शून्य हो, तो सारी दुनिया | विवेकानंद ने जो हाथ पकड़ा था, वह छूट गया था। रामकृष्ण ने भी विपरीत गवाही दे, तो भी कोई अंतर नहीं पड़ेगा। हाथ पकड़ लिया और कहा कि ऐसे नहीं जाने दूंगा। जब आ ही गए विवेकानंद रामकृष्ण के पास गए पूछने कि क्या ईश्वर है? | हो, तो अच्छा होगा, जानकर ही जाओ! विवेकानंद ने कहा है कि रामकृष्ण को कहना चाहिए था कि महर्षि फलां कहते हैं कि है, फिर मेरी हिम्मत रामकृष्ण से कभी कुछ पूछने की न पड़ी। क्योंकि उपनिषद कहते हैं कि है, वेद कहते हैं कि है। ऐसा कहना चाहिए यहां पूछना आग से खेलना था-सीधा। था। ऐसा किसी भी पंडित के पास विवेकानंद जाते, तो वह यही रामकृष्ण ने नहीं कहा कि उपनिषदों ने कहा है, वेद ने कहा है, कहता। गए भी थे वे। रवींद्रनाथ के पिता के पास गए थे। बुद्ध ने कहा है, कृष्ण ने कहा है। बेकार हैं बातें। अगर रामकृष्ण __ महर्षि देवेंद्रनाथ बड़े ज्ञानी थे, बड़े पंडित थे। उनके पास भी को खुद ही पता है, तो ये सब गवाहियां हैं या नहीं, निर्मूल्य है। विवेकानंद, रामकृष्ण से मिलने के पहले, गए थे। आधी रात-गंगा और अगर रामकृष्ण को खुद पता नहीं है, तो दुनिया में सबने कहा में बजरे पर महर्षि का निवास था तो कूदकर आधी रात अंधेरे में हो, तो भी उनकी सबकी गवाहियों का जोड़ भी सत्य नहीं बन बजरे पर चढ़ गए; द्वार खोला। रात आधी; महर्षि अपने ध्यान में सकता। कितनी ही गवाहियों का जोड़ भी सत्य नहीं बन सकता; बैठे थे आंख बंद करके। जाकर कालर पकड़कर उनका गला और एक छोटे-से सत्य को भी सारी दुनिया के गवाह मिलकर हिलाया और कहा कि मैं यह पूछने आया हूं, क्या ईश्वर है? विपरीत कहें, तो भी असत्य नहीं कर सकते। महर्षि समझा सकते थे, बता नहीं सकते थे। तर्क दे सकते थे, लेकिन यह अर्जुन जो कह रहा है, इसकी बात को ठीक से समझ खुद का कोई अनुभव नहीं था। तो महर्षि ने कहा, युवक, बैठो। लेना जरूरी है। क्योंकि उस पर ही आगे की पूरी समझ निर्भर मैं तुम्हें शास्त्रानुसार समझाऊंगा। लेकिन विवेकानंद छलांग करेगी। अर्जुन को भरोसा जरा भी गहरे में नहीं है, ऊपर-ऊपर है। लगाकर वापस गंगा में कूद गए। महर्षि ने आवाज दी कि लौट लगाव है उसका। मानना चाहता है कि कृष्ण भगवान हों; मान नहीं आओ, मैं तुम्हें सब तरह से समझाऊंगा। विवेकानंद ने कहा, पाता है। अपने को मनाना भी चाहता है। यह चेष्टा वास्तविक है, 67 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 प्रामाणिक है। चाहता है कि मान ले कि कृष्ण भगवान हैं, इसलिए रूस उन्नीस सौ सत्रह के पहले ऐसा ही आस्तिक था, जैसा भारत गवाही भी जुटाता है। लेकिन फिर भी गवाहियां ऊपर ही रह जाती आज है। और करीब-करीब सब तरह से हालत ठीक वैसी है भारत हैं। और तब वह कहता है, स्वयं आप भी ऐसा ही मेरे प्रति कहते हैं। की, जैसी उन्नीस सौ सत्रह के पहले रूस की थी। परम आस्तिक था और हे केशव, जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस समस्त रूस। चर्चों में भीड़ होती थी। लोग धर्म-प्रवचन सुनते थे। बाइबिल को मैं सत्य मानता हूं। पढ़ते थे। मस्जिदों में प्रार्थना करते थे। बड़े आस्तिक लोग थे। यह मानना जानना नहीं है। यह मानना वस्तुतः मानना नहीं है, फिर क्रांति हुई और कम्युनिस्टों ने आस्तिकता के विपरीत पहली क्योंकि इतने बड़े सत्य को मानते ही तो जीवन रूपांतरित हो जाता | दफा दुनिया में एक राष्ट्र निर्मित किया। दस साल के भीतर है। यह तो मानते ही अर्जुन का दूसरा जन्म हो जाए। लेकिन अर्जुन | आस्तिक खो गए! हजारों साल पुराने आस्तिक दस साल में वही का वही रहता है यह मानने के बाद भी। | पिघलकर बह गए; उनका पता चलना बंद हो गया। समाज जिस धर्म को मानने के बाद आपका जीवन न बदले, तो आप | नास्तिक हो गया। जो कल आस्तिक होकर जीसस की पूजा करते समझना कि आपने धर्म को माना नहीं। जिस आग में हाथ डालें थे, वे ही नास्तिक होकर लेनिन के चरणों में सिर रख दिए। जो कल और हाथ भी न जले, तो समझना कि वह आग झूठी होगी, सपने | | | चर्च और जेरूसलम की तरफ नमस्कार करते थे, या मक्का और की होगी, कल्पना की होगी, कागजी होगी। होगी नहीं। चित्र पुता | मदीना की तरफ जिनके सिर झुकते थे, उनके ही सिर क्रेमलिन के होगा आग का, उसमें आप हाथ डाल रहे हैं। लाल सितारे की तरफ झुकने लगे। सारा मुल्क नास्तिक हो गया। ___ऐसा अगर अर्जुन जान ले कि कृष्ण भगवान हैं, तो अर्जुन वैसे | बड़ी हैरानी की बात है! इतनी सस्ती बात है कि पूरा का पूरा ही खो जाएगा, जैसे बूंद सागर में खो जाती है। इसी क्षण खो जाएगा। मुल्क दस साल, दस-पंद्रह साल में आस्तिक से नास्तिक हो जाए! लेकिन यह भी उसकी चेष्टा है, यह मानना भी उसका बौद्धिक नास्तिक होना आसान हो गया, आस्तिक होना कठिन हो गया। प्रयास है। यह भी प्रयत्न है, यह भी एक श्रम है, यह भी एक अभी आपकी आस्तिकता, हमारी आस्तिकता भी ऐसी ही है। कोशिश है। और इसलिए कोशिश कभी भी गहरी नहीं जाती, क्योंकि आस्तिक होना आसान है, इसलिए हम आस्तिक हैं। 3 ऊपर-ऊपर रह जाती है; और भीतर विपरीत दशा मौजूद रहती है। नास्तिक होना आसान हो जाए, तो हम नास्तिक हो जाएं। जो भी भीतर विपरीत दशा मौजूद रहती है। वह विपरीत दशा अर्जुन के कनवीनिएंट है। हमारा धर्म एक तरह की कनवीनिएंस है, एक तरह भीतर भी मौजूद है। यद्यपि उसे थोड़ा आनंद आ रहा है यह बात की सुविधा है। जिस बात में सुविधा होती है, वह हम करते रहते कहने में कि इस समस्त को मैं सत्य मानता हूं। हैं। मंदिर जाने में सुविधा होती है, तो हम करते रहते हैं। हे भगवन्, आपके लीलामय स्वरूप को न दानव जानते हैं और एक मित्र मेरे पास आए थे कुछ दिन हुए। उन्होंने कहा कि मुझे न देवता ही जानते हैं। भरोसा बिलकुल नहीं है, न मंदिर में, न भगवान में। लेकिन लड़की ___ इससे उसके अहंकार को थोड़ा आनंद भी आ रहा है, लेकिन मैं की शादी करनी है, इसलिए मंदिर जाना पड़ता है। और किसी से जानता हूं। न देवता जानते हैं, न दानव जानते हैं। आपके इस | कह भी नहीं सकता कि मेरा भगवान में कोई भरोसा नहीं है, क्योंकि लीलामय स्वरूप को कोई भी नहीं जानता, लेकिन मैं, अर्जुन, | | छोटे बच्चे हैं। इन सबको पालना और बड़ा करना है। जानता हूं। यह उसकी सारी मान्यता भी उसके गहन अहंकार को एक सामाजिक कृत्य है, एक सामाजिक सुविधा है। और फिर संपुष्ट करती है। मैं जानता हूं! इसीलिए वह माने ले रहा है। अहंकार है। अहंकार को जिसमें भी तृप्ति मिलती हो, अहंकार इसमें एक बात ध्यान देने योग्य है कि बहुत बार हम इसलिए मानने को राजी हो जाता है। मान लेते हैं कि मानने से अहंकार पुष्ट होता है। इसलिए आप अर्जुन को सुख मालूम हो रहा है। क्योंकि न देवता जानते हैं, न देखकर हैरान होंगे कि अगर आपको नास्तिकों के बीच में छोड़ दानव जानते हैं। कोई भी नहीं जानता कि कृष्ण क्या हैं, क्या है दिया जाए, तो आप नास्तिक हो जाएंगे। आपको आस्तिकों के बीच उनका रहस्य, लेकिन मैं मानता हूं। .. में छोड़ दिया जाए, आप आस्तिक हो जाएंगे। क्योंकि जिनकी भीड़ | ये दो बातें ध्यान में रखने की हैं इस सूत्र में। एक तो अर्जुन मानता होती है, उनके विपरीत जाने में अहंकार को तकलीफ होती है। नहीं, गहरे में अस्वीकार है। उस अस्वीकार को भरने की, गवाही से, 68 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जुन चेष्टा है। हम अपने मतलब की गवाही सदा खोज लेते हैं। | हो रही है। और ऐसी शांति है कि जिसको कभी कोई बुद्ध उपलब्ध सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन एक तीर्थयात्रा पर निकला था। | हो पाता है। मैं उसका दर्शन करके सपने से लौटा हूं। अकेला था। रास्ते में एक मौलवी और साथ हो लिया। फिर एक | दोनों ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि तुम्हारा क्या है ? उसने कहा योगी भी साथ हो लिया। फिर तीनों एक गांव में रुके। लेकिन मौलवी | | कि मेरा तो सपना बड़ा साधारण है। मेरा गुरु, सूफियों का गुरु ने कहा कि मेरा तो अभी नमाज का समय है, और योगी ने कहा कि | | खिज्र, मुझे दिखाई पड़ा। उसने कहा कि मुल्ला नसरुद्दीन, उठ। तू अभी तो मैं अपने योगासन, अपनी साधना करूंगा। तो नसरुद्दीन से मेरा शिष्य है, तो मेरी आज्ञा मान, इसी वक्त उठ और हलुवा खा। कहा कि तू जाकर गांव से कुछ थोड़ी-सी भिक्षा जुटा ला! | दिस वेरी मोमेंट! गुरु की आज्ञा मानने के लिए मजबूरी हो गई। मैं तो नसरुद्दीन कुछ पैसे जुटाकर हलुवा खरीदकर ले आया। आते | आधी रात उठकर हलुवा खा चुका हूं। ही उसने कहा कि बेहतर हो कि हम जल्दी इस हलुवे का विभाजन आदमी अपने मतलब से सब कुछ खोजता है। उसके सपने भी कर लें। और स्वभावतः पहला हिस्सा मुझे मिलना चाहिए, क्योंकि | उसके मतलब से निर्मित होते हैं, उसके सत्य भी। उसकी कल्पनाएं इस हलुवे को उपस्थित करने में मैंने साधन का काम किया है। भी उसके मतलब से जन्मती हैं, उसके सिद्धांत भी। आदमी बहुत लेकिन मौलवी ने कहा कि अभी तो मुझे भूख नहीं है, और योगी | जटिल, बहुत जटिल घटना है। ने कहा कि मैं तो सूरज डूबने के पहले ही सिर्फ तीन दिन में एक । अर्जुन की जटिलता को खयाल में लें। जटिलता यह है कि वह बार भोज जन करता है. इसलिए सांझ को ही भोजन लंगा। तो अभी मानना भी नहीं चाहता कि कष्ण भगवान हैं और मानना भी चाहता रखो, अभी हम यात्रा करें, सांझ को देखेंगे। है, ईदर-ऑर। दोनों उसके सामने हैं। और ऐसे दोनों ही हम सबके सांझ भी आ गई, लेकिन तब सवाल बड़ा गहन यह हो गया कि सामने सदा होते हैं। उस हलुवे को बांटा किस तरह जाए! मौलवी ने कहा कि मैं एक | हम सब का ही प्रतीक है अर्जुन। हम सबके भीतर ही ऐसा द्वंद्व धर्म का दीक्षित पुरोहित हूं, तो पहला हक और बड़ा हक मेरा है।। | है। हम मानना भी चाहते हैं और नहीं भी मानना चाहते हैं। हम और योगी ने कहा, आप हों कितने ही दीक्षित पुरोहित, लेकिन | करना भी चाहते हैं और नहीं भी करना चाहते हैं। हम जीना भी मुझसे बड़ी योग की आपकी कोई संपदा नहीं है। मैं समाधि को | चाहते हैं और नहीं भी जीना चाहते हैं। हम शांत भी होना चाहते हैं उपलब्ध हो चुका हूं, इसलिए हक पहला मेरा है। और नसरुद्दीन ने | और नहीं भी होना चाहते हैं। दोनों विरोध हमारे भीतर एक साथ कहा कि आप भला कितने ही पहुंच गए हों, लेकिन हलुवा लाने में | | खड़े हुए हैं। और हम जीवनभर यही करते रहते हैं। कि जैसे कोई साधन रूप में ही सिद्ध हुआ हूं। एक सिक्का हो आपके पास, तो कभी उसे उलटा कर लें और कभी ___ बात इतनी झगड़ने की हो गई कि सांझ भी हो गई, सूरज भी डूब | उसे सीधा कर लें। दूसरा पहलू नीचे दब जाता है, लेकिन मौजूद गया। और तब तो योगी ने कहा कि अब सुबह ही कुछ हो सकता रहता है। फिर ऊब जाते हैं एक पहलू से, तो दूसरा ऊपर कर लेते है, क्योंकि सूरज डूब चुका है; मैं सुबह सूरज उगने पर ही भोजन हैं। हम जिंदगीभर इस द्वंद्व के बीच ही डोलते रहते हैं। ले सकता हूं। तो यह तय पाया गया कि हम तीनों सो जाएं और जो हम सबका मन एक ही साथ विपरीत को करना चाहता है। हम रात सबसे अच्छा सपना देखे, श्रेष्ठतम, सुबह हम अपने सपने | श्रद्धा भी करना चाहते हैं और अश्रद्धा भी हमारी गहरी है। यह कहें, जो श्रेष्ठतम सपना देखे, वही हलुवे का मालिक हो, और वह जटिलता है। और इस जटिलता को बिना समझे जो चलेगा, वह जिसको जितना दे दे। वे रात सो गए। इस जटिलता के बाहर कभी भी नहीं हो पाएगा। इस जटिलता को सुबह ब्रह्ममुहूर्त में ही तीनों उठ आए। मौलवी ने कहा कि मैंने | जो समझ लेगा, वह इसके बाहर हो सकता है। देखा कि मेरे धर्म का संस्थापक मेरे सिर पर हाथ रखे हुए सपने में | अर्जुन को भी पता नहीं है। यह बहुत अनकांशस, यह बहुत खड़ा है। और मुझे आशीर्वाद दे रहा है और मुझसे कह रहा है कि | अचेतन है। अगर अर्जुन से भी हम यह कहें कि नहीं, ये तू जो तुझसे श्रेष्ठ शिष्य मेरा कोई दूसरा नहीं है। गवाहियां इकट्ठी कर रहा है, ये इसलिए इकट्ठी कर रहा है कि तुझे योगी ने कहा, यह कुछ भी नहीं है। क्योंकि मैंने देखा कि मैं परम | संदेह है। तो वह भी चौंकेगा कि आप क्या कह रहे हैं! मैं भगवान मोक्ष में प्रवेश कर गया सपने में और मेरे ऊपर फूलों की अनंत वर्षा | मानता हूं। और अगर कृष्ण जिद्द करें कि नहीं, तू मानता नहीं है। 69 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 58 तो वह और भी जिद्द करेगा कि मैं मानता हूं। | जाएं कि आप कृष्ण को भगवान मानते हैं—मानकर ही बैठे हैं, तब लेकिन उसकी जिद्द भी यही बताएगी। हम जिद्द ही उन बातों की तो बहुत मुश्किल है तो आपको भी दलील में कुछ रस मालूम करते हैं, जिनके विपरीत हमारे भीतर कोई स्वर होता है। जितने | | पड़ेगा कि बात में कुछ सचाई है। यही आदमी तो जिम्मेवार है सारी जिद्दी लोग होते हैं, वे द्वंद्वग्रस्त लोग होते हैं। जिसके भीतर का द्वंद्व | | हिंसा का, हत्या का, उपद्रव का। तो नर्क में डालना ठीक मालूम विसर्जित हो जाता है, उसकी जिद्द भी चली जाती है। | पड़ता है। और अगर इसको भी नर्क में नहीं डालते, तो जो मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने बुढ़ापे में गांव में मजिस्ट्रेट | छोटी-मोटी हत्या कर रहे हैं, इनको काहे के लिए डालना! बना दिया गया था, आनरेरी मजिस्ट्रेट। पहला ही मुकदमा आया, लेकिन अगर कृष्ण के भगवान होने की तरफ विचार करें, तो तो एक पक्ष ने अपनी कहानी प्रस्तुत की। मुल्ला इतना अभिभूत | | वह बात भी उतनी ही बलशाली मालूम पड़ती है। वहां भी मन हां और प्रभावित हो गया, तो उसने कहा कि बिलकुल ठीक, बिलकुल | कहने की कोशिश करेगा कि बिलकुल ठीक है। और फिर अगर सत्य! कोर्ट के क्लर्क ने झुककर मुल्ला से कहा, आप यह क्या कर कोई आपसे कहे कि दोनों ठीक? दोनों कैसे ठीक हो सकते हैं! तो रहे हैं! अभी दूसरा, दूसरा पहलू तो आपने सुना ही नहीं! अभी एक | निश्चित आपको कहना पड़ेगा कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप; ही आदमी बोला है; अभी इसका दुश्मन मौजूद है। और मजिस्ट्रेट दोनों ठीक कैसे हो सकते हैं! को इस तरह का वक्तव्य देना उचित नहीं है। मुल्ला ने कहा, दूसरे | यह हमारा मन ऐसा काम करता है। लेकिन हम संगत होने की का भी सुन लेते हैं। दृष्टि से एक को ऊपर रखते हैं, दूसरे को नीचे दबा देते हैं। जिसको __ दूसरे ने उसके खिलाफ सारी बातें कहीं और मुल्ला इतना | हम नीचे दबा देते हैं, आज नहीं कल वह बदला लेगा। वह ऊपर प्रभावित हो गया कि उसने कहा कि बिलकुल ठीक, बिलकुल उभरेगा, वह निकलकर बाहर आएगा। और जिसे हमने आज ऊपर सत्य! क्लर्क ने झुककर कहा कि महानुभाव, आप कर क्या रहे हैं! | रखा है, उससे हम ऊब जाएंगे। सब चीजों से आदमी ऊब जाता थोड़ा सोचिए-विचारिए। और दोनों ही एक साथ सत्य कैसे हो | | है। और जिन चीजों के साथ रहता है सचेतन रूप से, उनसे जल्दी सकते हैं? पहला भी सत्य, दूसरा भी सत्य! मुल्ला क्लर्क से इतना ऊब जाता है। तो जिसको आपने ऊपर रखा है, थोड़ी देर में दिल प्रभावित हो गया, उसने क्लर्क से कहा कि तुम जो कह रहे हो, वह बदल जाएगा और मन ऊब जाएगा; फिर नीचे की बात ज्यादा बिलकुल सत्य है। दोनों सत्य कैसे हो सकते हैं? बिलकुल ठीक | सार्थक मालूम होने लगेगी। इस तरह मन घड़ी के पैडुलम की तरह कह रहे हो। डोलता रहता है। हमें कठिनाई मालूम पड़ेगी कि यह आदमी नासमझ है। लेकिन __ अर्जुन इस सूत्र में दोनों बातें कह रहा है। अगर आपको दोनों हम सब ऐसे ही आदमी हैं। हां, इतने स्पष्ट हम नहीं हैं। बातें दिखाई पड़ जाएं, तो आगे गीता को समझना बहुत सुगम हो मुल्ला ने तीनों बातों में कह दिया कि तीनों सत्य हैं। अगर हम जाए। कृष्ण को दोनों बातें दिखाई पड़ रही हैं। इसलिए गीता समाप्त होते, तो हम थोड़ी होशियारी करते। हम एक में कहते, सत्य। नहीं की गई। गीता को जारी रखना पड़ा है। कृष्ण को पता है कि दूसरा भी हमें ठीक लगता, तो उसे फिर हम छिपाते, क्योंकि यह | अर्जुन जो कह रहा है, यह अभी भी उसका अपना सत्य नहीं है। इनकंसिस्टेंट हो जाएगा। जब पहले को सत्य कह दिया, तो अब और उधार सत्य, दूसरे के सत्य, असत्य से भी बदतर होते हैं। दूसरे को सत्य कैसे कहें! तो दूसरे को हम दबाते। और तीसरे को असत्य भी अपना हो, तो उसमें एक प्रामाणिकता होती है, एक तो हम कहते ही कैसे! क्योंकि यह बात बिलकुल पागलपन की| | सिंसिअरिटी होती है। और सत्य भी दूसरे का हो, तो इनसिंसिअर हो जाएगी। लेकिन हमारा मन भी ऐसा ही चलता है। ऐसा ही | | होता है, अप्रामाणिक होता है। दूसरे के सत्य का क्या अर्थ? मेरा चलता है। असत्य भी मेरा अनुभव बनेगा। दूसरे का सत्य भी मेरा अनुभव नहीं कृष्ण को कोई अगर नर्क में डालने की बात कहे, वह भी हमें | बन सकता है। सत्य मालूम पड़ सकती है। नहीं तो कुछ लोगों ने डाला ही क्यों । महर्षि व्यास क्या कहते हैं, इससे अर्जुन का क्या लेना-देना? होता! उनको सत्य मालूम पड़ी है। और आप भी अगर जिद्द न करें - और महर्षि व्यास को मानने का अर्जुन को कारण क्या है? कृष्ण और समझने की कोशिश करें और दूसरे पहलू को बिलकुल भूल को मानने में जिसे कठिनाई हो रही हो, वह महर्षि व्यास को इतनी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जन सुविधा से कैसे माने ले रहा है? | मानता हूं। और जिनको मानना बिलकुल आसान है, प्रत्यक्ष है, नहीं; वह ऊपर से लीपापोती कर रहा है। वह अपने मन को | | उनको आप कभी मानने की बात नहीं करते। समझा रहा है। वह कोशिश कर रहा है कि मान जाऊं कि कृष्ण | शरीर को आप जानते हैं, आत्मा को आप मानते हैं। यह फर्क भगवान हैं। लेकिन भीतर प्रबल प्रवाह है अहंकार का। वह कहता समझ लें। पदार्थ को आप जानते हैं, परमात्मा को आप मानते हैं। है कि यह कैसे माना जा सकता है? जिस दिन परमात्मा भी जानना बनता है और जिस दिन आत्मा भी और ध्यान रहे, क्षत्रिय का अगर कोई सबसे ज्यादा विकसित जानना बन जाती है, उसी दिन, उसी दिन आपके भीतर एकस्वर का हिस्सा है, तो वह अहंकार है। वही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। जन्म होता है। अन्यथा आपके भीतर द्वंद्व और कलह मौजूद ही रहेंगे। क्षत्रिय का अगर कोई सबसे विकसित हिस्सा है, तो वह अहंकार | फिर जो आदमी जितना मान्यता में कमजोर होगा. उस मान्यता को है। वही उसकी कमजोरी भी है। वही उसकी हिंसा है, वही उसकी | | वह जिद्द से पूरा करता है। इसलिए कमजोर आस्था वाले लोग कलह है। उसी को वह बर्दाश्त नहीं कर सकता। और अर्जुन तो | | डाग्मैटिक हो जाते हैं। जितनी कमजोर आस्था वाले लोग होंगे, उतने कहना चाहिए, क्षत्रियों में श्रेष्ठतम क्षत्रिय है; शुद्धतम अहंकार है। | ज्यादा मतांध होंगे। क्योंकि उन्हें खुद से ही डर लगता है कि अगर उसके पास जो अस्मिता है, जो ईगो है, वह शुद्धतम क्षत्रिय की है। कहीं दूसरा मेरी मान्यता को खंडित कर दे या गलत कर दे, तो उन्हें उसको बहुत मुश्किल है यह बात मानने की कि कृष्ण भगवान हैं। खुद ही पता है कि हम तो भीतर तैयार ही हैं कि अगर कोई गलत कर उसे सिर उनके चरणों में रखना बहुत कठिन है। अति कठिन है। दे, तो हम भी गलत मान लेंगे। इसलिए किसी की बात मत सुनो, लेकिन कृष्ण की प्रतिभा, कृष्ण की आभा, कृष्ण का प्रकाश भी विपरीत विचार को मत सुनो, विपरीत शास्त्र को मत पढ़ो। उसे छूता है। कृष्ण का प्रेम, उनकी अनुकंपा भी उसे स्पर्शित करती हिंदुस्तान में...हिंदुस्तान को हम कहते हैं, बहुत उदार देश है। है। उसकी हृदय की पंखुड़ियां उनकी निकटता में खिलती भी हैं। लेकिन एक अनुदार धारा भी इसके नीचे गहरे में प्रवाहित रही है। उसके भीतर कुछ प्रतिध्वनित भी होता है। उनको पास पाकर वह | | और हमारा मन होता है अच्छी-अच्छी बातें मान लेने का, लेकिन जानता है कि सिर्फ आदमी के निकट नहीं है। यह कहीं गहरे में | खतरनाक है। क्योंकि बुरी बातें भी भीतर प्रवाहित होती हैं, और एहसास भी होता है। एक तल पर इनकार भी चलता है, एक तल उनको अगर हम भूले बैठे रहें, तो वे नासूर बन जाती हैं, घाव बन पर इसका स्वीकार भी होता है। और इन दोनों द्वंद्व के बीच में फंसा | जाती हैं; भीतर फोड़े पैदा करती हैं। हुआ अर्जुन है। यह द्वंद्व इस वक्तव्य में पूरी तरह साफ है। लेकिन हिंदू शास्त्रों में लिखा है, और ऐसा ही जैन शास्त्रों में भी लिखा एक मजा वह ले लेना चाहता है, और वह मजा यह है कि कुछ भी | है, और ऐसा ही बौद्ध शास्त्रों में भी लिखा है। करीब-करीब हो, आप जो कहते हैं, वह मैं सत्य मानता हूं। और देवता और दानव | | वक्तव्य एक से हैं। वह मैं आपको कहूं। भी जिसे नहीं जान पाते, वह भी कम से कम मैं तो मानता हूं। __शास्त्रों में लिखा है हिंदू, जैनों और बौद्धों के वक्तव्य एक से हैं। इस मानता शब्द पर भी थोड़ा विचार कर लेना उपयोगी है। आप लिखा है कि अगर कोई जैन मंदिर हो और हिंदू, मंदिर के सामने से मानते किन चीजों को हैं, कभी आपने खयाल किया है? गुजर रहा हो और पागल हाथी हमला कर दे, तो पागल हाथी के पैर आप उन्हीं चीजों को मानते हैं, जिन पर आपको शक होता है। के नीचे दबकर मर जाना बेहतर है, लेकिन जैन मंदिर में शरण लेना आप कभी कहते हैं, घोषणा करते हैं कि मैं सूरज में विश्वास करता | ठीक नहीं है! ठीक ऐसा ही जैन शास्त्रों में भी लिखा है कि पागल हूं? आप कभी घोषणा करते हैं कि पृथ्वी पर मेरा पक्का विश्वास हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना बेहतर, लेकिन हिंदू देवालय है? कभी आप कहते हैं कि शरीर में मेरी बड़ी श्रद्धा है? में शरण लेना बेहतर नहीं है। कैसा यह डर! कैसा यह भय! न, आप कहते हैं, आत्मा में मेरी बड़ी श्रद्धा है। परमात्मा में मेरा | ये तो खैर हिंदू और जैन तो दो धर्म हैं, लेकिन राम-भक्त हैं जो बड़ा विश्वास है। मोक्ष में, मैं मानता हूं कि मोक्ष है। कान में अंगुली डाल लेंगे, अगर कोई कृष्ण का नाम ले! कभी आपने खयाल किया है कि आप उन्हीं चीजों पर मान्यता | कृष्ण-भक्त हैं, जो अंगुली डाल लेंगे, अगर कोई राम का नाम ले! का बल डालते हैं, जिनको आप नहीं जानते हैं। जिनको मानना | | सुना है मैंने एक बौद्ध भिक्षुणी के संबंध में, कि उसके पास एक बिलकुल असंभव मालूम पड़ता है, उन्हीं को आप कहते हैं, मैं | स्वर्ण की बुद्ध की प्रतिमा थी। वह रोज उसकी पूजा करती, धूप |71 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-58 जलाती, धुआं देती, फूल चढ़ाती। एक बार उसे चीन के बड़े बौद्ध यह सारा का सारा खेल एक बहुत मनोवैज्ञानिक बीमारी है। और मंदिर में ठहरने का मौका मिला। दस हजार बुद्धों का मंदिर, उस | | वह बीमारी यह है कि मुझे ठीक पता नहीं है कि सत्य क्या है। तो मंदिर का नाम है; उसमें दस हजार बुद्ध की छोटी-बड़ी प्रतिमाएं हैं।। | जब तक मैं दूसरों को असत्य सिद्ध करता रहूं, तभी तक मुझे भरोसा वहां वह ठहरी। कोने-कोने में बुद्ध की प्रतिमा है, दीवाल-दीवाल में | | रहता है कि मैं सत्य हूं। और अगर मैं दूसरों की भी गौर से सुनने बुद्ध की प्रतिमा है। दस हजार प्रतिमाएं हैं। प्रतिमाओं के सिवाय | लगं. तो मेरे भीतर सब डांवाडोल हो जाता है कि मैं सत्य हं या नहीं मंदिर में कुछ भी नहीं है। . | हूं! सत्य क्या है? जब उसने सुबह अपने बुद्ध की—अपने बुद्ध की प्रतिमा रखी | | मुल्ला नसरुद्दीन जिस राजधानी में था, वहां बहुत बेईमानी बढ़ और धूप जलाई, तो उसे लगा कि धूप तो उड़ जाएगी और दूसरे बुद्धों | | गई। और राजधानी में बेईमानी बढ़ेगी ही, क्योंकि बेईमान सब की नाक में चली जाएगी। और अपने बुद्ध की धूप और दूसरे बुद्धों | | राजधानियों में इकट्ठे हो जाते हैं। सब चोर, सब डाकू इकट्ठे हो जाते की नाक में चली जाए! तो उसने एक बांस की पोंगरी बनाई। धूप के | | हैं। अभी जयप्रकाश जी वहां चंबल में छोटे डाकुओं का समर्पण ऊपर पोंगरी लगाई और अपने बुद्ध की नाक के पास पोंगरी लगाई।। बड़े डाकुओं के प्रति करवा रहे हैं! बुद्ध का मुंह काला हो गया। हो ही जाएगा। हो ही जाएगा! सुगंध | तो राजधानी थी, डाकू इकट्ठे हो गए थे। सम्राट बहुत चिंतित था तो न मिली, मुंह काला हो गया। और मतांध भक्तों ने सबके मुंह कि कैसे इनको हटाया जाए। गांव के बुद्धिमानों से पूछा, कोई रास्ता काले कर दिए हैं—चाहे राम, चाहे बुद्ध, चाहे कृष्ण, चाहे क्राइस्ट, | | न मिला। फिर किसी ने कहा कि वह मुल्ला नसरुद्दीन भी अपनी चाहे मोहम्मद-सबके मुंह काले कर दिए हैं। इसमें भी भय पकड़ता | | तरह का एक बुद्धिमान है। शायद, हमारी बुद्धि काम नहीं करती, है कि दूसरा बुद्ध! बुद्ध की दूसरी प्रतिमा, वह भी दूसरा बुद्ध! | उसकी काम कर जाए। उसे बुलाया। सम्राट ने उससे पूछा कि क्या मैं एक गांव में रहता था। वहां गणेशोत्सव पर बड़ी गणेश की | | करें, लोग असत्यवादी होते जा रहे हैं! प्रतिमाएं निकलती हैं, प्रवाहित करने के लिए, विसर्जन करने के | तो नसरुद्दीन ने कहा, इसमें क्या कठिनाई है! जो असत्य बोलते लिए। लेकिन नियमित बंधा हुआ क्रम है। ब्राह्मणों के मुहल्ले की हैं, कम से कम एक असत्य बोलने वाले को पकड़कर रोज फांसी प्रतिमा आगे होती है, चमारों के मुहल्ले की प्रतिमा पीछे होती है। | | लगा दो चौरस्ते पर, लटका दो। तहलका छा जाएगा, लोग घबड़ा . एक वर्ष ऐसी भूल हो गई कि ब्राह्मणों की प्रतिमा के आने में देर | जाएंगे, फिर कोई असत्य-वसत्य नहीं बोलेगा। सम्राट ने कहा, लग गई और चमारों के टोले की प्रतिमा पहले आ गई, तो जुलूस | बिलकुल दुरुस्त। तो कल राजधानी के द्वार पर सिपाही तैनात रहेंगे के आगे हो गई। तो जब ब्राह्मणों की प्रतिमा आई, तो उन्होंने कहा, | और जो आदमी असत्य बोलता हुआ पकड़ा जाएगा, वह द्वार पर . हटाओ चमारों के गणेश को पीछे। ही सूली पर लटका दिया जाएगा। नसरुद्दीन ने कहा, तो फिर मैं चमारों के गणेश! ब्राह्मणों के गणेश, बात ही अलग है। चमार | | कल सुबह द्वार पर ही मिलूंगा। सम्राट समझा कि शायद वह अपने और ब्राह्मण तो ठीक, गणेश भी चमारों के और ब्राह्मणों के! बेचारे | सिद्धांत को प्रतिपादित होता हुआ देखने के लिए द्वार पर आएगा। चमारों के गणेश को पीछे जाना पड़ा। अपना-अपना भाग्य! चमारों | जब सुबह कल द्वार खुला नगर का, तो नसरुद्दीन अपने गधे पर के गणेश हो, पीछे जाना ही पड़ेगा! प्रवेश किया। सम्राट भी मौजूद था। सम्राट के हत्यारे भी मौजूद थे। यह मतांधता, यह संकीर्णता, यह अनुदारता पैदा होती है। भीतर फांसी का तख्ता लटका दिया गया था। सम्राट ने नसरुद्दीन से पूछा, एक भय है। भीतर एक भय है कि कहीं दूसरा सही न हो। कहीं नसरुद्दीन, सुबह-सुबह गधे पर कहां जा रहे हो? नसरुद्दीन ने दूसरे की बात सुनाई पड़ जाए, वह सही न हो। अपना तो कोई सत्य कहा, सूली के तख्ते पर चढ़ने। सम्राट ने कहा कि झूठ बोल रहे नहीं है, भीतर तो कोई सत्य नहीं है। दूसरे पर ही निर्भर है। कहीं | हो! तो नसरुद्दीन ने कहा कि तय हुआ था कि जो झूठ बोलेगा, औरों की बात सुनकर डांवाडोल न हो जाऊं। इसलिए सुनो ही मत, | उसको सूली पर चढ़ा देंगे। तो चढ़ा दो सूली पर, अगर मैं झूठ बोल पढो ही मत. समझो ही मत. दसरे को जानो ही मत। और दसरे से | रहा हूं। सम्राट ने कहा, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। अगर तुम्हें लड़ते भी रहो, और दूसरे से बचते भी रहो, और अपने को ही अंधे सूली पर चढ़ाऊं, तो तुम सच बोल रहे हो। और अगर तुम्हें छोड़ की तरह ठीक मानो और सबको गलत मानो। दं, तो मैंने झूठ बोलने वाले को छोड़ दिया। 72| Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जुन 8 तो नसरुद्दीन ने कहा कि यही समझाने के लिए कि कौन तय | | पोत लेते हैं। नास्तिक भीतर छिपा है। आस्तिक हमारे वस्त्रों से करेगा कि क्या सत्य और क्या असत्य है! फांसी लगाना तो बहुत | | ज्यादा गहरा नहीं है। आसान है झूठ बोलने वाले को, लेकिन तय कौन करेगा, कौन सत्य इस जमीन पर आस्तिक खोजना कठिन है, हालांकि आस्तिक है, कौन असत्य है! नसरुद्दीन ने सम्राट से कहा कि पहले अपना | सब दिखाई पड़ते हैं। और इस जमीन पर ऐसा आदमी खोजना कठिन ही पता लगाने की कोशिश करो कि सत्य हो कि असत्य, तब कहीं| है, जो नास्तिक न हो। यद्यपि नास्तिक एकदम से दिखाई नहीं पड़ता। दूसरे का कुछ हिसाब करना। यह मजा है। इसलिए दुनिया नास्तिक है। और एक-एक आदमी से कठिन है। लेकिन कठिन इसीलिए है कि भीतर कोई | मिलिए, तो वह आस्तिक है! सबका जोड़ नास्तिकता है। और सब क्रिस्टलाइजेशन, कोई केंद्रीकरण नहीं है। भीतर हम खाली, कोरे | अलग-अलग आस्तिक होने का दावा किए चले जाते हैं। उनकी हैं; कचरे से भरे हैं। दूसरों ने जो डाल दिया है, उससे भरे हैं। अपनी जिंदगी में हम उतरें, तो नास्तिकता के सिवाय कहीं कुछ नहीं मिलता। कोई अनुभूति न होने से हमारे पैर के नीचे कोई जमीन नहीं है। साईं, शिरडी के साईं के जीवन में एक उल्लेख है। उनके एक इसलिए हम नीचे देखने में भी डरते हैं। हम दूसरों को बताते रहते | भक्त ने कहा कि अब तो मैं सभी में परमात्मा को देखने लगा हूं। हैं, तुम गलत हो, तुम गलत हो, वह असत्य है। लेकिन हम कभी | | तो साईं बाबा ने कहा कि अगर तुम सबमें परमात्मा को देखने लगे यह फिक्र नहीं करते कि मेरे पास भी कोई मेरा सत्य है! | होते, तो इस भरी दोपहरी में मुझे नमस्कार करने किसलिए आते और जब तक कोई आदमी अपने सत्य की तलाश में न लगे, | हो? कहीं भी नमस्कार कर लेना था। अगर मैं ही तुम्हें सब जगह तब तक महर्षियों ने क्या कहा है, व्यास क्या कहते हैं, खुद कृष्ण | दिखाई पड़ने लगा हूं, तो इस भरी दोपहरी में इतनी दूर आने की क्या भी क्या कहते हैं, इसका मूल्य बड़ा नहीं है। अर्जुन क्या अनुभव | जरूरत थी? मैं वहीं तुम्हें मिल जाता; मैं वहीं था। करता है, इसका मूल्य है। कृष्ण क्या कहते हैं, इसका कोई मूल्य | | वह जो भक्त था, रोज भोजन लेकर आता था बाबा के लिए। अर्जुन के लिए नहीं है। अर्जुन क्या अनुभव करता है, इसका मूल्य | | और जब तक वे भोजन न कर लेते, तब तक वह खुद भी भोजन है। और उसकी अनुभूति इस सूत्र में जैसी प्रकट होती है, वह न तो | नहीं करता था। गहरी है, न एकस्वर वाली है, न उसमें सामंजस्य है। उसमें विपरीत तो साईं बाबा ने कहा, कल से अब तुम भोजन लेकर मत आना, एक साथ मौजूद हैं। दिखाई नहीं पड़ते हैं, वही खतरा है। वही मैं वहीं आ जाऊंगा। तुम मुझे पहचान लेना, क्योंकि तुम्हें दिखाई खतरा है पड़ने लगा है! वह भक्त बड़ी मुश्किल में पड़ा। भोजन की थाली __ अगर दिखाई पड़े कोई द्वंद्व, तो हम उसके बाहर हो सकते हैं। लगाकर वह अपने द्वार के वृक्ष के नीचे बैठ गया। अब वह प्रतीक्षा दिखाई न पड़े, तो बड़ा खतरा है। अर्जुन को भी पता नहीं है कि वह कर रहा है। और एक कुत्ता उसे परेशान करने लगा। भोजन की क्या कह रहा है। हम को भी पता नहीं है। सुगंध, वह कुत्ता बार-बार आने लगा। और वह डंडे से कुत्ते को जब आप मंदिर में जाकर कहते हैं कि हे प्रभु, मैं आप में श्रद्धा | मार-मारकर भगाने लगा। वक्त बीतने लगा और साईं बाबा का रखता हूं और समर्पण करता हूं। आपको भी पता नहीं है, आप क्या | कुछ पता नहीं, तो फिर वह थाली लेकर पहुंचा उस मस्जिद में, जहां कह रहे हैं। क्योंकि जो आप कह रहे हैं, वह बड़ा क्रांतिकारी साईं बाबा रहते थे। वक्तव्य है। अगर सच है, तो आप उस दुनिया में प्रवेश कर जाएंगे, अंदर गया, तो देखा कि साईं बाबा की आंख से आंसू बह रहे जो अमृत की है, आनंद की है। और अगर झूठ है, तो आपके | हैं। तो पूछा कि आप आए नहीं? और मैं राह देखता रहा। साईं बाबा साधारण झूठ उतना नुकसान नहीं करेंगे, जो आपने दुकान पर बोले | | ने कहा, मैं आया था। मेरी पीठ देख! पीठ पर उसकी लकड़ी के हैं, लेकिन यह मंदिर में बोला गया झूठ भयंकर है। | निशान थे, जो उसने कुत्ते को लकड़ियां मारी थीं। मैं आया था। तू क्या आपने कभी इसकी फिक्र की कि हम जो भी श्रद्धा के, | तो कहता था, सबमें तू देखने लगा, इसलिए मैंने सोचा, किसी भी भक्ति के, समर्पण के वक्तव्य देते हैं, उनमें हमारे प्राणों की कोई शक्ल में जाऊंगा, तू पहचान लेगा। तो मैं कुत्ते की शक्ल में आया भी गहरी छाप होती है! बिलकुल नहीं होती है। सच तो यह है कि | था। उस भक्त ने कहा, जरा भूल हो गई। ऐसे तो मैं सबमें आपको हम अपनी अश्रद्धा से इतने घबड़ा जाते हैं कि ऊपर से श्रद्धा का रंग देखने लगा हूं, लेकिन जरा कुत्ते में देखने का अभी अभ्यास नहीं 73 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 है। अब आइएगा, बराबर पहचान लूंगा। | न्यूटन को अलग कर लें, गैलीलियो को अलग कर लें, तो न्यूटन फिर दूसरे दिन हुआ वही। लेकिन इस बार कुत्ता नहीं आया, एक और गैलीलियो के हटते ही आइंस्टीन जमीन पर गिर जाएगा। कोढी आ गया। औ हा, दूर रहना! यहां बाबा का आइंस्टीन खड़ा नहीं हो सकता अपने पैरों पर। भोजन रखा है; अपवित्र मत कर देना! दूर रह, छाया मत डाल | विज्ञान एक परंपरा है, एक ट्रेडीशन है। और मजे की बात है कि देना! लेकिन वह कोढ़ी सुनता ही नहीं है, पास आए चला जाता है। धर्म को हम परंपरा कहते हैं, विज्ञान को परंपरा नहीं कहते। विज्ञान तो वह अपनी थाली लेकर भागा और कोढ़ी उसके पीछे भाग रहा | परंपरा है, एक ट्रेडीशन है, एक कलेक्टिव एफर्ट। बहुत लोगों का है। और वह थाली लेकर भाग रहा है साईं बाबा की तरफ। उसमें हाथ है। अगर उसमें से एक ईंट खींच लें, तो ऊपर का शिखर ___ जब वह भीतर पहुंचा, तो देखा, वहां साईं बाबा नहीं हैं। पीछे नीचे गिर जाएगा। लौटकर देखा, तो कोढी की जगह साईं बाबा खडे हैं। और साईं लेकिन धर्म परंपरा नहीं है, धर्म वैयक्तिक अनुभव है। अगर बाबा ने कहा, लेकिन तू पहचानता ही नहीं है। उसने कहा, अतीत के सारे महापुरुष भी धर्म के विलीन हो जाएं और एक भी नया-नया रोज-रोज अभ्यास करवाते हैं! आज पक्का कर लिया न हुए हों, तो भी आप धार्मिक हो सकते हैं इसी वक्त। क्योंकि था कि कुत्ते में देखेंगे, और आप कोढ़ी होकर आ गए! कल आइए। | धार्मिक होना निजी अनुभव है। किसने कहा है और नहीं कहा है, ___ अभ्यास धर्म नहीं है। चेष्टा करके कोई बात दिखाई पड़ने लगे, | अगर वे सब खो जाएं, अगर दुनिया में सारे धर्म-ग्रंथ नष्ट हो जाएं, उसका कोई मूल्य नहीं। दिखाई पड़े। तो भी धर्म नष्ट नहीं होगा। यह अर्जुन चेष्टा कर रहा है। व्यास ने कहा है, देवल ने कहा | यह मजे की बात है। अगर विज्ञान की एक किताब भी खो जाए, है; इसने कहा है, उसने कहा है। और फिर आप भी कहते हैं, तो | तो बाकी सब किताबें अस्तव्यस्त हो जाएंगी। और सब किताबें खो मैं मानता हूं, आप जो कहते हैं, वह सत्य ही कहते हैं। यह चेष्टा जाएं, तो विज्ञान बिलकुल नष्ट हो जाएगा। क्योंकि विज्ञान निर्भर है, यह अभ्यास है! यह प्रयत्न है मान लेने का कि कृष्ण भगवान करता है दूसरों के वक्तव्यों पर। उसकी एक श्रृंखला है; कड़ी से हैं। लेकिन भीतर कोई स्वर बजे चला जा रहा है कि नहीं। उसी को कड़ी जुड़ी है। अगर पीछे की कड़ी खोती हैं, तो यह कड़ी निर्मित दबाने के लिए सब उपाय हैं। नहीं हो सकती। __ आदमी की यह जो दोहरी व्यवस्था है, डबल बाइंड, यह बड़ी आप सोचते हैं, अगर साइकिल न बनी हो दुनिया में, तो हवाई जटिल है, यह गांठ बड़ी गहरी है। इसलिए ऊपर से आप कहते हैं | | जहाज नहीं बन सकता। अगर बैलगाड़ी न बनी हो, तो चांद पर कि मैं बहुत प्रेम करता है, और भीतर झांककर देखेंगे, तो प्रेम का | | पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। हालांकि बैलगाड़ी से कोई चांद पर कोई पता नहीं। ऊपर से कहते हैं, मेरी श्रद्धा अपार है। और भीतर | नहीं पहुंचता। लेकिन बैलगाड़ी अगर न बनी होती, तो चांद पर देखेंगे, तो उतनी ही अपार अश्रद्धा मौजूद है। ऊपर से कुछ, भीतर पहुंचने का कोई भी उपाय नहीं है। जिसने बैलगाड़ी बनाई थी, वह से कुछ! हर आदमी दो में बंटा है। भी चांद पर पहुंचाने में उतना ही अनिवार्य अंग है, जितना चांद पर __ और जब तक आदमी दो में बंटा है, तब तक किसी भी स्थिति उतरने वाला आदमी। में भगवत्ता को पहचानना संभव नहीं है। जब आदमी के भीतर का लेकिन धर्म की बात बिलकुल अलग है। अगर महावीर न हों, जोड़ यह दो का समाप्त हो जाता है और एक ही पैदा होता है। जब बुद्ध न हों, कृष्ण न हों, राम न हों, कोई अंतर नहीं पड़ता। कोई आदमी के भीतर एक निर्मित होता है, तब भगवत्ता को कहीं भी | अंतर नहीं पड़ता। आप चाहें तो उनके बिना धार्मिक हो सकते हैं। पहचान लेना-पहचान लेना कहना ठीक नहीं, तब भगवत्ता को क्योंकि धार्मिक होना निजी सत्य का साक्षात्कार है। उसका कहीं भी न पहचानना असंभव है। वह सब जगह मौजूद है। सब परंपरागत सत्य से कुछ लेना-देना नहीं है। जगह मौजूद है। सब जगह मौजूद है। फिर ऐसा नहीं है कि उसे यह अर्जुन अभी भी जो बात कर रहा है, परंपरा की बात कर रहा देखना पड़े, और फिर ऐसा भी नहीं है कि गवाहियां खोजनी पड़ें। | है। अभी तक इसे निजी कोई बोध नहीं है। यहां एक मजे की बात है और वह यह कि अगर विज्ञान का | परमात्मा सामने खड़ा हो, और कैसी फीकी-फीकी बातें अर्जुन अतीत खो जाए, तो विज्ञान का सारा भवन गिर जाए। अगर हम कर रहा है! कृष्ण के सामने क्या है अर्थ व्यास का? कृष्ण के सामने Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जुन क्या है अर्थ देवल ऋषि का, देव ऋषियों का? कृष्ण के सामने क्या | यह रहा गुरु! है अर्थ? ऐसे जैसे सूरज सामने खड़ा हो और कोई दीए को लेकर | लेकिन हम चक्करों में घूमते हैं। चक्कर बड़े-छोटे, अपने-अपने गवाहियां देता हो कि निश्चित, मैं दीए में देखकर कहता हूं कि तुम | पसंद के हम बनाते हैं और उनमें घूमते हैं। मंदिर में परिक्रमा होती सूरज हो। ये गवाहियां ऐसी हैं। .. | है। बीच में मूर्ति होती है, चारों तरफ परिक्रमा होती है। हम परिक्रमा लेकिन अर्जुन को खयाल नहीं है। वह सोच रहा है, बड़े-बड़े में ही घूमते रहते हैं जन्मों-जन्मों। उस बीच की मूर्ति से हमारा कोई नाम ला रहा है वह, बड़े वजनी। वजनी वे हैं अर्जुन के लिए, कृष्ण संबंध ही नहीं हो पाता। बीच की मूर्ति सदा ही मौजूद है। के सामने वे दीए की तरह व्यर्थ हैं। सूरज के सामने जैसे दीया खो ये कृष्ण अर्जुन के सामने ही मौजूद हों, ऐसा नहीं है। वे हर जाए; कोई अर्थ नहीं है। उनका मूल्य ही इतना है कि अंधेरा जब हो अर्जुन के सामने मौजूद हैं। और अर्जुन जो कर रहा है, वही हर गहन, तब वे रोशनी देते हैं। और जब सूरज ही सामने हो, तो उनका | अर्जुन करता है; इनडायरेक्ट प्रूफ्स खोजता है। कोई भी उपयोग नहीं है। ईसाई विचारक एनसेल्म ने ईश्वर के लिए चार प्रमाण जुटाए हैं, लेकिन अर्जुन उनकी गवाहियां ला रहा है, कृष्ण को बहुत अदभुत | | कि वह है, ये चार प्रमाण हैं। एनसेल्म बेचारा आस्तिक नहीं है। लगा होगा! आज तक कृष्ण और बुद्ध को कैसा लगा है, उन्होंने कोई यद्यपि ईसाइयत मानती है कि एनसेल्म के जो तर्क हैं, बड़े कीमती वक्तव्य दिए नहीं हैं। लेकिन कृष्ण को बहुत हैरानी का लगा होगा | | हैं और आस्तिकता पश्चिम में उन पर ही टिकी है। लेकिन मैं कहता कि मैं सामने खड़ा हूं और अर्जुन कह रहा है कि महर्षि व्यास भी | | हूं, वह आस्तिक नहीं है। क्योंकि उसने जो तर्क दिए हैं, वे बचकाने कहते हैं कि आप भगवान हो। मैं भी मानता हूं; और भी मानते हैं। | हैं। और उन तर्कों से अगर ईश्वर सिद्ध होता है, तो वे सब तर्क जैसे कि उसके मानने पर निर्भर हो कृष्ण का भगवान होना! | काटे जा सकते हैं। हम सबको यह खयाल है कि अगर हम न मानें और हमारी वोट वे सब तर्क काटे जा सकते हैं। ऐसा कोई भी तर्क नहीं है दुनिया न मिले, तो भगवान गए! हमारे ऊपर निर्भर हैं। हम मानते हैं, तो में, जो काटा न जा सके। अतळ तर्क होता ही नहीं। और जो भी भगवान हैं। हम नहीं मानते, तो दो कौड़ी की बात; समाप्त हो गई। तर्क एक तरफ गवाही देता है, वही तर्क दूसरी तरफ भी गवाही दे __ आपके मानने पर कोई निर्भर बात नहीं है। किसी के मानने पर | सकता है। तर्क पक्षधर नहीं होते; तर्क वेश्याओं की तरह होते हैं; कोई निर्भर बात नहीं है। भगवत्ता एक सत्य है। और उस सत्य को | | प्रोफेशनल! तर्क तो किसी के भी साथ खड़ा हो जाता है! तर्क की जो इस भांति घूम-फिरकर चलेगा, वह सीधा न जाकर व्यर्थ ही. | कोई अपनी श्रद्धा नहीं होती। जहां जरूरत पड़े, जो खींच ले, तर्क चक्कर काट रहा है। केंद्र के आस-पास परिधि पर घूम रहा है, | उस तरफ खिंच जाता है। भटक रहा है, परिभ्रमण कर रहा है; केंद्र को चूक रहा है। __इसलिए अगर कोई सोचता हो तर्क से, जैसे एनसेल्म ने तर्क __ यह अर्जुन सामने नहीं देख रहा, कौन खड़ा है। यह घूम रहा है। दिए हैं ईश्वर के होने के, वे सब तर्क काट दिए गए हैं। कोई भी यह चारों तरफ चक्कर लगाकर कह रहा है कि ठीक है; परिक्रमा काट सकता है। एक स्कूल का बच्चा भी, जो थोड़ा तर्क जानता है, कर रहा हूं। और लोग भी कहते हैं! मत इकट्ठे कर रहा है। लेकिन | उनको काटकर रख देगा। तर्क से ईश्वर का कोई संबंध नहीं है, सामने जो खड़ा है, उससे चूक रहा है। गवाही से ईश्वर का कोई संबंध नहीं है। हम सबकी भी अवस्था यही है। परमात्मा सदा ही सामने है- बुद्ध के पास एक आदमी आया है और वह बुद्ध से कहता है सदा ही। क्योंकि जो भी सामने है, वही है। लेकिन हम पूछते हैं, | | कि जीवन के बाद, मृत्यु के बाद भी जीवन बचता है? अगर आप परमात्मा कहां है? हम पूछते हैं, किस शास्त्र को खोलें कि परमात्मा | गवाही दे दें, तो मैं मान लूं। बुद्ध ने कहा, अगर मैं गवाही दे दूं, तो का पता चले? किस गुरु से पूछे कि उसकी खबर दे? और वह | | फिर तुझे और भी गवाहियों की जरूरत पड़ेगी, जो कहें कि बुद्ध सामने मौजूद है। और हम बिना गुरु से पूछे उसको नहीं देख सकते! | झूठा आदमी नहीं है। फिर तुझे उन गवाहियों का भी पता लगाना और हम स्त्र पढ़े उसकी तरफ आंख हीं उठा सकते। | पडेगा कि वे झठ तो नहीं बोल रहे हैं: कोई सांठ-गांठ तो नहीं है जो सामने नहीं देख सकता उसकी मौजूदगी, वह शास्त्र में कैसे बुद्ध से भीतरी; कोई लेन-देन तो नहीं है! देखेगा? जो उसे नहीं देख सकता, वह गुरु को कैसे पहचानेगा कि एक अंग्रेज विचारक भारत आया था, कुछ योगियों, साधुओं के 75 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 संबंध में चमत्कार की बातों का पता लगाने। एक योगी के संबंध | दो अस्तित्वों के बीच, दो दुनियाओं के बीच, दो लोकों के बीच, में सुना कि उसकी उम्र नौ सौ वर्ष है। तो वह बहुत चकित हुआ। | दो अलग-अलग आयाम जो समानांतर दौड़ रहे हैं, उनके बीच मिरेकल था, चमत्कार था। नौ सौ वर्ष! बात झूठ होनी चाहिए। | चर्चा है। इसलिए दुनिया में गीता जैसी दूसरी किताब नहीं है, गया, वहां बड़ी भीड़-भाड़ थी। बड़े भक्त थे। बड़ा उत्सव चल क्योंकि इतना सीधा डायलाग, ऐसा सीधा संवाद नहीं है। रहा था। उसकी हिम्मत न पड़ी। एक आदमी के पास बैठकर उसने | रामायण है, वह राम के जीवन की लंबी कथा है। बाइबिल है, थोड़ा मित्राचार, थोड़ी दोस्ती बढ़ाई। फिर जब बातचीत शुरू हो | | वह जीसस के अनेक-अनेक अवसरों पर अनेक-अनेक गई, तो उसने पूछा कि क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि आप इनके | अलग-अलग लोगों को दिए गए वक्तव्य हैं। कुरान है, वह ईश्वर शिष्य हैं? उसने कहा, हां। क्या मैं पूछ सकता हूं कि इनकी उम्र का संदेश है मनुष्य-जाति के प्रति, मोहम्मद के द्वारा निवेदित। कितनी है? मैंने सुना, नौ सौ वर्ष है! उस शिष्य ने कहा, मैं कुछ लेकिन कोई भी डायलाग नहीं है सीधा। ज्यादा नहीं कह सकता। मैं सिर्फ पांच सौ वर्ष से इन्हें जानता हूं। गीता सीधा डायलाग है। मैं-तू की हैसियत से दो दुनियाएं सामने तब उसने अपना सिर पीट लिया कि अब मुसीबत खड़ी हुई। खड़ी हैं। एक तरफ सारी मनुष्यता का डांवाडोल मन अर्जुन में खड़ा अब मैं किससे पता लगाऊं कि इनकी उम्र कितनी है! और इसका | है और एक तरफ सारी भगवत्ता अपने सारे निचोड़ में कृष्ण में खड़ी अंत कहां होगा? है। और इन दोनों के बीच सीधी मुठभेड़ है, सीधा एनकाउंटर है। जब भी हम कोई इनडायरेक्ट विटनेस, परोक्ष गवाही की तलाश यह बहुत अनूठी घटना है। इसलिए गीता एक अनूठा अर्थ ले ली में जाते हैं, तब हम भ्रांति में जा रहे हैं। है। वह फिर साधारण धार्मिक किताब नहीं है। उसको हम और __ अच्छा होता अर्जुन सीधा कृष्ण की आंखों में आंखें डालकर किसी किताब के साथ तौल भी नहीं सकते। वह अनूठी है। खड़ा हो जाता। छोड़ता व्यास को, छोड़ता देवल को, छोड़ता लेकिन अगर हम उसके इस गहरे आयाम में प्रवेश करें और ऋषि-मुनियों को, सीधा कृष्ण की आंख में आंख डालकर खड़ा हो | | अर्जुन की पर्त-पर्त तोड़ते चले जाएं, तो ही हमें खयाल में आएगा। जाता। तो अर्जुन जितना जान लेता, उतना इन गवाहियों से, कितनी | तो अर्जुन के साथ कई बार मैं नाहक ज्यादा कठोर हो जाऊंगा, ही ये गवाहियां हों, कभी भी नहीं जाना जा सकता। | सिर्फ इसलिए ताकि मनुष्य की पर्त-पर्त का खयाल आ जाए। और लेकिन सामने देखने की हिम्मत शायद उसकी नहीं है। शायद वह | | अर्जुन पूरा उघड़ जाए, तो ही कृष्ण को हम पूरा उघाड़ सकते हैं। डरता है कि कहीं सामने देखकर सच में ही पता न चल जाए कि कृष्ण | और जिस अर्थ में अर्जुन का द्वंद्व स्पष्ट हो, उसी अर्थ में कृष्ण का भगवान हैं। वह भी भय है। वह भी भय है। क्योंकि कल हम यह संदेश और संवाद भी स्पष्ट हो सकता है। भी कह सकते हैं कि व्यास को गलती हुई होगी। जिम्मेवारी हमारी | आज इतना ही। क्या? व्यास ने कहा था, इसलिए हमने मान लिया था। लेकिन अगर लेकिन पांच मिनट रुकें। और कल कीर्तन जब हो रहा था, आप हमें ही दिखाई पड़ जाए, तो फिर जिम्मेवारी सीधी हो जाती है। फिर | उठ-उठकर पास आ गए। उससे तकलीफ होती है। अपनी जगह मैं ही जिम्मेवार हो जाता हूं। वह भी भय है; वह भी डर है। ही पांच मिनट बैठे रहें। इतनी तो कम से कम आत्मा प्रकट करें कि ये सारे डर हैं। और हर आदमी के डर हैं। यहां अर्जुन को मैं पांच मिनट बैठे रह सकते हैं। वहीं बैठे रहें। कीर्तन जब समाप्त हो, मानकर चल रहा है कि वह जैसे आदमी के भीतर का. सबके तभी उठे। भीतर का, सार-संक्षिप्त है। है भी। और कृष्ण को मानकर चल रहा हूं कि जैसे वे आज तक इस जगत में जितनी भगवत्ता के लक्षण प्रकट हुए हैं, उन सबका सार-संक्षिप्त हैं। कृष्ण जैसे इस जगत में जो भी भगवान होने जैसा हुआ है, उस सबका निचोड़ हैं। और अर्जुन जैसे इस जगत में जितने भी डांवाडोल आदमी हुए हैं, उन सबका निचोड़ है। इसलिए गीता जो है, वह दो व्यक्तियों के बीच ही चर्चा नहीं है; 76 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 छठवां प्रवचन स्वभाव की पहचान Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । अपने संबंध में कुछ धारणाएं, कुछ प्रतिमाएं बना रखी हैं। और भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ।। १५ ।। अगर हम अपने प्रति ईमानदार हों, तो हमारी ही निर्मित प्रतिमाएं वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः । हमारे हाथों ही खंडित हो जाती हैं। हम जो भी अपने को समझते याभिर्विभूतिमिलोंकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि । । १६ ।। हैं, वह हम हैं नहीं। हम जो भी अपने को मानते हैं, उससे हमारा कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तयन् । दूर का भी संबंध नहीं है। और जो हम हैं, वह इतना पीड़ादायी है केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया । । १७ ।। कि उसे देखने की हिम्मत भी हम नहीं जुटा पाते हैं। जो हमारी हे भूतों को उत्पन्न करने वाले, हे भूतों के ईश्वर, हे देवों के वास्तविकता है, जो हमारा यथार्थ है, उसको हम आंख गड़ाकर देव,हे जगत के स्वामी, हे पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने देखने का भी साहस नहीं रखते हैं। से आपको जानते हैं। और धार्मिक जीवन का प्रारंभ तो उसी व्यक्ति का हो सकेगा, इसलिए हे भगवन्, आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को | जो अपने प्रति ईमानदार है, जो अपने यथार्थ को जानने का साहस संपूर्णता से कहने के लिए योग्य हैं, जिनं विभूतियों के द्वारा | जुटा पाता है। जो जैसा है, वैसा ही अपने को उघाड़कर देख सकता - इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित है। । है। चाहे हो कितना ही विकृत, और चाहे कितना ही हो गहन हे योगेश्वर, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ | अंधेरा, और चाहे कितने ही रोग हों भीतर, और चाहे कितनी ही हो आपको जानूं और हे भगवन्, आप किन-किन भावों में मेरे विक्षिप्तता, लेकिन जो उस सबको शांत भाव से देखने को तैयार द्वारा चिंतन करने योग्य है। है, स्वीकार करने को कि ऐसा मैं हूं, वही व्यक्ति धार्मिक हो सकता है। अपने प्रति ईमानदारी धार्मिक व्यक्ति का पहला कदम है। अर्जुन जटिल है, उलझा हुआ है। जैसा कि कोई भी मनुष्य 27 र्जुन का मन हो कितना ही जटिल, कितनी ही हों द्वंद्व | जटिल है और उलझा हुआ है। मनुष्य होने के साथ ही वैसी 1 की पर्ते भीतर, पर अर्जुन सरल व्यक्तित्व है। जटिलता | | जटिलता अनिवार्य है। लेकिन अर्जुन उसे छिपाने को आतुर नहीं है बहुत, लेकिन अपनी जटिलता के प्रति किसी धोखे है। जानकर उसे भुलाने की भी उसकी चेष्टा नहीं है। अनजाने में अर्जुन नहीं है। और अपनी जटिलता को भी प्रकट करने में स्पष्ट जटिलता है, लेकिन जानकर अर्जुन उससे मुक्त होने के लिए भी और ईमानदार है। शायद यही उसकी योग्यता है कि कृष्ण का संदेश आतुर है। न उसे खुद भी पता चलता हो, लेकिन अपने प्रति वह उसे उपलब्ध हो सका। विनम्र है। और जो भी उसके भीतर हो रहा है, वह उसे कृष्ण से कहे बीमार भी होते हैं हम, तो भी स्वीकार करने का मन नहीं होता। चला जाता है। बीमारी को भी छिपाते हैं। और जो बीमारी को भी स्वीकार न करता इस सूत्र में कुछ बातें उसने बड़े मूल्य की कही हैं। साधक की हो, उसके स्वस्थ होने की संभावना बहुत कम हो जाती है। क्योंकि | तरफ से समझने योग्य! जो खोजने निकलते हैं परमात्मा को, उनके जिसे मिटाना है, उसे स्वीकार करना जरूरी है। और जिसे मिटाना। | लिए बहुत मूल्य की! है, उसे ठीक से पहचानना भी जरूरी है। जिससे मुक्त होना है, उसे कई बार तो ऐसा हो सकता है कि कृष्ण का वचन भी उतना जाने बिना मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। | मूल्यवान न हो। क्योंकि कृष्ण का वचन तो आत्यंतिक है, अंतिम दो तरह की ईमानदारियां हैं। एक ईमानदारी है, जो हम दूसरों के है। जब हम पहुंचेंगे, तब हम उसे जानेंगे। ऐसा हो सकता है कि प्रति रखते हैं। वह ईमानदारी बहुत बड़ी ईमानदारी नहीं है; बहुत बार अर्जुन का वक्तव्य बहुत कीमती हो, कृष्ण से भी ज्यादा कामचलाऊ है, ऊपरी है। एक और ईमानदारी है गहरी, जो व्यक्ति कीमती हो, हमारे लिए। सत्य उतना नहीं है वह, जितना कृष्ण का अपने प्रति रखता है। वह ईमानदारी खोजनी बड़ी मुश्किल है। | वक्तव्य होगा। न वह आत्यंतिक कोई अनुभूति है, लेकिन अर्जुन पहली ईमानदारी ही खोजनी बहुत मुश्किल है, दूसरी तो और भी | | जहां खड़ा है, वहीं हम सब खड़े हैं। तो अर्जुन को समझ लेना, मुश्किल है। उसके वक्तव्य को समझ लेना, खुद को समझने के लिए बहुत अपने प्रति ईमानदार होना बड़ा कठिन है, क्योंकि हम सबने कीमती है। और खुद को जो समझ ले, वह किसी दिन कृष्ण को Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव की पहचान ६ भी समझ पा सकता है। इस सूत्र में दो-तीन बातें महत्वपूर्ण हैं, क्रमशः उन्हें हम समझें । अर्जुन ने कहा, हे भूतों को उत्पन्न करने वाले, हे भूतों के ईश्वर, हे देवों के देव, हे जगत के स्वामी, हे पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं। अर्जुन ने इस सूत्र के पहले कहा कि आप जो भी कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूं। अगर अर्जुन यह कहे कि उसे मैं सत्य जानता हूं, तो वह बेईमानी हो जाएगी। उसने कहा, मैं सत्य मानता हूं। यह ईमानदार वक्तव्य है। उसने यह नहीं कहा कि ऐसा मैं जानता हूं। उसने इतना ही कहा है कि आप जो कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूं। मेरी चेष्टा है, मेरा प्रयत्न है, मेरा भाव है। यह सत्य हो, यह सत्य होना चाहिए, ऐसी मेरी आकांक्षा है। चाहता हूं कि आप जो भी कहते हैं, वह सत्य हो । मानता हूं कि वह सत्य है। लेकिन अर्जुन को इस कहते क्षण में भी शायद भीतर की उस दूसरी पर्त का भी अनुभव हुआ होगा कि यह मैं जानता नहीं हूं। इसलिए उसने इस वक्तव्य में बहुत गहरी बात कही है। उसने कहा है कि आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं। मैं चाहूं भी जानना, तो कैसे जान सकता हूं! मैं कहूं भी कि जानता असत्य होगा। आप अपने से ही अपने को जानते हैं। वह इस वक्तव्य के कई आयाम हैं। जगत में दो तरह की चीजें हैं। एक तो वे चीजें हैं, जो पर - प्रकाशित है। हम यहां बैठे हैं। अगर बिजली का प्रकाश बंद हो जाए, तो मैं आपको दिखाई नहीं पडूंगा, आप मुझे दिखाई नहीं पड़ेंगे। आप मुझे दिखाई पड़ते हैं, आपके होने की वजह से ही नहीं । आपका होना जरूरी है, लेकिन काफी नहीं। प्रकाश भी चाहिए, तो आप मुझे दिखाई पड़ते हैं। आप हों और प्रकाश न हो, तो आप मुझे | दिखाई न पड़ेंगे। आपके दिखाई पड़ने में आपकी मौजूदगी जरूरी है, और प्रकाश भी जरूरी है। क्योंकि प्रकाश होगा, तो ही आप दिखाई पड़ेंगे। आप प्रकाश से प्रकाशित होंगे, तो ही दिखाई पड़ेंगे। मैं भी दिखाई आपको नहीं पडूंगा, प्रकाश नहीं होगा तो । गहन अंधकार छा जाए यहां, फिर कोई किसी दूसरे को दिखाई नहीं पड़ेगा। दूसरा पर - प्रकाशित है। दूसरे को देखने, जानने के लिए एक और प्रकाश की जरूरत है। लेकिन कितना ही अंधेरा हो जाए, आप अपने को तो मालूम पड़ते ही रहेंगे। कितना ही गहन अंधेरा हो जाए, क्या इतना अंधेरा भी हो सकता है कि मैं खुद कहूं कि अब मुझे अपना पता नहीं चलता, अंधेरा बहुत ज्यादा है! आप मुझे पता नहीं चलेंगे; आपको पता नहीं चलूंगा। लेकिन मैं स्वयं को पता चलता रहूंगा; | आप स्वयं को पता चलते रहेंगे। तो आपके स्वयं के होने की जो प्रतीति है, उसके लिए किसी दूसरे प्रकाश की जरूरत नहीं है; आपका होना काफी है। एक बहुत प्रसिद्ध सूफी हसन के जीवन में उल्लेख है कि वह अपने गुरु के पास गया। दो और मित्र उसके साथ सत्य की खोज पर निकले थे। वे तीनों अपने गुरु के पास गए। उन तीनों ने कहा कि हम जानना चाहते हैं, आत्मा क्या है? उनका गुरु उस समय कबूतरों को दाने डाल रहा था। उसने एक-एक कबूतर पकड़कर तीनों को दे दिया और उन तीनों से कहा कि तुम ऐसी जगह जाओ जहां कोई देखता न हो, और कबूतर की गर्दन मरोड़कर आ जाओ; मार डालो। फिर पीछे हम आगे की खोज पर चलेंगे। यह तुम्हारा पहला पाठ ! 79 एक युवक सीढ़ियों से नीचे उतरा। पास की गली में गया। देखा, कोई भी नहीं है। कबूतर को मरोड़ा और वापस आ गया। दूसरा युवक खोजबीन किया। गली में गया। लेकिन उसे लगा कि प्रकाश है और मैं मरोडूं, और तभी कोई खिड़की से झांककर देख ले, या | अचानक कोई गली में आ जाए, तो रात तक रुकूं, अंधेरा हो जाने दूं। रात अंधेरा जब हो गया, तब वह एक गली में गया और उसने कबूतर की गर्दन मरोड़ दी और रात आकर गुरु के चरणों में कबूतर रख दिया। लेकिन हसन, तीसरे युवक का तीन दिन तक कोई पता न | चला। दोनों मित्र राह देखते हैं, गुरु राह देखता है। तीसरे दिन गुरु ने उन दोनों को कहा कि अब तुम हसन को खोजकर लाओ कि वह कहां है ! हसन ने सब तरह की कोशिश की। गली में जाकर देखा । लगा, कोई भी देख लेगा। अंधेरे में जाकर देखा । गहन अंधेरे में गया, तो भी कबूतर की आंखें ! जब भी कबूतर को मरोड़ने जाता, कबूतर की आंखें अंधेरे में भी उसे दिखाई पड़तीं। तो उसने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और कबूतर की आंखों पर भी पट्टी बांध दी और | एक तलघरे में उतर गया, जहां गहन अंधेरा था । और जब उसने | कबूतर की गर्दन पर हाथ रखा, तब उसे खयाल आया, कोई न | देखता हो, लेकिन मैं तो जान ही रहा हूं, मैं तो देख ही रहा हूं। तीन दिन बाद उसके साथी उसे पकड़कर लाए। उसने 'कबूतर गुरु के चरणों में रख दिया। और उसने कहा कि क्षमा करें, यह काम Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 हो नहीं सकता। क्योंकि कहीं भी मैं जाऊं, मैं तो देखता ही रहूंगा। निरीक्षण कर सकें, वही वैज्ञानिक तथ्य हो सकेगा। तब फिर जो और यह भी हो सकता है कि मैं भी न देखें, लेकिन कबूतर तो | | निरीक्षण करता है, वह कभी भी वैज्ञानिक तथ्य नहीं हो सकता। मौजूद रहेगा ही। ऐसा भी कोई उपाय हो सकता है कि मैं बहुत दूर परिभाषा ने ही वर्जित कर दिया। हट जाऊं; कबूतर के गले में रस्सी बांध दूं; तलघरे में लटका दूं; | | वे कहते हैं, जिस पर हम प्रयोग कर सकें, उसको ही हम तथ्य मैं पार निकल जाऊं और वहां से रस्सी खींचकर उसकी गर्दन दबा | | मानेंगे। लेकिन जो प्रयोग करता है, उसका हम क्या करें! निश्चित दूं। लेकिन कबूतर तो कम से कम, एक गवाह तो रहेगा ही। तो मैं | | ही, जब प्रयोग होता है, तो कोई प्रयोग भी करता है। और जब ऐसी कोई जगह नहीं खोज पाया, जहां कोई भी गवाह न हो। मुझे | निरीक्षण होता है, तो कोई निरीक्षक भी है। और जब आब्जर्वेशन हो आप क्षमा कर दें। मैं इस पहले पाठ में असफल हुआ। रहा है, तो कोई आब्जर्वर भी है। लेकिन विज्ञान कहता है कि जब उसके गुरु ने कहा, तुम ही सफल हुए हो। तुम्हारे दो साथी तक हम टेबल पर सामने रखकर निर्णय न ले सकें, निष्कर्ष न ले असफल हो गए हैं। और अब तुम्हारा दूसरा पाठ शुरू होगा। | सकें, विश्लेषण न कर सकें, तब तक कुछ भी कहना मुश्किल है। तुम्हारे दो साथियों को मैं विदा कर देता हूं। उसके गुरु ने कहा कि अगर यह ही विज्ञान की परिभाषा रहने को है, तो फिर हम आत्मज्ञान की दिशा में पहला पाठ यही है कि आत्म-ज्ञान | आत्मा के संबंध में कभी भी विज्ञान निर्मित न कर पाएंगे, और स्व-प्रकाशित है। चाहे कुछ भी करो, स्वयं को जानने को भुलाया | विज्ञान कभी आत्मा के सत्य की घोषणा न कर पाएगा। या तो हमें नहीं जा सकता। एक तो मौजूद रह ही जाएगा। और यह सूत्र तुम्हारे | विज्ञान की परिभाषा बढ़ानी होगी और विज्ञान की परिभाषा में यह खयाल में आ गया है। भी सम्मिलित करना होगा कि जो जाना जाता है वही नहीं, जो आत्मा स्व-प्रकाशित है। पदार्थ पर-प्रकाशित है और चेतना जानता है वह भी, उसका भी अस्तित्व है। स्व-प्रकाशित है। ये दो अस्तित्व हैं, जो हमें दिखाई पड़ते हैं। चेतना अर्जुन कृष्ण से कह रहा है कि आप ही आपको जानते हैं। के लिए किसी और के जानने की जरूरत नहीं; चेतना स्वयं को ही ___ कृष्ण का अर्थ हुआ, परम चैतन्य, चेतना की शुद्धतम अवस्था। जानती है। | तो अर्जुन कहता है, मैं उसे जानूं भी तो कैसे जानूं? मेरे ज्ञान से आप ऐसा ही समझें कि एक दीया जल रहा है। दीया जलता है, तो सारे | | नहीं जाने जा सकते। आप तो स्वयं ही प्रकाशित हैं, और आप ही कमरे को प्रकाशित करता है। दीया बुझ जाए, तो कमरा दिखाई नहीं | अपने को जानने वाले हैं। मैं आपको कैसे जानूं? और मैं अगर पड़ता। लेकिन दीया जलता है, तो अपने को भी प्रकाशित करता है। आपको जानूं भी, तो आपका शरीर ही जान पाता हूं; आपका उस दीए को जानने के लिए किसी दूसरे दीए की जरूरत नहीं पड़ती। | पदार्थगत हिस्सा ही दिखाई पड़ता है। आपकी वाणी सुनाई पड़ती चेतना अपने को ही जानती और अनुभव करती है। और सब चीजों है; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो बोलता है। आपकी आंखें दिखाई को जानने के लिए किसी और की जरूरत पड़ती है। पड़ती हैं; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो आंखों से देखता है। आपका रण आत्मा का कोई विज्ञान नहीं बन पाता। इसे थोडा हाथ अपने हाथ में ले लेता है। लेकिन हाथ तो पदार्थ है। वह मेरी समझ लें। पकड़ में नहीं आता, जो हाथ के भीतर जीवन है। मैं आपको सब इसी कारण वैज्ञानिक चिंतक आत्मा को स्वीकार नहीं कर पाते। | तरफ से पहचान लेता हूं, लेकिन यह पहचान बाहरी है। मैं कितना क्योंकि वे कहते हैं कि जब तक हम आब्जर्व न करें, निरीक्षण न ही आपको जानता रहूं, यह जानना आपके आस-पास है। लेकिन करें, प्रयोग न करें, तब तक हम कैसे माने कि आत्मा है! और जब | आप चूक जाते हैं। आप तक मैं नहीं पहुंच पाता हूं। आप मेरी पकड़ भी हम निरीक्षण करते हैं किसी वस्तु का, तो वह पदार्थ होती है। | के बाहर रह जाते हैं। आप तो अपने को ही जानते हैं। आप ही अपने जो निरीक्षण करता है, वह आत्मा होता है। और जो निरीक्षण करता को जानते हैं। मैं आपको कैसे जान सकता हूं! . . है, उसका निरीक्षण करने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए भक्तों ने कहा है, ज्ञानियों ने कहा है कि परमात्मा को इसलिए वैज्ञानिक आत्मा को स्वीकार करने को राजी नहीं हो तब तक नहीं जाना जा सकता, जब तक आप स्वयं परमात्मा न हो पाते। उनकी अपनी मजबूरी है। उन्होंने विज्ञान की जो परिभाषा जाएं। परमात्मा होकर ही उसे जाना जा सकता है। स्वीकार की है, उसी परिभाषा ने सीमा बना दी है। वे जिसका | इससे एक दूसरी बात भी खयाल में ले लें। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव की पहचान जगत में दो तरह के ज्ञान हैं। एक ज्ञान है, जिसे बट्रेंड रसेल ने एक्वेनटेंस कहा है, परिचय कहा है। और दूसरा ज्ञान है, जिसे बट्रेंड रसेल ने नालेज कहा है, ज्ञान कहा है। परिचय और ज्ञान। जब हम किसी चीज को बाहर से देखते हैं, तो वह परिचय है, एक्वेनटेंस है, ज्ञान नहीं है। आप एक फूल देखते हैं, तो आप क्या करेंगे? बाहर से देखेंगे, उसकी सुगंध लेंगे, उसका रूप देखेंगे, उसकी आकृति । अगर कवि हुए, तो उसे प्रेम करेंगे। गायक हुए, तो गीत गाएंगे उसके सौंदर्य का। अगर पारखी हुए, तो आनंदित हो जाएंगे, नाच उठेंगे। लेकिन यह फूल के बाहर से ही हो रहा है। अगर वैज्ञानिक हुए, तो फूल को तोड़कर विश्लेषण करके, उसके केमिकल्स, उसके तत्वों को अलग-अलग बोतल में बंद करके, लेबल लगाकर रख देंगे कि इन-इन चीजों मिलकर बना है यह फूल । इतना रस है इसमें। इतना पानी है। इतना खनिज है। इतना लोहा है । वह सब आप रख देंगे। लेकिन यह भी जानना बाहर से ही होगा। फूल के भीतर प्रवेश नहीं हुआ। फूल एक आब्जेक्ट रहा। आप जानने वाले, अलग रहे, बाहर रहे। अगर कवि की तरह जाना, तो थोड़े निकट आए, लेकिन फिर भी दूर रहे। क्योंकि निकटता भी दूरी का एक नाम है। कितने ही निकट आ जाएं, दूरी तो बनी ही रहती है। मेरे ये दोनों हाथ बिलकुल भी निकट आ जाएं, तो भी दोनों बीच स्पेस तो रहती है, जगह तो रहती है, फासला तो रहता है। अगर फासला न रहे, तो दोनों हाथ एक ही हो जाएं, फिर दो न रह जाएं। दो का मतलब ही है कि बीच में फासला कितना ही कम हो, लेकिन फासला है। और वह कम नहीं है फासला । फासला बड़ा है, भारी है। फासला इतना बड़ा है कि कितना ही उपाय करें, वह मिटता नहीं। हम कितने ही करीब ले आएं, मिटता नहीं। वैज्ञानिक कहते हैं कि अणु-अणु के बीच में भी ऐसा फासला है, जितना सितारों के बीच में। अनुपात वही है, भारी फासला है। जमीन से सूरज कोई दस करोड़ मील दूर है। यह फासला बड़ा मालूम पड़ता है, दस करोड़ मील दूर ! बीच में इतना शून्य है। अगर हम अणु में प्रवेश करें, तो अणु के भी इलेक्ट्रान और न्यूट्रान के बीच, अगर हम न्यूट्रान को जमीन के बराबर बड़ा मान लें, तो उसकी और इलेक्ट्रान की दूरी इतनी ही हो जाती है, जितनी जमीन और सूरज की है। अनुपात फासला इतना ही बड़ा है। दो अणु भी पास-पास नहीं हैं, जो बिलकुल पास मालूम पड़ रहे हैं। 81 हमारे हाथ जब बिलकुल पास हैं, तब भी भारी फासला है। और फासला कभी मिटता नहीं है। दो के बीच दूरी बनी ही रहती है । निकटता भी दूरी का एक नाम है। कह सकते हैं, निकटता कम से कम दूरी है। और दूरी कम से कम निकटता है। और कोई ज्यादा फासला नहीं है। कितने ही पास से हम जानें, दूरी है। उसी दूरी को वैज्ञानिक भी मिटाने की कोशिश करता है । वह चीर-फाड़ करके पदार्थ के भीतर घुस जाता है। फूल को तोड़ डालता है। क्योंकि नहीं तोड़ेंगे, तो भीतर प्रवेश नहीं हो सकेगा। तोड़कर भी हम पार ही रहते हैं, भीतर नहीं पहुंच पाते। फूल टूट जाता है, दूरी उतनी ही रहती है; फासला कम नहीं होता। सच तो यह है कि कवि ज्यादा करीब पहुंच जाता है फूल के, बजाय वैज्ञानिक के। हालांकि वैज्ञानिक अपने औजारों से भीतर घुसने की कोशिश करता है। क्या आपको खयाल है कि आपको अगर किसी ने प्रेम किया हो, तो वह आपके हृदय के ज्यादा करीब है, बजाय उस सर्जन के | जो आपके हृदय का आपरेशन करेगा। हृदय का आपरेशन करने वाला बिलकुल आपके हृदय में हथियार डाल देगा। फिर भी उतने करीब नहीं है, जितना वह, जिसने आपको प्रेम किया है। कवि निकट आ सकता है। वैज्ञानिक भी निकट आने की कोशिश करता है। लेकिन निकट कोई भी आ नहीं पाता; बना रहता है; दूरी बनी रहती है। फासला प्रेमियों के बीच में भी दूरी बनी रहती है ! कितने ही बड़े प्रेमी हों, बड़ी दूरी बनी रहती है। दो प्रेमी बिलकुल सटकर आस-पास बैठे हों । पूर्णिमा की रात हो । बड़े गीत गाते हों । प्रेम की चर्चा करते हों । फिर भी फासला भारी बना रहता है। भारी फासला बना रहता है। और इसलिए प्रेमी भलीभांति अनुभव करते हैं कि जितने करीब आते हैं, उतनी दूरी बढ़ती मालूम पड़ती है। क्योंकि उतना ही अनुभव होता है कि करीब आ गए और फिर भी करीब आए नहीं । तो अनुभव होता है कि दूरी और बढ़ गई। इसलिए सभी प्रेम असफल हो जाते हैं। सभी कहता हूं! सिर्फ उन प्रेमों को छोड़ देता हूं, जिनको असफल होने का मौका ही नहीं मिलता। अगर दो प्रेमियों को करीब आने का मौका ही न मिले, तो वे कभी असफल न होंगे। क्योंकि उनको वहम बना ही रहेगा कि करीब आ सकते थे, मौका नहीं मिला। लेकिन जिन प्रेमियों को भी करीब आने का मौका मिल जाए, वे असफल होंगे ही; असफलता Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 सुनिश्चित है। क्योंकि करीब आकर पता चलेगा, करीब आ गए, और करीब नहीं आए। पास आ गए, और दूरी बनी है! और तब पीड़ा भारी हो जाती है। कितने ही हम पास आ जाएं किसी चीज के, परिचय ही होता है, ज्ञान नहीं होता । ज्ञान का तो एक ही उपाय है और वह यह है कि हम उस चीज के साथ एक हो जाएं, एकाकार हो जाएं। यह बड़ा कठिन है। असंभव मालूम पड़ता है। प्रेमी भी सफल नहीं हो पाते अपने प्रेम-पात्र के साथ एक होने में। कवि भी सफल नहीं हो पाता, चित्रकार भी सफल नहीं हो पाता फूल के साथ एक होने में। इसलिए सिर्फ धर्म के अतिरिक्त सभी कुछ परिचय है। सिर्फ धर्म ही ज्ञान का द्वार है। क्योंकि धर्म एक ऐसी प्रक्रिया को खोजा है— जिसे मैंने ध्यान कहा; योग कहें समाधि कहें- ऐसी प्रक्रिया है, जहां एक चेतना की लौ दूसरी चेतना की लौ में लीन हो जाती है। स्वभावतः, दो शरीर एक नहीं हो सकते, लेकिन दो आत्माएं एक हो सकती हैं। दो शरीर इसलिए एक नहीं हो सकते कि उनकी सीमाएं हैं। और उनकी सीमाएं मौजूद रहेंगी। दो आत्माएं एक हो सकती हैं, क्योंकि आत्मा की कोई सीमा नहीं है। जितनी सीमा तरल होगी, उतनी एकता आसान है। दो पत्थर के टुकड़ों को हम पास रख दें, तो वे एक नहीं हो पाते, क्योंकि उनकी सीमा मजबूत है। हम दो पानी की बूंदों को पास रख दें; वे एक हो जाती हैं। उनकी सीमा तरल है; सीमा सख्त नहीं है। शरीर की सीमा पत्थर की तरह सख्त है। आत्मा की सीमा पानी की तरह तरल है। शायद पानी की तरह कहना भी ठीक नहीं, भाप की तरह। भाप की तरह। दो भाप के गुब्बारे उड़ें आकाश में, एक गुब्बारा हो जाता है। कोई बाधा नहीं है। एक कमरे में हम दो दीए जला दें; दोनों का प्रकाश एक हो जाता है । कहीं कोई टकराहट भी नहीं होती। हजार दीए जला दें हम एक ही कमरे में, तो भी कमरे में कोई कांपिटीशन, कोई प्रतिस्पर्धा खड़ी नहीं होगी, कि दीए कहने लगें कि बहुत हो गया, इनफ, रुको अब ! इस कमरे में ज्यादा दीए की रोशनी नहीं समा सकती। यहां तो एक दीया पहले से ही रोशन कर रहा है। अब दूसरा दीया यहां कैसे आ सकता है! दूसरा दीया आ जाए, उसकी रोशनी भी पहले दीए की रोशनी से एक हो जाती है। तीसरा आ जाए, उसकी भी एक हो जाती चौथा आ जाए, उसकी भी एक हो जाती है। दीए अलग रह जाते हैं, रोशनी एक हो जाती है। शरीर अलग रह जाते हैं ध्यान में, आत्मा एक हो जाती है। इसलिए अगर एक कमरे में बीस लोग ध्यान कर रहे हों, तो बीस शरीर होते हैं, आत्मा एक होती है। अगर ध्यान कर रहे हों तो ! अगर विचार कर रहे हों, तो बीस शरीर होते हैं और हजार आत्माएं होती हैं। अगर विचार कर रहे हों तो ! तब तो एक-एक आदमी के भीतर अनेक आत्माएं हो जाती हैं। इतने खंड, इतने टुकड़े हो जाते हैं। लेकिन अगर ध्यान कर रहे हों, तो सब शून्य हो जाता है। बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि बुद्ध एक महानगरी के पास विश्राम को रुके। दस हजार भिक्षु उनके साथ हैं। उस नगर का राजा | है अजातशत्रु । नाम है उसका अजातशत्रु, ऐसा व्यक्ति जिसका शत्रु | पैदा ही न हुआ हो। जिसका शत्रु अजन्मा है, ऐसा उसका नाम है। ऐसा बहादुर आदमी भी था वह। लेकिन तलवार पर जिनकी | बहादुरी निर्भर होती है, शरीर की ताकत पर जिनकी बहादुरी निर्भर | होती है, वे कितने ही बहादुर हों, भीतर तो कमजोर होंगे ही। अजातशत्रु को उसके आमात्यों ने, उसके मंत्रियों ने कहा कि बुद्ध का आगमन हुआ है, आप भी उनके दर्शन को चलें। तो अजातशत्रु ने कहा, चलूंगा। लेकिन मेरे साथ मेरी फौज भी चलेगी। मंत्रियों ने कहा, यह उचित न होगा। बुद्ध के पास फौज लेकर क्या जाना? आप अकेले ही चलें। दस-पांच आपके साथी, | मित्र, परिवार के चल सकते हैं। फिर भी अजातशत्रु, को डर लगा कि पता नहीं, कोई षड्यंत्र न हो ! कहीं ये मंत्री किसी उपद्रव में न ले जा रहे हों। फिर उसने सारा पता लगाया। बुद्ध आए हुए हैं। दस हजार भिक्षु ठहरे हैं गांव के बाहर ही, आम्रवन में। तो एक सांझ वह गया। रास्ते पर ही उसने अपना रथ छोड़ दिया, अपने मंत्रियों के साथ आगे बढ़ने लगा। मंत्रियों ने कहा कि बस | यह जो वृक्षों की पंक्ति दिखाई पड़ रही है, इसके उस पार ही बुद्ध | के दस हजार भिक्षुओं का डेरा है! वृक्षों की पंक्ति करीब आने लगी। अजातशत्रु ने चौंककर अपनी तलवार बाहर निकाल ली और अपने मंत्रियों से कहा कि मुझे कुछ संदेह मालूम पड़ता है! जहां दस हजार लोग रुके हों, वहां आवाज तो जरा-सी भी नहीं हो रही है! यह नहीं हो सकता। दस हजार लोग रुके हों इस पंक्ति के पार, | तो भारी बाजार मच जाएगा। मुझे कुछ शक मालूम पड़ता है, यह कोई धोखा है। 82 मंत्रियों ने कहा कि आप तलवार भीतर रखें। शक मालूम पड़ता हो, तो बाहर भी रखें। थोड़ा और आगे चलें। दस हजार लोग ही ठहरे हैं। लेकिन ये लोग और तरह के लोग हैं। जिनको आपने Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव की पहचान बाजार में देखा है, उस तरह के लोग नहीं हैं। जानता हूं। क्या है मेरा बिलीफ, मेरा विश्वास; और क्या है मेरा और जब अजातशत्रु बुद्ध के पास गया, तो चकित हो गया। वहां | ज्ञान, मेरी अनुभूति; इसका फासला एकदम स्पष्ट होना चाहिए। दस हजार लोग बैठे थे वृक्षों के तले। चुप थे, आंखें उनकी बंद थीं। इसलिए अर्जुन ने कहा कि मैं मानता हूं कि आप जो कहते हैं, बुद्ध से अजातशत्रु ने पूछा है कि ये दस हजार लोग इतने चुप क्यों | सत्य है। आप ईश्वर हैं। आप समस्त भूतों को उत्पन्न करने वाले, बैठे हैं? तो बुद्ध ने कहा है, क्योंकि इस समय ये दस हजार नहीं हैं। | समस्त भूतों के ईश्वर, देवों के देव, हे जगत के स्वामी, हे क्योंकि इस समय ये दस हजार नहीं हैं; इस समय ये ध्यान में हैं। | पुरुषोत्तम! लेकिन यह सब मान्यता है मेरी। क्योंकि आप स्वयं ही ध्यान का अर्थ हुआ कि हमारी जो आत्मा है, वह जब शांत हो | अपने से आपको जानते हैं। यह सब भी मैं कहूं, तो यह मेरा जानना जाती है, तो तरलता से आस-पास फैल जाती है, जुड़ जाती है, एक | नहीं है। यह मेरा भाव है, मेरा ज्ञान नहीं। यह मेरी श्रद्धा है, मेरी हो जाती है। प्रतीति, मेरा साक्षात्कार नहीं। ज्ञान, अगर ज्ञान का हम यही अर्थ करते हों कि किसी वस्तु को | |. इतना बारीक फासला स्पष्ट होना चाहिए साधक को, तो दूसरी उसके केंद्र से जानना, परिधि से नहीं; उसके बाहर से नहीं, उसके | घटना भी घट सकती है। जिसने ठीक से पहचाना कि क्या मेरी प्राणों में, उसके अंतस्तल में डूबकर जानना। अगर ज्ञान की यही | मान्यता है, वह फिर मान्यता से राजी नहीं होगा। फिर मान्यता में उसे परिभाषा हो, तो धर्म के अतिरिक्त ज्ञान का और कोई स्रोत नहीं है। | घबड़ाहट होने लगेगी। फिर बेचैनी होगी उसके मन को। और फिर क्योंकि धर्म ही उस कला का जन्मदाता है, जो आपकी सीमाओं को | वह तड़फेगा कि मैं जानूं कैसे? और जानने की यात्रा पर निकलेगा। तोड़ डालती है और आपको असीम के साथ एक होने का अवसर, | जिस आदमी ने मानने को ही समझ लिया कि जानना है, उसकी सुविधा और संभावना जुटा देती है। यात्रा ही समाप्त हो गई। वह मंजिल पर पहुंच ही गया, बिना पहुंचे! अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि आप स्वयं ही अपने से आपको | | उसने पा ही लिया, बिना पाए! वह सिद्ध हो ही गया, साधन से जानते हैं। मैं कैसे आपको जान सकता हूं! मैं दूर हूं। मैं बाहर हूं। | गुजरे बिना! साधना से गुजरे बिना, उपलब्धि हो गई उसे! उसने मैं और हूं। आप कृष्ण हैं, मैं अर्जुन हूं। फासला है, मैं मान ही | मान लिया। सकता हूं। इस जगत में अधिक लोग इसलिए ठहर जाते हैं, क्योंकि आगे ध्यान रहे, इसी को मैं उसकी ईमानदारी कह रहा हूं। आप अपने उपाय ही नहीं बचता। आप जान ही लेते हैं बिना जाने, तो फिर आगे मानने को भी जानना कहने लगते हैं, तब बेईमानी हो जाती है। | यात्रा करने को कुछ बचता नहीं। एक आदमी कहता है कि मैं ईश्वर अगर आप भी कहें कि मैं ईश्वर को मानता हूं, जानता नहीं; तो मैं | को जानता हूं, बात खतम हो गई। अब जाने को कहीं बची भी नहीं कहूंगा, आप ईमानदार आदमी हैं, और किसी दिन धार्मिक भी हो कोई जगह। सकते हैं। फासला कायम रखें। स्पष्टता से समझें कि यह मेरी मान्यता है, लेकिन हम मानने की बात ही नहीं करते। हम कहते हैं, मैं | मेरा जानना नहीं। और जानना अभी शेष है, और अभी मुझे चलना जानता हूं कि ईश्वर है! इतना ही नहीं, हम ईश्वर---जिसको हम | होगा, और अभी मुझे संघर्ष करना होगा, और अभी मुझे बड़ा सिर्फ मानते हैं, जानते नहीं-उसके लिए लड़ सकते हैं, काट-पीट | | रास्ता बाकी है, जिसे पूरा करना है, और तब कहीं मैं जानने तक कर सकते हैं, हत्याएं कर सकते हैं। लोग मंदिर जलाते हैं, मस्जिद | पहुंच पाऊंगा। जलाते हैं, गिरजे तोड़ डालते हैं। इतना पक्का है उनका जानना कि लेकिन हम आंख बंद करके यहीं बैठ जाते हैं रास्ते के किनारे। दूसरे का गलत होना इतना सही है कि अगर हत्या भी करनी पड़े, पड़ाव मंजिल बन जाता है। और अगर हमसे कोई कहे कि यह तो वे पीछे नहीं हटते। पड़ाव है, मंजिल नहीं है; यहां मत डेरा डालो; उठो! तो हम नाराज मानने वाले लोग, जिनको कुछ भी पता नहीं है, इतने अहम्मन्य होंगे। क्योंकि यह आदमी हमारी नींद खराब करता है। क्योंकि यह हो सकते हैं, उसका एक ही कारण है कि वे अपने मानने को जानने | आदमी हमारे विश्राम को तोड़ रहा है। क्योंकि हम मानकर बैठ गए, की भ्रांति में पड़ जाते हैं। अपनी तरफ बेईमानी हो जाती है। | मजे में हो गए। शांत हो गए। झंझट मिटी। अब कहीं जाने को न ठीक से समझ लेना चाहिए, क्या मैं मानता हूं और क्या मैं | | रहा। अब हम विराम कर सकते हैं, विश्राम कर सकते हैं। यह 83 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 आदमी कहता है कि नहीं, यह मंजिल नहीं है। यह सिर्फ रास्ते का | जब भी कोई कबीर, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट हमें धक्का देगा, किनारा है। उठो! तो इस आदमी पर हमें क्रोध आता है। | और कहेगा, शुतुरमुर्ग! निकालो सिर बाहर! तब हमें क्रोध आता इसलिए इस जगत में जब भी किसी ने हम से कहा है कि तुम | | है कि सब नींद खराब किए दे रहा है यह आदमी। फिर यात्रा करनी जहां रुके हो, वह मंजिल नहीं है, तो हम नाराज हुए हैं। चाहे | | पड़ेगी। फिर चलना पड़ेगा। जो मिल गया था, वह फिर खो जीसस, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे नानक, चाहे | जाएगा। यह छीन लेगा। कबीर, जिसने भी हमसे कहा है कि कहां तुम बैठे हो रास्ते के | लेकिन ध्यान रहे, जो भी आपसे छीना जा सकता है, ठीक से किनारे! वह हमें दुश्मन मालूम पड़ा। दुश्मन इसलिए मालूम पड़ा | | समझ लेना, वह आपके पास है ही नहीं। यह वक्तव्य बड़ा उलटा कि हमारे घर को बर्बाद किए दे रहा है। हम घर बनाकर बैठ गए मालूम पड़ेगा। जो आपके पास नहीं है, केवल वही छीना जा सकता हैं। हम बड़े मजे में हैं। | है; और जो आपके पास है, उसे छीनने का कोई भी उपाय नहीं। मजा यह है कि हमने पा लिया है और ये लोग आते हैं और ये यह वक्तव्य पैराडाक्सिकल लगेगा, क्योंकि मैं कह रहा हूं, जो हमें झकझोर देते हैं। और हिलाकर घर के बाहर निकालते हैं, और | आपके पास नहीं है, केवल वही छीना जा सकता है। और जो कहते हैं कि यह रास्ता लंबा है अभी। और जिसे तुम घर समझ रहे | | आपके पास है, वह कभी नहीं छीना जा सकता। हो, यह घर वैसा ही है, जैसा शुतुरमुर्ग दुश्मन को देखकर घबड़ा | ___जीसस ने इस वचन का उपयोग किया है। जीसस ने कहा है, जाता है और सिर को रेत में खपाकर खड़ा हो जाता है। और चूंकि जिनके पास नहीं है, उनसे छीन लिया जाएगा; और जिनके पास है, सिर रेत में चला जाता है, आंखें बंद हो जाती हैं, दुश्मन दिखाई नहीं| उन्हें और दे दूंगा। पड़ता, तो शुतुरमुर्ग सोचता है कि जो दिखाई नहीं पड़ता है, वह है। उलटा लगता है। हम सबको लगेगा कि यह तो बिलकुल नहीं। इसका नाम शुतुरमुर्ग का तर्क है। इकॉनामिक्स से उलटी बात हो गई। जिसके पास नहीं है, उसे दो। शुतुरमुर्ग का अपना तर्क है कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह नहीं | जिसके पास है, उससे छीनो। यह सीधा समाजवाद का तर्क है। है। हम भी तो यही कहते हैं। हमारे पास भी लोग हैं, वे कहते हैं, जिसके पास है, उससे छीनो। और जिसके पास नहीं है, उसे दो। ईश्वर नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए नहीं है। शुतुरमुर्ग भी यही कहता लेकिन ये आध्यात्मिक लोग, न मालूम कैसा उलटा समाजवाद है। है। सिर को गड़ा लेता है रेत में, दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता; नहीं है। इनका! जीसस कहते हैं, जिसके पास नहीं है, उससे छीन लिया बात खतम हो गई। निश्चित हो जाता है। जाएगा; और जिसके पास है, उसे और दे दिया जाएगा। निश्चित __ हम सब भी अपने सिर गपा लेते हैं अपनी मान्यताओं में। | ही लेकिन यह तर्क किसी दूसरी दुनिया का है। जहां समाजवाद मान्यताओं की रेत आंखों को अंधा कर देती है। फिर हम कुछ | लागू होता है, उस दुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है। यह इस बनकर बैठ जाते हैं. जो हम नहीं हैं। जो आस्तिक नहीं है, वह सूत्र की बात मैं आपसे कह रहा हूं। आस्तिक समझ लेता है अपने को। जो धार्मिक नहीं है, वह धार्मिक | · आपको अगर डर लगता हो कि आपका परमात्मा छिन सकता समझ लेता है अपने को। जो नैतिक नहीं है, वह नैतिक समझ लेता है, तो समझना, वह आपके पास नहीं है। आपको डर लगता हो है। जिसे योग का कुछ भी पता नहीं है, जो दो-चार तरह शरीर को कि आपका मोक्ष छिन सकता है, तो समझना, वह आपके पास नहीं झुकाने की कलाएं सीख गया है, वह अपने को योगी समझ लेता | है। आपको डर लगता हो कि आपकी आत्मा, आपका ज्ञान, है। जिसे ध्यान की कोई भी खबर नहीं है. वह भी आंख बंद करके | आपकी श्रद्धा छिन सकती है, तो वह आपके पास नहीं है। ... दो मिनट बैठ जाता है, तो सोचता है, मैंने ध्यान कर लिया। जिसे | एक मित्र मेरे पास आते थे। तीसरे दिन उन्होंने मुझे पत्र लिखा प्रभु-स्मरण का कोई पता नहीं है, वह भी कोई राम, कृष्ण, कोई भी | और लिखा कि अब मैं दुबारा आपके पास नहीं आऊंगा। क्योंकि नाम की रटन थोड़ी देर लगा लेता है, तो सोचता है कि बस, | जब मैं आपके पास आया, उसके पहले मैं बड़ा आश्वस्त था कि ईश्वर-स्मरण हो गया! इस तरह हम रेत में छिपा लेते हैं अपने सिर | जानता हूं; और आप से मिलकर मुझे नुकसान के सिवाय लाभ नहीं को। अपनी बुद्धि को भी गपा लेते हैं। अंधे होकर, मान्यता को | हुआ। क्योंकि अब मुझे शक होने लगा है कि मैं जानता भी हूं कि जानना समझकर, रुक जाते हैं। नहीं जानता हूं! पहले मैं बड़े मजे में था। पर अब सब मेरा मजा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव की पहचान अस्तव्यस्त हो गया। दफे राम कह दे, तो कुछ हल होने वाला है? जिंदगी जिसकी राम तो मैंने उनको खबर भेजी कि अब तुम आओ या न आओ, अब से न भरी हो, आखिरी समय में निकला हुआ शब्द उसके हृदय से यह अस्तव्यस्तता मिट नहीं सकती। एक धोखा टूट जाए, तो आप नहीं आ सकता। होंठ पर ही होगा। झूठा होगा। मतलब से होगा। वापस नहीं लौट सकते फिर। . और राम का नाम भी जब कोई मतलब से ले, तो बेकार हो जाता जीवन का नियम है कि जो भी जान लिया जाए, उसे फिर मिटाया है। मतलब का मतलब कि अब उसे डर है। नहीं जा सकता। ज्ञान को मिटाने का कोई उपाय नहीं है। अगर यह | एक धर्मगुरु मरने के करीब है। धर्मगरु बड़ा था। लेकिन कितने भी ज्ञान हो जाए, अगर यह भी मुझे पता चल जाए कि जो मैं जानता ही बड़े धर्मगुरु हों, धर्म का तो कोई पता नहीं होता। धर्मगुरु होना था, वह गलत है, तो अब कोई उपाय नहीं है इससे वापस लौट आसान है, धर्म को जानना कठिन है। क्योंकि धर्मगुरु होना एक जाने का। अब आगे ही बढ़ना पड़ेगा। जीवन आगे जाना ही जानता | प्रशिक्षण है। वह योग्य आदमी था। प्रशिक्षित था। जानता था धर्म है, पीछे जाने का कोई उपाय नहीं है। विकास पीछे नहीं लौटता। | को। दूसरों को भी समझाता था। कभी खयाल ही उसे नहीं आया लाख उपाय करें, तो भी एक इंच पीछे नहीं जा सकते। | कि जो मैं दूसरों को समझाता रहा हूं, वह मुझे भी पता है या नहीं? तो मैंने उनसे कहा, अब आओ या न आओ, लेकिन जो तुम्हारे | __ मौत करीब आई, तो उसके पैर थर्राए। तब वह भूल गया कि पास था, वह कभी नहीं होगा। अब तो तुम्हें आगे बढ़कर उसे पुनः मैंने कितने लोगों को धर्म समझाया। उसे खुद खयाल आया कि प्राप्त करना होगा। मुझे खुद तो पता नहीं है। गांव में और तो कोई आदमी नहीं था। लेकिन वे चेष्टा करेंगे। फिर किसी झाड़ के नीचे, फिर किसी मुल्ला नसरुद्दीन को उसने खबर भेजी कि तुम ज्ञानी हो। कभी रास्ते के किनारे दूसरा घर बना लेंगे। पुराना भी टूट गया, कोई हर्ज मुल्ला को ज्ञानी माना नहीं था। लेकिन अब मरते वक्त उसे लगा नहीं। फिर दूसरा बना लें। फिर उसमें छिप जाएं। |कि गांव में और तो कोई आदमी नहीं है. यह आदमी जरूर हम सस्ते में निपटना चाहते हैं। इसलिए दुनिया में शार्टकट इतने | कभी-कभी कोई ज्ञान की कोई बात कह देता है। प्रभावी हो जाते हैं। कोई भी कह देता है कि कोई दिक्कत नहीं है। मुल्ला नसरुद्दीन आया। और उस धर्मगुरु ने कहा कि मैं देखता माला फेर लो रोज एक बार। सब ठीक हो जाएगा। कोई कह देता | | हूं कि तुम्हारे वक्तव्यों में कभी-कभी कोई मिस्टिकल, कोई है, घबड़ाते क्यों हो? मरते वक्त राम का नाम ले लेना, सब ठीक रहस्यपूर्ण वक्तव्य होता है। कभी तुम ऐसी बात कह देते हो हो जाएगा। तो लोग इतने होशियार हैं कि वे कहते हैं, हम तो क्या | हंसी-हंसी में कि तीर की तरह उतर जाती है। मैं मर रहा हूं। मेरे ले पाएंगे। क्योंकि मरते वक्त तक भी उनको ऐसा नहीं लगता कि लिए कोई एकाध सूत्र कहो, जो मरते वक्त मैं पूरा कर सकें! जिंदगी अब मर रहे हैं। मर ही जाते हैं. जब उनको पता चलता है कि मर तो मेरी यों ही दसरों को समझाने में चली गई। खद समझने से गए! तो वे पंडितों को किराए पर रखकर उनसे राम-नाम लिवा देते | वंचित रह गया हूं। अब मैं क्या करूं? हैं। गंगा-जल उनके मुंह में डाला जा रहा है! कोई उनके कान में ___ तो मुल्ला ने उसके कान में कहा कि तुम एक काम करो। एक मंत्र पढ़ रहा है! | छोटा-सा मंत्र तुम्हें देता हूं। कहो कि हे परमात्मा, मेरी रक्षा कर। और परमात्मा को भी पाने के लिए चालबाजियां हैं! बेईमानी की भी | | हे शैतान, मेरी रक्षा कर। उस आदमी ने कहा, क्या कह रहे हो? सीमाएं नहीं हैं। असीम मालूम पड़ती है बेईमानी। एक आदमी का | मुल्ला ने कहा, समय खोने का मौका नहीं है। वी कैन नाट टेक मुंह बंद हो गया, उसका जबड़ा बंद है। अब वह बोल भी नहीं चांस! पता नहीं, कौन दो में से तुम्हारे काम पड़े! तुम दोनों की प्रार्थना सकता। आंख हिलती नहीं। उसके घर के लोग ढोल-ढमाल | करो। यह कोई मौका सोच-विचार का ज्यादा नहीं है। दो ही बजाकर उसको जोर से भगवान का नाम याद दिला रहे हैं, इस | आल्टरनेटिव हैं, दो ही विकल्प हैं कि या तो तुम नर्क जाओगे या आशा में कि शायद इससे काम हो जाए! तुम स्वर्ग जाओगे। पता नहीं कहां जाओ! किसी को नाराज करना धोखे नहीं चलते। और इस जमीन पर चल भी जाएं, उस इस वक्त ठीक नहीं है। तुम दोनों का नाम ले लो। जहां भी जाओ, पारलौकिक जगत में बिलकुल नहीं चल सकते। कोई उपाय नहीं है। | कहना दूसरे का भूल से लिया था। इतनी तो समझदारी करो! चलने का। या समझ लें कि वही आदमी मरते वक्त घबड़ाकर एक सारे आदमी मरते वक्त ऐसी ही बेईमानी कर रहे हैं। किसी तरह 85 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग- 58 हम धोखा देना चाहते हैं अस्तित्व को भी। लेकिन धोखे से हो नहीं | गए हैं, वे सभी पार्शियल हैं, वे सभी आंशिक हैं। जितने भी सकता, क्योंकि खुद को हम कैसे धोखा दे सकेंगे? दूर से जिसने | | वक्तव्य दिए गए हैं, वे सभी आंशिक हैं। कोई वक्तव्य समग्र नहीं मान्यता को मान लिया हो कि यही मेरा ज्ञान है, वह इस तरह की | है। हो भी नहीं सकता। आदमी की भाषा बहुत कमजोर है। कहने प्रवंचना में पड़ ही जाएगा। की सीमा है और होने की कोई सीमा नहीं है। उसके होने का कोई तो अर्जुन स्पष्ट है। उसने कहा कि क्या मेरी मान्यता है। और | अंत नहीं है, और कहने की सीमा है। ऐसे, जैसे मैं अपनी मुट्ठी में अब वह कहता है कि जानना भी मैं चाहता हूं। यात्रा करने को मैं | आकाश बंद करूं। निश्चित ही, मेरी मुट्ठी में भी आकाश है; उत्सुक हूं। आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं। मैं तो नहीं आकाश का ही एक हिस्सा है। मैं मुट्ठी में सागर को बंद करूं। जान सकता है। जो भी मैं कह रहा है. पता नहीं. ठीक है या गलत | निश्चित, मेरी मुट्ठी में भी सागर आता है; लेकिन सागर का एक है। भाव से कह रहा हूं। हृदयपूर्वक कह रहा हूं। लेकिन मेरी प्रज्ञा | हिस्सा ही आता है। और मेरी मुट्ठी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, फिर का इससे कोई स्पर्श नहीं है। ऐसा मैंने जाना नहीं है। ऐसी घटना भी एक अंश ही मेरे हाथ में पकड़ आता है। इसलिए ईश्वर के नहीं घटी है कि मैं कह सकूँ। मैं खुद गवाह बन सकू, ऐसी घटना संबंध में जितने वक्तव्य हैं, सभी आंशिक हैं। कोई वक्तव्य समग्र नहीं घटी है। इसलिए उसने दूसरे गवाहों के नाम लिए। कहा कि नहीं हो सकता। इन महर्षि ने कहा है। उन महर्षि ने कहा है। मैं खुद नहीं कह सकता। __ अर्जुन के इस निवेदन में बड़ी गहरी वेदना है। वह वेदना यह है मैं खुद गवाही नहीं हो सकता हूं अभी। यह सरलता है, यह | कि मैं कैसे कहूं और क्या कहूं! और जो भी कहूंगा, वह अधूरा ईमानदारी है। | होगा। तुम्हारी विभूति, तुम्हारा ऐश्वर्य अपार है। तुम्हारा होना, इसलिए हे भगवन्, आप ही अपनी उन दिव्य विभूतियों को | | तुम्हारा विस्तार असीम है। न कोई आदि है, न कोई अंत। कहीं कोई संपूर्णता से कहने के योग्य हैं कि जिन विभूतियों के द्वारा इन सब | | छोर नहीं मिलते। कहीं सीमा खींच पाऊं, ऐसा कोई आधार नहीं लोकों को व्याप्त करके आप स्थित हैं। | मिलता। मैं कैसे तुम्हारे संबंध में कुछ कहूं! तुम्हीं अपनी समग्रता __ मैं नहीं कह सकूँगा। मैं कितना ही कहूं कि हे भूतों को उत्पन्न को खोल दो मेरे लिए, तो शायद मैं जान लूं। करने वाले, हे सर्वभूतों के ईश्वर, हे देवों के देव, हे जगत के इसमें कुछ बातें समझ लेने की हैं। स्वामी, हे पुरुषोत्तम, मेरे होंठों पर ये सब शब्द ही हैं। भावपूर्ण, चूंकि ईश्वर के संबंध में दिए गए सभी वक्तव्य अधूरे हैं, लेकिन शब्द ही हैं। कितने ही हृदय से कहं. फिर भी मेरा अस्तित्व इसलिए दो वक्तव्य कभी-कभी विरोधी भी मालम पड़ते हैं। वे इनसे स्पर्श नहीं होता है। फिर भी ऐसा मैं नहीं जानता हूं। इसलिए | विरोधी नहीं हैं। जैसे, जिन्होंने ईश्वर को प्रेम से जाना है और आप ही उन दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने के योग्य हैं। | जिन्होंने ईश्वर को प्रेम करके जाना है, जिनकी साधना प्रेम की ही आप ही अपने अस्तित्व को पूरा उघाड़ें, तो उघड़े। आप ही खोलें साधना रही-प्रेम में ही पिघल जाने की, प्रेम में ही डूब जाने की, अपने मंदिर के द्वार, तो मैं प्रवेश करूं। मैं द्वार के बाहर कितनी ही | | बिखर जाने की जिनकी साधना रही-उन्होंने ईश्वर का जो वर्णन दस्तक देता रहूं, मेरे कमजोर हैं हाथ। और मुझे यह भी पक्का पता किया है, वह सगुण है। होगा ही। क्योंकि प्रेम, जिसको भी प्रेम नहीं है कि मैं दीवाल पर दस्तक दे रहा हूं कि दरवाजे पर दस्तक दे | करता है, उसमें अनेक-अनेक गुणों को देखना शुरू कर देता है। रहा हूं! और मैं कितना ही पुकारूं, मुझे यह पक्का पता नहीं कि मैं प्रेम की आंख गुणों को खोज लेती है, उघाड़ लेती है। और प्रेम की तुम्हारी तरफ मुंह करके पुकार रहा हूं कि पीठ करके पुकार रहा हूं! | आंख के साथ गुण चमककर, अत्यंत प्रखर हो जाते हैं। मैं कितना ही दौडूं, बहुत साफ नहीं है कि मैं तुम्हारी तरफ दौड़ रहा | ___ इसलिए भक्तों ने, जिन्होंने प्रेम से प्रभु की तरफ यात्रा की है, हूं कि तुमसे दूर भाग रहा हूं! | और जिनके पास बुद्धि का बहुत बोझ नहीं, हृदय की उड़ान रही है, अर्जुन यह कह रहा है कि मुझ अज्ञानी से तुम्हारे संबंध में | | हृदय से जिन्होंने ईश्वर की व्याख्या करनी चाही है, उन्होंने फिर कौन-सा वक्तव्य दिया जा सकेगा! तुम ही कहो। तुम ही बता | | उसकी व्याख्या सगुण की, स्वभावतः।। सकोगे अपनी समग्रता को, अपनी टोटेलिटी को। लेकिन दूसरी तरफ जिन्होंने हृदय से नहीं, सीधे ज्ञान से उस - यह बात सोचने जैसी है। ईश्वर के संबंध में जितने वक्तव्य दिए तरफ कदम उठाए, और जिन्होंने राग और प्रेम का कोई भी सहारा 86 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव की पहचान नहीं लिया, वरन वैराग्य और शुद्धतम तर्कणा से जो जीए हैं, उन्होंने निर्गुण, निराकार। क्योंकि जो भी विचार की आत्यंतिकता को पकड़ेगा, तो निर्विकार और निराकार और शून्य अंततः उसको दिखाई पड़ना शुरू होगा। इन दोनों की व्याख्याएं हम देखें, तो कलहपूर्ण मालूम पड़ती हैं। भक्त गुणों की चर्चा कर रहा है। और ज्ञानी कह रहा है कि निर्गुण है परमात्मा। भक्त मूर्ति बना रहा है। और ज्ञानी कह रहा है, मूर्ति ! मूर्ति है। भक्त आकार दे रहा है। और ज्ञानी कह रहा है, तोड़ो आकार। आकार से कैसे पहुंचोगे निराकार तक ? भक्त जिसे प्रेम कर रहा है, उसे सजा रहा है वस्त्रों में, गहनों में, फूलों में। वह प्रेमी का निवेदन है। वह प्रेम की भाषा है। ज्ञानी बेचैन हुआ जा रहा है कि यह क्या पागलपन कर रहे हो ? यह क्या बच्चों जैसी बात? प्रेम का यहां सवाल क्या है? सत्य को खोजो । सत्य को खोजना हो, तो प्रेम को हटाओ, क्योंकि प्रेम पक्षपात बन सकता है । और प्रेम वह देख सकता है, जो न हो। और प्रेम वह मान सकता है, जो अपने ही भीतर है, प्रोजेक्टेड हो। इसलिए छोड़ो प्रेम को, शुद्ध ज्ञान को पकड़ो। इसलिए एक तरफ ईश्वर को कहने वाले लोग हैं कि वह है, लेकिन निराकार है । इस्लाम ने इतने जोर से इस परिभाषा को पकड़ लिया कि मूर्ति को तोड़ना धार्मिक काम हो गया! तोड़ दो मूर्ति को, क्योंकि मूर्ति बाधा बन रही होगी। उसकी कोई मूर्ति नहीं है। इस्लाम जिस समय में पैदा हुआ और मक्का, जो इस्लाम का तीर्थ बना, वहां इस्लाम के पहले, मोहम्मद के पहले, तीन सौ पैंसठ मूर्तियों का मंदिर था। हर दिन की एक मूर्ति थी। हर दिन के लिए परमात्मा का एक रूप था। तीन सौ पैंसठ मूर्तियों का मंदिर अपने तरह का अदभुत मंदिर था । और जिन्होंने तीन सौ पैंसठ मूर्तियां खोजी होंगी, उनका भी बड़ा गहरा भाव था । भाव यह था कि परमात्मा के इतने रूप हैं कि रोज भी हम एक को पूजें, तो भी वे चुकते नहीं। लेकिन रूप हैं। भक्त अरूप की तरफ तो खयाल ही नहीं ले जा सकता। भक्त को तो पीड़ा होने लगेगी। भक्तों ने तो यहां तक प्रार्थना की है भगवान से कि न चाहिए हमें तेरा मोक्ष, न तेरा बैकुंठ, न तेरा निर्वाण । बस, तेरा रूप हमारी आंखों में बसा रहे। तो उन्होंने तीन सौ पैंसठ मूर्तियां बनाई थीं। लेकिन इस्लाम की दूसरी व्याख्या थी । और दोनों व्याख्याएं अपनी जगह सही हैं। यही मजा है। इस्लाम की व्याख्या थी कि मूर्ति से उसका क्या संबंध है? वह अरूप है। वह एक है। किसी भी रूप में उसको बांधो मत, नहीं तो रूप से रुक जाओगे और अरूप तक कैसे पहुंचोगे? इसलिए तोड़ दो सब रूप। वे तीन सौ पैंसठ मूर्तियां तोड़ दी गईं। मोहम्मद का कोई भी चित्र उपलब्ध नहीं है। इसीलिए उपलब्ध नहीं है मोहम्मद का कोई चित्र कि मोहम्मद का चित्र भी कहीं साधक के मार्ग में बाधा न बन जाए। कहीं ऐसा न हो कि मोहम्मद भी आड़ बन जाएं। इसलिए मोहम्मद ने कोई अपना चित्र नहीं बचने दिया । यह ज्ञानी की एक व्याख्या है। बिलकुल सही है। लेकिन प्रेमी की जो बिलकुल विपरीत व्याख्या है, वह भी इतनी ही सही है। | हजार और व्याख्याएं हैं। व्याख्याएं निर्भर करती हैं करने वाले पर। और करीब-करीब हमारी हालत ऐसी है कि मैंने सुना है, एक गांव में पहली दफा हाथी आया। सांझ हो गई थी, लेकिन गांव में बड़ी उत्सुकता फैल गई, तो गांव ने अपने पांच प्रमुख आदमी चुने, जो गांव के सबसे बड़े जानकार थे और उनको भेजा कि हाथी को जाकर देखकर आएं। 87 सांझ हो गई। रात हो गई। अंधेरा हो गया। वे पांचों जब पहुंचे, तो अंधेरा हो गया था। उन्होंने हाथी को टटोलकर देखा । जिसके हाथ में पैर पकड़ में आया, उसने कहा कि ठीक। व्याख्या मिल गई। जिसके हाथ में कान पकड़ में आया, उसने कहा कि ठीक। व्याख्या मिल गई! जिसने पीठ पर हाथ फेरा, उसने कहा कि ठीक। व्याख्या मिल गई! उन पांचों को व्याख्याएं मिल गईं। और जब वे पांचों गांव में पहुंचे, तो गांव में बड़ा उपद्रव मच गया। क्योंकि गांव में पांच वक्तव्य हो गए हाथी के संबंध में। और वक्तव्य इतने बेमेल थे कि कोई कितनी ही कल्पना की चेष्टा करे, तो भी उनको जोड़ नहीं | सकता था। क्योंकि एक कह रहा था कि हाथी होता है, जैसे महलों संगमरमर के खंभे होते हैं, ठीक वैसा । उसने पैर छुए थे । एक कह रहा था, जैसे किसान अपने बड़े-बड़े सूपों में अपने धान को साफ करते हैं, वैसा है हाथी; उसने हाथी के कान छुए थे। वे अलग-अलग व्याख्याएं लेकर आए थे। और गांव बड़ी मुश्किल में पड़ गया। और गांव के लोगों ने कहा कि दो ही बातें हो सकती हैं। या तो तुम पांचों पागल हो गए हो, और या फिर तुम पांच चीजों को देखकर लौटे हो, एक चीज को देखकर नहीं । पर | उन्होंने कहा, हम एक ही चीज को देखकर लौटे हैं। हम पांचों एक ही चीज को देखकर लौटे हैं। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 तो फिर गांव के लोगों ने कहा कि फिर तुम पांचों पागल हो गए हो। क्योंकि तुम पांचों सही नहीं हो सकते। तुम कैसी बातें कर रहे हो ? कहां महल का खंभा और कहां किसान का सूप ! क्या संबंध है? खंभा सूप हो सकता है? सूप खंभा हो सकता है? कोई संबंध नहीं है। तब उन्होंने कहा कि फिर हम रुकें। लेकिन रुकना भी बड़ा मुश्किल था। रातभर गांव में बेचैनी रही। और भी अनेक लोग गए पीछे और टटोलकर लौटे। और गांव में पंथ हो गए। कुछ लोगों ने कहा कि ठीक है, जिसने खबर दी है कि हाथी खंभे की तरह है। गांव में पांच पंथ हो गए ! और जल्दबाजी इतनी थी कि सुबह की प्रतीक्षा भी कैसे की जाए ! लेकिन सुबह जब लोगों ने हाथी देखा, तो सारे लोग अपने पर हंसने लगे कि पागल कोई और नहीं था, हम सब पागल थे। और गलती किसी की नहीं थी। गलती इतनी ही थी कि अंश को पूर्ण समझ लिया था। और विपरीत अंश भी हो सकता है पूर्ण में एक, इसकी कोई कल्पना न थी। सुबह जब लोगों ने हाथी को देखा और खंभे और सूपों को एक साथ देखा । और खंभे और सूपों के भीतर जो प्राण था, वह एक ही था । लेकिन हाथी के संबंध में तो उस गांव की तकलीफ हल हो गई, ईश्वर के संबंध में आदमी के गांव की तकलीफ शायद ही कभी हल हो। क्योंकि ऐसी सुबह कभी नहीं होने वाली है, जब हम सब एक साथ ईश्वर को देख लें। यह सुबह वैयक्तिक है; एक-एक आदमी की होती है; और एक- एक आदमी अपनी परिभाषा लेकर आता है। जितने आदमी ईश्वर की तरफ गए हैं, उतनी परिभाषाएं हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ लोग परिभाषा करने में मुखर हैं, कुशल हैं, इसलिए वे परिभाषा कर पाए। कुछ लोग मुखर नहीं हैं, कुशल नहीं हैं, नहीं कर पाए। इसलिए उन्होंने दूसरों की अपने से मिलती-जुलती परिभाषा स्वीकार कर ली। लेकिन करीब-करीब जितने लोग ... । अगर हम बुद्ध से पूछें, तो महावीर से कोई मेल नहीं पड़ता। अगर हम कृष्ण से पूछें, तो मोहम्मद से कोई मेल नहीं पड़ता। अगर हम मोहम्मद से पूछें, तो राम से कोई मेल नहीं पड़ता। और जितने लोग ऊपर से मेल बिठालने की कोशिश करते हैं, उससे भी कुछ मेल पड़ता नहीं। कितने लोग समझाते हैं कि गीता में भी वही, कुरान में भी वही, बाइबिल में भी वही । निकाल निकालकर एक-दूसरे के सूत्रों का तालमेल भी बिठालने की कोशिश करते हैं कि यह अर्थ, यह अर्थ | फिर भी तालमेल बैठता नहीं । नहीं बैठने का कारण है। कोई कितना ही तालमेल बिठाए, जिसने समझा है कि हाथी सूप है, और जिसने समझा है कि हाथी खंभा है, इन दोनों शास्त्रों कोई कितना ही तालमेल बिठाए, तालमेल और पागलपन का सिद्ध होगा। वह और भी कनफ्यूजन, और भी विभ्रम पैदा करेगा। इसलिए अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि मैं कुछ भी कहूं, कुछ भी मानूं, मैं आपकी समग्रता को न कह पाऊंगा। आप ही अपनी समग्रता को कहो । कृष्ण भी जब कहने जाएंगे, तो मजे की बात यह कि समग्रता को नहीं कह सकते। क्योंकि कहना अंश का ही होता है, समग्र का नहीं होता । समग्रता इतनी बड़ी घटना है कि जब हम कहने से शुरू करते हैं, तो एक टुकड़े से शुरू करना पड़ता है। जैसे आप यहां मौजूद हैं। एक साथ हम सब यहां मौजूद हैं। | लेकिन अगर मुझे कल बताना पड़े कि कौन-कौन मौजूद थे, तो मैं कहूंगा, राम मौजूद थे, विष्णु मौजूद थे, नारायण मौजूद थे। मुझे एक रेखा बनानी पड़ेगी। जब मैं कहूंगा, राम मौजूद थे, तो सिर्फ राम मौजूद मालूम पड़ेंगे। फिर मैं कहूंगा, विष्णु मौजूद थे, फिर नारायण मौजूद थे, फिर मैं एक-एक नाम लूंगा । आप सब इकट्ठे मौजूद हैं। जब मैं बोलूंगा, तो मुझे एक-एक बोलना पड़ेगा, लीनियर, एक रेखा में बोलना पड़ेगा; और आप सब बिना रेखा के इकट्ठे मौजूद हैं। 88 तो आपकी मौजूदगी की खबर अगर देनी हो वाणी से, तो फिर | सीमा बननी शुरू हो जाएगी। कोई नंबर एक होगा, कोई नंबर दो, कोई नंबर तीन, कोई नंबर चार। यहां आप बिना नंबर के एक साथ मौजूद हैं। और आप ही मौजूद नहीं हैं, पशु-पक्षी मौजूद हैं, आकाश मौजूद है, तारे मौजूद हैं, पृथ्वी मौजूद है, अनंत मौजूद है यहां, इसी क्षण। सब कुछ मौजूद है। पूरा अस्तित्व मौजूद है। अगर इसकी हम चर्चा करने जाएं, तो चर्चा नहीं हो सकेगी। कृष्ण भी | करेंगे, तो नहीं हो सकेगी। इसलिए अर्जुन जो शब्द उपयोग कर रहा है वह है, इसलिए हे भगवन्, आप ही अपनी उन दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने के योग्य हैं कि जिन विभूतियों के द्वारा इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं। हे योगेश्वर, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं ? और हे भगवन्, आप किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं ? Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ स्वभाव की पहचान वह कहता है कि आप ही कह सकते हैं। लेकिन तत्क्षण जो वह | बड़ा अघटनीय घट रहा है, तो वह यह है कि किसी को यह पता जोड़ता है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। कहता है, आप कह सकते हैं | नहीं कि वह क्या होने को हुआ है? क्या हो सकता है? क्या है अपनी समग्रता को। लेकिन तत्क्षण वह जोड़ता है, वह कहता है, उसकी संभावना ? बीज क्या है छिपा हुआ उसके भीतर? वह किस मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं? बड़ा चीज का बीज है? वह चमेली का फूल बनेगा कि चंपा का फूल महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप कहें। आप भी कहेंगे, तो पता नहीं बनेगा? वह कौन-सा फूल बनकर परमात्मा के चरणों पर चढ़ मैं जान पाऊं, न जान पाऊ! आप कह भी देंगे, तो भी मैं समझ सकता है? पाऊं, न समझ पाऊं! आप कह भी देंगे, तो भी मैं सुनूं या न सुनूं। | अगर चमेली का फूल चंपा का फल होने की कोशिश करता रहे. ___ जीसस ने कहा है कि कान हैं तुम्हारे पास, लेकिन तुम सुनते | तो परमात्मा के चरण बहत दर हैं। क्योंकि चंपा होना ही संभव नहीं कहां हो? आंखें हैं तुम्हारे पास, लेकिन तुम देखते कहां हो? तो | है। अगर गुलाब का फूल चमेली का फूल होने की कोशिश में पड़ा जिनके पास कान हों और जो सुन सकते हों, वे सुन लें। और रहे, तो परमात्मा के चरण बहुत असंभव हैं। क्योंकि पहले तो वह जिनके पास आंखें हों और देख सकते हों, वे देख लें। चमेली ही नहीं हो पाएगा; चढ़ने का कोई सवाल नहीं है। मैं किस कान से सुन लेना एक बात है। शब्द कान पर पड़ेगा, सुनाई पड़ | भांति चढूंगा! मेरा होने का ढंग मुझे खोजना पड़ेगा। जाएगा। लेकिन अर्जुन पूछता है, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन ___ और एक-एक व्यक्ति का अपना निजी ढंग है। वही तो करता हुआ आपको जानूं? आप कह भी दें, तो भी शायद ही हल | व्यक्तित्व का अर्थ है। एक-एक व्यक्ति अपने ढंग का व्यक्ति है, हो। मैं कैसे जानूं? आपका कहा हुआ, मेरा जानना कैसे हो जाए? बेजोड़। उस जैसा कोई दूसरा नहीं है। लेकिन हम सब उधार जीते उसकी विधि मुझे कहें, उसका मार्ग मुझे बताएं। और हे भगवन्, | | हैं, इमिटेटिव। और हम सब एक-दूसरे को उधारी थोपते चले जाते आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं ? और मेरी | हैं। अगर मुझे भक्ति प्रीतिकर लगती है, तो मैं अपने बेटे पर भक्ति योग्यता को समझें, मेरी पात्रता को, मेरी संभावना को, और मैं किन | थोप दूंगा, बिना इसकी फिक्र किए कि वह उसका भाव है? अगर भावों में आपका चिंतन करूं कि आपको जान पाऊं? | मुझे भक्ति अरुचिकर है, तो मैं अपने बेटे पर भक्ति का विरोध थोप यहां बहुत-सी बातें हैं। | दूंगा, बिना इसकी फिक्र किए कि वह उसका मार्ग है? और हम सब परमात्मा को किसी भी भाव से पाया जा सकता है, लेकिन हर एक-दूसरे पर थोपते चले जाते हैं। और इतने थोपने वाले हो जाते व्यक्ति हर भाव से नहीं पा सकता। सभी भावों से पाया जा सकता हैं कि कठिनाई हो जाती है। है उसे, लेकिन आप सभी भाव करने में समर्थ नहीं हो सकते। मैंने सुना है, एक छोटा बच्चा, स्कूल में उससे पूछा गया आपका कोई अपना भाव आपको खोजना पड़े। आपका भाव, बड़ा होकर क्या बनना चाहता है? तो उसने कहा, क्या बनना आपका निजी भाव-जो आपका प्राण बन सकता हो, जिसका चाहता हूं, इसका तो मुझे पता नहीं। एक बात पक्की है कि मैं पागल बीज आपके भीतर छिपा हो, जिसकी आपकी पात्रता हो-उस | बन जाऊंगा! इंसपेक्टर ने पूछा कि यह तुझे खयाल कैसे आया? भाव से ही आप परमात्मा को खोजें, तो ही खोज पाएंगे। | तो उसने कहा, मेरी मां चाहती है कि मैं इंजीनियर बनूं। मेरा बाप लेकिन बहुत बार ऐसा होता है, हम दूसरों के भावों से उसे चाहता है कि डाक्टर बनूं। मेरा भाई चाहता है कि चित्रकार बनूं। खोजने चलते हैं और तब हम नहीं खोज पाते। न तो कोई दूसरे की मेरी बहन कुछ और चाहती है। मेरी मौसी कुछ चाहती है। मेरी आंखों से देख सकता है, और न कोई दूसरे के हाथों से छू सकता चाची कुछ चाहती है। मेरे चाचा कुछ चाहते हैं। वे सब लोग है, और न कोई दूसरे की बुद्धि से जान सकता है। अपनी ही भाव कोशिश में लगे हैं अपने-अपने ढंग से मुझे कुछ बनाने की। मुझसे की दशा, जिससे परमात्मा का मेल खाए, अस्तित्व से मेल खाए, | तो न किसी ने पूछा है, न मुझे पता है। एक बात पक्की है कि अगर जाननी और खोज लेनी जरूरी है। | वे सब सफल हो गए, तो मैं पागल हो जाऊंगा! हमारी जिंदगी की बड़ी से बड़ी दुर्घटना यही है कि हमें यही पता हो ही जाएगा। और सफल भी न हों, तो भी पागल हो जाएगा। नहीं कि मैं किस पात्रता को लेकर पैदा हुआ हूं। बड़ी से बड़ी | | असफल भी हो जाएं, तो भी लकीरें छोड़ जाएंगे। विडंबना यही है। अगर कोई, हम समझें कि इस जगत का बड़ा से । सामान्य जीवन में तो यह हो ही रहा है। उस असामान्य जीवन पा कित 89 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 की यात्रा पर भी बड़ी गहन रेखाएं हम पर छोड़ दी जाती हैं। मैं | | मुसलमान का परमात्मा पाकर क्यों अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे हो? देखता हूं कभी कि कोई आदमी जन्म से हिंदू घर में पैदा हुआ है। | हमें परमात्मा से कोई प्रयोजन नहीं है। हमारा परमात्मा! अब कोई आदमी जन्म से मुसलमान घर में पैदा हुआ है। लेकिन जन्म परमात्मा हमारा-तुम्हारा नहीं हो सकता। कोई दो परमात्मा भी नहीं से धर्म का क्या संबंध? कोई भी संबंध नहीं है। अगर एक आदमी | | हैं। लेकिन यह हमारे मन की आज तक की व्यवस्था है। इस जन्म से कम्युनिस्ट के घर में पैदा हुआ है, तो कम्युनिस्ट होने की | व्यवस्था के कारण दुनिया में धर्म के जितने फूल खिल सकते हैं, मजबूरी नहीं है। फिलहाल अभी तक तो नहीं है। आगे हो सकती | | नहीं खिल पाते। इस कारण जितने लोग धार्मिक हो सकते हैं, नहीं है कि तुम कम्युनिस्ट बाप के बेटे हो, कम्युनिस्ट ही तुम्हें होना | | हो पाते। धर्म तो भावगत है, जन्मगत नहीं।। पड़ेगा; कि तुम्हारा खून कम्युनिस्ट का है! इसे ठीक से समझ लें, धर्म भावगत है, जन्मगत नहीं। और जब खून किसी का होता नहीं। न कम्युनिस्ट का होता है, न हिंदू का | कष्ण ने कहा है कि स्वभाव ही धर्म है। और स्वधर्म को छोडकर होता है, न मुसलमान का होता है। अभी तक कोई उपाय नहीं खोजा | दूसरे धर्म में जाना भयभीत करने वाला, भयावह है। तो लोग जा सका कि खून सामने आप रख दें और डाक्टर बता दे कि यह समझते हैं, इसका मतलब है कि हिंदू घर में पैदा हुए हो, तो हिंदू हिंदू का है। हड्डी में भी अब तक पता नहीं चलता कि हड्डी हिंदू की | रहना। मुसलमान घर में पैदा हुए, तो मुसलमान रहना। है कि मुसलमान की है। खोपड़ी की मज्जा को भी निकालकर जांच नहीं; स्वधर्म का मतलब है, अपना स्वभाव खोजना, अपना करो, तो कोई पता नहीं चलता कि किसकी है। | भाव खोजना, जो तुम्हें परमात्मा से मिलाने में सहयोगी हो सके। बच्चे कोई धर्म, कोई विचार, कोई पंथ, कोई मत लेकर पैदा नहीं वह व्यक्तिगत ट्यूनिंग है। एक-एक व्यक्ति को अपनी तरंग होते। बच्चे संभावना लेकर पैदा होते हैं कुछ होने की। लेकिन हम खोजनी पड़ती है, अपनी वेव-लेंथ खोजनी पड़ती है, कि मेरे हृदय उनके ऊपर थोप देते हैं कुछ। एक आदमी मुसलमान के घर में पैदा | की तरंग किस भांति परमात्मा की तरंग से जुड़ सकती है। . हुआ है। यह हो सकता है, इसके लिए कृष्ण का मंदिर भाव बन ___ अर्जुन का यह पूछना बहुत मूल्यवान है कि हे योगेश्वर, मैं किस जाए। लेकिन इसको अड़चन आएगी। इसको अड़चन आएगी। | प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं? और हे भगवन्, मूर्ति के सामने यह नाच कैसे सकता है? आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं? मेरे द्वारा एक मुसलमान ने मुझे आकर कहा, तब मुझे खयाल आया। | चिंतन करने योग्य हें किन-किन भावों में? किन भावों में आपको उसने मुझे कहा कि मेरा तो मन होता है कि जैसे मीरा नाचती फिरी| | खोजं? कैसे यह मेरे लिए सरल होगा कि जो अभी मैं मानता है. कृष्ण को लेकर, ऐसे मैं नाचता फिरूं। लेकिन मैं मुसलमान हूं! | कल वह मेरा ज्ञान भी बन जाए? जिसे अभी मैंने बाहर से स्वीकार और यह तो कुफ्र है; यह तो बड़ी बुरी बात है, मूर्ति-पूजा। और यह | | किया, कल भीतर से भी अनुभव करूं? जिसकी अभी मैंने चर्चा तो नहीं हो सकता! यह तो नहीं हो सकता। ही सुनी, कब होगा कि उसका स्वाद भी ले लूं? अभी जब मैं दूसरे अब यह आदमी एक दुविधा में है। मैं ऐसे हिंदुओं को जानता की गवाही खोजता फिरता हूं, कब वह क्षण आएगा, जब मैं भी हं, जिनके लिए मस्जिद मंदिर से बेहतर हो। मैं ऐसे ईसाइयों को | | गवाह हो जाऊं? कि जो मैं कह रहा हूं, उसका मैं ही गवाह हूं! जानता हूं, जो कि कहीं और होते तो ठीक होता। लेकिन जन्म एक | तो दो बातें! एक तो किस विधि निरंतर चिंतन करता हुआ जकड़ बन जाता है। और तब आप अपना भाव नहीं खोज पाते। | आपको जानूं? दो बातें पूछी हैं, और दो ही विशेष हैं। किस विधि आप अपना खोज ही नहीं पाते कि कौन-सा द्वार है मेरा नैसर्गिक, | चिंतन करता हुआ? यह ज्ञान के लिए, ज्ञान की जो विधियां हैं। और जहां से मैं परमात्मा को पा सके। दूसरा वह पूछता है, किस भाव से? वह भक्त की विधि है। हम सबको इसकी फिक्र नहीं है कि कोई परमात्मा को पाए। हिंदू ठीक अर्थों में जगत में दो ही विराट भेद हैं मनुष्यों के, को फिक्र है कि हिंदू के परमात्मा को पाना है। मुसलमान को फिक्र | मस्तिष्क-केंद्रित और हृदय-केंद्रित। दो ही प्रकार हैं, पुरुष और है कि मुसलमान के परमात्मा को पाना है। अगर तुमने हिंदू का | स्त्रैण। जब मैं कहता हूं पुरुष और स्त्रैण, तो पुरुष और स्त्री से परमात्मा पा लिया, तो इससे तो बेहतर था कि न पाते परमात्मा और मतलब नहीं है। प्रतीकात्मक है। स्त्रैण व्यक्तित्व को मैं कहता हूं, मसलमान रहते। या न पाते परमात्मा और हिंदु रहते। लेकिन जो हृदय-केंद्रित है. वह चाहे परुष हो और चाहे स्त्री हो। और परुष Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव की पहचान 3 उस व्यक्तित्व को कहता हूं, जो मस्तिष्क-केंद्रित हो; वह स्त्री हो। | हो, तो मैं कैसे भाव करूं, ताकि मैं आपको जान लूं? चाहे पुरुष, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इन दोनों के मार्ग बिलकुल ___ भाव-लीनता; विचार-ध्यान। और भाव-लीनता, डूबना, अलग हैं। | विसर्जित होना, समर्पण, खो जाना। अर्जुन को यह भी खयाल में नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं, वह बुद्ध नाच नहीं सकते, क्योंकि नाचना बुद्ध को लगेगा, यह क्या बहुत सरल है। उसे यह भी पता नहीं है कि मैं बुद्धिवादी हूं, कि बात हुई! सूफी फकीर नाच सकते हैं, क्योंकि वे कहते हैं, हृदयवादी हूं; कि मैं किस मार्ग से चलूं, भाव से या ज्ञान से! वह नाच-नाचकर हम उसमें खो जाते हैं। दोनों बातें पूछ लेता है कि किस भांति चिंतन करता हुआ आपको कभी आपने छोटे बच्चों को देखा है। छोटे बच्चे अक्सर घर में जानूं? अगर मेरा यह मार्ग हो कि विचार के द्वार से ही मैं आप तक | | करते हैं। चक्कर लगाना शुरू कर देते हैं। बड़े रोकते भी हैं उनको। पहुंचूं, तो किस भांति विचार करता हुआ पहुंचूं? या अगर भाव मेरा | और उनको हैरानी होती है, कि चक्कर आ जाएगा। गिर जाओगे। मार्ग हो, तो मैं किस भाव के झरोखे से आपको झांकू? | मूर्छित हो जाओगे। सिर टूट जाएगा। और बच्चे अपनी जगह पर ये दो विराट धाराएं हैं। इसके छोटे-छोटे बहुत तरह के अंग हैं, | खड़े होकर कील की तरह घूमना चाहते हैं। बच्चों को, अधिकतर लेकिन वे गौण हैं। महत्वपूर्ण यही है। अब तक जगत में जिन लोगों | बच्चों को रस होता है कील की तरह घूमने का। बच्चे कह नहीं ने भी पाया है परम सत्य को, उन्होंने या तो विचार की आत्यंतिक | सकते कि उनको क्या होता है। और बूढ़े समझते हैं कि यह घूम रहा गति से या भाव की। एक तरफ बुद्ध हैं, महावीर हैं, लाओत्से हैं, | | है, अभी गिरेगा; चक्कर खा जाएगा। लेकिन बच्चे जब तेजी से क्राइस्ट हैं। एक तरफ मीरा है, चैतन्य हैं, कबीर हैं, थेरेसा है, | | चकरी की तरह घूमते हैं एक जगह, तो उन्हें शरीर अलग और राबिया है, इस तरह के लोग हैं। जिन्होंने भाव से पाया है, उनकी | | आत्मा अलग मालूम होने लगती है। और बड़ा आनंद उन्हें आता पूरी की पूरी व्यवस्था जीवन की साधना की अलग होगी, विपरीत | | है। वह बूढ़ों की समझ में नहीं आ सकता। होगी। जिन्होंने ज्ञान से पाया है, उनकी बिलकुल विपरीत होगी। । । सफी फकीर इसी तरह नाचते हैं। सफी फकीरों का एक वर्ग ही विचार से जो चलेगा. उसके लिए ध्यान आधार होगा। विचार है. व्हिरलिंग दरविशेज. नाचते हए फकीर। वे ठीक बच्चों की से जो चलेगा, उसे विचार को इतना शुद्ध, इतना शुद्ध करना है कि | | तरह खड़े होकर फिरकनी की तरह नाचते हैं। तेजी से नाचते हैं। एक क्षण आए कि विचार शुद्ध होते-होते, होते-होते तिरोहित हो घंटों नाचते हैं। एक घड़ी आती है कि शरीर घूमता रह जाता है और जाए। जब भी कोई चीज शुद्ध होती है, तो तिरोहित होने लगती है। चेतना खड़ी हो जाती है। शरीर लीन हो जाता है विराट में। शरीर जितनी शुद्ध होती है, उतनी तिरोहित होने लगती है। जब कोई चीज | खो जाता है। पूर्ण शुद्ध हो जाती है, तो वाष्पीभूत हो जाती है। मीरा नाचती है, चैतन्य नाचते हैं। ये अपने को डुबा रहे हैं। विचार इतना शुद्ध हो जाए कि विचार-मात्र रह जाए। शब्द | लेकिन अगर मोहम्मद से हम कहें, नाचना, संगीत! तो मोहम्मद समाप्त हो जाएं, सिर्फ विचारणा रह जाए। थाट्स चले जाएं, सिर्फ कहेंगे, गलत! संगीत की बात ही मत लाना मस्जिद के करीब। थिंकिंग मौजूद रह जाए; विचारणा की शक्ति रह जाए और विचार संगीत की बात ही मत उठाना। क्योंकि मोहम्मद कहते हैं कि संगीत सब खो जाएं। आकाश रह जाए, बादल सब चले जाएं। बादल हैं | में आदमी खो जाएगा। और खोना नहीं है, जागना है। विचारों की तरह। और जब सब बादल छंट जाते हैं, तो वह जो | और अगर हम मीरा से कहें.संगीत विचारक हैं भीतर आकाश की तरह, वह शेष रह जाता है। विचार | ही कृष्ण और मीरा के बीच जो सेतु है, वह तत्काल टूट जाएगा। को शुद्ध करके, शांत करके, मौन करके, क्षीण करके, विचारक | अगर हम चैतन्य से कहें कि फेंको यह तंबूरा, छोड़ो यह नाचना; अकेला रह जाए। उसको हम चाहे साक्षी का नाम दें, अवेयरनेस | | बंद करो यह संगीत और गीत! तो चैतन्य का सब कुछ खो जाएगा। कहें, जागरूकता कहें, जो भी नाम दें। सिर्फ बोध-मात्र रह जाए| संगीत उनके लिए कारगर हो सकता है, जो अपने को डुबाने चले और विचार खो जाएं। बुद्ध इसी परंपरा के अग्रगण्य प्रतीक हैं। हैं, खोने चले हैं। __ अर्जुन कहता है, अगर ऐसी कोई संभावना हो मेरी, तो मैं कैसे अब यह मजे की बात यह है कि ये बिलकुल विपरीत मार्ग हैं। चिंतन करूं? वह मुझे बताएं कि मैं आपको जान लूं। अगर यह न | | ध्यान में अपने को बचाना है पूरी तरह, सब छूट जाए, मैं ही बचूं। दो। तो संगीत के छटते 91 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ गीता दर्शन भाग-5 और भक्ति में अपने को भुलाना है पूरी तरह, सब बच जाए, मैं ही न बचूं। और मजा यह है कि दोनों एक ही जगह पहुंच जाते हैं—ये इतने विपरीत! चाहे मैं बचूं और सब खो जाए, तो भी एक बचता है। और चाहे सब बचे और मैं खो जाऊं, तो भी एक ही बचता है। और दो विपरीत छोरों से एक ही रह जाता है। द्वैत खो जाता है, और एक ही घटना घटती है। अर्जुन पूछता है, क्या है मेरी दशा ? क्या है मेरी पात्रता ? वह आप मुझे कहें। शायद वह पात्रता मेरी प्रकट हो, और मेरी संभावना मेरी वास्तविकता बन जाए, और मेरा बीज अंकुरित हो और खिल जाए । । तो आप जो कहते हैं, वह मैं समझ पाऊं, जान पाऊं। और शायद मैं आपसे एक हो जाऊं, तो आपकी समग्रता भी मेरे लिए प्रकट हो जाए। समग्रता तो तभी प्रकट होती है, जब कोई एक हो जाए। उसके पहले समग्रता प्रकट नहीं होती । यद्यपि जो एक हो गए हैं, वे भी समग्रता को कह नहीं सकते। इसलिए संतों ने गूंगे के गुड़ की बात कही है। संत गूंगे बिलकुल नहीं हैं। संतों से ज्यादा बात करने वाले लोग खोजने मुश्किल हैं। संतों ने बहुत बातें की हैं; गूंगे बिलकुल नहीं हैं। लेकिन जहां परमात्मा की बात आती है, कहते हैं, हम बिलकुल गूंगे हो जाते हैं। इतना बड़ा है। इतना विशाल है कि कहें तो गलती होती है। कहा नहीं कि गलती हो जाती है! बोले नहीं कि दिखाई पड़ती है, भूल हो गई ! सुना है मैंने कि एक कवि, एक रहस्यवादी कवि समुद्र के तट पर गया था। सुबह सूरज निकला। समुद्र की लहरों पर सूरज का जा छा गया। सुगंधित हवाएं थीं। फूलों की खुशबू थी। वृक्षों की छाया थी। वह आराम से बैठकर इस धूप और लहरों के खेल को देख रहा था। हवाएं उसके नासापुटों को लगीं। रोआं-रोआं उसका आनंद से भर उठा। उसे स्मरण आया अपनी प्रेयसी का। लेकिन उसकी प्रेयसी वहां मौजूद न थी। वह बीमार थी और दूर एक अस्पताल में थी । उसे लगा, काश, इस सुबह, इस सूरज को, इस आकाश को, इन हवाओं को, इन सागर की लहरों को - इस वातावरण में वह मेरी प्रेयसी क्षणभर को भी आ जाए, तो स्वस्थ हो जाए ! लेकिन लाना मुश्किल है। उसका खाट से भी उठना मुश्किल है। फिर सोचा उसने कि दूसरा उपाय यह हो सकता है कि मैं थोड़ा-सा यह वातावरण एक पेटी में बंद करूं और अस्पताल ले चलूं। वह एक मजबूत पेटी लाया। रोआं- रंध्र भी कहीं खुला न रह जाए पेटी का, सब तरफ मोम लगाकर बंद कर दिया; मजबूत ताले डाले। हवाएं, सूरज की रोशनी, सुगंध, सब पेटी में बंद कर दी। आकाश का छोटा-सा टुकड़ा भी बंद हो गया। ताला डालकर सब तरफ से बंद करके रंध्र, एक बहुमूल्य पत्र के साथ उसने संदेशवाहक को पेटी लेकर अस्पताल भेजा। लिखा उसने अपने पत्र में कि अनूठा है यहां सब । अदभुत है। चमत्कृत हो गया हूं। काश तू यहां होती ! लेकिन उसका कोई उपाय नहीं, इसलिए थोड़ा-सा नमूना इस आकाश का, इस सुबह का, इस सूरज की किरणों का, इस पेटी में बंद करके भेजता हूं। 92 पत्र पहुंच गया। पेटी भी पहुंच गई। चाबी भी पहुंच गई। चाबी से पेटी खोल भी ली गई। लेकिन भीतर कुछ भी न था ! जब बंद किया था, तब सब था। सूरज की किरणें भी थीं। हवाएं भी थीं। नाचता हुआ आकाश भी था । सब था। वह तरंगित पूरा वातावरण पेटी के ऊपर ही नाच रहा था। सब था; वह सब उसने बंद किया था। लेकिन जब पेटी खोली तो वहां कुछ भी न था । | होगा भी नहीं । आकाश पेटियों में बंद नहीं किए जा सकते। बंद करते ही सब बदल जाता है। अनुभूतियां भी शब्दों में बंद नहीं की जा सकतीं। बंद करते ही सब बदल जाता है। कहते ही खो जाता है सत्य इसलिए लाओत्से ने कहा है, अगर मैं कहूं, तो भूल होगी। क्योंकि जो कहा जा सकता है, वह सत्य न होगा। और जो मैं कहना चाहता हूं, वह मैं सत्य ही कहना चाहता हूं। इसलिए उचित है। मैं चुप ही रहूं। लेकिन चुप रहने से भी तो नहीं कहा जा सकता। चुप रहने वाले लोग भी हुए हैं, फिर भी नहीं कहा जा सकता। बोलकर भी नहीं | कहा जा सकता। आदमी की बड़ी बेचैनी है। लेकिन जीकर थोड़ी-सी खबर दी जा सकती है। अगर यह कवि मुझे मिल जाए ! बहुत मुश्किल है। कहां खोजें! | उसके नाम-धाम का कुछ पता नहीं, जिसने यह सब पेटी में बंद करके भेजा था। अगर यह मुझे मिल जाए, तो इससे मैं कहूं कि पेटी में बंद मत कर, एक और उपाय है। एक और उपाय है, वही एकमात्र उपाय है। तू पेटी में बंद मत कर। तू ठीक से इस आकाश को जी | ले। तू ठीक से इन हवाओं को पी ले। तू ठीक से सूरज की इन किरणों को तेरी आंखों में समा जाने दे। यह सुवास, जो तुझे प्रीतिकर लगती है, तेरे रोएं - रोएं में रम जाए । यह सारा आकाश, जो तेरे चारों तरफ फैला है विराट, यह तेरे हृदय के भीतर भी समा जाए। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 स्वभाव की पहचान 8 और फिर तू नाचता हुआ, तू ही नाचता हुआ अस्पताल पहुंच हम उस आदमी से क्या कहेंगे, कि तुम्हारी समझ में कहीं भूल जा। तू नाच अस्पताल जाकर वैसे ही, जैसे हवा में तरंगें नाचती थीं होगी। अगर तुम्हें पक्का पता है कि दरवाजा कहां है, तो फिर और वृक्षों की पत्तियां नाचती थीं और फूल कंपते थे। इन सबके | दीवाल से टकराने का सवाल कहां है, निकल जाओ। वह कहता कंपन को, जीवित कंपन को लेकर तू ही अस्पताल नाचता हुआ है कि समझता तो पूरा हूं, लेकिन जब भी चलता हूं, तो दीवाल में पहुंच जा। तो शायद तेरा वह उन्मत्त भाव, तेरा वह हर्षोन्माद, तेरी ही सिर लगता है जाकर। वह समाधिस्थ दशा, तेरी प्रेयसी को खबर दे सके, कि जहां से तू इसके समझने में ही बुनियादी भूल है। लेकिन यह मानने को आया है, वहां जाने योग्य है। इतनी खबर हो सकती है। तैयार नहीं कि मैं समझता नहीं हूं। अहंकार तैयार नहीं होता कि मैं कृष्ण के कहने से पता नहीं चलेगा; कृष्ण के होने से पता चलता समझता नहीं हूं। है जरूर। बुद्ध के कहने से पता नहीं चलेगा; होने से पता चलता है। तो मैंने उनसे कहा कि तुम अपनी समझ छोड़कर आओ, तो इसलिए अर्जुन पूछता है कि कैसे मैं अपनी आंखों को खोलूं शायद कुछ हो सके। यह समझ महंगी पड़ रही है। और बीस साल तुम्हारी तरफ? कैसे मेरे कान तुम्हें सुनने में समर्थ हो जाएं? और हो गए समझते हुए, अब और क्या करोगे? और कितना समझोगे? कैसे मेरा हृदय तुम्हारी हृदय की धड़कन को अनुभव करने लगे। अब समझने को भी कुछ नहीं बचा। तुम कहते हो, सब समझ क्या चिंतन करूं? क्या भाव करूं? तुम्हीं मुझे कहो! लिया। अब क्या इरादे हैं? । अर्जुन की सरलता स्पष्ट है। मान्यता को अगर वह मान लेता तो उन मित्र ने कहा, इसीलिए मैं आपके पास आया हूं कि कि जान लिया, तो अब कृष्ण से पूछने को कुछ शेष नहीं था। जाना कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, उससे अब कुछ नहीं होता। तो मैंने उनसे उसने नहीं है, यह उसे पता है। और इसे वह छिपा भी नहीं रहा है, कहा, फिर कृष्णमूर्ति को पूरा छोड़कर आ जाओ। फिर जो मैं कहता इसे वह स्पष्ट कह रहा है। इसलिए रास्ता खुल सकता है, रास्ता हूं, वह करो। उन्होंने कहा, मैं तैयार हूं। मैंने उनसे कहा, तो ठीक बन सकता है। . है। कल सुबह से तुम ध्यान शुरू करो। उन्होंने कहा, ध्यान से क्या अभी महीनाभर हुआ, एक मित्र मेरे पास आए। कृष्णमूर्ति को | होगा? कृष्णमूर्ति तो कहते हैं, ध्यान से कुछ भी न होगा! सनते हैं, बीस वर्ष से सनते हैं। तो मुझसे आकर बोले कि सब ठीक ये तकलीफें हैं। ये तकलीफें हैं। जिससे नहीं हुआ है, वह भी लगता है, वे जो कहते हैं। लेकिन कुछ हुआ नहीं। बीस साल हो | सिर पर बैठ जाएगा। उससे कर भी नहीं सकते हैं, उसको छोड़ भी गए सुनते हुए। कान पक गए सुनते हुए। शब्द-शब्द याद हो गए। नहीं सकते हैं। और समझदारी का भूत सवार है कि समझ हमारे जो वे कहते हैं, दोहरा सकता हूं। और बिलकुल ठीक कहते हैं, | पास है। तो मैंने उनसे कहा कि अब मैं क्या करूं? बीस साल से ऐसा भी समझता हूं। लेकिन कुछ होता नहीं! तुम जानते हो कि ध्यान करने से कुछ न होगा। इससे कुछ नहीं तो मैंने उनसे पूछा, एक बार फिर से सोचो। जो वे कहते हैं, वह हुआ। अब थोड़ा ध्यान करके देख लो। समझ गए हो? अगर समझ गए हो, तो हो जाना चाहिए। क्योंकि एक आदमी कहता है कि भक्ति से कुछ भी न होगा। उससे मैं समझना और हो जाने में फासला नहीं है। नहीं, वे बोले, समझता | कहता हूं कि तुम ज्ञान की चर्चा काफी कर लिए। अगर उससे हो तो मैं बिलकुल पूरा हूं। समझने में रत्तीभर कमी नहीं है। लेकिन गया हो, तो बात समाप्त हुई। मुझे कोई एतराज नहीं है। न हुआ हो, होता कुछ नहीं है! तो नाचकर, गीत गाकर भी देख लो। पता नहीं, कहां तुम्हारा हृदय - अब इस आदमी की बड़ी कठिनाई है। इसको वहम है कि | तरंगित हो जाए, कहां तुम्हारा हृदय अंकुरित हो उठे। रुकावट मत समझता हूं। क्योंकि अगर समझ ही ले कोई, तो होने में कुछ बचता | बनो। बाधा मत डालो। मंदिर में भी चले जाओ, मस्जिद में भी चले नहीं, कुछ बचता नहीं। अगर मैं यह कहूं कि मुझे पक्का पता है कि जाओ। कुरान को भी देख लो, गीता को भी देख लो। बाइबिल को दरवाजा कहां है मकान में, लेकिन जब भी मैं निकलता हूं तो दीवाल भी पढ़ लो। गीत भी गा लो, नाचकर भी देख लो, ध्यान करके भी से टकरा जाता हूं। पक्का मुझे पता है कि दरवाजा कहां है। समझता | देख लो। तुम्हें कुछ पता नहीं है कि कहां से हो जाए, तो सब तरफ हूं कि दरवाजा कहां है। लेकिन जब निकलता हूं, तो दीवाल से | टटोलकर देख लो। पता नहीं, कहां द्वार मिल जाए! और जहां द्वार टकरा जाता हूं। बीस साल से समझता हूं कि दरवाजा कहां है! तो मिल जाए, फिर अपनी बुद्धिमत्ता को एक तरफ रखो और द्वार से Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 बाहर निकलो । नहीं तो बुद्धिमत्ता इतनी मजबूत है हमारे पास कि द्वार भी आ जाए पास, तो चूक जाता है। सुना है मैंने, हुजबिरी एक सूफी फकीर हुआ। वह कहा करता था कि आदमी ऐसा है कि अपने हाथ से मौके गंवाता है। एक आदमी आया हुआ था, उसने कहा कि मैं यह नहीं मान सकता। जिंदगी हो गई, हर अवसर की तलाश में हूं कि दो पैसे इकट्ठे हो जाएं। अभी तक अवसर ही नहीं आया। गंवाने का सवाल नहीं है। मैं अवसर की तलाश में हूं, लेकिन अवसर ही नहीं आया। गंवाने का कहां सवाल है? हुजबिरी ने कहा, किसी दिन देखेंगे। एक दिन हुजबिरी ने उस आदमी को कहा कि मैं उस पार जा रहा हूं नदी के उस झाड़ के नीचे बैठूंगा सांझ, तुम मिलने आ जाना। और अपने दूसरे भक्तों को कहा कि एक में सोने की मोहरें भरकर, बीच पुल पर रख दो। जब यह आदमी आए, तब वहां रख देना और दूर खड़े होकर देखते रहना। वह आदमी आया। वह पुल के बीच तक आया। और ठीक बीच के करीब आते-आते उस आदमी ने आंखें बंद कर लीं, और बीच का हिस्सा उसने आंखें बंद करके पार किया। घड़े को छोड़ आया। जो लोग खड़े थे, वे भी बहुत चकित हुए कि हद्द हो गई! यह हुबरी ने कोई चमत्कार किया ? कोई जादू किया ? कि यह आदमी भी गजब का है कि आधे पुल तक तो आंखें खोले आया और जब घड़ा बिलकुल पास था, तो उसने आंखें बंद कर लीं ! घड़े को लेकर वे हुजबिरी के पास पहुंचे। वह आदमी भी पहुंचा। हुजबिरी ने पूछा कि कहो, वह घड़ा बीच में रखा था, तुम्हें दिखाई पड़ा? उसने कहा, कौन-सा घड़ा ! हुजबिरी के मित्रों ने कहा कि घड़ा कैसे दिखाई पड़ेगा! जहां घड़ा दिखाई पड़ता, उसके पहले ही इस आदमी ने आंखें बंद कर लीं। हम तो चकित हुए। हुजबिरी ने उससे पूछा कि तुमने आंखें क्यों बंद कर लीं ? उसने कहा कि मुझे एक खयाल आया कि जरा आंख बंद करके पुल पार करके देखें, कैसा होता है ! ऐसे ही मौज आ गई कि जरा आंख बंद करके चलकर देखें। हुबरी ने कहा कि घड़ा रखवाया था तेरे लिए। लेकिन जैसा मैं समझता हूं कि तूने जिंदगीभर अवसर खोए हैं, तो जरूर तेरा मन कोई तरकीब निकाल लेगा और तू अवसर खो देगा। ऐसा मैं विचार करता था, वह ठीक हो गया । तूने तरकीब निकाल ली कि जरा आंख बंद करके देखें। हमारा मन हमारी आदतों का जोड़ है। और हमने जो भी अब 94 तक किया है, वह मन का यंत्रवत हिस्सा हो गया है। अगर आप एक तरफ असफल हुए हैं, तो आप दूसरी तरफ भी जाएंगे अपनी सारी असफलता की आदत को ले जाएंगे। और वहां भी असफल होकर सिद्ध करेंगे कि हमें कोई सफल कर ही नहीं सकता। | असफलता भी आपका सम्मान बन गई है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो आदमी असफल होता रहता है, वह सफलता से डरने लगता है, क्योंकि प्रतिष्ठा का सवाल है। वह लोगों से कहता रहता है, असफलता ही मेरा भाग्य है। सारी दुनिया खिलाफ है। नियति मेरे विपरीत है, परमात्मा मेरे विपरीत काम कर रहा है ! यह वह इतनी दफे कह चुका होता है कि अब उसे डर लगता है कि कहीं मैं सफल न हो जाऊं। नहीं तो मेरे पुराने वक्तव्यों का क्या होगा! तो अगर सफलता हाथ में भी आती हो, तो वह चूक | जाएगा, छोड़ देगा; और फिर कहेगा कि देखो, नियति, भाग्य! मेरे को सफलता मिलने वाली ही नहीं है। अपने ही दुश्मन बनकर हम जीते हैं। अपने मित्र बनकर जीने है। अर्जुन इस सूत्र में अर्जुन ने अपने तरफ अपनी मित्रता बड़ी | साफ जाहिर की है। वह कृष्ण से हाथ जोड़कर कह रहा है कि मुझे पता नहीं है। मानता मैं हूं, ज्ञान मुझे नहीं है। आप मुझे बता दें। और जो भी उपाय हो, जो भी उपाय हो, जो मुझे मौजूं पड़ जाए, जिससे मेरा तालमेल बैठ जाए, ताकि मैं आपको जान सकूं और आपकी समग्रता को अनुभव कर सकूं। आज इतना ही । फिर कल हम बात करेंगे। लेकिन उठें न। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों, फिर जाएं। आपका मन कहे भी कि चलो, चलकर देखें, तो भी नहीं। पांच मिनट बैठे रहें । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 सातवां प्रवचन 170 शास्त्र इशारे हैं Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-500 विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन । लेकिन ये वचन भी बहुत प्रीतिकर हैं, अमृतमयी हैं। और कोई भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् । । १८ ।। | इनको सुनने के लिए भी रुका रह सकता है। तब तृप्ति तो कभी न श्रीभगवानुवाच | होगी, बल्कि ये वचन भी एक नशे का काम कर सकते हैं। हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । | बुद्ध के पास आनंद चालीस वर्षों तक था। चालीस वर्ष लंबा प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।। १९ ।। | समय है। और बुद्ध के निकटतम शिष्यों में से था। और इन चालीस अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।। | वर्षों में बुद्ध ने जो भी बोला, एक शब्द भी बोला, तो आनंद ने वे अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।। २०।।। | सारे शब्द सुने थे, पर उसकी भी तृप्ति नहीं होती। और जब बुद्ध और हे जनार्दन, अपनी योगशक्ति को और परम ऐश्वर्य रूप | की मृत्यु करीब आई, तो आनंद छाती पीटकर रोने लगा। और बुद्ध विभूति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिए, क्योंकि आपके | ने कहा कि रोने का क्या प्रयोजन है? जो मैंने कहा है, अगर तू उसे अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती है। | समझ गया, तो मत्य होती ही नहीं है। जो मैंने कहा है. अगर तने इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे | उसे पाया, तो रोने का कोई भी कारण नहीं है; ये आंसू बंद कर। कुरुश्रेष्ठ, अब मैं तेरे लिए अपनी दिव्य विभूतियों को लेकिन आनंद को बुद्ध की बातें सुनाई भी नहीं पड़ीं। वह गहन प्रधानता से कहूंगा, क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है। | दुख में है। वह छाती पीटकर रो रहा है। और वह कह रहा है कि हे अर्जुन, मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं | आपकी मृत्यु करीब आती, तो मेरे तो प्राण टूटते हैं। आपके तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूं। | अमृतमय वचन फिर कब सुनने को मिलेंगे? अब कब, कितने जन्मों के बाद आप जैसे व्यक्ति का दर्शन होगा? अब कब और कहां? कितनी यात्रा के बाद आपकी शीतल छाया में बैठने को 27 र्जुन ने कृष्ण से पुनः कहा, और हे जनार्दन, अपनी | | मिलेगा? मेरी तो अभी तृप्ति नहीं हुई है, और आप जाने और विदा योगशक्ति को और परम ऐश्वर्य रूप विभूति को फिर | | लेने को तैयार हो गए हैं! भी विस्तारपूर्वक कहिए, क्योंकि आपके अमृतमय | | तो बुद्ध ने आनंद को कहा है कि तेरी तृप्ति, चालीस वर्ष से वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती है। | निरंतर तू मुझे सुनता है, अगर तू चालीस जन्मों तक भी सुनता रहे, कृष्ण के वचन हों, या बद्ध के, या क्राइस्ट के, सनते हए कभी तो भी नहीं होगी। क्योंकि तप्ति तो होगी चलने से. यात्रा करने से. भी किसी की उनसे तृप्ति नहीं होती है। ऊपर से देखने पर लगेगा | | पहुंचने से। मैं मंजिल की बात कर रहा हूं, वह बात प्रीतिकर लगती कि वचन इतने प्रीतिकर हैं, इतने अमृतमयी हैं, इतने मधुर हैं, कि | है। भविष्य दिखाई पड़ता है उसमें। स्वयं की संभावनाएं कभी कितना ही सुनो उन्हें, तृप्ति नहीं होती है। यह बहुत ऊपरी अर्थ वास्तविक हो सकती हैं, इसकी अनुभूति होती है, प्रतीति होती है, हुआ। गहरे में देखने पर, ये वचन ऐसे हैं कि सुनकर इनसे कभी | | आभास मिलता है। लेकिन वह आभास तृप्ति नहीं दे सकता। तृप्ति नहीं हो सकती; वरन अतृप्ति और बढ़ेगी। तृप्ति होना तो दूर, | ___ हम कितनी ही जल की चर्चा सुनें, और चाहे वह चर्चा कृष्ण या और अतृप्ति बढ़ेगी, और बेचैनी बढ़ेगी, और प्यास बढ़ेगी। बुद्ध ही क्यों न करते हों, तो भी प्यास नहीं मिट सकती है। बल्कि क्योंकि ये वचन जिस बात की खबर देते हैं, जैसे-जैसे उसकी खबर जल की चर्चा से प्यास और बढ़ जाएगी और सोई होगी, तो जग बढ़ने लगती है, वैसे-वैसे प्यास भी बढ़ने लगती है उसे पाने की। | जाएगी; और छिपी होगी, तो प्रकट हो जाएगी। और जल की चर्चा और वह जो जलाशय है, इन वचनों में केवल उसकी छाया है। और उसकी महिमा, हमारे प्राणों को एक अभीप्सा दे देगी, आग वह जो तृप्ति का स्रोत है, इन वचनों में केवल उसकी ओर इशारा | जलने लगेगी भीतर। है। अगर कोई वचनों से ही तृप्त होना चाहे, तो कभी तृप्त न हो | तो एक तो ऊपरी अर्थ है। जैसा आमतौर से कोई गीता को सकेगा। चलना पड़ेगा उस ओर, जिस ओर ये वचन इशारा करते पढ़ेगा, तो वही दिखाई पड़ेगा। वह अर्थ है कि वचन इतने मधुर हैं हैं, इंगित करते हैं। जहां ये ले जाना चाहते हैं, वहां कोई पहुंचे तो कि सुनकर तृप्ति नहीं होती, अर्जुन और भी सुनना चाहता है। तृप्ति होगी। लेकिन कितना ही सुनता रहे, यह तृप्ति कभी होगी नहीं। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 शास्त्र इशारे हैं 8 धर्मश ___ और एक मजे की बात है। जिन वचनों को सुनने से कभी तृप्ति | | संतोष बिलकुल ही मिथ्या होता है। जब तक आपके जीवन में एक नहीं होती, उसका अर्थ ही यह हुआ कि वे वचन किसी ऐसी जगह | | परम असंतोष न जगे, तब तक आपका बाहरी संतोष झूठा होगा। की तरफ इशारा कर रहे हैं, जहां पहुंचकर ही तृप्ति हो सकती है। जब तक आपकी सारी असंतोष की शक्ति परमात्मा की तरफ न लग और जिन वचनों को सुनकर तृप्ति हो जाती है, उन वचनों से ऊब | | जाए, तब तक संसार के प्रति आपकी संतोष की बातें सिर्फ धोखा और बोर्डम पैदा हो जाएगी। जिन वचनों को सुनकर तृप्ति हो जाती | | होंगी। आदमी अपने को समझा-बुझाकर संतुष्ट हो सकता है। है, उनसे ऊब पैदा हो जाएगी। भयभीत आदमी डरता भी है। चिंतित आदमी परेशान भी होता है। यह बहुत मजे की बात है कि इस पृथ्वी पर सभी तरह के वचन | | तनावग्रस्त आदमी पीड़ा भी अनुभव करता है। इन सारी पीड़ाओं, सुनकर ऊब पैदा होने लगेगी; सिर्फ उन वचनों को छोड़कर, जिन्हें चिंताओं और भय के कारण कोई व्यक्ति अपने को समझा-बुझाकर सुनने से ही कुछ भी नहीं मिलता है, सिर्फ प्यास ही मिलती है। संतुष्ट भी हो सकता है। लेकिन वह संतोष झूठा है। शायद धर्मशास्त्र की परिभाषा मेरी दृष्टि में यही है। धर्मशास्त्र वास्तविक संतोष का जन्म होता है भीतर के एक गहरे असंतोष मैं उस शास्त्र को कहता हूं, जिसे पढ़कर, जिसे समझकर, तृप्ति न | से। एक नए आयाम में, एक न्यू डायमेंशन में जब आपकी सारी मिले, और अतृप्ति बढ़ जाए। जिस शास्त्र को पढ़कर तृप्ति मिले, | असंतोष की आग दौड़ने लगती है, तब आप बाहर के प्रति वह साहित्य होगा, धर्मशास्त्र नहीं। जिस शास्त्र को पढ़कर सुख | बिलकुल संतुष्ट हो जाते हैं। इसलिए नहीं कि आपने संतोष धारण मिले, वह साहित्य की बड़ी कृति होगी, कलाकृति होगी, लेकिन | कर लिया, बल्कि इसलिए कि बाहर की चीजें असंगत और व्यर्थ नहीं। धर्मशास्त्र तो प्यास देगा जलन देगा आग देगा। हो गई हैं। उनका कोई भी मल्य नहीं रहा है। वे निर्मल्य हो गई हैं। सारे प्राण जलने लगेंगे। और अतृप्त हो जाएंगे आप। | उनसे अब कोई बेचैनी नहीं होती। इतनी बड़ी बेचैनी पैदा हो गई है आमतौर से हम सुनते हैं कि धार्मिक आदमी बड़े संतुष्ट होते हैं। | | कि छोटी बेचैनियां व्यर्थ हो गई हैं। वह बात अधूरी है और एक अर्थ में झूठी है। वे हमें संतुष्ट दिखाई लेकिन धर्मशास्त्र को पढ़ने से आपको कोई तृप्ति नहीं मिल पड़ते हैं उन चीजों के संबंध में, जिन चीजों के संबंध में हम सकती। आपको अतृप्ति मिलेगी। नई अतृप्ति मिलेगी। एक नई असंतुष्ट हैं। और हमें उनका असंतोष दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि खोज की आकांक्षा जगेगी। वे उन चीजों के संबंध में असंतुष्ट हैं, जिनकी हमारे मन में कोई | | तो धर्मशास्त्र मैं कहता हूं उस शास्त्र को, जो आपके सारे वासना नहीं है। लेकिन धार्मिक आदमी महा असंतुष्ट होता है। | असंतोष को इकट्ठा करके परमात्मा की ओर लगा दे। जो आपकी परमात्मा को पाने को, मुक्ति पाने को, सत्य पाने को, उसके प्राण सारी वासनाओं को खींच ले और एक ही वासना में निमज्जित कर एक लपट बन जाते हैं असंतोष के। | दे। जो आपकी सारी इच्छाओं को इकट्ठा कर ले, एकाग्र कर ले हां, धन पाने में उसका असंतोष नहीं होता। यश पाने में उसका और एक ही आयाम में प्रवाहित कर दे। जो आपके प्राणों की सारी असंतोष नहीं होता। उसके पास जो भी है, वह संतुष्ट मालूम पड़ता | बिखरी हुई किरणों को इकट्ठा कर ले और एक लपट बन जाए और है। लेकिन इसका कारण बहुत गहरा है। इसका कारण यह है कि | वह लपट प्रभु की यात्रा पर, परम सत्य की यात्रा पर निकल जाए। उसका सारा असंतोष परमात्मा पर लग जाता है। इन छोटी-मोटी यह जो असंतोष है, वही अर्जुन को भी अनुभव हो रहा है। चीजों पर असंतोष देने को उसके पास बचता नहीं। लेकिन हमें वह | लेकिन शायद उसे साफ नहीं है। शायद उसने जब यह वचन कहा संतुष्ट मालूम पड़ता है। क्योंकि जिन चीजों से हम परेशान हैं, अगर | है, तो उसका भी प्रयोजन यही है कि आपके वचन बहुत मधुर हैं, हमारा एक पैसा खो जाए, तो हम असंतुष्ट होते हैं; उसका सब भी | | बहुत प्रीतिकर हैं, सुन-सुनकर भी मन भरता नहीं; आप इन्हें और खो जाए, तो भी असंतुष्ट नहीं मालूम पड़ता। तो हम कहते हैं, कहे जाएं। कितना संतोषी आदमी है! लेकिन हमें उसके भीतर की आग का कोई लेकिन अर्जुन को पता हो या न पता हो, ये कृष्ण के वचन भी पता नहीं है। यह संतोष उस भीतरी असंतोष का ही परिणाम है। जन्मों-जन्मों तक भी वह सनता रहे. तो भी इनको सनकर ही संतोष यहां एक फर्क खयाल में ले लेना चाहिए। | नहीं मिलेगा। इनके अनुकूल रूपांतरित होना पड़ेगा, इनके अनुकूल कुछ लोग अपने को समझा-बुझाकर संतुष्ट रहते हैं। उनका अर्जुन को बदलना पड़ेगा। और अगर इनके अनुकूल अर्जुन बदल 97 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 58 जाए, तो अर्जुन स्वयं कृष्ण हो जाएगा। कृष्ण हो जाए, तो ही संतुष्ट | गई हो डिटेल्स में, वह उसको भी पता कर ले। कुछ बातें चूक गई हो सकेगा। उसके पहले कोई संतोष नहीं है। उसके पहले अतृप्ति हों, उनसे भी परिचित हो जाए। किन्हीं सिद्धांतों में कुछ बातें बेबूझ बढ़ती चली जाएगी। | रह गई हों, धुंधली हों, उन्हें भी साफ कर ले। इसलिए वह कहता है कि हे जनार्दन, अपनी योगशक्ति को, | | बुद्ध ने उससे कहा कि मैं तुझे कुछ और विस्तार से नहीं कहूंगा। अपने ऐश्वर्य को, अपनी विभूतियों को फिर से विस्तारपूर्वक कहिए। | तू जितना विस्तार जानता है, उसे भी छीन लेना चाहता हूं। तू खाली अभी-अभी कृष्ण ने बातें कही हैं, अभी-अभी-ऐश्वर्य की, | हो जाए, तो शायद कभी तेरे जीवन में ज्ञान की घटना घट सके। योग की, विभूति की, परमात्मा की परम शक्ति की, उसके परम विस्तार का मतलब ही होता है तथ्यात्मक। एक चीज के संबंध विस्तार की। लेकिन अर्जुन कहता है, और विस्तार से कहिए। में हम और जान लें। चारों तरफ घूमकर और पता लगा लें। विस्तार आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती। और एक | का मूल्य नहीं है; विस्तार से परिचय होता है, एक्सटेंशन, फैलाव। बात ध्यान देने की है कि अर्जुन कहता है, विस्तारपूर्वक कहिए। ज्ञान विस्तार से नहीं होता. गहराई से होता है। हम सबको यह खयाल होता है कि अगर कोई बात हमारी समझ | ज्ञान होता है इनटेंसिव, एक्सटेंसिव नहीं। ज्ञान में किसी एक ही में न आती हो, तो विस्तारपूर्वक समझाने से शायद समझ में आ | बिंदु में गहरा उतरना पड़ता है; और विस्तार में एक बिंदु के जाए। यह भ्रांति है। दो तरह की बातें हैं इस जगत में। कुछ बातें हैं, | | आस-पास अनेक बिंदुओं पर यात्रा करनी पड़ती है। अगर मुझे एक जो आपको विस्तारपूर्वक कही जाएं तो आपकी समझ में आ फूल के संबंध में ज्यादा जानना है, तो फूल के संबंध में जितनी जाएंगी। और कुछ बातें हैं, जो विस्तारपूर्वक कही जाएं तो आपको किताबें लिखी गई हों, उनको जानूं। और अगर मुझे फूल को जानना पहले जितनी समझ में आती थीं, उतनी समझ भी खो जाएगी! | है, तो फूल में ही डूब जाऊं, उतर जाऊं, लीन हो जाऊं; विस्तार जैसा मैंने कल आपको कहा कि दो प्रकार के ज्ञान हैं, परिचय | को छोड़ दूं। और ज्ञान। जो बातें परिचय की हैं, उनको विस्तार से कहने पर वे | परिचय विस्तार लेता है, ज्ञान गहराई लेता है। परिचय ऐसा है, समझ में आ जाएंगी। क्योंकि परिचय का ही सवाल है, थोड़ा और | जैसे कोई आदमी नदी के ऊपर तैरता हो, दूर तक तैरता हो। और विस्तार से बताएंगे, तो खयाल में आ जाएगा। लेकिन जिसे मैंने | | ज्ञान ऐसा है, जैसे कोई आदमी नदी में डुबकी लगाता हो। तो डुबकी ज्ञान कहा, जानना कहा, वह जानना आपको विस्तार से कितना ही | | लगाने वाले को एक ही जगह डूब जाना पड़ता है। और लंबा कहा जाए, समझ में नहीं आएगा। बल्कि जितना विस्तार से आप | | फैलाव करने वाले को पानी की सतह पर दूर-दूर तक हाथ मारने सुनेंगे, उतना ही पता चलेगा, कम समझ में आ रहा है। पड़ते हैं। मौलुंकपुत्त, एक बहुत बुद्धिमान और पंडित आदमी, बुद्ध के | | जो लोग ज्ञान को विस्तार समझते हैं, वे ज्ञान से चूक जाएंगे। पास गया। ज्ञानी था और ज्ञान के दंभ से भी भरा था। जानता था | | जो लोग ज्ञान को गहराई समझते हैं, इनटेंसिटी समझते हैं, वे लोग शास्त्रों को और यह भी जानता था कि मैं जानकार हूं। बुद्ध के पास | ज्ञान को उपलब्ध हो पाते हैं। एक छोटे-से बिंदु में पूरी तरह डूब वह आया और उसने बुद्ध से कहा कि मुझे कुछ ज्ञान की बातें दें। | जाने से ज्ञान उपलब्ध होता है। और बड़ी दूर तक भटकने से विस्तार मैं भिक्षा का पात्र लेकर आया हूं; मुझे कुछ ज्ञान दें। उपलब्ध होता है। आप बहुत-सी बातें जान सकते हैं और फिर भी बुद्ध ने कहा, तेरा भिक्षा का पात्र पहले से ही बहुत भरा हुआ है | | जानने से वंचित रह जाएं। और ज्ञान तेरे पास जरूरत से ज्यादा है। सच तो यह है कि ज्ञान के सुकरात ने मरने के पहले कहा है कि जब मैं बच्चा था, तो मैं कारण तुझे अपच हो गया है। अगर मैं तेरा कल्याण करना चाहता | समझता था कि मैं सब कुछ जानता हूं। जब मैं जवान हुआ, तो मैंने हूं, तो पहले तो मुझे तेरा ज्ञान तुझसे छीनना पड़ेगा। और अगर मैं | समझा कि बहुत कुछ है, जो मैं नहीं जानता हूं। और अब जब मैं तुझे पुनः अज्ञानी बनाने में समर्थ हो जाऊं, तो शायद तेरे जीवन में | बूढ़ा हो गया हूं, तो मैं कह सकता हूं स्पष्ट घोषणा के साथ कि मैं कोई घटना घट सके, जहां ज्ञान का दीया जले। कुछ भी नहीं जानता हूं। बच्चा था, तब सोचता था, सब जानता हूं। मौलुंकपुत्त को बहुत अजीब मालूम पड़ा। वह गुरुओं के पास | | सभी बच्चे ऐसा सोचते हैं। सभी बच्चे ऐसा सोचते हैं कि सब जाता था इसलिए कि और विस्तार से जान ले; और जो कमी रह जानते हैं। और जो बूढ़े भी ऐसा सोचते हैं कि सब जानते हैं, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-500 रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् । बहुत-बहुत मार्गों से उसकी तरफ इशारा किया है। किसी भी द्वार वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ।। २३ ।। | से आप पहंच जाएं. और किसी भी झरोखे से आपकी आंख उसकी पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् । तरफ खुल जाए, और कोई भी स्वर आपके हृदय की वीणा को छू सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ।। २४ ।। | ले। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप किस दिशा से उसे समझते हैं, ___महर्षीणां भूगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् । यही महत्वपूर्ण है कि आप समझ लें। यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ।। २५ ।। शायद कृष्ण ने जो कहा, उन्होंने जो प्रतीक चुने, अर्जुन का हृदय और मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूं और यक्ष तथा राक्षसों में | उन्हें नहीं पकड़ पाया होगा। वे और दूसरे प्रतीक चुनते हैं। धन का स्वामी कुबेर हूं, और मैं आठ वसु देवताओं में अग्नि || उन्होंने अर्जुन से कहा, और हे अर्जुन, मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूं तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं। हूं और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूं। आठ वसु और पुरोहितों में मुख्य अर्थात देवताओं का पुरोहित बृहस्पति | देवताओं में अग्नि और पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं। मेरे को जान तथा हे पार्थ, मैं सेनापतियों में स्वामी कार्तिक कल उन्होंने कहा था कि मैं विष्णु हूं अदिति के पुत्रों में। विष्णु ___और जलाशयों में समुद्र हूं। जीवन के प्रतीक हैं। जीवन को सम्हालने के; धारण करने के, और हे अर्जुन, मैं महर्षियों में भृगु और वचनों में एक अक्षर जीवन की नित जो धारा है, प्रतिपल उसे प्राण देने के, विष्णु स्रोत अर्थात ओंकार हूं तथा सब प्रकार के यज्ञों में जप-यज्ञ और | हैं। आज कृष्ण कहते हैं, मैं रुद्रों में शंकर हूं। शंकर मृत्यु के, प्रलय स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूं। | के, विनाश के प्रतीक हैं। यहां कुछ बातें समझ लेनी ज़रूरी होंगी। और भारतीय प्रतिभा में कैसे अनूठे अंकुर कभी-कभी खिले हैं, वे भी खयाल में आ सकेंगे। 27 नंत के अनंत हो सकते हैं प्रतीक। जो सब जगह है, | सारी पृथ्वी पर मृत्यु को जीवन का अंत समझा गया है, मृत्यु को 1 उसकी ओर सब दिशाओं से इशारा हो सकता है। जो | जीवन का शत्रु समझा गया है, मृत्यु को जीवन का विरोध समझा अदृश्य है, अज्ञात है, तो जो भी हमें दृश्य है और जो | | गया है। भारत ने ऐसा नहीं समझा। मृत्यु जीवन की परिपूर्णता भी भी हमें ज्ञात है, उस सबसे उसकी तरफ छलांग लगाई जा सकती है। । | है, अंत ही मात्र नहीं। और मृत्यु जीवन की शत्रु दिखाई पड़ती है, कृष्ण ने कल एक प्रयास किया, एक दिशा से उस अनंत की क्योंकि हमें जीवन का कोई पता नहीं है। अन्यथा मृत्यु मित्र भी है। ओर मार्ग को तोड़ने का। आज वे दूसरा प्रयास करते हैं। बहुत बार और मृत्यु कोई जीवन के बाहर से घटित होती हो, कोई विजातीय, ऐसा होता है, एक तीर चूक जाए, तो दूसरा लग सकता है। दूसरा कोई फारेन, कोई बाहर से हमला होता हो मृत्यु का, आक्रमण होता चूक जाए, तो तीसरा लग सकता है। तीर का लगना निशान पर इस हो, ऐसी भी भारत की मान्यता नहीं। मृत्यु भी जीवन का अंतरंग बात पर निर्भर करता है कि जिससे कही जा रही है बात, उसके हृदय भाग है। और जीवन का ही विकास है, उसकी ही ग्रोथ है। शंकर और उस बात में कोई ताल-मेल पड़ जाए। विष्णु के विपरीत नहीं हैं, और विनाश सृजन का विरोध नहीं है। जटिलता बहुत प्रकार की है। जो बात आपसे मैं कहूं, हो सकता विनाश और सृजन एक ही घटना के दो पहलू हैं। है, इस क्षण आपके हृदय से मेल न खाए, कल मेल खा जाए। जो एक बच्चे का जन्म होता है, तो हम सोच भी नहीं सकते कि उस बात मैं आपको कहूं, आज आपकी समझ में ही न पड़े, और हो जन्म के साथ मृत्यु का भी प्रारंभ हो गया है। लेकिन प्रारंभ हो गया सकता था, क्षणभर पहले कही जाती और मेल खा जाती। | है। हम न सोच पाते हों, वह हमारे सोचने की कमी और असमर्थता आपका मन एक तरलता है। वह प्रतिपल प्रवाह में है। जैसे नदी | है। लेकिन जन्म का दिन मृत्यु का दिन भी है। जिस दिन बच्चा पैदा बही जा रही हो, ऐसा ही आपका मन बहा जाता है। किस क्षण में, | हुआ, उसी दिन से मरना भी शुरू हो गया। यह एक वचन मैंने किस पके हुए क्षण में, कौन-सी बात आपके हृदय को चोट करेगी | | बोला, इस एक वचन के बोलने में भी आप थोड़ा मर गए हैं। और गहरी उतर जाएगी, इसका पूर्व निश्चय असंभव है। | आपके जीवन की धारा थोड़ी क्षीण हुई, कुछ समय चुक गया, आप इसलिए जिन्होंने भी उस परम सत्य की शिक्षा दी है, उन्होंने मृत्यु के और करीब पहुंच गए। बच्चा जब पहली सांस लेता है, 128 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ शास्त्र इशारे हैं 8 समझना कि उनकी बौद्धिक उम्र ज्यादा नहीं है, बच्चों के बराबर है। सुकरात से जब यह बात सुनी, तो खुशी तो एक तरफ समाप्त जवान को शक होने लगता है। बच्चा बिलकुल दृढ़ होता है; वह | | हो गई, दर्द ऊपर आ गया; और वे बड़े खुश हुए। बड़े खुश हुए जो भी जानता है, पक्का जानता है। उसे शक ही नहीं होता अपने | कि हम खुद ही जानते थे पहले से ही कि देवी से कुछ भूल हो गई पर। उसे अपने अज्ञान का पता ही नहीं होता। है। सुकरात और परम ज्ञानी! जरूर कोई गलती हो गई है। अपने . बच्चे अज्ञानी होते हैं, लेकिन अज्ञान का उन्हें पता नहीं होता। ही गांव का आदमी, भलीभांति हम जानते हैं, यह क्या जानता है! उनका अज्ञान ही उनके लिए ज्ञान होता है। इसलिए बच्चे इतने कम | वापस देवी के पास वे गए और उन्होंने कहा कि क्षमा करें. तनाव से भरे हुए मालूम पड़ते हैं। कोई बेचैनी नहीं मालूम पड़ती। आपसे कुछ भूल हो गई। क्योंकि हम सुकरात से ही स्वयं पूछकर वे अपने अज्ञान में थिर हैं। अपने अज्ञान में बड़ी मौज में हैं। कोई आ रहे हैं। और सुकरात ने खुद ही कहा है कि मुझसे बड़ा अज्ञानी उन्हें परेशानी नहीं है कुछ जानने की; वे सभी कुछ जानते हैं। इस जमीन पर कोई भी नहीं है। इसलिए आप अपने वक्तव्य को जवान होते-होते आदमी को दिखाई पड़ना शुरू होता है कि मेरे बदल लें! जानने की सीमाएं हैं। और उसे यह भी दिखाई पड़ना शुरू होता है। | देवी ने कहा कि इसीलिए तो सुकरात को मैंने ज्ञानी कहा है, कि बचपन की जो धारणाएं थीं, उनके नीचे की जमीन हट गई। उसे | क्योंकि जिसको अपने परम अज्ञानी होने का ज्ञान हो जाता है, उससे यह भी पता चलना शुरू होता है कि जो निश्चित था, वह बड़ा ज्ञानी जगत में कोई भी नहीं होता है। यही है कारण सुकरात अनिश्चित हो गया। जिसे मैंने पक्का समझा था, वह भी पक्का नहीं को महाज्ञानी कहने का। है। जवान बेचैन होने लगता है। उसे कुछ बातें पता चलती हैं कि बच्चे अज्ञानी होते हैं; उन्हें पता नहीं है। परम ज्ञानी भी बच्चों जैसा मैं जानता हूं, और बहुत बातें पता चलती हैं कि मैं नहीं जानता हूं। | अज्ञानी हो जाता है, लेकिन उसे पता होता है। वही निर्दोषता फिर बूढ़ा आदमी अगेर ठीक से विकसित हो, तो उसे पता चलता है | उसके जीवन में आ जाती है, जैसे उसे कुछ पता नहीं, वही इनोसेंस। कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। लेकिन हम सबकी भूल यही है खयाल में कि थोड़ा और ज्यादा सुकरात के संबंध में यूनान की एक देवी ने घोषणा कर दी थी जान लेंगे, तो शायद ज्ञान हो जाए। जिंदगीभर हम इसी तरह संग्रह कि सुकरात परम ज्ञानी है; उससे बड़ा ज्ञानी पृथ्वी पर दूसरा नहीं करते हैं। ज्ञान को हम संग्रह समझते हैं। इसलिए बूढ़ा आदमी रात के गांव के लोगों ने यह खबर सुनी, वे सुकरात के पास सोचता है कि मैं ज्यादा जानता हूं, क्योंकि उसके पास निश्चित ही गए और उन्होंने कहा कि धन्य हैं भाग्य हमारे कि हमारे गांव में ज्यादा संग्रह होता है। तुम्हारा जन्म हुआ, क्योंकि देवी ने घोषणा की है कि तुम पृथ्वी पर पिछले महायुद्ध में अमेरिका में लोगों को मिलिटरी में भर्ती करते इस समय परम ज्ञानी हो। वक्त लाखों लोगों की मानसिक उम्र जांची गई, तो अमेरिका के सुकरात ने कहा कि देवी को जाकर कहना कि उसने थोड़ी देर मनोवैज्ञानिक चकित रह गए। शक तो बहुत बार होता है कि लोगों कर दी। जब मैं मूढ़ था और नासमझ था, तो मैं भी ऐसा ही सोचता की मानसिक उम्र कम होनी चाहिए, लेकिन इतनी कम होगी, यह था। अगर उसने तब घोषणा की होती, तो मुझे बड़ा आनंद आता। कभी नहीं सोचा था। लाखों लोगों की मानसिक उम्र जांचने से पता लेकिन अब तो मैं जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। अब चला कि आमतौर से आदमी की औसत मानसिक उम्र, मेंटल एज एक ही ज्ञान मेरे पास बचा है कि मैं बिलकुल अज्ञानी हूं। मेरे पास तेरह साल से ज्यादा नहीं होती। कुछ भी नहीं है। तो जाकर देवी से कहना कि थोड़ी देर कर दी। यह शरीर की उम्र तो बढ़ती चली जाती है। सत्तर साल का आदमी हो सुनकर मुझे कुछ आनंद नहीं आता। जाता है, लेकिन मानसिक उम्र तेरह साल पर औसत रूप से रुक गांव के लोग परेशान हुए। एक तरफ तो उन्हें खुशी भी हुई थी | जाती है। जितनी तेरह साल के बच्चे के पास बुद्धिमत्ता होती है, उतनी कि एथेंस का नागरिक, उनके गांव का सुकरात, परम ज्ञानी घोषित ही सत्तर साल के आदमी के पास होती है। संग्रह अलग होता है, हुआ। लेकिन भीतर पीड़ा भी हुई थी कि हम अज्ञानी ही रह गए और | लेकिन बुद्धि ज्यादा नहीं होती। संग्रह ज्यादा होता है, क्योंकि सत्तर हमारे ही गांव का यह सुकरात, यह परम ज्ञानी हो गया! एक तरफ | | साल का अनुभव है। लेकिन जो बुद्धि संग्रह करती है, वह उतनी ही ऊपर से खुशी भी हुई थी, भीतर दर्द भी हुआ था। होती है, जितनी तेरह साल की। जिस बुद्धि में यह संग्रह बढ़ता चला 99 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-50 जाता है, उस बुद्धि की क्षमता तेरह साल की ही होती है। | नीचे। लेकिन तैरने में बहुत कुशल हो जाए, तो शायद डुबकी - बड़ी दुखद बात है। लेकिन सत्तर साल का आदमी यह मानने लगाने का उसे खयाल ही न आए। को राजी नहीं होगा। वह कहेगा कि मैं जानता हूं। क्योंकि उसके कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि जो तैरना नहीं जानता, पास विस्तार ज्यादा है। वह ज्यादा तथ्य गिना सकता है, ज्यादा | | उसकी मजबूरी में भी डुबकी लग जाती है। लेकिन तैरने वाले की अनुभव गिना सकता है। उसके पास स्मृति बड़ी है; सत्तर साल | डुबकी तो लगना मुश्किल है, जब तक कि वह स्वयं न लगाए। उसकी स्मृति में टंक गए। कभी-कभी भूल से भी न तैरने वाले की डुबकी लग जाती है। लेकिन विस्तार से कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता। वरन ___ इसलिए एक और दूसरी मजे की घटना आपसे कहता हूं कि विस्तार से यह भी हो सकता है कि ज्ञान की संभावना क्षीण हो जाए। | इतिहास में पंडितों को परमज्ञान हुआ हो, इसके उल्लेख न के बराबर इसलिए यह जानकर आप हैरान होंगे कि इस जगत में आज तक | हैं। कभी-कभी अज्ञानी भी परमज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं, लेकिन जितनी भी महाज्ञान की घटनाएं घटी हैं, उनमें किसी बूढ़े को घटी | | पंडित नहीं हो पाते! कबीर हैं, बेपढ़े-लिखे हैं। मोहम्मद हैं, हो, इसकी अब तक इतिहास में कोई खबर नहीं है। | बेपढ़े-लिखे हैं। जीसस हैं, बेपढ़े-लिखे हैं। नानक हैं, बेपढ़े-लिखे यह बहुत हैरानी की बात है। बुद्ध हों, कि महावीर हों, कि | | हैं। ये बेपढ़े-लिखे लोग भी कभी डुबकी लगा जाते हैं। जीसस हों, कि शंकराचार्य हों, कि नागार्जुन, कि वसुबंधु, कि कबीर ने डुबकी लगा ली और काशी के पंडित, जो बहुत जानते लाओत्से, कोई भी गहरे बुढ़ापे में परमज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ | | थे, और वहीं कबीर के आस-पास थे, और कबीर को एक गंवार है। ये सारी घटनाएं पैंतीस साल के करीब घटती हैं, पैंतीस साल | जुलाहा समझते थे, वे डुबकी नहीं लगा पाए। वे डुबकी नहीं लगा के पहले आमतौर से या पैंतीस साल के करीब। पैंतीस साल के | पाए। वे इतना जानते थे कि शायद यह भूल ही गए कि अभी बाद आदमी बूढ़ा होना शुरू हो जाता है। पीक, पैंतीस साल है। | असली गहराई तो जानी ही नहीं है, यह सब विस्तार है-शब्दों अगर सत्तर साल उम्र है; तो पैंतीस साल पर आदमी शिखर पर होता | का, शास्त्रों का, सिद्धांतों का। अर्जुन के मन में भी वही खयाल है है, फिर उतार शुरू हो जाता है। कि शायद तृप्ति मिल जाए, अगर और थोड़ा ज्यादा जान लूं। अब तक, उतरती जिंदगी में बहुत कम लोग ज्ञान को उपलब्ध | ___ ध्यान रहे, जब आप कोई चीज ज्यादा जानते हैं, तो आप तो वही हुए हैं। यह हैरानी की बात है। होना उलटा चाहिए। अगर विस्तार | | रहते हैं, आपका संग्रह भर बढ़ जाता है। और जब कोई चीज आप से ज्ञान बढ़ता हो, तो बुद्ध को, महावीर को, शंकर को, विवेकानंद | | गहरी जानते हैं, तो संग्रह नहीं बढ़ता, आप बदल जाते हैं। गहरा को, इन सबको ज्ञान होना चाहिए कोई पचास-साठ साल के बाद।। | जानने के लिए स्वयं गहरा होना पड़ता है। ज्यादा जानने के लिए लेकिन अब तक ऐसा हुआ नहीं। अब तक जो भी महाज्ञान की | | किसी को गहरा होने की जरूरत नहीं। घटनाएं घटी हैं, वे मध्य या मध्य के पहले घटी हैं। जैसे धन तिजोड़ी में बढ़ता चला जाता है, एक के दस हजार इसका अर्थ है। कभी-कभी विस्तार बहुत बढ़ जाए, तो इतना | | रुपए हो जाते हैं, दस हजार के दस लाख हो जाते हैं। लेकिन इससे छा जाता है धुएं की तरह मन पर कि फिर गहराई में उतरना मुश्किल | आप यह मत समझना कि जिसकी तिजोड़ी में धन बढ़ रहा है, वह हो जाता है। आदमी इतना जान लेता है कि जानने में कहीं भी एक | | आदमी धनी हो रहा है। अक्सर तो ऐसा होता है कि जितना ज्यादा तरफ एकाग्र होने की उसे सुविधा नहीं रह जाती। उसका मन | | धन, उतना गरीब आदमी वहां मिलेगा। जितना ज्यादा धन हो जाता इतने-इतने, इतने-इतने तथ्यों में बंट जाता है और इतनी-इतनी | | है, उतना भीतर आदमी गरीब हो जाता है। और अक्सर धनी आदमी जगह भटकने लगता है कि उसे एक जगह रुककर प्रवेश करना | | एक ही काम करते हैं, अपने धन पर पहरा देने का। काम मुश्किल हो जाता है। विस्तार बाधा भी बन सकता है। | करते-करते समाप्त हो जाते हैं। उनकी जिंदगी एक पहरेदार से दो बातें, विस्तार ज्ञान नहीं है, परिचय है, और परिचय ऊपरी ज्यादा नहीं रह जाती। बात है। और दूसरी बात, बहुत विस्तार हो, तो बाधा भी बन सकती। | धनी आदमी कंजूस हो जाता है, क्योंकि गरीब हो जाता है। और है। तैरने में कोई आदमी बहुत कुशल हो जाए, तो पैसिफिक | | कभी-कभी गरीब भी इतना कंजूस नहीं होता। और जो कंजूस नहीं महासागर के ऊपर भी तैर सकता है, जहां पांच मील गहराई है | । है, वह अमीर है। और जो कंजूस है, वह गरीब है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 शास्त्र इशारे हैं - ज्ञान के संबंध में भी यही घटना घटती है। कुछ लोग ज्ञान की | | ले जा सकते थे वे, लेकिन पुनरुक्ति, बार-बार पढ़ने से ऊब पैदा तिजोड़ी भरते चले जाते हैं और भीतर अज्ञानी रह जाते हैं। कितना | | हो गई। श्रेष्ठतम कविता भी पुनरुक्त करने से ऊब पैदा कर देगी। आप जानते हैं, इससे आपके ज्ञान का कोई भी संबंध नहीं है। __ लेकिन धर्म-ग्रंथ का हम पाठ करते हैं। पाठ का मतलब है, रोज कितने आप बदले हैं, कितने आप रूपांतरित हुए हैं, कितने आप । हम पुनरुक्त करते हैं। अगर आप थोड़े भी होशपूर्वक यह पाठ कर डूबे हैं, कितने आप गहरे गए हैं, इससे आपके ज्ञान का संबंध है। रहे हों, तो धर्म-ग्रंथ रोज-रोज आपकी प्यास को जगाएगा। इसको और ऐसा भी हो सकता है कि आप कहें कि मैं कुछ भी नहीं | । मैं कसौटी कहता हूं। जानता हूं और तो भी आप परमज्ञान को उपलब्ध हो जाएं। क्योंकि | | अगर आप रोज गीता पढ़ते हैं, और गीता पढ़-पढ़कर आपको मैं कुछ भी नहीं जानता हूं, ऐसा जिसको खयाल में आ जाए, उसका | ऊब आने लगती है, जम्हाई आती है और आंख झपने लगती हैं, अहंकार तत्क्षण बिखर जाता है। मैं जानता हूं, यह भी अहंकार के | तो आप समझना कि गीता आपके लिए धर्मशास्त्र नहीं है। अगर लिए ईंटें बन जाती हैं। मेरे पास धन है, तो भी अहंकार मजबूत होता गीता को रोज-रोज पढ़कर भी आपको नई प्रेरणा मिलती है, और है। मेरे पास ज्ञान है, तो भी अहंकार मजबूत होता है। मेरे पास कुछ | नई प्यास जगती है, और नई खोज शुरू होती है, और ऐसा लगता भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं है, अहंकार विलीन हो जाता है। और जहां | | है कि तृप्ति नहीं हुई, तो ही आप समझना कि गीता आपके लिए होता है अहंकार विलीन, वहीं डुबकी लग जाती है। जाती है। धर्म-ग्रंथ है। अहंकार हमारा तैरना है। और जब अहंकार छूट जाता है, | । गीता को सिर लगाने से पता नहीं चलता कि वह धर्म-ग्रंथ है। हाथ-पैर बंद हो जाते हैं, हम डुबकी लगा लेते हैं। गीता को नमस्कार करने से भी पता नहीं चलता कि धर्म-ग्रंथ है। अर्जुन पूछता है, मुझे विस्तार से कहिए। सोचता है, शायद अभी | गीता आपको उबाए न, ऊब पैदा न करे; और गीता में आपका रस, मेरी समझ में नहीं आया। कृष्ण और विस्तार से कहें, तो मेरी समझ | | जितना आप गीता को पढ़ें, उतना बढ़ता चला जाए, और उतनी ही में आ जाए। और कृष्ण विस्तार से कहेंगे। इसलिए नहीं कि वे | | अतृप्ति मालूम पड़े, तो ही आप समझना कि गीता आपके लिए सोचते हैं कि अर्जुन की समझ में आ जाएगा। बल्कि इसलिए कि | | धर्म-ग्रंथ हुआ। इसलिए नियम था कि धर्म-ग्रंथ को पढ़ा न जाए, अर्जुन देख ले कि विस्तार से कहने पर भी समझ में नहीं आता है। पाठ किया जाए। समझ कोई बात ही और है। पढ़ने और पाठ करने में फर्क है। पढ़ने का मतलब, एक दफा समझ के लिए, दूसरे ने कितना बताया, यह मूल्यवान नहीं। पढ़ लिया, बात समाप्त हो गई। पाठ का मतलब है, रोज-रोज समझ के लिए, मैं कितना स्वयं को बदला, नया बना, यह | किया जाए। और अगर आप वर्षों तक भी गीता का पाठ करके यह महत्वपूर्ण है। कह सकें, अनुभव कर सकें कि मुझे ऊब नहीं आती, मेरा स्वाद __ उसने भी शायद यही सोचकर कहा है कि अगर और कृष्ण और बढ़ता ही चला जाता है, गीता मुझे रोज ही नई मालूम पड़ती बहुत-से वचन कहें, तो मेरी तृप्ति हो जाए। लेकिन कृष्ण कितना | | है, तो ही आप समझना कि गीता और आपके बीच जो संबंध है, ही कहें, तृप्ति नहीं होगी। क्योंकि कृष्ण जो वचन बोल रहे हैं, वे वह धर्म-ग्रंथ और आपके बीच संबंध है। और अगर आपको भी धर्म के परम वचन हैं। ऊब आने लगती हो, और गीता कंठस्थ हो जाती हो, और अगर एक कविता को आप रोज-रोज पढ़ें, तो आप जल्दी ही । | मेकेनिकली रोज आप यंत्रवत उसे दोहरा देते हों...। ऊब जाएंगे। फिर कभी उस कविता में आपको स्वाद न आएगा। ___ मैं देखता हूं गीता के पाठियों को, उनको फिर कौन-सा पन्ना और यही रोज विद्यालयों में, विश्वविद्यालयों में होता है। दुनिया | | सामने है, इसकी भी चिंता नहीं रहती। उनको कंठस्थ है। पन्ना कोई की श्रेष्ठतम कविताएं चूंकि कोर्स में रख दी जाती हैं, इसलिए | भी हो, वे दोहराए चले जाते हैं। किताब उलटी भी रखी हो, तो कोई रसहीन हो जाती हैं। शेक्सपीयर और कालिदास भी दश्मन मालम | फर्क नहीं पड़ता। पड़ने लगते हैं। और एक दफा जो यूनिवर्सिटी से शेक्सपीयर या मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह बैठकर कुरान पढ़ रहा है। कालिदास को या भवभूति को पढ़कर लौटा है, फिर दुबारा कभी उलटी रखे हुए है। गांव में तो कोई पढ़ा-लिखा आदमी नहीं है, उनको नहीं पड़ेगा। भारी नुकसान हो गया। बड़े सौंदर्य की यात्रा पर इसलिए किसी को पता नहीं है कि वह उलटा पढ़ता है कि सीधा [10] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-58 पढ़ता है! एक अजनबी गांव से गुजर रहा है। मुल्ला के पास | कि मेरा लड़का संन्यासी न हो पाए? दस-पांच उसके शिष्य भी बैठे हैं। वह अजनबी भी भीड़ देखकर __ यह बहुत मजे की बात है। बुद्ध के पिता भी दूसरे संन्यासियों के वहां आ गया। उसकी बेचैनी बढ़ने लगी, जब उसने देखा कि । पैर छूने जाते थे। खुद का बेटा संन्यासी न हो जाए, इसकी चिंता में किताब उलटी रखी है और मुल्ला पढ़े जा रहा है। आखिर उससे न | पड़े हैं! आपके पड़ोस में भी कोई संन्यासी आए, तो आप पैर छूने रहा गया। सब्र रखना मुश्किल हुआ। उसने खड़े होकर कहा कि जाएंगे। आपका बेटा संन्यासी होने लगे, आप लट्ठ लेकर दरवाजे और सब तो ठीक है। आप जो कह रहे हैं, वह भी ठीक है। लेकिन पर खड़े हो जाएंगे! किताब आप उलटी रखकर पढ़ रहे हैं! यह बहुत मजे की बात है। यह संन्यास के प्रति आदर झूठा है। ___ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि मैं कोई साधारण पढ़ने वाला नहीं | नहीं तो आपकी कामना यह हो कि आपका बेटा अगर कुछ भी हो हूं। किताब कैसी भी हो, उलटी हो कि सीधी हो; हो कि न हो। यह तो पहले संन्यासी हो। लेकिन वह नहीं है। यह संन्यास के प्रति किताब अपने लिए नहीं रखी है; ये लोग यहां बैठे हैं, इनके लिए आदर झूठा है, बिलकुल झूठा है। रखी है। कुरान कंठस्थ है। पढ़ने की झंझट वे उठाएं, जिन्हें कुरान बुद्ध के पिता बहुत चिंतित हुए, और उन्होंने लोगों से पूछा कि पता न हो, नसरुद्दीन ने कहा, कुरान मुझे पता है। पढ़ने की कोई | | मैं क्या करूं? कैसे रोकू इसको संन्यासी होने से? तो एक ज्योतिषी जरूरत नहीं है। | ने सलाह दी कि इसके जीवन में कभी भी दुख का अनुभव न हा यह जो पता होना है, यांत्रिक, मशीन की तरह, इससे कोई पाए। यह मरे हुए आदमी को न देखे। इसके सामने कोई बूढ़ा व्यक्ति किसी धर्म-ग्रंथ से अतृप्ति नहीं पा सकता; ऊब पाएगा, आदमी न लाया जाए। इसके सामने कोई ऐसी पीड़ा न घटे कि परेशान हो जाएगा। भय के कारण, लोभ के कारण रोज पढ़ता इसका मन जीवन से दुखी हो जाए, खिन्न हो जाए और यह विरक्त रहेगा। आशा में, आकांक्षा में, कि शायद कुछ मिले, पढ़ता रहेगा। हो जाए। ऐसा न हो। भय में, कि न पहूँ तो कोई नुकसान न हो जाए, पढ़ता रहेगा। तो बुद्ध के पिता ने सारा इंतजाम किया। ऐसे महल बनाए, जहां लेकिन कोई हार्दिक संबंध स्थापित नहीं होगा। धर्म-ग्रंथ का पाठ किसी बूढ़े के प्रवेश का निषेध था, जहां कोई बीमार अंदर नहीं जा करने पर ही पता चलता है कि अगर आप ऊबें न, तो ही आप धर्म | सकता था। फूल भी वृक्ष पर कुम्हलाने के पहले अलग कर दिए से संबंधित हो रहे हैं। आपकी प्यास रोज जगती चली जाए। जाएं, ताकि बुद्ध कुम्हलाया हुआ फूल न देख लें; कि कहीं अर्जुन कहता है कि विस्तार से मैं जान लूं, और आपके | कुम्हलाए हुए फूल को देखकर वे पूछने लगें कि अगर फूल कुम्हला अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती। सोचता है, | जाता है, तो मैं भी तो कुम्हला नहीं जाऊंगा? वृक्ष के पत्ते सूखें, और सुनूं, तो तृप्ति हो जाए! इसके पहले हटा दिए जाएं, क्योंकि बुद्ध कहीं पूछ न लें कि पत्ते लेकिन आपको पता है, हर तृप्ति के बाद ऊब, बोर्डम अनिवार्य सूख जाते हैं, कहीं जीवन भी तो नहीं सूख जाएगा? मृत्यु की उन्हें है। हर तृप्ति ऊब में बदल जाती है। ऐसी कोई तृप्ति आपने जानी | खबर न मिले और जीवन की पीड़ा का उन्हें कोई बोध न हो। है, जो ऊब न बन जाए? सारा इंतजाम मजबूत था। सुंदरतम स्त्रियां बुद्ध के आस-पास गरीब आदमी धन से कभी नहीं ऊबता। ऊब ही नहीं सकता, | राज्य की इकट्ठी कर दी गईं। सुंदरतम युवतियों को बुद्ध की सेवा में क्योंकि धन होना चाहिए ऊबने के लिए। अमीर आदमी अगर सच रख दिया गया। सब सुंदर था। सब ताजा था। जब जवान था। में अमीर हो जाए, तो धन से ऊब जाता है। क्योंकि जो मिल जाता और इसी कारण बुद्ध को संन्यासी होना पड़ा। इसी कारण! यह है, उससे ऊब पैदा होती है। ज्योतिषी की कृपा से, जिसने सलाह दी थी। क्योंकि बुद्ध इस बुरी बुद्ध का जन्म हुआ, तो ज्योतिषियों ने कहा कि यह लड़का या | तरह ऊब गए इस सबसे! इस बुरी तरह ऊब गए। सुंदरतम स्त्रियां तो चक्रवर्ती सम्राट होगा या संन्यासी हो जाएगा। पिता बहुत चिंतित उपलब्ध थीं, इसलिए स्त्रियों की कोई कामना मन में न रही। सब हुए। बुढ़ापे का बेटा था। बहुत बाद उम्र में पैदा हुआ था। एक ही | सुख उपलब्ध थे, इसलिए किसी सुख की कोई वासना मन में न बेटा था। और ज्योतिषियों ने यह क्या कहा कि संन्यासी हो जाएगा | रही। कोई तकलीफ न थी, इसलिए सब सुविधाएं उबाने वाली हो या चक्रवर्ती सम्राट होगा! तो पिता ने कहा कि मैं क्या इंतजाम करूं | गईं, घबड़ाने वाली हो गईं, रिपिटीटिव हो गईं, रोज पुनरुक्त होने 1021 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ शास्त्र इशारे हैं 8 लगीं। बुद्ध भागे। उनके भागने का बुनियादी कारण उस ज्योतिषी जहर जैसी हो ही जाएगी। की सलाह थी। __इस जगत में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे हम ऊब न जाएं। अगर सब मिल जाए, तो ऊब पैदा होती है। इसलिए आज | और अगर इस जगत में आपको कोई ऐसी चीज मिल जाए, जिससे अमेरिका में जितनी ऊब है, उतनी दुनिया की किसी कौम में नहीं आप न ऊबें, तो आप समझना कि आप धर्म के रास्ते पर आ गए। है। अगर अमेरिका के मनसविद से हम पूछे, तो वह कहता है कि अगर इस जगत में आपको किसी ऐसी चीज की झलक मिल जाए, अमेरिका की बीमारी इस समय बोर्डम है, ऊब है। और उसको जिससे ऊब पैदा न हो, तो आप समझना कि प्रभु बहुत निकट है, तोड़ने के लिए सब उपाय किए जा रहे हैं। लेकिन वह टूटती नहीं। आप कहीं पास ही हैं। हर आदमी ऊबा हुआ मालूम पड़ता है। मेरे जानने में, जब तक आपको ध्यान की कोई झलक न मिले, अगर आपकी किसी चीज से तृप्ति हो जाए, तो आप ऊब | आपको वैसी चीज नहीं मिलेगी इस जगत में, जिसके अनुभव से जाएंगे। इस जगत में ऐसी कोई भी चीज नहीं है, कोई भी चीज नहीं ऊब पैदा नहीं होती। है, जिसको पाकर आप ऊब न जाएंगे। हां, तभी तक रस रह सकता | बुद्ध को ज्ञान हुआ, उसके बाद चालीस साल तक वे शांत, है, जब तक वह मिले न। जब तक दूर रहे, जब तक पाने के लिए मौन, ध्यान में जीए। कोई एक आदमी ने बुद्ध से पूछा है कि हाथ फैला हो और हाथ में आ न गई हो कोई चीज, तभी तक आप | चालीस साल से आप ध्यान में ही रह रहे हैं, ऊब पैदा नहीं होती? रसपूर्ण हो सकते हैं। मिलते ही ऊब पैदा हो जाती है। इस जगत में बड रसेल जैसे बुद्धिमान आदमी ने सवाल उठाया है! बट्रेंड सभी चीजें ऐसी हैं कि रोज-रोज उनका स्वाद लिया जाए, तो | | रसेल ने अपने संस्मरणों में कहीं लिखा है कि मुझे हिंदुओं के मोक्ष घबड़ाहट हो जाती है। से बड़ा डर लगता है, क्योंकि वहां से वापसी नहीं हो सकती। सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन को उसके देश के सम्राट ने उसकी | लौटने का कोई उपाय नहीं है मोक्ष से। तो बड रसेल कहता है कि बातें, उसके व्यंग्य का मजा लेने के लिए अपने पास रख लिया था। अगर यह भी मान लिया जाए कि जैसा हिंद कहते हैं कि वहां परम पहले ही दिन सम्राट भोजन के लिए बैठा. तो नसरुद्दीन को भी साथ शांति है, और परम आनंद है: कोई दख नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई बिठाया था। कोई सब्जी सम्राट को बहुत पसंद आई। तो नसरुद्दीन तनाव नहीं। लेकिन बड रसेल ने कहा है कि यह कब तक बर्दाश्त ने कहा, आएगी ही पसंद, यह सब्जी नहीं, अमृत है। और उसने होगा, कितने समय तक? कोई अशांति नहीं, सुख ही सुख, शांति उसके गुणों की ऐसी महिमा बखान की कि सम्राट ने अपने रसोइए | ही शांति। लेकिन अनंत काल में तो यह भी घबड़ा देगा। फिर लौट को कहा कि रोज यह सब्जी तो बनाना ही। भी नहीं सकते, यह भी एक तकलीफ है। दूसरे दिन भी वह सब्जी बनी, लेकिन वैसा रस न आया। तीसरे बड रसेल ने कहा है, इससे तो संसार ही बेहतर। इसमें कुछ दिन भी बनी। चौथे दिन भी बनी। और नसरुद्दीन था कि वह रोज | बदलाहट, कोई चेंज का उपाय है। इससे तो नरक भी बेहतर, वहां उसकी प्रशंसा करता चला गया कि यह अमृत है। इसका कोई से कम से कम वापस तो आ सकते हैं। लेकिन यह मोक्ष? यह तो मुकाबला नहीं। यह बेजोड़ है जगत में। इसके स्वाद का संबंध स्वर्ग | परम कारागृह हो जाएगा। और माना कि आनंद रहेगा, लेकिन से है, पृथ्वी से नहीं। आनंद भी कितनी देर तक रहेगा? आनंद ही आनंद, आनंद ही सातवें दिन सम्राट ने थाली उठाकर फेंक दी और कहा कि आनंद, आनंद ही आनंद! आखिर ऊब पैदा हो जाएगी और प्राण नसरुद्दीन, बंद करो यह बकवास! यह सब्जी मेरी जान ले लेगी। छटपटाने लगेंगे। नसरुद्दीन ने कहा कि मालिक, यह जहर है। और इसका संबंध नर्क बर्दैड रसेल को आनंद का कोई पता नहीं है, इसलिए उसे यह से है! उस सम्राट ने कहा, नसरुद्दीन, तुम आदमी कैसे हो? कल सवाल उठा है। उसे पता नहीं है आनंद का, इसलिए उसे सवाल तक तुम इसे स्वर्ग बताते रहे, आज यह नर्क हो गई! नसरुद्दीन ने | | उठा है। उसका सवाल बिलकुल संगत है, क्योंकि उसे कोई कहा कि हुजूर, मैं नौकर आपका हूं, इस सब्जी का नहीं। तनख्वाह | | अनुभव ही नहीं है कि आनंद हम कहते ही उस स्थिति को हैं, आपसे पाता हूं, इस सब्जी से नहीं। | जिससे कोई ऊब पैदा नहीं होती। सुख हम कहते हैं उस स्थिति को, लेकिन सात दिन में, जो बहुत अमृत जैसी मालूम पड़ी थी, वह जिससे ऊब पैदा हो जाती है। दुख हम कहते हैं उस स्थिति को, कि | 103| Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 आया नहीं कि हम घबड़ाते हैं । सुख कहते हैं उस स्थिति को, जो आ जाए, हम उसे बुलाते हैं, निमंत्रण देते हैं, और फिर बुलाकर फंस जाते हैं और घबड़ाते हैं। और आनंद हम कहते हैं उस स्थिति को, जहां न सुख होता है और न दुख, और ऊबने का कोई उपाय नहीं होता । सुख पुराना पड़ जाता है, इसलिए ऊब जाते हैं! आनंद कभी पुराना नहीं पड़ता; रोज ताजा ही बना रहता है। इसलिए उससे बने का कोई उपाय नहीं है। अगर आपको जीवन में कहीं से कोई रंध्र मिल जाए, जहां से ऊब पैदा न होती हो, तो आप समझना कि आप ठीक रास्ते पर हैं, उसी पर बढ़े चले जाएं। और जिस चीज से भी ऊब पैदा होती हो, आप समझ लेना कि वह संसार का हिस्सा है, चाहे वह कुछ भी हो। अर्जुन सोचता है कि इन अमृतमय वचनों को और और सुनूं, तो शायद तृप्ति हो जाए। यह तृप्ति होने वाली नहीं है। क्योंकि ये वचन उस आनंद की तरफ इशारा हैं, जिसको सुनकर नहीं समझा जा सकता, पाकर और जीकर ही समझा जा सकता है। लेकिन कृष्ण ने कहा- अर्जुन के इस प्रकार पूछने पर कृष्ण ने कहा, हे कुरुश्रेष्ठ, अब मैं तेरे लिए अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानता से कहूंगा। मेरी विभूतियां हैं अनंत। उनमें जो प्रधान हैं, उनको मैं तुझसे कहूंगा। क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है। अगर तू सोचता हो कि मैं पूरे विस्तार की बात करूं, तो यह चर्चा चलती ही रहेगी, यह कभी समाप्त नहीं हो सकती। अभी पश्चिम में भूगोलविद, ज्यॉग्राफी के विद्वानों में एक प्रश्न चलता था। और वह प्रश्न यह था कि अगर हम हिंदुस्तान का नक्शा बनाएं, तो उसे हिंदुस्तान का नक्शा कहना चाहिए कि नहीं? क्योंकि वह हिंदुस्तान जैसा तो होता ही नहीं! नक्शा हिंदुस्तान जैसा कहां होता है? अगर बंबई का नक्शा बनाएं, तो बंबई जैसा कहां होता है? इसको बंबई का नक्शा क्यों कहना चाहिए? अगर बंबई का नक्शा कहते हैं, तो उसे बंबई जैसा होना चाहिए। लेकिन तब बंबई के बराबर बड़ा, इतना ही बड़ा नक्शा बनाना पड़े। और अगर इतना ही बड़ा नक्शा बनाना है, तो उसका प्रयोजन ही खो गया। नक्शा तो जेब में आना चाहिए, तभी उसका प्रयोजन इतने बड़े नक्शे को लेकर घूमेगा कौन? अगर इतने बड़े नक्शे लेकर घूम सकते हैं, तो बंबई को ही लेकर घूम लेंगे । नक्शे की क्या जरूरत है? हिंदुस्तान का नक्शा अगर हिंदुस्तान के बराबर, एक्जेक्ट वैसा ही बनाना पड़े, तब हम उसको नक्शा कहें...। भाषा के लिहाज से तो तभी कहना चाहिए, जब हिंदुस्तान के नक्श को पूरा उतार दे, | उसके पूरे चेहरे को उतार दे, रत्तीभर कहीं कोई फर्क न हो; पैरेलल, | समानांतर, दूसरा हिंदुस्तान बनाना पड़े, तब नक्शा बने। लेकिन तब बेमानी हो गया। नक्शे का उपयोग यह है कि पूरा हिंदुस्तान बिना जाने, एक कागज के छोटे-से टुकड़े पर भी हम जान लें कि कहां क्या है । पर उसे नक्शा कहें या न कहें? उसे नक्शा कहना भाषा की दृष्टि से ठीक नहीं है। लेकिन वही नक्शा है, क्योंकि उपयोग उसी का हो सकता है। और नक्शे का उपयोग इतना है कि वह वास्तविक की तरफ इशारा करे। अर्जुन कृष्ण से पूछ रहा है कि तुम अपनी महिमा को, अपने ऐश्वर्य को, उसके समग्र विस्तार में कहो । 'अगर कृष्ण उसका समग्र विस्तार करने जाएं, तो वह उतना ही लंबा होगा, जितना यह अस्तित्व है। और अगर इतने लंबे अस्तित्व के मौजूद रहते हुए अर्जुन उसको नहीं समझ पा रहा है, तो कृष्ण के | विस्तार को कैसे समझ पाएगा ! और अगर इतने ही विस्तार को समझना है, तो यह अस्तित्व काफी है, इसको समझ लेना चाहिए। अनंत होगी वह कथा तो, उसका फिर कोई अंत नहीं हो सकता । अगर कृष्ण शुरू से ही शुरू करें और अंत पर ही अंत करें, तो न कोई शुरू होगा और न कोई अंत होगा । और यह कथा इतनी लंबी होगी कि बेमानी हो जाएगी। तो कृष्ण इसलिए कहते हैं, प्रधानता से कुछ बातें मैं तुझसे | कहूंगा। चुनकर कुछ बातें मैं तुझसे कहूंगा, जो कि इशारा बन जाएं और तुझे थोड़ी झलक दे सकें। नक्शा तेरे काम आ जाए, इतना मैं तुझसे कहूंगा। जिसके आधार पर तू वास्तविक को पाने पर निकल जाए। लेकिन कुछ लोग गलती कर सकते हैं, नक्शे को ही वास्तविक समझ सकते हैं। और हममें से बहुतों ने यह गलती की है। हम | नक्शे को ही वास्तविक समझ लेते हैं। शब्द ही हमारे लिए यथार्थ हो जाते हैं। अगर अभी यहां कोई जोर से चिल्ला दे, आग ! फायर ! तो अनेक लोग भागने की हालत में हो जाएंगे, बिना इस बात की फिक्र किए कि आग है भी या नहीं। आग शब्द तो सिर्फ नक्शा है, लेकिन हमें उत्तेजित कर दे सकता है उतना ही, जितना कि आग हो, तो हम उत्तेजित हो जाएं। और धीरे-धीरे हमारी हालत ऐसी हो जाती है कि एक बार आग भी जल रही हो और कोई आग न चिल्लाए, तो हम शायद उत्तेजित न हों। 104 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 शास्त्र इशारे हैं - रामकृष्ण ने कहा है कि एक आदमी सुबह उनसे मिलने आया है | लिए न्याययुक्त मानने को तैयार नहीं। चार शादी को न्याययुक्त और उन्होंने उससे पूछा कि मैंने सुना है कि तुम्हारे पड़ोसी का मकान | | मोहम्मद कहते हों, तो हमें बहुत अड़चन होती है। पर हम भूल जाते रात गिर गया आंधी में! उसने कहा कि मुझे पता नहीं, क्योंकि मैंने | हैं कि मोहम्मद किन लोगों से कह रहे हैं। जो बीस-पच्चीस स्त्रियां सुबह का अखबार नहीं देखा! पड़ोसी का मकान, रात आंधी में गिर रख सकते थे, उन लोगों से वे कह रहे हैं। गया! उसने कहा कि हो सकता है, क्योंकि मैंने अभी सुबह का अगर अनुपात निकालने जाएं, तो पच्चीस स्त्रियां जिस मुल्क में अखबार नहीं देखा! पड़ोसी के मकान का गिरना कम वास्तविक लोग रख सकते थे, उनसे चार की बात कहनी काफी न्यूनतम है, है, अखबार में छपी हुई सुर्जी ज्यादा वास्तविक है! बहुत न्यून है। चार भी उन्हें बहुत कम मालूम पड़ेगा, बहुत मुश्किल नक्शे बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। और उन चीजों के नक्शे तो मालूम पड़ेगी। और हमें समझना और भी कठिन हो जाएगा कि बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जो हमारी आंखों में दिखाई नहीं पड़ते।। | मोहम्मद ने खुद ने नौ विवाह किए! तो हमें और अड़चन हो परमात्मा का हमें कोई दर्शन नहीं होता। सत्य का हमें कोई पता नहीं जाएगी। हम सोच ही नहीं सकते, इस मुल्क में हम सोच नहीं सकते है। नक्शे ही नक्शे हैं हमारे पास। मोक्ष का हमें कोई पता नहीं है। | कि महावीर नौ विवाह कर सकते हैं! अस्तित्व की गहराई का हमें कोई पता नहीं है। बस नक्शे हैं। नक्शों | | लेकिन मोहम्मद ने नौ विवाह किए। और बड़े मजे की बात यह को सम्हाले हुए लोग बैठे हैं और विवाद करते रहते हैं कि किसका | | है कि उनमें से नौ में से सिर्फ एक स्त्री से ही उनके स्त्री जैसे संबंध नक्शा सही है। और नक्शों के इतने दबाव में दब जाते हैं कि यात्रा | थे। और आठ स्त्रियां आपकी पत्नियां हों और उनसे आपका पत्नी असंभव ही हो जाती है, मुश्किल ही हो जाती है। जैसा संबंध न हो, यह कोई छोटी साधना नहीं है। सब स्त्रियां यह जो कृष्ण का कहना है कि पूरे विस्तार से अपनी समग्रता को | | छोड़कर भाग जाना ज्यादा आसान है। और मोहम्मद ने कोई भी स्त्री कहने का कोई भी उपाय नहीं है। मैं कुछ बातें प्रधानता से कहूंगा। तकलीफ में थी, तो उससे ही शादी कर ली। कुछ बातें चुन लूंगा। अनंत है मेरा ऐश्वर्य, उसमें से कुछ लक्षण | | मोहम्मद की पहली शादी भी बड़े हैरानी की है। मोहम्मद की उम्र चुन लूंगा। छब्बीस वर्ष थी और पहली पत्नी की उम्र चालीस वर्ष थी। छब्बीस वे लक्षण भी कृष्ण ने वैसे ही चुने हैं जो हम आगे देखेंगे- वर्ष का युवक चालीस वर्ष की स्त्री से शादी कर रहा है। इस शादी जो अर्जुन की समझ में आ सकें। अर्जुन की जगह कोई दूसरा व्यक्ति | | में कोई भी स्त्रैण आकर्षण काम नहीं कर रहा है। लेकिन हमें होता, तो कृष्ण को दूसरे लक्षण चुनने पड़ते। अर्जुन की जगह अगर समझना कठिन पड़ता है। लेकिन जिन लोगों के बीच मोहम्मद हैं एक चित्रकार होता, तो कृष्ण को दूसरे लक्षण चुनने पड़ते। अर्जुन | और जिस भांति के लोगों से वे बात कर रहे हैं, और जिनके जीवन की जगह अगर एक कवि होता, तो कृष्ण को दूसरे लक्षण चुनने | | को बदलने की कोशिश कर रहे हैं, उनको जब तक हम सामने न पड़ते। अर्जुन की जगह अगर एक संगीतज्ञ होता, तो कृष्ण को दूसरे रख लें, तब तक अड़चन होगी। लक्षण चुनने पड़ते। अर्जुन से कृष्ण जो कुछ भी कहेंगे आगे, उसमें आप ध्यान रखना इसलिए भी बड़ी कठिनाई धर्मशास्त्रों में पैदा हुई। क्योंकि कि वह एक क्षत्रिय से चर्चा हो रही है, एक योद्धा से चर्चा हो रही मोहम्मद जिनसे बात कर रहे हैं, उनको हम भूल गए। कुरान हमारे है। और क्षत्रिय किस भाषा को समझ सकता है. उसी भाषा में चर्चा पास है। कृष्ण जिससे बात कर रहे हैं, उसका हमें खयाल न हो, | होगी। उन्हीं गुणों को चुनकर कृष्ण अर्जुन से कहेंगे। तो बड़ी भूल हो जाती है। मोहम्मद को हम नहीं समझ पाते, कम | क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है, इसलिए मैं चुनाव कर लूंगा से कम गैर-मुसलमान मोहम्मद को नहीं समझ पाते। उसकी सारी | और थोड़ी-सी बातें तुझसे कहूंगा। हे अर्जुन, मैं सब भूतों के हृदय कठिनाई एक ही है कि उन्हें पता नहीं कि मोहम्मद किससे बात कर | | में स्थित सबका आत्मा हूं। तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और रहे हैं। और कई दफा हमें अड़चन होती है। अड़चन ऐसी होती है। अंत भी मैं ही हूं। कि समझ में नहीं पड़ता कि यह कैसी बात मोहम्मद ने की है! वे जो कहेंगे, उसकी भूमिका इन दो शब्दों में, इन दो पंक्तियों में मोहम्मद ने कहा है कि कोई आदमी चार शादियां करे, तो आ गई। आगे वे विस्तार से कहेंगे। इन दोनों पंक्तियों को हम ठीक न्याययुक्त है। हमको बहुत बेहूदी लगती है। हम दो शादी तक के | से समझ लें, तो आगे की बात आसान होगी। 1105 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 58 मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं। | कहते हैं, वही आप हैं। अगर लोग अच्छा कहते हैं, तो आप अच्छे जब भी हम किसी को देखते हैं, तो उसकी परिधि दिखाई पड़ती हैं। अगर लोग बुरा कहते हैं, तो आप बुरे हैं। आप भी कुछ हैं? है, केंद्र नहीं। सर्कमफ्रेंस दिखाई पड़ती है, सेंटर नहीं। आप मुझे या सिर्फ लोगों के कहने का जोड़ ही आप हैं! देख रहे हैं, मेरी परिधि दिखाई पड़ रही है। मेरे घर की दीवालें | हर आदमी डरा हुआ है लोगों से। हम पड़ोसियों से जितने डरते दिखाई पड़ रही हैं, मैं आपको दिखाई नहीं पड़ रहा हूं। मैं आपको | हैं, उसका कोई हिसाब नहीं। घबड़ाए रहते हैं। उनको देखकर देख रहा हूं, तो आपका मकान दिखाई पड़ता है, आप दिखाई नहीं | चलते हैं। उनको देखकर उठते हैं। उनको देखकर कपड़े पहनते हैं। पड़ते। आपका शरीर दिखाई पड़ता है, आप दिखाई नहीं पड़ते।। | उनको देखकर बोलते हैं। हर आदमी चारों तरफ से अपने पड़ोसियों आपका केंद्र तो आपके भीतर कहीं छिपा है, गुप्त, गहन। | के हाथों से घिरा है। हर आदमी की गर्दन पर पड़ोसियों की फांसी कष्ण कहते हैं कि वह जो छिपा हआ हृदय है. वह जो गहन केंद्र | है। और ऐसा नहीं है कि आपके पड़ोसी की फांसी ही आपके ऊपर है सबके भीतर, वही मैं हूं। | है। आप भी अपने पड़ोसी की गर्दन पर ऐसी ही फांसी रखे हुए बैठे इसके बहुत मतलब हुए। पहला मतलब तो यह कि जब तक हमें | हैं। सब आदमी एक-दूसरे से उलझे हैं। घबड़ाहट रहती है कि कोई अपने भीतर के केंद्र का कोई स्मरण न आए, तब तक कृष्ण की जरा-सा कोई भाव बदल दे, तो हमारी सारी की सारी जीवन की सत्ता और अस्तित्व को हम न समझ पाएंगे। यह तो ठीक है कि मैं | | मेहनत, सारी कमाई व्यर्थ हो जाए! क्यों? जब आपको देखता हूं, तो आपका शरीर मुझे दिखाई पड़ता है, | - ये भी आईने हैं। इनमें देखकर हम समझते हैं कि अपने को आपका केंद्र नहीं दिखाई पड़ता। मजा तो यह है कि आपको भी समझा। हमें अपने केंद्र का भी कोई पता नहीं है। हमने अपने को अपना केंद्र नहीं दिखाई पड़ता। आप भी अपने को आईने मैं जैसा भी बाहर से ही देखा है। कभी आपने अपने शरीर का खयाल किया देखते हैं, उसी भांति पहचानते हैं। अगर आपने जिंदगी में आईना है भीतर से? तो आप घबड़ा जाएंगे। न देखा होता, तो आप अपने को पहचान भी नहीं सकते थे कि आप महावीर अपने साधकों को एक ध्यान करवाते थे। वह था, शरीर कौन हैं। आप भी अपने को इस भांति पहचानते हैं, जैसे किसी दूसरे | को भीतर से देखना। एकदम से तो खयाल में नहीं आएगा कि शरीर को बाहर से देखकर पहचानते हों। को भीतर से देखने का क्या मतलब? बहुत तरह के आईनों का हम उपयोग करते हैं। एक तो आईना __ आप अपने घर के बाहर खड़े हो जाएं और बाहर से देखें। तो .जो हमारे स्नानगह में टंगा होता है। उसमें हम अपनी शक्ल देख आपको दीवाल की बाहरी पर्त दिखाई पड़ती है. न तो घर का लेते हैं। लेकिन वह कोई बहुत खास आईना नहीं है। और सूक्ष्म फर्नीचर दिखाई पड़ता है, न घर के भीतर की दीवालों पर लटकी आईने हैं। लोगों की आंखों में हम अपने को देखते हैं। हुई तस्वीरें दिखाई पड़ती हैं। घर के भीतर का कुछ दिखाई नहीं अगर कोई आदमी आपसे कह देता है, आप बहुत अच्छे हैं, बड़े | पड़ता। घर के बाहर का हिस्सा दिखाई पड़ता है। फिर आप भीतर सुंदर हैं, आप तत्क्षण सुंदर और अच्छे हो जाते हैं। और कोई | जाएं, तो बाहर का हिस्सा दिखाई नहीं पड़ता। अब आपको भीतरी आदमी आपसे कह देता है कि शक्ल तो देखो कभी अपनी आईने | दीवाल दिखाई पड़नी शुरू होती है। अब आपको भीतर का फर्नीचर में! तुम्हें देखकर संसार से विराग उत्पन्न होता है! तत्काल आपके दिखाई पड़ना शुरू होता है। भीतर कोई चीज गिर जाती है और टूट जाती है। महावीर कहते थे, अपने को भीतर से देखो, तो हड्डियां, दसरों की आंखों में देख-देखकर आप अपनी प्रतिमा निर्मित मांस-मज्जा, यह सब दिखाई पड़ेगा। बाहर से देखोगे, तो सिर्फ करते हैं। आपको अपने केंद्र का कुछ भी पता नहीं है। दूसरे आपके चमड़ी दिखाई पड़ेगी। चमड़ी केवल बाहर की दीवाल है। भीतर! संबंध में क्या कहते हैं, उसकी ही कतरन इकट्ठी करके आप अपनी भीतर काफी फर्नीचर है। लेकिन भीतर से हमने अपने को कभी नहीं प्रतिमा बना लेते हैं। इसलिए हम दूसरों पर निर्भर होते हैं। देखा। महावीर कहते थे, आंख बंद करो और भीतर से अपने को मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि अगर हम ऐसा करेंगे, | एहसास करो कि तुम बीच में खड़े हो। अब क्या है वहां? तो लोग क्या कहेंगे! | तो अगर महावीर का ध्यान करने वाला एकदम विरक्त हो जाए लोग क्या कहेंगे! लोगों का कहना आपकी आत्मा है। लोग जो और शरीर में उसका आकर्षण खो जाए और आसक्ति न रहे, तो 106 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र इशारे हैं कुछ आश्चर्य नहीं है। उसके लिए चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती। अभी तो महावीर को मानने वाला जो साधु है, वह भी चेष्टा कर रहा है। लड़ रहा है अपने शरीर से कि वासना छूट जाए। लेकिन उसे भी पता नहीं कि वासना बाहर से लड़ने से नहीं छूटेगी। भीतर से शरीर दिख जाए, तो यह वासना छूट जाती है। क्योंकि भीतर सिवाय फिर गंदगी के और कचरे के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता । और तब हैरानी होती है कि इस कचरे को, इस गंदगी को, इस सबको मैंने समझा है अपना होना ! और जो आदमी अपने शरीर को भीतर से देखने में समर्थ होता है, वही आदमी अपने केंद्र को भी देख पाएगा। क्योंकि केंद्र का मतलब है, अब और भीतर चलो। अब शरीर को बिलकुल छोड़ दो; और उसको देखो, जो सब देखता है। अब उसको जानो, जो सब जानता है। अब उस बिंदु पर खड़े हो जाओ, जो साक्षी है, जो देख रहा है शरीर की हड्डी - मांस-मज्जा को । अब इसको ही पहचानो, यही केंद्र है। कृष्ण कहते हैं, मैं सबके हृदयों में स्थित आत्मा हूं। तो यह पहला कीमती वक्तव्य है, जिसमें परमात्मा के अस्तित्व की पूरी बात आ जाती है। लेकिन यह हमारे खयाल में न आए। और अगर हमको खयाल में भी आए, तो हम शायद सोचते होंगे कि जो हृदय हमारा धड़क-धड़क कर रहा है, उसी हृदय की बात है। उस हृदय की कोई भी बात नहीं है। इस हृदय को वैज्ञानिक हृदय मानने को तैयार भी नहीं हैं और वे ठीक हैं। वे कहते हैं, यह तो फेफड़ा है। और वे ठीक कहते हैं। यह तो सिर्फ पंपिंग स्टेशन है, जहां से आपके खून की सफाई होती रहती है चौबीस घंटे । सांस जाती है, खून आता है, सफाई होती रहती है। यह तो सिर्फ पंप करने का इंतजाम है। यह हृदय नहीं है। यह तो सिर्फ फेफड़ा है, फुफ्फुस है। यांत्रिक है। इसलिए प्लास्टिक का फेफड़ा लग जाता है और आपमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ध्यान रखना, आप यह मत सोचना कि आपका हृदय निकालकर और प्लास्टिक का लगा दिया, तो आप प्रेम न कर पाएंगे। और मजे से कर पाएंगे। कोई फर्क न पड़ेगा। क्योंकि यह आपका हृदय नहीं है। यह हृदय नहीं है। हृदय तो उस केंद्र का नाम है - इस फेफड़े से तो हमारा शरीर चलता है— हृदय उस केंद्र का नाम है, जिससे हमारा अस्तित्व धड़कता है। आत्मा का नाम हृदय है। इसलिए इस तरह की योग में प्रक्रियाएं हैं कि योगी चाहे तो थोड़ी चेष्टा करके हृदय की धड़कन बंद कर लेता है। हृदय की धड़कन बंद हो जाती है, लेकिन योगी मरता नहीं है। हृदय की धड़कन बंद होने से मरने का कोई गहरा संबंध नहीं है। हम मर जाते हैं, क्योंकि हमें पता नहीं कि अब इस हृदय को फिर से कैसे धड़काएं। लेकिन चेष्टा से इस हृदय को रोका जा सकता है और पुनः धड़काया जा सकता है। ब्रह्मयोगी ने उन्नीस सौ तीस में आक्सफोर्ड में, कलकत्ता में, रंगून में, कई विश्वविद्यालयों में अपने हृदय के धड़कन के बंद करने के प्रयोग किए। वे दस मिनट तक अपने हृदय को बंद कर लेते थे । कलकत्ता विश्वविद्यालय में दस डाक्टरों ने जांच की और लिखा। क्योंकि ब्रह्मयोगी ने कहा था कि जब मेरा हृदय बंद हो जाए, तब आप लिखना कि मैं जिंदा हूं या मर गया, और दस्तखत | कर देना। दस डाक्टरों ने उनके डेथ सर्टिफिकेट पर दस्तखत किए कि यह आदमी मर गया; मरने के सब लक्षण पूरे हो गए। और दस मिनट बाद ब्रह्मयोगी वापस लौट आए। हृदय फिर धड़कने लगा। सांस फिर चलने लगी। नाड़ी फिर दौड़ने लगी। और ब्रह्मयोगी ने वह जो सर्टिफिकेट था उसे जब मोड़कर खीसे में रखा, | तो उन डाक्टरों ने कहा कि कृपा करके यह सर्टिफिकेट वापस दे दें, क्योंकि इसमें हम भी फंस सकते हैं! हमने लिखकर दिया है कि | आप मर चुके । तो ब्रह्मयोगी ने कहा कि इसका अर्थ यह हुआ कि | तुम जिसे मृत्यु कहते हो, वह मृत्यु नहीं है। निश्चित ही, जिसे डाक्टर मृत्यु कहते हैं, वह मृत्यु नहीं है। जहां तक हम संबंधित हैं, वह मृत्यु है। क्योंकि हम अपने को बाहर से जानते हैं, फेफड़े से जानते हैं, हृदय से नहीं। शरीर से जानते हैं, आत्मा से नहीं । परिधि से जानते हैं, केंद्र से नहीं । परिधि तो मर जाती है। और डाक्टर उसी को मृत्यु कहते हैं। और हमें केंद्र के | अस्तित्व का कोई पता नहीं है, इसलिए हम भी उसे मृत्यु मानते हैं। यह सिर्फ मान्यता है। अगर हमें अपने केंद्र का पता चल जाए, तो फिर कोई मृत्यु नहीं है। कोई मृत्यु नहीं है । मृत्यु से बड़ा झूठ इस जगत में दूसरा नहीं है। लेकिन मृत्यु से बड़ा सत्य कोई भी नहीं मालूम पड़ता। और मृत्यु से बड़ा सुनिश्चित सत्य कोई भी मालूम नहीं पड़ता। मृत्यु बड़ा गहन सत्य है। जहां हम जीते हैं, बाहर, वहां मृत्यु | सब कुछ है। अगर हम भीतर जा सकें, तो जीवन सब कुछ है। बाहर है मृत्यु, भीतर है जीवन । उस जीवन की सूचना ही कृष्ण देते हैं कि सब जीवन में, जहां-जहां जीवन है, वहां मैं हूं। यह एक बात। दूसरी बात इस सूत्र में छिपी है, वह भी खयाल में ले लें। | कृष्ण यह कहते हैं कि सबके हृदय में, सबकी आत्माओं में मैं हूं । 107 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 इसका अर्थ यह हुआ कि हम शरीर से ही अलग-अलग हैं, भीतर से हम अलग-अलग नहीं हैं। हमारा जो भेद है, हमारी जो भिन्नता है, वह शरीर की है, भीतर का कोई भेद नहीं है। नहीं तो फिर कृष्ण सबके भीतर हो सकते। फिर परमात्मा सबके भीतर नहीं हो सकता। इसका यह मतलब हुआ कि हमारी परिधियां अलग-अलग हैं, हमारा केंद्र एक है । हमारी सर्कमफ्रेंस अलग-अलग है, पर हमारा सेंटर एक है। यह जरा गणित के लिए मुश्किल हो जाएगी बात। यह कठिन हो जाएगी बात। क्योंकि हमको लगता है कि जब हमारी परिधि अलग है, तो हमारा केंद्र भी अलग होगा। इसलिए हम सब सोचते हैं, हमारी आत्माएं भी अलग-अलग हैं। जो सोचते हैं कि उनकी आत्माएं अलग-अलग हैं, उन्हें आत्मा का अभी कोई भी पता नहीं । अभी वे शरीर से ही अपने अलग-अलग होने को मानकर कल्पना करते हैं, अनुमान करते हैं कि आत्मा भी अलग-अलग होगी। जिस दिन कोई अपने केंद्र को जानता है, उस दिन उसे पता चलता है कि शरीर ही अलग-अलग हैं, आत्मा एक ही विस्तार है। करीब-करीब ऐसा कि यहां इतने बिजली के बल्ब जल रहे हैं। ये सब बल्ब अलग-अलग जल रहे हैं। और कोई नहीं कह सकता कि ये सब बल्ब एक हैं। निश्चित अलग-अलग हैं। और अगर एक बल्ब को मैं तोड़ दूं, तो सब बल्ब नहीं टूट जाएंगे। इसलिए सिद्ध होता है कि बल्ब अलग था। बाकी बल्ब जिंदा हैं, और शेष हैं। मैं मर जाऊं, तो आप नहीं मरते । साफ है कि मैं अलग हूं, आप अलग हैं। लेकिन इनके भीतर जो बिजली दौड़ रही है, वह एक है । ये बल्ब अलग-अलग हैं और इनके भीतर जो ऊर्जा दौड़ रही है, वह एक है । और अगर ऊर्जा बंद कर दी जाए, तो सब बल्ब एक साथ बंद हो जाएंगे। बल्ब अगर तोड़ें, तो एक बल्ब टूटेगा, तो दूसरा नहीं टूटेगा; जलता रहेगा, जलता रहेगा। लेकिन अगर ऊर्जा बंद हो जाए, तो सब बल्ब एक साथ बंद हो जाएंगे। हम सब बल्ब की भांति हैं। हमारा शरीर एक बल्ब है। भीतर जो ऊर्जा प्रवाहित है, वह एक है। उस ऊर्जा को कृष्ण कहते हैं, वह ऊर्जा, वह एनर्जी, वह सर्वव्यापी आत्मा मैं हूं। सबकी आत्माओं में, सबके हृदय में, मैं हूं। इसलिए दूसरी बात इस सूत्र में खयाल में ले लेने जैसी है, कि बाहर है भेद, भीतर अभेद है। बाहर हैं भिन्नताएं, भीतर अभिन्नता बाहर है द्वैत, अनेकत्व भीतर एक है, अद्वैत । जो बाहर से ही जीएगा, वह कभी भी अनुभव नहीं कर सकता कि जब वह दूसरे को चोट पहुंचा रहा है, तो अपने को ही चोट पहुंचा रहा है। जो बाहर से जीएगा, वह कभी नहीं सोच सकता कि | जब वह दूसरे का अहित कर रहा है, तो अपना ही अहित कर रहा है। लेकिन जो भीतर से जीएगा, उसे तत्क्षण दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा कि चाहे मैं अहित करूं किसी का, अहित मेरा ही होता है। और चाहे मैं हित करूं किसी का, हित भी मेरा ही होता है। क्योंकि मेरे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। मैं ही हूं। अगर महावीर को, या बुद्ध को इतनी करुणा और इतने प्रेम का आविर्भाव हुआ, तो उस करुणा और प्रेम के आविर्भाव का केवल | एक ही कारण है कि दिखाई पड़ना शुरू हुआ कि मेरे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है । कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं सब भूतों के हृदय में सबका आत्मा। और संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत ही हूं। यह दूसरी | बात! उनका प्रारंभ भी मैं हूं, उनका मध्य भी मैं हूं, और उनका अंत | भी मैं हूं। इसे हम थोड़ा-सा, दो-तीन आयामों से समझ लें। यह भारत की संभवतः एक विशिष्ट दृष्टि है, जिसे दूसरी जगह पाना थोड़ा | मुश्किल है, थोड़ा कठिन है। जब हम यह कहते हैं कि आदि, मध्य और अंत, तीनों ही परमात्मा है, तो हम समस्त चीजों को परमात्मा के भीतर इकट्ठा कर लेते हैं। हम कुछ भी छोड़ते नहीं । बुराई को भी हम बाहर नहीं | छोड़ते, भलाई को भी बाहर नहीं छोड़ते। अंधेरे को भी भीतर ले लेते हैं, प्रकाश को भी भीतर ले लेते हैं। क्योंकि हम समस्त अस्तित्व को उसके सब आयामों में, प्रारंभ में, मध्य में, अंत में, तीनों में परमात्मा को स्वीकार करते हैं। इसमें थोड़े चिंतक, इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाएं, उनको | कठिनाई लगती है। वे कहेंगे कि आदमी जब पाप में है, तब परमात्मा नहीं है। वे कहेंगे, आदमी जब अज्ञान में है, तब परमात्मा नहीं है। आदमी जब कर्मों में घिरा हुआ है, पाप से, अंधकार से डूबा हुआ है, तब परमात्मा नहीं है। वे यह भी मान ले सकते हैं कि यह बीज रूप से परमात्मा है। जब शुद्ध हो जाएगा, तो हम इसे परमात्मा कहेंगे। अभी अशुद्ध अवस्था में है। ये इतना भी मान लें, तो भी वे यह कहेंगे कि जो अशुद्धि है, वह परमात्मा नहीं है। जो | पाप है, वह परमात्मा नहीं है। जो बुरा है, वह परमात्मा नहीं है। वे अस्तित्व को दो हिस्सों में काटेंगे। एक भला अस्तित्व होगा, जिसे 108 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ शास्त्र इशारे हैं 8 वे परमात्मा से जोड़ेंगे; और एक बुरा अस्तित्व होगा, जिसे | एक हाथ को सिगड़ी पर रखकर जरा तपा लें और फिर दोनों हाथों परमात्मा से अलग कर देंगे। को एक ही बाल्टी के भरे हुए पानी में डाल दें। तब आप बड़ी इसलिए कुछ धर्मों को शैतान भी निर्मित करना पड़ा है। शैतान | | मुश्किल में पड़ जाएंगे; उसी मुश्किल में, जिसमें ऋषि पड़ गए, जब का अर्थ है, जो-जो बुरा-बुरा है इस जगत में, वह शैतान के जिम्मे | | उनको अनुभव हुआ अस्तित्व का। तब आपसे अगर मैं पूछू कि छोड़ दिया। जो भला-भला है, वह परमात्मा के जिम्मे ले लिया। | बाल्टी का पानी ठंडा है या गरम? तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। ऐसा विचार कमजोर है। और ऐसा परमात्मा भी, ऐसे विचार का एक हाथ कहेगा ठंडा और एक हाथ कहेगा गरम। क्योंकि सब परमात्मा भी अधूरा होगा। क्योंकि बुराई के होने के लिए भी | | अनुभव सापेक्ष हैं, रिलेटिव हैं। अगर आपने एक हाथ ठंडा कर परमात्मा का सहारा चाहिए। बुराई भी हो सकती है, तो परमात्मा के | | लिया है, तो पानी उस हाथ को गरम मालूम पड़ेगा। जो हाथ आपने सहारे ही हो सकती है। अस्तित्व मात्र उसी का है। और अगर हम | | गरम कर लिया है, उस हाथ को वही पानी ठंडा मालूम पड़ेगा। दोनों एक बार ऐसा स्वीकार कर लें कि बुराई का अपना अस्तित्व है, तो | | हाथ आपके ही हैं। आप क्या वक्तव्य देंगे कि पानी ठंडा है या फिर बुराई को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि उसका गरम? तो आप कहेंगे, एक हाथ कहता है ठंडा और एक हाथ अपना निजी अस्तित्व है। उसे परमात्मा नष्ट नहीं कर सकता। | | कहता है गरम। और अगर एक ही चीज के संबंध में दो हाथ दो और अगर हम ऐसा समझ लें कि परमात्मा में और शैतान में | खबर देते हैं, तो इसका मतलब हुआ कि ठंडक और गर्मी दो चीजें कोई संघर्ष चल रहा है, तो फिर कोई तय नहीं कर सकता कि अंतिम | नहीं हैं, एक ही चीज है। विजय किसकी होगी। और जहां तक रोज का सवाल है, तो यही | बुराई और भलाई भी दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज है। जिसको दिखाई पड़ता है कि निन्यानबे मौकों पर शैतान जीतता है। एकाध | | हम बुरा आदमी कहते हैं, उसका मतलब है, कम से कम भला। मौके पर परमात्मा भूल-चूक से जीत जाता हो, बात अलग है। | और जिसको हम भले से भला आदमी कहते हैं, वह भी कम से लेकिन निन्यानबे मौके पर शैतान जीतता हुआ मालूम पड़ता है! | | कम बुरा है। इसलिए आप बुरे से बुरे आदमी में भलाई खोज सकते अगर हम इतिहास का अनुभव लें, तो हमें यही मानना पड़ेगा कि हैं, और भले से भले आदमी में बुराई खोज सकते हैं। अंत में दिखता है. शैतान ही जीतेगा. परमात्मा जीत नहीं सकता। ऐसा भला आदमी आप नहीं खोज सकते. जिसमें बराई न हो। अगर हम शैतान को एक अलग अस्तित्व मान लें, तो यह संघर्ष | | और ऐसा बुरा आदमी नहीं खोज सकते, जिसमें भलाई न हो। शाश्वत हो जाएगा। | इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ हुआ कि बुराई और भलाई एक लेकिन हिंदू चिंतन शैतान जैसी किसी अलग व्यवस्था को | | ही चीज के दो विस्तार हैं, एक ही चीज का तारतम्य है। दोनों एक स्वीकार नहीं करता। लेकिन फिर जटिल हो जाता है और सूक्ष्म हो | | का ही, और उस एक का नाम हमने परमात्मा दिया है। जाता है, क्योंकि बात फिर आसान नहीं रह जाती। यह बिलकुल ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं, प्रारंभ भी मैं ही हूं, मध्य भी मैं ही हूँ, आसान है, काले को काला और गोरे को गोरा कर देना। अंधेरे को अंत भी मैं ही हूं। संसार भी मैं ही हूं, मोक्ष भी मैं ही हूं, शरीर भी अलग, प्रकाश को अलग कर देना, बहुत आसान है; सीधा-साफ मैं ही हूं, आत्मा भी मैं ही हूं। इस जगत में जो भी है, वह मैं हूं। है। लेकिन हिंदू चिंतन कहता है, सभी कुछ परमात्मा है। यह जरा | इसे हम ऐसा समझें, तो आसान हो जाएगा। मुश्किल है। हिंदू चिंतन के लिए अस्तित्व और परमात्मा पर्यायवाची हैं, लेकिन यही वैज्ञानिक है। अगर हम वैज्ञानिक से पूछे, तो वह | | सिनानिम हैं। इसलिए जब हम कहते हैं, ईश्वर है, तो गहन विचार कहेगा, अंधेरा प्रकाश का ही एक रूप है। अंधेरे का मतलब है,। | की दृष्टि से पुनरुक्ति हो जाती है। जब हम कहते हैं, गॉड इज़, ईश्वर कम से कम प्रकाश। प्रकाश भी अंधेरे का एक रूप है। प्रकाश का | है, तो पुनरुक्ति हो जाती है। क्योंकि है का मतलब हिंदू विचार में अर्थ है, कम से कम अंधेरा। शायद प्रकाश और अंधेरे में समझने | | ईश्वर है। जो भी है, वह ईश्वर है। होना ही ईश्वर है। अगर इसको में कठिनाई होती है। विज्ञान कहता है, गर्मी और ठंडक एक ही चीज | हम ऐसा तोड़ें, जब हम कहते हैं, ईश्वर है, तो इसका अर्थ हुआ, है के दो नाम हैं, दो चीजें नहीं हैं। है। या इसका अर्थ हुआ, ईश्वर ईश्वर। यह पुनरुक्ति है। कभी ऐसा करें कि एक हाथ को बर्फ पर रखकर ठंडा कर लें और | __ अस्तित्व ही परमात्मा है। साधक के लिए इसका बहुत गहरा 109 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 मूल्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि जब आपको बुराई भी दिखाई नहीं है। भले में सीधा खड़ा हो, बुरे में उलटा खड़ा हो। और उलटा पड़े, तब भी आप परमात्मा को विस्मरण मत करना। और गहरी से और सीधा भी परिभाषा की बात है। किसको हम उलटा कहें? गहरी बुराई में भी अगर आप परमात्मा को देखते रहें, तो आपके | किसको हम सीधा कहें? यह भी हम पर निर्भर करता है कि हम लिए बुराई रूपांतरित हो जाएगी। अगर आप गहन से गहन अंधेरे कैसे खड़े हैं। अगर आप शीर्षासन लगाकर खड़े हों, तो सारी में भी प्रकाश को स्मरण रख सकें, तो अंधेरा तिरोहित हो जाएगा. दुनिया आपको उलटी मालूम पड़े। यह आप पर निर्भर करता है। विपरीत विलीन हो जाएंगे। वह भी सापेक्ष है। लेकिन हमारी तकलीफ है। हम बुरे से, जिसको हम बुरा समझते लेकिन हिंदू चिंतना इस बात की गहरी से गहरी पकड़ रखती है हैं, उससे घिरे हुए लोग हैं। फिर जब हम.बुरे से परेशान हो जाते | कि अस्तित्व एक है। और हम किसी चीज को नहीं कहते कि वह हैं, तो उसको छोड़कर उसके विपरीत हम भले होने की कोशिश में | | परमात्मा नहीं है। किसी भी बात को हम परमात्मा से नहीं काटते लगते हैं। हमारी भलाई हमारी बुराई के विपरीत यात्रा होती है। | कि वह परमात्मा नहीं है। हम परमात्मा के अतिरिक्त और किसी इसलिए हमें लगता है कि बुरे और भले उलटे हैं, एक-दूसरे के | | को भी स्वीकार नहीं करते। हमारा परमात्मा सभी को आच्छादित विपरीत हैं। लेकिन जो दोनों के पार खड़े होकर देखता है, उसे पता कर लेता है, बाहर और भीतर से घेर लेता है। चलता है, वे एक ही चीज के दो छोर हैं। उस एक के लिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, मैं सब भूतों के हृदय हमारी जिंदगी तो विपरीत की तरफ चलती रहती है। आज हम | | में स्थित सबका आत्मा हूं, तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और बाएं जाते हैं; घबड़ा जाते हैं बाएं जाने से, तो दाएं जाने लगते हैं। अंत भी मैं ही हूं। शायद हम सोचते हैं कि दाएं जाना बाएं के विपरीत है। लेकिन दायां __ शेष हम कल बात करेंगे। और बायां एक ही आकाश के आयाम हैं। उत्तर जाते हैं, घबड़ा जाते लेकिन कोई उठे नहीं। पांच मिनट कीर्तन का प्रसाद लें और फिर हैं, दक्षिण जाने लगते हैं; तो सोचते हैं, दक्षिण उत्तर के विपरीत है। | जाएं। लेकिन उत्तर और दक्षिण दोनों एक ही आकाश के छोर हैं। मुल्ला नसरुद्दीन मर रहा है, आखिरी क्षण है। उसके मित्र उससे पूछते हैं कि नसरुद्दीन तुम किस भांति दफनाए जाना पसंद करोगे? हमें कुछ कह दो, तो हम उस अनुसार तैयारी करें! तो नसरुद्दीन ने कहा कि मुझे तुम शीर्षासन करता हुआ दफना देना; सिर नीचे, पैर ऊपर; अपसाइड डाउन! मित्र बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, क्या कह रहे हो? ऐसा हमने कभी किसी का दफनाया जाना सुना नहीं! नसरुद्दीन ने कहा कि पैर नीचे सिर ऊपर इस जमीन पर काफी रहकर देख लिया, कुछ पाया नहीं; अब उलटा प्रयोग करके देखें। सो फॉर दि नेक्स्ट वर्ल्ड, आई वांट टु बी अपसाइड डाउन; वह जो दूसरा लोक है, वहां हम सिर के बल होना चाहते हैं। एक तो यह अनुभव कर लिया, यह बेकार पाया। अब इससे उलटा कर लें। लेकिन क्या आपने खयाल किया है कि चाहे आप सिर के बल खड़े हों और चाहे पैर के बल, आप ही खड़े होते हैं, जो एक है। चाहे सिर के बल खड़े हो जाएं, चाहे पैर के बल खड़े हो जाएं; शरीर उलटा हो जाता है, आप जरा भी उलटे नहीं होते; सेंटर अपनी जगह वैसा का वैसा ही रहता है। बुरे में भी परमात्मा भला उलटा खड़ा हो, इससे ज्यादा कोई फर्क Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 आठवां प्रवचन सगुण प्रतीकसृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 03 गीता दर्शन भाग-5078 आदित्यानामहं विष्णुज्योतिषां रविरंशुमान् । | हैं, सपने में फिर उन पुरानी अवस्थाओं में पहुंच जाते हैं, जहां हम मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ।।२१।। | चित्रों से सोच सकते हैं। वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।। दुनिया की जो प्राचीनतम भाषाएं हैं, वे चित्रों वाली हैं। जैसे इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।। २२ ।। चीनी है, वह चित्र की भाषा है। अभी भी उसके पास वर्णाक्षर नहीं और हे अर्जुन, मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और | हैं। बहुत कठिन है, क्योंकि हर चीज का चित्र, बहुत लंबी प्रक्रिया ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूं तथा मैं वायु देवताओं में | | है। अगर चीनी भाषा को किसी को पढ़ना हो, तो कम से कम दस मरीचि नामक वायु देवता और नक्षत्रों में नक्षत्रों का अधिपति | वर्ष तो लग ही जाएंगे और तब भी प्राथमिक ज्ञान ही होगा। कम से चंद्रमा हूं। कम एक लाख शब्द-चित्र तो याद होने ही चाहिए साधारण ज्ञान के और मैं वेदों में सामवेद हूं, देवों में इंद्र हूं और इंद्रियों में मन लिए भी। हर चीज का चित्र है। जो प्राचीनतम भाषा होगी, वह हं, भूत-प्राणियों में चेतनता अर्थात ज्ञान-शक्ति हूं। | चित्रों में होगी। बच्चों का मन प्राचीनतम मन है। वे चित्रों से समझते हैं। तो हमें कहना पड़ता है, ग गणेश का। ग से गणेश का कोई संबंध नहीं है, + नहीं कहा जा सकता, उसे भी प्रतीक से कहने के उपाय | क्योंकि ग गधे का भी उतना ही है। लेकिन गणेश का या गधे का किए जाते हैं। और जिसे बताया नहीं जा सकता, जो चित्र हम बनाएं, तो बच्चे को ग समझाना आसान हो जाता है। अज्ञात है, उसकी ओर भी, जो हम जानते हैं उसके | पुरानी किताबों में गणेश का चित्र होता था, नई किताबों में गधे का माध्यम से इंगित किए जा सकते हैं। इस सूत्र को समझने के पहले | चित्र है, इसलिए मैं कह रहा हूं। क्योंकि सेक्युलर है गवर्नमेंट, इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। धर्म-निरपेक्ष है राज्य। गणेश का चित्र नहीं बना सकते! तो पुरानी ईश्वर अज्ञात है। नहीं; उसका हमें कोई भी पता नहीं है। लेकिन | | किताबों में ग गणेश का होता था, नई किताबों में ग गधे का है। जो हमें पता है, क्या उसके आधार पर हम उस अज्ञात के संबंध में | ग को समझाना हो, तो गणेश को रखना पड़ता है। फिर जब कुछ इशारे भी कर पा सकते हैं या नहीं? एक छोटे बच्चे को भाषा बच्चा समझ लेगा, तो गणेश को छोड़ देगा, ग रह जाएगा। अगर पढ़ानी पड़ती है, तो भाषा तो उसे अज्ञात होती है। लेकिन कहीं से बाद में भी आप पढ़ते वक्त हर बार कहें कि ग गणेश का, तो फिर शुरू करना पड़ेगा। जो उसे ज्ञात होता है, उसके आधार पर ही शुरू पढ़ना मुश्किल हो जाएगा। फिर गणेश को भूल जाना पड़ेगा और करना पड़ेगा। ग को याद रखना पड़ेगा। लेकिन ग को याद करने में पहले गणेश छोटे बच्चे के लिए हमें प्रतीक चुनने पड़ते हैं। अगर छोटे बच्चों का उपयोग लिया जा सकता है, लिया जाता है। और अब तक कोई की किताब आप देखते हैं, तो आपको साफ मालूम होगा, शब्द होते शिक्षा-पद्धति विकसित नहीं हो सकी, जिसमें हम बिना चित्रों का हैं कम, चित्र होते हैं ज्यादा। चित्र ही प्रमुख होते हैं, शब्द गौण होते उपयोग किए बच्चों को शब्दों का बोध करा दें। हैं। चित्रों के आधार पर ही शब्दों को समझाने की कोशिश होती है। कृष्ण ने मौलिक बात कह दी है कि मैं समस्त आत्माओं में आत्मा क्योंकि बच्चे का मन चित्र को तो समझ पाता है. शब्द को नहीं है। मैं समस्त आत्माओं का केंद्र हैं। मैं समस्त हृदयों का हृदय हैं। समझ पाता है। शब्द अभी अज्ञात है। लेकिन चित्र? चित्र बच्चा | | मेरा ही विस्तार है सब कुछ–आदि भी, मध्य भी, अंत भी। देख सकता है। लेकिन वह बहुत गहरा भाव है और अर्जुन को भी पकड़ में नहीं मनुष्य का जो मन है, वह पहले चित्रों की भाषा में सोचता है, आएगा। इसलिए कृष्ण अब चित्रों का प्रयोग करते हैं, और चित्रों फिर शब्दों की भाषा विकसित होती है। और अभी भी रात जब आप के माध्यम से उस भाव की तरफ इशारा करते हैं। अर्जुन जो चित्र सपने देखते हैं, तो चित्रों की भाषा में देखते हैं, क्योंकि सपने में | समझ सकेगा, निश्चित ही उनका ही उपयोग किया गया है। आप अपनी शिक्षा-दीक्षा सब भूल जाते हैं। जो भाषा आपको | | कृष्ण ने कहा, और हे अर्जुन, मैं अदिति के पुत्रों में विष्णु हूं। सिखाई गई है प्रतीकों की, संकेतों की, गणित की, व्याकरण की, इस प्रतीक को हम समझें।। वह सब आप भूल जाते हैं। सपने में आप फिर प्रिमिटिव हो जाते । तीन नाम से हम निरंतर परिचित रहे हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश। 1112 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगुण प्रतीक-सृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के 8 हिंदू चिंतना में ब्रह्मा सृजन के प्रतीक हैं, महेश विसर्जन के, अंत | | रूप वही है, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश का है। उन तीनों का काम भी के, विनाश के और विष्णु मध्य के, विस्तार के। विष्णु सम्हालते हैं वही है। उनमें एक विधायक है, एक विनाशक है, और एक तटस्थ अस्तित्व को। जो सम्हालने की शक्ति है, वह विष्णु का नाम है। | है। उसमें एक सृजनात्मक है, एक समाप्त करने वाला है और एक जो जन्म की शक्ति है, सृजन की, वह ब्रह्मा। और जो विनाश की, | सम्हालने वाला है। प्रलय की शक्ति है, वह शिव या महेश। अगर हम धर्म की दिशा से यात्रा करें, तो जो शब्द हम चुनते हैं, • इन तीन शब्दों को हिंदुओं ने बहुत मौलिक मूल्य दिया है। वे वैयक्तिक होते हैं, पर्सनल होते हैं। क्योंकि धर्म चित्रों में सोचता क्योंकि हिंदू चिंतना को ऐसा हजारों-हजारों वर्ष पहले खयाल में | | है। इसलिए हमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन को बनाया है। हमने आया कि अगर हम सारे अस्तित्व को मोटे-मोटे हिसाब से बांटें, | | तीनों की त्रिमूर्ति बनाई है, जिनमें शरीर एक है और चेहरे तीन हैं। तो अस्तित्व तीन हिस्सों में बंट जाता है। इस अस्तित्व में कुछ तो इस बात की सूचना देने के लिए कि ये तीन हमें बाहर से दिखाई होनी चाहिए सृजनात्मक ऊर्जा, क्रिएटिव एनर्जी, अन्यथा जगत हो | पड़ते हैं, भीतर से एक हैं। नहीं सकेगा। और यह सृजनात्मक शक्ति ही अगर जगत में हो, तो इन तीनों में कृष्ण ने कहा कि मैं विष्णु हूं। फिर विश्राम असंभव हो जाएगा। इसलिए विनाश की भी उतनी ही इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए। इन तीनों में कृष्ण ने कहा कि मैं मूल्यवान शक्ति, डिस्ट्रक्टिव एनर्जी भी जगत में होनी चाहिए, तभी | विष्णु हूं। सृजन एक क्षण में हो जाता है। और विनाश भी एक क्षण दोनों में संतुलन होगा। | में हो जाता है। काल का लंबा विस्तार विष्णु के हाथ में है। सृजन लेकिन अगर ये दोनों ही शक्तियां हों, तो बीच में मौका अस्तित्व | हुआ, बात समाप्त हो गई; स्रष्टा का उपयोग समाप्त हो गया। और को बचने का बचेगा ही नहीं। एक तीसरी शक्ति भी चाहिए, जो | विनाशक शक्ति का उपयोग अंत में होगा, जब प्रलय होगा। अस्तित्व को सम्हालती हो। जन्म के और मृत्यु के बीच में जो | इसलिए विराटतम ऊर्जा, जो काम में निरंतर आती है, वह मध्य में अस्तित्व को सम्हालती हो; सृजन के और प्रलय के बीच में जो | | है, वह विष्णु है। अस्तित्व को धारण करती हो, वैसी एक तीसरी शक्ति भी चाहिए। | कृष्ण कहते हैं, इन तीनों में मैं विष्णु हूं। ये तीन मौलिक शक्तियां हैं। इन तीन मौलिक शक्तियों के प्रतीक हिंदुओं के सारे अवतार विष्णु के अवतार हैं। हिंदुओं ने माना है और शब्द-चित्र ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं। कि ईश्वर जब भी प्रकट होता है, तो वह विष्णु का अवतार है। इसे हिंदुओं की यह अंतर्दृष्टि धीरे-धीरे इतनी व्यापक और मूल्यवान | थोड़ा हम समझें कि इसका क्या प्रयोजन और क्या अर्थ होगा! क्या सिद्ध हुई कि करीब-करीब जगत में जहां भी इस विचार की खबर अभिप्राय होगा! पहंची, वहां-वहां तीन शक्तियों का स्वीकार हो गया। जैसे | जब सृष्टि नहीं हुई हो, तब तो मनुष्य भी नहीं होता, और अवतार ईसाइयत तीन शक्तियों को स्वीकार करती है, गॉड दि फादर, गॉड का कोई अर्थ और कोई प्रयोजन नहीं है। और जब सृष्टि विनष्ट हो दि सन और दोनों के बीच में एक तीसरी शक्ति, होली घोस्ट। नाम गई हो, विलीन हो गई हो, तब भी अवतार का कोई प्रयोजन नहीं है। कोई भी दिए जा सकते हैं। नाम का चुनाव निजी है। लेकिन त्रिमूर्ति अवतार का प्रयोजन तो सृजन और अंत के बीच में, जब सृष्टि का यह भाव ईसाइयत स्वीकार करती है। उसको वे ट्रिनिटी कहते चलती हो, प्रक्रिया में हो, जीवंत हो, तभी प्रयोजन है। हैं। ये जो तीन अस्तित्व की शक्तियां हैं, इनके बिना अस्तित्व नहीं शिव का अवतार, विनाश का अवतार होगा। उसकी कोई हो सकता है, इसकी स्वीकृति ईसाइयत के धर्म-विचार में भी है। आवश्यकता मध्य में नहीं हो सकती। और ब्रह्मा का अवतार सजन __ और आधुनिक विज्ञान ने भी पदार्थ के विश्लेषण पर, बहुत | का अवतार होगा, उसकी कोई आवश्यकता मध्य में नहीं हो चकित होकर जाना कि पदार्थ के विश्लेषण पर तीन ही शक्तियां सकती। और जीवन है मध्य में। प्रारंभ और अंत तो दो छोर हैं। शेष रह जाती हैं। जैसे ही हम परमाणु का विस्फोट करते हैं, ___ हम ऐसा कह सकते हैं कि ब्रह्मा और महेश तो छोर पर उपयोगी विश्लेषण करते हैं, तो इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान, ये तीन हैं, लेकिन पूरा जीवन का जो फैलाव है, वह फैलाव विष्णु का अंतिम अस्तित्व हमारे हाथ में आते हैं। और मजे की बात तो यह | फैलाव है। इसलिए इस मध्य के काल में, जीवन के काल में जो है कि इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान, इन तीनों का भी व्यावहारिक भी ईश्वर की अवधारणाएं हैं, वे सभी अवधारणाएं विष्णु की [113 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 अवधारणाएं हैं। वही शक्ति, जो जीवन को धारण करती है, वही अवतरित होगी। इसलिए बहुत मजे की बात है, ब्रह्मा का एकाध मंदिर खोजे से मिलेगा। ब्रह्मा की पूजा भी चलती हुई मालूम नहीं पड़ती है। सृजन तो हो चुका, इसलिए ब्रह्मा भुलाए जा सकते हैं। वह बात हो चुकी । अभी ब्रह्मा का कोई संस्पर्श जीवन से नहीं है। वह घटना घट चुकी ब्रह्मा का काम पूरा हो चुका। विष्णु की पूजा चलती है। चाहे राम के रूप में, चाहे कृष्ण के रूप में, चाहे बुद्ध के रूप में – क्योंकि हिंदू मानते हैं, बुद्ध भी विष्णु का ही अवतार हैं - अनेक-अनेक रूपों में विष्णु की पूजा चलती है, क्योंकि जीवन का प्रतिपल संबंध विष्णु से है। शिव के भी बहुत मंदिर हैं, और शिव के भी बहुत भक्त हैं। वह घटना भी अभी घटने को है, वह भविष्य है । मृत्यु, प्रलय, वह घटना अभी घटने को है। अभी शिव भी बहुत सार्थक हैं और उनकी पूजा में भी अभिप्राय है। आदमी तो पूजा भी करेगा, तो अभिप्राय से करेगा । इसलिए ब्रह्मा की पूजा नहीं चलती, क्योंकि कोई भी संबंध नहीं रह गया है। वह घटना घट चुकी, अतीत हो बात। अब ब्रह्मा की जरूरत पड़ेगी नई सृष्टि के जन्म के समय । तब भी कोई ब्रह्मा की पूजा नहीं करेगा, क्योंकि पूजा करने वाले लोग ही नहीं होंगे। जब पूजा करने वाले लोग आ जाते हैं, तो ब्रह्मा का काम समाप्त हो चुका होता है। इसलिए ब्रह्मा का भक्त खोजना जरा मुश्किल है, कठिन है, क्योंकि कोई भी संबंध हमारा उनसे जुड़ने का - हमारे लोभ से, हमारे भय से, हमारे स्वार्थ से, हमारे कल्याण से ब्रह्मा का कोई भी संबंध नहीं जुड़ता । इसलिए यह घटना घटी है कि तीनों सृष्टि के प्रधान देवता हैं, लेकिन ब्रह्मा बिलकुल ही उपेक्षित हैं। वे रहेंगे ही। विष्णु की सर्वाधिक पूजा होगी, क्योंकि जीवन का दैनंदिन, प्रतिपल का संबंध उनसे है। और जितने भी रूप परमात्मा के प्रकट होंगे, हिंदू कहता है कि वे सभी विष्णु के रूप हैं। होंगे ही। एक ही ऊर्जा जो धारण करती है, वही जीवन के इस लंबे विस्तार में बार-बार प्रवेश करेगी। शिव का प्रयोग अंतिम होगा, लेकिन वह भी हमारा भविष्य है। और आदमी की चिंता भविष्य के लिए भी होती है, शायद वर्तमान से भी ज्यादा भविष्य के लिए होती है। आदमी के भय और आदमी के लोभ वर्तमान से भी ज्यादा भविष्य में निर्भर होते हैं। आने वाले क में सब कुछ निर्भर होता है । तो शिव की भी पूजा चलेगी। लेकिन कृष्ण ने कहा कि मैं विष्णु हूं। यह जीवन का जो केंद्रीय तत्व है सम्हालने वाला, वह मैं हूं। इसे आप ठीक से समझ लेंगे कि यह केवल चित्रों के द्वारा, प्रतीकों के द्वारा अर्जुन को बोध देना है। कृष्ण ने गहरी बातें भी अर्जुन को कही हैं, वे शायद उसकी पकड़ में नहीं आतीं। वह कहता है, मुझे और विस्तार से कहें। विस्तार में जानने का मतलब ही यह है कि जो उसे कहा गया है, वह उसे साफ नहीं हो सका। तो कृष्ण अब बिलकुल ठीक अर्जुन को एक बच्चे की तरह मानकर चल रहे हैं। वे उसे कह रहे हैं कि मैं विष्णु हूं। यह अर्जुन की समझ में आ सकता है। यह आसान है। यह सरल | होगा। यह हमारे जगत की भाषा का हिस्सा हो जाता है। परमात्मा - एक तो इस अवस्था में उसकी चर्चा की जा सकती है कि | जहां से भी हम पहुंचने की कोशिश करें, हमारे हाथ छोटे पड़ जाएं। कितनी ही हम आंखें ऊपर उठाएं, वह हमें दूर ही मालूम पड़े। विष्णु के माध्यम से कृष्ण कहते हैं कि मैं बहुत निकट हूं । प्रतिपल मैं ही जीवन को धारण किए हुए हूं। आती हुई श्वास में भी मैं हूं, जाती हुई श्वास में भी मैं हूं। खून की रफ्तार में भी मैं हूं, वृक्ष के खिलने मैं हूं। यह जो जीवन को सम्हाले हुए हूं, इस जीवन | का सारा आधार मैं हूं। विष्णु का अर्थ है, जीवन का आधार । प्रतिपल, प्रतिक्षण, जो सम्हाले हुए है, वही मैं हूं। यह अर्जुन को समझना आसान हो | सकेगा। विष्णु हूं मैं, और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूं। जैसे भौतिक वैज्ञानिक पदार्थ की आखिरी इकाई परमाणु मानते हैं, वैसे ही अगर हम समस्त अस्तित्व के विराट रूप को ध्यान में | रखें, तो सूर्य सबसे छोटी इकाई है। जैसे परमाणु, हम पदार्थको | तोड़ते चले जाएं, तो आखिरी इकाई है, ऐसे ही अगर हम पूरे | अस्तित्व की इकाई खोजने जाएं, तो सूर्य पूरे अस्तित्व की प्राथमिक | इकाई है। 114 रात में आप आकाश को तारों से भरा हुआ देखते हैं, तो आपको खयाल भी नहीं आता होगा कि इनमें तारा कोई भी तारा नहीं है, ये सभी सूर्य हैं। और हमारे सूर्य से बहुत बड़े सूर्य हैं। हमारा सूर्य बहुत | मीडियाकर, मध्यमवर्गीय है। ऐसे तो बहुत बड़ा है, हमारी दृष्टि से पृथ्वी से तो साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन और महासूर्य हैं, | जिनके मुकाबले वह कुछ भी नहीं है । ये जो रात में हमें तारे दिखाई पड़ते हैं, ये सभी सूर्य हैं। बहुत Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ सगुण प्रतीक-सृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के ॐ छोटे दिखाई पड़ते हैं। छोटे दिखाई इसलिए पड़ते हैं कि बहुत वैज्ञानिकों ने कोई तीन अरब सूर्यों का पता लगाया है। यह भी अंत फासला है. लंबा फासला है। इस फासले का हम थोडा ध्यान रखें. नहीं है। यह भी केवल हमारी खोज की सीमा है, अस्तित्व की सीमा तो हमें खयाल में आए कि सूर्य को प्राथमिक इकाई, यूनिट मानने नहीं है। का क्या कारण है। इनमें जो तीन अरब सूर्य हैं, उनमें से कुछ सूर्य तो ऐसे हैं कि जमीन से अगर हम सूरज की तरफ यात्रा करें, सूरज की किरण उनकी किरण हम तक पहुंचने में अरबों वर्ष लग जाते हैं, उसी की ही रफ्तार से यात्रा करें, तो हमें पहुंचने में कोई साढ़े नौ मिनट रफ्तार से, एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की रफ्तार लगेंगे। लेकिन सूरज की किरण की रफ्तार से चलें तो! अभी तो से! कुछ ऐसे सूर्य हैं जिनकी किरण अब हमारी पृथ्वी पर पहुंची है, हमारे पास जो बड़ी से बड़ी रफ्तार है, उससे भी हम पूरे जीवन भी | और तब चली थी, जब हमारी पृथ्वी बनी थी। हमारी पृथ्वी को बने चलते रहें, तो सूरज तक नहीं पहुंच पाएंगे। सूरज की किरण चलती कोई चार अरब वर्ष हुए हैं। चार अरब वर्षों में चली हुई किरण जो है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील! एक सेकेंड में एक पहले दिन चली थी पृथ्वी के बनने पर, वह अब पहुंच पाई है! लाख छियासी हजार मील! इसमें साठ का गणा करें तो एक मिनट और वैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसे भी सूर्य हैं, हमारी पृथ्वी बन में, और उसमें भी साठ का गुणा करें, तो एक घंटे में। जाएगी, हम रह चुके होंगे अरबों-खरबों वर्ष और समाप्त हो लेकिन सूरज हमारे बहुत करीब है, साढ़े नौ, दस मिनट का जाएगी, और उनकी किरण जो चली होगी बनने के पहले, वह फासला है। अगर हम इन तारों की तरफ यात्रा करें, तो जो सबसे हमारे मिटने के बाद यहां से गुजरेगी। निकट तारा है, उस तक अगर हम सूरज की किरण की रफ्तार से उस किरण को पता ही नहीं चलेगा कि बीच में यहां एक पृथ्वी चलें, तो हमें पहुंचने में चार साल लगेंगे। सूरज की किरण की बनी, उस पर करोड़ों लोग रहे, अरबों वर्ष तक युद्ध चले, कलह रफ्तार से चलने में सूरज के बाद जो सबसे निकट का सूर्य है, हमें चली; लोभ, भय चला; निर्माण हुआ, विनाश हुआ; उस किरण पहुंचने में चार साल लगेंगे। . | को कुछ भी पता नहीं चलेगा। वह किरण जब चली थी, तब पृथ्वी अभी तक वैज्ञानिक मानते हैं कि हम उस रफ्तार से कभी चल नहीं थी; और जब यहां से गुजरेगी, तब फिर पृथ्वी शून्य हो गई न सकेंगे, क्योंकि उस रफ्तार पर कोई भी चीज, उतनी रफ्तार | होगी। उस किरण के लिए इस स्थान पर कभी कोई घटना ही नहीं पकड़ते ही सूर्य की किरण बन जाएगी। जो भी वाहन हम उपयोग घटी। हमारा सारा इतिहास, लंबे से लंबा इतिहास भी उस किरण करेंगे, जो यात्रा का साधन उपयोग करेंगे, वह किसी भी धातु का | की यात्रा के बीच में पता ही नहीं चलेगा। लेकिन यह भी अंतिम हो, उतनी रफ्तार पर वह सूर्य की किरण हो जाएगा। और उसके सूर्य नहीं है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि इस विस्तार का कोई अंत भीतर के यात्री भी किरण हो जाएंगे। उतनी तेज रफ्तार पर इतनी नहीं है। गर्मी पैदा होगी कि जो भी होगा, वह आग हो जाएगा। इसको अगर हम ध्यान में रखें, तो सूर्य जो है, वह इस विराट इसलिए आशा नहीं है अभी कि उतनी रफ्तार पर हम कभी यात्रा का यूनिट है, इकाई है। इस विराट को अगर हम तौलें, तो सूर्य से कर सकेंगे। अब तक की जो व्यवस्था है, उसमें कोई संभावना नहीं | तौल सकते हैं। एक-एक सूर्य का अपना-अपना सौर-परिवार है। दिखाई पड़ती। एक ही संभावना है, जो कि अभी बिलकुल कल्पना पृथ्वी है, चांद है, मंगल है, बृहस्पति है, यह सब एक सूर्य का है, वह संभावना यह है कि सूरज की किरण की हैसियत से, सूरज परिवार है। वैज्ञानिक कहते हैं, ये सब सूर्य से ही पैदा हुए हैं। ये की किरण बनकर ही कोई आदमी यात्रा करे और एक विशेष सब सूर्य के ही टुकड़े हैं। एक सूर्य के नष्ट होने पर उसका पूरा टेंपरेचर पर सूरज की किरण बन जाए और जब दूसरे सूरज पर परिवार नष्ट हो जाता है। और एक सूर्य के पैदा होने पर उसका पूरा पहुंचे, तो वापस टेंपरेचर पर आदमी बनाया जा सके, री-कनवर्ट परिवार निर्मित होता है। जिस दिन हमारा सूर्य नष्ट हो जाएगा, उस किया जा सके। लेकिन वह शायद हजारों-लाखों वर्ष बाद कभी | दिन सब हमारे सूर्य का परिवार नष्ट हो जाएगा। संभव हो सके। और यह कोई अनहोनी घटना नहीं है। रोज सैकड़ों सूर्यों के चार वर्ष लगेंगे हमें, जो निकटतम सूर्य है वहां तक पहुंचने में। | परिवार नष्ट होते हैं और रोज नए सैकड़ों सूर्यों के परिवार जीवित लेकिन वह निकटतम है, उससे दूर सूर्य हैं। और अब तक होते हैं, जन्म लेते हैं। जब एक सूर्य कहीं मरता है, तो तत्काल दूसरा 115 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 सूर्य कहीं पैदा हो जाता है, क्योंकि उसकी निकली हुई सारी किरणें| | निश्चित था कि स्वर्ग उसे मिलने वाला है। और दिन-रात ईश्वर पुनः दूसरी जगह संगठित हो जाती हैं। का ही गुणगान किया। स्वाभाविक था कि उसके मन में गहरी आशा सूरज भी रोज चुकता चला जाता है। हमारी जमीन को यह सूरज | | हो कि स्वर्ग के द्वार पर स्वयं ईश्वर ही मेरा स्वागत करेगा। कोई चार अरब वर्ष से प्रकाश दे रहा है। उसका प्रकाश रोज कम लेकिन जब वह धर्मगुरु स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा, तो वह बहुत होता जा रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं, कोई चार हजार साल और, और | मुश्किल में पड़ गया। द्वार इतना बड़ा था कि उस धर्मगुरु को उसका सूरज का ईंधन चुक जाएगा, वह ठंडा पड़ जाएगा, बुझ जाएगा। | ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ता था। उसने बहुत ताकत लगाकर द्वार उसके बुझते ही सब बुझ जाएगा। हमारा सौर-परिवार बुझ जाएगा। | को पीटा। लेकिन उसको खुद भी समझ में आ गया कि इतना बड़ा लेकिन तब तक उसकी सारी किरणें किसी दूसरे कोने में विराट | द्वार है, यह मेरे हाथ की आवाज भीतर तक पहुंच नहीं सकती। तब के इकट्ठी होकर नए सूर्य को जन्म दे देंगी और नया सूर्य-परिवार | उसका चित्त उदास भी होने लगा। क्योंकि सोचा था, बैंड-बाजे के निर्मित हो जाएगा। जैसे एक व्यक्ति मरता है और बच्चे को जन्म | साथ ईश्वर खुद मौजूद होगा। वहां कोई भी नहीं था। न मालूम दे जाता है, ऐसे ही सूरज भी मरते रहते हैं और नए सूर्यों को जन्म | कितने वर्ष उसे बीतते मालूम पड़ने लगे। चीखता है, चिल्लाता है। देते चले जाते हैं। इस विराट की व्यवस्था में सूरज छोटी से छोटी | | रोता है। छाती पीटता है, दरवाजा पीटता है। चीज है। फिर एक खिड़की खुली और एक चेहरा बाहर झांका। हजार इसलिए कृष्ण ने कहा कि ज्योतियों में मैं किरणों वाला सूर्य हूं। | आंखें थीं और एक-एक आंख जैसे एक-एक सूर्य हो! वह इस विराट की दृष्टि से सूर्य छोटी से छोटी चीज है, लेकिन हमारे | घबड़ाकर नीचे दुबक गया और चिल्लाने लगा कि थोड़ा पीछे हट अनुभव और अर्जुन की समझ में आने वाली सूर्य सबसे बड़ी चीज | जाएं। हे परम पिता, हे परमेश्वर, आपके प्रकाश को मैं नहीं सह है। सूर्य हमारे अनुभव में आने वाली सबसे विराट घटना है। सकता हूं। आप थोड़ा पीछे हट जाएं। अस्तित्व की दृष्टि से सूर्य सबसे छोटी चीज है। कृष्ण अगर अपनी लेकिन उस आदमी ने कहा कि क्षमा करें। आप भूल में हैं। मैं तरफ से बोलें, तो अर्जुन की समझ में नहीं आता है। इसलिए कृष्ण | | सिर्फ यहां का पहरेदार हूं। मैं कोई परमेश्वर नहीं हूं। परमेश्वर का अब अर्जुन की तरफ से बोल रहे हैं। सबसे छोटी चीज को वे कह | | मैंने कभी कोई दर्शन नहीं किया। मैं सिर्फ यहां का पहरेदार हूं। रहे हैं। अर्जुन के लिए वह सबसे बड़ी है। परमेश्वर और मेरे बीच बड़ा फासला है। वहां तक पहुंचने की अभी ध्यान रखें, सारे वक्तव्य रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं। जब भी हम | मेरी सुविधा नहीं बन पाई। कहते हैं छोटा और बड़ा, तो किसी की तुलना में कहते हैं। अर्जुन | | तब तो वह धर्मगुरु बहुत घबड़ाया। एक कीड़े-मकोड़े की तरह की दृष्टि से सूरज बड़ी से बड़ी घटना है। इससे बड़ी और कोई | | दुबककर वह नीचे बैठ गया। और उसने कहा, फिर भी, आप अगर घटना क्या हो सकती है! कृष्ण की दृष्टि से सूरज छोटी से छोटी | परमेश्वर तक खबर पहुंचा सकें या कोई उपाय करें, कहें कि मैं घटना है; छोटी से छोटी इकाई है। पृथ्वी से आया हूं, फला-फलां धर्म का मानने वाला, फला-फलां बड रसेल ने एक बहुत प्यारी कहानी लिखी है। बड रसेल ने धर्म का सबसे बड़ा धर्मगुरु। लाखों लोग मेरी पूजा करते हैं, लाखों थोड़ी ही कहानियां लिखी हैं। वे कोई कहानी-लेखक नहीं थे। लेकिन लोग मेरे चरणों में गिरते हैं। मैं आ रहा हूं, मेरी खबर कर दें। मेरा कुछ बातें कहनी हों और ऐसी हों कि दर्शन की भाषा में न कही जा यह-यह नाम है। सकें, तो कभी-कभी कहानियों की भाषा में कही जा सकती हैं। तो | तो उस द्वारपाल ने कहा कि क्षमा करें। आपके नाम का तो पता रसेल ने लिखी है एक कहानी। उस कहानी को नाम दिया है, एक लगाना बहुत कठिन पड़ेगा। आपके संप्रदाय का भी पता लगाना धर्मगुरु का दुखस्वप्न-नाइटमेयर आफ ए थियोलाजियन। । बहुत कठिन पड़ेगा। आप किस पृथ्वी से आ रहे हैं, उसका नाम एक धर्मगुरु रात सोया और उसने स्वप्न देखा कि उसकी मृत्य बताइए। उस धर्मगर ने कहा, किस पथ्वी से। पथ्वी तो बस एक हो गई है। तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ। क्योंकि जीवन में कभी उसने ही है, हमारी पृथ्वी! उस द्वारपाल ने कहा कि आपका अज्ञान गहन कोई पाप नहीं किया था कि नर्क जाने का भय उसे लगे। न कभी | है। अनंत-अनंत पृथ्वियां हैं इस विराट विश्व में। किस पृथ्वी से झूठ बोला, न कभी बेईमानी की, न किसी का दिल दुखाया। | आते हो, इंडेक्स नंबर बोलो! तुम्हारी पृथ्वी का नंबर क्या है? 116 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगुण प्रतीक-सृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के 8 वह धर्मगुरु बड़ी मुश्किल में पड़ गया। किसी धर्मशास्त्र में भी | जीवन प्रकट होता है और लीन होता है। पृथ्वी का कोई इंडेक्स नंबर दिया हुआ नहीं था। क्योंकि सभी हेराक्लतु की बात हमें ठीक शायद न भी मालूम पड़े, लेकिन धर्मशास्त्र इसी पृथ्वी पर पैदा हुए हैं। और यह मानकर चलते हैं कि | अब वैज्ञानिक कहते हैं कि विद्युत ही जीवन है। विद्युत नई भाषा है, यही पृथ्वी सब कुछ है। लेकिन विद्युत आग है। और अगर हिंदू कहते थे कि सूर्य ही जीवन धर्मगुरु को दिक्कत में देखकर उस द्वारपाल ने कहा कि अगर | है, तो यह भाषा कितनी ही पुरानी हो, लेकिन इसका अर्थ वही है। तुम्हें पृथ्वी का कोई नंबर याद न हो, तो तुम किस सूर्य के परिवार से सूर्य कहे कोई, अग्नि कहे कोई, विद्युत कहे कोई, लेकिन जीवन आते हो, उसका इंडेक्स नंबर बोलो। किस सूर्य के परिवार से आते | | किसी न किसी रूप में अग्नि के ही स्फुल्लिगों से जुड़ा हुआ है। हो? तो कुछ खोज-बीन हो सकती है, अन्यथा बड़ी कठिनाई है। कृष्ण कहते हैं कि मैं समस्त प्रकाशों में सूर्य हूं। धर्मगुरु इतना घबड़ा गया! सोचता था, उसकी भी खबर होगी। यह इशारा कर रहे हैं अर्जुन को कि तू समझ सके, सूर्य पर रुक परमात्मा को। बड़ा धर्मगुरु है। हजारों उसके मानने वाले हैं। सोचता | | जाना नहीं है। कृष्ण कहते हैं कि मैं समस्त प्रकाशों में सूर्य हूं। सिर्फ था, मेरी खबर होगी। मेरे मंदिर, मेरे चर्च की खबर होगी। लेकिन | | एक तुलना, प्रकाशों में एक इशारा, कि अर्जुन की आंख सूरज तक यहां उस पृथ्वी का ही कोई पता नहीं। यहां उस सूर्य के लिए भी नंबर उठ सके, तो फिर सूरज के पार भी ले जाया जा सकता है। इसी बताना जरूरी है। और तब भी उसने कहा कि अनेक वर्ष लग जाएंगे, | कारण बहुत-सी भ्रांतियां हुईं। तभी खोज-बीन हो सकती है कि आप कहां से आते हैं। ___ भारत में भी हिंदू विचार ने सूर्य को परम देवता माना। लेकिन घबड़ाहट में उसकी नींद खुल गई, वह पसीने से तरबतर था। जैनों और बौद्धों ने इसका विरोध किया। उनका विरोध भी सही है यह सपना देख रहा था। और हिंदओं का मानना भी सही है। उनका विरोध ऊपर के __ आदमी अपने को केंद्र मान लेता है, नासमझी के कारण। आदमी | दृष्टिकोण से है। क्योंकि वे कहते हैं कि क्या सूरज को कहते हैं कि अपने को मान लेता है कि मैं आधार में हूं, नासमझी के कारण। | परमात्मा! परमात्मा बहुत विराट है, सूरज बहुत क्षुद्र है। अस्तित्व बहुत विराट है। वह ठीक वैसा ही झगड़ा है कि वे कहते हैं कि क्या कहते हैं कि इस विराट अस्तित्व की बात तो अर्जुन के समझ में नहीं आएगी। ग गणेश का! ग तो अनंत-अनंत चीजों का है; गणेश से क्यों इसलिए कृष्ण कहते हैं, समस्त ज्योतियों में, समस्त प्रकाशों में मैं | बांधते हैं? सूर्य हूं। लेकिन प्राथमिक चरण में ग गणेश का उपयोगी है। और प्राथमिक यह अर्जुन की भाषा में समझ में आ सके, वहां परमात्मा के लिए चरण में सूर्य भी अगर परमात्मा बन जाए, तो उपयोगी है। प्रतीक निर्मित करना है। इसलिए सारे धर्मों ने प्रतीक निर्मित किए। सच बात यह है कि कोई भी प्रतीक, कितना ही छोटा क्यों न हो, सूर्य भी बहुत धर्मों के लिए परमात्मा का प्रतीक रहा है। उसका कुल | | अगर किसी की दृष्टि में ईश्वर बन जाए, तो वह व्यक्ति ऊपर उठना कारण इतना है कि हमारे अनुभव में सूर्य सबसे ज्यादा प्रकाशवान शुरू हो जाता है। यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि प्रतीक क्या है। है। और हमारे अनुभव में सूर्य ही प्राणों का केंद्र है। और हमारे महत्वपूर्ण यह है कि किसी प्रतीक को परमात्मा जानने का भाव, अनुभव में हमारे जीवन का समस्त आधार सूर्य है। परमात्मा मानने का भाव अगर किसी में पैदा हो गया, तो ऊर्ध्व गति इसलिए हजारों साल पीछे भी हम लौट जाएं, अशिक्षित से | शुरू हो जाती है। अशिक्षित, जंगली से जंगली आदमी का समाज रहा हो, सूर्य के । परमात्मा न मानने से, किसी भी चीज को परमात्मा मान लेना लिए हाथ जोड़कर वह नमस्कार करता रहा है। सूर्य, पृथ्वी के | | बेहतर है। वह चीज परमात्मा है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। अनेक-अनेक कोनों में परमात्मा का प्रतीक बन गया है। और फिर | वह मान लेने वाला, मानने के साथ ही यात्रा पर निकल जाता है। उस प्रतीक से हम और छोटे प्रतीक बनाते हैं। आग भी परमात्मा | सूर्य को भी कोई ईश्वर मानता हो, और वृक्ष को भी कोई ईश्वर का प्रतीक बन गई, क्योंकि वह भी सूर्य का अंश है। | मानता हो, और नदी को भी कोई ईश्वर मानता हो, तो बातें बहुत — हेराक्लतु ने यूनान में कहा है कि फायर, आग ही समस्त जीवन प्राथमिक मालूम होती हैं, लेकिन न मानने वाले से यह व्यक्ति भी का आधार है। आग ही जीवन है। आग के ही विभिन्न क्रमों में अंतर्जीवन में ज्यादा गति कर जाएगा। कहीं भी कोई है, जहां यह Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-508 सिर रख सकता है चरणों में। कहीं भी कोई है, जहां अहंकार | नृत्य-ऐसा ज्यादा है। विसर्जित हो सकता है। कहीं भी कोई है, जहां अपने से बड़ा माना | कृष्ण को हम बिना बांसुरी के सोच ही नहीं सकते। कृष्ण से छीन जा सकता है, अपने से ऊपर देखा जा सकता है, अपने से पार जाने | लें बांसुरी, तो कृष्ण का सब कुछ छिन जाता है। बुद्ध के पास का रास्ता खुल जाता है। बांसुरी रखें, बहुत असंगत मालूम पड़ेगी, इररेलेवेंट। बुद्ध से __ अपने से निरंतर पार होते जाना ही साधना है। अपने से निरंतर उसका कोई संबंध नहीं जुड़ेगा। महावीर के हाथ में बांसुरी दे दें, ऊपर उठते जाना ही क्रम है। उस सीमा तक अपने से ऊपर उठते और महावीर सामने खड़े हों, तो आप सोच भी नहीं पाएंगे कि हाथ जाना है, जब तक कि अपनापन बचे। जब अपनापन बचे ही नहीं, में जो चीज है, वह बांसुरी हो सकती है! तो जानना कि अंतिम मंजिल आ गई। सुना है मैंने, एक अंग्रेज विचारक भारत आया हुआ था। वह __ कृष्ण ने कहा कि मैं सूर्य हूं प्रकाशों में, वायु देवताओं में मरीचि | शिव के एक मंदिर को देखने गया था। बाहर तो बड़ी धूप थी, तो हूं, श्रेष्ठतम, सबसे तीव्र गति वाला देवता हूं। नक्षत्रों में नक्षत्रों का उसने अपना टोप लगा रखा था। भीतर तो छाया थी गहन और अधिपति चंद्रमा हूं। ठंडक थी, तो उसने शिव की पिंडी के पास ही अपना टोप उतारकर ये सब प्रतीक हैं। और जो भी श्रेष्ठतम है, उसकी तरफ कृष्ण | रख दिया और मंदिर को घूमकर देखने लगा। जब वह खुद दरवाजे इशारा कर रहे हैं। पर मंदिर के आया और उसने लौटकर देखा, तो अपने मित्र से जो और मैं वेदों में सामवेद हूं, देवों में इंद्र हूं, इंद्रियों में मन हूं, | साथ में था, एक हिंदुस्तानी, उससे उसने पूछा कि शिव की पिंडी भूत-प्राणियों में चेतना अर्थात ज्ञान हूं। के पास जो चीज रखी है, वह क्या है? यह अंतिम सूत्र बहुत समझने जैसा है। ___ तो शिव की पिंडी के पास हैट का क्या संबंध! तो उसके मित्र वेदों में सामवेद हूं! यह बड़ी हैरानी का मालूम होता है। क्योंकि | को खयाल आया कि मालूम होता है, शिव का घंटा किसी ने उलटा हमको लगेगा, कहना था, वेदों में ऋग्वेद हूं। प्रथम और सर्वाधिक | | रख दिया है। एसोसिएशंस होते हैं। शिव के पास हैट का क्या मूल्य का समझा जाने वाला वेद तो ऋग् है। कृष्ण ने क्यों कर | संबंध होगा? सामवेद चुना होगा? और सब तो ठीक है कि प्रकाशों में सूर्य हूँ | __ हम जो देखते हैं, उसमें सिर्फ देखते ही नहीं, उसमें हमारी और वायु देवताओं में मरीचि हूं, यह ठीक है। अदिति के पुत्रों में व्याख्या भी होती है। अगर महावीर के हाथ में बांसुरी हो, तो हम विष्णु हूं, यह ठीक है; इसमें कोई अड़चन नहीं, कोई दुविधा नहीं। सोच ही नहीं सकते कि बांसरी है। महावीर और गीत का कोई संबंध लेकिन यह आखिरी वक्तव्य बहुत दुविधापूर्ण है कि मैं वेदों में | नहीं। महावीर और काव्य में क्या लेना-देना! कृष्ण के हाथ में सामवेद हूं। और पंडितों को बड़ी कठिनाई पड़ी है, इसको, सामवेद | बांसुरी, कृष्ण के अंतरतम का प्रतीक हो जाती है। को श्रेष्ठतम रखने में। ऋग्वेद के ऊपर रखना इसे बहुत मुश्किल | इसलिए कृष्ण ने जब अर्जुन को कहा कि मैं वेदों में सामवेद हूं, है। लेकिन कृष्ण ने यह क्यों पसंद किया होगा? तो यह सार्थक है। इसमें कृष्ण ने यह कहा कि शब्द और सिद्धांत पुनः ऋग्वेद और सामवेद का सवाल नहीं है, पुनः अर्जुन का और शास्त्र मैं नहीं हूं। गीत, संगीत, लय और नृत्य मैं हूं। और सवाल है। और अर्जन को देखकर ही बात की जा रही है। यह भाषा | जीवन का जो परम रहस्य है, वह सिद्धांतों से नहीं हल होता, अर्जुन के लिए है। और कृष्ण के व्यक्तित्व का भी सवाल है। और क्योंकि सिद्धांतों से तो एक दूरी बनी रहती है। जीवन का जो परम कृष्ण के व्यक्तित्व में भी सामवेद ही श्रेष्ठ मालूम पड़ेगा। और | रहस्य है, वह तो किसी तल्लीनता में पूरा होता है। कृष्ण अपना तादात्म्य भी ऋग्वेद से नहीं कर पाते हैं, सामवेद से ___सामवेद तल्लीनता का शास्त्र है। इसलिए ऋग्वेद को कृष्ण ने कर पाते हैं। | नहीं कहा; सामवेद को कहा। यह खुद उनके व्यक्तित्व की भी सामवेद संगीत का, गीत का वेद है; पांडित्य का नहीं, सिद्धांत झलक है उसमें, और अर्जुन को भी समझ में आ सके। इसे भी का नहीं, गीत का, संगीत का। कृष्ण का व्यक्तित्व एक गणित के थोड़ा हम समझ लें कि अर्जुन की समझ में क्यों आ सके। सिद्धांत की बजाय, गीत की कड़ी जैसा ज्यादा है। कृष्ण का अर्जुन खुद भी कोई तर्क-शास्त्री नहीं है; एक योद्धा है। और व्यक्तित्व एक शुद्ध चिंतन, शुद्ध विचार-ऐसा कम; शुद्ध कई बार हमें ऐसा भी लग सकता है कि एक योद्धा का गीत से, 118| Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ सगुण प्रतीक-सृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के 8 संगीत से क्या संबंध? विपरीत मालूम पड़ते हैं ऊपर से देखने में। समुराई कहते हैं कि जब दुश्मन हमला करे, तो समय इतना कम कहां तलवार और कहां बांसुरी! | है कि उसकी तलवार आपकी गर्दन को काट जाएगी, अगर उसके लेकिन जो गहन अध्ययन करते हैं जीवन का, वे कहते हैं कि | | हमले का खयाल-हमला नहीं, हमले का खयाल ही-अगर योद्धा भी जब युद्ध की सघनता में पूरा डूबता है, तो वैसा ही डूब आपका मन पकड़ ले और आपकी तलवार पहले ही आपके गले जाता है, जैसा कोई संगीतज्ञ अपने संगीत में डूबता हो और जैसे | की रक्षा को उठ जाए, तो ही आप बच सकेंगे। कोई नर्तक अपने नृत्य में डूबता हो। जब कोई योद्धा तलवार चला समुराई शास्त्र कहता है कि विचार से जो लड़ने जाएगा, वह रहा होता है, तो तलवार के साथ इतना एक हो गया होता है कि | हारेगा। ध्यान से जो लड़ने जाएगा, वह दूसरे के विचार उसके ध्यान तलवार ही होती है, योद्धा नहीं होता। युद्ध का अपना एक संगीत | में प्रतिफलित होने लगते हैं। शांत मन दूसरे के विचारों को है, और युद्ध का अपना एक काव्य है, और युद्ध की अपनी एक प्रतिफलन देने लगता है। इसके पहले कि दूसरे के विचार में आए लयबद्धता है। कि मैं हमला करूं गर्दन पर, रक्षा की व्यवस्था हो जाएगी। इसलिए ___ जापान में तो समुराई होते हैं। वे ठीक जैसा भारत ने क्षत्रियों का | | दो समुराई जब लड़ते हैं, तो तय नहीं हो पाता, जीत-हार तय नहीं एक गहन प्रयोग किया था, उससे भी गहन प्रयोग जापान ने | हो पाती। असंभव है। समुराइयों का किया है। समुराई जापान के क्षत्रियों का नाम है। इस अर्जुन को भी समझ में आ सकता है यह, क्योंकि अर्जुन के समुराई को तलवार चलाना भी सिखाया जाता है, नृत्य भी सिखाया | शरीर को अगर हम समझें, तो वह किसी नर्तक से कम नहीं उसके जाता है, ध्यान भी सिखाया जाता है। और जब तक नृत्य, ध्यान | | पास शरीर था। नर्तक जैसा ही लोचपूर्ण, फ्लेक्सिबल शरीर चाहिए और तलवार तीनों में कुशल न हो जाए समुराई, तब तक ठीक युद्ध के लिए भी। अर्जुन समझ सकता है; गीत को भी समझ योद्धा नहीं माना जाता। सकता है; संगीत को भी समझ सकता है; नृत्य को भी समझ क्योंकि नृत्य का अर्थ ही यही है कि शरीर का एक-एक अंग सकता है। एक युद्ध के नृत्य को वह जानता भी है। एक युद्ध के जीवित हो गया। भौर शरीर सिर्फ सिर से नहीं चलता है अब, शरीर संगीत को भी वह जानता है। उसमें जरा भी लय टूट जाए, तो उसे का रो-रोआं सचेतन हो गया। एक नर्तक तो हो भी सकता है पता है। जीवन के एक गहरे काव्य का उसे अनुभव है। कि शरीर के किसी अंग में जड़ हो, लेकिन युद्ध के मैदान पर जहां यह जरा कठिन मालूम पड़ेगा। लेकिन योद्धा जिस जीवन को तलवार हाथ में होगी और जीवन संकट में होगा, शरीर का एक भी अनुभव कर पाता है, उसे घर बैठे लोग कभी अनुभव नहीं कर अंग जड़ नहीं होना चाहिए। शरीर के सभी अंग चेतन होने चाहिए; | | पाते। शायद जीवन अपनी पूरी प्रगाढ़ता में युद्ध के मैदान में ही रोआं-रोआं सजग होना चाहिए; और शरीर एक तरलता बन जानी प्रकट होता है। जहां मौत चारों तरफ मौजूद हो जाती है, वहां आप चाहिए कि तलवार के साथ शरीर बह सके। पूरी इंटेंसिटी में जीवित होते हैं। जब मौत प्रतिपल आपको चारों समुराई को ध्यान भी सिखाते हैं। क्योंकि जापान में वे कहते हैं | | तरफ से घेर लेती है, और किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है, उस कि जो ध्यान में नहीं उतर सकता, वह बड़ा योद्धा नहीं हो सकता। | दिन आपके जीवन की ज्योति पूरी भभककर जलती है। शायद युद्ध क्योंकि अगर थोड़े से विचार मन में चल रहे हैं, तो तलवार और | | का आनंद भी वही है। विचारों के बीच में आने से योद्धा परा का परा उतर नहीं पाएगा। | लेकिन हवाई जहाज से बम गिराने से उसका कोई संबंध नहीं विचार शांत हो जाने चाहिए, ताकि योद्धा पूरा का पूरा उतर जाए। है। हवाई जहाज से बम गिराना, युद्ध का संगीत भी नष्ट हो जाता ___एक अनहोनी घटना घटती रही है जापान में। कभी अगर दो बड़े | | है। युद्ध की सारी कुरूपता तो मौजूद रह जाती है, और युद्ध का समुराई योद्धा युद्ध में उतर जाएं, तो हार-जीत तय नहीं हो पाती। | सारा सौंदर्य खो जाता है। आदमी-आदमी का सामने-आमने जो क्योंकि दोनों ही इतने ध्यानपूर्वक युद्ध में उतरते हैं। और ध्यान की | युद्ध था, उसकी एक शान थी, उसमें एक गरिमा थी। बंदूक भी जब गहराई बढ़ती है, तो तलवार को चलाना नहीं पड़ता, तलवार | आदमी-आदमी को दूर कर देती है, युद्ध की गरिमा खो जाती है। चलना शुरू हो जाती है और हमला होने के पहले तलवार रक्षा के लेकिन दो हाथों में तलवार हों, और आमने-सामने दो जीवन लड़ते लिए तैयार हो जाती है। हों; दोनों शांत हों; और दोनों नृत्य से भरे हों; तो उस क्षण में वे 119 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 जिस रहस्य को अनुभव कर पाते हैं, वह समाधि का ही रहस्य है। कारण अशिक्षा है, क्योंकि अशिक्षा आज न्यूनतम है। उसका गहरे इसलिए हमने तो इस देश में क्षत्रिय को नहीं कहा था कि वह | | से गहरा कारण एक है कि किसी व्यक्ति को पता नहीं कि उसका जंगल भाग जाए समाधि के लिए। प्रकार क्या है। और बिना प्रकार के पता के व्यक्ति अपना गंतव्य वही कृष्ण अर्जुन को भी समझा रहे हैं कि तेरी नियति, तेरा खोज रहा है। स्वभाव क्षत्रिय का है। तू अगर जीवन के परम उत्कर्ष को भी जो मेरी मंजिल हो ही नहीं सकती, वह मैं खोज रहा हूं। अगर पाएगा, तो युद्ध से ही पाएगा। भागकर तो तू जंग खा जाएगा। न पाऊं, तो मैं दुखी रहूंगा। और अगर पा लूं, तो भी दुखी होऊंगा, भागकर तो तू बेकार हो जाएगा। तू दूसरे के धर्म की तलाश कर क्योंकि वह मेरी मंजिल नहीं है। मैं अपनी मंजिल को खोजते हुए रहा है। उससे तू अपनी नियति को नहीं पा सकता है; वह तेरी | रास्ते में भी मर जाऊं, तो भी मुझे एक तृप्ति होगी। एक कदम भी डेस्टिनी नहीं है। तू युद्ध से ही...। | मैं अपनी मंजिल के करीब पहुंचं, जो मेरी नियति है, मेरा स्वभाव और निश्चित ही, अर्जुन जैसा व्यक्ति युद्ध के गहन क्षण में ही | है, तो वह कदम मेरे लिए तृप्तिदायी हो जाएगा। लेकिन दूसरे की सत्य के क्षण को उपलब्ध होगा। जब चारों तरफ मृत्यु खड़ी होगी | मंजिल पर भी मैं पहुंच जाऊं, तो भी कोई तृप्ति होने वाली नहीं है। और जब इस मृत्यु के बीच में भी बिना किसी भय के वह संघर्ष में क्योंकि तृप्ति का संबंध मंजिल से कम है, तृप्ति का संबंध आपसे रत होगा; जब संघर्ष प्रतिपल चिंता पैदा करता होगा, तब भी | ज्यादा है। जब आप और मंजिल में ताल-मेल बैठ जाता है, एक निर्विचार, तब भी मौन और ध्यानस्थ, निर्भीक और अभय, वह | लयबद्धता आ जाती है, तब तृप्ति उपलब्ध होती है। युद्ध में लीन होगा, तभी, उसी गहराई में वह समाधि को जानेगा। अर्जुन के लिए युद्ध ही उसकी मंजिल का रास्ता है। जंगल की समाधि उसके लिए नहीं हो सकती। अर्जुन समझ सकेगा कृष्ण की इस बात को, इसलिए वे कहते कृष्ण से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति खोजना जगत में मुश्किल है, | हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूं। सामवेद से वे इतना ही कह रहे हैं कि जो व्यक्तियों के टाइप को, उनके स्वभाव को इतनी प्रगाढ़ता से मैं समस्त ध्वनियों में लयबद्धता हूं। मैं समस्त ध्वनियों में संगीत पहचानता हो। अब तक मनुष्य-जाति ठीक अर्थों में व्यक्ति के प्रकार | | हूं। मैं समस्त शब्दों में संगीत हूं। और संगीत हो किसी शब्द में, का विज्ञान विकसित नहीं कर पाई। बहुत प्रयास किए गए हैं। लेकिन | तो मैं वहां मौजद हैं। अब तक कोई प्रयास बहुत गहन रूप से सफल नहीं हो सका। देवों में इंद्र हूं और इंद्रियों में मन हूं। अभी नए-नए, कुछ ही वर्ष पहले कार्ल गुस्ताव जुंग ने बहुत | देवों में इंद्र हम समझ सकते हैं। श्रेष्ठतम देव इंद्र है, देवताओं मेहनत की और व्यक्तियों के चार प्रकार बांटे। लेकिन हिंदू, | का राजा है, इसलिए कृष्ण कहते हैं। इंद्रियों में मन हूं, यह थोड़ा व्यक्तियों के चार प्रकार लाखों वर्ष से बांटते रहे हैं। और बीसवीं समझना पड़ेगा। सदी का कोई बड़े से बड़ा मनोवैज्ञानिक पुनः यह कहेगा कि व्यक्ति साधारणतः हम सोचते हैं, इंद्रियां अलग हैं और मन अलग है। चार प्रकार के हैं...! जब कि हिंदुस्तान में थोड़े अधकचरे | | इसलिए तो हम पांच इंद्रियों की बात करते हैं। अगर हम मन को पढ़े-लिखे लोग, सारी पुरानी पद्धति को तोड़ने में संलग्न हों, इस | भी इंद्रिय समझें, तो हमें छः इंद्रियों की बात करनी चाहिए। हम सब खयाल से कि वे कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी कार्य कर रहे हैं, तब | कहते हैं, आदमी पंचेंद्रिय है। कृष्ण के हिसाब से आदमी के पास पश्चिम में पुनः इस संबंध में सोच-विचार शुरू हो गया है कि | छः इंद्रियां हैं, पांच नहीं। मन भी एक इंद्रिय है। सूक्ष्मतम, श्रेष्ठतम, व्यक्ति विभाजित है, उनके प्रकार विभाजित हैं। और जो व्यक्ति का | लेकिन मन भी एक इंद्रिय है। प्रकार है, वही प्रकार उसके आनंद का मार्ग बन सकता है। दूसरे इसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें। किसी भी मार्ग से जाकर वह दुख पाएगा। आंख देखती है। कान सुनता है। हाथ छूते हैं। नाक से गंध आती और अगर आज पृथ्वी पर बहुत गहन दुख हो गया है, तो उसका है। जीभ से स्वाद आता है। ये सारी इंद्रियां इकट्ठा करती हैं। मन, बड़े से बड़ा कारण न तो गरीबी है. क्योंकि गरीबी सदा से थी. आज इन सब इंद्रियों से जो इकट्ठा होता है. उसका नाम है। मन सभी से ज्यादा थी। न उसका कारण बीमारी है, क्योंकि बीमारी आज | इंद्रियों का संग्रह है। आंख देखती है आपको, आवाज कान सुनते सबसे कम है, बहुत ज्यादा बीमारी इसके पहले थी। न उसका | हैं। मन तय करता है कि जिसको देखा, उसी को सुना है। क्योंकि 1200 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 सगुण प्रतीक-सृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के 8 आंख यह जोड़ नहीं कर सकती। आंख सिर्फ देख सकती है। आंख सकतीं। अगर आपका मन बेहोश हो जाए, तो सब इंद्रियां काम बंद को यह पता नहीं चलेगा कि जिसको मैं देख रहा हूं, वही बोल भी | | कर देती हैं। जब आप शराब पीते हैं, तो आपकी इंद्रियों पर रहा है। आंख को यह पता नहीं चलेगा। अलग-अलग शराब का असर नहीं पड़ता। असर तो पड़ता है मन कान को यह पता नहीं चलेगा कि जिसको मैं सुन रहा हूं, आंख | | पर। लेकिन चूंकि केंद्रीय बिंदु बेहोश हो जाता है, सभी इंद्रियां उसी को देख भी रही है। आंख और कान के बीच कोई सेतु नहीं | | बेकार हो जाती हैं। इंद्रियां फिर भी काम करती रहती हैं। कान फिर है। आंख और कान के बीच कोई लेन-देन नहीं है. कोई। | भी सुनता है, लेकिन मन नहीं पकड़ पाता। आंख फिर भी देखती कम्युनिकेशन नहीं है। कान देख नहीं सकता, आंख सुन नहीं | | है, लेकिन मन नहीं पकड़ पाता। सकती। तो कैसे कान तय करता है कि जिसको आंख ने देखा है, इसलिए शराबी आदमी आप देखते हैं सड़क पर चलता हुआ, उसी को मैंने सुना है। इन दोनों के बीच कोई बोलचाल नहीं है। | एक पैर कहीं पड़ता है, दूसरा पैर कहीं पड़ता है। पैर अभी भी चलते पांचों इंद्रियां अलग-अलग हैं। और अगर पांचों इंद्रियां | | हैं, लेकिन अब दोनों पैरों के बीच में भी जोड़ रखने वाला तत्व बिलकुल अलग-अलग हों, तो आप इसी वक्त टूटकर गिर बेहोश होने से कोई व्यवस्था नहीं रह जाती; सब अस्तव्यस्त हो जाएंगे, आपके भीतर ज्ञान की घटना ही नहीं घट पाएगी। पैर कहीं जाता है। कुछ देखते हैं, कुछ सुनाई पड़ता है। कुछ बोलते हैं। जो जाएंगे, आंख कुछ देखेगी, कान कुछ सुनेगा। इसको जोड़ेगा नहीं बोलना चाहते थे, वह निकल जाता है। जिस तरफ नहीं जाना कौन? इसको इकट्ठा कौन करेगा? इसको एक फोकस कौन देगा? | | था, वहां चले जाते हैं। जो नहीं करना था, वह कर लेते हैं। मन इंद्रियों का जोड़ है। सारी इंद्रियां अपने अनुभव को मन में मन समस्त इंद्रियों का सार है, सूक्ष्मतम, इसेंस। कृष्ण उसे भी उंडेल देती हैं। मन उन्हें इकट्ठा कर लेता है. संयक्त कर लेता है। | इंद्रिय कहते हैं। उनकी व्याख्या करता है, उनको नियोजित करता है। लेकिन मन भी | । अर्जुन को क्यों इंद्रियों से समझाने की जरूरत पड़ी? कहना तो एक इंद्रिय है, इसीलिए। पांचों इंद्रियों की केंद्रीय इंद्रिय है मन। | | चाहिए कृष्ण को उन्होंने कहा भी–कि मैं आत्मा हूं, कहा कि समझें कि पांच रास्ते हैं और मन उनका बीच का जोड़ है, जहां | | मैं हृदय हूं, और अब इस सूत्र में वे कहते हैं कि समस्त इंद्रियों में पांचों रास्ते मिल जाते हैं। मन आंख से देखता है, कान से सुनता | मैं मन हूं! यह बहुत नीचे उतरकर बात करनी पड़ रही है। पहला है, हाथ से छूता है, ऐसा समझें। या ऐसा समझें कि हाथ छूते हैं, | | वक्तव्य है कि मैं हृदयों में हृदय, सबकी आत्माओं की आत्मा! कान सुनते हैं, आंख देखती है और ये तीनों संवेदनाएं मन को | | और अब कृष्ण को कहना पड़ रहा है कि मैं इंद्रियों में मन। उपलब्ध हो जाती हैं। मन इनको जोड लेता है. इकट्ठा कर लेता है। अर्जन शायद आत्मा की बात नहीं समझ पाया। उसे शायद पता लेकिन मन इंद्रियों से जुड़ा हो, तो इंद्रियों से ज्यादा नहीं हो सकता। ही नहीं है कि आत्मा क्या है? शब्द सुन लिया, उसकी समझ में और मन अगर इंद्रियों का ही जोड़ करने वाला हो, तो इंद्रियों से कुछ आया नहीं होगा। कृष्ण ने देखा होगा, उसकी आंख में कोई ऊपर नहीं हो सकता। मन इंद्रियों से पार नहीं हो सकता। मन भी | | भाव नहीं उठा। शब्द सुन लिया उसने, लेकिन शब्द से कोई इंद्रियों का ही हिस्सा है। प्रतिध्वनि पैदा नहीं हुई। भीतर कोई संगीत नहीं छिड़ा। भीतर कोई इसलिए अगर आपकी आंख चली जाए, तो आपका मन कमजोर | | तार पर चोट नहीं पड़ी। भीतर कुछ हुआ ही नहीं; सन्नाटा रहा। हो जाएगा; आपके मन की संपत्ति कम हो जाएगी। अंधे आदमी के | आत्मा, परमात्मा, हम शब्द तो सुन लेते हैं, कान हमारे पास हैं। पास जो मन होता है, उसकी संपदा कम होगी। क्योंकि आंख का शब्द भीतर गूंजते हैं और निकल जाते हैं। भीतर कुछ उनसे होता कोई अनुभव उसके पास नहीं होगा। बहरे आदमी के पास जो मन नहीं। जब मैं कहूं कि आपके भीतर आत्मा है; कहूं, आपके भीतर होगा, उसका मन और भी संकीर्ण और दरिद्र और गरीब हो जाएगा। | परमात्मा है; तो आपके भीतर कुछ भी होता नहीं। और आपसे मैं अगर हाथ-पैर को छने की क्षमता भी चली जाए, लकवा लग जाए, कहं कि खयाल किया आपने, आपके खीसे में ए का हीरा तो मन और दरिद्र हो जाएगा। अगर आपकी पांचों इंद्रियां अलग कर | | है, तब तत्क्षण कुछ होता है। आपका हाथ फौरन खीसे में जाएगा। दी जाएं, आपका मन तत्काल मुर्दा हो जाएगा, मर जाएगा। और हीरा समझ में आता है, एकदम बात साकार हो जाती है कि मन इंद्रियों के बिना नहीं जी सकता। इंद्रियां बिना मन के नहीं जी क्या है। कोई रूप में अंतर नहीं रहता। कोई भूल-चूक नहीं होती। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 हम समझ जाते हैं, क्या है। , इसलिए अर्जुन शायद नहीं समझ पाया आत्मा के तल की बात, कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों में मैं मन हूं। श्रेष्ठतम इंद्रिय हूं। लेकिन यह बच्चे को समझाने के लिए लिया गया प्रतीक है। क्योंकि कृष्ण इंद्रियों में मन हैं, यह ठीक है, इंद्रियों की तरफ से हम सोचें तो ! और जरा पीछे हटें, तो कृष्ण मन नहीं हैं! मन के भी पीछे जो ज्ञाता है, द्रष्टा है, वह हैं। और पीछे हटें, तो द्रष्टा भी नहीं, क्योंकि द्रष्टा भी दृश्य से बंधा होता है; द्वैत का थोड़ा संबंध होता है । फिर पीछे तो सिर्फ शुद्ध चैतन्य है, सिर्फ ज्ञान की क्षमता। महावीर ने कहा है, केवल ज्ञान, जस्ट नोइंग । फिर तो पीछे सिर्फ ज्ञान मात्र ही रह जाता है; ज्ञाता भी नहीं। लेकिन जितने हम पीछे की, गहरे की बात करें, उतना ही समझना मुश्किल हो जाता है। इसलिए दरवाजे से ही कृष्ण शुरू कर रहे हैं। ऐसा समझें कि एक मंदिर है और मंदिर के गहन गर्भ में प्रतिमा स्थापित है। और एक आदमी से हम बात कर रहे हैं, जो कभी किसी मंदिर के भीतर नहीं गया, मंदिर के बाहर ही खड़ा है। तो कृष्ण उससे कहते हैं कि ये जो दस सीढ़ियां हैं, इसमें दसवीं सीढ़ी मैं हूं। ये सीढ़ियां दिखाई पड़ती हैं। मकान के बाहर से, मंदिर के बाहर से, सीढ़ियां दिखाई पड़ती हैं। कृष्ण कहते हैं, ये जो दस सीढ़ियां हैं, इसमें दसवीं सीढ़ी मैं हूं । इतना भी क्या कम है कि ये नौ सीढ़ियां छूट जाएं और नौ सीढ़ियों के पार आदमी दसवीं पर पहुंच जाए, तो शायद फिर पीछे उससे कहा जा सके कि ये जो दरवाजे दिखाई पड़ते हैं, इसमें दसवां दरवाजा मैं हूं। तो नौ दरवाजे छूट जाएं, दसवें दरवाजे तक पहुंच जाए। और ऐसे क्रमशः अंततः उस जगह ले जाया जा सके, जहां वस्तुतः कृष्ण का होना है। सीढ़ियां भी मंदिर का हिस्सा हैं, निश्चित ही । और जो प्रतिमा मंदिर के गर्भ में स्थापित है, उससे भी सीढ़ियां जुड़ी हैं, निश्चित ही। पहली सीढ़ी भी उसी से जुड़ी है; दसवीं सीढ़ी भी उसी से जुड़ी हैं। लेकिन सीढ़ियां प्रतिमा नहीं हैं। पर अर्जुन मंदिर के बाहर खड़ा है। और उसकी समझ के बाहर है मंदिर के भीतर की भाषा । उससे बाहर की भाषा बोलनी पड़ती है। इस बाहर की भाषा बोलने के कारण बड़ी दुर्घटनाएं हो गई हैं। क्योंकि इन शास्त्रों को पढ़कर फिर हम ऐसा मानकर बैठ जाते हैं। क्योंकि हमको लगता है, कह तो दिया कृष्ण ने कि इंद्रियों में मन मैं हूं। तो ठीक है। तो हम मन को पकड़कर बैठ जाते हैं। दसवीं सीढ़ी की पूजा शुरू कर देते हैं। यह कहा गया है, ताकि नौ सीढ़ियां छूटें, दसवीं पकड़े नहीं । | ध्यान रखना, यह इसलिए नहीं कहा है कि दसवीं पकड़े। यह | इसलिए कहा है कि नौ छूटें। और नौ छूट जाएं, तो फिर दसवीं भी छोड़ी जा सके। लेकिन हम बहुत मजेदार लोग हैं। हम दसवीं तो पहुंचने की बात अलग, नौ को छोड़ने की बात अलग, हम दसवीं को इतने जोर से पकड़ते हैं कि उसकी वजह से नौ भी पकड़ जाती हैं। और दसवीं पर हम इस बुरी तरह रुक जाते हैं कि हमें बाकी नौ पर भी अपना घर बनाना पड़ता है। जब भी कोई परम सत्य को मनुष्य की भाषा में कहा जाए, तो खतरा मोल लेना है। क्योंकि यह भी हो सकता है कि भाषा को छोड़कर परम सत्य तक वह पहुंचे, और यह भी हो सकता है कि परम सत्य को छोड़े और भाषा में जो कहा गया है, उसे पकड़ ले। चांद को इशारा करूं अपनी अंगुली से । यह भी हो सकता है, आप मेरी अंगुली पकड़ लें और कहें कि यही चांद है, क्योंकि आपने ही तो कहा था कि यह रहा चांद चांद तो मैं आकाश की तरफ बताऊं अंगुली से, और अगर आपने चांद कभी देखा न हो और देखें कि ठीक है, अंगुली बताई जा रही है और मैं कह भी रहा हूं कि यह रहा चांद, तो आप मेरी अंगुली पकड़ ले सकते हैं। लेकिन अंगुली से चांद का कोई भी संबंध नहीं है। अंगुली से चांद बताया जा सकता है, संबंध कोई भी नहीं है। इतना ही संबंध | है कि अगर आप अंगुली को छोड़ दें और भूल जाएं और चांद को देखें, तो चांद दिखाई पड़ सकता है। लेकिन अगर आप अंगुली को ही पकड़ लें, तो चांद फिर कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगा। इशारे पकड़ | लिए जाते हैं, और जिसकी तरफ इशारा किया जाता है, वह चूक | जाता है। 3 यह भी इशारा है कि कृष्ण कहते हैं, मैं इंद्रियों में मन हूं। इतना भी क्या कम है कि तुम इंद्रियों से ऊपर उठो । कम से कम पांच से ऊपर उठो, छठवीं पर पहुंचो। कम से कम बाहर की इंद्रियों से ऊपर उठो, भीतर की इंद्रिय पर पहुंचो। थोड़ा तो भीतर प्रवेश होगा। थोड़ा भी भीतर प्रवेश हो, तो और भीतर की संभावना खुल | जाती है, और नए द्वार खुल सकते हैं। लेकिन खतरा भी हम ध्यान रखें। इसे पकड़ा भी जा सकता है; | जोर से पकड़ा जा सकता है । और हम जैसे लोग हैं, जो हमारी | समझ में आए, उसे हम पकड़ लेते हैं। 122 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सगुण प्रतीक—सृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के और धर्म का मामला ऐसा है कि जो-जो आपकी समझ में आए, ठीक से समझ लेना कि उसे पकड़ना नहीं है। जो-जो आपकी समझ में आए, समझ लेना ठीक से कि उसे पकड़ना नहीं है, क्योंकि आपकी समझ में बहुत बड़ी बात नहीं आ सकती। और जो आती है, वह आपकी समझ के अनुसार आएगी। और अगर आपको अपनी समझ बड़ी करनी है, तो धीरे-धीरे जो आपको समझ में आता है, उसे छोड़ना; और जो समझ में नहीं आता, उसको पकड़ने की कोशिश करना । यह बहुत कठिन मालूम पड़ेगा। लेकिन समस्त विकास का मार्ग यही है। जो आपको समझ में आए, उसे धीरे-धीरे छोड़ना; और जो समझ में न आए, धुंधला समझ में आए, उठाना। तो आप आगे बढ़ेंगे। उस तरफ कदम एक आदमी एक सीढ़ी पर खड़ा है। पहली सीढ़ी पर खड़ा है। दूसरी सीढ़ी पर जाना चाहता हो, तो जिस सीढ़ी पर खड़ा है, उसे छोड़ना पड़ेगा। पैर ऊपर उठाना पड़ेगा, जिस पर खड़ा है। और दूसरी सीढ़ी जो अपरिचित है, अनजान है, जिस पर कभी खड़ा नहीं हुआ, उस पर पैर रखना पड़ेगा । और जब एक पैर उस पर रख जाए, तो दूसरा पैर भी पहली सीढ़ी से हटा लेना पड़ेगा। हमें क्रमशः अगर अंतिम की खोज करनी है, तो जो हमारे पास है, उसे धीरे-धीरे छोड़कर और हमें आगे बढ़ते जाना होगा। जो लोग बहुत भयभीत होते हैं, अज्ञात से डरते हैं; जो समझ में नहीं आता, उस तरफ कैसे जाएं; वे लोग अपनी ही समझ में कैद हो जाते हैं। उनकी छोटी-सी समझ उनके लिए यात्रा नहीं बनती, कारागृह बन जाती है। हम सभी लोग अपनी-अपनी बुद्धि में बंद हैं। हम सब अपने-अपने कैदी हैं। जेलर भी कोई नहीं, हम ही जेलर भी हैं। हम हैं। हम ही कारागृह हैं। और हम ही कारागृह पर पहरा देते हैं कि कहीं कैदी बाहर न निकल जाए! यह जो स्थिति बनती है, भय के कारण बनती है। क्योंकि जो हम जानते हैं, वह सुरक्षित है, सिक्योर्ड है। जो हम नहीं जानते, उसमें डर लगता है, उसमें भय लगता है। लगता है, पता नहीं, ठीक चूक जाए और गलत पर पैर पड़ जाए ! लेकिन ध्यान रखना, गलत पर भी पैर पड़े, तो रुके रहने से बेहतर है। भूल भी हो जाए, तो सदा ठीक बने रहने से और रुके रहने से बेहतर है। जो भी आदमी विकास करता है, वह भूलें करता है । करेगा ही। और अगर कोई आदमी कहता है, मुझसे भूलें होती ही नहीं; तो समझ लेना कि वह आदमी विकास कभी भी नहीं करेगा और उसने विकास किया भी नहीं । विकास करने वाला आदमी बहुत भूलें करता है। हां, एक बात है, एक ही भूल दुबारा नहीं करता। भूलें बहुत करता है; एक ही भूल दुबारा नहीं करता। और कहीं भी रुके होने से भूल करना बेहतर है। क्योंकि भूल भी सिखाती है, आगे ले जाती है। अंधेरे में बढ़ना बेहतर है। जो रोशनी में ही घिरे रह जाते हैं - अपना छोटा-सा दीया है बुद्धि का, जितनी रोशनी पड़ती है, उसी के भीतर घेरा लगाते रहते हैं—वे जिंदगी में सत्य से वंचित रह जाएंगे। परम धन्यता उनकी कभी भी नहीं होगी। उनके ऊपर उस प्रसाद की वर्षा कभी नहीं होगी, जो उनके ऊपर होती है, जो इस प्रकाश के घेरे को तोड़कर अंधेरे में भी बढ़ते हैं। ध्यान रहे, अंधेरे में जब हम बढ़ते हैं, तो अंधेरा भी धीरे-धीरे प्रकाश बनने लगता है। और जितना हम अंधेरे से परिचित होते हैं, आंखें जितना अंधेरे को जानने लगती हैं, उतना अंधेरे में भी दिखाई पड़ने लगता है। और एक बार अंधेरे में देखने की क्षमता आ जाए, तो इस जगत में फिर कोई भी अंधेरा नहीं है। और एक बार अंधेरे को भी प्रकाश में बदलने की कला आ जाए, जो कि साहस से बढ़ने वाले आदमी को आ जाती है, तो इस जगत में सब जगह प्रकाश है। फिर कहीं अंधेरा नहीं है। विकासमान चाहिए चित्त। प्रतीक खतरनाक हैं, अगर हम पकड़ लें। मैंने सुना है, एक घर में ऐसा हुआ, छोटे थे बच्चे और बाप मर | गया। मां पहले मर चुकी थी। छोटे ही थे बच्चे, बड़े हुए। बाप के | बाबत उन्हें कुछ ज्यादा पता नहीं था, लेकिन कुछ-कुछ बातें | खयाल रह गई थीं। और बाप की याददाश्त रखनी थी, तो उन्होंने | सोचा, कुछ तो बाप की याददाश्त में, मेमोरी में, कुछ बचा लें। क्या |बचा लें ? 123 बच्चों को इतना याद था कि पिता उनको खाना खिलाता था। मां का काम भी उसी को करना पड़ता था। फिर पीछे खुद खाना खाता था। सब बच्चों को इतना याद था कि खाने के बाद चौके के आले में उसने एक छोटी-सी लकड़ी रख रखी थी। वह उससे दांत साफ करता था । यह उन्हें कुछ भी पता नहीं था। लेकिन आले में वह लकड़ी अभी भी रखी थी। वह लकड़ी दांत साफ करने का छोटा-सा टुकड़ा था। बेटों ने सोचा कि बाप की याददाश्त रखनी Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 है, तो इस छोटी-सी लकड़ी से क्या होगा! तो एक चंदन की बड़ी लकड़ी खुदाई करवाकर आले में उन्होंने लगा दी। फिर बेटे बड़े हुए। वे उसकी रोज पूजा कर देते थे। क्योंकि बाप को उन्होंने रोज आले के पास जाते देखा था। वे भी रोज भोजन के बाद जाकर नमस्कार करके कभी दो फूल चढ़ा देते थे । फिर बड़े हुए। उन्होंने बड़ा मकान बनाया; पुराना मकान तोड़ा। तो उन्होंने सोचा, आले की अब क्या जरूरत है, एक छोटा मंदिर ही बना दें। तो आले की जगह उन्होंने एक संगमरमर का मंदिर बना दिया। फिर उन्होंने सोचा, लकड़ी ! अब तो हमारे पास पैसे भी हैं, तो उन्होंने एक चंदन की प्रतिमा स्थापित कर दी। वे नियमित भोजन बाद उसकी पूजा करते थे । सुना है मैंने, उस घर में अब भी पूजा चलती है। वह जो लकड़ी थी, वह दांत साफ करने के काम आती थी। लेकिन अब वह लकड़ी मंदिर की प्रतिमा बन गई और उसकी पूजा होती है। अगर हम अपनी जिंदगी में तलाश करने जाएंगे, तो हमें सौ में निन्यानबे इस तरह की चीजें मिलेंगी, जिनका कोई भी संबंध समझ और विकास से नहीं है। जिनका संबंध किन्हीं चीजों को अंधे की तरह पकड़ लेने से है। और जब कोई आदमी धर्म के जगत में किसी चीज को अंधे की तरह पकड़ लेता है, तो बहुत महंगा सौदा है। क्योंकि उसकी सारी आगे की यात्रा ठहर जाती है; र रुक जाती है। कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों में मैं मन हूं। वे इतना ही कह रहे हैं कि तुम कम से कम पांच इंद्रियों से हटो और मन तक पहुंचो। इतना भी कुछ कम नहीं है कि तुम जानो कि कान तुम नहीं हो, बल्कि वह हो, जो कान से आवाज को सुनता है। इतना भी कुछ कम नहीं है, तुम जानो कि आंख तुम नहीं हो । आंख से जो देखता है, आंख से जो झांकता है, वह मन तुम हो । अगर इतना तुम जान लो, तो कल इतना भी समझ सकते हो कि भी तुम नहीं हो, मन जो जानता है, मन को भी जो साक्षी भाव से देखता है, मन का भी जो ज्ञाता है, वह तुम हो । मन और इसलिए दूसरे सूत्र में उन्होंने कहा, भूत-प्राणियों में चेतना, चेतनता अर्थात ज्ञान - शक्ति हूं। तत्क्षण! इंद्रियों में मन हूं, उसके बाद ही शीघ्र दूसरा सूत्र कहा कि मन के भी जो पार चेतना है, जानने की क्षमता है, कांशसनेस हैं, वह मैं हूं। यह इसी कारण दूसरे सूत्र में तत्काल कहा, कि पहला सूत्र खतरनाक हो सकता है। कोई अपने को मन ही मान ले ! इस जगत में चार तरह के लोग हैं। एक, जो अपने को शरीर ही मानते हैं। ये बिलकुल मकान के आस-पास ही घूमते हैं। मकान की सीढ़ियां भी नहीं चढ़ते। दूसरे, जो अपने को मन मानते हैं। ये थोड़ी-सी सीढ़ियां चढ़ते हैं, लेकिन द्वार पर अटक जाते हैं। तीसरे, | जो अपने को आत्मा मानते हैं। ये और भी गहरे जाते हैं, लेकिन फिर भी जो प्रतिमा मंदिर में स्थापित है, उसके आस-पास ही | चक्कर लगाते हैं। चौथे वे, जो अपने को परमात्मा ही जानते हैं। ये वे हैं, जो प्रतिमा के साथ एक हो जाते हैं। ये चार तरह के लोग हैं। अधिकतम लोग अपने को शरीर मानते हैं। अधिकतम लोग ! जो कहते हैं कि नहीं, हम आत्मा मानते हैं, वे भी अपने को शरीर ही मानते हैं। अगर उनकी हम जीवन-चर्या देखें, तो हमें पता चल जाएगा। वे भी अपने को शरीर ही मानते हैं । उनका अगर हम व्यवहार देखें, तो हमें पता चल जाएगा, वे भी अपने को शरीर ही मानते हैं। अगर उन्हें हम कठिनाई में डाल दें, तो हमें पता चल जाएगा कि वे भी अपने को शरीर मानते हैं। जो आदमी कहता है, मैं आत्मा हूं, आत्मा अमर है, एक छुरा उसके कंधे पर रखें और अंधेरे में उसको पकड़ लें, वह फौरन | चिल्लाएगा कि 'क्यों मारे डाल रहे हो। वह जो कहता था, आत्मा अमर है, छुरे को देखकर कहेगा, मुझे क्यों मारे डाल रहे हो ! छुरा आत्मा को नहीं मार सकता। छुरा तो शरीर को ही मार | सकता है। लेकिन तब वह यह नहीं कहेगा कि क्यों मेरे शरीर को व्यर्थ काट रहे हो ? वह कहेगा, क्यों मुझे मारे डाल रहे हो! इपिटैक्टस को यूनान के सम्राट ने अपने पास बुलवाया था। क्योंकि सम्राट को किसी ने कहा कि इपिटैक्टस कहता है कि आत्मा | अमर है। सम्राट शरीरवादी था। उसने इपिटैक्टस को बुलवाया और | कहा कि मैंने सुना है – सोचकर जवाब देना – मैंने सुना है कि तुम कहते हो, आत्मा अमर है। मैं कोई सिद्धांत की चर्चा के लिए नहीं | बुलाया हूं, मैं तो सीधी परीक्षा लूंगा। क्योंकि मैं तो मानता हूं, शरीर के सिवाय कुछ भी नहीं है। इपिटैक्टस ने कहा, तो परीक्षा शुरू करो! क्योंकि वक्तव्य देने की क्या जरूरत है; परीक्षा ही वक्तव्य देगी । और जब तुम मानते ही नहीं हो कि शरीर के अलावा कुछ है, तो मैं समझाऊं भी तो किसको समझाऊं ! तुम परीक्षा शुरू करो। सम्राट ने दो आदमियों को आज्ञा दी और कहा कि इपिटैक्टस | का एक पैर मोड़कर तोड़ डालो। इपिटैक्टस ने पैर आगे बढ़ा दिया और उन दोनों आदमियों से कहा कि इस तरह बाएं तरफ घुमाओ, जल्दी टूट जाएगा। सम्राट ने कहा, यह मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। 124 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 सगुण प्रतीक-सृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के 8 यह पैर सच में ही तोड़ दिया जाएगा। इपिटैक्टस ने कहा, आप लोग निकल रहे हों, ऐसे मन में विचार निकल रहे हैं। या फिल्म मजाक कर भी नहीं सकते हैं; मैं मजाक कर सकता हूं, क्योंकि मैं के पर्दे पर जैसे चित्र निकल रहे हों, ऐसे मन के पर्दे पर विचार पैर से अलग हूं। मैं मजाक कर सकता हूं। पैर तोड़ें। निकल रहे हैं। आंख बंद करके मैं इन चलते हुए विचारों को भी ___ वह पैर तोड़ दिया गया। इपिटैक्टस ने कहा कि और कुछ परीक्षा देख सकता हूं। तो मैं विचारों के प्रति भी चेतन हो गया। मैं विचारों लेनी है? पैर टूट गया, और मैं साबित हूं। मैं उतना का ही उतना से भी अलग-हो गया। हूं। मैं लंगड़ा नहीं हुआ; शरीर लंगड़ा हो गया। मैं अपने मन को भी देख सकता हूं। कभी आपने खयाल किया, लेकिन जो आत्मवादी भी अपने को कहते हैं, उनके भी, उनके | जब आप क्रोध से भरे होते हैं, आंख बंद करके देखें, तो आपको भी जीवन में हम झांकें, तो पता चलेगा, शरीर ही है। शरीर ही सब पता लगेगा, आपका मन क्रोध से भरा है। कभी आप प्रेम से भरे होते हैं, आंख बंद करके मेडिटेट करें, ध्यान करें, तो आपको पता यह जो पहली कोटि है, शरीर सब कुछ, उनके लिए कृष्ण का चलेगा, मन प्रेम से भरा है। कभी लोभ से, कभी कामवासना से, यह वचन उचित है। अर्जुन को ऐसा ही लग रहा है कि शरीर ही कभी भय से। तो आंख बंद करके अनुभव करें, तो पता चलेगा, मन सब कुछ है। इसलिए वह कह रहा है कि कैसे मैं इन प्रियजनों को | | किससे भरा है। मन इस समय भय हो गया, क्रोध हो गया, लोभ हो काटूं? कैसे अपनों को मारूं? कैसे यह हत्या करूं? यह मुझसे | गया, काम हो गया। किसको पता चलता है? कौन चेतन होता है ? नहीं होगा। इतने लोगों को मैं मारने का पाप क्यों लं? | कौन जानता है इसको? जो जानता है, वह अलग हो गया। शरीर को ही वह जीवन मान रहा है। क्योंकि उसकी तलवार चेतना का अर्थ है, जिसके द्वारा आप जानते हैं, पहचानते हैं। केवल शरीर को ही काट सकती है और किसी को भी नहीं। पर उसे | जिसके द्वारा आप बोध से भरते हैं। और जिसके प्रति आप कभी उस सत्य का कोई भी पता नहीं है कि भीतर एक और भी अस्तित्व चेतन नहीं हो सकते। आप सब चीजों के प्रति चेतन हो सकते हैं, है, जिसको तलवार छेद नहीं सकती और आग जला नहीं सकती। लेकिन अपनी चेतना के प्रति चेतन नहीं हो सकते। आप सब चीजों पर उसका उसे कोई पता नहीं है। के प्रति चेतन हो सकते हैं, सिर्फ अपनी चेतना के प्रति चेतन नहीं ___ इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि इंद्रियों में मैं मन हूं। इंद्रियां हो सकते। क्योंकि जो चेतन होगा, वही आपकी चेतना है। तो आप शरीर हैं, भीतर प्रवेश करें तो मन है। लेकिन कृष्ण को भी लगा | अपनी चेतना को आब्जेक्ट नहीं बना सकते। वह सब्जेक्ट है, वह होगा कि अर्जुन को कहीं यह पकड़ न जाए, तो दूसरे ही सूत्र में वे | जानने वाला है। वह कभी जाने जानी वाली चीज नहीं हो सकती। कहते हैं, और समस्त भूतों में मैं चेतना हूं, कांशसनेस हूं। तो चेतना का यह विचार, योग की गहनतम धारणाओं में से एक चेतना शब्द को हम थोड़ा समझ लें। चेतना का अर्थ होता है, | है। योग को अगर हम एक शब्द में कहना चाहें, तो वह उसको मैं आपको देख रहा हूं। तो मैं आपके प्रति चेतन हूं। और जिसके जानने की कोशिश है, जिसके द्वारा सब जाना जाता है, और जो प्रति भी मैं चेतन हो जाता हूं, उससे मैं अलग हो जाता हूं। जिसके | किसी के द्वारा भी नहीं जाना जाता। जिसके द्वारा हम जगत में सब प्रति भी मैं चेतन हो जाता हूं, उससे मैं अलग हो जाता हूं। | जान सकते हैं, सिर्फ उसी को छोड़कर। उसको नहीं जान सकते। ___ मैं अपने इस हाथ को देख रहा हूं! मैं अपने इस हाथ के प्रति | क्योंकि उसको कौन जानेगा! जानने के लिए दूरी चाहिए, फासला चेतन हूं। बाहर से ही नहीं, भीतर से भी मैं अपने इस हाथ को देख चाहिए, जानने वाला अलग चाहिए। ज्ञाता अलग चाहिए, ज्ञेय रहा हूं। इसकी हड्डी, इसकी मांस-पेशियां, इसके प्रति मैं चेतन हूं। अलग चाहिए। मैं इस हाथ से भी अलग हो गया। क्योंकि चेतन मैं उसी के प्रति हो हम सब चीजों को ज्ञेय बना सकते हैं इस जगत में। आपको मैं सकता हूं, जिससे मैं अलग हूं। भेद जरूरी है, फासला जरूरी है, | ज्ञेय बना सकता हूं। अपने शरीर को ज्ञेय बना सकता हूं। अपने चेतन होने के लिए। | विचार को, अपने मन को, सबको ज्ञेय बना सकता है। सिर्फ मेरी फिर आंख बंद करके मैं अपने विचारों के प्रति भी चेतन हो चेतना, मेरा होश, मेरी अवेयरनेस, वह भर ज्ञेय नहीं बनती। वह सकता हूं। मैं देखता हूं कि विचार चल रहे हैं। जैसे आकाश में हमेशा पीछे हटती चली जाती है। इट कैन नाट बी रिड्यूस्ड टु एन बादल चल रहे हों, ऐसे मन में विचार चल रहे हैं। या रास्ते पर जैसे | | आब्जेक्ट, उसको हम कोई वस्तु नहीं बना सकते। वह हमेशा...। [125 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-508 सोरेन कीर्कगार्ड ने कहा है, कांशसनेस मीन्स सब्जेक्टिविटी, | कहना नहीं है भीतर कि मेरा दायां पैर उठा, मेरा बायां पैर उठा! न; अल्टिमेट सब्जेक्टिविटी, आखिरी जानना। उसके पार, पीछे नहीं | ऐसा जानना है कि यह बायां पैर उठा, यह दायां पैर उठा। इसका हट सकते हम। | होश रखना है। आप रास्ते पर चलते-चलते अचानक चकित हो हम कितने ही भागते चले जाएं, कितने ही पीछे हटें, जो हट रहा | | जाएंगे कि शरीर चल रहा है, आप नहीं चल रहे हैं। भोजन करने है पीछे, वही चेतना है। हम चेतना से पीछे नहीं हट सकते। चेतना | | बैठे हैं, तो यह मैंने कौर बनाया है, यह कौर मैं मुंह में ले गया। से पीछे नहीं हटा जा सकता, इसीलिए चेतना हमारा स्वभाव है। इसको होशपूर्वक करें। और कृष्ण कहते हैं, चैतन्य, चेतनता, ज्ञान की शक्ति में हूं। बेहोश की तरह कर रहे हैं लोग! खाना खा रहे हैं, वह एक यंत्र सूर्य से, विष्णु से बात शुरू की है उन्होंने। और पास हटते-हटते | की तरह डालते जा रहे हैं। हो सकता है, उस वक्त वे वहां भोजन इंद्रियों, मन की बात की है। और पीछे हटते-हटते उन्होंने मौलिक की टेबल पर मौजूद ही न हों, दफ्तर में पहुंच गए हों; या किसी आखिरी सूत्र अर्जुन को दिया कि मैं चेतना हूं। अदालत में मुकदमा लड़ रहे हों; या पता नहीं, क्या कर रहे हों! जो व्यक्ति भी ऐसा जान ले कि मैं चेतना हूं, उसने जो भी जानने होशपूर्वक भोजन करें, तो आप थोड़े ही दिन में इस अनुभव को योग्य था, वह जान लिया। और जो व्यक्ति ऐसा न जान पाए कि | उपलब्ध हो जाएंगे कि भोजन शरीर में जा रहा है, आप में नहीं। मैं चेतना हं. तो उसने और कछ भी जान लिया हो. जो भी जानने | क्योंकि वह जो होश है, वह आप हैं। तब आप बिलकुल साफ देख योग्य है, उससे वह वंचित रह गया है। गहनतम जो हमारे भीतर पाएंगे कि भोजन शरीर में जा रहा है, और आप अछूते रह गए हैं, केंद्र है, सबसे गहरे में छिपा हुआ जो केंद्र है, वह चैतन्य का है। | पार रह गए हैं। आप देख रहे हैं। ___ इसलिए हम परमात्मा के लक्षण में सत-चित-आनंद-सत्य | फिर आपको ऐसा नहीं लगेगा कि मुझे भूख लगी। आपके उसे कहा है, चैतन्य उसे कहा है, आनंद उसे कहा है। चैतन्य को | सोचने का, देखने का ढंग ही बदल जाएगा। फिर आप कहेंगे, मेरे हम परमात्मा के भी केंद्र में रखे हैं। सत कहा है कि वह सत्य है, | शरीर को भूख लगी। और फिर आप ऐसा नहीं कहेंगे कि मैं तप्त शुरू में। फिर कहा चित, चैतन्य है, बीच में। और फिर कहा | | हो गया। आप ऐसा कहेंगे कि शरीर की तृप्ति हो गई। शरीर को आनंद, अंत में। प्यास लगी। फिर आप कहेंगे, शरीर बूढ़ा हो गया। सत्य की हम खोज करें, तो चैतन्य हमें उपलब्ध होगा; और और जो आदमी चलने में जान ले कि मैं नहीं चलता, शरीर चैतन्य में हम स्थापित हो जाएं, तो आनंद हमारा स्वभाव होगा। यह चलता है। भोजन में जान ले कि मैं नहीं करता, शरीर करता है। जो चैतन्य, कांशसनेस है, यह हम कैसे उपलब्ध करें? सोते में जान ले, मैं नहीं सोता, शरीर सोता है। वह मरते क्षण में भी हम तो जीते हैं बिलकुल सोए-सोए, मूर्छित। हम जो भी करते जानने में समर्थ हो जाएगा, मैं नहीं मरता, शरीर मरता है। लेकिन हैं, ऐसे करते हैं, जैसे नींद में कर रहे हों, नशे में चल रहे हों। इसको क्रमशः चैतन्य को बढ़ाए जाने से यह आत्यंतिक अनुभव आपको क्रोध आ जाता है, तो आप कहते हैं, आ गया। पता नहीं उपलब्ध होता है। क्यों आ गया! किसी को गाली दे दी; निकल गई। कोई ऐसा नहीं आज इतना ही। कि आप होश में हैं; बेहोश चल रहे हैं। आपका बेहोश और होश लेकिन रुकें पांच मिनट। कोई उठे न। पांच मिनट संगीत और के बीच डांवाडोल होता रहता है अस्तित्व। ज्यादातर बेहोशी में | कीर्तन में सम्मिलित हों, फिर जाएं। कभी-कभी क्षणभर को कोई होश का क्षण आता है, नहीं तो नहीं आता। जीवन ऐसे ही गुजर जाता है। इस बेहोशी की हालत में उस चैतन्य का पता लगाना बहुत कठिन मालूम पड़ेगा, बहुत दूर मालूम पड़ेगा। लेकिन वह इतना दूर नहीं है, जितना दूर मालूम पड़ता है। थोड़ी चेष्टा चाहिए। थोड़ी-सी चेष्टा। रास्ते पर चल रहे हैं, होशपूर्वक चलें। जानते हुए चलें कि चलने की घटना हो रही है, मेरा बायां पैर उठा, मेरा दायां पैर उठा। ऐसा 1126 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 नौवां प्रवचन मृत्यु भी मैं हूं Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मृत्यु भी मैं हूं तब एक सांस कम हो गई। ऐसा युद्ध मुश्किल से होता है। युद्ध में बंटाव साफ होता है। तो जन्म का क्षण मृत्यु का क्षण भी है। लेकिन उन्हीं के लिए जो | एक तरफ दुश्मन होते हैं, एक तरफ मित्र होते हैं। लेकिन यह गहरे देख पाएं। जो इतना गहरा देख पाएं कि सत्तर साल बाद या महाभारत का युद्ध अनूठा है। इसमें बंटाव साफ नहीं है; विभाजन सौ साल बाद जो घटना घटेगी, वह आज भी उन्हें झलक में आ निश्चित नहीं है। कृष्ण एक तरफ से लड़ रहे हैं, उनकी फौजें दूसरी जाए। गहरे देखने का अर्थ है, जिनकी दृष्टि पारदर्शी है। जो जन्म तरफ से लड़ रही हैं ! उस तरफ भीष्म हैं, द्रोण हैं, जिनके चरणों में में भी गहरा देख सकें, उन्हें मृत्यु का क्षण भी दिखाई पड़ जाएगा। बैठकर सब सीखा है। जिनसे सीखी है कला, वही कला उनकी ___ मृत्यु विपरीत नहीं है, जन्म की सहगामिनी है। ऐसा समझें कि मृत्यु के लिए काम में लानी है। जैसे बायां और दायां पैर हैं, और आप एक पैर से न चल पाएंगे, लेकिन एक अर्थ में महाभारत का युद्ध बड़ा प्रतीक है। मैंने दोनों पैर से ही चलना हो सकेगा। ठीक वैसे ही जन्म और मृत्यु एक आपसे कहा कि दुनिया में ऐसा युद्ध नहीं होता। बंटाव साफ होता ही ऊर्जा, एक ही प्राण-ऊर्जा के दो पैर हैं। और एक से चलना न है। इस तरफ मित्र होते हैं, उस तरफ शत्रु होते हैं। लेकिन आपसे हो पाएगा। दूसरी बात भी मैं कहता हूं। हमारी आकांक्षा होती है कि जन्म तो हो और मृत्यु न हो। वह सभी युद्ध महाभारत जैसे होते हैं, हमें पता हो या न पता हो। हमारी आकांक्षा मूढ़ है, क्योंकि जीवन के सत्य के विपरीत है। जो | | बंटाव झूठा है और ऊपरी है। भीतर से तो हमारे मित्र ही उस तरफ भी चाहता है कि जन्म हो और मृत्यु न हो, उसे पता ही नहीं कि वह | | होते हैं और इस तरफ भी होते हैं। हमारे ही संबंधी उस तरफ होते एक ही चीज से बचना चाहता है और उसी चीज को पाना भी चाहता हैं, हमारे ही संबंधी इस तरफ होते हैं। महाभारत में इस झूठे बंटाव है। जन्म और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जन्म | को बिलकुल ही तोड़ डाला है। सभी युद्ध ऐसे हैं। असंभव है, जिस दिन मृत्यु असंभव हो जाए। जिस दिन हम मृत्यु आज पाकिस्तान और हिंदुस्तान लड़े, तो आज साफ दुश्मन का से बच सकेंगे, उस दिन हम जन्म से भी बच जाएंगे। जिस दिन हम | बंटाव है। लेकिन कल! कल यह सीमा नहीं थी। और कल अगर मृत्यु को काट डालेंगे, उस दिन जन्म भी कट जाएगा। वे दो नहीं हैं।। । कराची बर्बाद होता तो बंबई उतना ही दुखी होता, जितना बंबई बर्बाद अभी अर्जुन का मन मृत्यु से बहुत आच्छादित और प्रभावित है। होता तो कराची दुखी होता। लेकिन आज बंटाव हमने साफ कर कृष्ण ने उसे कहा कि मैं जीवन का देवता हूं, विष्णु हूं। शायद उसके लिया है। तो आज अगर कराची बर्बाद हो, तो हम खुश भी हो सकते हृदय पर चोट भी न पड़ी हो। हैं। और बंबई बर्बाद हो, तो कराची में खुशियां मनाई जा सकती हैं। एक आदमी मर रहा हो, उससे जीवन की बात करने का कोई भी | | दुनिया का कोई भी युद्ध गहरे में देखे जाने पर महाभारत जैसा अभिप्राय नहीं है। उसके चारों ओर मौत खड़ी है। मौत तो सभी के ही है। दोनों तरफ आदमी ही खड़े हैं। और आदमी एक परिवार चारों ओर खड़ी है, लेकिन सभी अपने-अपने जीवन में इतने व्यस्त | है। संबंध दिखाई पड़ते हों या न दिखाई पड़ते हों; क्रोध में और हैं कि उसका दर्शन नहीं होता। लेकिन जो खाट पर पड़ा है और वैमनस्य में और ईर्ष्या में और हिंसा में, संबंध धुंधले हो गए हों, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है, उसे जरा-सी भी द्वार पर आहट होती | | धुएं में ढंक गए हों, दूसरी बात है। लेकिन जिनके पास थोड़ी-सी है, तो लगता है कि यम के दूत ने दस्तक दी। उसे चारों ओर मृत्यु साफ आंखें हैं, उन्हें हमेशा दिखाई पड़ता है कि सभी युद्ध ही दिखाई पड़ती है। महाभारत जैसे युद्ध हैं। __ अर्जुन के सामने भी चारों तरफ मृत्यु है, प्रियजनों की, अपनों ___ अर्जुन परेशान है। मौत चारों तरफ दिखाई पड़ती है। जीतने में की, सगे-संबंधियों की। यह युद्ध बहुत अजीब था। इसमें दोनों | भी कोई अर्थ नहीं मालूम पड़ता। जीतकर भी हार ही हो जाएगी। तरफ मित्र ही बंटकर खड़े थे। कल जिनके साथ खेले थे, कल क्योंकि अर्जन कहता है कि जिनके लिए हम जीतते हैं. अगर वे ही जिनको प्रेम किया था. कल जिनके लिए प्राण दे सकते थे. आज नहीं बचे, तो जीत का भी क्या होगा? जीतने से जिनको खुशी उनके प्राण लेने का अवसर था; उनके ही प्राण लेने का अवसर था। | होगी, वे ही मर जाएंगे। हम अकेले अगर जीतकर भी खड़े हो गए, गुरु और शिष्य बंट गए थे। मित्र और मित्र बंट गए थे। परिवार बंट | तो वह जीत किसके समक्ष होगी? किसके लिए होगी? वह गए थे! कोई इस तरफ था, कोई उस तरफ था। | अर्थहीन होगी। | 129 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-508 रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् । बहुत-बहुत मार्गों से उसकी तरफ इशारा किया है। किसी भी द्वार वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ।। २३ ।। | से आप पहुंच जाएं, और किसी भी झरोखे से आपकी आंख उसकी पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् । | तरफ खुल जाए, और कोई भी स्वर आपके हृदय की वीणा को छू सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ।। २४ ।।। | ले। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप किस दिशा से उसे समझते हैं, महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् । | यही महत्वपूर्ण है कि आप समझ लें। यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ।। २५।। ___ शायद कृष्ण ने जो कहा, उन्होंने जो प्रतीक चुने, अर्जुन का हृदय और मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूं और यक्ष तथा राक्षसों में | उन्हें नहीं पकड़ पाया होगा। वे और दूसरे प्रतीक चुनते हैं। धन का स्वामी कुबेर हूं, और मैं आठ वसु देवताओं में अग्नि उन्होंने अर्जुन से कहा, और हे अर्जुन, मैं एकादश रुद्रों में शंकर तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत है। | हूं और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूं। आठ वसु और पुरोहितों में मुख्य अर्थात देवताओं का पुरोहित बृहस्पति | देवताओं में अग्नि और पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं। मेरे को जान तथा हे पार्थ, मैं सेनापतियों में स्वामी कार्तिक कल उन्होंने कहा था कि मैं विष्णु हूं अदिति के पुत्रों में। विष्णु ____ और जलाशयों में समुद्र हूं। | जीवन के प्रतीक हैं। जीवन को सम्हालने के, धारण करने के, और हे अर्जुन, मैं महर्षियों में भृगु और वचनों में एक अक्षर | जीवन की नित जो धारा है, प्रतिपल उसे प्राण देने के, विष्णु स्रोत अर्थात ओंकार हूं तथा सब प्रकार के यज्ञों में जप-यज्ञ और हैं। आज कृष्ण कहते हैं, मैं रुद्रों में शंकर हूं। शंकर मृत्यु के, प्रलय स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूं। के, विनाश के प्रतीक हैं। यहां कुछ बातें समझ लेनी जरूरी होंगी। और भारतीय प्रतिभा में कैसे अनूठे अंकुर कभी-कभी खिले हैं, वे भी खयाल में आ सकेंगे। 27 नंत के अनंत हो सकते हैं प्रतीक। जो सब जगह है, | सारी पृथ्वी पर मृत्यु को जीवन का अंत समझा गया है, मृत्यु को 11 उसकी ओर सब दिशाओं से इशारा हो सकता है। जो | | जीवन का शत्रु समझा गया है, मृत्यु को जीवन का विरोध समझा अदृश्य है, अज्ञात है, तो जो भी हमें दृश्य है और जो | गया है। भारत ने ऐसा नहीं समझा। मृत्यु जीवन की परिपूर्णता भी भी हमें ज्ञात है, उस सबसे उसकी तरफ छलांग लगाई जा सकती है। | है, अंत ही मात्र नहीं। और मृत्यु जीवन की शत्रु दिखाई पड़ती है, कष्ण ने कल एक प्रयास किया. एक दिशा से उस अनंत की क्योंकि हमें जीवन का कोई पता नहीं है। अन्यथा मत्य मित्र भी है। ओर मार्ग को तोड़ने का। आज वे दूसरा प्रयास करते हैं। बहुत बार और मृत्यु कोई जीवन के बाहर से घटित होती हो, कोई विजातीय, ऐसा होता है, एक तीर चूक जाए, तो दूसरा लग सकता है। दूसरा | | कोई फारेन, कोई बाहर से हमला होता हो मृत्यु का, आक्रमण होता चूक जाए, तो तीसरा लग सकता है। तीर का लगना निशान पर इस | | हो, ऐसी भी भारत की मान्यता नहीं। मृत्यु भी जीवन का अंतरंग बात पर निर्भर करता है कि जिससे कही जा रही है बात, उसके हृदय | | भाग है। और जीवन का ही विकास है, उसकी ही ग्रोथ है। शंकर और उस बात में कोई ताल-मेल पड़ जाए। | विष्णु के विपरीत नहीं हैं, और विनाश सृजन का विरोध नहीं है। जटिलता बहुत प्रकार की है। जो बात आपसे मैं कहूं, हो सकता विनाश और सृजन एक ही घटना के दो पहलू हैं। है, इस क्षण आपके हृदय से मेल न खाए, कल मेल खा जाए। जो एक बच्चे का जन्म होता है, तो हम सोच भी नहीं सकते कि उस बात मैं आपको कहूं, आज आपकी समझ में ही न पड़े, और हो | | जन्म के साथ मृत्यु का भी प्रारंभ हो गया है। लेकिन प्रारंभ हो गया सकता था, क्षणभर पहले कही जाती और मेल खा जाती। | है। हम न सोच पाते हों, वह हमारे सोचने की कमी और असमर्थता आपका मन एक तरलता है। वह प्रतिपल प्रवाह में है। जैसे नदी | | है। लेकिन जन्म का दिन मृत्यु का दिन भी है। जिस दिन बच्चा पैदा बही जा रही हो, ऐसा ही आपका मन बहा जाता है। किस क्षण में, हुआ, उसी दिन से मरना भी शुरू हो गया। यह एक वचन मैंने किस पके हुए क्षण में, कौन-सी बात आपके हृदय को चोट करेगी बोला, इस एक वचन के बोलने में भी आप थोड़ा मर गए हैं। और गहरी उतर जाएगी, इसका पूर्व निश्चय असंभव है। | आपके जीवन की धारा थोड़ी क्षीण हुई, कुछ समय चुक गया, आप इसलिए जिन्होंने भी उस परम सत्य की शिक्षा दी है, उन्होंने मृत्यु के और करीब पहुंच गए। बच्चा जब पहली सांस लेता है, | 128 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मृत्यु भी मैं हूं 8 विनाश नए सृजन को जन्म देता है। भारत का मानना रहा है सदा से नान-यूक्लिडियन। कोई रेखा और रुद्रों में शंकर हूं! तो कृष्ण यह कह रहे हैं कि विनाश से भी सीधी नहीं है। और जीवन की कोई गति सीधी नहीं हो सकती, तू परेशान और पीड़ित मत हो। और मृत्यु भी तुझे भयभीत न करे। क्योंकि कोई रेखा ही सीधी नहीं हो सकती। सब गति वर्तुलाकार है, तू मृत्यु में भी चाहे तो मुझे देख सकता है, क्योंकि वह विनाश की सर्कुलर है। बच्चा, जवान, बूढ़ा; जन्म और फिर मृत्यु। जहां जन्म अंतिम शक्ति भी मैं ही हूं। | होता है, वर्तुल वहीं पूरा होकर मृत्यु बन जाता है। जैसे व्यक्ति के जीवन में मृत्यु है, वैसे ही सृष्टि के जीवन में ___ इसलिए बच्चे और बूढ़े बहुत अंशों में एक जैसे हो जाते हैं। और विनाश है या प्रलय है। एक-एक व्यक्ति मरता है और जन्मता है, जो समाज बूढ़ों के साथ बच्चों जैसा व्यवहार करना नहीं जानता, ऐसे ही सृष्टि भी जन्मती है और मरती है! जैसे व्यक्ति बच्चा होता वह समाज सुसंस्कृत नहीं है। वह समाज असंस्कृत है। लेकिन है, फिर जवान होता है, फिर बूढ़ा होता है, फिर मरता है। एक पश्चिम में बूढ़े के साथ बच्चों जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता, वर्तल. एक सर्किल परा करता है। वैसे ही भारतीय दष्टि है कि | क्योंकि पश्चिम की धारणा है कि चीजें सीधी जा रही हैं, पीछे कुछ समस्त जीवन भी बच्चा होता है, जवान होता है, बूढ़ा होता है, मृत्यु नहीं लौटता, वर्तुलाकार नहीं हैं। चीजें एक रेखा में बढ़ती चली को उपलब्ध होता है। | जाती हैं, और जो प्रारंभ था, वह फिर कभी दुबारा नहीं मिलेगा। पश्चिम में चिंतन की जो धारा है, वह लीनियर है, एक रेखा में | लेकिन भारत मानता है, सभी गतियां वर्तुल में हैं। चाहे पृथ्वी है। इसलिए पश्चिम में एवोल्यूशन का खयाल पैदा हुआ, विकास घूमती हो सूरज के आस-पास, और चाहे पृथ्वी घूमती हो अपनी का खयाल पैदा हुआ। डार्विन ने, हक्सले ने और दूसरे विचारकों कील पर, और चाहे सूरज किसी महासूर्य का चक्कर लगाता हो, ने विकास की धारणा को जन्म दिया। विचारणीय है कि भारत ने और चाहे समस्त सूर्य किसी महाकेंद्र की परिक्रमा करते हों, और कभी विकास की ऐसी धारणा को जन्म क्यों नहीं दिया? चाहे ऋतुएं आती हों, और चाहे बचपन, जवानी, बुढ़ापा होता हो, पश्चिम की चिंतना मानती है कि जीवन एक रेखा में चलता है, सभी चीजें एक वर्तल में घमती हैं। यह समस्त सष्टि भी एक वर्तल जैसे रेल की पटरी जाती हो, एक रेखा में सीधा। लेकिन भारत | | में घूमती है। गति मात्र वर्तुलाकार है। गति का अर्थ ही सर्कुलर है। मानता है, इस जगत में सीधी रेखा तो खींची ही नहीं जा सकती। इसलिए हमने संसार नाम दिया है इस जगत को। संसार का अर्थ यह बहुत हैरानी की बात है। अगर आप गणित पढ़ते हैं, या | होता है, दि व्हील। संसार का अर्थ होता है, चाक, घूमता हुआ। ज्यामिति, या ज्यामेट्री पढ़ते हैं और यूक्लिड को समझा है आपने, | वह जो भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर चक्र है, वह चक्र कभी बौद्धों तो आपक हेंगे कि गलत बात है, क्योंकि यूक्लिड कहता है कि ने संसार के लिए निर्मित किया था। संसार एक चक्र की भांति घूमता सीधी रेखा खींची जा सकती है। दो बिंदओं के बीच जो निकटतम है। और जो इस चक्र में फंसा रह जाता है, वह घमता ही रहता है, दूरी है, वह सीधी रेखा है, स्ट्रेट लाइन है। लेकिन अभी पिछले | घूमता ही रहता है। बार-बार उसी चक्र में घूमता रहता है। पचास वर्षों में पश्चिम में नान-यूक्लिडियन ज्यामेट्री का जन्म हुआ तो बुद्ध ने कहा था, जो इस चक्र के बाहर छलांग लगा जाए, है, और वह भारत से मेल खाती है। वही मुक्त है। जन्म और मृत्यु में जो घूमता है, वह जन्म में चक्कर नान-यूक्लिडियन ज्यामेट्री कहती है कि कोई भी रेखा सीधी नहीं | लगाता रहता है बार-बार। जन्म के बाद मृत्यु होती है, ठीक वैसे है। अगर हम उस रेखा को दोनों तरफ बड़ा करते जाएं, तो अंततः ही मृत्यु के बाद जन्म पुनः हो जाता है। बचपन के बाद जवानी होती पूरी पृथ्वी परं फैलकर वर्तुल बन जाएगा; किसी भी रेखा को; है, जवानी के बाद बुढ़ापा होता है, बुढ़ापे के बाद मृत्यु होती है; क्योंकि पृथ्वी गोल है। पृथ्वी पर हम कोई सीधी रेखा नहीं खींच मृत्यु के बाद पुनः जन्म, पुनः बचपन, पुनः जवानी; और एक सकते। और भी कहीं हम सीधी रेखा नहीं खींच सकते। कोई भी वर्तुलाकार परिभ्रमण होता रहता है। सीधी रेखा हमें सीधी मालूम पड़ती है, क्योंकि वह इतने बड़े वर्तुल यह हमारे छोटे-से व्यक्ति के जीवन में जैसा है, वैसा ही फैलकर का हिस्सा होती है कि उस वर्तुल का हमें अंदाज नहीं होता। सब | | विराट अस्तित्व के जीवन में भी है। जगत के जन्म को सृष्टि कहते सीधी रेखाएं वर्तुल के टुकड़े हैं, खंड हैं। और अगर हम उनको हैं और जगत की मृत्यु को प्रलय कहते हैं। और पूरा जगत फिर प्रलय बढ़ाते ही चले जाएं, तो वर्तुल निर्मित हो जाएगा। | के बाद पुनः जन्म पाता है और पुनः यात्रा पर निकल जाता है। 131 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-588 मृत्यु को हम अंत नहीं मानते। मृत्यु को हम केवल एक गहन मृत्यु। अगर हम इस पूरे जीवन को जन्म समझें, तो फिर एक मृत्यु। विश्राम मानते हैं। इसे ऐसा समझें, जैसा दिनभर आप मेहनत करते अगर हम इस पूरे जगत को जीवन समझें, तो फिर एक प्रलय। मृत्यु हैं और रात सो जाते हैं। भारतीय मन सदा से मानता रहा है कि निद्रा अनिवार्य है जीवन के साथ। मृत्यु विश्राम है, जीवन थकान है। भी एक अल्पकालीन मृत्यु है। दिनभर जागते हैं, थकते हैं, रात सो | जीवन तनाव है, जीवन श्रम है। मृत्यु विश्राम है, विराम है, पुनः जाते हैं। सुबह पुनः ताजे हो जाते हैं, पुनरुज्जीवित हो जाते हैं। फिर जीवन-शक्तियों को पा लेना है। यात्रा पर निकल जाते हैं। जो आदमी सो न सके, वह आदमी जिंदा यह सारा विराट विश्व भी थक जाता है! आप ही नहीं थक जाते, नहीं रह सकेगा। जो आदमी सो न सके, वह विक्षिप्त हो जाएगा, यह सारा विराट विश्व भी थक जाता है। आप ही बूढ़े, नहीं होते; जल्दी ही थकेगा और टूट जाएगा। रोज-रोज रात मर जाना जरूरी | पहाड़ भी बूढ़े हो जाते हैं, पृथ्वियां भी बूढ़ी हो जाती हैं, सूरज भी है, ताकि सुबह नया जीवन उपलब्ध हो जाए। बूढ़े हो जाते हैं। आप ही नहीं मरते, पृथ्वियां भी मरती हैं, सूरज भी इसलिए रात जो जितनी गहराई से मर सकता है, उतनी ही सुबह | मरते हैं, पहाड़ भी मरते हैं। इस जगत में जो भी है, वह मृत्यु और गहराई से जागेगा और जीवित होगा। रात जिसकी नींद मौत के जीवन दोनों में डोलता रहता है। जितने करीब पहुंच जाएगी, सुबह उसका जीवन उतना ही जीवन के तो कृष्ण ने कहा कि रुद्रों में मैं शंकर हूं-मृत्यु का, प्रलय का। करीब पहुंच जाएगा। अगर रात भी आप सपने ही देखते रहते हैं | लेकिन जीवन के विपरीत नहीं है मृत्यु। यही कृष्ण समझाना चाहते और अधरे जगे रहते हैं. तो सबह भी आप अधरे ही उठेंगे। सबह हैं अर्जन को कि त जीवन और मत्य को अलग-अलग करके आपका उठना मरा-मरा होगा। रात जो मरने की कला नहीं जानता, | देखता है। तू सोचता है, जीवन सदा ही हितकारी है और मृत्यु सदा सुबह वह जीने की कला भी नहीं सीख पाएगा। ही अहितकारी है। ऐसा विभाजन भ्रांत है। ऐसा विभाजन भ्रांत है। अगर आप आदिवासियों के पास जाएं, तो आप चकित हो। मृत्यु विश्राम है। जाएंगे कि लाखों आदिवासी कहते हैं कि उन्होंने कोई सपना नहीं जीवन तरंग का उठना है आकाश की तरफ; मृत्यु तरंग का देखा। हम तो सोच भी नहीं सकते कि कोई आदमी ऐसा भी होगा, | वापस सागर में खो जाना है। त मत्य से इतना भयभीत न हो और जो रात सपना नहीं देखता! और आदिवासी जो पुराने समाज हैं, | | तू मृत्यु के संबंध में इतनी चिंता मत कर। वह भी मैं ही हूं। और तू जिनका आधनिक सभ्यता से संबंध नहीं हआ. उनमें जब को | यह भी मत सोच कि तेरे द्वारा यह मृत्य हो रही है। न तेरे द्वारा यह आदमी सपना देखता है, तो एक रेअर, एक विशेष घटना घटती | | जीवन हुआ है, न तेरे द्वारा यह मृत्यु हो सकती है। है। सारा गांव इकट्ठा होकर उस आदमी से पूछना शुरू करता है। | ध्यान रखें, न तो हमारे द्वारा जीवन हुआ है, न हमारे द्वारा मृत्यु एक अनूठी घटना है सपना। सपने का मतलब है कि इस आदमी | | हो सकती है। लेकिन हम मान लेते हैं। अगर आप एक बच्चे को की सोने की गहराई टूट गई, अब यह सोने में बिलकुल मृत्यु के | | जन्म देते हैं, तो आप सोचते हैं, आपने जन्म दिया है। करीब नहीं पहुंच पाता। __ आप केवल एक पैसेज थे, एक मार्ग थे, जिससे बच्चा जन्मा रोज एक मृत्यु घटती है। अगर हम इसे और करीब लाएं, तो | | है। आप सिर्फ एक द्वार थे, एक राह थे, जिससे बच्चा आया है। और समझ में आ सकेगा। जब आप श्वास भीतर लेते हैं, तब वह | | आपने क्या जन्म दिया है? जो आदमी पिता बन जाता है, उसने जीवन की होती है; और जब आप श्वास बाहर फेंकते हैं, तब वह | कभी सोचा है कि उसने किया क्या है पिता होने के लिए? मृत्यु की होती है। एक-एक श्वास के साथ भी मृत्यु का संबंध जुड़ा ___ अगर हम तथ्य पर उतरें, तो पता चलेगा कि वह आदमी सिर्फ हुआ है। जब श्वास बाहर जाती है, तब आप मृत्यु के क्षण में होते | | एक मार्ग था। प्रकृति ने उसका मार्ग की तरह उपयोग किया है। हैं; और जब श्वास भीतर आती है, तब आप जीवन के क्षण में होते | | जीवन उसके द्वारा आया है, वह लाया नहीं है जीवन को। और सच हैं। एक-एक श्वास में भी जन्म और मृत्यु का पैर जुड़ा हुआ है। | तो यह है कि जीवन जब उसके द्वारा आता है, तो वह इतना परवश इसलिए बाहर श्वास जाती है, उस वक्त आपकी जीवन-ऊर्जा क्षीण | | होता है। इसीलिए कामवासना इतनी प्रगाढ़ है कि आप उस पर काबू होती है। जब भीतर श्वास आती है, तब आप जीवंत होते हैं। । नहीं पा सकते। क्योंकि जब जीवन धक्के देता है भीतर से, तो आप एक-एक श्वास में जन्म और मृत्यु। दिन में जन्म और रात में बिलकुल विवश हो जाते हैं। कामवासना में आप होते कहां हैं! 1132 . Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मृत्यु भी मैं हूं 8 प्रकृति होती है; आप नहीं होते। है-और एक-एक अंग पार्वती के शरीर के गिरते गए। जहां-जहां __ और इसलिए समस्त धर्म यह मानकर चलते हैं कि जब तक कोई | | उसके अंग गिरे हैं, वहीं-वहीं भारत के तीर्थ निर्मित हुए हैं, ऐसी व्यक्ति कामवासना के पार न चला जाए, तब तक प्रकृति की कथा है। जितने तीर्थ हैं, वह पार्वती का जहां-जहां एक-एक अंग परवशता नष्ट नहीं होती, तब तक प्रकृति उसे पकड़े ही रखती है। गिरा, वहां-वहां एक-एक तीर्थ निर्मित हआ है। और तब प्रकृति आपको मूर्छित कर लेती है। और उस मूर्छा में | मृत्यु का, विनाश का जो देवता है, वह जीवन के प्रति इतने मोह आप द्वार बन जाते हैं। उस द्वार में चाहे आप मां हों और चाहे पिता | | और इतनी आसक्ति और इतने लगाव से भरा हुआ है! और नटराज हों, आप इंस्ट्रमेंटल हैं, साधन मात्र हैं। जीवन आपका साधन की की तरह हमने उसे चित्रित किया है, नाचता हुआ! जरूर सोचने भांति उपयोग करता है और जन्म लेता है। आप स्रष्टा नहीं हैं, सिर्फ | जैसा है। क्योंकि विनाश के देवता को इस भाषा में हमें चित्रित नहीं उपकरण हैं। करना चाहिए। उचित होता कि हम कहते विराग, वैराग्य, सब तरह कृष्ण कह रहे हैं कि जीवन भी तेरे द्वारा नहीं आता और मृत्यु भी से रूखा-सूखा व्यक्तित्व हम निर्मित करते। शंकर का वैसा तेरे द्वारा नहीं आती। जीवन भी मेरे द्वारा है और मृत्यु भी मेरे द्वारा | | व्यक्तित्व नहीं है। बहुत रसभीना है। बहुत रस से डूबा हुआ है। है। इसलिए तू बीच में चिंता में पड़ता है व्यर्थ ही। इसलिए तू बीच | और जीवन के प्रति इतने राग से भरा हुआ व्यक्तित्व है! यह विरोध में उदास होता है व्यर्थ ही। इसलिए बीच में तू कर्ता बनता है व्यर्थ | मालूम पड़ता है। ही। तू कर्ता है नहीं। लेकिन इस विरोध में ही भारत की अंतर्दृष्टियां छिपी हैं। भारत कृष्ण की सारी शिक्षा का सार अगर अर्जुन को एक शब्द में कहा | | मानता है कि सभी विरोधी चीजें संयुक्त होकर ही जीवन को निर्मित जा सके, तो वह यह है कि तू अपने को उपकरण से ज्यादा जानता | करती हैं। है, तो गलती करता है। तू मात्र एक उपकरण है, एक इंस्ट्रमेंट है। इसे हम ऐसा समझें कि आपके भीतर जो राग की क्षमता है, वही जीवन की विराट शक्ति तेरे भीतर काम करती है, तू सिर्फ साधन | | आपकी मृत्यु की क्षमता भी है, तब जरा आपको समझ में आएगा। है। और साधन से ज्यादा तू अपने को मत मान। तू एक बांसुरी है, | | आपके भीतर जो वासना है, वही मृत्यु भी है। अगर आपकी जिसमें से जीवन गीत गाता है। तू बांसुरी से ज्यादा अपने को मत | | कामवासना बिलकुल खो जाए, तो आपके भीतर से मृत्यु का भय मान। तू एक बांस की पोंगरी है, जिससे जीवन प्रकट होता है। भी बिलकुल खो जाएगा। लेकिन तू जन्मदाता नहीं है और न ही तू मृत्युदाता है। जन्म भी मैं | हमें लगता है कि हम कामवासना से जीवन को जन्म देते हैं। हूं, जीवन भी मैं हूं और मृत्यु भी मैं हूं। निश्चित ही, जब भी आप अपनी कामवासना से एक नए जीवन यहां यह भी समझ लेने जैसा है कि हमने शंकर को विनाश का, को जन्म दे रहे हैं, तब आपको पता नहीं कि आप अपनी मृत्यु को प्रलय का, अंतिम अध्याय जो होगा जीवन का, उसका सभापति, | निकट भी ला रहे हैं। आपकी जो ऊर्जा जीवन के काम आ रही है, उसका अध्यक्ष माना। उनकी अध्यक्षता में जीवन समाप्त होगा, | उतनी ही ऊर्जा रिक्त होकर आपकी मृत्यु का भी निर्माण कर रही प्रलय में डूबेगा। लेकिन शंकर के व्यक्तित्व को मृत्यु से हमने जरा है। जीवन एक सतत संतुलन है। भी नहीं जोड़ा। शंकर को हमने नाचता हुआ नटराज की तरह इसलिए जो लोग अमरत्व की तलाश में निकले. उन्होंने ब्रह्मचर्य चित्रित किया है। शंकर को हमने एक महान प्रेमी की तरह चित्रित को आधार बना लिया। उसके बनाने का कारण था। क्योंकि यह किया है। बात साफ समझ में आ गई कि मृत्यु का द्वार अगर कोई है, तो वह पार्वती की मृत्यु हो गई, तो कथा है कि शंकर उसकी, पार्वती | कामवासना है। काम ही उसका दरवाजा है। इसे मैं कुछ उदाहरण की लाश को लेकर बारह वर्ष तक घूमते रहे। लाश को लेकर! | | दूं तो खयाल में आ जाए। आदमियों में उदाहरण खोजने जरा कठिन लाश ही रह गई, प्राण तो चले गए; लेकिन ऐसा सघन लगाव था, | | हैं, क्योंकि आदमी के लिए यह घटना क्षण-क्षण घटती है और लंबे ऐसा प्रेम था, ऐसा मोह था गहरा कि उस लाश को कंधे पर लेकर फासले पर घटती है। लेकिन अगर हम पशुओं और पक्षियों और वे घूमते रहे कि शायद कोई जिला दे।। कीड़े-मकोड़ों के जीवन में उतरें, तो कई बहुत अदभुत मिसालें हैं। कथा बड़ी मधुर है। लाश सड़ती गई-बारह वर्ष लंबा वक्त जैसे अफ्रीका में एक मकोड़ा होता है। वह एक ही बार संभोग 1133 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-50 कर सकता है। संभोग करते ही मर जाता है। एक ही बार संभोग इतनी सघन है कि सारे जगत का विनाश उसके द्वारा होगा, उसमें कर सकता है, लेकिन संभोग करते ही मर जाता है। वह मादा के | वासना भी इतनी ही सघन होगी। यह सघनता समतुल होगी। पार्वती ऊपर से मुर्दा ही उतरता है, जिंदा नहीं उतरता। लेकिन वैज्ञानिकों ने | उत्सुक थी। पागल थी। विवाह हुआ। लेकिन पिता राजी न थे। उसके संभोग का अध्ययन किया है और बड़े चकित हुए हैं। उनका शंकर का आकर्षण जीवन का आकर्षण है, लेकिन शंकर देवता खयाल है कि वह मकोड़ा एक संभोग में जितना सुख-जिसको मृत्यु के हैं। इस सूचना से, इस प्रतीक से हमने यह कहना चाहा है हम सुख कहते हैं—जितना सुख पाता है, उतना एक आदमी जीवन | कि जीवन और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। मृत्यु पीछे दिखाई पड़ती है में चार हजार संभोग करके भी नहीं पाता। आती हई. जीवन अभी है। लेकिन जीवन आमंत्रण है और अंततः एक साधारण आदमी एक जीवन में कम से कम चार हजार मत्य की गोद ही हमारा विश्राम बनती है। संभोग कर सकता है। इसको अब जांचने के उपाय हैं। जब आप कृष्ण कहते हैं, शंकर मैं हूं। मृत्यु भी मैं हूं। विनाश भी मैं हूं। संभोग में होते हैं, तो आपके मस्तिष्क और आपके शरीर में विद्युत जीवन भी मैं हूं। ऐसे वे कहते हैं कि सारे द्वंद्व के भीतर मैं हूं। और के जो आंदोलन होते हैं, बिजली के जो आंदोलन होते हैं, उनको | जब दोनों द्वंद्व के भीतर एक ही अस्तित्व है, तो द्वंद्व का अर्थ खो नापने के अब यंत्र उपलब्ध हैं। कि कितने वोल्टेज, कितनी | जाता है, द्वंद्व व्यर्थ हो जाते हैं। फ्रीक्वेंसी की वेव्स आपके भीतर बिजली की घूमती हैं। और जब । | हीगल ने पश्चिम में डायलेक्टिक्स पर बहुत काम किया है, द्वंद्व आप कहते हैं कि मुझे बहुत सुख मिला, तो वेव्स बताती हैं कि | पर। और हीगल ने कहा, सारे जगत का विकास द्वंद्वात्मक है, कितनी गति थी उनकी; जब आप कहते हैं कि कोई सुख नहीं मिला, I डायलेक्टिकल है। फिर मार्क्स ने इसी बात के आधार पर तो वेव्स बताती हैं कि कितनी गति थी उनकी। उस मकोड़े की | डायलेक्टिकल मैटीरियलिज्म, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और जितनी गति होती है वेव्स की, अब तक कोई आदमी नहीं बता | कम्युनिज्म को जन्म दिया। मार्क्स ने उसमें से छोटी-सी बात पकड़ पाया। लेकिन एक ही संभोग में उसकी मृत्यु हो जाती है। | ली और वह यह कि जैसे जीवन का विकास द्वंद्वात्मक है, वैसे ही और भी पशुओं पर अध्ययन हुआ है। और अध्ययन यह कहता | | समाज का विकास भी द्वंद्वात्मक है। गरीब और अमीर की लड़ाई है है कि संभोग, कामवासना एक तरफ जीवन को जन्म देती है, दूसरी और द्वंद्व है। तरफ मृत्यु को। जीवन और मृत्यु इतने संयुक्त हैं, सब जगह! लेकिन न हीगल को खयाल है, न मार्क्स को, कि भारत और जिससे जीवन का जन्म होगा, उसी से मृत्यु का भी जन्म होगा। | भी गहरी बात करता है। मार्क्स तो बहुत उथली बात करता है, इसलिए अगर हमने शिव को, शंकर को विनाश का और मृत्यु | समाज के अस्तित्व की ही। हीगल थोड़ा गहरा जाता है। और हीगल का देवता माना, तो हमने दूसरी तरफ उनके जीवन को बहुत रंगीन, | कहता है कि समस्त विकास द्वंद्वात्मक है। लेकिन भारत कहता है बहुत रस-भरा, बहुत मोहासक्त भी चित्रित किया है। | कि विकास ही नहीं, अस्तित्व ही द्वंद्वात्मक है। एक्झिस्टेंस इटसेल्फ पार्वती के पिता राजी न थे कि शंकर को वर की तरह चुना जाए। | इज़ डायलेक्टिकल, सारा अस्तित्व ही द्वंद्व है। कौन मृत्यु के देवता को चुनने को राजी होगा! लेकिन सभी को | लेकिन द्वंद्व का अर्थ दो नहीं है। विपरीत दो नहीं, ऐसे दो, जो चुनना पड़ता है। मृत्यु का ही देवता चुनना पड़ता है। पिता राजी न दोनों भीतर गहरे में जुड़े हैं। जैसे नदी है और दो किनारों के बीच थे, यह स्वाभाविक था। कौन अपनी लड़की के लिए मृत्यु के देवता | बह रही है। हमें किनारे दो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन नदी के नीचे हम को चुनेगा! लेकिन कौन है ऐसा, जो मृत्यु के देवता के अतिरिक्त | गहरे में उतरें, तो जमीन संयुक्त है और जुड़ी है। और यह मजे की किसी और को चुन सकता है! और उपाय भी तो नहीं है। क्योंकि | बात है कि नदी एक किनारा हो, तो बह नहीं सकती, दो किनारे जन्म और मृत्यु संयुक्त हैं, और कामवासना मृत्यु का द्वार है। चाहिए। लेकिन दो किनारे भीतर एक हैं, दो नहीं हैं। और अगर इसलिए पिता इनकार करते रहे कि यह शादी नहीं होनी है, यह | सचमुच ही दो किनारे दो हों, तो नदी दोनों के बीच की खाई में खो शादी नहीं करनी है। लेकिन पार्वती जिद्द पर थी, और उसे शंकर के | जाएगी, फिर भी नहीं बह पाएगी। .. सिवाय कोई भाता ही न था। स्वाभाविक है। क्योंकि जो मृत्यु का द्वार | इसे थोड़ा समझ लें, यह थोड़ा जटिल है। है, उसमें काम का आकर्षण भी इतना ही प्रबल होगा। जिसमें मृत्यु अगर एक किनारा हो, तो नदी बह नहीं सकती, दो किनारे 1134 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मृत्यु भी मैं हूं 8 चाहिए। लेकिन अगर सच में ही दो किनारे दो हों, तो नदी बीच की | में नहीं है। गी, फिर भी बह नहीं सकती। इसका मतलब हआ सभी लोग कहते हैं, हम चिंता छोड़ना चाहते हैं, लेकिन अहंकार कि दो दिखाई पड़ने चाहिए और दो होने नहीं चाहिए। ऊपर से दो | | कोई नहीं छोड़ना चाहता है। इसलिए और एक नई चिंता सिर पर मालूम पड़ने चाहिए, भीतर से एक होने चाहिए। सवार हो जाती है कि चिंता कैसे छोड़ें! लेकिन आपको अगर कोई इसलिए भारत ने डायलेक्टिक्स को, द्वंद्वात्मकता को एक नया सच में ही कहे कि चिंता छोड़ने की यह सरल-सी, बहुत सरल-सी अर्थ दिया। द्वंद्व ऊपरी है, अद्वंद्व भीतरी है। द्वैत ऊपर है, अद्वैत कीमिया है, कि आप अपने को कर्ता मत मानें और फिर आप चिंता भीतर है। दो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वे एक के ही दो रूप हैं। करके दिखा दें, तो मैं समझं। आप चौबीस घंटे के लिए तय कर इसलिए कृष्ण कहते हैं, जीवन भी मैं हूं, मृत्यु भी मैं हूं। ये दोनों | लें कि मैं अपने को कर्ता नहीं मानूंगा। फिर आप चौबीस घंटे में किनारे मेरे हैं। लेकिन चूंकि दोनों किनारे ही मैं हूं, इसलिए दोनों चिंता करके बता दें तो मैं समझं कि आपने एक चमत्कार किया किनारे दो दुश्मन नहीं हैं, बल्कि एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। है। यह हो नहीं सकता। इसलिए न तू जीवन की चिंता कर अर्जुन, और न तू मृत्यु की चिंता __ चिंता आती ही उसी क्षण में है, जहां मैं कर्ता मानता हूं। जहां मैं कर। तू दोनों चिंताएं मुझ पर छोड़ दे, वे दोनों मैं हूं। तू व्यर्थ बीच कर्ता नहीं मानता, चिंता का कोई सवाल नहीं है। तब मैं इस विराट में आकर चिंता अपने सिर ले रहा है। प्रवाह का एक अंग हो जाता हूं। और करने का सारा भार विराट पर लेकिन हमें कठिनाई लगती है। लोग आमतौर से कहते हैं कि | | हो जाता है, मुझ पर नहीं। फिर अच्छा हो, तो उसका है; और बुरा हम चिंता छोड़ना चाहते हैं, लेकिन अब तक मैंने ऐसे बहुत कम | | हो, तो उसका है। और जीवन आए, तो उसका है। मृत्यु आए, तो लोग देखे, जो सच में ही चिंता छोड़ना चाहते हैं। कहते हैं जरूर, उसकी है। बीमारी हो तो, स्वास्थ्य हो तो, सुख हो तो, दुख हो तो; लेकिन कहने से किसी को भूल में पड़ने की जरूरत नहीं है। सच जो भी हो, उसका है। मैं उसका एक हिस्सा हूं। फिर आपको चिंता तो.यह है कि वे कहते इसलिए हैं कि यह कहकर वे और एक नई | करने का उपाय नहीं बचता। चिंता अपने लिए पैदा करते हैं, कि मैं चिंता छोड़ना चाहता हूं! बस, | इसे ऐसा समझें कि अहंकार घाव की तरह है। उसी घाव में और कुछ नहीं करते। एक नई चिंता, एक धार्मिक चिंता, एक नई जरा-जरा सी चोट रोज लगती है और चिंता पैदा होती है। अहंकार अशांति कि मुझे शांति चाहिए! एक फोड़ा है, नासूर है। उसमें जरा-सी चोट लगी...। लेकिन चिंता कोई छोड़ना नहीं चाहता। गहरे में चिंता छोड़ना __ और मजा ऐसा है न, कि अगर आपके पैर में कहीं चोट लग बड़ा मुश्किल है, क्योंकि चिंता छोड़ने का अर्थ अहंकार को छोड़ने जाए, तो फिर दिनभर आपको उसी में चोट लगेगी! आपने कभी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है। अहं | खयाल किया? बल्कि आप चकित भी होंगे कि हद्द हो गई, रोज छोडना चाहता। चिंता.सभी छोडना चाहते हैं। और चिंता के सब इसी दरवाजे से निकलता हं. रोज इसी फर्नीचर के पास से गजरता फूल-पत्ते अहंकार में लगते हैं। अगर कोई चिंता पूरी छोड़ दे, तो हूं, रोज इसी कुर्सी पर बैठता हूं, रोज इसी टेबल की टांग से अहंकार तत्काल छोड़ना पड़ेगा। मुलाकात होती है, लेकिन आज इन सबने तय क्यों कर रखा है कि अर्जुन की तकलीफ क्या है? वह यह कह रहा है कि मैं कर्ता हूं। | मेरे पैर में ही चोट लगती है! यह मैं हत्या करूंगा। यह मैं युद्ध करूंगा। यह पाप मेरे ऊपर होगा। चोट रोज भी लगती थी, आपको पता नहीं चलती थी। क्योंकि तो मैं तो पुण्यं करना चाहता हूं। मैं त्याग करता हूं। मैं तो संन्यास | | पता चलने के लिए फोड़ा चाहिए, घाव चाहिए। चोट कल भी लेकर जंगल चला जाऊंगा। मैं तो बैठकर ध्यान, पूजा, प्रार्थना | लगती थी, कल भी इस दरवाजे के पास से निकलते वक्त पैर में करूंगा। मैं गलत को नहीं करूंगा; ठीक को करूंगा। मैं गलत कैसे | | लगा था, लेकिन आपको पता नहीं चला था। क्योंकि पता चलने कर सकता हूं! मैं तो ठीक ही करूंगा। मैं कर्ता ही बनूंगा, तो अच्छे | के लिए दरवाजे का लगना काफी नहीं है, आपके पास संवेदनशील का बनूंगा, बुरे का नहीं बनूंगा। लेकिन कर्ता मैं रहूंगा। यही उसकी घाव भी चाहिए जिसमें पता चले। चिंता है, यही उसका संताप है। __ अहंकार एक घाव है, जिसमें प्रतिपल चोट लगती है। रास्ते से ठीक से समझें, तो अहंकार के अतिरिक्त और कोई चिंता जगत गुजर रहे हैं और कोई अपने ही कारण हंस रहा है, और आपको [135 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 50 चोट लग जाएगी। कोई ऐसे ही मौज ले रहा है, और आपको चोट पास नहीं है, उससे मुक्त कैसे होइएगा? जो है ही नहीं, उससे आप लग जाएगी। कोई दो लोग बात कर रहे हैं एक-दूसरे के कान में, | | बंधे ही रहेंगे, उससे आप घिरे ही रहेंगे। जो नहीं है, वह आपको और आपका अहंकार पकड़ लेगा कि आप ही के संबंध में बात की आकर्षित करता ही रहेगा। जो है, उससे ही छुटकारा हो सकता है। जा रही है। | अगर दुनिया में धन की इतनी प्रतिष्ठा है, तो उसका कारण धन नहीं __ अहंकार, जिनके पास जितना घाव गहरा है, उनको इस जगत में है, उसका कारण गरीबी है। ऐसा लगता है, सब कुछ उन्हीं के आस-पास हो रहा है! सब कुछ। । इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। कोई हंस रहा है, तो उनकी वजह से। कोई रो रहा है, तो उनकी वजह अगर दुनिया में धन का इतना आकर्षण है, तो उसका कारण धन से। जीवन चल रहा है, तो उनकी वजह से। मृत्यु आ रही है, तो बिलकुल नहीं है; जैसा कि साधु-संत लोगों को समझाते हैं कि धन उनकी वजह से। अगर वे न होंगे, तो यह सारी सृष्टि खो जाएगी! | | में बड़ा आकर्षण है। धन में बिलकुल आकर्षण नहीं है। धन बहुत __ अर्जुन भी इसी वहम में है कि उसके ही केंद्र पर यह सब कुछ | कम है, इसलिए आकर्षण है। गरीबी बहुत ज्यादा है, इसलिए हो रहा है। सब उसके आधार पर हो रहा है। वह नहीं होगा, नहीं आकर्षण है। जिस दिन जमीन पर धन ऐसा हो जाए, जैसे करेगा, या करेगा, इस पर सब कुछ निर्भर है। कृष्ण उसे एक ही हवा-पानी है, उस दिन धन में कोई आकर्षण नहीं रह जाएग बात समझा रहे हैं कि कुछ भी तुझ पर निर्भर नहीं है। सब मुझ पर | | बल्कि उलटी घटना भी घटती है। जिस गांव में कोई कार नहीं है, निर्भर है। और जब कृष्ण कहते हैं, सब मुझ पर निर्भर है, तो उनका | उसमें आप कार में निकल जाएं, तो कार में आकर्षण होता है। और अर्थ है, विराट पर निर्भर है। जिस गांव में सबके पास कार है, उसमें आप पैदल निकल जाएं, और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूं। तो पैदल में आकर्षण हो जाता है। यह बात और भी कठिन है। यह कठिन इसलिए है कि हम यह गरीबी के कारण धन में आकर्षण है। दीनता के कारण धन में भी सोच लें कि वे शंकर हैं, मृत्यु के, विनाश के देवता हैं; स्वयं | | आकर्षण है। धन हो तो धन में आकर्षण रह नहीं जाता। इसलिए मृत्यु हैं, यह भी मान लें। लेकिन आज के समाजवादी युग में यह | इस दुनिया ने जो बड़े से बड़े निर्धन लोग देखे हैं, वे बड़े से बड़े वचन ऐसा लगेगा कि जरूर गीता में कुछ अमेरिकी गुप्तचर विभाग धनी घरों में पैदा हुए हैं। ने डाल दिया है। कुबेर! ___ महावीर या बुद्ध या नेमिनाथ या पार्श्वनाथ, जैनों के चौबीस कृष्ण कहते हैं, यक्ष तथा राक्षसों का धन का स्वामी कुबेर भी तीर्थंकर राजाओं के पुत्र हैं! हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के पुत्र मैं हूँ! हैं! बौद्धों के चौबीस बुद्ध राजाओं के पुत्र हैं! और ये सब, इनमें हमारा मन होगा, इसको गीता से अलग कर डालना चाहिए। से कोई भी नहीं ऐसा है जो धन के पक्ष में हो। यह बड़े मजे की बात और कुछ भी रहो! कम से कम धनपति होने की तो बात मत कहो! है। महावीर सड़क पर भीख मांगते हैं! बद्ध भिक्षापात्र लिए घूमते और वह भी कुबेर! हैं! बुद्ध ने तो अपने संन्यासियों को ही भिक्षु का नाम दिया। भिक्षु कुबेर के लिए कहा जाता है, उसके पास अक्षय खजाना है, | | शब्द इतना आदत हो गया-भिखारी। यह बद्ध को भिक्षा मांगते अनंत खजाना है। कोई सीमा नहीं; असीम खजाना है। कुबेर का | | देखकर आपको कुछ समझ में आता है कि बात क्या है? अर्थ हुआ कि इस अस्तित्व में जो सबसे ज्यादा धनी है। जिसके पास धन है, वह धन से मुक्त हो जाता है। और अगर तो कृष्ण की यह बात जरूर कैपिटलिस्टिक, पूंजीवादी मालूम किसी के पास धन भी है और वह मुक्त नहीं हो रहा है, तो उसका पड़ती है। इसलिए समझना थोड़ा कठिन होगा। लेकिन हम समझें, | मतलब इतना ही हुआ कि उसके पास बुद्धि बिलकुल नहीं है। धन तो बहुत महत्वपूर्ण है। | हो और मुक्ति न आए, तो समझना कि बुद्धि बिलकुल नहीं है। गरीब आदमी कभी भी धन से मुक्त नहीं हो पाता। हो भी नहीं और अगर धन न हो और मुक्ति आ जाए, तो समझना कि बहुत सकता। क्योंकि जो आपके पास नहीं है, उससे आप मुक्त नहीं हो बुद्धि है। सकते। जो आपके पास है, उससे ही आप मुक्त हो सकते हैं। गरीब तो बहुत बुद्धिमान हो, तो ही धन से मुक्त हो सकता है; जरूरी नहीं है कि हो जाएं, लेकिन चाहें तो हो सकते हैं। जो आपके बहुत, अतिशय बुद्धिमान हो, तो ही मुक्त हो सकता है। क्योंकि 1361 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मृत्यु भी मैं हूं 8 बहुत बुद्धि हो तो ही वह सोच सकता है कि जो नहीं है, अगर होता यह भारत भी कभी धार्मिक था। यह धार्मिक तभी था, जब तो क्या होता। यह बहुत दूरगामी पहुंच है। जो मेरे पास नहीं है, | सामूहिक रूप से अमीर था। आज तो अगर किसी भी मुल्क के अगर मिल जाए तो क्या होगा, इसको समझने के लिए बहुत गहरी | धार्मिक होने की संभावना है, तो वह अमेरिका की है। पकड़ चाहिए जीवन के बाबत। . गरीब आदमी व्यक्तिगत रूप से धार्मिक हो सकता है, सामूहिक गरीब तो बहुत बुद्धिमान हो, तो मुक्त हो सकता है; लेकिन रूप से धार्मिक नहीं हो सकता, क्योंकि जब शरीर की ही चीजें पूरी अमीर अगर बिलकुल बुद्ध हो, तो ही मुक्ति से बच सकता है। धन न होती हों, तो आत्मा की आकांक्षाओं को जगने का मौका नहीं भी अगर आपके पास है और फिर भी धन की पकड़ नहीं छूटती, मिलता। और जब नीचे तल की जरूरतें ही पकड़े रखती हों, तो तो आप नासमझ हैं। हद्द दर्जे के नासमझ हैं! क्योंकि जो है, उस | आकाश में उड़ने का अवसर नहीं होता। पर से पकड़ तो छूट ही जानी चाहिए। धर्म आत्यंतिक विलास है, दि अल्टिमेट लक्जरी। क्योंकि इतनी __कृष्ण ने इसमें कहा कि राक्षसों में और यक्षों में मैं धनपति कुबेर | | ऊंची है बात, इतनी ऊंची है, इतनी शिखर की है बात कि जब नीचे से सब जड़ें टूट जाएं और जमीन से सब संबंध अलग हो जाए और इसमें दो बातें खयाल में लें। एक तो यह कि राक्षस का अर्थ ही | | आदमी हल्का होकर आकाश में उड़ सके, जमीन की कोई पकड़ होता है, जिसकी आत्मा लोभ है, ग्रीड है। राक्षस कोई जाति नहीं | | न रहे जाए, तब इस आत्यंतिक शिखर को उपलब्ध होता है। है। राक्षस व्यक्तित्व है, ए टाइप आफ पर्सनैलिटी। जहां लोभ ही ___ कृष्ण की बात इस संदर्भ में देखने पर समझ में आएगी। वे कहते जिसकी आत्मा है, उस आदमी का नाम राक्षस है। जमीन पर सब | | हैं, राक्षसों में मैं कुबेर हूं। क्योंकि राक्षस जब तक कुबेर न हो जाएं, तरफ राक्षस हैं, बहुत तरह के राक्षस हैं। | तब तक परमात्मा की तरफ उनका कोई झुकाव नहीं होता। सिर्फ कृष्ण कहते हैं कि अगर राक्षसों में तू मुझसे पूछता हो, तो मैं | | कुबेर ही झुक सकता है। इससे कम में झुकाव का कोई उपाय नहीं कोई छोटा-मोटा राक्षस नहीं हूं, खुद कुबेर हूं। है। जब तक आपके ऊपर इतना न थोप दिया जाए कि उसके वजन लोभ है राक्षस की वृत्ति। कुबेर की हालत मिले, तो ही राक्षस | | में ही आपकी वासना मरने लगे; जब तक इतना आपके ऊपर न मुक्त हो सकता है लोभ से, नहीं तो नहीं हो सकता। अनंत धन गिर पड़े आसमान आपकी आकांक्षाओं की मांगों का, कि आप मिल जाए, तो ही धन की खोज बंद हो सकती है राक्षस की, नहीं उसके नीचे ऊब जाएं, तब तक...। तो बंद नहीं हो सकती। तो अगर इसे हम ठीक से समझें तो इसका नहीं तो धन के इर्द-गिर्द आपका लोभ आपको घुमाता ही रहेगा, अर्थ हुआ कि राक्षसों में एक कुबेर ही है, जो धन की पकड़ के बाहर चाहे कितने ही कष्ट उठाने पड़ें। जब तक धन का होना ही कष्ट न है, लोभ के बाहर है। हो जाए, तब तक आप धन से ऊपर नहीं उठ पाएंगे। धन के कारण . लोभ के बाहर होना हो, तो दो उपाय हैं। या तो इतनी सजगता आप कितने ही कष्ट उठा सकते हैं। और इतनी बुद्धि और इतनी प्रज्ञा बढ़े कि आप जहां हैं, वहीं से लोभ ___ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन भारत आया। जब उसने कश्मीर आपको व्यर्थ दिखाई पड़ने लगे, एक। दूसरा रास्ता यह है कि | में प्रवेश किया, तो उसे बड़ी भूख लगी थी और बड़ी प्यास लगी आपके लोभ की इतनी अनंत तृप्ति हो जाए; जितना लोभ मांगता | थी। और पहाड़ी रास्ता था और उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था, है, उससे ज्यादा आपको मिल जाए; आप मांग न सकें, इतना मिल | कोई आदमी नहीं मिल रहा था। और फिर उसे एक वृक्ष के नीचे जाए; आपकी मांग छोटी पड़ जाए, पूर्ति ज्यादा हो जाए; कुबेर की | | एक गांव के बाहर एक आदमी फल बेचता हुआ दिखाई पड़ा। लाल स्थिति पैदा हो जाए, तो आप लोभ के बाहर हो सकते हैं। सुर्ख फल थे; नसरुद्दीन ने कभी देखे नहीं थे। उसके मुल्क में होते गरीब समाज सामूहिक रूप से कभी धार्मिक नहीं होता, | भी नहीं थे। व्यक्तिगत रूप से कोई धार्मिक हो सकता है। अमीर समाज उसने एक रुपया निकालकर उस आदमी को दिया कि कुछ फल सामूहिक रूप से धार्मिक होने लगता है। और अगर समाज सच में | मुझे दे दो। मैं बहुत प्यासा और भूखा हूं। उस आदमी ने पूरी ही ही अमीर हो जाए, तो समाज की मौलिक वृत्ति धार्मिक होनी शुरू टोकरी उसे उठाकर दे दी। नसरुद्दीन तो बहुत आनंदित हुआ। सोचा हो जाती है। भी नहीं था कि एक रुपए में इतने फल मिल जाएंगे। 137 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 07 गीता दर्शन भाग-500 वह आदमी तो फल देकर चला गया। नसरुद्दीन उसकी जगह बैठ | हम समझ लें। गया और एक फल उसने मुंह में रखा, तो आंख से आंसू झरने लगे। | वचनों में एक अक्षर ओंकार। ओम एक अक्षर है, लेकिन तीन वह लाल मिर्च थी। आग लगने लगी मुंह में, लेकिन चबाए चला | ध्वनियां हैं, अउ म। इन तीनों की इकट्ठी जो ध्वनि है, वह है ओम। गया। गटके चला गया! भीतर पेट तक आग की लपटें फैलने लगीं। | ध्वनिशास्त्र कहता है, अउ म तीन मौलिक ध्वनियां हैं। सभी ध्वनियां और तब एक आदमी पास से निकला। उसने नसरुद्दीन की आंख | इन्हीं का विस्तार हैं। तीन बीज ध्वनियां हैं, अ उ म। शेष सारी से बहते हुए आंसू और लाल आंखें और कंपता हुआ शरीर देखा। | ध्वनियां इनका ही फैलाव हैं। इन तीनों को मिलाकर बनाया है ओम। उसने पूछा कि तू यह पागल क्या कर रहा है! यह मिर्च है। खाना | तो ओम महाबीज है। ओम से तीन ध्वनियां पैदा होती हैं; अ उ म। मत। रुक। अन्यथा मौत हो जाएगी। नसरुद्दीन ने कहा कि मिर्च खा और फिर तीन ध्वनियों से ध्वनियों का सारा संसार प्रकट होता है। कौन रहा है? अब तो मैं अपने पैसे खा रहा हूं। मिर्च का खाना तो | इसे थोड़ा ऐसा समझना पड़े। पहली मिर्च पर ही समाप्त हो गया। लेकिन पैसे खर्च किए हैं। | आधुनिक भौतिकी, फिजिक्स कहती है कि समस्त जीवन का हममें से भी बहुत लोगों की आंखों में जो आंसू हैं, वे पैसे खाने | मौलिक आधार इलेक्ट्रांस हैं, विद्युत-कण हैं। भारतीय प्रज्ञा की की वजह से हैं। सब जला जा रहा है बाहर-भीतर; लेकिन पैसे तो | | खोज यह है कि समस्त अस्तित्व का मौलिक आधार ध्वनि-कण खाने ही पड़ेंगे! आदमी की जिंदगी में इतनी जो पीड़ा और परेशानी | | हैं, विद्युत-कण नहीं। साउंड, ध्वनि मौलिक है। पश्चिम की और कठिनाई है...। जिनके पास पैसे नहीं हैं, उनके पास पैसे न | | भौतिकशास्त्र की खोज है कि विद्युत मौलिक है। होने से कठिनाई है, लेकिन वह कठिनाई बहुत बड़ी नहीं है। असली | लेकिन एक मजे की बात है कि पश्चिम का भौतिकशास्त्र कहता कठिनाई खोजनी हो, तो उन आदमियों को देखो जो पैसे खा रहे हैं! है कि ध्वनि भी विद्युत का एक प्रकार है। एक विशेष प्रकार से पड़ी उनकी कठिनाई का कोई हिसाब नहीं है; उनकी कठिनाई का कोई | हुई विद्युत ही ध्वनि बन जाती है। एक विशेष लयबद्धता में विद्युत अंत नहीं है। ध्वनि बन जाती है। और भारतीय शास्त्र कहते हैं कि विद्युत भी लेकिन यह यात्रा दो ही तरह से रुक सकती है, यह पैसे खाने | ध्वनि का एक प्रकार है। विशेष रूप से की गई ध्वनि, आग को पैदा की यात्रा। या तो आप बिलकुल पैसे के सागर में गिरा दिए जाएं, कर देती है। जैसा कुबेर। और या फिर आपके पास इतनी प्रज्ञा हो और इतना । इसलिए हम कहानियां सुनते हैं तानसेन की और...। वे सब होश हो, इतनी बुद्धि हो, कि आप पैसे खाने से बच सकें। कहानियां सही हों, न हों, लेकिन उनके पीछे भारतीय दृष्टि कारण कृष्ण कहते हैं, राक्षसों में मैं कुबेर हूं। है। और वह दृष्टि यह है कि अगर एक विशेष आघात किया जाए मैं वह आदमी हूं राक्षसों में, जिसके पास इतना है, इतना अनंत | | ध्वनि का, तो अग्नि पैदा हो जाती है, विद्युत पैदा हो जाती है। कि उसकी सारी वासना मर गई है। और पाने का कोई उपाय नहीं | अभी पश्चिम में भी ध्वनिशास्त्र पर नवीनतम खोजें विकसित रहा। और सोचने का और कल्पना करने का उपाय नहीं रहा। | होती हैं, तो भारतीय प्रज्ञा की खोज महत्वपूर्ण होती जाती है। अब कल्पना से ज्यादा जिसके पास है, ऐसा कुबेर का प्रतीक है। कुबेर | तो वे भी कहते हैं कि यह संभव है कि विशेष ध्वनियों की चोट से का अर्थ है, जिसके पास कल्पना से ज्यादा है, वासना से ज्यादा है। | आग पैदा हो जाए। क्योंकि उनका कहना है कि ध्वनि भी विद्युत का कृष्ण कहते हैं, मैं कुबेर हूं। एक प्रकार है। तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं, श्रेष्ठतम; और | शायद यह शब्दों का ही फासला हो। मेरे देखे शब्दों का ही पुरोहितों में बृहस्पति हूं, देवताओं का पुरोहित। और हे पार्थ, | फासला है। ध्वनि का प्रकार विद्युत हो या विद्युत का प्रकार ध्वनि सेनापतियों में स्वामी कार्तिक और जलाशयों में समुद्र हूं। और हे | हो, एक बात तय है कि दोनों गहरे में संयुक्त हैं। ज्यादा उचित होगा अर्जुन, मैं महर्षियों में भृगु और वचनों में एक अक्षर अर्थात ओंकार | | कहना कि शायद कोई तीसरी ही चीज है, जो दोनों में प्रकट होती हूं। सब प्रकार के यज्ञों में जप-यज्ञ और स्थिर रहने वालों में | है, ध्वनि में और विद्युत में। शायद उसे भारतीय ध्वनि कहते हैं, हिमालय पहाड़ हूं। | और उसे आधुनिक विज्ञान विद्युत कहता है। ये शायद शब्दों के इसमें दो-तीन प्रतीक बहुत कीमती हैं साधक की दृष्टि से, वह | फासले हैं। 138 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मृत्यु भी मैं हूं इसलिए जैसे आज आइंस्टीन का सूत्र, छोटा-सा सूत्र, जो आज | योजना। एक बात तय है कि हम टूटे हुए हैं। अस्तित्व से कहां जुड़े के पूरे विज्ञान को समाहित कर लेता है, एनर्जी इज़ ईक्वल टु एम | हैं, हमें पता नहीं! कैसे वापस मिलन हो, इसका पता नहीं! तो कोई सी स्क्वायर। जैसा यह सूत्र आज के समस्त भौतिकशास्त्र को | मार्ग, कोई सेतु, कोई रास्ता बनाने की व्यवस्था का नाम यज्ञ है। समाहित कर लेता है, वैसे ही ओम पूरब के सारे ध्वनिशास्त्र को बहुत तरह से वह व्यवस्था बन सकती है। और जिस व्यवस्था से समाहित कर लेता है। यह भी एक वैज्ञानिक सूत्र है। अ उ म, इन | भी आप जगत के अस्तित्व से जुड़ जाते हैं, वही व्यवस्था यज्ञ हो तीनों को इकट्ठा करके निर्मित हुआ है ओम। और इसके विशेष जाती है। प्रयोग हैं। इसलिए हजारों प्रकार के यज्ञ हैं। और अगर आप ऊपर से और कृष्ण कहते हैं कि समस्त अक्षरों में मैं एक अक्षर हूं, ओम। | देखेंगे, तो आपकी कछ भी समझ में न आएगा। लगेगा क्रियाकांड सारे शास्त्र छोड़ दो, हर्ज न होगा। सारे शास्त्र भूल जाओ, हर्ज है, व्यर्थ का पाखंड है। लेकिन यह तो कोई भी चीज लगेगी। न होगा, एक ओम याद रह जाए, और एक ओम को अपने भीतर __ अगर एक आदमी को, आदिवासी को हम पकड़ लाएं और एक गुंजाने की कला याद रह जाए, और एक ओम के साथ अपने को | | रेडियो को खोलकर उसके सामने बिछा दें, तो वह कहेगा, यह क्या लयबद्ध करने की क्षमता आ जाए, और ऐसी घड़ी आ जाए कि | | पागलपन है ? उसने कभी रेडियो न देखा हो और उसे पता न हो कि आप मिट जाओ और भीतर केवल ओम का उच्चार रह जाए, तो | तारों की एक व्यवस्था भी ध्वनि को पकड़ने का उपाय बन जाती है, परमात्म-सत्ता में प्रवेश हो जाता है। क्योंकि ओम के बाद जो नीचे | तो वह कहेगा, यह क्या पागलपन है! गिरेगा, फिर वह निर्ध्वनि, शून्य जगत में प्रवेश करता है। फिर वह | और फिर अगर कोई एक आदमी कहे कि मैं इस यंत्र को निर्मित परमात्मा के एकाकार, निराकार में प्रवेश कर जाता है। ओम द्वार | कर रहा हूं और तारों को जोड़ता चला जाए, तो उस आदिवासी को है आखिरी। तो यह आदमी भी पागल मालूम पड़ेगा कि यह क्या क्रियाकांड कर अगर ओम से जगत की तरफ चलें, तो फिर अ उ म तीन | | रहे हो! पागल हो गए हो! इसके द्वारा तुम सोचते हो कि दूर, हजारों ध्वनियां, और फिर तीन ध्वनियों से समस्त संसार का विस्तार है। | मील दूर दिल्ली की आवाज पकड़ोगे! अगर ओम के पीछे चलें, तो ओम के बाद शब्द, ध्वनियां सब खो । स्वभावतः, उसके कहने में भी भूल नहीं है। उसका तर्क भी उचित जाते हैं। अंततः आप भी खो जाते हैं। सिर्फ ओंकार मात्र रह जाता है, उसके अनुभव पर आधारित है। अगर रेडियो आपने भी न देखा है, सिर्फ ओम मात्र रह जाता है। | होता, तो आप भी यही कहते। अगर बिजली आपने भी न देखी होती इसका अर्थ है कि ओम किसी मनुष्य के द्वारा पैदा की गई ध्वनि और आप देखते एक मैकेनिक को यहां आकर तार फैलाते हुए और नहीं है, अस्तित्व की ध्वनि है। दि साउंड आफ एक्झिस्टेंस | वह कहता कि तारों को फैलाकर रात यहां दिन जैसा उजाला कर देंगे, इटसेल्फ, अस्तित्व की ही ध्वनि है। जैसा कभी आपने सन्नाटे की | तो आप भी कहते कि दिमाग खराब हो गया है। ध्वनि सुनी है ? रात कोई आवाज नहीं है, तो सन्नाटा मालूम पड़ता सिगमंड फ्रायड ने लिखा है अपने संस्मरणों में कि पहली दफा है। उसकी भी अपनी ध्वनि है। ठीक वैसे ही जब मनुष्य का सब | | जब उसके गांव में बिजली आई, तो उसका एक मित्र देहात से अहंकार, सब विचार, सब शांत हो जाते हैं और गहन मौन होता उसके घर मेहमान हुआ। सिगमंड फ्रायड भूल गया बताना कि है, उस मौन में, भीतरी सन्नाटे में, जो ध्वनि सुनाई पड़ती है, उसका | बिजली कैसे बुझाई जाती है बटन से। उस आदमी को तो पता नहीं नाम ओम है। था। उसने लालटेन बुझाई थी, चूल्हे की आग बुझाई थी, सब उस ओम में प्रवेश ही, कृष्ण कहते हैं, मुझमें प्रवेश है। समस्त | | बुझाया था। लेकिन बटन से भी कोई चीज बुझने वाली है, इसकी अक्षरों में एकाक्षर ओंकार हूं। हजारों प्रकार के यज्ञ हैं, उन यज्ञों में | उसे कोई कल्पना भी नहीं हो सकती थी। संकोचवश उसने पूछा भी जप-यज्ञ हूं। | नहीं। कई दफा खयाल तो आया कि यह लालटेन कैसे बुझेगी! जप को थोड़ा हम समझ लें। यज्ञ का अर्थ होता है, कोई भी लेकिन यह सोचकर कि कोई मुझे मूढ़ समझेगा, अगर मैं पूछू। योजना, कोई भी व्यवस्था, जिसके माध्यम से हम अपने और तो उसने सोचा सब सो जाएं, कमरा बंद करके कोई उपाय अस्तित्व के बीच सेतु निर्माण करें, एक ब्रिज बनाएं। कोई भी निकाल लेंगे और बुझा देंगे। कमरा बंद करके उसने बहुत उपाय 1139 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग- 58 किए। सब तरफ से फूंका। कुर्सी रखकर, ऊपर चढ़कर बल्ब को जाए। अपने भीतर ए सिस्टम आफ पर्टिकुलर साउंड पैदा करना, फूंका। हिलाया। सब तरफ जांचा-परखा कि कोई तरकीब हो, कुछ ताकि बाहर के जगत में जो ध्वनियों का फैलाव है, उनसे हमारा हो। कहीं कुछ न था! उस बल्ब में कोई बुझने का उपाय ही न था! | तालमेल हो जाए। आपको लगेगा, कैसा पागल था! लेकिन आप गलती करते हैं, | ।। जब आप अपने भीतर कहते हैं, ओम, ओम, ओम, तब आप उसके साथ अन्याय करते हैं। आप भी होते, यही करते। क्योंकि अपने भीतर अपने रोएं-रोएं को एक विशेष ध्वनि से संवादित, दूर दीवाल पर कहीं कोई छिपी हुई दरवाजे की आड़ में बटन होगी, | | प्रभावित कर रहे हैं। अगर यह ध्वनि व्यवस्था से की जाए, तो यह खयाल भी आए तो कैसे आए! आपको आ जाता है, क्योंकि | आपका रोआं-रोआं, आपके शरीर का कोष्ठ-कोष्ठ इससे आपको पता है। उसको पता नहीं था। | आंदोलित हो जाएगा। अगर यह ध्वनि ठीक से की जाए, तो बहुत आधी रात तक उसने सब तरह के उपाय कर लिए। फिर उसने | | शीघ्र आपका पूरा शरीर एक स्टेशन, एक ब्राडकास्टिंग स्टेशन हो सोचा कि अब ऐसे ही आंख बंद करके पड़े रहो, अब सुबह देखा | | जाएगा। आपके पूरे शरीर से एक विशेष ध्वनि इस विस्तार में, चारों जाएगा। रातभर लेकिन बार-बार उसको खयाल छूटे न, कि वह | तरफ के विस्तार में आंदोलित होने लगेगी। किसी तरह बुझ जाए तो अच्छा है। और जब आपका पूरा शरीर एक विशेष ध्वनि में लयबद्ध हो सुबह जब फ्रायड ने उससे पूछा कि नींद तो ठीक हुई? उसने जाता है, तब तत्क्षण बाहर के जगत से, उस ध्वनि से मेल खाती कहा, नींद तो सब ठीक हुई। लेकिन अब मैं अपनी मूढ़ता का ध्वनि और आपके बीच सेतु निर्मित हो जाता है। यह सेतु निर्मित खयाल छोडकर पछता हं कि इस लालटेन को बझाने का भी कोई करने का अर्थ है जप-यज्ञ। उपाय है या नहीं? रातभर इसे मैं बुझाता रहा हूं। सब मैंने अपनी इसलिए सारे धर्मों ने अलग-अलग रूपों में जप का प्रयोग किया बुद्धि लगा दी! फ्रायड ने जाकर बटन दबाई। वह लालटेन बुझ गई। है। अलग-अलग नामों का प्रयोग किया है। कोई भी हो नाम, कोई वह आदमी चमत्कृत हो गया। उसने कहा, क्या जादू करते हो! यह भी हो मंत्र, लेकिन मौलिक आधार यही है कि आप अपने शरीर क्या मंत्र है। को एक ऐसी ध्वनि की व्यवस्था में ले आएं, कि विराट जगत में जिस योजना की हमें व्यवस्था का पता न हो, वह योजना व्यर्थ | | जो ध्वनि चल रही हैं, उनसे आपका संबंध निर्मित हो जाए। और मालूम पड़ने लगती है। बहुत-से यज्ञ इसीलिए व्यर्थ मालूम पड़ने | | यह संबंध निर्मित...। लगे हैं। उनके भीतर कुछ द्वार हैं। वे भी योजनाएं हैं। उन योजनाओं कभी आपने खयाल किया हो, आप मेरी बात सुन रहे हैं, अगर से भी कहीं से संबंधित होने का मार्ग है। कुछ लोग आग जलाकर | | सच सुन रहे हैं, तो आपको कई बातें पता नहीं चलेंगी, क्योंकि आप बैठे हैं और घी छिड़क रहे हैं। एक विशेष ढंग से मेरी ध्वनि से आबद्ध हो गए हैं। मैं बंद करूंगा __ अब तो करीब-करीब पागलपन की हालत है, क्योंकि जो | | बोलना, किसी को पता चलेगा, पैर सो गया है। घंटेभर तक उसे छिड़क रहे हैं, उनको भी पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं। जो देख | | पता नहीं था! किसी को पता चलेगा, पैर में कंकड़ गड़ रहा है। रहे हैं, उनको भी पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं। क्या हो रहा है, | | घंटेभर से उसको कंकड़ गड़ने का पता नहीं था! किसी के हाथ में क्यों हो रहा है, कुछ भी पता नहीं। हमारे हाथ में कुछ बातें रह गई तकलीफ थी, किसी के सिर में दर्द था, वह घंटेभर भूल गया था। हैं अधूरी। अन्यथा उनका पूरा का पूरा विज्ञान है, पूरी साइंस है। | घंटेभर बाद मैं बोलना बंद करूंगा, दर्द वापस लौट आएगा। दर्द और एक विशेष व्यवस्था से जगत के अस्तित्व में प्रवेश होने का | | नहीं जाएगा; दर्द मुझे सुनकर नहीं जा सकता। लेकिन आप एक उपाय है। उस उपाय का नाम यज्ञ है। विशेष ध्यान में आबद्ध हो गए थे, इसलिए बहुत-से द्वार आपके कृष्ण कहते हैं, इन सब उपायों में जप-यज्ञ मैं हूं, क्योंकि इन | अनुभव के बंद हो गए और एक ही तरफ आपकी चेतना प्रवाहित सब में सूक्ष्म और सबसे श्रेष्ठ जप-यज्ञ है। हो रही थी। जप-यज्ञ का अर्थ है, अपने भीतर ध्वनियों का एक ऐसा संघात । युद्ध के मैदान पर छुरी, तलवार, भाला भी घुस जाए, तो योद्धा निर्मित करना, ध्वनियों का एक ऐसा जाल निर्मित करना अपने को पता नहीं चलता। उसकी सारी चेतना फोकस्ड होती है। खेल भीतर कि वह जो परम ध्वनि है जगत की, उससे हमारा संबंध हो | | के मैदान पर चोट लग जाए पैर में, हाकी लग जाए, पता नहीं 140 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मृत्यु भी मैं हूं चलता। खेल बंद होता है, तब पता चलता है कि खून बहा जा रहा ध्वनियों के एक नए जगत में प्रवेश करते हैं। और जो बातें कल तक है। क्या हुआ क्या था? आपकी चेतना एक दिशा में आबद्ध हो गई आपको अनुभव में नहीं आती थीं, वे आनी शुरू होती हैं; और जो थी, सब दिशाएं बंद हो गई थीं। कल तक अनुभव में आती थीं, वे बंद होने लगती हैं। जप-यज्ञ विराट की तरफ अपनी चेतना को आबद्ध करना है, ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मैं यज्ञों में जप-यज्ञ हूं, और स्थिर फोकसिंग है, और सब तरफ से बंद हो जाना है। उस क्षण में आप रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूं। किसी और लोक में प्रवेश कर जाते हैं। __ जैसे ही कोई जप में गहरा उतरता है, वैसे ही मन के कंपन कम कृष्ण कहते हैं, यज्ञों में मैं जप-यज्ञ हूं। हो जाते हैं। धीरे-धीरे कंपन खो जाते हैं और एक स्थिर हिमालय, जप-यज्ञ सूक्ष्मतम है। बाहर आग जलाना स्थूल बात है, मंत्र से | एक स्थिर शिखर भीतर निर्मित हो जाता है। भीतर भी आग जलाई जा सकती है। बाहर घी डालना स्थूल बात | आज इतना ही। है, भीतर की आग में भी शीतल घी मंत्र से डाला जा सकता है। लेकिन रुकें। पांच मिनट कीर्तन कर लें। कौन जाने, इस कीर्तन बाहर आयोजन करना स्थूल है, भीतर आयोजन करना सूक्ष्म है। | की ध्वनि से आपके और जगत के बीच कोई संबंध स्थापित हो सूक्ष्मतम आयोजन ध्वनि का है। | जाए। शांत बैठे, कोई बीच में उठे न। पांच मिनट जब कीर्तन पूरा कभी आपने खयाल किया कि अगर आपके सारे शब्द छीन हो, तभी आप उठे। लिए जाएं, तो आप क्या बचेंगे? आपके पास जितने शब्द हैं, वे | सब छीन लिए जाएं, तो आप क्या होंगे? एक सिफर, एक शून्य। आप सिवाय शब्दों के और क्या हैं? अगर एक आदमी के मस्तिष्क से हम सारी ध्वनियां निकाल लें, वह आदमी पूरा का पूरा वैसा ही रहेगा, लेकिन बिलकुल मूढ़ हो जाएगा, जड़ हो जाएगा। जीवित रहते हुए मुर्दा हो जाएगा। आप हैं क्या? आप कुछ ध्वनियों का जोड़ हैं, कुछ शब्दों का जोड़ हैं। उससे ज्यादा आप नहीं हैं। इन्हीं शब्दों के बीच एक नए शब्द, एक नई ध्वनि की व्यवस्था को निर्मित करना है। एक आदमी है, वह राम-राम, राम-राम अपने भीतर कह रहा है। वह कहे चला जाता है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उसके चारों तरफ, भीतर उसके शरीर की दीवाल से राम-राम-राम सटते चले जाते हैं। राम की ध्वनि उसके शरीर की दीवाल से सब तरफ चिपकती चली जाती है। एक वक्त आता है कि एक राम-नाम का शरीर उसके भीतर पैदा हो जाता है। बाहर उसका शरीर रह जाता है, भीतर उसका अपना होना होता है। और दोनों के बीच में एक राम-नाम की...। लोग राम-नाम की चदरिया ओढते हैं. उससे कछ न होगा। एक भीतर ओढी जाती है चदरिया. इस शरीर के भीतर। इसके ऊपर ओढ़ने से बहुत फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन अच्छा है। इसके भीतर ओढ़ने का उपाय है। और तब राम-राम सटता चला जाता है, इकट्ठा होता चला जाता है, उसकी पर्त बन जाती है भीतर। और वह पर्त बड़े अदभुत काम करना शुरू कर देती है, क्योंकि उस पर्त के साथ आप Page #172 --------------------------------------------------------------------------  Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 दसवां प्रवचन आभिजात्य का फूल Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 गीता दर्शन भाग-50 अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः। | रासायनिक प्रक्रिया की जरूरत है और जिन रासायनिक तत्वों की गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः । । २६ ।। । मस्तिष्क में जरूरत है, उनकी सर्वाधिक मात्रा पीपल में उपलब्ध है। उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् । कॉलिन विल्सन ने मजाक में ही लिखा है, लेकिन विचारपूर्ण है ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ।। २७ ।। | बात। उसने लिखा है कि बुद्ध का बुद्धत्व जिस वृक्ष के नीचे और सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष और देवर्षियों में नारद मुनि | हुआ–वट-वृक्ष, वह पीपल की जाति का ही वृक्ष है-उस वृक्ष तथा गंधवों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूं। | के नीचे बुद्ध का बुद्धत्व घटित होना, किसी गहरे अर्थ में वृक्ष से और हे अर्जुन, तू घोड़ों में अमृत से उत्पन्न होने वाला | भी संबंधित हो सकता है। क्योंकि चैतन्य की प्रक्रिया जिस उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा और हाथियों में ऐरावत नामक हाथी रासायनिक संभावना से बढ़ती है, वह वट या पीपल, उस तरह के तथा मनुष्यों में राजा मेरे को ही जान । वृक्षों में सर्वाधिक है। तो बोधि-वृक्ष, सिर्फ बुद्ध के नीचे बैठने से बोधि-वृक्ष | कहलाए, ऐसा नहीं। बोधि-वृक्ष सारे वृक्षों में सर्वाधिक बुद्धि की भो र सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि संभावना वाला वृक्ष भी है। 11 तथा गंधर्वो में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल हूं। कृष्ण कहते हैं, वृक्षों में मैं पीपल हैं। ___ एक तीसरे द्वार से कृष्ण और प्रतीकों का भी उपयोग | इसका अर्थ यह हुआ कि अगर हम परमात्मा की खोज करने जाएं करते हैं, वृक्षों में पीपल! | वृक्षों में भी, तो जहां भी बुद्धिमत्ता की छोटी-सी किरण हो, उसी से पीपल बहुत विशेष वृक्ष है। हिंदुओं की मान्यता के अनुसार ही हमें खोज करनी पड़ेगी। जहां भी बुद्धिमत्ता है, वहीं ईश्वर है। अगर नहीं, वनस्पतिशास्त्र के अनुसार भी। और वनस्पतिशास्त्र के | | वृक्ष में भी बुद्धिमत्ता की कोई किरण है, तो वहीं ईश्वर है। . अनुसार ही नहीं, अब तो मनोविज्ञान के अनुसार भी। सारे वृक्ष रात्रि | वर्षों तक विज्ञान ऐसा सोचता था कि बुद्धि केवल आदमी में है, में कार्बन डाइआक्साइड छोड़ते हैं, सिर्फ पीपल को छोड़कर। लेकिन वह बात भ्रांत सिद्ध हुई। बुद्धि पशुओं में भी है। उसकी पीपल भर रात में कार्बन डाइआक्साइड नहीं छोड़ता है। मात्रा भिन्न होगी, उसका ढंग और होगा। उसे हम न समझ पाते हों, इसलिए किसी भी वृक्ष के नीचे रात रुकना हानिकर है, सिर्फ | यह भी हो सकता है, क्योंकि हमसे पशुओं की बुद्धि का कोई संवाद पीपल को छोड़कर। किसी भी वृक्ष के नीचे रात रुकने का अर्थ | | नहीं है। लेकिन अब तो विज्ञान यह भी स्वीकार करता है कि पौधों घातक हो सकता है। कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ जाए, तो | | में भी बुद्धि है। और पौधों के पास भी स्मृति है, मेमोरी है। और मत्य भी घटित हो सकती है। इसलिए रात्रि वक्षों के नीचे रहने की पौधे भी स्मति को संरक्षित रखते हैं। शायद शीघ्र ही हम ये सारे मनाही है। लेकिन पीपल के वृक्ष के नीचे रात भी रहा जा सकता रास्ते खोज लेंगे, जिनसे पौधों की स्मृति को भी खोला जा सके। है। पीपल इस अर्थ में अनूठा है। चौबीस घंटे उससे जीवन निःसृत ___ तो बोधि-वृक्ष के नीचे अगर बुद्ध को ज्ञान उत्पन्न हुआ हो, तो होता है। इस बोधि-वृक्ष को बुद्ध के इस ज्ञान के होने की घटना की भी स्मृति मनोविज्ञान के हिसाब से अब एक बहुत अनूठी बात का पता | है। और वह वृक्ष तो अब तक बचाया जा सका है। बोधि-वृक्ष, चला है। मनसविद और शरीरशास्त्री दोनों ही निरंतर इस खोज में | | जिसके नीच बुद्ध को ज्ञान हुआ, अब तक सुरक्षित है। क्या उस रहे हैं कि मनुष्य की चेतना का केंद्र कहां है। शरीर में सारी ग्रंथियों | वृक्ष के अंतस्तल में, बुद्ध के जीवन में जो घटना घटी उस वृक्ष के की खोज-बीन की गई है। मस्तिष्क में जिन ग्रंथियों के पास चेतना | नीचे, वह जो महाप्रकाश हुआ, उसकी कोई स्मृति संरक्षित है? की निकटता मालूम पड़ती है, उन ग्रंथियों में जो रसस्राव है, बहुत __अब वैज्ञानिक कहते हैं कि वृक्षों की भी, पौधों की भी स्मृति है। चकित करने वाली बात है कि मस्तिष्क में जिस कारण बोध और | उनका भी बोध है और उनकी भी संवेदनशीलता है। इतना ही नहीं, चेतना निर्मित होती है, या जिसके अभाव में आदमी बेहोश हो जाता | वे कहते हैं...। और इस पर अब काफी प्रयोग किए जा चुके हैं, है, उस रासायनिक तत्व की सर्वाधिक उपलब्धि पीपल वृक्ष में है। रूस में, अमेरिका में, दोनों जगह। अब ऐसे यंत्र भी निर्मित हुए हैं, मनुष्य के भीतर जो बुद्धि है, उस बुद्धि के प्रकट होने के लिए जिस जो यह बता सकें कि वृक्ष की भावदशा क्या है। 144 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिजात्य का फूल जैसे आप बैठे हों और अचानक एक आदमी छुरा लेकर आपके रहा हो, या काटे जाने की स्थिति बनाई जा रही हो, तो पास का कोई सिर पर खड़ा हो जाए, आप भयभीत हो जाएंगे। आपके रोएं-रोएं | भी पौधा प्रसन्न हुआ हो। वे सभी एक साथ दुखी हो जाते हैं। में भय का संचार हो जाएगा। तो अब वैज्ञानिक यंत्र उपलब्ध हैं, जो आदमी में ऐसा पाना मुश्किल है। अगर हिंदू मारा जा रहा हो, आपके पास लगे होंगे, वे तत्काल खबर दे देंगे कि आप भय से | तो मुसलमान खुश हो सकता है। मुसलमान मारा जा रहा हो, हिंदू कंप रहे हैं। आपके भीतर भय दौड़ रहा है। क्योंकि जब आपके | खुश हो सकता है। मित्र मारा जा रहा हो, तो दुख होता है; दुश्मन भीतर भय दौड़ता है, तो आपके शरीर की विद्युत, आपके शरीर की | मारा जा रहा हो, तो हम प्रसन्न भी हो सकते हैं। उस वैज्ञानिक के बिजली, एक खास ढंग से कंपित होने लगती है। वह कंपन पास प्रयोगों से यह पता चला है कि पौधों में ऐसा दुर्भाव नहीं है, ऐसी के विद्युत यंत्रों में पकड़ा जा सकता है। जब आप प्रेम से भरे होते ईर्ष्या और ऐसी शत्रुता-मित्रता का विभाजन नहीं है। हैं, तब भी आपके भीतर दूसरे तरह के कंपन होते हैं। जब आप यह पूरा जीवन ही आत्मा से व्याप्त है। हम पहचान पाते हों, न आनंद से भरे होते हैं, तो तीसरे तरह के कंपन होते हैं। पहचान पाते हों; हम समझ पाते हों, न समझ पाते हों; क्योंकि यह आश्चर्य की बात है, अचानक ही यह घटना घट गई। | हमारी समझ की बड़ी छोटी-सी सीमा है। आदमी की समझ आदमी अचानक ही, एक वैज्ञानिक को ऐसे ही खयाल आया कि आदमी | | के बाहर काम नहीं पड़ती। सच तो यह है कि एक आदमी की समझ तो कंप जाता है, क्या पशु भी इसी तरह, उनके भीतर भी कुछ इसी | | भी दूसरे आदमी के काम नहीं पड़ती। और एक आदमी की समझ तरह की स्थिति बनती होगी? तो उसने पशुओं पर प्रयोग किए। पशु | | भी दूसरे आदमी को समझने में असमर्थ हो जाती है। भी इसी तरह भयभीत होते हैं, प्रेम से भरते हैं, क्रोध से भरते हैं। ___ हम सब राबिन्सन क्रूसो हैं अलग-अलग। दूसरे तक भी पहुंचना उसे खयाल आया, क्या पौधे में भी यह संभव होगा? | मुश्किल होता है। आपको मैं खुश देखता हूं, तो भी मैं आपकी खुशी तो उसने अपने कमरे में लाकर एक गमला रखा पौधे का, छुरा | | नहीं समझ पाता कि आपके भीतर क्या हो रहा है। आपकी उठाकर आया पौधे के पास कि पौधे को अब काटे, तो पता चले मुस्कुराहट देखता हूं, आपके चेहरे पर आ गई झलक देखता हूं, कि पौधे को कटते वक्त भीतर क्या होता है। लेकिन वह चकित | | लेकिन आपके भीतर कौन-सा सुख घटित हो रहा है, कैसे सुख की हुआ, जब वह छुरा पास लाया, तभी उसके यंत्र ने बताया कि पौधे तरंग आपके भीतर बह रही है, उसका मैं कोई अनुभव नहीं कर के प्राण भीतर वैसे ही भय से कंप रहे हैं, जैसे आदमी के प्राण भय | पाता; अनुमान लगाता हूं। वह अनुमान झूठा भी हो सकता है। से कंपते हैं। छुरा मारा नहीं है अभी। अभी सिर्फ छुरा लेकर वह क्योंकि आप अभिनय कर रहे हों, यह भी हो सकता है। खड़ा है। तब तो स्वीकार करना पड़ेगा कि पौधे के पास भी हमारे हममें से अधिक लोग अभिनय कर रहे हैं। उससे बड़ी जटिलता जैसी ही संवेदनशीलता, हमारे ही जैसी आत्मा है। पैदा होती है। हर आदमी को अपने दुख का पता होता है और दूसरे . और भी आकस्मिक रूप से एक घटना घटी कि वह जिस पौधे आदमी की झूठी हंसियों का पता होता है, झूठी मुस्कुराहटों का। तो के ऊपर छुरा लेकर खड़ा था, उसके पास रखे दूसरे पौधे में भी भय | हर आदमी सोचता है, मुझसे ज्यादा दुखी कोई भी नहीं। सारे लोग का संचार हो गया। और तब तो उसने बहुत-से प्रयोग किए। और | कितने प्रसन्न मालूम हो रहे हैं! हर आदमी सोचता है, सारे लोग उसने पाया कि अगर आप एक पौधे को भी जाकर बगीचे में प्रसन्न हैं, सारी दुनिया खश मालम होती है, मैं ही एक दखी हं, मैं नुकसान पहुंचाते हैं, तो आपके चारों तरफ जितने पौधे आस-पास | ही एक परेशान हूं! यह परमात्मा मुझसे ही नाराज क्यों है! होते हैं, वे सब भी दुखी और पीड़ित हो जाते हैं; वह पौधा तो होता __ उसे पता नहीं कि वह भी जब दूसरों के सामने मुस्कुराता है, जब ही है। सुबह उससे कोई रास्ते पर पूछता है कि कैसे हो, तो वह कहता है, तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि पौधे की संवेदनशीलता शायद बहुत अच्छा हूं, मजे में हूं, तब उसे पता भी नहीं कि भीतर उसके आदमी की संवेदनशीलता से भी ज्यादा शुद्ध है। क्योंकि आपके | न कोई मजा होता है, न बहुत अच्छे की कोई खबर होती है; लेकिन पास में कोई मारा जा रहा हो, तो जरूरी नहीं है कि आप दुखी हों; | उस दूसरे आदमी को वहम पैदा होगा कि बहुत मजे में है, बहुत खुश भी हो सकते हैं, सुखी भी हो सकते हैं। लेकिन उस वैज्ञानिक अच्छा है। यह औपचारिक वक्तव्य था। के प्रयोगों में ऐसा कभी उसने नहीं पाया कि एक पौधे को काटा जा। हमारे चेहरे औपचारिक हैं, फार्मल हैं, दूसरों को दिखाने के लिए 145 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 भीतर वैसी बात नहीं है। हमारा दुख भी जरूरी नहीं कि सच्चा हो। हमारा सुख भी जरूरी नहीं कि सच्चा हो । लेकिन हम दूसरों के चेहरे ही देख सकते हैं, उनकी आत्मा को नहीं देख पाते। हम अंदाज लगा सकते हैं कि ऐसा ही हमें होता है। किसी आदमी की आंख से आंसू गिर रहे हों, तो हम अनुमान लगाते हैं, इनफरेंस करते हैं कि जब दुख होता है, तो मेरे आंसू बहते हैं । उसको भी दुख हो रहा होगा। यह जरूरी नहीं है। यह आवश्यक नहीं है। यह अनुमान है। एक आदमी की समझ भी दूसरे के प्राणों में प्रवेश नहीं कर पाती — दूसरे आदमी की, जो कि ठीक हमारे जैसा ही है। तो अगर आदमी की समझ पशुओं में प्रवेश न कर पाए, तो कोई आश्चर्य नहीं है। इसलिए दुनिया के बहुत-से धर्मों ने पशुओं में आत्मा ही नहीं मानी, इसलिए पशुओं को काटने में कोई अड़चन नहीं पाई। समझा कि पशु शायद आदमी के लिए ही बने हैं कि उनको काटो; वे आदमी का भोजन हैं! उसका कुल कारण इतना था कि पशुओं के पास आत्मा के होने का जो ढंग है, उससे हमारा कोई संबंध नहीं जुड़ पाता। हमारे और पशुओं के बीच कोई संवाद नहीं हो पाता । हमारी और उनकी भाषा कहीं मिल नहीं पाती। उनके संकेत हमारी समझ में नहीं आते। और इसलिए स्वभावतः, पशु हमारे लिए यंत्रवत मालूम होता है। फिर पौधे तो और भी दूर हो जाते हैं। इसलिए पौधों को तो कोई कठिनाई हम सोच ही नहीं सकते कि उनको पीड़ा होती होगी, कि दुख होता होगा, कि सुख होता होगा, कि वे भी कभी आनंदित होकर समाधिस्थ होते होंगे, कि कभी वे भी नाचते होंगे किसी खुशी में, और कभी उनके प्राणों से भी आंसू बहते होंगे। उनके आंसू का ढंग हमें पता नहीं, उनकी मुस्कुराहट हमें पता नहीं, उनकी भाषा का कोई संकेत भी हमारे पास नहीं है। लेकिन इस मुल्क में हमने और-और रास्तों से भी मनुष्य इतर अस्तित्व में प्रवेश करने की कोशिश की है। महावीर इतने अभिभूत हो गए थे समस्त जीवन, जहां-जहां भी अस्तित्व है, वहां-वहां जीवन है, इससे कि उन्होंने अपने साधुओं को कहा है कि गीली जमीन पर भी मत चलना। क्योंकि गीली जमीन पर अगर घास का अंकुर भी हो गया हो, तो उस अंकुर पर भी पैर पड़ जाना हिंसा है। उन्होंने कहा है कि कच्चे फल को तोड़कर मत खाना । क्योंकि कच्चा फल जब तोड़ा जाता है, तो वृक्ष के प्राणों में वैसी ही पीड़ा होती है, जैसे कोई आपका हाथ तोड़ ले। जब वृक्ष से फल पक जाए और गिर जाए, तभी । | महावीर की अहिंसा शायद आने वाले पचास वर्षों में पुनर्स्थापित हो सके । क्योंकि विज्ञान जो खोज कर रहा है पौधों के भीतर संवेदना की, वह महावीर को सही सिद्ध कर जाएगी कि वे ठीक कहते थे; कि वहां भी प्राण इतना ही है, जितना हमारे भीतर। वहां भी संवेदना इतनी ही है, जितनी हमारे भीतर। वहां भी आत्मा इतनी ही है, जितनी हमारे भीतर। कृष्ण कहते हैं, वृक्षों में मैं पीपल हूं। आपको तो अंदाज नहीं होगा, लेकिन जो लोग - बहुत कम लोग जमीन पर वृक्षों के साथ मेहनत किए हैं- जिन्होंने पता लगाने की कोशिश की कि वृक्षों में सबसे ज्यादा प्रतिभा कहां है। तो उन सबके नतीजे पीपल जाति के वृक्षों के करीब आते हैं। पीपल बहुत प्रतिभावान, बहुत प्रज्ञावान वृक्ष है। वृक्षों में प्रज्ञा सर्वाधिक उसमें प्रकट हुई है। इसलिए पीपल की पूजा ऐसे ही आकस्मिक शुरू नहीं हो गई थी। वह पीपल के भीतर जो प्रज्ञा की संभावना है, उसके कारण शुरू हो गई थी। कई बार जब विज्ञान खो जाते हैं, तो हमारे हाथ में अंधविश्वास रह जाते हैं। आज भी हम पीपल के नीचे अपने परमात्मा को स्थापित करते हैं, मूर्ति को निर्मित करते हैं। आज भी हम पीपल की पूजा करते हैं, आज भी पीपल को नमस्कार कर लेते हैं, उसको सिर झुका लेते हैं। लेकिन शायद हमें पता कुछ भी नहीं कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं! और अगर पता न हो, तो हमारे नमस्कार में कोई भी अर्थ नहीं रह जाता। पीपल को नमस्कार का एक ही अर्थ है कि प्रज्ञा कहीं भी हो, नमस्कार के योग्य है। पीपल में हो, तो भी। लेकिन हम तो अगर मनुष्य भी हमारे पड़ोस में प्रज्ञावान हो, तो | उसको भी नमस्कार करने में पीड़ा अनुभव करेंगे। और पीपल को हम नमस्कार कर लेंगे ! और अगर पड़ोसी में भी प्रज्ञा हो, उसमें भी ज्ञान का जन्म हुआ हो, तो भी हमारा सिर उसके सामने नहीं झुकेगा। तो साफ है कि हमें पता नहीं कि पीपल को नमस्कार करते वक्त हम क्या कर रहे हैं। पीपल को नमस्कार करते वक्त कौन-सा विज्ञान काम कर रहा है, कौन-सा स्मरण काम कर रहा है, उसका हमें कोई भी बोध नहीं है। अगर वृक्षों में भी प्रज्ञा स्थापित होती हो, अगर उनमें भी कहीं 146 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिजात्य का फूल बुद्धि का फूल खिलता हो, तो भी हमारा सिर झुकेगा, यह भाव है। | पता नहीं होगा कि इस आदमी के अहंकार को रस आया; इस लेकिन आदमी में अगर प्रज्ञा का फूल खिले, तो हमारा तो सिर वहां | | आदमी के अहंकार को मजा आया। भी झुकने को राजी नहीं होता। अहंकार बाधा डालता है। इधर मैंने देखा है कि कृष्णमूर्ति के पास, जिनको हम गहनतम और मजे की बात यह है कि जो आदमी पीपल के सामने | अहंकारी कहें, उन लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई है। और उसका आसानी से झुक सकता है, वह आदमी के सामने आसानी से न कुल एक कारण है। उसका कुल एक कारण है कि कृष्णमूर्ति कहते झुक सकेगा। क्योंकि पीपल के सामने झुकने में ऐसा हमें खयाल | हैं, न मैं गुरु हूं, न मैं अवतार हूं, न मैं शिक्षक हूं, न मैं तुम्हें सिखाने ही नहीं होता है कि हम किसी के सामने झुक रहे हैं। आदमी के | वाला हूं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं। लोग चालीस-चालीस साल से सामने झुकने में पता चलता है, हम किसी के सामने झुक रहे हैं। उनको सुन रहे हैं। चालीस साल से निरंतर उनसे सीख रहे हैं। इसलिए पत्थर की मूर्ति के सामने सिर रख देना आसान है, जिंदा | लेकिन यह सुनकर उनके मन को बड़ी तृप्ति मिलती है कि नहीं, आदमी के सामने सिर रखना बहुत कठिन है। इसीलिए जब गुरु मर | कृष्णमूर्ति किसी के गुरु नहीं हैं। इसका गहरा मजा यह है कि मैं जाते हैं, तो मूल्यवान हो जाते हैं। जब जिंदा होते हैं, तब मूल्यवान | किसी का शिष्य नहीं हूं। नहीं होते। क्राइस्ट मर जाएं, तो ईश्वर हो जाते हैं। जिंदा हों, तो __ यह बहुत मजे की बात है। कृष्णमूर्ति जीवनभर अहंकार से मुक्त सूली पर लटकाए जाते हैं! बुद्ध जिंदा हों, तो हम पत्थर मारते हैं। | होने की बात करते हैं। ठीक बात करते हैं। लेकिन जो वर्ग उनके और मर जाएं, तो हम उनकी इतनी प्रतिमाएं बनाते हैं कि सारी पृथ्वी | आस-पास इकट्ठा होता है, वह गहन अहंकार वाले लोगों का वर्ग को उनकी प्रतिमाओं से भर देते हैं! क्या होगा कारण? क्या होगा है। उसको मजा आता है। उसे लगता है कि बिलकुल ठीक है। राज इसके भीतर? यह वर्ग महावीर और बुद्ध के पास इकट्ठा कभी भी नहीं होगा। अगर जीसस हमारे सामने खड़े हों, तो ठीक हमारे ही जैसा | यह वर्ग कृष्ण के पास नहीं जा सकता। क्योंकि कृष्ण कहेंगे, सर्व आदमी सामने होता है। सिर झकाने में हमें पीडा मालम पडती है. धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज-सब छोड. सब धर्म-वर्म कष्ट होता है; अहंकार को चोट लगती है। लेकिन क्राइस्ट मौजूद | छोड़ और मेरी शरण आ। यह वर्ग कहेगा, क्या आप कह रहे हैं? न हों, बुद्ध खो गए हों, महावीर मौजूद न हों, कृष्ण मौजूद न हों, आपकी शरण और हम आएं! आपमें ऐसा क्या है ? आप हैं कौन ? तो हमें कोई अड़चन नहीं होती, क्योंकि सामने कोई भी नहीं होता। यह वर्ग जो कृष्णमूर्ति के पास इकट्ठा है, यह कृष्ण के पास लेकिन ध्यान रहे, मुर्दा गुरु कितना ही बड़ा हो, उससे उतना | इकट्ठा नहीं हो सकता। लेकिन मजे की बात यह है कि इस वर्ग को लाभ नहीं लिया जा सकता, जितना छोटे से छोटे जिंदा गुरु से लिया कृष्ण के पास पहुंचने से ही लाभ होगा। इस वर्ग को कृष्णमूर्ति के जा सकता है। पास लाभ नहीं हो सकता। जो वर्ग कृष्ण के पास इकट्ठा है, वह . लेकिन जिंदा गुरु के सामने झुकना बहुत मुश्किल बात है। और अगर कृष्णमूर्ति के भी पास हो, तो उसको लाभ हो सकता है। यह हालत यहां तक पहुंच गई है कि अब अगर किसी गुरु को आप मेरा मतलब समझे? आपको अपने चरणों में झुकाना हो, तो उसे एक ही काम करना अगर विनम्र आदमी कृष्णमूर्ति के पास भी इकट्ठे हों, तो उनको चाहिए, उसे कहना चाहिए, कोई मेरा पैर न छुए। कोई मेरे सामने लाभ हो सकता है। लेकिन अहंकार वाले आदमी के अहंकार को न झुके। बल्कि अच्छा तो यह हो कि वह आपके चरणों में झुके, तो और पुष्टि मिल जाती है। तो आपको लंगे कि हां, यह आदमी ठीक है। यह हमारी सदी ईश्वर को इनकार करने की सदी है। इसलिए एक मित्र मुझे मिलने आए थे। उन्होंने कहा कि मैं कृष्णमूर्ति से | नहीं कि हमको पता चल गया है कि ईश्वर नहीं है। बल्कि इसलिए बहुत प्रभावित हुआ। मैंने कहा, कारण क्या है प्रभावित होने का? | | कि हमारी सदी इस पृथ्वी के इतिहास में सबसे ज्यादा अहंकारग्रस्त, तो उन्होंने कहा, जब मैं उनके पास मिलने गया और उनके सामने | | सबसे ज्यादा ईगोसेंट्रिक, अहंकार-केंद्रित सदी है। हम ईश्वर को बैठकर बात करने लगा, तो उन्होंने हाथ मेरे घुटने पर रख लिया और भी बर्दाश्त नहीं कर सकते। हमसे ऊपर कोई ईश्वर हो, इसको भी वे अपना हाथ मेरे घटने पर सहलाते हए मेरे पैर पर भी ले गए। हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। यह उन्होंने किसी प्रेम के क्षण में किया होगा। लेकिन उनको भी पश्चिम में एक विचार चलता है, घुमनिस्ट, मानवतावादियों 1147 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 का। वे कहते हैं, मनुष्य के ऊपर और कोई भी सत्य नहीं है। मनुष्य आखिरी सत्य है। लेकिन जब कोई कहता है, मनुष्य आखिरी सत्य है, तो उसका अर्थ है कि अब प्रगति का कोई उपाय न रहा। जब कोई कहता है, मनुष्य आखिरी सत्य है, तो उसका अर्थ है ' अब ऊपर आंखें उठाने की कोई जगह न रही । उसका अर्थ है कि अब हम जो हैं, अब हम वही होने को आबद्ध हैं। अब इसमें कोई क्रांति, इसमें कोई | विस्फोट, इसके पार जाने का अब कोई उपाय नहीं है। अपने से श्रेष्ठतर की तरफ जो आंख है, वह पार जाने का उपाय है, द्वार है । और जिस दिन आदमी स्वयं के पार जाना बंद कर देता है, उसी दिन आदमी सड़ जाता है, नष्ट हो जाता है। नी ने कहा है, जिस दिन आदमी की प्रत्यंचा पर, जिस दिन आदमी के धनुष पर दूर और आदमी के पार जाने का बाण नहीं चढ़ेगा, उसी दिन आदमी समाप्त हो जाएगा। सदा अपने से पार जाना है। लेकिन पार जाना तभी संभव है, जब पार जाने वाली किसी बात के प्रति हमारा समर्पण हो । ये हिंदू बहुत अदभुत लोग थे एक अर्थ में, कि अगर पीपल में भी उन्हें कोई पार जाने वाली चीज दिखाई पड़ी, प्रज्ञा की कोई झलक मिली, कोई लौ, कोई छोटा-सा दीया वहां भी दिखाई पड़ा, तो उन्होंने वहां भी अपना सिर जमीन पर रख दिया। कोई जरूरत नहीं है आदमी को पीपल के सामने झुकने की। क्या है जरूरत? और पीपल की क्या है सामर्थ्य कि आदमी को अपने सामने झुका ले! आदमी चाहे तो काटे और सारे पीपल पृथ्वी से अलग कर दे। लेकिन असहाय पीपल के सामने भी, जिसको काटकर हटाया जा सकता है, जब आदमी ने सिर झुकाया, तो कुछ गहरा कारण था। और वह गहरा कारण यह था कि समस्त वृक्षों में पीपल के पास एक अपनी तरह की बुद्धिमत्ता है । उस बुद्धिमत्ता से संबंध भी जोड़ा जा सकता है। यूनानी चिकित्सा के जन्मदाता लुकमान ने एक लाख वनस्पतियों गुणधर्म लिखे हैं। बड़ी चकित करने वाली बात है। क्योंकि लुकमान के पास न तो कोई प्रयोगशाला थी, न कोई रासायनिक उपाय थे, न यंत्र थे, जिनके माध्यम से एक लाख वनस्पतियों के गुणधर्म जाने जा सकें । लुकमान तो गांव-गांव भटकने वाला फकीर था । एक झोली के सिवाय उसके पास कुछ भी न था, जिसमें उसका भिक्षा का पात्र होता । इस लुकमान को एक लाख वनस्पतियों के गुणधर्मों का पता चलना, बड़ी हैरानी की बात है। और इसके पहले किसी को भी पता न था, इसलिए किसी दूसरे से पता चला हो, इसका उपाय नहीं है। V लुकमान ने खुद जो कहा है, वह भरोसे की बात नहीं थी। लेकिन अब उस पर भरोसा आ सकता है। इसलिए मैं अक्सर कहता हूं कि | हमें जल्दी गैर - भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि हो सकता है, बाद की खोज - बीन हमारे संदेहों को गिरा दे। लुकमान ने कहा है कि मैंने तो पौधों से ही पूछ लिया कि तुम्हारा गुणधर्म क्या है ! और तो मेरे पास कोई उपाय न था। मैं तो पौधों के पास ही आंख बंद करके ध्यानस्थ होकर जाता था। उसी से पूछ लेता था कि तू किस बीमारी में काम आ सकता है, तू मुझे बता दे ! पौधा जो बता देता, वह मैं लिख लेता था। ऐसे मैंने एक लाख पौधों पूछ लिया। और बड़ी हैरानी की बात है कि लुकमान ने जिस पौधे का जो गुणधर्म कहा है, हमारी श्रेष्ठतम विज्ञान की प्रक्रिया भी उससे भिन्न गुणधर्म नहीं बता पाती है ! वही गुणधर्म उस पौधे के हैं ! उसी बीमारी पर वह काम आता है! तो इतिहासविदों को, चिकित्साशास्त्रियों को, सभी को हैरानी रही है कि कोई कारण तो दिखाई नहीं पड़ता है कि लुकमान को पता कैसे चला। लेकिन लुकमान जो कारण बताता है, वह भी मानने योग्य मालूम नहीं पड़ता। पौधे क्या बताएंगे ! लेकिन अभी अमेरिका में इस सदी में एक आदमी हुआ, कायसी । और कायसी की घटना ने सिद्ध किया कि लुकमान ने ठीक कहा होगा। क्योंकि कायसी को अचानक एक क्षमता उपलब्ध हो गई। कायसी बहुत बीमार था । और चिकित्सकों ने इनकार कर दिया । सब तरह की चिकित्सा हुई, वह ठीक नहीं हुआ, नहीं हुआ। ठीक नहीं हुआ। उन्होंने इनकार कर दिया। कायसी इतना दुखी हो गया कि आत्मघात का सोचने लगा। एक दिन वह आत्मघात का सोचते-सोचते बेहोश हो गया। और बेहोशी में उसने जोर से चिल्लाकर कहा कि यह यह दवा अगर मुझे दी जाए, तो मैं ठीक हो जाऊंगा। घर के लोगों ने वह दवा नोट कर ली। चिकित्सकों से पूछा। उन्होंने कहा, ऐसी दवा का हम नाम भी नहीं जानते ! यह कौन-सी दवा ! और जब कायसी होश में आया, तो उसे भी कुछ पता नहीं था कि उसने कोई दवा का नाम लिया है। दवा की खोज बीन की गई। वह दवा मिल गई। लेकिन दवा ऐसी थी कि बीस साल पहले किसी ने स्विटजरलैंड में उसका पेटेंट करवाया था। लेकिन बनाई नहीं गई थी। फिर कभी बाजार में आई 148 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिजात्य का फूल - नहीं। सिर्फ पेटेंट था उसका। कभी बाजार में विज्ञापन नहीं हुआ। भी जो ज्ञान उपलब्ध हुआ है, वह ज्ञान सिर्फ प्रयोगशाला से उपलब्ध कभी चिकित्साशास्त्र की किताबों में उसका नाम नहीं आया। कभी हुआ हो, ऐसा नहीं मालूम पड़ता। उसमें बहुत-सा ज्ञान तो किसी डाक्टर ने किसी मरीज को वह दी नहीं। किसी ने दवा बनाई | वनस्पतियों के साथ सीधे संबंध, अंतर्संबंध से उपलब्ध हुआ है। थी। पेटेंट करवाई। और फिर वह कभी बाजार में नहीं आ सकी। क्या कोई रास्ते हैं जिनसे हम वनस्पतियों से भी संबंधित हो वह आदमी मर गया, जिसने दवा बनाई थी। लेकिन उसका फार्मूला सकते हैं? रास्ते हैं। आप अपने भीतर जितने गहरे उतरते हैं, उतने पेटेंट था। ही आप अस्तित्व में भी गहरे उतरते जाते हैं। आप अगर एक कदम उस नाम का कायसी को पता चलना एक चमत्कार था। कायसी | नीचे उतरें, तो आप पशुओं से संबंधित हो सकते हैं। और एक अमेरिका में था और स्विटजरलैंड में वह पेटेंट हुआ था। वह दवा | | कदम नीचे उतरें, तो आप वनस्पतियों से संबंधित हो सकते हैं। बनाई गई और कायसी उससे ठीक हो गया। तब तो कायसी के हाथ | और एक कदम नीचे उतरें, तो आप खनिज पदार्थों से संबंधित हो में एक सूत्र लग गया। फिर तो उसने अंदाजन एक लाख मरीजों को | सकते हैं। आप जितने अपनी गहराई में उतरते हैं, उतने ही आप ठीक किया। इस सदी की यह सबसे बड़ी चमत्कारपूर्ण घटना थी। अस्तित्व के गहरे तलों से संबंधित हो सकते हैं। जैसे लुकमान वापस आ गया हो। कृष्ण का यह कहना कि वनस्पतियों में मैं पीपल हं, सिर्फ प्रतीक कायसी किसी भी मरीज को, उसका नाम, पता आप भेज दें। ही नहीं है; बहुत उदबोधक है। वह बेहोशी में, रोज बेहोश होगा, और रोज बेहोशी में वह जवाब | दूसरा प्रतीक कृष्ण कहते हैं, देवर्षियों में मैं नारद मनि। दे देगा, कि यह-यह दवा! कायसी विद्यार्थी नहीं था चिकित्साशास्त्र नारद एक अनूठा चरित्र हैं। शायद विश्व की किसी भी का, दवाओं के नाम भी उसे पता नहीं थे। बीमारियों का उसे कोई | माइथोलाजी में नारद जैसा चरित्र नहीं है। अगर नारद को हम अंदाज नहीं था। लेकिन बेहोशी में वह बोल देता था, यह-यह दवा | समझना चाहें, तो दो-तीन बातें समझें, तो खयाल में आए कि कृष्ण उपयोग आएगी। और वह दवा सदा उपयोग में आती थी। और उस को नारद से अपना संबंध जोड़ने की क्या जरूरत पड़ी होगी! दवा से ऐसे मरीज ठीक हुए, जिनको चिकित्साशास्त्र ने ठीक करने | नारद पहली बात तो गंभीर व्यक्तित्व नहीं है; गैर-गंभीर की सामर्थ्य छोड़ दी थी। | व्यक्तित्व है। नारद के व्यक्तित्व में गंभीरता बिलकुल नहीं है। कायसी को क्या हो रहा था? रहस्यपर्ण मामला है। कायसी जीवन को एक खेल और नाटक से ज्यादा समझने की वत्ति नहीं है। भीतर चेतना के किस तल पर उतर रहा था? उसका भी कुछ साफ और जीवन को एक मनोरंजन, एक उत्सव, और वह भी बहुत नहीं है। कायसी को खुद भी कोई पता नहीं था। कायसी खुद भी गैर-गंभीर ढंग से। होश में आकर डरता था कि मैं नहीं जानता, कोई ठीक होगा या नहीं तो नारद के साथ कृष्ण का यह कहना कि देवर्षियों में मैं नारद होगा। और यह दवा लेने से फायदा होगा या नुकसान होगा, इसकी हूं, कुछ बातों की सूचना है। एक तो यह सूचना है कि कृष्ण, जो मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है। क्योंकि बेहोशी में मैंने कहा है, उसकी गंभीर ऋषि हैं, उनके साथ अपने को नहीं जोड़ेंगे। नहीं जोड़ने का क्या जिम्मेवारी? यह आप अपनी जिम्मेवारी पर ले सकते हैं! | कारण है। गंभीरता भी एक तरह की बीमारी है। सीरियसनेस एक क्या कायसी और बीमारियों के बीच कोई अंतर्संबंध स्थापित हो तरह की बीमारी है। और गहरी बीमारी है। जाता था? क्या कायसी और दवाओं के बीच कोई अंतर्संबंध गंभीर आदमी न तो हंस सकता है, न नाच सकता है, न जी स्थापत हा जाता था? कई बार तो कायसा कहता था, फलां वृक्ष की | सकता है। गंभीर आदमी जीता है मरा-मरा। गंभीर आदमी की पत्तियां और फलां वृक्ष का फूल और यह-यह मिलाकर दे देने से जिंदगी एक क्रमिक मौत है। गंभीर आदमी होता है आत्मघाती, ठीक हो जाएगा। और आदमी उसको दे देने से ठीक हो जाते थे। क्या | स्युसाइडल। गंभीरता उसके ऊपर होती है, जैसे मरघट उसके चारों कायसी को वनस्पतियों से कोई अंतर्संबंध स्थापित हो जाता था? | | तरफ हो, जिंदगी नहीं। और गंभीर आदमी न तो प्रार्थना कर सकता कायसी की घटना ने पुनर्विचार का मौका दिया कि शायद | । है, न पूजा कर सकता है। क्योंकि पूजा और प्रार्थना, सब जीवन के लकमान ठीक कहता हो। और तब भारतीय आयुर्वेद के संबंध में भी उत्सव से जीवन की गंभीरता से नहीं। बहुत-सी बातें साफ हो सकती हैं। क्योंकि भारतीय आयुर्वेद के पास गंभीर ऋषि हुए हैं। लेकिन जो गंभीर ऋषि है, उसका अर्थ यह वह 149 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग- 58 हुआ कि अभी जीवन के आधे हिस्से से ही उसने अपने को एक माना | ईसाइयों ने तो मान रखा है कि जीसस कभी हंसे ही नहीं। कभी है, शेष आधे हिस्से से नहीं। जीवन की समग्रता से उसका संबंध | | नहीं हंसे। मैं तो नहीं मान सकता कि यह बात सच होगी, लेकिन नहीं है। जीवन के अधूरे हिस्से से उसका संबंध है। जो ठीक है, | ईसाइयत ऐसा मानती है कि जीसस कभी हंसे नहीं। क्योंकि हंसना उससे उसका संबंध है; जो साफ-सुथरा है, उससे उसका संबंध है; | तो प्रोफेन, बहुत अपवित्र मालूम होता है। जीसस जैसा आदमी जो उपयोगी है, उससे उसका संबंध है। लेकिन जो गैर-उपयोगी है, | हंसे! नहीं। जो मात्र खेल है, जो मात्र मनोरंजन है, उससे उसका संबंध नहीं है। तो ईसाइयों ने जीसस का जैसा चेहरा बनाया, उदास, जैसे सारी हम सोच भी नहीं सकते कि ऋषि झूठ बोल सके, लेकिन नारद | दुनिया का बोझ उनके ऊपर है। और ईसाई मानते भी हैं कि सारी बोल सकते हैं। हम सोच भी नहीं सकते कि ऋषि किसी को उलझाए, | दुनिया का पाप उन्होंने अपने ऊपर ले लिया, तो निश्चित ही भारी लेकिन नारद उलझा सकते हैं। हम सोच भी नहीं सकते कि ऋषि को | | बोझ हो जाएगा! एक आदमी का पाप ही एक आदमी के ऊपर इसमें कुछ रस आए, उलझाने में, लेकिन नारद को रस है। तो जो | । काफी बोझ है। और जीसस सारी दुनिया का पाप अपने ऊपर ले गंभीर हैं, वे तो नारद को ऋषि तक मानने को राजी न होंगे। | लिए हैं! और जीसस के द्वारा सारे जगत की मुक्ति का उपाय हो ___ मैं मुल्ला नसरुद्दीन की आपको न मालूम कितनी बार कहानियां रहा है! तो भारी उपक्रम है, भारी बोझ है। कहता हूं। मुल्ला नसरुद्दीन सूफियों के लिए एक बड़े से बड़ा | लेकिन मैं मानता हूं कि जीसस को समझा नहीं जा सका। जीसस मिस्टिक है, बड़े से बड़ा रहस्यवादी है। अधिक लोग तो समझते | को समझना मुश्किल पड़ा है। खुद जीसस के व्यक्तित्व को हम हैं, वह एक मूढ़ है। कोई समझता है, वह एक जोकर है, एक लोगों | ठीक से देखें, तो हमें पता चलेगा कि यह बात ठीक नहीं मालूम को हंसाने वाला व्यक्ति है। लेकिन सूफी मानते हैं कि मुल्ला | पड़ती है। जीसस जरूर हंसते रहे होंगे। क्योंकि जीसस अच्छे खाने नसरुद्दीन एक गहरे से गहरा रहस्यवादी संत है। और वह है। से भी प्रेम करते थे, सुंदर स्त्रियों को भी पसंद करते थे, भोजन में लेकिन जीवन को गंभीरता से लेना उसका ढंग नहीं है। और | शराब भी थोड़ी ले लेने में उन्हें कोई हर्ज न था। ऐसा आदमी न हंसा बहुत बार आपके ऊपर भी मजाक करना हो, तो वह अपने ऊपर | हो, यह माना नहीं जा सकता। लेकिन इनके आस-पास जरूर कुछ मजाक करवाता है। और बहुत बार आपकी कोई कमजोरी प्रकट गंभीर लोग इकट्ठे हो गए होंगे। करनी हो, तो वह अपनी ही कमजोरी के द्वारा उसको जाहिर करता एक मजे की बात है कि दुनिया में कुछ गंभीर लोग है। बहुत बार आप पर न हंसकर, वह खुद अपने को इस हालत में | पैथालाजिकली बीमार हैं। और ऐसे लोग धर्म की तरफ बड़ी जल्दी रख देता है कि आप उस पर हंसें। वह पूरी मनुष्य-जाति को एक | आकर्षित होते हैं। उसका कारण है, क्योंकि जिंदगी में उनको कहीं कास्मिक जोक, एक विराट मजाक समझता है। | कोई उपाय नहीं मिलता अपनी उदासी के लिए। तो बीमार तरह के नारद भी उसी तरह का व्यक्तित्व हैं, दूसरे पहलू से। नारद के लोग मंदिरों में, मस्जिदों में और चर्षों में इकट्ठे हो जाते हैं। जिंदगी लिए जगत एक मंच है, एक नाटक है। और कृष्ण का नारद को | | तो हंसती मालूम पड़ती है, वहां उन्हें बिलकुल जिंदगी बेकार मालूम चुनना, कि देवर्षियों में मैं नारद हूं, कुछ बातों की सूचना देता है। | पड़ती है। जहां भी फूल खिलते हैं, वहां वे बिलकुल भाग खड़े होते एक, कि जगत को एक खेल और एक नाटक से जो ज्यादा हैं। जहां कोई हंसता है, प्रसन्न होता है, वहां से वे हट जाते हैं। समझता है, वह आदमी धार्मिक नहीं है। यह बहुत कठिन मालूम तो बीमारों और विक्षिप्तों के समूह कहीं न कहीं तो इकट्ठे होंगे। पड़ेगा। क्योंकि धार्मिक आदमी जगत को बड़ी गंभीरता से लेता और धर्म उनके लिए बहुत सुगम उपाय है। क्योंकि धर्म के नाम पर है, बड़ी गंभीरता से! धार्मिक आदमी जगत के प्रति बड़ा गणित उदास होना, एक रेशनलाइजेशन बन जाता है, एक बुद्धियुक्त बात का हिसाब रखता है, कैलकुलेटिंग होता है। धार्मिक आदमी | बन जाती है। फिर उनकी उदासी को आप बीमारी नहीं कह सकते; मजाक में भी असत्य का उपयोग नहीं कर सकता। और धार्मिक उनकी उदासी तपश्चर्या हो जाती है। और उनके दुख को फिर आप आदमी एक-एक कदम सम्हलकर रखता है कि कहीं कोई | यह नहीं कह सकते कि तुम नाहक दुखी हो। उनका दुख एक भूल-चूक न हो जाए। धार्मिक आदमी हंसता है, तो भी सोचता मेटाफिजिक्स, एक दर्शनशास्त्र बन जाता है। वे दुखी यूं ही नहीं हैं, है, हंसना कि नहीं हंसना! बल्कि वे दुखी लोग इकट्ठे होकर सभी हंसने वालों को पापी कहेंगे। 1150 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 आभिजात्य का फूल और हालत यह है-यह सोचने जैसी है—कि दुखी लोग तो मैं ऐसे साधुओं को जानता हूं, जिनके सामने आप पैसा रखें, हमेशा मुखर होते हैं। पीड़ित और परेशान लोग बहुत बकवासी होते तो वे आंख बंद कर लेंगे। मैं ऐसे साधुओं को जानता हूं, जो पैसा हैं। वे काफी बोलने वाले लोग होते हैं। वे अपने दुख को मुखर कर नहीं छुएंगे। देते हैं, और वे दुख के आस-पास दर्शनशास्त्र खड़े कर लेते हैं। एक संन्यासी मुझे मिलने आए थे। उस दिन मुझे समय न था, और जो हंसता है, उसे वे कंडेम, उसे वे निंदा कर सकते हैं। तो मैंने कहा, कल सुबह आप मिलने आ जाएं। उन्होंने कहा, बड़ी अगर हम दुनिया के धर्मों का इतिहास देखें, तो बड़ी दुर्घटना | | मुश्किल है। उनके साथ एक सज्जन और थे। उन्होंने कहा कि अगर मालूम पड़ती है। महावीर बहुत प्रसन्न आदमी मालूम पड़ते हैं। उनके | | ये कल सुबह आने को राजी हों, तो मैं आ जाऊं। तो मेरी कुछ रोएं-रोएं से प्रसन्नता की झलक है। उनके रोएं-रोएं से जो हवा उठती | | समझ में न पड़ा। मैंने कहा, इनकी क्या जरूरत है? आप अकेले है, वह एक गहरे आनंद की है। लेकिन उनके आस-पास धीरे-धीरे | आ जाएं! उन्होंने कहा, बात ऐसी है कि पैसा मैं खुद नहीं रखता। जो वर्ग इकट्ठा होता है, वह बिलकुल ही रुग्ण है। तो टैक्सी वगैरह को देने-लेने के लिए इनको, ये रखते हैं पैसा। कृष्ण तो बांसुरी बजाते हुए मालूम पड़ते हैं। नाचते हुए मालूम ___ बड़े मजे की बात है। एक ही पाप को करने के लिए दो आदमियों पड़ते हैं। जिंदगी से उन्हें प्रेम है। जिंदगी एक उत्सव है। और जिंदगी | की जरूरत पड़ रही है! पैसा दूसरा आदमी रखता है। वह साथ आए, अपने आप में एक आनंदपूर्ण खेल है। लेकिन बांसुरी बजाने वाले | | तो वे आ सकते हैं, क्योंकि देने वगैरह के लिए! वे पैसा नहीं छूते! आदमी के आस-पास भी ऐसे लोग इकट्ठे होने लगते हैं, जो उदास ___ कुछ पागल हैं जो पैसा ही छूते हैं, और किसी चीज को छूने में हैं, रुग्ण हैं, जिंदगी से थके हैं, परेशान हैं। धीरे-धीरे ये लोग सख्ती | उन्हें कुछ रस ही नहीं आता! एक पागल ये दूसरे हैं; शीर्षासन किया से संगठन निर्मित कर लेते हैं। और सारे धर्म पैदा होते हैं आनंद से, | हुआ पागल हैं। वे उलटा कहते हैं, हम छू नहीं सकते पैसा। लेकिन और सारे धर्म दुखी लोगों के हाथ में पड़ जाते हैं। गंभीर दोनों हैं। पैसे के बाबत दोनों गंभीर हैं, सीरियस हैं। पैसा बड़ी धर्म जब भी पैदा होता है, तो किसी विराट आनंद से पैदा होता | कीमती चीज दोनों को मालूम पड़ती है। दोनों को! एक को लगता है; और जब भी धर्म संगठित होता है, तो गलत लोग उसे संगठित | | है, पैसा मोक्ष है; एक को लगता है, पैसा नर्क है। लेकिन पैसा कर लेते हैं। असल में आनंदित आदमी तो संगठित होना भी नहीं | सिर्फ पैसा है, ऐसा दोनों को नहीं लगता। चाहता। आनंदित आदमी तो अकेला भी काफी होता है। लेकिन | नारद इस जिंदगी में इन दोनों तरह के आदमियों से अलग दुखी आदमी समूह इकट्ठे करने लगते हैं। उदास आदमी समूह | | आदमी हैं। दोनों से अलग आदमी हैं। जिंदगी कोई गंभीर बात नहीं इकट्ठे करने लगते हैं। | है। जैसे कोई रामलीला के मंच पर राम बन गया हो, और रावण कृष्ण का यह वक्तव्य बहुत विचारने जैसा है कि वे कहते हैं कि बन गया हो। मैं देवर्षियों में नारद है। तो रावण भी कोई रामलीला के मंच पर ऐसा नहीं समझता कि जिंदगी एक नाटक है। और वही है ऋषि, जो जिंदगी की पूरी मैं कोई पाप कर रहा हूं। पाप एक ही है कि अगर वह खेल ठीक नाटकीयता को समझ ले। जीवन एक खेल है, एक लीला है। उसे | से न खेल पाए; अगर अभिनय ठीक से न कर पाए, तो एक ही जो गंभीरता से लेता है, वह बीमार है। जिंदगी को जो हल्केपन से | | पाप है। रावण होने में कोई पाप नहीं है। और न राम ही यह समझते ले ले, खेल से ज्यादा मूल्य का न माने...। हैं कि हम कोई बड़ा भारी पुण्य कर रहे हैं। एक ही पुण्य है कि इसे हम ऐसा समझें तो आसान हो जाए। एक आदमी धन इकट्ठा | | अभिनय कुशलता से हो जाए। मंच के बाहर उतरकर बात समाप्त करता है, बड़ी गंभीरता से। एक-एक पाई-पाई जोड़ता है। वहीं हो जाती है। इस झगड़े को घर तक ले जाने की कोई जरूरत भी नहीं जिंदगी लगी है उसकी। सभी कुछ यही है। अगर वह एक ढेर लगा पड़ती। मंच के पीछे भी ले जाने की कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी लेगा धन का, तो उपलब्धि हो जाएगी जीवन की। बड़ी गंभीरता से | को लेकिन हम गंभीरता से ले लेते हैं। धन इकट्ठा करता है। फिर पाता है कि सब व्यर्थ हो गया। जिंदगी तो जिंदगी को जो अभिनय की तरह ले पाए, उसने गहनतम सत्य हाथ से चली गई, ढेर रह गया मिट्टी का। तब वह इतनी ही गंभीरता को जान लिया। फिर अतियों में चुनाव नहीं होता; फिर आदमी मध्य से इसका त्याग भी करता है। तब वह इसे छोड़कर भागता है। । में चल सकता है। फिर उसे एक पागलपन छोड़कर दूसरे पागलपन | 151 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-500 में उतरने की जरूरत नहीं रहती। फिर वह दोनों पागलपन छोड़ | स्वीकार-कृष्ण जैसा आदमी होना तो कठिन है-कृष्ण को उनका सकता है, या दोनों पागलपन के बीच हंसते हुए गुजर सकता है।। | पूरा का पूरा स्वीकार करने में भी हमारी हिम्मत नहीं होती। नारद इस जिंदगी को एक खेल समझते हैं; एक मंच से ज्यादा ___ अगर हम सूरदास से पूछे, तो वे कृष्ण के बालपन को ही नहीं। उसका कोई आत्यंतिक मूल्य नहीं है, कोई अंतिम मूल्य नहीं | स्वीकार करते हैं। बाद की अवस्था में सूरदास जरा पीछे हट जाते है। इसलिए नारद के लिए अभिनय है सब कुछ। कृष्ण के लिए भी | हैं, झिझक जाते हैं। क्योंकि अगर बच्चा है और स्त्रियों से छेड़खानी वही बात है। कृष्ण के लिए भी जीवन एक अभिनय है। कृष्ण के कर रहा है, तो हम बर्दाश्त कर सकते हैं; समझ में आ जाता है; लिए भी जीवन कोई गंभीर बात नहीं है। छोड़ा जा सकता है। लेकिन जवान! तो सूरदास को भी चिंता होती इसीलिए हमने इस मुल्क में कृष्ण को पूर्णावतार कहा। राम को | है कि यह बात तो थोड़ी आगे हो जाएगी! हम पूर्णावतार नहीं कह सके। कारण है। राम थोड़े गंभीर हैं। मर्यादा केशव ने हिम्मत की है कृष्ण के युवा व्यक्तित्व को पकड़ने की, है, तो गंभीरता होगी। गैर-गंभीर आदमी में मर्यादा नहीं हो सकती। | लेकिन लोग केशव को गाली देते हैं। और कृष्ण के भक्त कहते हैं, गैर-गंभीर आदमी मर्यादा-तोड़क होगा। इसलिए राम को हमने केशव ने सब खराब कर डाला। लोग तो यह कहते हैं कि केशव ने अवतार कहा, लेकिन पूर्ण अवतार हम न कह सके। इसलिए हिंदू अपने ही विचारों को कृष्ण में डाल दिया। यह बात सच नहीं है। यह चिंतन की समझ बड़ी गहरी है। हमने अवतार कहा, हमने श्रेष्ठतम बात सच नहीं है। केशव ने तो कृष्ण के उस युवा व्यक्तित्व को उभारा जगह पर राम को रखा। लेकिन फिर भी हमने कहा, वह अंश ही | है, जो सूर से बच गया। लेकिन केशव की भी तकलीफ वही है। वे अवतार हैं। भी एक ही हिस्से को, उनके युवा प्रेम की कथा को, उनके रास को पूर्ण अवतार तो हम कृष्ण को ही कह सके, क्योंकि कोई मर्यादा | | ही उभार पाते हैं, बाकी हिस्से उनको भी मुश्किल हो जाते हैं। नहीं है। कृष्ण से ज्यादा मर्यादा-मुक्त व्यक्तित्व पृथ्वी पर हुआ ही | ___ गांधी को कृष्ण से बहुत प्रेम था, गीता से बहुत प्रेम था। लेकिन नहीं। और अब शायद कभी हो भी न सके। क्योंकि उतना | | एक बड़ी अड़चन थी उनको, कि उसमें हिंसा का मामला है। और मर्यादा-मुक्त व्यक्ति पैदा हो, इसके लिए एक बड़ा मर्यादा-मुक्त | | उससे वे कभी संगति नहीं बिठा पाए। वे कहते थे कि गीता मेरी समाज चाहिए। नहीं तो आप पहचान ही नहीं सकेंगे। माता है, लेकिन वे कभी संगति नहीं बिठा पाए; वह सौतेली माता आप भला कहते हों कि हम कृष्ण के भक्त हैं। अभी चौपाटी ही रही। संगति नहीं बिठा पाए इसलिए कि इस हिंसा का क्या पर खड़े होकर बांसुरी वगैरह बजाने लगे और दो चार सखियां होगा? गांधी की अहिंसा से इसका मेल कहां है? तो एक ही नाचने लगें, आप पुलिस में खबर कर दोगे, कि यह आदमी भ्रष्ट तरकीब थी—उसको मैं तरकीब कहता हूं तो गांधी कहते थे, यह किए दे रहा है! यह तो सारा आचरण समाप्त हो जाएगा। और यह सिर्फ प्रतीक है युद्ध। यह वास्तविक युद्ध नहीं है। बुराई और भलाई तो नीति-नियम का क्या होगा? फासला लंबा है अब, इसलिए के बीच प्रतीक है। इस भांति वे अपने को समझा लेते थे कि कृष्ण आपको अड़चन नहीं होती। हिंसा को कोई सहारा नहीं दे रहे हैं। लेकिन जिन लोगों के बीच कृष्ण पैदा हुए थे, वे लोग भी बहुत | लेकिन यह बात ठीक सच नहीं है। यह महाभारत प्रतीक नहीं अदभुत रहे होंगे। इस आदमी में भी वे कुछ देख सके। इस है। यह महाभारत वास्तविक युद्ध है। इस वास्तविक युद्ध में हिंसा मर्यादा-मुक्त, मर्यादा-शून्य व्यक्तित्व में भी उन्हें कोई झलक मिल | हुई है। उसी हिंसा से कृष्ण भागते हुए अर्जुन को रोक रहे हैं। उसी सकी। वे लोग भी साधारण न रहे होंगे। | हिंसा से डरकर अर्जुन भाग रहा है। अर्जुन को अगर रास्ते में कहीं कृष्ण को हमने कहा पूर्ण अवतार, इसलिए कि जीवन को उसकी | | गांधीजी मिल जाते, तो सारी कथा दूसरी होती। कृष्ण मिल गए, समग्रता में उन्होंने किया है स्वीकार–समग्रता में। किसी चीज का | इसलिए सारा का सारा मामला दूसरा हुआ। पूरा इतिहास और कोई अस्वीकार नहीं है। जिसको हम आमतौर से बुरा कहें, कृष्ण हुआ। गांधीजी कभी भी नहीं स्वीकार कर पाए मन में कि यह युद्ध के लिए उसका भी कोई अस्वीकार नहीं है। और हिंसा का क्या हो। इसलिए जो लोग कृष्ण के जीवन में कंसिस्टेंसी खोजते हैं, संगति | । गांधीजी की तकलीफ कठिन थी। नब्बे परसेंट वे जैन थे और खोजते हैं, वे बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं। और इसलिए कृष्ण को पूरा दस परसेंट हिंदू थे। गुजरात ऐसे भी नब्बे परसेंट जैन है, हिंदू हो 152 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिजात्य का फूल तो भी। बचपन से गांधी के मन पर जो प्रभाव था, वह जैन का था, फैला हुआ व्यक्तित्व है, इसको हमने पूर्ण कहा। राम तक को हम जैन साधु का, खासकर राजचंद्र का प्रभाव था। गांधी ने अपने तीन अपूर्ण ही कहेंगे, आंशिक कहेंगे। राम गंभीर हैं, अति गंभीर हैं। गुरुओं में राजचंद्र को गिनाया है। राजचंद्र को, रस्किन को, कृष्ण का यह जो गैर-गंभीर, लीलामयी व्यक्तित्व है. उसके ही टाल्सटाय को, तीनों जैनी हैं। दो तो ईसाई हैं, लेकिन उनकी भी | | प्रतीक के लिए उन्होंने देवर्षियों में नारद को चुना। बुद्धि बिलकुल जैन है। यह प्रभाव था, और फिर गीता पर प्रेम था| ___ गंधों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिल मुनि हूं। हिंदू का। कपिल के संबंध में थोड़ी-सी बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। इसलिए मामला ऐसा हो गया कि इन दोनों के बीच सारी दुविधा कृष्ण को समझना आसान होगा। खड़ी हो गई और असंगति मालूम पड़ती रही। इसलिए फिर उन्होंने | __जगत में दो निष्ठाएं हैं। एक निष्ठा का नाम है योग, और एक एक रास्ता निकाल लिया कि यह प्रतीक युद्ध है। युद्ध कभी हुआ | | निष्ठा का नाम है सांख्य। यह बड़ा हैरानी का मालूम होगा, क्योंकि नहीं। और कृष्ण कैसे हिंसा की बात कर सकते हैं! यह तो बुराई | कृष्ण को हम योगेश्वर कहते हैं। यह फिर असंगत बात है। कृष्ण को मारने की बात है। | ने जो कपिल को चुना, कपिल का योग से कोई संबंध नहीं है। लेकिन यह बात ठीक नहीं है। यह गांधीजी की अपनी व्याख्या कपिल योग-विरोधी हैं। है, खुद की दुविधा को हल कर लेने की। दो निष्ठाएं हैं। एक है योग। योग का मानना है कि सत्य को, कृष्ण के साथ यह कठिनाई सदा रही है। कृष्ण ने वायदा किया परमात्मा को पाना हो, तो कुछ करना पड़ेगा। कोई अभ्यास, कोई था कि मैं शस्त्र नहीं उठाऊंगा युद्ध में, और फिर शस्त्र उठा लिया। साधन, कोई साधना, कोई प्रक्रिया, कुछ क्रिया से गुजरना पड़ेगा। वचन भंग हो गया! कृष्ण जैसे आदमी से हम वचनभंग की आशा . बिना क्रिया से गुजरे हुए उस परमात्मा तक नहीं पहुंचा जा सकता। नहीं करते। जब कहां था कि शस्त्र नहीं उठाएंगे, तो नहीं उठाना था। | क्योंकि आदमी है अशुद्ध, तो किसी आग से गुजरकर उसे शुद्ध फिर शस्त्र उठा लिया! इनकंसिस्टेंसी मालूम पड़ती है। असंगत है होना पड़ेगा। माना कि छिपा है उसमें वह सत्य, लेकिन वह सत्य यह आदमी! ऐसे ही है जैसे कि सोना मिट्टी से मिला हुआ पड़ा हो। उस मिट्टी लेकिन हमारे सोचने का ढंग गंभीर है, इसलिए मालूम पड़ती को छानकर अलग करना पड़ेगा। जलाना पड़ेगा, सोने को आग में है। कृष्ण के सोचने का ढंग गैर-गंभीर है। यह खेल की बात है। | तपाना पड़ेगा, ताकि कचरा जल जाए और शुद्ध स्वर्ण निखर आए। इसमें बहुत गंभीर कृष्ण नहीं हैं। इसमें गंभीर होने का उन्हें कोई | | कुछ करना पड़ेगा। योग का मानना है, बिना कुछ किए कुछ भी प्रयोजन नहीं है। नहीं हो सकता। सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन पर एक अदालत में मुकदमा चला __ सांख्य का मानना इसके बिलकुल विपरीत है। सांख्य का मानना और मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम्हारी उम्र कितनी है? उसने कहा, | है कि कुछ करने का सवाल ही नहीं है, मात्र जानना काफी है। सिर्फ चालीस साल। उस मजिस्ट्रेट ने कहा, लेकिन जहां तक मेरा खयाल जानना काफी है, करने का कोई सवाल नहीं है। यह कोई सोना नहीं है, पांच साल पहले भी तुम पर मुकदमा चला था, और तब भी है, जो अशुद्ध हो गया है। आदमी परमात्मा है, सिर्फ विस्मृत हो तुमने कहा था चालीस साल! तो नसरुद्दीन ने कहा कि मैं अपने गया स्वयं को। इसे कुछ शुद्ध नहीं होना है। आदमी शुद्ध परमात्मा वचन पर दृढ़ रहना जानता हूं। मैं कोई ऐसा आदमी नहीं हूं कि ऐसे ही है। कोई अशुद्धि उसमें नहीं हो गई। और सांख्य का कहना है, बदल जाऊं। जो एक दफा कह दिया, कह दिया! | अगर परमात्मा भी अशुद्ध हो सके, तो फिर इस दुनिया में शुद्धि का यह एक संगति है! कृष्ण में ऐसी संगति न खोजी जा सकेगी। कोई उपाय नहीं है। परमात्मा का तो अर्थ ही है कि जो अशुद्ध हो कृष्ण पल-पल असंगत हैं। अगर एक ही कोई संगति है उनमें, तो ही न सके। सिर्फ विस्मरण है यह, अशुद्धि नहीं है। वह यह है कि वह सब असंगतियों के बीच भी एक तालमेल है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। यह विस्मरण है। आप एक नशे अपनी असंगतियों में वे बिलकुल संगत हैं। और किसी चीज में में हैं और भूल गए हैं कि आप कौन हैं। या आप नींद में हैं और संगत नहीं हैं। | कोई ने आपको चौंकाकर उठा दिया और आपको याद न आया कि यह जो विराट, यह जो बहुमुखी, बहुआयामी, बहुत दिशाओं में आप कौन हैं। या आप अपने को कुछ और समझ बैठे हैं और 153| Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 आपने अपना तादात्म्य वही बना लिया और आपको खयाल में न कि कृष्ण कहें कि मैं मुनियों में कपिल मुनि हूं। कृष्ण भी गहरे में रहा कि आप कौन हैं। यह सिर्फ एक विस्मरण है। | तो यही मानते हैं और जानते हैं कि आदमी केवल भूल गया है, मात्र विवेकानंद कहते थे-पुरानी कथा है ईसप की, पंचतंत्र में भी भूलने की दुर्घटना हुई है। है कि एक सिंहनी छलांग लगाती थी एक पहाड़ी टीले से दूसरे लेकिन ऐसे बहुत कम लोग हैं, जो पुनर्मरण कर सकें। यह भी टीले पर। वह गर्भिणी थी, और बीच छलांग में उसको बच्चा हो | तो हो सकता है कि जब उस दूसरे सिंह को यह खयाल आया कि गया। नीचे भेड़ों का एक झुंड गुजरता था, वह बच्चा उस भेड़ों के | एक सिंह भेड़ बना जा रहा है, तो वह इस सिंह को पकड़ भी झुंड में गिर गया। भेड़ों ने उसे बड़ा कर लिया। वह बच्चा बड़ा हो | ले—इस कथा में तो यह बात नहीं है—वह सिंह जाने से इनकार गया। | ही कर दे नदी तक। संभावना यही होनी चाहिए। कहानी वाले ने वह बच्चा था तो शेर का, लेकिन उस बच्चे को यही पता था कि | खयाल नहीं किया; ईसप ने या पंचतंत्र ने खयाल नहीं किया। मैं भेड़ हूं। भेड़ों के बीच बड़ा हुआ था, भेड़ों ने बड़ा किया था। | संभावना तो यह होनी चाहिए कि वहीं बैठ जाए और इनकार कर दे कोई कारण भी नहीं था उसको पता चलने का कि वह सिंह है या | जाने से। या चला भी जाए, तो आंख बंद कर ले घबड़ाहट से। पानी शेर है या कुछ और है। लेकिन वह बड़ा होने लगा। भेड़ों से ऊपर में देखे ही नहीं। तब फिर कुछ करना पड़े तब इसको नदी तक निकल गया। फिर भी उसकी मान्यता तो भेड़ों की ही रही। भेड़ें यही | घसीटना भी पड़े; तब शायद जबर्दस्ती इसकी आंखें भी खोलना सोचती थीं कि कुछ शरीर इसका थोड़ा लंबा हो गया। वह भी यही पड़ें। तब ज्ञान काफी न हो, कुछ करना भी जरूरी हो जाए। सोचता था। भेड़ों जैसा ही चलता था, भेड़ों के झंड में ही | सौ में से निन्यानबे लोगों के लिए सांख्य का रास्ता.सही मालूम घसर-पसर होता था। भेड़ें जहां मुड़ जाती, भेड़ों का नेता, वहीं वह | हो, तो भी चलने योग्य मालूम नहीं हो सकता। निन्यानबे प्रतिशत भी मुड़ जाता था। भेड़ों जैसी ही आवाज करता था। लोगों को तो कुछ करना ही पड़ेगा। उस करने से ज्ञान नहीं होता, एक दिन मुसीबत में पड़ा। भेड़ों के इस झुंड पर एक दूसरे सिंह | लेकिन उस करने से आदमी नदी के किनारे तक पहुंच जाता है। उस ने हमला किया। भेड़ें भागीं। वह दूसरा सिंह यह देखकर बड़ी | करने से स्मरण नहीं आता, लेकिन उस करने से आंख खुल जाती मुश्किल में पड़ा कि भेड़ों के बीच में एक सिंह भी भाग रहा है। न | है और स्मरण की संभावना प्रबल हो जाती है। जो चाहे, वह तो तो भेड़ें उससे भयभीत हैं, न उस सिंह को ऐसा लगता है कि भेड़ों इसी वक्त भी स्मरण कर ले। के साथ भाग रहा है! वह दूसरा सिंह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। सुना है मैंने, झेन फकीर हुआ, रिझाई। जब वह अपने गुरु के उसने पीछा किया। बामुश्किल वह इसको पकड़ पाया। भेड़ बन | पास गया, तो उसके गुरु ने उससे पूछा कि तू कुछ होने में उत्सुक गए सिंह को बामुश्किल पकड़ पाया। पकड़ा, तो वह जैसे भेड़ें है या कुछ करने में? अगर तू कुछ करने में उत्सुक है, तो मैं तुझे मिमियाने लगें, वैसा मिमियाने लगा। उस दूसरे सिंह ने कहा कि तू | कुछ क्रियाएं बताऊं। तू दस-पांच साल क्रियाएं कर। और अगर तू यह कर क्या रहा है? वह दूसरा सिंह उसे पकड़कर नदी के किनारे | होने में उत्सुक है, तो इसी वक्त भी हो सकता है। ले गया और उसने कहा कि जरा अपने चेहरे को पानी में झांक और । रिझाई ने कहा कि जब इसी वक्त हो सकता है. तो फिर इसी वक्त मेरे चेहरे को भी साथ में पानी में देख! उस भेड़ बन गएं सिंह ने | | हो जाने की कोई व्यवस्था मुझे दें। कैसे मैं इसी वक्त हो जाऊं? पानी में झांककर दोनों चेहरे देखे और उसके भीतर से सिंह की | | तो उसके गुरु ने कहा, जो कैसे पूछता है, वह क्रिया के लिए पूछ गर्जना निकल गई। वह सिंह हो गया। रहा है। तुझे दस-पांच साल क्रिया करनी पड़ेगी। जो पूछता है सांख्य कहता है, आदमी ऐसे ही भ्रम में है। कुछ अशुद्ध नहीं | | कैसे? इसका मतलब है क्रिया। क्या करूं? उसके गुरु ने कहा, तू हो गया है, सिर्फ पहचान खो गई। तो उस पहले सिंह को, भेड़ बन | | हो सकता हो परमात्मा, इसी वक्त हो जा। और कुछ करने की गए सिंह को शुद्ध नहीं होना पड़ा। न काट-पीट करनी पड़ी; न कोई | जरूरत नहीं है। उसने कहा कि मैं कैसे हो जाऊं? आप कहते हैं, आसन, न कोई ध्यान, कुछ भी नहीं करना पड़ा। सिर्फ इतना बोध, इससे मैं कैसे हो जाऊं! स्मरण, रिमेंबरिंग कि मैं कौन हूं। सारा काम हो गया। तो उसके गुरु ने उसे क्रियाएं दीं, साधनाएं दीं। दस साल तक कपिल सांख्य की दृष्टि के आधार हैं। यह बहुत मजे की बात है। उसने निरंतर साधना की। और दस साल के बाद जब वह गुरु के | 154 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिजात्य का फूल सामने आया, तो उसने कहा कि अभी और करना है कि होना है? और ध्यान रहे, जो आपके करने से मिलेगा, वह आपसे छोटा उसने कहा, अब काफी हो गया दस साल। मैं करने से थक भी | होगा। आप करके पाएंगे, वह आपसे बड़ा नहीं हो सकता। गया। और करने से कुछ होता भी नहीं। तो उसके गुरु ने कहा, | | इसलिए परमात्मा करने से नहीं मिल सकता। क्योंकि अगर करने अगर तुझे यह समझ में आ गया हो कि करने से कुछ भी नहीं होता, | से मिलता हो, तो वह भी एक कमोडिटी, तो वह भी एक चीज, तो त अभी इसी वक्त हो सकता है। लेकिन कैसे मत पछना। वस्तु होगी, जो आपने कर ली। तिजोड़ी में जैसे और चीजें रख दी और कथा यह कहती है कि जैसे ही गुरु ने हाथ ऊपर उठाया | हैं लाकर, वैसे ही एक दिन परमात्मा को भी लाकर रख दिए! वह और कहा कि इसी वक्त हो सकता है, कैसे मत पूछना! रिझाई ज्ञान | | आपकी मुट्ठी की चीज होगी, अगर आपके करने से मिल जाए। को उपलब्ध हो गया। क्षुद्र हो जाएगी। रिझाई से बाद में लोग पूछते थे कि तुमने क्या किया उस क्षण | | एक बात तय है कि आप जो भी करेंगे, वह आपसे बड़ा नहीं हो में, जब गुरु ने अंगुली ऊपर उठाई! उसने कहा, किया कुछ भी सकता। आप जो भी करके पाएंगे, वह आपसे छोटा होगा। अगर नहीं। लेकिन दस साल कर-करके थक गया। परेशान हो गया। | आपको अपने से बड़े को पाना है, तो करने से मिलने वाला नहीं करना भी व्यर्थ है; सिर्फ स्मरण ही सार्थक है। उस क्षण में सारा | है, खोने से मिलेगा। अपने को खोने से मिलेगा। अपने को छोड़ने करना मुझसे गिर गया, और मुझे याद आया कि मैं ईश्वर हं। होने से मिलेगा। कर्ता का भाव ही छोड़ देना पड़ेगा, कर्म भी छोड़ देना का क्या सवाल है! करने का क्या सवाल है! यह स्मरण आते ही | पड़ेगा। चुप बैठकर; शांत बैठकर। सारे जीवन की धारा बदल गई। अंधेरे की जगह प्रकाश हो गया। ___एक ही है तीर्थयात्रा। जब कोई सब यात्राएं बंद कर देता शरीर की जगह आत्मा हो गई। सीमाओं की जगह असीम हो गया। | है-शरीर की भी और मन की भी—तब तीर्थयात्रा शुरू हो जाती लेकिन यह घटना मुश्किल से घटती है कभी; कभी लाख में | है। एक ही है मार्ग उस तक पहुंचने का कि जब कोई सब मार्ग छोड़ एकाध आदमी को, कि कोई सुनकर हो जाता है। नहीं तो करने से | | देता है, और अपने ही भीतर ठहर जाता है। एक ही है दिशा उसकी, गुजरना पड़ता है। वह करने से गुजरना जो है, उससे ज्ञान उत्पन्न | | जब कोई सारी दस दिशाओं को छोड़ देता है, और ग्यारहवीं दिशा नहीं होता। लेकिन हम उस जगह पहुंच जाते हैं, जहां ज्ञान सहज | | में भीतर ठहर जाता है, कोई यात्रा नहीं करता। यह है सांख्य। और फलित हो सकता है। दो ही जगत की निष्ठाएं हैं, योग और सांख्य। लेकिन कृष्णं ने ध्यान रखा है। उन्होंने कहा कि मैं कपिल मुनि कृष्ण कहते हैं, मैं सांख्य हूं, मैं कपिल हूं। समस्त मुनियों में, हूं। आत्यंतिक सत्य तो यही है, परम सत्य तो यही है, परम दृष्टि | | सिद्धों में, मैं कपिल हूं। तो यही है कि आपको कुछ भी करना नहीं है। सिद्ध कहते हैं उन्हें, जिन्होंने पा लिया। पाने वाले दो तरह के लेकिन हमारी भी मुसीबत है। हम इस जगत में जो भी पाते हैं, लोग हैं, जिन्होंने कुछ कर-करके पाया, और जिन्होंने बिना किए करके ही पाते हैं। धन पाना हो, तो कुछ करके पाते हैं। यश पाना | पाया। कृष्ण कहते हैं, मैं वही हूं, जिन्होंने बिना किए पाया। करके हो, तो कुछ करके पाते हैं। बिना किए न तो यश मिलता है, न बिना पाया, तो उसका अर्थ है कि बड़ा गहन अंधकार रहा होगा। बड़ा किए धन मिलता है। विद्या-बद्धि, कुछ भी पाते हों, करके पाते हैं। गहन अंधकार रहा होगा। बड़ा गहन अहंकार रहा होगा, इसलिए ___ इस जगत में जो भी मिलता है, उसके लिए चलना पड़ता है, | | कर-करके। करना पड़ता है। इसलिए हमारी पूरी की पूरी समझ करने से बंध | बुद्ध के जीवन से एक घटना आपको कहूं, तो खयाल में आ जाती है। हम यह सोच ही नहीं सकते कि कोई ऐसी चीज भी हो | | जाए कि क्या है मतलब! बुद्ध ने महल छोड़ा, राज्य छोड़ा, छः वर्ष सकती है, जो न करें और मिल जाए। कुछ न करें, शांत बैठ जाएं, | तक कठोर तपश्चर्या की। जो भी किया जा सकता था, वह सब और मिल जाए। कुछ न करें, मौन हो जाएं, और मिल जाए। | किया। लेकिन हर करने के बाद पाया कि उपलब्धि नहीं हुई। जिस लेकिन ऐसी भी एक चीज है और उसी चीज का नाम धर्म गुरु के पास गए, उसी गुरु को मुसीबत में डाल दिया, क्योंकि गुरु है-आत्मा कहें, भगवत्ता कहें, जो नाम देना चाहें। एक सत्य ऐसा ने जो-जो कहा...। भी है, जो आपके करने से नहीं मिलता। गुरुओं को एक सुविधा रहती है उन लोगों की वजह से, जो 155 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 केवल सुनते हैं और करते नहीं। उनसे बड़ी सुविधा रहती है। | गुरु अड़चन नहीं आती उन लोगों से, जो रोज सुनकर चले जाते हैं और कभी करते नहीं। क्योंकि वे झंझट नहीं देते। ... यह बुद्ध जिस गुरु के पीछे पड़ गया, वही गुरु दिक्कत में आ गया। क्योंकि गुरु ने जो कहा, वही इसने करके दिखाया। और करने के बाद कहा कि अभी मुझे मिला नहीं ! और इसके करने में तो इतनी निष्ठा थी, और इसका करना तो इतना वास्तविक था कि गुरु भी यह हिम्मत नहीं जुटा सकता था कहने की कि तुमने गलत किया या पूरा नहीं किया। गुरु से भी ज्यादा कुशल था इसका करना। तो गुरु हाथ जोड़ लेते । गौतम को कहते कि जो मैं जानता था, वह मैंने करवा दिया। अगर इससे नहीं होता, तो मुझे क्षमा करो, कहीं और जाओ! अगर आप करने लगें, तो दुनिया में गुरुओं की संख्या एकदम कम हो जाए। एकदम! दुनिया में जो इतनी भीड़ है गुरुओं की, वह आपकी कृपा से है। जो-जो गुरु कहते हैं, अगर आप करके बता दें, तो गुरु भाग खड़े हों, क्योंकि उनको भी पता चल जाए कि कुछ हो नहीं रहा है। आप कभी करते नहीं, इसलिए गुरु की कभी परीक्षा नहीं हो पाती कि वह जो कह रहा है, वह हो भी सकता है या नहीं। वह कहे चला जाता है, क्योंकि कोई करने वाला भी नहीं आता। बुद्ध से गुरुओं ने क्षमा मांगी। वह बड़ी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि क्षमा करो। और अगर कभी तुम्हें मिल जाए, तो हमें भी खबर कर देना। लेकिन अब यहां से तुम जाओ! क्योंकि हम जो जानते थे, हम करा सकते थे, वह हमने करा दिया। और तुमसे ज्यादा योग्य शिष्य हमने कभी पाया नहीं। लेकिन मजबूरी है, इसके आगे हमें कुछ पता नहीं। तो बुद्ध, जितने गुरु उस समय उपलब्ध हो सकते थे बिहार में, एक-एक गुरु के द्वार पर भटक लिए। छः साल में उन्होंने सब कर डाला, जो भी किसी ने कहा । कभी नहीं कहा कि इससे क्या होगा! किया पहले। और जब नहीं हुआ तो कहा कि कर लिया मैंने पूरा और हो नहीं रहा है। छः साल के अथक श्रम के बाद वे उस जगह पहुंच गए, जहां सांख्य शुरू होता है, योग समाप्त हो जाता है। छः साल के बाद थककर एक दिन सुबह वे स्नान करने निरंजना नदी में उतरे । शरीर बिलकुल कृश हो गया है। उपवास लंबे किए हैं। अनाहार किया है । शरीर को तपाया है, सुखाया है, जलाया है। निरंजना से निकलते वक्त वे इतने अशक्त थे कि नदी की धार को पार न कर सके और तट पर चढ़ने में मुसीबत मालूम पड़ी। पैर जवाब दे गए। एक वृक्ष की जड़ को पकड़कर रुके रहे। उस क्षण उन्हें खयाल आया कि शरीर को सताकर, गलाकर, सब करके कुछ पाया नहीं। और हालत यह हो गई कि इस छोटी-सी नदी निरंजना को मैं पार नहीं कर पाता हूं, और भवसागर को पार करने का विचार कर रहा हूं! यह नहीं होगा। किसी तरह नदी के बाहर निकले। तो जिस तरह छः साल पहले उन्होंने राज्य छोड़ दिया था, महल छोड़ दिया था, उस दिन उन्होंने करना छोड़ दिया। योग छोड़ दिया। त्याग छोड़ दिया। उस दिन उन्होंने सब जो छः साल में किया था, वह भी छोड़ दिया। भोग पहले छोड़ चुके थे, त्याग भी छोड़ दिया। धन की दौड़ पहले छोड़ चुके थे, धर्म की दौड़ भी छोड़ दी। उस | दिन उन्होंने तय कर लिया कि अब कुछ करना ही नहीं है । अब मैं जो हूं, हूं। और नहीं हूं, तो नहीं हूं। मिला तो नहीं करने से। तो यह तो वे सोच ही नहीं सकते थे कि न करने से मिल जाएगा। जब करने से नहीं मिला, यह खयाल भी नहीं आ सकता था कि न करने से मिल जाएगा। इसका तो उन्हें भी पता नहीं था । छोड़ दिया। लेकिन एक बात तय हो गई कि अब कुछ करना नहीं है। अब जो है, ठीक है । स्वीकार है। जैसा भी हूं। अज्ञानी, तो अज्ञानी । अंधेरा, तो अंधेरा । पाप, तो पाप । जो भी है, जैसा भी है, स्वीकार है। अब मुझे कुछ पाना नहीं, कुछ खोजना नहीं। ऐसी चित्त की दशा बड़ी अनूठी है। उस रात जब वे सोए, तो शायद जमीन पर इस तरह की शांति में बहुत कम लोग कभी-कभी सोते हैं । कोई तनाव ही न था । कुछ पाना नहीं था, तो कोई तनाव भी नहीं था। सुबह उठकर पाने की कोई आकांक्षा ही नहीं थी। सुबह हो तो ठीक, न हो तो ठीक। भविष्य मिट गया। उस रात, बुद्ध ने बाद में कहा है, कि मैं पहली दफा सोया, एक फूल की तरह, हल्का । कुछ नहीं था । न पीछा रहा; सब अतीत मिट गया; सब | बेकार था । और सब भविष्य मिट गया, क्योंकि अब कुछ पाने की इच्छा न थी । सुबह पांच बजे भोर उनकी नींद खुली। जब भीतर कोई भी तनाव न हो, तो आंख निर्मल हो जाती है। जब भीतर कोई तनाव न हो, तो आंखों पर से सब धुआं खो जाता है। आंख शुद्ध हो जाती है, | साफ हो जाती है, पारदर्शी हो जाती है। आंख खुली उनकी। भोर का आखिरी तारा डूब रहा था। उस तारे को डूबता हुआ वे देखते 156 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिजात्य का फूल रहे, देखते रहे। तारा डूब गया, और उनको ज्ञान हो गया। कर सकेगा। अगर तू घोड़ों को ही समझना चाहता हो, तो घोड़ों में बुद्ध को ज्ञान हुआ, योग भी छोड़ देने पर। क्योंकि योग भी एक | भी मैं हूं। अगर तू हाथियों को समझना चाहता हो, तो हाथियों में तनाव है। क्रिया भी एक तनाव है। कुछ करते रहना भी एक तनाव | भी मैं हूं। अगर वृक्षों को समझना चाहता हो, तो वृक्षों में भी मैं हूं। है; एक बेचैनी है। तो बुद्ध ने कहा है कि मैंने पाया तब, जब पाने | और कहां आसानी होगी तुझे जानने को, उस तरफ मैं इशारा किए की भी इच्छा मेरे भीतर नहीं रही। मिला तब, जब मिलने की भी | देता हूं। कोई भावना मेरे भीतर न थी। ___ अर्जुन ने कृष्ण से पूछा है कि मैं किस-किस भाव में आपको इसलिए बुद्ध तो एकदम से चौंक ही गए कि यह क्या हुआ! और | | खोजूं? कहां-कहां खोजूं? कैसे देखू ? तो वे कहते हैं, कहीं भी। यह कहां छिपा था इतने दिन तक, जो आज दिखाई पड़ गया! यह | | अगर घोड़े भी खड़े हों, तो वहां भी मैं मौजूद हूं। वहां भी तू देख छिपा था अपनी ही क्रिया की ओट में। | लेना। तो मैं तुझे सूत्र दिए देता हूं। अगर हाथी खड़े हों, तो वहां भी यह छिपा था अपने ही कर्ता की ओट में। यह छिपा था, मैं कर | | मैं मौजूद हूं। तुझे सूत्र दिए देता हूं कि कहां तू मुझे खोज लेगा। रहा हूं कुछ, उस अहंकार की ही आड़ में। कोई करना न था। कोई | | अगर वृक्षों की पंक्ति हो, तो वहां भी मैं मौजूद हूं। तू जहां भी कर्ता नहीं। कोई कर्म नहीं। मन बिलकुल शून्य हो गया। उस शून्य खोजना चाहे, मैं मौजूद हूं। ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां मैं नहीं में खिल गया यह फूल। हूं। लेकिन जहां भी तू मुझे खोजेगा, वहां आसानी होगी तुझे कि तू और जब बुद्ध से किसी ने पूछा कि आपको क्या मिल गया है | श्रेष्ठतम को देख। कि आप इतने आनंदित हैं? तो बुद्ध ने कहा, मिला मुझे कुछ भी | | ऐसा है कि एक बीज पड़ा हो यहां और एक फूल भी पड़ा हो नहीं। जो मिला ही हुआ था, उसका पहली दफा पता चला है। जो यहां; आपको बीज दिखाई नहीं पड़ेगा, फूल दिखाई पड़ेगा मिला ही हआ था. उसका पता चला है। मिला मझे कछ भी नहीं। हालांकि बीज भी कल फल बन सकता है। लेकिन बीज दिखाई नहीं सांख्य का यही अर्थ है। सांख्य का यही अर्थ है कि जो मिलेगा, पड़ेगा, फूल दिखाई पड़ेगा। बीज में भी फूल है। और हाथियों में वह मिला ही हुआ है। जो जानेंगे कभी हम, वह मौजूद है अभी, भी कृष्ण वैसे ही हैं, जैसे ऐरावत में। और पौधों में भी वैसे ही हैं, इसी क्षण। उसे कहीं बाहर से पाना नहीं है। वह अशुद्ध भी नहीं है | | जैसे पीपल में। लेकिन पीपल में देखना आसान होगा, वहां कि उसे शुद्ध करना है। सिर्फ लौटकर, शांत होकर, मौन होकर, | | व्यक्तित्व खिला हुआ है। ऐरावत में देखना आसान होगा, वहां उसे देखना है। | व्यक्तित्व खिला हुआ है। फूल जहां है, वहां पहचान आसान होगी; कृष्ण कहते हैं, सिद्धों में मैं कपिल मुनि हूं। बीज में पहचान मुश्किल होगी। इसलिए कृष्ण गिनाते जा रहे हैं कि और हे अर्जुन, घोड़ों में उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा, हाथियों में | कहां-कहां, कहां-कहां मैं खिल गया हूं। ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में मैं ही सम्राट हूं। और ऐसा आप मत सोचना कि मनुष्यों में ही खिलावट होती है। अर्जुन जिस तरह भी समझ सके, कृष्ण हर एक कोटि में जो भी पशुओं में भी होती है, पौधों में भी होती है। और ऐसा भी आप मत श्रेष्ठतम संभावना है, उसकी तरफ इशारा कर रहे हैं। लेकिन एक | | सोचना कि मनुष्यों में ही श्रेष्ठ मनुष्य और निकृष्ट मनुष्य होते हैं। बात कीमती समझ लेने जैसी है कि घोड़ा हो, कि हाथी हो, कि वृक्ष | | पौधों में भी होते हैं, पशुओं में भी होते हैं। हो, कृष्ण के मन में कोई दुर्भाव नहीं है। कृष्ण को कहते हुए जरा । बुद्ध ने अपने पिछले जन्म की एक कथा कही है, और उसमें भी ऐसा संकोच नहीं मालूम पड़ता है इसमें कि मैं घोड़ों में फलां | | कहा है कि पिछले एक जन्म में मैं हाथी था। उनके एक शिष्य ने घोड़ा हूं, हाथियों में फलां हाथी हूं। जरा भी संकोच मालूम नहीं | | पूछा कि आप हाथी थे! फिर आप मनुष्य कैसे हुए? ऐसा कौन-सा पड़ता। अन्यथा इसे कहने की कोई जरूरत न थी। कृत्य था, जिससे आप हाथी के जीवन से यात्रा करके मनुष्य हो कष्ण के लिए निकष्ट और श्रेष्ठ. छोटा और बडा. ऐसा कछ | सके? तो बद्ध ने जो कत्य कहा है. वह समझने जैसा है। उस कत्य भी नहीं है। कृष्ण कहते हैं, मैं सभी के भीतर हूं। लेकिन जिस कोटि | के कारण वह हाथी विशेष हो गया। में भी आभिजात्य प्रकट होता है, जिस कोटि में भी कोई व्यक्तित्व | बुद्ध ने कहा, जंगल में लगी थी आग। भयंकर थी आग। सारे पूरी खिलावट को उपलब्ध होता है, वहां तू मेरी प्रतीति आसानी से पशु-पक्षी भागते थे। मैं भी भाग रहा था। एक वृक्ष के नीचे मैं Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 53 सांस सम्हालने को रुका एक क्षण को, और मैंने एक पैर ऊपर | दिखाई पड़ते हो, इससे ही आदमी नहीं हो जाते। वह गाय दिखाई उठाया कि आगे बढूं। तभी मैंने देखा कि एक झाड़ी से एक | पड़ती थी, इसलिए सिर्फ गाय ही नहीं थी। वह गायों में बड़ी श्रेष्ठ खरगोश भागकर आया और मेरे पैर के नीचे जो जगह थी, जो मेरे थी। उसने एक दूसरा आयाम छू लिया था। और वह मुक्त हो गई। पैर उठाने से खाली हो गई थी, वहां आकर सिकड़कर, सुरक्षा में तो कृष्ण का यह कहना कि घोड़ों में भी मैं हं. कभी तो बहत मेरे पैर के नीचे बैठ गया। ऐसा लगेगा कि कैसी बात है! कुछ और प्रतीक कृष्ण को नहीं फिर मेरे मन को हुआ कि अगर मैं पैर नीचे रखं, तो यह खरगोश | मिले! ये घोड़े और हाथी और वृक्ष, यह क्या बात है! लेकिन यह मर जाएगा। फिर मेरे मन को हुआ कि अपने को बचाने को तो मैं | बहुत विचारपूर्वक है। भाग रहा हूं, और इसको मार डालूं! तो जैसा मेरा बचना महत्वपूर्ण | ___ अस्तित्व जहां भी है, वहीं परमात्मा है। लेकिन अर्जुन से उन्होंने है, वैसा ही इसका बचना भी महत्वपूर्ण है। और फिर मुझे खयाल | | कहा कि तू पहचान सकेगा अस्तित्व को जहां खिलता है फूल, बीज आया कि इतने भरोसे से मेरे पैर की छाया में जो आकर बैठ गया तुझे नहीं दिखाई पड़ सकते। है, यह अब उचित न होगा कि उसके भरोसे को तोड़ दूं। आज इतना ही। फिर हम कल बात करेंगे। तो मैं पैर को वैसा ही किए खड़ा रहा। आग निकट आती चली | लेकिन बैठे पांच मिनट। नाम-स्मरण में सम्मिलित हों और गई और अंततः मैं जलकर मर गया। उस दिन तो मुझे पता नहीं था | फिर जाएं। कि इसका कोई फायदा होगा। लेकिन उस कृत्य के कारण ही मैं मनुष्य हुआ हूं। वह जो एक छोटा-सा कृत्य था, उसके कारण ही मैं मनुष्य हुआ हूं। अगर हम पशुओं को भी गौर से देखें, तो आपको पता चलेगा, उनमें भी व्यक्तित्व है। श्रेष्ठ, निकृष्ट उनमें भी है। उनमें भी आपको ब्राह्मण और शूद्र मिल जाएंगे। अब तो हम आदमियों में भी मिटाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनमें भी आपको ब्राह्मण-शूद्र मिल जाएंगे। वहां भी आपको लगेगा कि कोई वृत्ति और ही है। रमण महर्षि के आश्रम में जब भी रमण बोलते थे—जब भी वे बोलते थे तो उनके सुनने वालों में एक गाय भी नियमित आती थी। यह वर्षों तक चला। दूसरों को तो खबर हो जाती थी, गाय को तो कोई खबर भी नहीं की जा सकती थी। दूसरों को पता होता कि आज रमण पांच बजे बोलेंगे। गाय को कैसे खबर होती! गाय को कौन खबर करने वाला था। लेकिन पांच बजे, दूसरे चाहे थोड़ी देर-अबेर पहुंचे, गाय ठीक समय पर उपस्थित हो जाती। जब गाय मरी, तो रमण ने कहा कि वह मुक्त हो गई। और रमण ने गाय के साथ वही व्यवहार किया, जो उन्होंने सिर्फ एक और व्यक्ति के साथ किया जीवन में और फिर कभी नहीं किया। जब उनकी मां मरी, तो जो व्यवहार उन्होंने किया, वही व्यवहार उन्होंने उस गाय के मरने पर किया। और दोनों की पूरी की पूरी अंत्येष्टि ठीक वैसे ही की; जैसी अपनी मां की की, वैसी उस गाय की की। कोई ने रमण से पूछा कि आप यह क्या कर रहे हैं एक गाय के लिए! उन्होंने कहा, वह तुम्हें गाय दिखाई पड़ती थी। तुम आदमी 1158 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 ग्यारहवां प्रवचन काम का राम में रूपांतरण Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 आयुधानामहं वज्रं घेनूनामस्मि कामधुक् । प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ।। २८ ।। अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् । पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ।। २९ । । प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् । मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ।। ३० ।। और हे अर्जुन, मैं शस्त्रों में वज्र और गौओं में कामधेनु हूं और संतान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूं, सर्पों में सर्पराज वासुकि हूं। तथा मैं नागों में शेषनाग और जलचरों में उनका अधिपति वरुण देवता हूं और पितरों में अर्यमा नामक पित्रेश्वर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूं। और हे अर्जुन, मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गिनती करने वालों में समय हूं तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं ही हूं। औ रहे अर्जुन, शस्त्रों में वज्र, गौओं में कामधेनु, और जीवन की उत्पत्ति का हेतु कामदेव मैं हूं। परसों रात्रि शिव पर बोलते हुए मैंने आपसे कहा था कि मृत्यु के वे प्रतीक हैं, विनाश की शक्ति वे हैं। साथ ही प्रेम और काम भी उनके जीवन में उतना ही गहरा है। एक मित्र को चोट लगी होगी इस बात से, तो उन्होंने मुझे पत्र लिखा है कि यह आपने ठीक नहीं किया। हमारे पूज्य देव को, महादेव को आपने काम और प्रेम से संयुक्त किया। कल उनका पत्र मिला था, मैं कल चुप रह गया, क्योंकि आज यह सूत्र आने को था । उन्होंने यह भी लिखा है कि शंकर ने तो, शिव ने तो कामदेव को भस्म कर दिया था । कैसे आप उनमें काम की बात कहते हैं? तो पहले उन्हें थोड़ा-सा उत्तर दे दूं और फिर इस सूत्र समझाने में लगूं। काम को भी भस्म तभी किया जा सकता है, जब काम हो; नहीं तो काम को भस्म नहीं किया जा सकता। भस्म भी हम उसे ही कर सकते हैं, जो मौजूद हो। और मजे की बात तो यह है कि काम को केवल वही भस्म कर सकता है, जिसमें काम इतना प्रगाढ़ हो कि अग्नि बन जाए। छोटे-मोटे काम की वासना वाला आदमी काम को भस्म नहीं कर पाता। काम की भी लपट चाहिए। और यह दृष्टि, कि काम के होने से कोई देवता अपमानित हो जाता है, अपनी ही नासमझी पर निर्भर है। क्योंकि कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि जीवन की उत्पत्ति का कारण कामदेव मैं हूं। उन मित्र | को बड़ी तकलीफ होगी। तब तो शिव ने जिसको भस्म किया होगा, कृष्ण हैं! और उनको तो भारी पीड़ा होगी कि कृष्ण अपने ही मुंह से कहते हैं कि मैं कामदेव हूं। वे लेकिन सत्यों को समझना हो, तो पीड़ाओं की तैयारी चाहिए। और जो सत्य को समझने की हिम्मत न रखते हों, उन्हें उस तरफ | आंख ही बंद कर लेनी चाहिए। उस तरफ प्रयास ही नहीं करना |चाहिए | में कुछ मौलिक बातें आपसे कहूं, तब यह सूत्र आपकी समझ आ सके। यह सूत्र कठिन मालूम पड़ेगा। इसलिए नहीं कि कठिन | है, इसलिए कि हमारी बुद्धि न मालूम कितनी व्यर्थ की धारणाओं | से भरी है। और न मालूम कितनी निंदाएं और न मालूम कितने विक्षिप्त खयाल हमारे मन को घेरे हुए हैं। जीवन की समस्त उत्पत्ति काम से ही है। जगत की सृष्टि भी काम से ही है। सृजन का सूत्र ही काम है। अगर ब्रह्मा ने भी जगत को | उत्पन्न किया, तो शास्त्र कहते हैं, कामना पैदा हुई। काम का जन्म हुआ ब्रह्मा में, तो ही उत्पन्न होगा कुछ इस जगत में जब भी कुछ पैदा होता है, तो पैदा होने का सूत्र ही काम है। . और ऐसा है कि बच्चे ही जब पैदा होते हैं, तभी काम की शक्ति काम आती है। नहीं, कुछ और भी पैदा होता है— एक | कविता पैदा होती है, एक चित्र पैदा होता है, एक मूर्ति निर्मित होती | है – जहां भी कोई व्यक्ति कुछ सृजन करता है, तो उसके भीतर जो ऊर्जा, जो शक्ति काम में आती है, वह काम ही है। उत्पत्ति मात्र काम है। सृजन मात्र काम है। इसलिए जो लोग इस सत्य बिना समझे काम से शत्रुता में लग जाएंगे, उनका जीवन निष्क्रिय, और उनका जीवन सृजनहीन, और उनका जीवन एक लंबी मृत्यु हो जाएगी। काम से ही सब उत्पन्न होता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि काम में ही सब समाप्त हो जाता है। काम के पार जाया जा सकता है। लेकिन वह पार जाना भी काम | के ही मार्ग से होता है; वह सृजन भी कामवासना के ही मार्ग से होता है। 160 कामवासना क्या है और यह कामदेव की धारणा क्या है ? शायद पूरी पृथ्वी पर हिंदू धर्म अकेला धर्म है, जिसने काम को Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम का राम में रूपांतरण भी अपनी जीवन-दृष्टि में समाहित किया है। यह बड़े साहस की होते देखा हो, उसे आग के दूसरे रूपों का कोई भी पता नहीं होता। बात है। क्योंकि सामान्यतया धर्म काम के विरोधी हैं। और हम | हम कामवासना के एक ही रूप को जानते हैं, जिससे हम अपनी सोच भी नहीं सकते कि कोई ईसाई परम पुरुष कह सके कि मैं | जीवन-शक्ति को क्षीण होते देखते हैं। हम एक ही रूप को जानते कामदेव हूं। हम सोच भी नहीं सकते कि कोई जैन धारणा इस बात | हैं, जिसके कारण हमारे जीवन में सारी विपत्तियां और सारे उपद्रव की स्वीकृति दे सके ईश्वर को कहने की कि मैं कामदेव हूं। यह | खड़े होते हैं। हम एक ही रूप को जानते हैं, जिससे हमारे असंभव है, सोचना भी असंभव है। लेकिन कृष्ण इसे सहजता से आस-पास संसार निर्मित होता है। हम एक ही रूप जानते हैं, कह रहे हैं। और बड़े साहस की बात है। जिससे क्रोध, लोभ, भय, ईर्ष्या, वैमनस्य, सबका जन्म होता है। साहस की इसलिए है कि हम केवल कामवासना के एक ही रूप | हम कामवासना का अधोगामी रूप ही जानते हैं। से परिचित हैं। और इसलिए जब भी कामवासना का खयाल भी इसलिए अगर कोई कहे कि कृष्ण भी कामदेव हैं, तो हमें बहुत हमारे मन में आता है, तो जो चित्र हमारे सामने मौजूद होता है, वह | घबड़ाहट होती है। क्योंकि काम का जो रूप हम जानते हैं, वह हमारी ही कामवासना के अनुभव का है। हमें कामवासना के दूसरे | सोचकर भी हमें घबड़ाहट होती है। हम तो चाहेंगे कि कृष्ण रूप का कोई पता ही नहीं है। कामवासना के बिलकुल ऊपर हों, बिलकुल दूर हों, उनको छू भी न एक ही ऊर्जा है मनुष्य के भीतर, उसे हम कोई भी नाम दें। अगर | जाए। यह हमारा ही अनुभव है, जिसके कारण हम ऐसा सोचते हैं। वही ऊर्जा नीचे की तरफ प्रवाहित होती है, तो कामवासना और लेकिन कृष्ण जब कहते हैं, मैं कामदेव हूं, तो वे कामवासना सेक्स बन जाती है। और वही ऊर्जा अगर ऊपर की तरफ प्रवाहित | के दूसरे रूप को भी समाहित कर रहे हैं। वह दूसरा रूप ही हमारी होने लगती है, तो अध्यात्म, कुंडलिनी, हम जो भी नाम देना चाहें। दृष्टि में नहीं है, इसलिए हमें अड़चन और कठिनाई होती है। जैसे वही ऊर्जा: शक्ति वही है: सिर्फ आयाम. दिशा बदल जाती है। । काम की शक्ति, सेक्स एनर्जी बाहर की तरफ बहती है, नीचे की नीचे की ओर गिरती हो वही शक्ति, तो वासना हो जाती है; तरफ बहती है, दूसरे शरीरों की तरफ बहती है-यह बहाव का ऊपर की ओर उठती हो वही शक्ति, तो आत्मा हो जाती है। नीचे | एक ढंग है। की ओर गिरती हो, तो दूसरों को पैदा करती है; ऊपर की ओर उठने और ध्यान रहे, दुनिया में ऐसा कोई भी बहाव नहीं है, जो विपरीत लगे, तो स्वयं को जन्म देती है। नीचे की ओर बहना हो उसे, तो | | न बह सके। अगर मैं चलकर आपके पास आ सकता हूं, तो लौटकर किसी और को आधार बनाना पड़ता है; ऊपर की ओर बहना हो, | आपसे दूर भी जा सकता हूं। ऐसा कोई भी रास्ता नहीं है, जो एक ही तो स्वयं ही आधार होना पड़ता है। नीचे की ओर बहती हो | | तरफ चलता हो। जिस रास्ते से चलकर आप यहां तक आए हैं, उसी काम-ऊर्जा, तो जननेंद्रिय के मार्ग से प्रकृति में लीन हो जाती है; | से चलकर आप अपने घर वापस लौट जाएंगे। कोई ऐसा दरवाजा और अगर ऊपर की ओर बहने लगे, तो सहस्रार से लीन होकर | | नहीं है, जिससे आप बाहर आते हों और उसी से आप भीतर न जा ब्रह्म में लीन हो जाती है। सकते हों। हर द्वार, हर मार्ग, हर प्रवाह दो आयामों में होता है, दो काम-ऊर्जा दो स्थानों से विलीन होती है। या तो जननेंद्रिय से, जो | | दिशाओं में होता है। आप पीछे लौट सकते हैं। कि पहला चक्र है; और या सहस्रार से, जो अंतिम चक्र है। ये दो कामवासना का हम एक ही द्वार जानते हैं और एक ही रूप, छोर हैं आपके व्यक्तित्व के। काम-केंद्र से आप प्रकृति से जुड़े हैं| दूसरे की तरफ प्रवाहित होने वाला। और ध्यान रहे, जब भी कोई और सहस्रार से आप परमात्मा से जुड़े हैं। लेकिन शक्ति एक ही है। दूसरे की तरफ प्रवाहित होता है, तो परतंत्र हो जाता है। इसलिए लेकिन हमारी हालत ऐसी है कि जिस आदमी को आग का एक | कामवासना गहरे में हमारे लिए एक परतंत्रता है। इसलिए जो लोग ही परिचय हो, घर जल जाने का, वह सोच भी नहीं सकता कि आग | भी स्वतंत्र होना चाहते हैं, मुक्त होना चाहते हैं, उनका संघर्ष रोटी भी पकाती है; और वह सोच भी नहीं सकता कि रात के अंधेरे कामवासना से शुरू हो जाता है। में आग प्रकाश भी देती है; और वह सोच भी नहीं सकता कि ठंड इस दुनिया में गहरी से गहरी गुलामी सेक्स की गुलामी है। दूसरे से मरते हुए आदमी के लिए आग जीवन भी हो जाती है। जिसका | | आदमी पर निर्भर होना पड़ता है। दूसरा अपने से भी ज्यादा एक ही अनुभव हो कि उसने आग से मकान को जलते और बरबाद | | महत्वपूर्ण हो जाता है। दूसरे के इर्द-गिर्द चक्कर काटना पड़ता है, 161| Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-588 परिक्रमा करनी पड़ती है। एक गहरी गुलामी है। | समझने में लगेगा, वह अपनी धारा को बदलेगा, भागेगा नहीं। इसलिए जो लोग भी मुक्ति की दिशा में चलते हैं, उनका मन | दूसरे से भागने का कोई प्रयोजन नहीं है। मेरी ही शक्ति जो दूसरे अगर वितृष्णा से भर जाता हो कामवासना से, तो आश्चर्य नहीं है; । | की तरफ प्रवाहित होती है, वह मेरी तरफ प्रवाहित होने लगे, यह तर्कयुक्त है, स्वाभाविक है। लेकिन शत्रुता से भर जाने से कुछ भी | है सवाल। न होगा। और लड़ने से भी कुछ न होगा। और जब काम की ऊर्जा अपनी तरफ बहनी शुरू होती है, स्व मजे की बात है! अगर मुझे स्त्री आकर्षित करती है या पुरुष | | की तरफ बहनी शुरू होती है, पर की तरफ नहीं, तब हमें आकर्षित करता है या कोई मुझे आकर्षित करता है, तो लड़ने वाला, | कामवासना का वास्तविक अर्थ और प्रयोजन पता चलता है। तब जो मुझे आकर्षित करता है, उससे भागेगा। लेकिन मैं कहीं भी भाग | हमें पता चलता है कि जिसे हमने जहर समझा था, वह अमृत हो जाऊं, जो मेरे भीतर आकर्षित होता था, वह मेरे साथ ही रहेगा। | जाता है। और तब हमें पता चलता है कि जिसे हमने परतंत्रता __मैं एक स्त्री को छोड़कर भाग सकता हूं, एक पुरुष को छोड़कर | | समझा था, वही हमारी स्वतंत्रता बन जाती है। और तब हमें पता भाग सकता हूं, लेकिन जो भी मेरे भीतर प्रवाहित होता था नीचे की | | चलता है कि जिसे हमने नर्क का द्वार समझा था, वही हमारी मुक्ति ओर, वह मेरे साथ ही चला जाएगा। वह अ को छोड़ देगा तो ब | | का द्वार भी है। पर आकर्षित होगा, ब को छोड़ देगा तो स पर आकर्षित होगा। और | जब कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं, तो इस सारी दृष्टि को सामने मैं यह भी कर सकता हूं कि सबको छोड़कर निपट जंगल में बैठ | रखकर कह रहे हैं। जाऊं, तो मेरी कल्पना में ही मैं उन सबको पैदा करना शुरू कर | काम की ऊर्जा हमारी शक्ति का नाम है। हम जो.भी हैं, काम दूंगा, जो मेरे आकर्षण के बिंदु बन जाएंगे। की ऊर्जा के संघट हैं। अगर हमारी ऊर्जा बाहर बहती रहे, तो बिखर स्त्रियों को छोड़कर भाग जाने से कोई स्त्रियों से मुक्त नहीं होता। जाती है, दूर फैलती चली जाती है। अगर यही ऊर्जा भीतर आने स्त्रियों के बीच रहकर कभी मक्त हो भी जाए. भागकर तो मक्त लगे. तो संगठित होने लगती है. इंटीग्रेट होने लगती है. होना बहुत मुश्किल हो जाता है। क्योंकि जिससे हम भागते हैं, वह | क्रिस्टलाइज होने लगती है, केंद्रित होने लगती है। और धीरे-धीरे हमारा पीछा करता है कल्पना में। | जब सारी बाहर जाने वाली ऊर्जा स्वयं पर ही आकर इकट्ठी हो जाती और ध्यान रहे, कोई भी स्त्री वस्तुतः इतनी सुंदर नहीं है, जितनी है, तो जो क्रिस्टलाइजेशन, जो सेंटरिंग, जो केंद्रीयता हमारे भीतर कल्पना में सुंदर हो जाती है। न कोई पुरुष इतना सुंदर है, जितना | पैदा होती है, वही हमारी आत्मा का अनुभव है। कल्पना में सुंदर हो जाता है। कल्पना कहीं फ्रस्ट्रेट ही नहीं होती; जिस व्यक्ति की कामवासना बाहर भटकती जाती है, उसका कल्पना को कहीं विषाद का क्षण ही नहीं आता! वास्तविक | अनुभव संसार का अनुभव है, आत्मा का अनुभव नहीं। और जिस अस्तित्व में तो हम सब विषाद को उपलब्ध हो जाते हैं। | व्यक्ति की ऊर्जा भीतर इकट्ठी होती जाती है, संगठित होती चली जो शरीर कल बहुत सुंदर मालूम पड़ता था, दो दिन बाद | जाती है, अंततः एक ऐसा बिंदु निर्मित हो जाता है वज्र की भांति, साधारण मालूम पड़ने लगेगा। चार दिन बाद उससे ही घबड़ाहट जो बिखर नहीं सकता। उस अनुभव के साथ ही हम पहली दफा होने लगेगी। पंद्रह दिन के बाद उससे भागने का मन भी होने | आत्मा के जगत में प्रवेश करते हैं या ब्रह्म के जगत में प्रवेश करते लगेगा। लेकिन कल्पना में ऐसा क्षण कभी नहीं आता। कल्पना | हैं। लेकिन वह भी सृजन है, अपना ही सृजन। वह भी जन्म है, बड़ी सुगंधित है। कल्पना के शरीरों से न पसीना बहता है। न अपना ही जन्म। कल्पना के शरीरों से दुर्गंध आती है। न कल्पना के शरीर झगड़ते बुद्ध के पास जब कोई भिक्षु आता था, तो वे उससे पूछते थे, हैं, लड़ते हैं। कल्पना के शरीर तो आपकी ही कल्पनाएं हैं, आपको | | तेरी उम्र कितनी है? एक भिक्षु आया बुद्ध के पास और बुद्ध ने कभी भी दुख नहीं देते। लेकिन वास्तविक शरीर तो दुख देंगे। | उससे पूछा, तेरी उम्र कितनी है ? उसने कहा, केवल चार दिन! वास्तविक व्यक्ति तो दुख देंगे। वास्तविक व्यक्तियों के बीच तो | ___ उम्र उसकी कोई सत्तर वर्ष मालूम होती थी। बुद्ध थोड़े चौंके, कलह और संघर्ष होगा। | और लोग भी चौंके। बुद्ध ने दुबारा पूछा कि कहीं कुछ भूल-चूक इसलिए जो लड़ने में लग जाएगा, वह भागेगा। लेकिन जो सुनने-समझने में हो गई है, तेरी उम्र कितनी है ? उस आदमी ने कहा | 162] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ काम का राम में रूपांतरण कि मैं पुनः कहता हूं, मेरी उम्र है चार दिन। बुद्ध ने कहा, तुम कोई । यह कामवासना जो बाहर की तरफ दौड़ती है, इसकी कितनी ही व्यंग्य करते हो? मजाक करते हो? | तृप्ति का उपाय किया जाए, कोई तृप्ति उपलब्ध नहीं होती। बल्कि उसने कहा कि नहीं, चार दिन पहले ही आपको सुनते क्षण में एक और नया खतरा पश्चिम में फ्रायड को मानकर फलित हुआ मुझे अपने होने का पहली दफा पता चला, वही मेरा जन्म है। उसके है। और वह यह कि पचास साल पहले, फ्रायड के पहले पश्चिम पहले तो मैं था ही नहीं। संसार था, मैं नहीं था। मैं तो अभी चार में खयाल था लोगों को कि कामवासना तृप्त हो जाएगी, तो लोग दिन पहले पहली दफे हुआ हूं। और अभी बहुत कमजोर हूं, एक बड़े शांत, संतुष्ट हो जाएंगे। क्योंकि अगर उसी की अतृप्ति से छोटे शिशु की तरह हूं। अभी आपके सहारे की मुझे जरूरत है। बेचैनी है, तो तृप्ति से शांति हो जाएगी। अभी आपकी छाया की मुझे जरूरत है। अभी मैं बिखर सकता हूं। लेकिन आज अमेरिका में उसे तृप्त करने की सर्वाधिक सुविधाएं अभी बहुत कोमल तंतु हूं। लेकिन जन्म मेरा अभी चार दिन पहले | | उपलब्ध हो गई हैं, संभवतः पृथ्वी पर कहीं भी नहीं थीं। सब तरह हुआ है। | की स्वतंत्रता, एक परमिसिव सोसाइटी, सब तरह से मुक्त करने उस दिन बुद्ध ने कहा था, भिक्षुओ, आज से हमारे भिक्षुओं की | वाला समाज पैदा हो गया है। लेकिन अनूठा अनुभव हुआ। उम्र को नापने की यही व्यवस्था होगी। तुम अपनी उस उम्र को छोड़ अतृप्तियां पुरानी अपनी जगह हैं, और एक नई अतृप्ति पैदा हो गई देना, जब तुम नहीं थे। तुम उसी उम्र को गिनना, जब से तुम हुए हो। है। वह है, कामवासना की व्यर्थता का बोध। पुरानी अतृप्ति में कम जिस दिन तुम अपने को जानो, उसी दिन को समझना तुम्हारा जन्म। | से कम एक आशा थी कि कभी कहीं कोई कामवासना तृप्त होगी, माता-पिता ने तुम्हारे जिसको जन्म दिया था, वह तुम नहीं हो। । तो मन शांत हो जाएगा। अब वह भी आशा न रही। अतृप्ति पुरानी ___माता-पिता एक शरीर को जन्म देते हैं। लेकिन स्वयं को जन्म | | अपनी जगह खड़ी है, एक नई अतृप्ति, और ज्यादा गहरी, कि यह देना हो, तो स्वयं ही देना पड़ता है। यह जन्म घटित होता है, जब | कामवासना ही बिलकुल व्यर्थ है, फ्यूटायल है। इसमें कुछ होने काम की ऊर्जा भीतर की ओर प्रवाहित होनी शुरू होती है। वाला नहीं है। यह सारा जगत आज विक्षिप्त है। मनसविद कहते हैं _फ्रायड आज पश्चिम का आदमी ऐसी बेचैनी में है. जिसकी हम कल्पना या जुंग या एडलर-वे कहते हैं कि यह सारी विक्षिप्तता का भी नहीं कर सकते। वह रहेगा, क्योंकि फ्रायड का वक्तव्य अधूरा निन्यानबे प्रतिशत कारण कामवासना है। वे ठीक ही कहते हैं। है। फ्रायड के साथ बुद्ध को और कृष्ण को और महावीर को भी लेकिन उनका निदान तो ठीक है, उनका इलाज ठीक नहीं है। उनकी | | जोड़ना अनिवार्य है। फ्रायड का निदान बिलकुल ठीक है, लेकिन डायग्नोसिस बिलकुल सही है, लेकिन वे जो दवाएं बताते हैं, वे | फ्रायड का उपचार ठीक नहीं है। ठीक नहीं हैं। कृष्ण या बुद्ध या महावीर कामवासना को रूपांतरित करने की . उनका खयाल है, यह सारा मनुष्य इतना पीड़ित है, यह अतिशय | व्यवस्था देते हैं। और जब कामवासना रूपांतरित होती है, तो फिर कामुकता के कारण। इतनी कलह और इतनी ईर्ष्या और इतना संघर्ष उसको कामवासना न कहकर हम कामदेव कहते हैं। और इतना लोभ, इस सबके भीतर अगर हम प्रवेश करना शुरू इस फर्क को आप समझ लें। करें, तो निश्चित ही केंद्र पर कामवासना मिलेगी। तो फ्रायड कहता | - जब तक कामवासना नीचे की तरफ बहती है, तब तक है कि यह कामवासना को ठीक से तृप्त करने का उपाय न हो, तो | कामवासना एक राक्षस की तरह होती है, एक दानव की तरह। चूसे आदमी विक्षिप्त होता चला जाएगा। तो कामवासना को ठीक से | चली जाती है आदमी को। पीए चली जाती है। उसकी सारी शक्तियों तृप्त होने का उपाय होना चाहिए। को खींचे चली जाती है। उसे रुग्ण और दीन और दरिद्र किए चली यह भी थोड़ी दूर तक ठीक है। लेकिन कामवासना को तृप्त करने | | जाती है। खोखला कर देती है भीतर से। सब सत्व खिंच जाता है, के कितने ही उपाय किए जाएं, आदमी कामवासना की तृप्ति से फिक जाता है, और आदमी धीरे-धीरे एक चली हुई कारतूस की तरह कभी भी शांत नहीं होता। हो नहीं सकता। कामवासना को हो जाता है। मरने के पहले ही आदमी मर जाता है। रूपांतरित किए बिना आदमी कभी भी शांत नहीं हो सकता। एक बूढ़े आदमी को खालीपन का अनुभव होता है, जैसे भीतर कुछ ट्रांसफार्मेशन चाहिए। भी नहीं है। वह खालीपन कुछ और नहीं है, कामवासना ने सारी 163 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 58 शक्तियों को अपशोषित कर लिया है। जवान आदमी को भरापन | | कितने ही ऊपर हों, कामदेव के ऊपर नहीं होते। लेकिन जब कोई मालूम पड़ता है। वह भरापन भी कुछ नहीं है, वह भरापन भी | व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, तो वह काम के अंतिम रूप कामवासना का ही भराव है। बूढ़े और जवान आदमी में उतना ही से ऊपर चला जाता है। फिर देवता भी नीचे पड़ जाते हैं। फिर देवता फर्क है, जितना भरी हई कारतस में और चल गई कारतस में है। और भी बद्धको नमस्कार करने आते हैं। कोई ज्यादा फर्क नहीं है। न तो जवान भरा हुआ है, न बूढ़ा खाली | बुद्ध को अंतिम क्षण में, या महावीर को अंतिम क्षण में, या है। भ्रांति उस ऊर्जा की वजह से हो रही है। भरे आदमी तो केवल वे | | जीसस को अंतिम क्षण में, जो आखिरी संघर्ष है, जो आखिरी पार ही हैं, जिनकी काम-ऊर्जा ऊपर की तरफ प्रवाहित होनी शुरू होती। | होना है, वह काम ही है। काम के जो पार हो गया, वह देवत्व के है। उन्हीं के लिए फुलफिलमेंट है, उन्हीं के लिए आप्तता है। | पार हो गया। वह फिर भगवत्ता में सम्मिलित हो गया। जिस दिन कामवासना ऊपर की तरफ प्रवाहित होती है, उस दिन । तीन कोटियां हैं। मनुष्य हम उसे कहें, जिसकी कामवासना नीचे कामदेव हो जाती है। इसलिए शायद हम अकेली कौम हैं जमीन | की ओर बहती है। देव हम उसे कहें, जिसकी कामवासना ऊपर की पर, जिन्होंने कामवासना को भी देवता की स्थिति दी है। उसको भी ओर बहती है या भीतर की ओर बहती है। भगवान हम उसे कहें, देव कहने की हिम्मत जुटाई है। लेकिन वह रूपांतरित है; ऊपर उठ | | जिसकी कामवासना बहती नहीं-न बाहर न भीतर, न नीचे न गया है। दूसरे से संबंध छूट गया है। शक्ति अपने ही भीतर प्रवाहित ऊपर। ये तीन कोटियां हैं। होने लगी है, अपने ही अंतस्तल में। अंतर्यात्रा पर निकल गई है। इसलिए बुद्ध को हम भगवान कहते हैं। भगवान कहने का कुल कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं; समस्त जीवन के सृजन का मूल | कारण इतना है कि अब वे देव के भी पार हैं। . आधार मैं हूं। कृष्ण कहते हैं, मैं देवताओं में कामदेव हूं। अगर देवताओं में ही और कामदेव कहने की क्या जरूरत! वे कोई और देवताओं का | | मुझे खोजना हो, तो तुम काम में खोजना। क्योंकि काम ही सृजन नाम भी ले सकते थे। देवों में कामदेव का ही नाम लेने का प्रयोजन | का मौलिक आधार है। जगत में जो भी घटता है, सुंदर, शुभ, भी है। क्योंकि कामदेव के ऊपर जो उठ जाए...। मैंने पहले | सत्य, वह सब काम की ऊर्जा का ही प्रतिफलन है। चाहे कोई गीत आपसे कहा, काम-राक्षस। ऐसा हम करें शब्द का प्रयोग, नीचे की | | पैदा होता हो सुंदर, चाहे कोई चित्र बनता हो सुंदर, और चाहे कोई तरफ बहती काम-ऊर्जा। फिर कामदेव, ऊपर की तरफ बहती हुई | व्यक्तित्व निर्मित होता हो सुंदर, वह सब काम-ऊर्जा का ही फैलाव काम-ऊर्जा। कामदेव के भी ऊपर जो उठ जाए, वह देवताओं से | * | है। इस जगत में जो भी सुंदर है और शुभ है, वह सब काम की पार हो जाता है। | ऊर्जा की ही लहरें हैं। बाहर की तरफ बहती ऊर्जा, काम-राक्षस। भीतर की ओर बहती | | हमने ही अकेले पृथ्वी पर ऐसे मंदिर बनाए, खजुराहो, कोणार्क, हुई ऊर्जा, कामदेव। और कहीं भी बहती हुई ऊर्जा नहीं, ठहरी हुई | | जहां हमने भीतर परमात्मा को स्थापित किया और भित्ति-चित्रों पर ऊर्जा; न बाहर, न भीतर, समस्त गति को खो दिया हो ऊर्जा ने; काम के अनूठे-अनूठे चित्र खोदे। असंगत मालूम पड़ता है। ठहर गई ऊर्जा; थिर हो गई ऊर्जा; जैसे कि दीए की लौ ठहर जाए, खजुराहो के मंदिर में प्रवेश करें, तो घबड़ाहट मालूम होती है। हवा का कोई झोंका न हो; उस स्थिति में आदमी कामदेव के भी | | मंदिर, जहां प्रभु को स्थापित किया है भीतर, उसकी भित्ति, उसकी ऊपर उठ जाता है। दीवालों पर संभोग के, मैथुन के, काम के चित्र खुदे हैं, मूर्तियां इसलिए साधक को पहले दूसरे की परेशानी रहती है कि दूसरा | निर्मित हैं! और ऐसी मूर्तियां पृथ्वी पर किसी ने कभी नहीं बनाई। खींचता है। फिर अंतिम परेशानी आती है कि स्वयं का खिंचाव है। बाप बेटी के साथ मंदिर में प्रवेश करने में घबड़ाता है। भाई भाई के उसके भी पार जाकर, द्वंद्व के पार आदमी हो जाता है। साथ जाने में डरेगा। बेटा मां के साथ मंदिर में जाने में भयभीत जो व्यक्ति कामदेव के पार हो जाता है, वह देवताओं के पार हो । | होगा। इस भय और डर के कारण शायद हम कहेंगे कि ये मंदिर जाता है। इसलिए हमने, बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो कथाएं कहती | ठीक नहीं बने, गलत बने हैं। हैं कि समस्त देवता उनके चरणों में सिर रखकर मौजूद हुए। क्या । गांधीजी के एक भक्त थे, पुरुषोत्तमदास टंडन। उनका सुझाव हो गया बुद्ध को कि देवता उनके चरणों में सिर रखें। क्योंकि देवता, था गांधीजी को कि इन मंदिरों पर मिट्टी ढांककर इनको दाब देना 764 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 काम का राम में रूपांतरण चाहिए। गांधीजी को भी बात तो जंचती थी कि ढांक दिए जाएं ये | | से ऐसे गुजर जाता है, जैसे चित्र हों ही न, वही आदमी मंदिर में मंदिर; ये भारतीय संस्कृति को विकृत करते हुए मालूम पड़ते हैं। प्रवेश के योग्य है। कामवासना से जो पार नहीं जाता, वह मंदिर में जिनको भारतीय संस्कृति का कोई पता नहीं है, उन्हीं को ऐसा प्रवेश नहीं पा सकता है। लगेगा। लेकिन नहीं हो सका वह, क्योंकि खजुराहो जगत-ख्याति | लेकिन कामवासना का विरोध करके कोई कभी पार नहीं गया का मंदिर है और भारत का टूरिज्म का बड़ा धंधा खजुराहो और | | है। इस जगत में समझने के अतिरिक्त पार जाने का कोई भी उपाय कोणार्क जैसे मंदिरों पर निर्भर है। अगर बाहर से पर्यटक देखने न नहीं है। लड़ते हैं नासमझ, जानते हैं समझदार। और जानना ताकत आते हों इन मंदिरों को, और इन मंदिरों की जगत-ख्याति न हो, तो है। ज्ञान शक्ति है। हमने जरूर इन पर मिट्टी ढांक दी होती, इनको पूर दिया होता, बेकन ने कहा है, नालेज इज़ पावर। सभी अर्थों में सही है। जहां इनको मिटा दिया होता। भी ज्ञान है, वहीं शक्ति है। और जिस चीज का हमें ज्ञान है, हम इतना हमें क्यों डर लगता है? मां अपने बेटे के साथ इस मंदिर | उसके मालिक हो सकते हैं। और जिसका हमें ज्ञान नहीं है, हम उससे में जाने में भयभीत क्यों होती है? क्योंकि हम जीवन के तथ्यों को | | चाहे भयभीत हों, चाहे पराजित हों, चाहे उसके गुलाम रहें, चाहे स्वीकार नहीं करते। हम जीवन के तथ्यों को झुठलाते हैं; हम | | उससे डरकर भागते रहें, हम उसके मालिक कभी भी न हो सकेंगे। बेईमान हैं। जीवन की सीधी सचाइयों के प्रति हम बहुत बेईमान हैं। ___ आकाश में बिजली कौंधती है, आज हम उसके मालिक हो गए नहीं तो बात ही क्या है? जब कोई मां बनती है किसी बेटे की, तभी | | हैं। वैसे ही ठीक कामवासना और भी बड़ी बिजली है, जीवंत काम-ऊर्जा के कारण बनती है। जब कोई बाप बनता है किसी बेटे | बिजली है, उसके भी मालिक होने का उपाय है। लेकिन मालिक का, तो काम-ऊर्जा के कारण बनता है। केवल वे ही हो सकते हैं, जो उसके प्रति भी सदभाव रखकर चलें। लेकिन काम-ऊर्जा के प्रति हमने इस तरह के छिपाव खड़े किए | जब कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं, तो सदभाव रखा जा सकता हैं कि हम दुनिया में बात ही नहीं होने देते। जो मौलिक है सत्य, | | है। तब कोई विरोध, तब कोई निंदा का सवाल नहीं है। तब यह भी उसको हम ऐसे छिपाते हैं, जैसे वह घटता ही नहीं है। उस घबड़ाहट | | शक्ति परमात्मा की है, और इस शक्ति का कैसे अधिकतम उपयोग के कारण ये मंदिर हमें प्रवेश करने में डर पैदा करवाते हैं। हो सके, और कैसे यह शक्ति जीवन के लिए मंगलदायी हो जाए, यह मंदिर बहुत सत्य है। सत्य, नग्न रूप से सत्य है। और विचार । | और कैसे यह शक्ति हमारी मृत्यु का कारण न बने, वरन परम करके इसे निर्मित किया गया है। दीवाल के बाहरी हिस्सों पर | | जीवन में प्रवेश का द्वार हो जाए, इसकी दिशा में मेहनत की जा कामवासना के चित्र हैं। और मंदिर इस बात का प्रतीक है कि जब | सकती है। तक तुम्हारा मन दीवाल के बाहर के चित्रों में लीन हो, तब तक भीतर __ सिर्फ अकेले हिंदुस्तान ने एक विज्ञान को जन्म दिया जिसका प्रवेश नहीं हो सकेगा। जिस दिन तुम्हें बाहर मंदिर की दीवाल पर | नाम तंत्र है। एक पूरे विज्ञान को जन्म दिया, जिसके माध्यम से काम खुदे हुए मैथुन के गहन चित्र जरा भी आकर्षित न करें, उसी दिन तुम | की ऊर्जा ऊर्ध्वगामी हो जाती है। और जिसके अंतिम प्रयोगों से भीतर आना, उसी दिन तुम परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर सकोगे। काम-ऊर्जा थिर हो जाती है, उसका प्रवाह समाप्त हो जाता है। संसार इस मंदिर के बाहर खुदे हुए चित्रों की परिधि है। और जब कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं। तक किसी का मन कामवासना में डोल रहा है, तब तक वह मंदिर लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई कामवासना में पड़ा रहे। में प्रवेश नहीं हो सकता। और कामवासना में डोलने के दो ढंग हैं। काम को भी दिव्य बनाना है, तभी यह कृष्ण के कामदेव की बात या तो कामवासना के लिए डोल रहा हो, या कामवासना से भयभीत | समझ में आएगी। उसे भी दिव्यता देनी है। होकर डरकर डोल रहा हो। हमारा तो काम पशुता से भी नीचे चला जाता है; दिव्यता तो ___ जो आदमी इस मंदिर के पास जाता है और आंखें गड़ाकर इन बहुत दूर की बात है। पशुओं की कामवासना में भी एक तरह की चित्रों को देखने लगता है, वह भी उनसे उलझा है; और जो इन | | स्वच्छता है। और पशुओं की कामवासना में भी एक तरह की चित्रों को देखकर आंखें नीची करके दुबककर अंदर घुस जाता है, सरलता है, एक निर्दोष भाव है। आदमी की कामवासना में उतना वह भी इन्हीं चित्रों से उलझा हुआ है। जो आदमी इन चित्रों के पास निर्दोष भाव भी नहीं है। आदमी की कामवासना, लगती है, पशुओं 11651 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 से भी नीचे गिर जाती है! क्या कारण होगा? प्रकृत है। क्योंकि पशुओं की कामवासना उनकी शुद्ध शारीरिक घटना है। एक और नग्नता भी है। एक पशुओं की नग्नता है, एक हमारी और आदमी की कामवासना शारीरिक कम और मानसिक ज्यादा | | नग्नता है-कपड़ों में ढंकी। एक महावीर की नग्नता भी है। है। मानसिक होने से विकृत है। मानसिक होने से विकृत है, | | महावीर भी नग्न खड़े हैं। लेकिन उनकी नग्नता से किसी को कोई सेरिब्रल होने से विकृत है। एक आदमी संभोग में उतरे, यह निर्दोष | बेचैनी नहीं मालूम पड़ेगी। और अगर बेचैनी मालूम पड़े, तो जिसे हो सकता है। लेकिन एक आदमी बैठकर और संभोग का चिंतन | | मालूम पड़ती है, वही जिम्मेवार होगा। महावीर की नग्नता फिर करे, यह विकृत है, यह बीमार है। बच्चे जैसी हो गई, फिर इनोसेंट हो गई। अब महावीर,की नग्नता तीन संभावनाएं हैं। या तो कामना, काम की शक्ति, प्रकृत हो, | | में, आदमी के ढंके होने से ऊपर जाने की स्थिति आ गई। अब नेचुरल हो। अगर नीचे गिर जाए, तो विकृत हो जाए, अननेचुरल | | ढांकने को भी कुछ न बचा। अगर हम महावीर से पूछे कि आप हो जाए। अगर ऊपर बढ़ जाए, तो संस्कृत हो जाए, सुपरनेचुरल | | नग्न क्यों खड़े हैं? तो वे कहेंगे, जब ढांकने को कुछ न बचा, तो हो जाए। प्रकृत कामवासना दिखाई पड़ती है पशुओं में, पक्षियों में। ढांकना भी क्या है! इसलिए नग्न पक्षी भी हमारे मन में कोई परेशानी पैदा नहीं करता। हम ढांक क्या रहे हैं? हम अपने शरीर को नहीं ढांक रहे हैं। अगर लेकिन कछ लोग इतने रुग्ण हो सकते हैं कि नग्न पश-पक्षी भी बहत गौर से हम समझें. तो हम अपने मन को ढांक रहे हैं। और परेशानी पैदा करें। | चूंकि शरीर कहीं खबर न दे दे हमारे मन की, इसलिए हम शरीर को अभी मैंने सुना है कि लंदन में बूढ़ी औरतों के एक क्लब ने एक ढांके हुए बैठे हैं। लेकिन जब कोई डर ही न रहा हो, शरीर की तरफ इश्तहार लगाया हुआ है। और उसमें कहा है कि सड़क पर कुत्तों | से कोई खबर मिलने का उपाय न रहा हो, क्योंकि मन में ही कोई को भी नग्न निकालने की मनाही होनी चाहिए। | उपाय न रहा हो, तो महावीर नग्न होने के अधिकारी हो जाते हैं। अब बूढ़ी स्त्रियों को सड़क पर नग्न कुत्तों के निकलने में क्या तीन संभावनाएं हैं। अगर कामवासना विकृत हो जाए, जैसी कि एतराज होगा? इस एतराज का संबंध कुत्तों से कम, इन स्त्रियों से | | आज जगत में हो गई है...एकदम विकृत मालूम पड़ती है, और ज्यादा है। इनके मन में कहीं कोई गहरा विकार है। वही विकार | | चारों तरफ से घेरे हुए है हमें। चाहे आप फिल्म देख रहे हों, तो भी प्रोजेक्ट होता है। | कामवासना अनिवार्य है। चाहे आप अखबार पढ़ रहे हों, चाहे आप हम बच्चे को देखते हैं नग्न, तो तकलीफ नहीं होती। बड़े आदमी | | किताब पढ़ रहे हों, चाहे कहानी पढ़ रहे हों, और यह तो छोड़ दें, को नग्न या बड़ी स्त्री को नग्न देखते हैं, तो पीड़ा क्या होती है? वह | | अगर आप साधु-संतों के प्रवचन भी सुन रहे हों, तो भी पीड़ा कोई विकार है। वह नग्न व्यक्ति में है, ऐसा नहीं; वह हमारे | | कामवासना अपना निषेधात्मक रूप प्रकट करती रहती है। भीतर है। __ यह बहुत मजे की बात है कि मैंने बहुत-सी किताबें देखी हैं उन आदिवासी हैं, उनकी स्त्रियां अर्द्धनग्न हैं, करीब-करीब नग्न हैं, | | लोगों की भी जिन्होंने पोर्नोग्राफी, जिन्होंने अश्लील साहित्य लिखा लेकिन किसी को कोई विकार पैदा होता मालूम नहीं होता। और | है, और स्त्री-पुरुषों के अंगों की नग्न चर्चा की है। उन साधु-संतों हमारी स्त्रियां इतनी ढंकी हुई हैं, जरूरत से ज्यादा ढंकी हुई हैं, | | की किताबें भी मैंने देखी हैं, जिन्होंने स्त्री-पुरुषों के अंगों की चर्चा बल्कि इस ढंग से ढंकी हई हैं कि जहां-जहां ढांकने की कोशिश | की है निंदा के लिए। लेकिन बड़े मजे की बात है, कोई पोर्नोग्राफर की गई है, वहीं-वहीं उघाड़ने का इंतजाम भी किया गया है। हमारा | इतने रस से चर्चा नहीं कर पाता, जितने साधु-संत कर पाते हैं। ढांकना उघाड़ने की एक व्यवस्था है। हम ढांकते हैं, लेकिन उस | इतना रस नहीं मालूम पड़ता। कोई अश्लील लिखने वाला इतने रस ढांकने में बीमारी है। इसलिए जो-जो हम ढांकते हैं, उसे हम | से चर्चा नहीं करता। दिखाना भी चाहते हैं। तो ढांकने से भी हम दिखाने का इंतजाम कर | । यह विकृत रस है। भीतर दमन है, भीतर दबाया है, जबरदस्ती लेते हैं। की है, वह पीछे से निकलता है। हमारी ढंकी हुई स्त्री भी रुग्ण मालूम पड़ेगी। एक आदिवासी । झेन कथा है एक। दो फकीर, एक बूढ़ा और एक युवा, एक नदी नग्न स्त्री भी रुग्ण मालूम नहीं पड़ेगी। वह प्रकृत है, पशुओं जैसी के पास से गुजरते हैं। बूढ़ा फकीर आगे है; भिक्षु है बौद्ध। एक 1166 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ काम का राम में रूपांतरण युवा लड़की खड़ी है नदी के किनारे। और वह उस बढ़े से कहती जिससे आप लड़ते हैं, उससे चौबीस घंटे लड़ना पड़ता है। और है कि मुझे नदी के पार जाना है, और मैं डरती हूं। और उस बूढ़े का | | एक बड़ी कीमिया की बात है भीतरी कि जिससे आप बहुत दिन तक मन हुआ कि हाथ से सहारा देकर नदी पार करा दे। लेकिन यह | लड़ते हैं, आप उसके जैसे ही हो जाते हैं। किसी से भी लड़कर देखें सोचा उसने कि हाथ का सहारा दे दे, कि भीतर वासना पूरी तरह | आप। अगर दो-चार साल किसी दुश्मन से आपकी दुश्मनी चल खड़ी हो गई। वह घबड़ा गया। लड़की से नहीं, अपने से घबड़ा | | जाए, तो चार साल के बाद आप पाएंगे कि आप अपने दुश्मन जैसे गया। आंखें नीची कर लीं और नदी पार हो गया। हो गए। नदी के उस पार जाकर उसे खयाल आया कि मैं तो बूढ़ा आदमी दो मित्र भी इतने एक से नहीं होते, जितने दो शत्रु अंत में एक हूं और मेरा अपने ऊपर संयम है, इसलिए लड़की का हाथ मैंने नहीं से हो जाते हैं। क्योंकि जिससे लड़ना पड़ता है, उसकी ही तरकीबें पकड़ा। हमारे सब संयम इसी तरह के कमजोर हैं। लेकिन मेरे पीछे काम में लानी पड़ती हैं। और जिससे लड़ना पड़ता है, उसी की भाषा जो युवा संन्यासी आ रहा है, कहीं वह इस भूल में न पड़ जाए, काम में लानी पड़ती है। और जिससे लड़ना पड़ता है, उसका जिसमें मैं पड़ा जा रहा था, पड़ते-पड़ते बचा, बाल-बाल बचा। | सत्संग भी करना पड़ता है। और जिससे लड़ना पड़ता है, चौबीस लौटकर उसने देखा, तो उसकी तो छाती बैठ गई। वह युवा संन्यासी | घंटे चेतना में उसका भाव बना रहता है। उस लड़की को कंधे पर बिठाकर नदी पार कर रहा है! | इसलिए कामवासना से लड़ने वाले लोग एक बहुत मानसिक उस लड़के ने, उस युवा संन्यासी ने लड़की को किनारे के पार व्यभिचार में पड़ जाते हैं। भीतर व्यभिचार चलने लगता है। उनके उस तरफ छोड़ दिया। फिर वे दोनों अपने आश्रम की तरफ चलने सपने विकृत हो जाते हैं। लगे। मीलभर का रास्ता, बूढ़े ने एक शब्द भी नहीं बोला। आग | अगर हम साधुओं के सपने देखें, तो हम बहुत घबड़ा जाएं। वैसे जल रही है उसके भीतर। द्वार पर मोनेस्ट्री के, आश्रम के द्वार पर सपने कारागृहों में बंद अपराधी भी नहीं देखते हैं। सपने! अगर हम उसने रुककर उस युवक से कहा कि याद रखो, तुमने जो पाप किया| सपनों में प्रवेश कर सकें, तो हमें बहुत घबड़ाहट होगी। अच्छे है, वह मुझे गुरु को जाकर बताना ही पड़ेगा। | आदमी बुरे सपने देखते हैं। बुरे आदमी इतने बुरे सपने नहीं देखते। उस युवक ने पूछा, कौन सा पाप! कैसा पाप! उस बूढ़े ने कहा, कोई कारण नहीं है देखने का। बुरा वे दिन में ही कर लेते हैं; रात उस लड़की को कंधे पर बिठालना। वह युवा संन्यासी हंसने लगा। में करने को बचता नहीं। अच्छा आदमी जो दिनभर रोक लेता उसने कहा, मैं तो उसे कंधे से नदी के उस पार उतार भी आया, | | है...। कभी आपने उपवास किया हो, तो रात में आपको राजमहल आप उसे अभी भी कंधे पर लिए हुए हैं! यू आर स्टिल कैरीइंग हर। | में भोजन का निमंत्रण मिलेगा ही; जाना ही पड़ेगा। वह जो आपने अभी भी आप उसे खींच रहे हैं! | दिन में रोक लिया है, वह रात सपने में आपका मन पूरा करेगा। चाहे सिनेमागृह में जाएं, तो एक रूप है वासना का। और मंदिर ___ आप यह मत सोचना कि सपना है, इसका क्या मूल्य? में जाकर चर्चा सुनें, तो यह खींचने वाला रूप है वासना का। | सपना भी आपका है, किसी और का नहीं है। और सपना आपसे लेकिन सब तरफ वासना घेरे हुए है। सब तरफ वासना घेरे हुए है। | पैदा होता है। जैसे आपसे कर्म पैदा होता है, वैसे ही स्वप्न भी यह तो रुग्ण मालूम होती है अवस्था; पशु से भी नीचे गिर गई आपसे पैदा होता है। अगर मैं एक आदमी की हत्या करता हूं दिन अवस्था मालूम पड़ती है। | में, तो मैं उतना ही जिम्मेवार हूं, जितना मैं हत्या करने का सपना इससे ऊपरं उठा जा सकता है। लेकिन उठने के लिए पहली | | देखू तब। अदालत मुझे नहीं पकड़ेगी, वह दूसरी बात है। लेकिन ध्यान रखने की बात जरूरी जो है, वह यह है कि जो भी इससे लड़ने | | सपना भी मुझमें ही पैदा होता है, जैसे कर्म मुझमें पैदा होता है। कर्म लगेगा, वह ऊपर नहीं उठ पाएगा। क्योंकि जिससे हम लड़ते हैं, | | भी मेरा है, स्वप्न भी मेरा है। उसमें हमारा रस निर्मित होता है। आप अपने मित्र को भी भूल | और मजा यह है कि कर्म तो मैं किसी दूसरे से भी करवा सकता सकते हैं; शत्रु को भूलना इतना आसान नहीं है। मित्र को भूल जाने | हूं, सपना मैं किसी दूसरे से नहीं दिखवा सकता। मैं किसी की हत्या में इतनी कठिनाई नहीं है, मित्र भूल ही जाते हैं, समय भुला देता | करवाना चाहूं तो एक आदमी को भी रख सकता हूं, लेकिन मेरा है। लेकिन शत्रु! शत्रु को भुलाना बहुत मुश्किल है। सपना मैं ही देख सकता हूं, दूसरा नहीं देख सकता; नौकर नहीं रखे 167 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 गीता दर्शन भाग-58 जा सकते। इसका मतलब यह हुआ कि कर्म से भी गहरा संबंध | में तिरोहित करता है, तब उसे आनंद का अनुभव होता है। सपने का मुझसे है। सपने के लिए तो मैं निपट जिम्मेवार हूं। और | । इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं। समस्त जन्म, समस्त कोई जिम्मेवार नहीं है। सृजन मेरे ही द्वारा है। मैं ही हूं। यह जो हमारे चित्त की रुग्णता पैदा होती है, वह है दमन, संघर्ष, यह जीवन को स्वीकार करने का अदभुत सूत्र है। वैमनस्य, शत्रुता, अज्ञान से भरा हुआ। अल्बर्ट श्वीत्जर ने संभवतः इस सदी का हिंदू धर्म के ऊपर कामवासना कामदेव बन जाती है, अगर हम शांत, मौन, प्रेम से सबसे गहरा क्रिटिसिज्म, सबसे गहरी आलोचना लिखी है। उस ऊर्जा को समझने की कोशिश करें, जो हमारे भीतर वासना बन अल्बर्ट श्वीत्जर इस सदी के दो-चार विचारशील लोगों में एक था। गई है। और फिर उसे ऊपर उठा ले जाने का विज्ञान है। उसको | और उसके विचार का मूल्य है, और उसकी आलोचना विचारणीय बदलने का इंच-इंच शास्त्र है। फिर हम उसे बदलना शुरू करें। | है। उसने कहा है कि हिंदू धर्म लाइफ निगेटिव है, जीवन को कभी दो-चार छोटे प्रयोग करें. आप चकित हो जाएंगे। जब भी अस्वीकार करता है. जीवन का निषेध करता है. जीवन का आपको कामवासना उठे, तब आप अपना ध्यान तत्क्षण सहस्रार के जीवन को स्वीकार नहीं करता। पास ले जाएं। आंख बंद कर लें, और अपने ध्यान को दोनों आंखों निश्चित ही श्वीत्जर को कुछ भूल हो गई है। और श्वीत्जर की को ऊपर ले जाएं और अनुभव करें कि आपकी चेतना खोपड़ी के भूल का कारण है। क्योंकि श्वीत्जर गांधी को पढ़कर समझता है छप्पर से लग गई है। एक सेकेंड, और आप अचानक पाएंगे कि | कि वे हिंदू धर्म के प्रतीक हैं। श्वीत्जर महावीर और बुद्ध को पढ़कर वासना तिरोहित हो गई। जब भी वासना उठे, तब तत्क्षण अपनी समझता है कि वे हिंदू धर्म के प्रतीक हैं। श्वीत्जर को अगर हिंदू चेतना को खोपड़ी के पास ले जाएं, और आप पाएंगे, वासना धर्म समझना है, तो उसे कृष्ण को पढ़ना चाहिए। न तो महावीर और तिरोहित हो गई। कितनी ही प्रगाढ़ वासना उठी हो, एक क्षण में | न बुद्ध और न गांधी, ये हिंदू धर्म के प्रतीक नहीं हैं। और इनको विलीन हो जाएगी। क्योंकि वासना को चलने के लिए आपकी। | पढ़ने से ऐसा वहम पैदा हो सकता है, ऐसा भय पैदा हो सकता है चेतना के सहयोग की जरूरत है। कि जीवन का निषेध है, जीवन का विरोध है। कृष्ण को पढ़ने पर और जो लोग इस तरह जीना शुरू कर देते हैं, कि उनकी चेतना पता चलेगा कि जीवन का इतना समग्र स्वीकार कहीं और संभव धीरे-धीरे-धीरे सतत ऊपर की ओर प्रवाहित रहने लगती है, उनमें नहीं है। वासना पैदा होनी बंद हो जाती है। और अंततः चेतना की डोर को | कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं। पकड़कर वासना की ऊर्जा ऊपर चढ़ने लगती है। और जिस दिन काम की जहां स्वीकृति हो गई, वहां जीवन स्वीकार हो जाता है। वासना ऊपर चढ़ती है, उस दिन जीवन में जैसे आनंद का अनुभव | और जहां काम की अस्वीकृति हुई, वहां जीवन का अस्वीकार हो होता है, वैसा हजारों संभोगों में भी नहीं हो सकता। क्योंकि हर जाता है। संभोग शक्ति को खोना है और हर समाधि शक्ति को पाना है। बड़े मजे की बात है। श्वीत्जर ईसाई है। ईसाइयत ज्यादा जीवन नीचे उतरना, अपनी चेतना के तल को भी नीचे गिराना है। ऊपर निषेधक है। ईसाइयत में जीवन का ज्यादा विरोध है। ईसाइयत में उठना, अपनी चेतना के तल को भी ऊपर उठाना है। और जितने | काम, सेक्स पाप है। मूल पाप है, महापाप है। और श्वीत्जर ईसाई हम ऊपर उठते हैं और जितने हम हल्के होते हैं, उतने गहन आनंद | है और फिर वह देख पाता है कि हिंदू धर्म जीवन निषेधक है, तो में प्रवेश होता है। | वह गांधी को समझने चल पड़ता है, तो भूल होगी। भूल इसलिए जिस दिन कोई व्यक्ति अपनी खोपड़ी के पार भी अपनी चेतना | होगी कि गांधी पर जो प्रभाव हैं जीवन निषेध के, वे रस्किन और को ले जाने में समर्थ हो जाता है, उस दिन उसे अनंत आनंद की | टाल्सटाय के द्वारा ईसाइयत से आए हुए प्रभाव हैं। उपलब्धि होती है। एक बहुत मजे की घटना पश्चिम में घटी है कि पश्चिम ने जीवन इसे हम ऐसा समझ सकते हैं, जब कोई व्यक्ति अपनी ऊर्जा को | | के विरोध का सबसे बड़ा प्रयोग किया था ईसाइयत के द्वारा। काम-केंद्र से नीचे गिराता है, तब उसे सुख का आभास होता है; | | ईसाइयत में भयंकर विरोध है। हम राम के साथ सीता को खड़ी कर और जब कोई व्यक्ति अपनी काम-ऊर्जा को सहस्रार से आकाश सकते हैं, और राम को भगवान मान सकते हैं। हम कृष्ण के साथ 168] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 काम का राम में रूपांतरण गोपियां नाचती हों, तो बिना एतराज किए कृष्ण को भगवान मान है। लेकिन कृष्ण को यमराज क्यों शासकों में श्रेष्ठ मालूम पड़ा? सकते हैं। ईसाइयत नहीं मान सकती। ईसाइयत तो मानती ही है कि कुछ कारण हैं। कामवासना ही इस जगत में पाप का कारण है। इसलिए कामवासना एक, इस जगत में मृत्यु के सिवाय और कुछ भी निश्चित नहीं से हट जाना है। और हट जाने का मतलब गहरा दमन है। | है। इस जगत में अगर कोई एक चीज सुनिश्चित है, एब्सोल्यूटली दो हजार साल में ईसाइयत ने पश्चिम में कामवासना का इस बुरी । सर्टेन, तो वह मृत्यु है। बाकी सब चीजें अनिश्चित हैं। हो भी तरह दमन किया कि आज उस दमन का प्रतिफल पश्चिम में आ | सकती हैं, न भी हों। मृत्यु होगी ही। मृत्यु न हो, ऐसा सोचा भी नहीं रहा है। जब कोई चीज बहुत दबाई जाती है, तो उसका प्रतिकार और जा सकता। रिएक्शन और प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है। ईसाइयत ने जिस चीज जीवन में बाकी सब हेजार्ड है, सब अनिश्चित है। जीवन में सब को खूब दबाया था जोर से, आज वह जोर से फैलकर पैदा हो गई | | ऐसा है, जैसे कोई कागज की नाव समुद्र की लहरों पर कहीं भी है। आज पश्चिम में जो वासना का खुला खेल है, उसमें जिम्मेवार डोल रही हो। कहीं भी जा सकती है; पूरब भी जा सकती है, पश्चिम के आज के लोग कम और दो हजार साल के वे लोग ज्यादा | पश्चिम भी जा सकती है; बड़ी लहरों पर, छोटी लहरों पर। यह हैं, जिन्होंने वासना को बिलकुल दबाने का पागलपन से भरा हुआ नाव कहीं भी डोल सकती है। तरंगों के हाथ में सब अनिश्चित है। आग्रह किया। एक बात सुनिश्चित है कि यह नाव कागज की डूबेगी। उतनी बात श्वीत्जर की आलोचना अनुचित है। लेकिन उसके कारण हैं, निश्चित है। और वह निश्चय बदला नहीं जा सकता। मृत्यु क्योंकि ऐसे लोग भारत में जरूर हुए हैं, जो जीवन निषेधक हैं। सर्वाधिक सुनिश्चित तथ्य है। लेकिन भारत की मूल धारा जीवन निषेधक नहीं है। भारत की मूल इसलिए कृष्ण कहते हैं, शासकों में मैं यमराज हूं। क्योंकि उसके धारा जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करती है, उसकी पूर्णता शासन में जरा भी शिथिलता नहीं है, जरा भी अपवाद नहीं है। सब में स्वीकार करती है। जीवन जैसा है, भारत उसको अंगीकार करता चीजों में अपवाद हो सकता है; उसके शासन में अपवाद नहीं है। है और फिर अंगीकार के द्वारा उसे रूपांतरित करता है। उसका शासन निरपवाद है। कानून वहां पूरा है, उसमें रत्तीभर फर्क इस भेद को ठीक से समझ लें। आप किसी चीज से लड़ सकते | नहीं है। हैं बदलने के लिए, आप किसी चीज को स्वीकार कर सकते हैं | दूसरी बात, एक आदमी अमीर हो सकता है, एक गरीब हो बदलने के लिए। स्वीकार करके जो बदलाहट है, वह गहरी होती | | सकता है। एक आदमी बुद्धिमान हो सकता है, एक आदमी है। लड़कर जो बदलाहट है, वह गहरी नहीं होती। क्योंकि जिससे | बुद्धिहीन हो सकता है। एक आदमी सुंदर हो सकता है, एक आदमी आप लड़ते हैं, उसे आप समझ ही नहीं पाते। समझने के लिए मैत्री | असुंदर हो सकता है। हम चेष्टा करके कल सारी संपत्ति बांट दें, चाहिए। कामवासना से भी मैत्री चाहिए। सभी आदमियों के पास बराबर संपत्ति हो जाए, तब भी दो बराबर कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं। वे यह कहते हैं कि यह पूरा जीवन | संपत्ति वाले आदमियों का सुख बराबर नहीं होता। हम संपत्ति बांट मुझसे ही पैदा होता है। यह जीवन का सारा खेल मेरा ही खेल है। दें, तो हम संपत्ति को भूल जाएंगे, सौंदर्य पीड़ा देने लगेगा। बुद्धि और यह सब दिव्य हो सकता है। इसलिए अपने को इससे संयुक्त | पीड़ा देगी। कोई ज्यादा बुद्धिमान होगा, कोई कम बुद्धिमान होगा। करते हैं। जीवन में समानता असत्य है, होती ही नहीं। सोशलिज्म एक . सर्पो में वासुकि हूं, नागों में शेषनाग, जलचरों में वरुण देवता सपना है, जो कभी पूरा नहीं होता, और न कभी पूरा हो सकता है। हं. पितरों में पित्रेश्वर तथा शासन करने वालों में यमराज हं। लेकिन एक सखद सपना है। देखने में मजा आता है। समाजवाद यह प्रतीक बहुत कीमती है; वैसा ही, जैसा कामदेव, वैसा ही | | कभी पूरा नहीं हो सकता है जीवन में, क्योंकि जीवन असमानता यमराज। इसे हम थोड़ा समझ लें। | है। सब तरह से जीवन असमान है। दो व्यक्ति जरा भी समान नहीं शासन करने वालों में यमराज, मृत्यु का दूत, मृत्यु का शासक! हैं। प्रकृतिगत एक-एक व्यक्ति अलग-अलग असमान है। सिर्फ शासन करने वालों में कृष्ण को कोई और न सूझा! बड़े शासक हो | | जगत में एक ही सोशलिज्म निश्चित है, वह मृत्यु का समाजवाद गए हैं। पृथ्वी ने बड़े शासक देखे हैं। स्वर्ग भी शासकों को जानता है। मृत्यु के समक्ष सब समान है। 1169 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग- 50 जीवन में सब असमान है, मृत्यु के समक्ष सब समान है। गरीब तो मुझसे पक्षपात नहीं चाहा जा सकता, इसका अर्थ हुआ यह। और अमीर, बुद्धिमान और मूढ़, सुंदर और असुंदर, सफल और | | इसका अर्थ हुआ कि जो परमात्मा से पक्षपात मांग रहे हैं, वे पागल असफल, स्त्री और पुरुष, बच्चे और बूढ़े, काले और गोरे, नीग्रो | हैं। पक्षपात नहीं मिल सकता। जो परमात्मा से प्रार्थनाएं कर रहे हैं और अंग्रेज, कोई भी–मृत्यु इस जगत में अब तक पाई गई | कि उनके लिए अपवाद बना दिया जाए, वे गलती पर हैं। कोई एकमात्र सोशलिस्टिक डिक्टेटरशिप है, एकमात्र समाजवादी तंत्र | अपवाद नहीं हो सकता। उसी के पास है। वहां सब समान है। हम सब इसी कोशिश में लगे हैं कि परमात्मा हमारे लिए अपवाद मृत्यु सबको समान कर देती है। उसका शासन पक्षपात नहीं हो। सबके साथ कुछ भी करे, हमें छोड़ दे। सबके पाप माफ करे न मानता। अमीर यह नहीं कह सकता कि थोड़ी देर रुक, क्योंकि मैं | | करे, हमारे माफ कर दे। हम ऐसे हिसाब में लगे हैं कि सबको तो अमीर हूं। अभी थोड़ी देर से आना, क्योंकि इस वक्त मेरी पार्टी | | उनके पापों का दंड ठीक से मिले और हमारे पाप हमें क्षमा कर दिए हुकूमत में है! अभी फुरसत नहीं मिलने की, क्योंकि अभी मैं | | जाएं, क्योंकि हम गंगास्नान कर आए हैं! या हम रोज पूजा करते हैं, मिनिस्टर हूं। नहीं, यह कोई भी उपाय नहीं है। गरीब भिखारी हो | कि हम रोज माला फेरते हैं। हम कुछ रिश्वत दे रहे हैं। हम एक . कि सम्राट हो, हारा-पराजित आदमी हो कि विजेता हो, मृत्यु के | नारियल चढ़ा देते हैं। हम फूल रख आते हैं परमात्मा के चरणों में। समक्ष पक्षपात नहीं है। हम कुछ रिश्वत दे रहे हैं। हम उसे फुसला रहे हैं कि मेरे साथ कुछ इसलिए कृष्ण कहते हैं, शासकों में मैं यमराज। न कोई पक्षपात जरा अपनेपन का खयाल करो। मुझ पर कुछ पक्षपात करो। कुछ मेरे है, न कोई अनिश्चितता है; न कोई भेदभाव है, न कोई अपवाद है। साथ अपवाद करो। सबके नियम मुझ पर मत लगाना। मृत्यु अनूठी घटना है। नहीं, यह कुछ भी नहीं हो सकता। कृष्ण कहते हैं, शासन करने और मुझे ऐसा लगता है कि अगर हम किसी दिन सच में ही | वालों में मैं यमराज हूं। नियम पूरा होगा, पूरा किया जाएगा। नियम सफल हो जाएं पूर्ण समाजवाद लाने में हो नहीं सकते हो | बिलकुल तटस्थ है। जाएं, सब कुछ समान कर दें, तो यह पृथ्वी मरघट के जैसी लगेगी, | | महावीर ने तो बड़ी मजे की बात की है। महावीर ने इसीलिए कहा जिंदगी के जैसी नहीं। क्योंकि अगर हम सब समान करने में सफल | कि नियम चूंकि इतना तटस्थ है, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है, हो जाएं, तो जिंदगी मौत जैसी मालूम पड़ेगी। मौत ही समान हो | नियम काफी है। महावीर ने परमात्मा की जरूरत ही अस्वीकार कर सकती है। जिंदगी के होने का ढंग ही असमानता है, इनइक्वालिटी। दी। उन्होंने कहा, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं। चेष्टा करके हम कुछ-कुछ इंतजाम कर सकते हैं, लेकिन वे __ थोड़ा सोचने जैसा है। महावीर ने कहा कि नियम इतना शाश्वत इंतजाम झूठे होंगे। है, इतना अचल है कि नियम काफी है। परमात्मा की बीच में क्या वे इंतजाम ऐसे ही होंगे, जैसे यहां बैठे सारे लोगों के चेहरे पर | जरूरत है? नियम अपना काम करता रहेगा। जो बुरा करेगा, वह मैं नीला रंग पोत दं, तो एक अर्थ में समानता आ गई कि सभी के | बुरा पाएगा। जो पहाड़ से कूदेगा, वह नीचे टकराकर मर जाएगा। पास नीले चेहरे हैं। लेकिन उस नीले रंग के पीछे चेहरों की पृथकता | जो जमीन की कशिश का खयाल नहीं रखेगा, उसके पैर टूट कायम रहेगी। और उस नीले रंग के पीछे भी कोई संदर होगा और जाएंगे। जो भोजन नहीं करेगा, वह मर जाएगा। जैसे ये नियम कोई कुरूप होगा, और कोई बूढ़ा होगा और कोई जवान होगा। | शाश्वत हैं, वैसे ही जीवन का अंतरस्थ नियम भी शाश्वत है। बस, नीला रंग भर एक थोपा हुआ ऊपर से समान हो जाएगा। । इसलिए महावीर ने कहा, भगवान को, परमात्मा को बीच में हम आर्थिक समानता दुनिया पर थोप सकते हैं, लेकिन भीतर सब क्यों रखना! क्योंकि परमात्मा को बीच में रखने से अड़चन होगी। असमान होगा। असल में समानता एक थोपी हुई चीज है, क्योंकि अड़चन यह होगी कि या तो परमात्मा यह कहेगा कि नियम तो पूरा व्यक्ति न समान पैदा होते, न समान जीते; बस समान मरते हैं। | होगा, मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं। तब वर्चुअली उसका होना न मत्य का शासन इस अर्थ में, शायद किसी भी और शासन से होना बराबर है। और अगर परमात्मा को होना है, तो वह कहेगा, तुलना नहीं किया जा सकता। | कोई फिक्र नहीं, तू मेरा भक्त है, तो तुझे मैं माफ किए देता हूं, दूसरे कृष्ण ने कहा कि तथा शासन करने वालों में मैं यमराज हूं। | को माफ नहीं करूंगा; तो अन्याय होगा। 1170| Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम का राम में रूपांतरण तो महावीर ने कहा, परमात्मा को बीच में रखने से उपद्रव होगा, क्योंकि परमात्मा और नियम, दो के बीच तकलीफ होगी। अगर परमात्मा नियम बदल ही नहीं सकता, तो उसका होना न होना बराबर है। और अगर वह नियम बदल सकता है, तो जिंदगी बिलकुल बेकार है। क्योंकि उसका मतलब यह हुआ कि जो सच बोलता है, वह भी नर्क में पड़ सकता है, अगर परमात्मा उसके पक्ष न हो। और जो झूठ बोलता है, वह भी स्वर्ग में जा सकता है, अगर परमात्मा उसके पक्ष में हो। इसलिए महावीर ने तो कहा, नियम काफी है। पर महावीर ने नियम को ही परमात्मा मान लिया। कृष्ण भी वही कह रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं कि तू खयाल रखना अर्जुन, मैं शासन करने वालों में यमराज हूं। न कोई अपवाद हो सकता है, न कोई भेद हो सकता है, न कोई रियायत हो सकती है, न कोई सुविधा हो सकती है। नियम तो पूरा लागू होगा। और उतनी ही सख्ती से लागू होगा, जैसे मौत लागू होती है। उसमें कोई भेद-भाव नहीं किया जा सकता। नियम का अर्थ ही खो जाता है, जब उसमें भेद-भाव किया जाता है। तो कहते हैं, यमराज हूं मैं । मृत्यु की तरह सुनिश्चित मेरा कृष्ण शासन है। और अर्जुन, मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गिनती करने वालों में समय हूं। पशुओं में मृगराज, पक्षियों में गरुड़ हूं। ये दो छोटे प्रतीक और समझ लेने जैसे हैं। मैं दैत्यों में प्रह्लाद हूं! प्रह्लाद जन्मा तो दैत्यों के घर में। लेकिन घर में जन्मने से कुछ भी नहीं होता । घर बंधन नहीं है। प्रह्लाद दैत्य के घर में जन्मता है और परम भक्ति को उपलब्ध हो जाता है। शायद दैत्यों के घर में जो नहीं जन्मे हैं, वे भी इतनी भक्ति को उपलब्ध नहीं हो पाते। प्रह्लाद जैसा भक्त खोजना बिलकुल मुश्किल है। यह बड़े मजे की बात है। दैत्य के घर में जन्मा हुआ बच्चा परम भक्त हो गया; और सदगृहस्थों, सज्जनों और देवताओं के घर में जन्मे बच्चे भी प्रह्लाद के मुकाबले एक नहीं टिक पाते। इससे कुछ बातें निकलती हैं। एक, आप कहां पैदा होते हैं, किस परिस्थिति में, यह बेमानी है, इररेलेवेंट है। लेकिन हम सब यही रोना रोते रहते हैं कि परिस्थिति ऐसी है, क्या करें? परिस्थिति ही ऐसी है, मैं कर क्या सकता हूं? और अभी तो इस सदी में यह रोना इतना भयंकर हो गया है कि अब किसी को कुछ करने का सवाल ही नहीं है। एक आदमी चोर है, तो इसलिए चोर है, क्योंकि परिस्थिति ऐसी है । और एक आदमी हत्या करता है, तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं, वह क्या कर सकता है ! उसकी बचपन से सारी अपब्रिंगिंग, उसका पालन-पोषण जिस ढंग से हुआ है, उसमें वह हत्या ही कर सकता है! सब कुछ परिस्थिति पर निर्भर है। मार्क्स ने कहा है, आदमी तय नहीं करता समाज को, समाज तय करता है आदमी को । आदमी निर्माण नहीं करता परिस्थितियों का, परिस्थितियां निर्माण करती हैं आदमी का । ध्यान रखें, धर्म और धर्म के विरोध में जो भी धारणाएं हैं, उनके | बीच यही फासला है। धर्म कहता है, आदमी निर्माण करता है सब कुछ, परिस्थिति का और अपना । और धर्म के विपरीत जो धारणाएं हैं, वे कहती हैं, आदमी कुछ निर्माण कर नहीं सकता, ' परिस्थितियां सब निर्माण करती हैं, अपना भी और आदमी का भी। इसलिए मार्क्स कहता है, परिस्थिति बदलो, तो आदमी बदल जाएगा। इसलिए सारी दुनिया में कम्युनिज्म परिस्थिति बदलने की कोशिश में लगा है कि आदमी बदल जाए। धर्म कहता है, परिस्थिति कितनी ही बदलो, आदमी नहीं बदलेगा। आदमी को बदलो, तो परिस्थिति बदल जा सकती है। आदमी ज्यादा कीमती है, चेतना ज्यादा मूल्यवान है। परिस्थिति जड़ है। आदमी मालिक है। और इसलिए कृष्ण कहते हैं, राक्षस दैत्यों के घर में पैदा हुआ, दैत्यों में प्रह्लाद मैं हूं। 171 सारी परिस्थिति विपरीत थी । सारी परिस्थिति विपरीत थी । वहांभक्त होने का कोई उपाय न था । उपाय ही न था, और प्रह्लाद इतना गहरा भक्त हो सका। दूसरी बात आपसे कहता हूं, जब विपरीत परिस्थिति हो, तब ऊपर से जो विपरीत दिखता है, उसका अगर उपयोग करना आता हो, तो वह अनुकूल हो जाता है। असल में विपरीत परिस्थिति बन जाती है चुनौती। अगर प्रह्लाद को कहीं अच्छे आदमी के घर में कर देते, तो शायद इतना बड़ा भक्त न हो पाता। और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अच्छे आदमियों के बच्चे इसीलिए बिगड़ जाते कि अच्छे आदमी अच्छे होने की चुनौती नहीं देते, बुरे होने की चुनौती देते हैं। गांधी का बड़ा लड़का मुसलमान हो गया था, गांधी की वजह से। आदमी अच्छे थे, एकदम अच्छे थे। लेकिन अच्छे होने पर Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 इतना आग्रह था कि उनके बड़े लड़के हरिदास के मन में यह आग्रह | | अकड़कर खड़े नहीं हो सकते उसके विरोध में, तो तुम कभी भी गुलामी जैसा मालूम होने लगा। यह मत खाओ, वह मत पीयो। | खड़े नहीं हो सकोगे। इतने वक्त सोओ, इतने वक्त उठो। सारी जिंदगी जकड़ दी। इसका यह मतलब हुआ कि जिसके पास समझ हो, वह विपरीत वह जकड़न इतनी भारी हो गई कि उस पूरे के पूरे को तोड़कर | | परिस्थिति को भी अनुकूल बना लेता है। और जिसके पास हरिदास भाग खड़ा हुआ। जैसे प्रह्लाद भाग खड़ा हुआ अपने बाप | | नासमझी हो, वह अनुकूल परिस्थिति को भी खो देता है। से, वैसे हरिदास भाग खड़ा हुआ अपने बाप से। हरिदास अब्दुल्ला कृष्ण कहते हैं, मैं प्रह्लाद हूं दैत्यों में। गांधी हो गया, मुसलमान हो गया। मांस खाने लगा, शराब पीने | प्रह्लाद से ज्यादा खिला हुआ, शांत और मौन और निर्दोष फूल लगा। कसम खा ली कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना ही नहीं, चाहे कुछ भी कहां है? लेकिन दैत्यों के बीच में! पर ऐसे यह उचित ही है। कमल हो जाए। नींद भी खुल जाए, तो भी नहीं उठना। रात देर से ही सोना | भी खिलता है, तो कीचड़ में और कमल यह नहीं चिल्लाता फिरता है, इसका नियम बना लिया। वह जो-जो गांधी ने थोपा था, | कि कीचड़ में मैं कैसे खिलूं, बहुत गंदी कीचड़ नीचे भरी पड़ी है! उस-उस के विपरीत चला गया। कमल खिल जाता है। उसी कीचड़ से रस खींच लेता है, उसी ध्यान रखना आप, आपका बहुत अच्छा होना कहीं आपके | कीचड़ से सुगंध खींच लेता है। उसी कीचड़ से रंग खींच लेता है। बच्चों के लिए विपरीत चुनौती न हो जाए। इसलिए अच्छे घरों में और उस कीचड़ के पार हो जाता है। न केवल उस कीचड़ के पार अच्छे बच्चे पैदा नहीं हो पाते। बुरे घरों में अक्सर अच्छे बच्चे पैदा हो जाता है, बल्कि उस पानी के भी पार हो जाता है जिससे प्राण हो पाते हैं। अच्छे घरों में अच्छे बच्चे पैदा नहीं हो पाते। अच्छे बाप पाता है। खिलता है खुले आकाश में। . अच्छे बच्चे पैदा करने में बड़े असमर्थ सिद्ध होते हैं। हम सोच भी नहीं सकते कि कमल और कीचड़ में कोई उसका कुल रहस्य इतना है कि वे इतने जोर से अच्छाई थोपते | बाप-बेटे का संबंध है, कमल और कीचड़ में कोई उत्पत्ति और हैं कि अगर बच्चा बुद्ध हो तो ही मान सकता है, और बुद्ध हो तो | | जन्म का संबंध है। कमल और कीचड़ को एक साथ रखिए, समझ बहुत आगे नहीं जाता। थोड़ा बुद्धिमान हो, रिबेलियस हो जाता है, | | में भी नहीं आएगा कि इन दोनों के बीच कोई सेतु, कोई श्रृंखला है। बगावती हो जाता है। उसका भी अपना अहंकार है, अपनी अस्मिता | लेकिन कीचड़ ही कमल है। और हर कीचड़ से कमल हो सकता है। अगर बहुत ज्यादा दबाव डाला, तो एक सीमा के बाद या तो है। कीचड़ के लिए बैठकर जो रोता रहता है, वह नाहक ही अपने आदमी टूट ही जाता है, तो मिट जाता है; और या फिर भाग खड़ा | आलस्य के लिए कारण खोज रहा है। कीचड़ से कमल हो जाते हैं। होता है, विपरीत यात्रा पर निकल जाता है। और जिंदगी में जहां भी कीचड़ हो, समझ लेना कि यहां भी कोई न शायद प्रह्लाद के लिए भी सहयोगी हुआ पिता का होना। इससे | कोई कमल खिल सकता है। कोई भी कीचड़ हो, समझ लेना, जो मैं मतलब निकालना चाहता हूं, वह यह कि आप कभी यह मत | कमल खिल सकता है। यह कमल के खिलने का अवसर है। कहना कि परिस्थिति बुरी है, इसलिए मैं अच्छा नहीं हो पा रहा हूं। लेकिन हम सब ऐसे लोग हैं, हम खिलना ही नहीं चाहते। सच तो यह है कि परिस्थिति बरी हो. तो अच्छे होने की संभावना खिलने में शायद श्रम मालम पड़ता है, मेहनत मालम पड़ती है। हम ज्यादा होनी चाहिए, क्योंकि चुनौती है। जो हैं, वही रहना चाहते हैं। इसलिए हम इस तरह के तर्क खोज हां, अगर कोई आदमी मुझसे कहे कि परिस्थिति इतनी अच्छी है | लेते हैं, जिन तर्कों के आधार से हम जो हैं, वही बने रहने में सुविधा कि मैं अच्छा नहीं हो पा रहा, तो मुझे तर्कयुक्त मालूम पड़ता है। मिलती है। ठीक कह रहा है। बेचारा क्या कर सकता है? परिस्थिति इतनी | हम कहते हैं, क्या कर सकते हैं, परिस्थिति अनुकूल नहीं है! अच्छी है, अच्छा हो भी कैसे सकता है! | सब तरफ विरोध है, सब तरफ प्रतिकूलता है, बढ़ने का कोई उपाय लेकिन जब कोई आदमी कहता है कि परिस्थिति बुरी है, इसलिए नहीं है। इसलिए हम नहीं बढ़ पा रहे हैं। ऐसे तो हम शिखर पर अच्छा नहीं हो पा रहा है, तो वह सिर्फ अपनी नपुंसकता, अपनी पहुंच सकते थे, सुमेरु पर्वत के शिखर पर बैठ सकते थे, लेकिन इंपोटेंस घोषित कर रहा है। उसका मतलब यह है कि वह कुछ भी परिस्थिति ही नहीं है। नहीं हो सकता। जब परिस्थिति इतनी विपरीत है, तब भी अगर तुम परिस्थिति कभी भी नहीं होगी। परिस्थिति कभी भी नहीं थी। जो Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ काम का राम में रूपांतरण परिस्थिति के पार नहीं उठ सकता, वह किसी भी परिस्थिति में इसी | करो! अगर उसकी मां को कहना पड़ता हो कि बाहर खेलने मत रोने को लेकर बैठा रहेगा। जाओ, तो कहना पड़ता था कि आज बाहर ही खेलो; भीतर मत कृष्ण कहते हैं, मैं प्रह्लाद हूं दैत्यों में। आओ! जो भी करवाना हो, उससे उलटी आज्ञा देनी पड़ती थी। जहां ईश्वर का नाम लेने की भी मनाही थी, वहां प्रह्लाद केवल | नसरुद्दीन बड़ा हो गया। यह आज्ञा उलटी जारी रही। फिर वह नाम के ही सहारे ईश्वर को पा लिया। इसे थोड़ा समझें, क्योंकि हमें | अठारह साल का जिस दिन हुआ, उस दिन उसका बाप और तो कोई मनाही नहीं है। जितनी मौज हो लें, रोज अपनी कुर्सी पर | नसरुद्दीन दोनों अपने गधों को लेकर नदी पार हो रहे थे छोटे-से पुल बैठ जाएं और ईश्वर का नाम लेते रहें। से। नसरुद्दीन का जो गधा था, उस पर शक्कर लदी थी और शक्कर बड़े मजे की बात है! प्रह्लाद ईश्वर के नाम से पा लिया। और | | का झोला बाईं तरफ बुरी तरह झूल रहा था। और ऐसा लगता था कि आप काफी लेते रहते हैं। लोग अपने बच्चों का नाम ईश्वर पर | | अब बोरा गिरा, नदी में अब गिरा–बाईं तरफ। बाप को बोरा इसीलिए रख लेते हैं किसी का नाम राम, किसी का हटवाना था दाईं तरफ। तो बाप ने कहा, बेटे नसरुद्दीन, बोरा दाईं नारायण–कि दिनभर बुलाते रहें। लेकिन बुलाने का परिणाम यह | | तरफ गिर रहा है, बाईं तरफ जरा सरका दे। उलटी खोपड़ी था! होता है कि नारायण को चांटा भी लगाना पड़ता है, गाली भी देनी | | लेकिन उस दिन नसरुद्दीन ने बाईं तरफ ही सरका दिया। बोरा तो पड़ती है। ये सब परिणाम होते हैं, और कुछ नहीं होता। गिरा, बोरे के साथ गधा भी नदी में गिर गया। बाप ने कहा कि नाम तो लोग रखते थे भगवान पर बच्चों का इसलिए कि दिन नसरुद्दीन, यह कैसा उलटा चरित्र! आज तूने यह क्या किया! में अकारण ही, अनायास ही, बिना वजह के भगवान का नाम आ नसरुद्दीन ने कहा, आपको पता नहीं, मैं अठारह साल का हो गया. जाए। लेकिन जो फल होता है, वह कुल इतना ही होता है कि | | अडल्ट! अब मैंने बचपन की आदतें बदल दी हैं। अब मैं समझ नारायण नाहक पिटते हैं, नाहक गाली खाते हैं! और धीरे-धीरे जब जाऊंगा कि तुम जो कह रहे हो, उससे उलटा नहीं करूंगा; तुम्हारा नारायण को गाली देने की भी क्षमता आ जाती है, तो फिर असली जो मतलब है भीतर. उसका उलटा करूंगा। अब मैं अडल्ट हो गया नारायण भी मिल जाएं, तो गाली ही निकलेगी। आदतें हैं। | हूं। तुम जो कह रहे हो, उसका उलटा, तुमने बचपन में मुझे काफी लेकिन प्रह्लाद को तो कोई अवसर भी न था, भगवान के नाम | | धोखा दे लिया। अब मैं समझ गया हूं। अब तुम्हारा जो मतलब है के लेने की मनाही थी। उस बीच वह आदमी भगवान के नाम के | भीतर, उसका उलटा करूंगा। अब तुम जरा सोच-समझकर ही सहारे जीवन को इतनी उत्कृष्टता पर ले जा सका, इसका कारण | आज्ञाएं देना। क्या होगा? आदमी का डायनेमिक्स, आदमी के जीवन की गति जो है, वह इसका कारण यह है कि जीवन की जो डायनेमिक्स, जीवन का पोलेरिटीज में होती है, ध्रुवीयता में होती है, वैपरीत्य में होती है। जो गत्यात्मक रूप है, वह हम नहीं समझते हैं। अगर आपको भी हम सब विपरीत की तरफ झुकते चले जाते हैं। बंद कर दिया जाए एक कोठरी में और सख्त मनाही कर दी जाए| | यह प्रह्लाद की घटना विचारणीय है। इसलिए अपने बच्चों पर कि राम का नाम मत लेना, तब आपके हृदय की बहुत गहराई से अच्छाई जबरदस्ती मत थोपना। नहीं तो बच्चे बुराई की तरफ हट राम का नाम आएगा। क्योंकि यह आपकी स्वतंत्रता की घोषणा जाएंगे। इसलिए बहुत डेलिकेट है मामला। इतना ही डेलिकेट, होगी। और आपको बिठाया जाए और कहा जाए कि लो राम का | जैसी नसरुद्दीन के बाप को मुसीबत हुई। इसका यह मतलब नहीं है नाम! जैसा कि मां-बाप बिठाल रहे हैं बच्चों को ले जा ले जाकर | कि आप बुराई थोपना बच्चे पर। बहुत डेलिकेट है, नाजुक है। कि लो राम का नाम! बच्चे जबरदस्ती ले रहे हैं, कहीं कोई गहराई | | अच्छाई थोपना मत। और अच्छाई को खिलने में सहयोग देना, पैदा नहीं होती। कहीं कोई गहराई नहीं पैदा होती। जीवन की थोपना मत। बराई की इतने जोर से निंदा मत करना कि बराई में रस गत्यात्मकता बड़ी उलटी है। पैदा हो जाए। निंदा से रस पैदा होता है। बुराई का इतना निषेध मत सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन को बचपन से ही उसके घर के | | करना कि निमंत्रण बन जाए। परिवार के लोग उलटी खोपड़ी मानते थे। अगर उसकी मां को किसी दरवाजे पर लिख दो कि यहां झांकना मना है, फिर कोई कहना हो कि भोजन कर लो, तो कहना पड़ता था कि आज उपवास महात्मा भी वहां से बिना झांके नहीं निकल सकता। झांकना ही 1173| Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-508 पड़ेगा। और अगर महात्मा चले गए बिना झांके, तो फिर किसी | भी होते हैं। तो कभी कोई दो दाने भी गिर सकते हैं। लेकिन समय बहाने उनको लौटना पड़ेगा। और अगर हिम्मत न पड़ी कि कहीं की घड़ी में से कभी भी दो दाने नहीं गिरते। एक ही क्षण आपके भक्तगण देख न लें कि वहां झांककर देखते हो, जहां झांकना मना | हाथ में होता है, नपा-तुला। और पूरी जिंदगी! है, तो रात सपने में वे जरूर वहां आएंगे। उस पट्टी को झांकना ही तो कृष्ण कहते हैं कि मैं समय हूं गिनती करने वालों में। पड़ेगा। वह मजबूरी, वह आब्सेशन हो जाता है। इससे ज्यादा सूक्ष्म गिनती किसी की भी नहीं है। और हिंदू दृष्टि बुराई को आब्सेशन मत बना देना। भलाई को इतना मत थोपना | से एक-एक व्यक्ति के क्षण गिने हुए हैं। कोई भी व्यक्ति अपने कि उसके विपरीत भाव पैदा हो जाए। गिने हुए क्षण से ज्यादा नहीं जी सकता। हिंदू हिसाब से जिंदगी की ___ इसलिए बच्चे को बड़ा करना एक बहुत डेलिकेट बात है, बहुत | सीमा पिछली जिंदगी के कर्मों से नियत होती है। मैंने जो पिछले नाजुक बात है। और अब तक आदमी सफल नहीं हो पाया है। जन्म में किया है, वह मेरी इस जिंदगी के समय को तय करता है। बच्चे को ठीक से बड़ा करने में आदमी अभी भी असफल है। अभी मैं समय तो तय कर चुका हूं। भी शिक्षा की सारी व्यवस्थाएं गलत हैं। क्योंकि बहुत नाजुक इसलिए ऐसा भी होता है, जैसे बुद्ध को ज्ञान हुआ, तब वे उस मामला है। और उस नाजुकपन को समझने में बड़ी कठिनाई है। | स्थिति को पहुंच गए कि उसके बाद जीने का कोई भी कारण न बड़ी से बड़ी कठिनाई तो यह है कि हमें इस बात का खयाल ही नहीं | था। कोई भी कारण नहीं था। बुद्ध को जीने का क्या कारण! कोई है कि आदमी के भीतर गति कैसे पैदा होती है? वासना न रही, तो जीने का कोई कारण न रहा। लेकिन चालीस यह प्रह्लाद के भीतर जो गति पैदा हुई, यह प्रह्लाद के पिता की साल जीना पड़ा। वजह से पैदा हुई। और चूंकि वह दैत्यों के घर में पैदा हुआ था, | | बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप अब क्यों जी रहे हैं? क्योंकि न इसलिए जब विपरीत चला, तो ठीक दैत्यों से उलटा सारे भक्तों को कुछ आपको करना है, न कुछ पाना है। जो पाना था पा लिया, जो पार कर गया। करना था कर लिया। अब कुछ भी बचा नहीं शेष। आप पूर्ण हो कृष्ण कहते हैं, मैं प्रह्लाद हूं दैत्यों में। गए, तो अब आप क्या कर रहे हैं? और गिनती करने वालों में समय हूं, टाइम। तो बुद्ध ने कहा कि वह पिछले जन्म में जो उम्र पा ली है, उसे यह आखिरी बात हम खयाल में ले लें। पूरा करना पड़ेगा। वह चालीस साल मुझे जीना पड़ेगा। क्योंकि समय के कुछ लक्षण हैं। एक, कि आपको एक क्षण से ज्यादा समय न तो एक क्षण कम करता है, और न एक क्षण ज्यादा, वह कभी नहीं मिलता; कभी नहीं। आपके हाथ में एक क्षण ही होता | | मुझे पूरा करना पड़ेगा। तो चालीस साल अब मैं जीऊंगा। है, बस। जब एक क्षण निकल जाता है, तब दूसरा मिलता है। जब । यह जीना वैसे ही है जैसे कि आपने साइकिल पर पैडिल मारा, दूसरा निकल जाता है, तब तीसरा मिलता है। आपके हाथ में दो | फिर आप पैडिल रोक दिए, लेकिन साइकिल थोड़ी दूर आगे चली क्षण एक साथ कभी नहीं होते। जाएगी। मोमेंटम! इतनी देर जो आपने साइकिल को पैडिल मारा, समय भी बड़ा कैलकुलेटर है। समय से ज्यादा ठीक गिनती | साइकिल ने थोड़ी शक्ति अर्जित कर ली। अब आप पैडिल न भी करने वाला कोई भी नहीं दिखाई पड़ता। एक-एक व्यक्ति को मारें. तो साइकिल एकदम से नहीं रुकेगी, थोड़ी दर चली जाएगी। एक-एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं मिलता; कोई इसमें धोखा नहीं | बद्ध कहते हैं कि अब मैं जो अर्जित कर लिया हं जन्मों-जन्मों दे सकता। कोई कितना ही बड़ा महायोगी हो, और कोई कितना ही | में, वह चालीस साल की गति अभी काम करेगी, यह शरीर का यंत्र बड़ा धनी हो, और कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, कितना ही बड़ा चलता रहेगा। उसमें क्षणभर कम-ज्यादा नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक हो, वह समय को डिसीव नहीं कर सकता कि उससे दो ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं, गिनती करने वालों में मैं समय हूं। न क्षण एक साथ ले ले। बस, एक ही क्षण हाथ में आता है। क्षण ज्यादा हो सकता है, न कम हो सकता है। न एक क्षण से ज्यादा ___ कभी आपने रेत की घड़ी देखी है? रेत की घड़ी में से रेत का | किसी को मिल सकता है, न एक खोए हुए क्षण को वापस पाया एक-एक दाना नीचे गिरता रहता है। उसमें तो कभी भूल हो सकती | जा सकता है। समय का गणित बिलकुल पक्का है। है, क्योंकि आदमी की बनाई हुई घड़ी है और रेत के दाने छोटे-बड़े यह कुछ कारण से कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से। ये प्रतीक ऐसे ही 1174 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम का राम में रूपांतरण नहीं चुन लिए हैं। अर्जुन को यही खयाल है कि इनको मैं मार डालूंगा, ये जो दुश्मन इकट्ठे हैं। कृष्ण कह रहे हैं, मैं समय हूं गिनती करने वालों में। एक क्षण पहले तू किसी को मार नहीं सकता और एक क्षण ज्यादा जिलाने का कोई उपाय नहीं है। जो मरेंगे, उनका समय चुक गया था। जो बचेंगे, उनका समय बचा था। तू केवल निमित्त है। इससे ज्यादा तू नहीं है। आज इतना ही। पांच मिनट रुकें। कीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं। 175 Page #206 --------------------------------------------------------------------------  Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 बारहवां प्रवचन शस्त्रधारियों में राम Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-500 पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् । | की तरह हैं-कहीं ठहरे हुए नहीं, कहीं रुकते नहीं, कहीं बंधते झपाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाहवी।।३१।। नहीं, कहीं कोई आसक्ति निर्मित नहीं करते—वही केवल पवित्रता सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन । को उपलब्ध हो पाएगा। अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ।। ३२।। ___ पुराने अति प्राचीन समय से संन्यासी को प्रवाहवत जीवन व्यतीत और मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम | करने को कहा गया है। नदी की तरह बहता रहे। महावीर ने अपने हूं तथा मछलियों में मगरमच्छ हूं और नदियों में श्रीभागीरथी | संन्यासियों को कहा है कि वे तीन दिन से ज्यादा कहीं रुकें नहीं। तीन गंगा, जाह्नवी है। | दिन के पहले हट जाएं। थोड़ा सोचने जैसा है। क्योंकि तीन दिन का और हे अर्जुन, सृष्टियों का आदि, अंत और मध्य भी में ही | यह राज महावीर को कैसे पता चला होगा, कहना मुश्किल है। हूं। तथा मैं विद्याओं में अध्यात्म-विद्या अर्थात ब्रह्म-विद्या लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि आदमी को किसी भी एवं परस्पर में विवाद करने वालों में तत्व-निर्णय के लिए | जगह मन के लगने में कम से कम तीन दिन से ज्यादा का समय किया जाने वाला वाद हूं। | चाहिए। आप अगर एक नए कमरे में सोने जाएंगे, तो तीन रातें | आपको थोड़ी-सी बेचैनी रहेगी, चौथी रात आप ठीक से सो | पाएंगे। कहीं भी किसी नई स्थिति को पुराना बना लेने के लिए कम में पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम हूं। | से कम तीन दिनों की जरूरत है। कम से कम। थोड़ा ज्यादा समय 1 इन प्रतीकों को थोड़ा हम समझें। भी लग सकता है। वायु इस जगत में सर्वाधिक स्वतंत्र है। और स्वतंत्रता | | महावीर ने अपने संन्यासी को कहा है कि वह तीन दिन से ज्यादा ही पवित्रता है। वायु कहीं बंधी नहीं है, कहीं ठहरी नहीं है, कहीं | | एक जगह न रुके। इसके पहले कि कोई अपना मालूम पड़ने लगे, उसका लगाव नहीं है, कहीं उसकी आसक्ति नहीं है। वायु एक | | उसे हट जाना चाहिए। क्योंकि जहां लगा कि कोई अपना है, वहीं सतत गति है। | जंजीर निर्मित हो जाती है। और जिसके प्राणों पर जंजीर पड़ जाती तो पहली बात, जहां भी लगाव होगा, वहीं अपवित्रता शुरू हो है, उन प्राणों में कुरूपता और दुर्गंध और सड़ांध शुरू हो जाती है। जाएगी। जहां भी आसक्ति होगी, जहां भी ठहरने का मन होगा, | डबरा बनना शुरू हो गया प्राणों का। जहां पड़ाव मंजिल बन जाएगा, वही अपवित्रता शुरू हो जाएगी। संन्यासी का अर्थ है, जो अपने को डबरा नहीं बनने देता। गृहस्थ जीवन की सारी दुर्गंध, जीवन की सारी कुरूपता, जहां-जहां हम | | का इतना ही अर्थ है कि जो अपने को डबरा बनाने का पूरा आयोजन ठहर जाते हैं और जकड़ जाते हैं, वहीं से पैदा होती है। जीवन जहां | | कर लेता है। चाहे तो गृहस्थ भी प्रवाहित रह सकता है, लेकिन उसे भी प्रवाह को खो देता है, गति को खो देता है, और जहां ठहर जाता | | थोड़ी कठिनाइयां होंगी। उसे बहुत होश रखना पड़े, तो ही वह डबरा है, जड़ हो जाता है...। बनने से रुक सकता है। अन्यथा सब चीजें धीरे-धीरे जम जाएंगी, जैसे नदी बहती है, तो नदी पवित्र होती है। और डबरा बहता | फ्रोजन हो जाएंगी और उनके बीच वह भी जम जाएगा। नहीं, अपवित्र हो जाता है। डबरे में भी वही जल है, जो नदी में है। | लेकिन हम सब तो यही कोशिश करते हैं कि जितने जल्दी जम लेकिन नदी में प्रवाह है, बहाव है, जीवन है। डबरा मृत है, मुर्दा | | जाएं, उतना अच्छा। जमने में सुविधा है, सुरक्षा है, कनवीनियंस है, कोई गति नहीं है। डबरा सड़ता है, दुर्गंधित होता है और नष्ट | है। गैर-जमे होने में असुविधा है, असुरक्षा है। रोज नए के सामने होता है। स्वभावतः, अपवित्र हो जाता है। पड़ना पड़ता है, तो रोज नई बुद्धि की जरूरत पड़ती है। हम सब कृष्ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु हूं। | जम जाना चाहते हैं। जमे हुए आदमी का पुरानी बुद्धि से काम चल पहली बात, पवित्रता वहीं ठहरती है, जहां प्रवाह सतत हो। जाता है, नए की कोई आवश्यकता नहीं होती। पवित्रता वहीं ठहरती है, जहां कोई लगाव, जहां कोई रुकाव, जहां | | हम सब नए से भयभीत होते हैं। कुछ भी नया हो, तो चिंता पैदा कोई ठहराव न आ जाए। पवित्रता वहीं ठहरती है, जहां कोई होती है। क्योंकि पुराने के साथ कैसा व्यवहार करना, वह तो हम फिक्सेशन, प्राणों का अवरुद्ध होना न हो। जिसके प्राण भी वायु | जानते हैं; नए के साथ फिर से व्यवहार सीखना पड़ता है। पुराना 11781 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ शस्त्रधारियों में राम 0 तो मृत, यंत्रवत हो जाता है। पुराने को तो हम ऐसे करते हैं जैसे | है; घर का जो प्रेत है, वह अभी पीछा कर रहा है। वह पीछा करेगा। कोई रोबोट, कोई मशीन का आदमी कर रहा हो। उसमें हमें फिर __ संन्यासी तो वह है, जिसका न कोई घर है, न कोई धर्म है। बुद्धिमत्ता की, चेतना की, होश की, कोई भी जरूरत नहीं रह जाती। संन्यासी तो वह है, जिसका कोई भी नहीं। जो यह नहीं कहता कि हम करते चले जाते हैं। | ईसा मेरे हैं, कि बुद्ध मेरे हैं, कि महावीर मेरे हैं, कि कृष्ण मेरे हैं। आप अपने घर जब आते हैं, तो आपको सोचना नहीं पडता. | या तो सभी कुछ उसका है, या कुछ भी उसका नहीं है। इन दो के बाएं मुडू, दाएं मुडूं। आप मुड़ते चले जाते हैं। यह काम शरीर ही अलावा उसके लिए कोई उपाय नहीं है। तो फिर वह वायु की तरह कर लेता है। इसके लिए आपको कुछ, किसी तरह के होश की हो जाएगा। जरूरत नहीं होती। शराबी भी शराब पीकर अपने घर पहुंच जाता | । तो वायु का पहला लक्षण है कि कहीं रुकती नहीं। है। कितने ही हाथ-पैर डोलते हों, वह भी अपने घर का जाकर दूसरा लक्षण है वायु का कि दिखाई नहीं पड़ती, और है। वह द्वार-दरवाजा खटखटाने लगता है। यह यंत्रवत है। इसके लिए कोई और भी गहरी बात है। वायु है, अनुभव होती है, दिखाई नहीं सोच-विचार की जरूरत नहीं है। पड़ती। स्पर्श होता है, प्रतीति होती है, पकड़ में नहीं आती। पकड़ इसलिए जितने हम जम जाते हैं, उतना ही सोच-विचार से में नहीं आती, इसलिए बांधना मुश्किल है, रोकना मुश्किल है, छुटकारा हो जाता है। विचार बड़ा कष्टपूर्ण है। इसलिए दुनिया में | परतंत्र करना मुश्किल है। कोई भी आदमी विचार नहीं करना चाहता, विचार से बचना चाहता ___ कृष्ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु की भांति हूं। है। इसी वजह हमारा प्रवाह समाप्त हो जाता है। जितनी पवित्रता होगी, उतनी ही ट्रांसपैरेंसी हो जाएगी। जितनी कृष्ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु हूं। | पवित्रता होगी, उतना ही आर-पार दिखाई पड़ने लगेगा। अगर तो वायु का पहला लक्षण तो यह है कि वह कहीं ठहरती नहीं। | आपने कोई पवित्र कांच देखा हो, बिलकुल शुद्ध, तो कांच भी आई भी नहीं, कि गई। आ भी नहीं पाई, कि जा चुकी। आना भी । | दिखाई नहीं पड़ेगा। आर-पार सब दिखाई पड़ेगा, बीच में कोई भी नहीं हो पाया, कि जाना हो गया। वायु कहीं भी मेहमान नहीं बनती। | | बाधा न होगी। वायु की पवित्रता उसकी पारदर्शिता भी है। स्पर्श करती है और हट जाती है। एक बहुत पुरानी इजिप्त में लोकोक्ति है कि जब कोई व्यक्ति संन्यासी वायु की तरह होना चाहिए। रुके न। जरूरी नहीं है कि | परम पवित्र हो जाता है, तो उसकी छाया नहीं बनती। जब वह वह मकान बदलता रहे, क्योंकि मकान बदलने से कुछ भी नहीं | चलता है धूप में, तो उसकी छाया नहीं बनती। होता। मकान बदलकर भी रुकना हो सकता है। मकान बदलकर यह सिर्फ इसी बात के लिए इशारा है। छाया तो बनती है महावीर भी रुकना हो सकता है, क्योंकि रुकने के बड़े इंतजाम हैं। अब एक की भी और कृष्ण की भी और बुद्ध की भी। लेकिन इजिप्त की यह आदमी रोज मकान बदल लेता है, लेकिन रोज अपने को तो नहीं बड़ी प्राचीन कहावत कहती है कि जो पावन, परम पवित्र हो जाता बदलेगा, तो वहीं जड़ हो जाएगा। है, उसकी छाया नहीं बनती। यह सिर्फ इस बात की सूचना देता है एक संन्यासी घर छोड़ देता है, लेकिन उस घर में जो भी सीखा | | कि जो इतना पवित्र हो जाता है कि जिसके भीतर कोई अशुद्धि न था, वह तो साथ ही लेकर चलता है। मजे की घटना घटती है दुनिया | रह गई हो, तो उसके आर-पार दिखाई पड़ने लगता है। और जिसके में कि संन्यासी भी हिंदू होता है, मुसलमान होता है, जैन होता है, आर-पार दिखाई पड़ने लगे, उसकी छाया नहीं बनेगी। छाया नहीं ईसाई होता है। ये रुके होने के लक्षण हैं। संन्यासी को तो सिर्फ बनेगी, यह केवल प्रतीक है। संन्यासी होना चाहिए। महावीर के आर-पार दिखाई पड़ता है। महावीर एक दरवाजे की हिंदू होने का मतलब है, उस घर से अभी बंधन है, जहां बड़ा | भांति हैं, खुले हुए। और हम एक दीवाल की भांति हैं, हमारे हुआ था, जहां पाला गया था, जहां शिक्षा दी गई थी। जैन होने का | | आर-पार कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हमें खुद नहीं दिखाई पड़ता, मतलब है, उस घर से अभी बंधन है, जहां यह धर्म दिमाग में डाला दूसरे को दिखाई पड़ना तो बहुत मुश्किल है। हम खुद एक ठोस गया था। जहां ये विचार डाले गए थे, वहां से अभी लगाव है। घर | | दीवाल हैं पत्थरों की, जिसमें अपने को ही खोजना हो, तो भी बहुत छोड़ दिया, लेकिन घर की जो आत्मा थी, वह अभी पीछा कर रही मुश्किल है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता। 179 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 यह उसी मात्रा में दीवाल बिखरती चली जाती है, जिस मात्रा में चले। नहीं तो यह तुम्हारा वरदान, मेरे लिए अभिशाप हो जाएगा। मन पवित्र होता है। और जिस दिन मन वायु की तरह हो जाता है, | मुझे पता न चले। मेरी शक्ति का मुझे पता न चले। मेरे संतत्व का कोई भी अपवित्रता नहीं रह जाती, ट्रांसपैरेंट हो जाता है, आर-पार | मुझे पता न चले। मेरे रहस्य का मुझे पता न चले। यह जो चमत्कार दिखाई पड़ने लगता है। वाय का होना और दिखाई न पडना. संतत्व प्रभ मझे दे रहा है. यह मझे पता न चले। भी ऐसा ही है। होता है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता। वह फकीर चलता गांव में, सूखे वृक्षों पर छाया पड़ जाती, वे हरे सुना है मैंने, एक मुसलमान फकीर के जीवन में कहा गया है। | हो जाते। कभी किसी बीमार पर उसकी छाया पड़ जाती, वह स्वस्थ फकीर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो फरिश्ते उतरे, और उन्होंने | हो जाता। लेकिन न तो उस फकीर को पता चलता और न उस बीमार उस फकीर को कहा कि परमात्मा ने हमें भेजा है कि तुम कोई वरदान को पता चलता, क्योंकि छाया के पड़ने से यह घटना होती। मांग लो। तुम जो चाहो! तुम पर प्रभु प्रसन्न हैं। तो उस फकीर ने | यह तो कहानी है, लेकिन सूफी फकीर कहते हैं कि जब भी कभी कहा, लेकिन अब! अब तो कोई चाह न रही। देर करके तुम आए। | कोई संत पैदा होता है, तो न उसे खुद पता होता है कि मैं संत हूं, जब चाह थी बहुत, कोई आया नहीं पूछने। और अब जब चाह न | न किसी और को पता चलता है। रही, तब तुम आए हो? पता चलना, ठोस हो जाना है। पता न चलना; तरल होना है, उन देवताओं ने कहा, हम आए ही इसीलिए हैं। जब चाह नहीं | | विरल होना है, हवा की तरह होना है। जिन्हें हमने भगवान भी कहा रह जाती, तभी तुम इतने पवित्र होते हो कि तुमसे पूछा जा सके कि | है, बुद्ध या महावीर को, उन्हें खुद कुछ भी पता नहीं है। वे निर्दोष कुछ चाहते हो? चाह के कारण ही तो हमारे और तुम्हारे बीच | बच्चों की भांति हैं। दरवाजा बंद था। चाह गिर गई, इसलिए दरवाजा खुला। अब हम हवा की तरह पवित्रता भी है, अनसेल्फकांशस; अनकांशस तुमसे पूछने आए हैं कि तुम कुछ मांग लो। नहीं, अनसेल्फकांशस। अचेतन नहीं; अहंकार का जरा भी बोध उस फकीर ने कहा, लेकिन अब मैं क्या मांग सकता हूं! लेकिन | | नहीं है। अहंकार की चेतनता जरा भी नहीं है। और दिखाई नहीं जितनी फकीर जिद्द करने लगा कि मैं कुछ भी नहीं मांग सकता, | | पड़ना। जो भी चीज दिखाई पड़ने लगती है, वह पदार्थ बन जाती उतने ही फरिश्ते जिद्द करने लगे कि कुछ मांग लो। | है। दिखाई पड़ना पदार्थ का गुण है, मैटर का गुण है। चैतन्य का जिंदगी ऐसी ही उलटी है। जो लोग जितनी जिद्द करते हैं कि यह गुण होना है, दिखाई पड़ना नहीं। चाहिए, उतना ही चूकते चले जाते हैं। जो दौड़ते हैं पाने को, खो इसलिए हमें शरीर दिखाई पड़ते हैं, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। देते हैं। और जो पाने का खयाल ही छोड़ देते हैं, उनके पीछे सब | हमें पत्थर दिखाई पड़ते हैं, प्रेम दिखाई नहीं पड़ता। जो भी हमें कुछ दौड़ने लगता है। दिखाई पड़ता है, वह पदार्थ है। जो नहीं दिखाई पड़ता, वही उन देवताओं ने चरण पकड़ लिए और कहा कि परमात्मा हमसे परमात्मा है। कहेगा कि तुम इतना भी न समझा पाए! वापस जाओ। तुम कुछ __वायु हमें दिखाई नहीं पड़ती, पर है। और अगर हमें किसी को मांग लो। तो उस फकीर ने कहा कि तुम्हीं कुछ दे दो, जो तुम्हें | | सिद्ध करना हो कि वायु है, तो हम उसकी आंखों का उपयोग न कर लगता हो। तो उन देवताओं ने कहा कि हम तुम्हें वरदान देते हैं कि | सकेंगे। और अगर कोई जिद्द ही करे कि मेरे सामने प्रत्यक्ष करो, तो तुम जिसे भी छू दोगे, वह बीमार होगा तो स्वस्थ हो जाएगा, मुर्दा । | हम कठिनाई में पड़ जाएंगे। यद्यपि जो हमसे कह रहा है कि वायु को होगा तो जीवित हो जाएगा। अगर सूखे पौधे को तुम छू दोगे, तो प्रत्यक्ष करो, वह भी वायु के बिना एक क्षण जी नहीं सकता है। एक अंकुर निकल आएंगे। श्वास आनी बंद होगी, तो प्राण निकल जाएंगे। वायु ही उसका प्राण उस फकीर ने कहा, इतनी तुमने कृपा की, थोड़ी कृपा और करो। है, जीवन है। लेकिन फिर भी वायु को सामने रखा नहीं जा सकता, और वह कृपा यह कि मेरे छूने से यह न हो, मेरी छाया के छूने से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। हम अनुभव कर सकते हैं। लेकिन हो। मैं जहां से निकल जाऊं, मेरी छाया पड़ जाए सूखे वृक्ष पर, किसी के शरीर में लकवा लग गया हो और उसे स्पर्श का कोई बोध वह हरा हो जाए, लेकिन मुझे उसका पता न चले। अगर मेरे छूने न होता हो, तो हवाएं बहती रहें, उसे कोई पता नहीं चलेगा। वह से होगा, तो मेरा अहंकार पुनः निर्मित हो सकता है। मुझे पता न श्वास भी लेगा, उसी से जीएगा और पता नहीं चलेगा। 11801 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ शस्त्रधारियों में राम 0 कहते हैं कि मछलियों को सागर का पता नहीं चलता। नहीं | हैं, संगत मालूम होते हैं। वहां गणित ठीक बैठता है। महावीर के चलता होगा। क्योंकि सागर में ही पैदा होती हैं, सागर में ही बड़ी हाथ में तीर का न होना, तलवार का न होना संगत मालूम होता है। होती हैं, सागर में ही समाप्त हो जाती हैं। उन्हें पता नहीं चलता गणित वहां भी ठीक है। महावीर हैं या बुद्ध हैं, उनके हाथ में कुछ होगा, क्योंकि जो इतना निकट है और सदा निकट है, उसका पता भी नहीं है, कोई शस्त्र नहीं है। रावण के हाथ में शस्त्र हैं, सारा चलना बंद हो जाता है। शरीर शस्त्रों से ढंका है, यह भी ठीक है। वायु सदा निकट है, चारों तरफ घेरे हुए है। वही हमारा सागर | राम कुछ अनूठे हैं। ये आदमी बुद्ध जैसे और इनके हाथ में शस्त्र है, जिसमें हम जीते हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता। परमात्मा भी | रावण जैसे, यह बड़ा विरोधाभासी है। और कृष्ण को यही प्रतीक ठीक ऐसा ही है, चारों तरफ घेरे हुए है। उसके बिना भी हम मिलता है कि शस्त्रधारियों में मैं राम हूं! बहुत शस्त्रधारी हुए हैं। क्षणभर नहीं जी सकते। वायु के बिना तो हम जी भी सकते हैं, शस्त्रधारियों की कोई कमी नहीं है। राम को क्यों चुना होगा? उसके बिना हम क्षणभर नहीं जी सकते। वह हमसे वायु से भी जानकर चुना है, बहुत विचार से चुना है, बहुत हिसाब से चुना है। ज्यादा निकट है। वह हमारे प्राणों का प्राण है। लेकिन उसका भी शस्त्र खतरनाक है रावण के हाथ में। इसे थोड़ा समझेंगे। थोड़ी हमें कोई पता नहीं चलता। बारीक है और बात थोड़ी कठिन मालूम पड़ेगी। कृष्ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु हूं। और शस्त्र खतरनाक है रावण के हाथ में, क्योंकि रावण के भीतर शस्त्रधारियों में राम हूं। सिवाय हिंसा के और कुछ भी नहीं है। और हिंसा के हाथ में शस्त्र यह बहुत प्यारा प्रतीक है। का होना, जैसे कोई आग में पेट्रोल डालता हो। यह हम समझ राम के हाथ में शस्त्र बहुत कंट्राडिक्टरी है। राम जैसे आदमी के जाएंगे। यह हमारी समझ में आ जाएगा। इस दुनिया की पीड़ा ही हाथ में शस्त्र होने नहीं चाहिए। राम का चित्र आप थोड़ा खयाल | यही है कि गलत लोगों के हाथ में ताकत है। गलत आदमी उत्सुक करें। राम के शरीर का थोड़ा खयाल करें। राम की आंखों का थोड़ा भी होता है शक्ति पाने के लिए बहुत। खयाल करें। राम के व्यक्तित्व का थोड़ा खयाल करें। शस्त्रों से , पावर करप्ट्स एंड करप्ट्स एब्सोल्यूटली। कोई संबंध नहीं जुड़ता। शक्ति लोगों को व्यभिचारी बना देती है और पूर्ण रूप से व्यभिचारी राम, शस्त्रों के साथ, बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है। न तो बना देती है। बेकन की यह बात ठीक है। लेकिन बेकन ने इसका राम के मन में हिंसा है, न राम के मन में प्रतिस्पर्धा है, न राम के जो कारण दिया है, वह ठीक नहीं है। बेकन सोचता है कि जिनके मन में ईर्ष्या है। न राम किसी को दुख पहुंचाना चाहते हैं, न किसी | हाथ में भी शक्ति आ जाती है, शक्ति के कारण वे करप्ट हो जाते को पीड़ा देना चाहते हैं। फिर उनके हाथ में शस्त्र हैं। उनके हाथ में हैं। यह बात गलत है। वे करप्ट हो जाते हैं, यह तथ्य है; लेकिन एक कमल का फूल होता, तो समझ में आता। उनके हाथ में शस्त्र, शक्ति के कारण करप्ट हो जाते हैं, यह गलत है। क्योंकि हमने राम बिलकुल समझ में नहीं आते। के हाथ में भी शक्ति देखी है और करप्शन नहीं देखा, व्यभिचार जब भी मैं राम का चित्र देखता हूं, और उनके कंधे में लटका | नहीं देखा; शक्ति का कोई व्यभिचार नहीं देखा। हुआ धनुष देखता हूं और उनके कंधे पर बंधे हुए तीर देखता हूं, तो | तब बात कुछ और है। तथ्य तो ठीक है कि हम देखते हैं कि राम के शरीर से उनका कोई भी संबंध नहीं मालूम पड़ता। राम का | | जिनके हाथ में शक्ति आती है, वे व्यभिचारी हो जाते हैं। लेकिन शरीर एक कवि का, एक काव्य का, एक काव्य की प्रतिमा मालूम | | इसका कारण शक्ति नहीं है। इसका बुनियादी कारण यह है कि होती है। राम की आंखें प्रेम की आंखें मालूम होती हैं। राम पैर भी | व्यभिचारी ही शक्ति के प्रति आकर्षित होते हैं। लेकिन कमजोर रखते हैं, तो ऐसा रखते हैं कि किसी को चोट न लग जाए। राम का आदमी अपने व्यभिचार को प्रकट नहीं कर पाता, जब शक्ति हाथ सारा व्यक्तित्व फूल जैसा है। और कंधे पर बंधे हुए ये तीर, और | में आती है, तब वह प्रकट कर पाता है। शक्ति के कारण व्यभिचार हाथ में लिए हुए ये धनुष-बाण, ये कुछ समझ में नहीं आते! इनका पैदा नहीं होता, प्रकट होता है। कोई मेल नहीं है, इनकी कोई संगति नहीं है। ___ आप कमजोर हैं, आपके भीतर हिंसा है; दूसरा आदमी मजबूत राक्षस के हाथ में, रावण के हाथ में शस्त्र सार्थक मालूम होते है, आप हिंसा नहीं कर पाते। फिर एक बंदूक आपके हाथ में दे दी बेकन | 181 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-58 हैं। जाए, अब दूसरा आदमी कमजोर हो गया, अब आप ताकतवर हैं, का भाव ही तिरोहित हो जाता है, वे ही लोग दूसरे से श्रेष्ठ होने की अब हिंसा होगी। कोशिश बंद कर देते हैं! ___ चरित्र की असली परीक्षा तभी है, जब शक्ति पास में हो। जिनके | यह बड़े मजे की बात है। इस जगत में श्रेष्ठ लोग ही श्रेष्ठ बनने पास शक्ति नहीं है, उनके चरित्र का कोई भरोसा नहीं है। उनका की कोशिश नहीं करते। हीन लोग श्रेष्ठ बनने की कोशिश क चरित्र केवल कमजोरी हो सकती है। राम के हाथ में शस्त्र गलत आदमी के हाथ में शस्त्र हैं। गलत इसलिए इस दुनिया में जितने चरित्रवान लोग दिखाई पड़ते हैं, इसलिए कह रहा हूं कि रावण के हाथ में तो ठीक आदमी के हाथ निन्यानबे प्रतिशत तो कमजोरी की वजह से चरित्रवान होते हैं। में हैं। रावण की आत्मा और शस्त्रों के बीच सेतु है, संबंध है, एक इसलिए इतने चरित्रवान भी दिखाई पड़ते हैं, इतनी चरित्र की बात हार्मनी है, एक संगीत है। राम और शस्त्र के बीच कोई सेतु नहीं भी होती है और दुनिया रोज चरित्रहीनता में उतरती जाती है। है। एक खाई है, अलंघ्य खाई है, अनब्रिजेबल गैप है। वही राम कमजोर आदमी को ताकत दो और उसका चरित्र बह जाएगा। की खूबी भी है। शस्त्र हैं और राम हैं, और उन दोनों के बीच कोई सबसे पहली जो दर्घटना होगी. वह चरित्र की हत्या हो जाएगी। सेतु नहीं है। रावण के हाथ में ठीक मालूम पड़ते हैं शस्त्र, लेकिन कमजोर आदमी को किसी तरह की ताकत दो-धन दो. पद दो. खतरनाक हैं। क्योंकि जब भीतर हिंसा हो और शस्त्र हाथ में हों, राजनीति की कोई सत्ता दो-सारा चरित्र बह जाएगा। तो हिंसा गुणित होती चली जाएगी, मल्टीप्लाइड हो जाएगी। हम इस मुल्क में भलीभांति जानते हैं। जिनको आजादी के पहले पिछले महायुद्ध में फ्रांस पर जब हमला हुआ, तो फ्रांस की एक हमने चरित्रवान समझा था, ठीक आजादी के बाद एक रात में उनके | पहाड़ी पूरी तरह ध्वस्त हो गई। और युद्ध के बाद जब उस पहाड़ी चरित्र बह गए। जो सेवक की तरह बिलकुल भोले-भाले मालूम में खुदाई की जा रही थी, तो एक बहुत हैरानी की घटना घटी। उस पड़ते थे, वे सत्ताधिकारी की तरह ठीक चंगेज और तैमूर के वंशज | पहाड़ी में खुदाई करते वक्त आधुनिक युग के बमों के पड़े हुए शेल सिद्ध होते हैं। क्या हो जाता है रातभर में? क्या शक्ति लोगों को | | एक गुफा में उपलब्ध हुए हैं, जो पत्थरों में छिद गए थे। और वहीं नष्ट कर देती है? पच्चीस हजार वर्ष पुराने पत्थर के औजार भी उस गुफा में पड़े थे। नहीं, लोग कमजोरी की वजह से केवल चरित्रवान थे। हाथ में | वे दोनों एक साथ उपलब्ध हुए। पच्चीस हजार साल पुराना पत्थर ताकत आती है और सब चरित्र खो जाता है। परीक्षा शक्ति के बाद का औजार और आधुनिक युग के बम की खोल, वे दोनों एक साथ ही पता चलती है। एक ही गुफा में उपलब्ध हुईं। निश्चित ही, शक्ति पाने के लिए कमजोर लोग उत्सुक होते हैं। पच्चीस हजार साल पहले आदमी पत्थर से मार रहा था, आदमी होते ही वे हैं। मनसविद कहते हैं कि जिनके भीतर इनफीरिआरिटी यही था। पच्चीस हजार साल बाद यह बमों से मार रहा है, आदमी कांप्लेक्स है. जिनके भीतर हीनता का भाव है, वे ही लोग पदों की वही है। विकास आदमी का जरा नहीं हुआ. लेकिन पत्थर के तरफ आकर्षित होते हैं। इसलिए अगर इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स औजार से एटम बम तक विकास हो गया। आदमी वही है। से पीड़ित लोगों को देखना है, तो किसी भी देश की राजधानी में वे | इसलिए लोग कहते हैं कि मनुष्यता विकसित हो रही है, वह जरा मिल जाएंगे। सब वहां मिल जाएंगे इकट्ठ। | संदिग्ध बात है। अस्त्र-शस्त्र विकसित हो रहे हैं, यह निस्संदिग्ध जिनके भी मन में यह भय है कि मैं क्षुद्र हूं, मैं कुछ भी नहीं हूं, बात है। मनुष्यता विकसित होती नहीं दिखाई पड़ती। एवोल्यूशन, वे किसी पद पर बैठकर अपने और दूसरों के सामने सिद्ध करना | विकास, वस्तुओं का हो रहा है। चाहते हैं कि मैं कुछ हूं। नोबडी वांट्स टु बी नोबडी। कोई नहीं | पच्चीस हजार साल पहले जिस आदमी ने पत्थर के औजार से पसंद करता कि मैं कोई भी नहीं हूं। हर एक के भीतर खयाल है कि किसी की हत्या की होगी और पच्चीस हजार साल बाद जिसने बम मैं कुछ हूं। कुछ हूं, लेकिन यह किसको कहूं, कैसे कहूं, जब तक | | से हत्या की, इनके हत्या करने का पैमाना बड़ा हो गया। पत्थर के कि हाथ में ताकत न हो। हाथ में ताकत हो, तो कहूं कि मैं कुछ हूं। औजार से आप एकाध को मार सकते थे, एटम से आप लाखों को सिर्फ वे ही लोग ताकत की दौड़ से बच सकते हैं, जो बिना कहे | एक साथ मार सकते हैं। एक हाइड्रोजन बम कोई एक करोड़ भीतर हीनता की ग्रंथि से मुक्त हो जाते हैं। जिनके भीतर हीन होने आदमियों को एक साथ मार सकता है। और अभी जमीन पर पचास Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शस्त्रधारियों में राम हजार हाइड्रोजन बम तैयार हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि तैयारी जरूरत से ज्यादा हो गई । वे कहते हैं कि हमारे पास इतने बम हैं अब, जितने आदमी नहीं हैं मारने को ! एक - एक आदमी को सात-सात बार मारना पड़े, तो हमारे पास इंतजाम है। हालांकि एक आदमी एक ही दफे में मर जाता है ! लेकिन राजनीतिज्ञ बहुत हिसाब लगाते हैं! कोई बच जाए एक दफा, दुबारा, तिबारा, तो हम सात बार मार सकते हैं एक आदमी को। इक्कीस अरब आदमियों को मारने का इंतजाम है अभी, आबादी कोई तीन, साढ़े तीन अरब है । इक्कीस अरब आदमियों को मारने का इंतजाम है। और यह इंतजाम रोज बढ़ता जाता है। आदमी विकसित हुआ नहीं मालूम पड़ता, लेकिन ताकत विकसित मालूम पड़ती है। हिंसा हो भीतर, वैमनस्य हो भीतर, प्रतिस्पर्धा हो भीतर, शत्रुता हो भीतर, तो अस्त्र-शस्त्र घातक हैं। यह तो हमारी समझ में आ जाएगा। एक तरफ रावण है, जिससे शस्त्रों का मेल है, यह खतरनाक है। दूसरी तरफ बुद्ध और महावीर हैं। ये भी बिलकुल गणित के फार्मूले की तरह साफ हैं। जैसे ये आदमी हैं, इनके पास वैसा ही सब कुछ है; इनके पास कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं है। भीतर प्रेम है, हाथ में तलवार नहीं है। ये आदमी अपने लिए खतरनाक नहीं हैं, किसी के लिए खतरनाक नहीं हैं। लेकिन नकारात्मक रूप से समाज के लिए भी खतरनाक हो सकते हैं। नकारात्मक रूप से! क्योंकि इसका मतलब यह हुआ कि बुरे आदमी के हाथ में ताकत रहेगी और अच्छा आदमी ताकत को छोड़ता चला जाएगा। जाने-अनजाने यह . बुरे आदमी को मजबूत करना है। महावीर की कोई इच्छा नहीं है, बुद्ध की कोई इच्छा नहीं है कि बुरा आदमी मजबूत हो जाए। लेकिन बुद्ध और महावीर का शस्त्र छोड़ देना, बुरे आदमी को मजबूत करने का कारण तो बनेगा ही। अच्छा आदमी मैदान छोड़ देगा, बुरा आदमी ताकतवर हो जाएगा। दुनिया में जितनी बुराई है, उसमें सिर्फ बुरे लोगों का हाथ होता, तो भी ठीक था, उसमें अच्छे लोगों का हाथ भी है। यह बात मैं कह रहा हूं, थोड़ी समझनी कठिन मालूम पड़ेगी। क्योंकि अच्छे आदमी का सीधा हाथ नहीं है, अच्छे आदमी का हाथ परोक्ष है, इनडायरेक्ट है। अच्छा आदमी छोड़कर चल देता है। अच्छा आदमी लड़ाई के मैदान से हट जाता है। अच्छा आदमी, जहां भी संघर्ष है, वहां से दूर हो जाता है। बुरे आदमी ही शेष रह जाते हैं। और बुरे आदमी ताकत पर पहुंच जाते हैं, तो पूरे समाज को बुरा करने का कार होते हैं। इसलिए कृष्ण राम को चुन रहे हैं, यह बहुत सोचकर कही गई बात है। राम दोहरे हैं, आदमी बुद्ध जैसे और शक्ति रावण जैसी । और शायद दुनिया अच्छी न हो सकेगी, जब तक अच्छे आदमी और बुरे आदमी की ताकत के बीच ऐसा कोई संबंध स्थापित न हो । तब तक शायद दुनिया अच्छी नहीं हो सकेगी। अच्छे आदमी सदा पैसिफिस्ट होंगे, शांतिवादी होंगे, हट जाएंगे। बुरे आदमी हमेशा हमलावर होंगे, लड़ने को तैयार रहेंगे। अच्छे आदमी प्रार्थना-पूजा करते रहेंगे, बुरे आदमी ताकत को बढ़ाए चले जाएंगे। अच्छे आदमी एक कोने में पड़े रहेंगे, बुरे आदमी सारी दुनिया को रौंद डालेंगे। थोड़ा हम सोचें, राम जैसा आदमी सारी पृथ्वी पर खोजना मुश्किल है। एक अनूठा आयाम है राम का एक अलग ही | डायमेंशन है | क्राइस्ट, बुद्ध, महावीर खोजे जा सकते हैं। रावण, या हिटलर, या नेपोलियन, या सिकंदर खोजे जा सकते हैं। राम बहुत अनूठा जोड़ हैं। आदमी बुद्ध जैसे, हाथ में ताकत रावण जैसी । कृष्ण कहते हैं, शस्त्रधारियों में मैं राम हूं। बुराई में भी सब बुराई नहीं है; और भलाई में भी सब भलाई नहीं है। बुराई में भी ताकत तो भली है, और भलाई में भी ताकत की कमी बुरी है। भले को भी शक्तिशाली होना चाहिए। इस जगत में बुराई कम होगी तभी, जब भला भी शक्तिशाली हो । तभी होगी कम, जब भला भी शक्ति को निर्मित करे। भला शक्ति से भाग जाए, तो वह बुरे आदमी को बुरा होने की सुविधा दे रहा है, मार्ग दे रहा है। वह साथी और संगी बन रहा है - बिना जाने, बिना इच्छा के । मैं इसलिए राम को, कृष्ण कहते हैं कि मैं शस्त्रधारियों में राम हूं। हूं बुद्ध जैसा, लेकिन मैं बुरा भी हो सकता हूं रावण जैसा । बुरा हो सकता हूं का मतलब यह कि मैं बुरे के साथ ठीक उसके ही तल पर युद्ध ले सकता हूं। ठीक उसके ही स्थान पर उससे जूझ सकता हूं। ठीक उसके ही उपकरणों का उपयोग कर सकता हूं। लेकिन एक बात ध्यान देने जैसी है कि राम जैसा व्यक्ति ही रावण के शस्त्रों का उपयोग कर सकता है। कोई दूसरा व्यक्ति | उपयोग करेगा, तो चाहे जीते, चाहे हारे, रावण ही जीतेगा | अगर कोई दूसरा व्यक्ति रावण से लड़ने जाए और रावण के ही शस्त्रों का | उपयोग करे, तो चाहे रावण जीते और चाहे वह दूसरा व्यक्ति जीते, कोई जीते, कोई हारे, रावण ही जीतेगा। क्योंकि इस युद्ध में वह दूसरा आदमी धीरे-धीरे रावण जैसा ही हो जाएगा। 183 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग- 58 रावण की असली पराजय यही है कि रावण राम को अपने जैसा | मुझे नहीं बदल सकता है, यह उनका प्रयोजन है। मैं कुछ भी करूं, नहीं बना पाया। असली पराजय यही है। राम राम ही बने रहे। मेरा करना मेरी आत्मा को नहीं बदल सकता है. यह उनका उनके व्यक्तित्व में जरा-सी एक कली भी नहीं सूखी। उनका फूल अभिप्राय है। फूल जैसा ही खिला रहा। उनकी तलवार, उनके हाथ के शस्त्र, ध्यान रखें, हम जो भी करते हैं, उसका जोड़ ही हमारी आत्मा उनके भीतर की मनुष्यता में जरा-सा भी फर्क न ला पाए। वही | है। राम जो भी करते हैं, उसका जोड़ उनकी आत्मा नहीं है। राम जो रावण की हार है; वहीं रावण पराजित हो गया है। अगर राम भी | भी करते हैं, वह एक तल पर है और उनकी आत्मा बिलकुल दूसरे रावण जैसे हो जाएं, तो जीत भी लें, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। तल पर है। राम के कृत्यों से हम राम की आत्मा का पता नहीं लगा कोई फर्क नहीं पड़ता। सकते। राम की आत्मा का पता हो, तो हम राम के कृत्यों को समझ हमने दूसरे महायुद्ध में देखा। दूसरे महायुद्ध में हमने देखा कि सकते हैं। हिटलर से जो लोग लड़े थे, वे युद्ध के दौरान ठीक हिटलर जैसे, कृत्यों से हमारी आत्मा का पता चल जाता है। और हमारे पास बल्कि उससे भी एक कदम आगे चले गए। हिटलर तो झिझकता | दूसरी कोई आत्मा नहीं है। आपने जो-जो किया है, वह अगर रहा अणु शस्त्रों का निर्माण करने, बनाने और उनका उपयोग करने | | अलग कर लिया जाए, तो आप बिलकुल शून्य हो जाएंगे। राम ने में। लेकिन अमेरिका कर सका। जो भी किया है, उसे अलग कर लिया जाए, राम में कोई कमी नहीं और इसलिए सोचा था कि हिटलर की हार के बाद, फासिज्म | | पड़ेगी। राम का करना, हम समझें ठीक से, तो बिलकुल बाहरी की हार के बाद दुनिया में बड़ी शांति आ जाएगी। वह बिलकुल नहीं | | घटना है। भीतर कुछ भी नहीं घटता है। भीतर कुछ भी नहीं घटता आई। दुनिया में युद्ध का सिलसिला वैसा ही जारी रहा। और जो है। इसलिए एक अनूठी घटना राम के जीवन में है, जिसे समझना कल के मित्र थे, जो युद्ध में हिटलर को हराने को दोस्त की तरह लोगों को मुश्किल पड़ा है। लड़े थे, वे हिटलर के हारते ही दुश्मन की तरह खड़े हो गए। राम सीता के चोरी जाने से रावण से लड़ने गए। स्वभावतः, हमें हिटलर हारा जरूर, लेकिन सारी दुनिया को हिटलर की छाया | लगेगा कि सीता से भारी आसक्ति रही होगी! अन्यथा राम को और से भर गया। उसकी हार वास्तविक नहीं है। हिटलर हारा जरूर, | | सीताएं भी मिल सकती थीं। राम को क्या कमी हो सकती थी सुंदर लेकिन सारी दुनिया को फासिस्ट कर गया। एक-एक आदमी के स्त्रियों की, वे उपलब्ध हो सकती थीं। राम को भारी आसक्ति रही प्राण में फासिज्म का जहर डाल गया। इसलिए हिटलर किसी भी होगी. लगाव रहा होगा. तब तो इतने बड़े यद्ध में इतनी झंझट में दिन रिवाइव हो सकता है, उसमें कोई अड़चन नहीं है। एक-एक | उतरे। और जब तक सीता को वापस न ले आए, तब तक हमें प्राण में उसका बीज है। वह कहीं से भी प्रकट हो सकता है। हिटलर लगता होगा, कि दिन-रात सो न सके होंगे; बेचैन रहे होंगे; की हार हो नहीं सकी। क्योंकि जो लोग उससे लड़े, वे लोग भी | परेशान रहे होंगे। व्यक्तित्व की दृष्टि से उससे भिन्न नहीं थे। लेकिन फिर दूसरी घटना बहुत मुश्किल में डाल देती है। एक रावण हारा, क्योंकि जिसके हाथों हारा, वह आदमी रावण के धोबी की जरा-सी चर्चा, वह भी किसी के द्वारा सुनी गई! एक धोबी तल का न था। इसलिए रावण प्रसन्न है कि राम के हाथ से उसकी का अपनी पत्नी से यह कह देना कि मैं कोई राम नहीं हूं कि तू महीनों मृत्यु घटित हुई। यह अनूठी बात है। रावण प्रसन्न है कि राम के | और सालों घर से नदारद रहे और मैं तुझे वापस घर में रख लूं! हाथों उसकी मृत्यु हुई। रावण प्रसन्न है कि अब मुक्ति में क्या बाधा | उसकी पत्नी एक रात घर से नदारद रह गई होगी। तो मैं कोई राम रही होगी! अगर खुद राम मुझे मारने को आए हों, इस शरीर से मुझे | | नहीं हूं! यह खबर राम को लगना और सीता का जंगल में छुड़वा विदा करते हों, तो मेरे मोक्ष में बाधा ही क्या है! देना। राम से शत्रुता नहीं है; विरोध है, संघर्ष है। लेकिन राम की | यह जरा असंगत मालूम पड़ता हैं। यह आदमी सीता के लिए ऊंचाई का रावण को बोध है। राम की भिन्नता का भी पता है। | इतना बड़ा युद्ध लेने गया। इस आदमी ने अपने प्राण सीता के लिए कृष्ण कहते हैं, मैं शस्त्रधारियों में राम हूं। | युद्ध में लगा दिए। यह आदमी लड़ा, वर्षों शक्ति और श्रम व्यय मैं शस्त्र भी ले सकता हूं, लेकिन उससे मैं नहीं बदलता। शस्त्र किया, और एक धोबी के कहने से इस आदमी ने सीता को जंगल 184 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ शस्त्रधारियों में राम में छुड़वा दिया! कृष्ण का यह कहना कि मैं धनुर्धारियों में, शस्त्रधारियों में राम इस आदमी के कृत्यों से हम इस आदमी को नहीं समझ सकते। | हूं, इस बात की खबर देना है कि मैं जो करता हूं, उससे तू मेरा पता यह आदमी क्या करता है, इससे इसकी आत्मा का पता नहीं नहीं लगा सकेगा। मेरा होना, मेरे करने के पार है। वह जो अस्तित्व चलेगा। नहीं तो इन दोनों बातों में मेल बिठाना मुश्किल है। यह है मेरा, वह मेरे कृत्य से बहुत ऊपर है। आदमी क्या है, उसे हम समझ लें, तो इसके कृत्यों की व्याख्या हो | हमारी हालत उलटी है। हमारा अस्तित्व हमारे कत्य से भी नीचे सकती है। होता है। उसे हम समझ लें, तो राम की बात हमारे खयाल में आ सीता का चोरी जाना युद्ध का कारण नहीं है, केवल युद्ध का जाए। बहाना है। सीता के लिए युद्ध नहीं किया गया है। ज्यादा समझ की रास्ते पर आप जाते हैं और एक भिखारी आपसे पैसा मांगता है। बात तो यह है कि शायद युद्ध के लिए सीता को चोरी करवाने की | अगर आस-पास कोई न हो, तो आप भिखारी की बिना फिक्र किए व्यवस्था की गई हो। समझ में भी ऐसा ही आता है। क्योंकि राम आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन अगर चार लोग देखने वाले हों और एक सोने के मृग के पीछे भागते हैं शिकार करने। आप भी धोखे प्रतिष्ठा का सवाल आ जाए, तो आप भिखारी को दो पैसे दे देते में न आते। हालांकि सोना बहुत आकर्षित करता है, लेकिन सोने | हैं। वह आप भिखारी को नहीं देते, अपनी प्रतिष्ठा को देते हैं। का मृग आपको भी दिखाई पड़ता, तो आप समझते, कोई धोखा इसलिए भिखारी भी अकेले आदमी को नहीं घेरते। दो-चार मित्र है। राम को तो सोने का मृग क्या धोखा दे सकता था! साथ में हों, तो पैर पकड़ लेते हैं। क्योंकि वह तीन की आंखों से ही यह जाना आयोजित है। यह जाना जानकर है। यह जाना | | पैसा मिलने वाला है, क्योंकि उन तीन के सामने यह भी तो जरा समझ-बूझकर है। सीता चुराई जा सके, इसके लिए सुविधा देनी | अपमानजनक है कि दो पैसे न दे सके। आपका कृत्य तो मालूम जरूरी है। वह जो गलत है. वह गलत कर सके. तभी उसकी गलती होता है कि आपने दया की, लेकिन आपका अस्तित्व आपके कृत्य प्रकट होती है। वह जो बरा है. उसे बरे होने का परा मौका दिया जाए. से नीचे होता है। आपकी आत्मा आपके कृत्य से भी नीची होती है। तो ही उसकी बुराई प्रकट होती है। रावण सीता को चराकर ही झंझट दान वह नहीं है। में पड़ गया। उसकी बुराई शिखर पर पहुंच गई, उसका पाप का घड़ा | जहां अहंकार तृप्त हो रहा हो, वहां दान नहीं है, वह चाहे छोटा पूरा भर गया। और तब उसे विनष्ट किया जा सकता है। | हो, चाहे बड़ा। जब तक अहंकार ही न दिया जाए, तब तक दान एक खयालं आपको शायद न हो। भारतीय मन बहुत अनूठा है | नहीं है। अहंकार के लिए कुछ दिया जाए, तो दान नहीं है। उसका और कई बार पश्चिम में उसको समझना मुश्किल हो जाता है। कथा | संबंध दूसरे से नहीं है। आप जब भिखारी को देते हैं, तो उसका यह है कि वाल्मीकि ने रामायण पहले लिखी, राम बाद में हुए। यह संबंध भिखारी से नहीं है, अपने से है। आप अपने अहंकार में दो बात निश्चित ही असंगत मालूम पड़ती है। लेकिन भारतीय मन में | पैसे डाल रहे हैं, ताकि अहंकार और मजबूत हो जाए। भिखारी का बड़े और खयाल हैं। पात्र तो केवल आपके लिए एक निमित्त है। ___ राम का व्यक्तित्व एक विराट योजना का हिस्सा मात्र है। वह लेकिन भिखारी को दो पैसे मिल जाते हैं। उसे प्रयोजन नहीं कि योजना पहले से नियोजित है, वह योजना पहले से तैयार है। राम आपने किसलिए दिए। भिखारी को यह भी लग सकता है कि सिर्फ एक अभिनेता हैं उस योजना में। इसलिए सीता चोरी जाती है, आपने दया की। हालांकि किसी भिखारी को ऐसा नहीं लगता। और तो युद्ध को चले जाते हैं। और एक धोबी एतराज उठाता है, तो | | जब आप देकर चले जाते हैं, तो भिखारी हंसता है कि ठीक बेवकूफ सीता को जंगल भेज देते हैं। राम जैसे इन किन्हीं कृत्यों के बीच में बनाया। उसका भी अपना अहंकार है. आपका ही नहीं है। वह भी नहीं हैं। बाहर खड़े हैं। जैसे ये सारे कत्य एक अभिनय के मंच पर भलीभांति जानता है कि किस तरह के लोग बुद्ध बन जाते हैं, किस किए जा रहे हैं, जिनसे राम का कुछ लेना-देना नहीं है। जो करना | | हालत में बन जाते हैं। वह भी पीछे से हंसता है। सामने तो दुआ जरूरी है, वे कर रहे हैं। जो होना चाहिए, वह हो रहा है। लेकिन | देता दिखाई मालूम पड़ता है। मानता तो वह उसी आदमी को है, जो वे बाहर खड़े हैं। उनकी आत्मा इनमें से किसी से भी छू नहीं जाती। बिना दिए अकड़कर चला जाता है। मानता तो वह भी उसी को है। कोई चीज उनको स्पर्श नहीं कर रही है। समझता है कि इसको मैं बना नहीं पाया। | 185| Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 हमारा कृत्य भी हमारी आत्मा से ऊपर मालूम पड़ता है। आप किसी को नमस्कार करते हैं और कहते हैं, मिलकर बड़ी खुशी हुई। और भीतर आपको कोई खुशी नहीं हो रही होती। बल्कि दुख रहा होता है कि इस दुष्ट की शक्ल सुबह से कहां से दिखाई पड़ गई ! आपका कृत्य आपकी आत्मा से बड़ा मालूम पड़ता है। आप जो कहते हैं, जो करते हैं, वही काफी ऊंचा है। आप जो हैं, और भी नीचा है। राम ठीक इसके विपरीत हैं। वे जो कर रहे हैं वह बहुत नीचा है। जो हैं, वह बहुत ऊपर है। कृष्ण कहते हैं, मैं कर रहा हूं, उससे मुझे मत तौलना। मैं शस्त्रधारियों में राम जैसा हूं। मछलियों में मगरमच्छ, नदियों में गंगा हूं। और हे अर्जुन, सृष्टियों का आदि, अंत और मध्य भी मैं ही हूं। गंगा के प्रतीक को भी समझने जैसा है। गंगा के साथ हिंदू मन बड़े गहरे में जुड़ा है। गंगा को हम भारत से हटा लें, तो भारत को भारत कहना मुश्किल हो जाए। सब बचा रहे, गंगा हट जाए, भारत को भारत कहना मुश्किल हो जाए। गंगा को हम हटा लें, तो भारत का सारा साहित्य अधूरा पड़ जाए। गंगा को हम हटा लें, तो भारत मालूम कितने ऋषियों के नाम खो जाएं। गंगा को हम हटा लें, तो हमारा तीर्थ ही खो जाए, हमारे सारे तीर्थ की भावना खो जाए। गंगा के साथ भारत के प्राण बड़े पुराने दिनों से कमिटेड हैं, बड़े गहरे में जुड़े हैं। गंगा जैसे हमारी आत्मा का प्रतीक हो गई है। मुल्क की भी अगर कोई आत्मा होती हो और उसके प्रतीक होते हों, तो गंगा ही हमारा प्रतीक है। पर क्या कारण होगा गंगा के इस गहरे प्रतीक बन जाने का कि हजारों-हजारों वर्ष पहले कृष्ण भी कहते हैं कि नदियों में मैं गंगा हूं? गंगा कोई नदियों में विशेष उस अर्थ में नहीं है। गंगा से बड़ी नदियां हैं, गंगा से लंबी नदियां हैं। गंगा से बड़ी विशाल नदियां पृथ्वी पर हैं। गंगा कोई लंबाई में, विशालता में, चौड़ाई में, किसी दृष्टि से कोई बहुत बड़ी गंगा नहीं है। कोई बहुत बड़ी नदी नहीं है। ब्रह्मपुत्र है, और अमेजान है, और ह्वांगहो है, और सैकड़ों नदियां हैं, जिनके सामने गंगा फीकी पड़ जाए। पर गंगा के पास कुछ और है, जो पृथ्वी पर किसी भी नदी के पास नहीं है। और उस कुछ और के कारण भारतीय मन ने गंगा के साथ एक ताल-मेल बना लिया। एक तो बहुत मजे की बात है कि पूरी पृथ्वी पर गंगा सबसे ज्यादा जीवंत नदी है, अलाइव । सारी नदियों का पानी आप बोतल में भरकर रख दें, सभी नदियों का पानी सड़ जाएगा, गंगा भर का नहीं सड़ेगा । केमिकली गंगा बहुत विशिष्ट है। उसका पानी डिटेरिओरेट नहीं होता, सड़ता नहीं, वर्षों रखा रहे। बंद बोतल में भी वह अपनी पवित्रता, अपनी स्वच्छता कायम रखता है। ऐसा किसी नदी का पानी पूरी पृथ्वी पर नहीं है। सभी नदियों के पानी इस अर्थों में कमजोर हैं। गंगा का पानी इस अर्थों में विशेष मालूम पड़ता है, उसका विशेष केमिकल गुण मालूम पड़ता है। गंगा में इतनी लाशें हम फेंकते हैं। गंगा में हमने हजारों-हजारों वर्षों से लाशें बहाई हैं। अकेले गंगा के पानी में, सब कुछ लीन हो | जाता है, हड्डी भी। दुनिया की किसी नदी में वैसी क्षमता नहीं है। | हड्डी भी पिघलकर लीन हो जाती है और बह जाती है और गंगा को अपवित्र नहीं कर पाती। गंगा सभी को आत्मसात कर लेती है, हड्डी | को भी। कोई भी दूसरे पानी में लाश को हम डालेंगे, पानी सड़ेगा। पानी कमजोर और लाश मजबूत पड़ती है। गंगा में लाश को हम डालते हैं, लाश ही बिखर जाती है, मिल जाती है अपने तत्वों में । गंगा अछूती बहती रहती है। उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । गंगा के पानी की बड़ी केमिकल परीक्षाएं हुई हैं, वैज्ञानिक । और अब यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो गया है कि उसका पानी असाधारण है। यह क्यों है असाधारण, यह भी थोड़ी हैरानी की बात है। क्योंकि गंगा जहां से निकलती है, वहां से बहुत नदियां निकलती हैं। गंगा | जिन पहाड़ों से गुजरती है, वहां से कई नदियां गुजरती हैं। तो गंगा में जो खनिज और जो तत्व मिलते हैं, वे और नदियों में भी मिलते हैं। फिर गंगा में कोई गंगा का ही पानी तो नहीं होता, गंगोत्री से तो | बहुत छोटी-सी धारा निकलती है। फिर और तो सब दूसरी नदियों का पानी ही गंगा में आता है। विराट धारा तो दूसरी नदियों के पानी की ही होती है। लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि जो नदी गंगा में नहीं मिली, उस वक्त उसके पानी का गुणधर्म और होता है और गंगा में मिल जाने के बाद उसी पानी का गुणधर्म और हो जाता है ! क्या होगा | कारण ? केमिकली तो कुछ पता नहीं चल पाता। वैज्ञानिक रूप से | इतना तो पता चलता है कि विशेषता है और उसके पानी में खनिज और केमिकल्स का भेद है। विज्ञान इतना ही कह भी सकता है। लेकिन एक और भेद है, वह भेद विज्ञान के खयाल में आज नहीं तो कल आना शुरू हो जाएगा। और वह भेद है, गंगा के पास लाखों-लाखों लोगों का जीवन की परम अवस्था को पाना । 186 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ शस्त्रधारियों में राम यह मैं आपसे कहना चाहूंगा कि पानी, जब भी कोई व्यक्ति, जैनों के बाईस तीर्थंकर पार्श्वनाथ हिल्स पर निर्वाण को उपलब्ध अपवित्र व्यक्ति पानी के पास बैठता है-अंदर जाने की तो बात हुए हैं। एक ही पर्वत पर बाईस तीर्थंकर निर्वाण को उपलब्ध हुए हैं, अलग-पानी के पास भी बैठता है, तो पानी प्रभावित होता है। चौबीस तीर्थंकर में से। यह आकस्मिक नहीं मालूम होता, क्योंकि और पानी उस व्यक्ति की तरंगों से आच्छादित हो जाता है। और बाईस तीर्थंकर चौबीस में। हजारों साल का फासला है। इन हजारों पानी उस व्यक्ति की तरंगों को अपने में ले लेता है। | साल में ये बाईस व्यक्ति अपने मरने के क्षण में एक छोटी-सी इसलिए दुनिया के बहुत धर्मों ने पानी का उपयोग किया है। पहाड़ी पर पहुंच गए। ईसाइयत ने बप्तिस्मा, बेप्टिज्म के लिए पानी का उपयोग किया है। ___ यह पूर्व नियोजित है, आयोजित है। उस पूरे पहाड़ को चार्ज जीसस को जिस व्यक्ति ने बप्तिस्मा दिया, जान दि बेप्टिस्ट ने, करने की चेष्टा जैन तीर्थंकरों ने की है। वह पूरा पहाड़-जब एक उस आदमी का नाम ही पड़ गया था जान बप्तिस्मा वाला। वह तीर्थंकर अपने शरीर को छोड़ता है, तो यह घटना उस घटना से बड़ी जोर्डन नदी में और जोर्डन यहूदियों के लिए वैसी ही नदी रही, है, जब एक अणु का विस्फोट होता है। लेकिन वह हमें पता चल जैसी गंगा हिंदुओं के लिए वह जोर्डन नदी में गले तक आदमी गई है; अभी दूसरी घटना हमें पता नहीं चली है। को डुबा देता, खुद भी पानी में डूबकर खड़ा हो जाता, फिर उसके | वैज्ञानिक अब कहते हैं कि एक अणु के विस्फोट से इतनी ऊर्जा सिर पर हाथ रखता और प्रभु से प्रार्थना करता उसके इनीशिएशन | पैदा होती है कि सारी पृथ्वी आग से भर जाए। हिरोशिमा में जो अणु की, उसकी दीक्षा की। का विस्फोट हुआ, उसमें एक लाख बीस हजार आदमी पांच सेकेंड पानी में क्यों खड़ा होता था जान? और पानी में दूसरे व्यक्ति को | | में राख हो गए। अणु आंख से दिखाई नहीं पड़ता, इतनी छोटी चीज खडा करके क्या कछ एक व्यक्ति की तरंगें और एक व्यक्ति के है। और अण के विस्फोट का मतलब क्या है? अण के विस्फोट प्रभाव और एक व्यक्ति की आंतरिक दशा का आंदोलन दूसरे तक का मतलब है कि अणु तीन, इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान से मिलकर पहुंचना आसान है? बनता है। उन तीनों को अलग कर दिया जाए, तो जिस शक्ति के आसान है। पानी बहुत शीघ्रता से चार्ड हो जाता है। पानी बहुत | द्वारा वे तीनों जुड़े थे, वह शक्ति रिलीज हो जाती है, मुक्त हो जाती शीघ्रता से व्यक्तित्व से अनुप्राणित हो जाता है। पानी पर छाप बन है। वही शक्ति एक लाख बीस हजार आदमियों को पांच सेकेंड में जाती है। राख कर देती है। लाखों-लाखों वर्ष से भारत के मनीषी गंगा के किनारे बैठकर एक छोटा-सा अणु जो आंख से दिखाई नहीं पड़ता! अगर हम प्रभु को पाने की चेष्टा करते रहे हैं। और जब भी कोई एक व्यक्ति अणु को समझना चाहें, तो अगर एक लाख अणुओं को एक के ने गंगा के किनारे प्रभु को पाया है, तो गंगा उस उपलब्धि से वंचित | ऊपर एक रखें, तो आपके बाल की मोटाई के बराबर होंगे। एक नहीं रही, गंगा भी आच्छादित हो गई है। गंगा का किनारा, गंगा की | | इतना छोटा-सा अणु एक लाख बीस हजार आदमियों को राख कर रेत के कण-कण, गंगा का पानी, सब, इन लाखों वर्षों में एक देता है विस्फोट से। विशेष रूप से स्प्रिचुअली चार्ड, आध्यात्मिक रूप से तरंगायित | और जब एक तीर्थंकर की आत्मा उसके शरीर से छूटती है, तो हो गया है। जो शक्ति आत्मा को और शरीर को बांधे हुए थी, वह रिलीज होती इसलिए हमने गंगा के किनारे तीर्थ बनाए। इसलिए लोग गंगा है, पहली दफा। करोड़ों-करोड़ों वर्षों से यह आदमी शरीर से बंधा की यात्रा करते रहे। इसलिए लोग सोचते थे कि गंगा में जाकर पाप रहा है। अब इसकी आत्मा सदा के लिए शरीर को छोड़ रही है। धल जाएंगे। वह पाप गंगा की वजह से नहीं धल सकते, लेकिन | शरीर और इसको बांधने वाली जो शक्ति थी, वह छूटेगी। वही गंगा के पास जो मिल्यु है, गंगा के पास जो वातावरण है, वह जो | शक्ति इस पहाड़ पर बिखर जाएगी। लाखों-लाखों वर्षों की छाया है, उस छाया में जरूर आप अगर बाईस तीर्थंकर जाकर उस पहाड़ को इलेक्ट्रिफाइड कर दिए, वह अपने हृदय के द्वार खोलें, तो आप दूसरे आदमी होकर वापस लौट पहाड़ मैग्नेटिक हो गया। फिर इसके बाद लाखों वर्षों तक लोग उस सकते हैं। गंगा एक आध्यात्मिक यात्रा भी है, एक नदी ही नहीं। । | पहाड़ की तीर्थयात्रा करते रहे हैं, इस आशा में कि वह मैग्नेटिज्म, और इस तरह के बहुत-से प्रयोग हुए हैं। वह चुंबक, उनके प्राणों को भी छू ले और स्पर्श कर ले। 187 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 जैसा जैनों ने प्रयोग किया है पार्श्वनाथ हिल्स पर, ठीक वैसा ही अगर कोई फिजिक्स का जानकार हो जाए, कोई केमिस्ट्री का प्रयोग हिंदुओं ने गंगा के किनारे किया है। जानकार हो जाए, कोई गणित को जान ले, कोई ज्योतिष को जान अरब में एक गांव है, कुफा। उस गांव में अब तक मुसलमान ले, कोई संगीत को जाने-हजार विद्याएं हैं-कोई किसी भी विद्या के अतिरिक्त कोई भी प्रवेश नहीं पा सका, सिर्फ एक आदमी को में कितना ही पारंगत हो जाए, स्वयं तो अंधेरे में ही खड़ा रहता है। छोड़कर, पूरे इतिहास में चौदह सौ साल के। मुसलमान के कितना ही बड़ा संगीतज्ञ हो और कितना ही संगीत जान ले, लेकिन अतिरिक्त उस गांव में प्रवेश नहीं हो सकता, और साधारण खुद के स्वरों से अपरिचित होता है। सब स्वरों को साध ले, खुद मुसलमान भी प्रवेश नहीं पा सकता है। असाधारण रूप से, वस्तुतः की आत्मा अनसधी रह जाती है। सब वाद्यों को बजा ले, एक भीतर जो मुसलमान हो, सच में जिसका हृदय रूपांतरित हुआ हो और | की वीणा सूनी ही पड़ी रह जाती है। कोई कितना ही बड़ा गणितज्ञ परमात्मा के लिए समर्पित हो गया हो, और जिसने जाना हो कि एक | हो, और कितनी ही संख्याओं को जान ले, अनंत संख्याओं का ही अल्लाह है, वही प्रवेश पा सकता है। हिसाब उसके मन में सरलता से हल होने लगे, लेकिन एक संख्या सिर्फ एक आदमी, एक अंग्रेज खोजी बर्टन उसमें प्रवेश पा सका स्वयं की, वह अनगिनी रह जाती है। है गैर-मुसलमान। लेकिन उसको भी गैर-मुसलमान कहना ठीक सुना होगा आपने कि दस अंधों ने एक बार नदी पार की थी। नहीं है। क्योंकि बीस साल उसने मुसलमान साधना की, सिर्फ उस बाढ़ आई नदी थी बरसा की। पार तो वे कर गए, फिर उन्हें खयाल गांव में प्रवेश पाने के लिए। और जब वह बिलकुल मुसलमान हो | आया कि कोई अंधा रास्ते में बह न गया हो! तो उन्होंने गिनती की गया, नाममात्र को ही बर्टन रह गया, चमड़ी भर अंग्रेज की रह गई। | थी। लेकिन कठिनाई वही हुई, जो सभी आदमियों के साथ होती और सब तरह से वह मुसलमान हो गया, तब उसे प्रवेश मिला। । है। गिनती नौ होती थी, क्योंकि हर गिनने वाला अपने को छोड़ ___ मुसलमानों ने इस गांव को प्रयोग किया है चार्ज करने का। इन जाता था। गिनता था एक से नौ तक। और जब सभी ने गिनकर चौदह सौ वर्षों में उन्होंने एक अनूठी छोटी-सी जगह निर्मित की है। | देख लिया और सभी ने पाया कि संख्या नौ होती है, तो निर्णय हो उसमें प्रवेश पाते ही कोई आदमी रूपांतरित हो जाए, ऐसी व्यवस्था गया कि एक आदमी खो गया है। की है। उसमें वे ही लोग प्रवेश पा सकते हैं, जो बहुत गहन प्रार्थना हम सब निर्णय इसी तरह तो लेते हैं! डेमोक्रेटिक निर्णय इसी में उतर गए हैं। वह सारा वातावरण उससे प्रभावित हो जाता है। | तरह तो होते हैं! जब दस आदमी सभी के सब कह रहे हों कि नौ कण-कण उनके प्रभाव को पी लेता है, आत्मसात कर लेता है। हैं, तो अब कोई उपाय न रहा। वे छाती पीटकर रोने लगे थे कि कष्ण कहते हैं. मैं नदियों में गंगा है। उनका साथी कोई खो गया। गंगा साधारण नदी नहीं है, एक आध्यात्मिक यात्रा है, और एक ___ पास से कोई गुजरा है और उसने पूछा कि क्या कारण है तुम्हारे आध्यात्मिक प्रयोग। लाखों वर्षों तक लाखों लोगों का उसके | इस तरह जार-जार रोने का? तो उन अंधों ने कहा, हम दस निकले निकट मुक्ति को पाना, परमात्मा के दर्शन को उपलब्ध होना, थे उस पार से, एक साथी खो गया। हम नौ हैं! उस आदमी ने आंख आत्म-साक्षात्कार को पाना! लाखों लोगों का उसके किनारे आकर डाली। देखा, वे दस थे। उसने कहा, जरा देखें, तुम्हारी गिनती अंतिम घटना को उपलब्ध होना! वे सारे लोग अपनी जीवन-ऊर्जा | करने में कोई भूल तो नहीं? उन्होंने गिनती करके बताई, तो वह को गंगा के पानी पर उसके किनारों पर छोड़ गए हैं। समझ गया भूल। भूल वही है, जो सब आदमियों की भूल है। हर इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मैं नदियों में गंगा हूं। एक अपने को गिनना छोड़ जाता है। और हे अर्जुन, सृष्टियों का आदि, अंत और मध्य मैं ही हूं। तथा | __ तो उस आदमी ने कहा कि एक तरकीब का मैं उपयोग करता हूं, विद्याओं में अध्यात्म-विद्या अर्थात ब्रह्म-विद्या, और परस्पर | इससे चमत्कार घटित होगा और दसवां आदमी मौजूद हो जाएगा। विवाद करने वालों में तत्व-निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद, | मैं हर एक को चांटा मारूंगा जोर से। जिसको मैं चांटा मारूं, वह तर्क मैं ही हूं, न्याय मैं ही हूं। बोले एक। जब मैं दूसरे को चांटा मारूं दो, तो वह बोले दो। जब ये दो बातें बहुत बहुमूल्य हैं। विद्याओं में अध्यात्म-विद्या। अनंत मैं तीसरे को चांटा मारूं तीन, तो वह बोले तीन। और ऐसे मैं दसवें विद्याएं हैं, लेकिन अध्यात्म-विद्या गुणात्मक रूप से भिन्न है। को मौजूद कर दूंगा। 188 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 शस्त्रधारियों में राम - उसने दसों को चांटे मारे। उनकी व्यर्थ पिटाई भी हुई, लेकिन वे | न जानता हो। आनंदित भी बहुत हुए। और दसों नाचने लगे और उस आदमी को रामकृष्ण दूसरी क्लास तक पढ़े हैं। शास्त्र ठीक से पढ़ नहीं धन्यवाद देने लगे कि तुम्हारी बड़ी कृपा है कि तुमने दसवां मौजूद | | सकते। बातें भी जो करते हैं, वे ग्रामीण की हैं। लेकिन वे उस विद्या कर दिया। को जानते हैं, कृष्ण जिसके साथ अपना तादात्म्य कर रहे हैं। कबीर समस्त साधनाएं आपको चांटा मारने से ज्यादा नहीं हैं। जिसमें | | जुलाहे हैं। नानक पढ़े-लिखे नहीं हैं। मोहम्मद को क ख ग भी नहीं आपको एक का...। और कुछ नहीं है। और समस्त गुरु आपको आता। दस्तखत भी मोहम्मद नहीं कर सकते हैं। लेकिन कृष्ण कह सिवाय चांटा मारने के और कुछ भी नहीं करते हैं, कि किसी तरह | रहे हैं कि मैं विद्याओं में अध्यात्म-विद्या हूं। आपका वह जो खो गया आदमी है, वह आपके खयाल में आ| क्योंकि मान्यता यह है कि जिसने सब जान लिया और स्वयं को जाए। वह अभी भी मौजूद है; वह कहीं खो नहीं गया है। वे दस ही न जाना, उसके जानने का उपयोग क्या? और जिसने कुछ भी न थे, लेकिन हर एक अपने को गिनना भूल जाता था। | जाना और स्वयं को जान लिया, उसने सब जान लिया। क्योंकि सारी विद्याएं दूसरों को गिनती हैं, स्वयं को छोड़कर। सब | | अंततः जीवन का जो परम आनंद है, वह स्वयं को जानने से घटित विद्याएं दूसरे को जानती हैं, स्वयं को छोड़कर। इसलिए सभी होगा। और अंततः मृत्यु के भी पार जाने वाला जो अमृत सूत्र है, विद्याओं के भीतर गहन अविद्या छिपी रहती है। इसलिए एक | वह स्वयं को जानने से घटित होगा। और अंततः सब जाना हुआ आदमी गणित का बहुत बड़ा पारंगत विद्वान हो जाता है, लेकिन जो हमारा पराया है, वह पड़ा रह जाएगा; जो मेरे साथ जा सकेगा, जिंदगी के मामले में ऐसा ही मूढ़ होता है, जैसे कोई और मूढ़ है। वह मेरा स्वयं का बोध है। एक आदमी बड़ा वैज्ञानिक हो जाता है। वैज्ञानिक तो ठीक है, यहां मृत्यु के पार जिसे न ले जाया जा सके, उसे हम ज्ञान नहीं मानते। तक हालत होती है कि एक आदमी बड़ा मनोवैज्ञानिक हो जाता है, | | हम तो ज्ञान उसे मानते हैं कि लपटों में जब शरीर भी जल जाए, बड़ा साइकोलाजिस्ट हो जाता है, मन के संबंध में सब जान लेता | तब भी मेरा ज्ञान न जले। आग भी मेरे ज्ञान को न जला सके, मृत्यु है, लेकिन खुद के मन के संबंध में वैसा ही दीन और कमजोर होता | भी मेरे ज्ञान को नष्ट न कर सके, तो ही वह ज्ञान है। अन्यथा उस है, जैसा कोई और। ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। खुद फ्रायड, जिसने पूरे जीवन यौन और यौन से संबंधित सारी | तो हम सब जान लें, वह जानना ऊपरी है। उपयोगी हो सकता बीमारियों का अध्ययन किया और यौन की सारी विकृतियों का | है, लेकिन आत्यंतिक उसका मूल्य नहीं है। अंततः वह व्यर्थ हो अध्ययन किया, उसने भी लिखा है कि पचास साल की उम्र में भी | जाएगा। इसलिए हम बड़े से बड़े पंडित को भी, जो बहुत जानता एक दिन अचानक रास्ते से गुजरती हुई एक स्त्री को देखकर धक्का | | हो, मरते वक्त वैसा ही दीन हो जाते देखते हैं, जैसा कोई भी मर देने का मन हो गया। यह आदमी ईमानदार है। हमारे मुल्क का कोई रहा हो। मृत्यु बता देती है कि आपने कुछ जाना कि नहीं जाना। मृत्यु आदमी होता तो ऐसा कभी बताता नहीं। पर उसने लिखा है कि खबर दे देती है। हैरानी की बात है कि अब पचास साल की उम्र में भी रास्ते पर एक हिंदुस्तान से सिकंदर जब वापस लौटता था। तो उसके गुरु ने, स्त्री को देखकर धक्का लगाने का मन मेरा हुआ है। | अरस्तू ने उसे कहा था कि हिंदुस्तान से एक संन्यासी को लेते आना अगर आप फ्रायड से पूछे, तो क्रोध के संबंध में वह सब जानता आते वक्त। है। लेकिन अगर उसको गाली दे दें, तो वह इतना क्रोधित हो जाता __ अरस्तू महाज्ञानी था। ज्ञानी, पंडित के अर्थ में। बहुत जानता था। था कि बिलकुल पागल हो जाए। सच तो यह है कि पश्चिम में जितने विज्ञान विकसित हुए, सबका यह मजे की बात है। मनोविज्ञान भी आप जान ले सकते हैं, वह पिता अरस्तू है। सबका! जितने विज्ञान विकसित हुए, सबकी भी दूसरे के बाबत है। अपने संबंध में उसका कुछ लेना-देना नहीं | आधारशिलाएं अरस्तू रख गया। एक अकेले आदमी ने इतने है। स्वयं आदमी अपरिचित ही रह जाता है। विज्ञानों को कभी जन्म नहीं दिया। इसलिए अरस्तू अदभुत है। __ अध्यात्म-विद्या उसकी विद्या है, जिससे हम स्वयं को जानते हैं। लेकिन उसने भी सिकंदर को कहा था कि जब तुम आओ और तब यह भी हो सकता है कि एक अध्यात्म ज्ञानी कुछ भी और हिंदुस्तान से, तो बहुत कुछ लूटकर लाओगे, एक संन्यासी को भी 189 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-508 साथ ले आना। एक संन्यासी को मैं देखना चाहता हूं। मैं उस गया और उसने संन्यासी से कहा कि मैं आदमी कठोर हूं। हां और आदमी को देखना चाहता हूं, जिसने स्वयं को जान लिया है। न में जवाब चाहता हूं। साथ चलते हो, ठीक। अन्यथा यह गर्दन यह अरस्तू इतना बड़ा ज्ञानी था, तर्क का पिता था। पश्चिम का को काट देता हूं। जो लाजिक है, वह अरस्तू से पैदा हुआ। अब भी वही काम में | उस फकीर ने कहा, तुम काट दो। जहां तक मेरा सवाल है, इस आता है, दो हजार साल हो गए। इतना ज्ञानी था, लेकिन स्वयं का गर्दन को तो मैं उसी दिन छोड़ चुका, जिस दिन मैंने संन्यास लिया। तो कोई ज्ञान न था। तो हालत उसकी यह थी कि सिकंदर की मेरी तरफ से यह कटी हुई है। और तुमसे मैं कहता हूं कि जब गर्दन गुलामी की वजह से, क्योंकि सिकंदर तो सम्राट था। हालांकि | कटकर गिरेगी, तो तुम भी देखोगे कि गिर रही है और मैं भी देखूगा अरस्तू गुरु था! लेकिन इस तरह की कहानियां हैं कि सिकंदर शिष्य | कि गिर रही है। क्योंकि मैं इस गर्दन से अलग हूं। तुम देर मत करो। था, वह कभी-कभी अरस्तू को कहता कि अच्छा तुम घोड़ा बनो, | बेकार समय मत गंवाओ। क्योंकि मैं भी आदमी साफ-सुथरा हूँ। मैं तुम्हारे ऊपर सवार होकर जरा चलूं, तो अरस्तू घोड़ा बनकर | तलवार बाहर निकालो और गर्दन काटो। तुम अपने काम पर सिकंदर को चलाता था। जाओ। तुम अपनी यात्रा पर, मैं अपनी यात्रा पर! सिकंदर ने सोचा कि जब अरस्तू जैसे आदमी को मैं घोड़ा बनाकर सिकंदर ने तलवार वापस रख ली और उसने अपने सिपाहियों से चलता हूं, तो संन्यासी एक क्या, दस-पचास पकड़वा लाऊंगा। | कहा कि इस आदमी को मारने का कोई अर्थ नहीं है। हम केवल उसी जब वह हिंदुस्तान से लौटने लगा, तब उसे खयाल आया। जिस को मार सकते हैं, जो मृत्यु से डरता हो। मारा ही उसको जा सकता गांव में वह ठहरा था, उसने आदमी भेजे कि कोई संन्यासी हो तो है। मरता ही वही है, जो मृत्यु से डरता है। इस आदमी को मारने का पकड़ लाओ। गांव के लोगों से सिपाहियों ने पूछा, तो गांव के लोगों कोई अर्थ नहीं। नाहक हमें ही पछतावा होगा। और पीछे हम ही चिंता ने कहा, जो तुम्हारी पकड़ में आ जाए, समझ लेना, वह ले जाने | में पड़ेंगे। यह आदमी चिंता में पड़ने वाला नहीं दिखाई पड़ता है। यह योग्य नहीं है! तो वे बड़ी मुश्किल में पड़े। उन्होंने कहा, फिर कौन | मेरी ही नींद हराम कर देगा। इसकी गर्दन मुझे ही बार-बार याद आती है ले जाने योग्य ? तो गांव के लोगों ने कहा. एक आदमी है. लेकिन रहेगी, और मेरी ही रास्ते की यात्रा खराब हो जाएगी। सिकंदर एक क्या, हजार सिकंदर भी उसको ले जा सकें, यह बहुत | ब्रह्म-विद्या, अध्यात्म-विद्या का अर्थ है, वह विद्या, वह सुप्रीम मश्किल है। उन्होंने कहा, उसी का पता बता दो। तो उन्होंने कहा, साइंस. जिससे हम उसे जान लेते हैं, जो हम हैं। जिससे हम उसे नदी के किनारे एक नग्न संन्यासी है, उसे तुम ले जाओ। जान लेते हैं, जो सब जान रहा है। जिससे हम उसे जान लेते हैं, सिपाही गए, उन्होंने कहा कि महान सिकंदर की आज्ञा है कि आप जिसकी कोई मृत्यु नहीं, जिसका कोई जन्म नहीं। हमारे साथ चलें। शाही सम्मान के साथ हम आपको यूनान ले श्वेतकेतु लौटा वापस, अध्ययन करके समस्त शास्त्रों का। जो जाएंगे। जो भी आपकी सुविधा, हम सब करेंगे। आप शाही अतिथि | भी जानने योग्य था, जान आया। निश्चित ही, जानने की अकड़ होंगे। महल में ही आप ठहरेंगे। सिकंदर के विशेष मेहमान होंगे। आ गई। जब वह गांव के भीतर प्रविष्ट हुआ, उसके पिता ने देखा वह फकीर हंसने लगा और उसने कहा कि आज्ञा! आज्ञा तो अपने मकान से, श्वेतकेतु अकड़ा हुआ चला आ रहा है। पंडित हमने किसी की भी माननी बंद कर दी। जिस दिन हमने आज्ञा की अकड। आया. तो पिता ने कहा कि मालम होता है.. माननी बंद की, उसी दिन तो हम संन्यासी हुए। जब तक हम किसी जानकर आ गया। श्वेतकेतु ने कहा, सब जानकर आ गया जो भी न किसी की आज्ञा मानते थे, तब तक हम गृहस्थ थे। सिकंदर को | | जानने के लिए था। जितनी विद्याएं थीं, सब सीख आया हूं। कह दो कि तुम गलत आदमी के पास आ गए। उन्होंने कहा, ___ उसके पिता ने कहा, बस, एक सवाल तुझसे मुझे पूछना है। आपको पता नहीं, सिकंदर खतरनाक है। वह क्रोधी है। वह गर्दन | तूने उसे भी जाना या नहीं, जिससे सब जाना जाता है ? उसने कहा, काट दे सकता है। तो उसने कहा, तुम सिकंदर को ही बुला | यह तो कोई विद्या मैंने सुनी नहीं! मेरे गुरु ने इसके बाबत कोई लाओ-उस संन्यासी ने कहा-क्योंकि बड़ा मजा आएगा! बात नहीं की! सिकंदर ने सुना, तो सिकंदर नंगी तलवार लेकर गया। भारत में तो उसके पिता ने कहा, तू वापस लौट जा। तू उसको जानकर सिकंदर की यात्रा में यह सबसे कीमती घटना है। वह तलवार लेकर लौट, जिसे बिना जाने सब जानना बेकार है। और जिसे जान लेने त सब [190] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ शस्त्रधारियों में राम - से सब जान लिया जाता है। श्वेतकेतु वापस लौट गया। | है। और पूरब ने आत्म-ज्ञान विकसित कर लिया और आज पूरब ब्रह्म-विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते हैं, जो को लग रहा है कि हमसे ज्यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया सब जानता है। गणित आप जिससे जानते हैं, फिजिक्स आप | में कोई भी नहीं है। जिससे जानते हैं, केमिस्ट्री आप जिससे जानते हैं, उस तत्व को ही | हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया जान लेना ब्रह्म-विद्या है। जानने वाले को जान लेना ब्रह्म-विद्या है। | दांव। उन्होंने दूसरी अति कर ली। उन्होंने आत्म-विद्या को छोड़कर ज्ञान के स्रोत को ही जान लेना ब्रह्म-विद्या है। भीतर जहां चेतना बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उलटी बात है। वे का केंद्र है, जहां से मैं जानता हूं आपको, जहां से मैं देखता हूं | आत्म-अज्ञान से पीड़ित हैं और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता आपको; जिससे मैं देखता हूं, उसे भी देख लेना, उसे भी जान से पीड़ित हैं। लेना. उसे भी पहचान लेना, उसकी प्रत्यभिज्ञा. उसका पनर्मरण ___ यह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का ब्रह्म-विद्या है। जब संतुलन हो, तो पूर्ण संस्कृति विकसित होती है। इसलिए न तो कृष्ण कहते हैं, विद्याओं में मैं ब्रह्म-विद्या हूं। पूरब और न पश्चिम ही पूर्ण संस्कृतियां विकसित कर पाए। फिर इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फिक्र नहीं की। भी अगर चुनाव करना हो, अगर फिर भी चुनाव करना हो, तो परम भारत के और विद्याओं में पिछड़े जाने का बुनियादी कारण यही | विद्या ही चुनने जैसी है, सारी विद्याएं छोड़ी जा सकती हैं। क्योंकि है। भारत ने फिर और विद्याओं की फिक्र नहीं की, ब्रह्म-विद्या की | और सब पाकर कुछ भी पाने जैसा नहीं है। फिक्र की। कृष्ण कहते हैं, मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में। लेकिन उसमें अड़चन है, क्योंकि ब्रह्म-विद्या जानने को कभी लेकिन यह बात आप ध्यान रखना, और विद्याओं का वे निषेध लाखों-करोड़ों में एक आदमी उत्सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म-विद्या | नहीं करते हैं, और विद्याओं में जो श्रेष्ठ है, उसकी सूचना भर दे रहे जानने को उत्सुक नहीं होता। और भारत के जो श्रेष्ठतम मनीषी थे, | हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि सिर्फ अध्यात्म-विद्या को खोजना है, वे ब्रह्म-विद्या में उत्सुक थे। और भारत का जो सामान्यजन था, | बाकी सब छोड़ देना है। उसकी कोई उत्सुकता ब्रह्म-विद्या में नहीं थी। उसकी उत्सुकता तो यह भी सोचने जैसा है कि अध्यात्म-विद्या परम विद्या तभी हो और विद्याओं में थी। लेकिन सामान्यजन और विद्याओं को सकती है, जब दूसरी विद्याएं भी हों। नहीं तो वह परम विद्या नहीं विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते हैं, और रह जाएगी। आप कोई मंदिर का अकेला सोने का शिखर बना लें परम मनीषी उन विद्याओं में उत्सुक ही न थे। और दीवालें न हों, तो समझ लेना कि शिखर जमीन में पड़ा हुआ __ इसलिए भारत ने बुद्ध को जाना, महावीर को, कृष्ण को, | लोगों के पैरों की ठोकर खाएगा। मंदिर का स्वर्ण-शिखर आकाश पतंजलि को, कपिल को, नागार्जुन को, वसुबंधु को, शंकर को | | में उठता ही इसलिए है कि पत्थर की दीवालें उसे सम्हालती हैं। जाना भारत ने। ये सारे के सारे, इनमें से कोई भी आइंस्टीन हो | | अध्यात्म-विद्या का शिखर भी तभी सम्हलता है, जब और सारी सकता है। इनमें से कोई भी प्लांक हो सकता है। इनमें से कोई भी विद्याएं दीवालें बन जाती हैं और उसे सम्हालती हैं। किसी भी विद्या में प्रवेश कर सकता है। लेकिन भारत का जो अब तक हम कहीं भी मंदिर नहीं बना पाए। हमने शिखर बना श्रेष्ठतम मनीषी था, वह परम विद्या में उत्सुक था। और भारत का लिया, पश्चिम ने मंदिर बना लिया। जब तक हमारा शिखर जो सामान्यजन था, उसकी तो परम विद्या में क्या उत्सुकता हो | पश्चिम के मंदिर पर न चढ़े, तब तक दुनिया में पूर्ण संस्कृति पैदा सकती है। उसकी उत्सुकता दूसरी विद्याओं में है। लेकिन वह | नहीं हो सकती। विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते हैं। । __ और अंतिम बात। पश्चिम में दूसरी विद्याएं विकसित हो सकीं, क्योंकि पश्चिम के - कृष्ण ने कहा, एवं परस्पर विवाद करने वालों में तत्व-निर्णय के जो बड़े मनीषी हैं, वे और विद्याओं में उत्सुक हैं। इसलिए एक | | लिए किया जाने वाला वाद, तर्क, न्याय मैं हूं। अदभुत घटना घटी। पश्चिम ने सब विद्याएं विकसित कर ली और तर्क दो तरह के हैं। एक तो तर्क है, जिसमें हम दूसरे को गलत आज पश्चिम को लग रहा है कि वह आत्म-अज्ञान से भरा हुआ सिद्ध करना चाहते हैं। वह क्या कह रहा है, उससे कोई संबंध नहीं 1911 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग- 58 है। दूसरे को गलत करना चाहते हैं, वह क्या कह रहा है, उससे | | पड़ोसियों को पता न चल जाए कि परमात्मा के पानी का अपमान कोई संबंध नहीं है। एक तो तर्क है, जिसमें हम अपने अहंकार को | | हुआ; वह आहिस्ता-आहिस्ता घर पहुंचा, तरबतर पानी में। सर्दी सिद्ध करना चाहते हैं, दूसरे को गलत करना चाहते हैं। पकड़ गई, बुखार आ गया, निमोनिया हो गया। इसलिए कई दफा ऐसा होता है कि आपकी ही बात भी अगर तीन दिन बाद वह अपनी खिड़की में बैठा है अपनी दुलाई ओढ़े दूसरा कह रहा हो, तो भी आप उसको गलत सिद्ध किए बिना नहीं हुए। देखा कि नसरुद्दीन बाजार से लौट रहा है। पानी की थोड़ी-सी मान सकते। दूसरा सदा गलत होता है! होना चाहिए। आप सदा सही बूंदें आईं। नसरुद्दीन भागा। उस मौलवी ने चिल्लाकर कहा कि ठहर हैं। अपने लिए आप कुछ भी तर्क का उपयोग करते हैं। लेकिन यह नसरुद्दीन! भगवान का अपमान कर रहा है? नसरुद्दीन ने कहा कि सत्य की जिज्ञासा से नहीं, यह केवल अहंकार की तृप्ति के लिए है। नहीं; भगवान का पानी गिर रहा है, कहीं मेरा पैर उस पर न पड़ ऐसा तर्क भ्रष्ट तर्क है। इसको भारत कुतर्क कहता है। यह जाए और अपमान न हो जाए, इसलिए घर जा रहा हूं! कितना ही विकसित हो जाए, इससे कोई मनुष्य के जीवन में यह डबल बाइंड माइंड है। इसमें तर्क सदा अपने लिए है। इसमें रूपांतरण नहीं होता। सचाई से कोई प्रयोजन नहीं है। सदा तर्क अपने लिए है। एक और तर्क भी है, जो हम सत्य की खोज के लिए करते हैं। . कृष्ण कहते हैं, वैसा मैं तर्क नहीं हूं। सत्य के निर्णय के लिए जो तब यह सवाल नहीं है कि दूसरा गलत कह रहा है। तब सवाल यह आतुर हैं, सत्यनिष्ठ, जिन्हें इससे प्रयोजन नहीं है कि पक्ष में पड़ेगा है कि सही क्या है? कौन कह रहा है, यह मूल्यवान नहीं है। क्या है कि विपक्ष में, मैं हारूंगा कि जीतूंगा; जिन्हें प्रयोजन इतना है कि सही, यही मूल्यवान है। कोई भी सही कह रहा हो, तो हम तर्क की | | सत्य क्या है, उसकी परख हो जाए, उसका पता चल जाए; ऐसे कोशिश करते हैं, उस सही की जांच के लिए। तर्क तो एक कसौटी सत्य के लिए किया गया वाद, ऐसे सत्य की जिज्ञासा के लिए किया है। जैसे कोई सोने को कसता है कसौटी पर, ऐसे ही तर्क विचार की गया तर्क मैं हूं। क्षमता, निर्णय और निर्णय का शास्त्र एक कला है। उस पर कसना | इसलिए भारत में तर्क को हमने एक बहुत ही और ढंग से लिया। है, कि जो भी कहा जा रहा है, वह कितने दूर तक सही है। यूनान ने तर्क को विकसित किया, लेकिन सोफिस्ट्री की तरह। लेकिन हम नहीं कस पाते. क्योंकि हम सही को तो पहले से ही यनान में स्कल थे सोफिस्टों के. जो लोगों को तर्क करना सिखाते जानते हैं! हम सब मानते हैं कि सत्य तो हमें पता ही है। इसलिए थे पैसे लेकर। कोई भी फीस दे दे, वह छः महीने, साल भर, दो अगर दूसरा हमसे मेल खा रहा है, तो सही है। और अगर हमसे साल में तर्क की शिक्षा दे देंगे। तर्क की शिक्षा का मतलब यह था मेल नहीं खा रहा है, तो गलत है। हम कसौटी हैं। कि तुम किसी को भी हराना चाहो, तो हरा सकते हो। किसी को हम कसौटी नहीं हो सकते। तर्क कसौटी है। और तर्क तो | भी। यह सवाल नहीं है कि किसको हराना है। तुम्हें हम तरकीबें बिलकुल निष्पक्ष कसौटी है, अपने को भी उसी पर कसो और दूसरे | सिखा देते हैं, इनमें तुम किसी को भी फंसा ले सकते हो, कोई भी को भी उसी पर कसो। और डबल बाइंड, दोहरा चित्त न हो, दूसरे हार जाएगा। के लिए कुछ और, हमारे लिए कुछ और। __ एक बहुत बड़ा सोफिस्ट था, जीनो। जीनो ने घोषणा कर रखी सुना है मैंने, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर के बाहर बैठा थी कि किसी को भी हराना हो. तो मैं तर्क की शिक्षा देता है। और है। और गांव का जो मौलवी है, वह मस्जिद से नमाज पढ़कर लौट | वह इतना आश्वस्त था कि जब भी वह किसी विद्यार्थी को लेता था रहा है। अचानक बरसा आ गई, तो वह तेजी से भागा। मुल्ला ने अपनी तर्क की शिक्षा के लिए, तो उससे आधी फीस लेता था। और कहा कि ठहरो! शर्म नहीं आती, धार्मिक आदमी होकर और भागते कहता था, आधी तब देना, जब तुम किसी से तर्क में जीत जाओ। हो? वह मौलवी भी थोड़ा घबड़ाया कि धार्मिक आदमी होने से एक विद्यार्थी आया, अरिस्तोफेनीज, और उसने आधी फीस दी, भागने का क्या लेना-देना! उसने कहा, क्या मतलब? मुल्ला ने | और गुरु से शिक्षा ली दो साल। और दो साल के बाद गुरु राह कहा, परमात्मा पानी बरसा रहा है और तुम भागकर परमात्मा का | । देखने लगा कि वह किसी से तर्क में जीते, तो आधी फीस ले ले। अपमान कर रहे हो? किसका पानी है यह? यह जल किसका है? लेकिन अरिस्तोफेनीज ने उस दिन से किसी से विवाद ही नहीं मौलवी भी डर गया, और अपनी इज्जत की रक्षा के लिए और | किया। यहां तक कि अगर उससे कोई कहे दिन में भी कि रात है, [192 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शस्त्रधारियों में राम तो वह कहे, हां। क्योंकि अगर वह जीत जाए, तो वह आधी फीस चुकानी पड़े। जीनो बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसने कहा, यह तो लड़का कुछ ज्यादा चालबाज है! जीनो के शिष्य ने, अरिस्तोफेनीज ने कहा कि मैं फीस देने वाला नहीं हूं, जब तक मैं जीतूं न। और जीतने का कोई कारण नहीं, क्योंकि मैं हर हालत में सरेंडर कर देता हूं। कोई कुछ भी कहे, हां! मैं न कहता ही नहीं, विवाद होगा ही नहीं, जीत का सवाल नहीं है। लेकिन गुरु भी ऐसे हार नहीं मान सकता था। उसने अदालत में मुकदमा चलाया। उसने अदालत में मुकदमा चलाया, और अपील की अदालत से कि यह मेरी आधी फीस नहीं चुकाया है, वह मुझे मिलनी चाहिए। इसकी शिक्षा पूरी हो गई । और उसकी तरकीब यह थी कि अदालत तो कहेगी कि यह अभी पैसा नहीं चुकाएगा, क्योंकि अभी शर्त पूरी नहीं हुई। यह अभी पहला विवाद नहीं जीता है। तो जीनो का खयाल था कि मैं अरिस्तोफेनीज से कहूंगा कि अदालत ने तुझे जिता दिया, तू पहला विवाद जीत गया। आधी फीस मुझे दे दे। अगर अदालत निर्णय देगी अरिस्तोफेनीज के पक्ष में कि अभी फीस नहीं दी जा सकती, तो भी मैं फीस ले लूंगा, क्योंकि वह जीत गया, पहला विवाद जीत गया। लेकिन अरिस्तोफेनीज भी उसी का शिष्य था। उसने कहा, अगर अदालत कहेगी कि तुम जीत गए, तब तो मैं पैसा देने वाला नहीं हूं, क्योंकि मैं अदालत से प्रार्थना करूंगा कि इसमें अदालत का अपमान है। और अगर मैं हार गया, तब तो देने का सवाल ही नहीं है। क्योंकि पहला ही विवाद हार गया। अदालत ने फैसला भी दे दिया कि अरिस्तोफेनीज को पैसा देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अभी उसने कोई विवाद ही नहीं किया, जीत का कोई सवाल नहीं है। बाहर आते ही जीनो ने कहा, अरिस्तोफेनीज, अब पैसा दे दो, क्योंकि तुम पहला विवाद अदालत में मुझसे जीत गए । अरिस्तोफेनीज ने कहा कि गुरु, मैं आपका ही शिष्य हूं। आप भूल जाते हैं। मैं अदालत का अपमान कभी भी नहीं कर सकता, चाहे मेरे प्राण चले जाएं! यह सोफिस्ट्री है । सोफिस्ट्री का मतलब होता है, वितंडा । उसमें आप कुछ भी कर सकते हैं। और दोनों तरफ तर्क चल सकते हैं। कृष्ण कहते हैं, ऐसे तर्क नहीं, लेकिन वह तर्क जो सत्य की खोज के लिए किया जाता है। तो मैं वाद, सत्य के खोजियों के लिए 193 किया जाने वाला वाद हूं। आज इतना ही । पांच मिनट रुकें। प्रभु नाम लें और फिर जाएं। Page #224 --------------------------------------------------------------------------  Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 तेरहवां प्रवचन मैं शाश्वत समय हूं Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग- 50 अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। | हम समझ लें, तो काल की अक्षरता और उसका अक्षय स्वरूप अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ।। ३३ ।। हमारे खयाल में आ जाए। . मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् । जो भी है, दूसरे क्षण वही नहीं रह जाता है। कीर्तिः श्रीर्वाक्व नारीणां स्मृतिमेधा धृतिः क्षमा ।। ३४ ।। यूनान में विचारक हुआ है, हेराक्लतु। हेराक्लतु ने कहा है, एक बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । | ही नदी में दो बार उतरना असंभव है। यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ।। ३५ ।।। | दि सेम रिवर। कैसे उतरिएगा एक ही नदी में दो बार? जब दुबारा तथा मैं अक्षरों में अकार और समासों में द्वंद्व नामक समास आप उतरने जाएंगे, नदी बह चुकी है। जिस जल को आपने पहली हूं, तथा अक्षय काल और विराट स्वरूप सबका बार स्पर्श किया था, अब आप उसे दुबारा स्पर्श न कर पाएंगे। धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूं। लेकिन हेराक्लतु ने कोई अतिशयोक्ति नहीं की। यह ओवर और हे अर्जुन, मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे स्टेटमेंट नहीं है, अंडर स्टेटमेंट है। उसने कुछ कहा, वह कहा जाना होने वालों की उत्पत्ति का कारण हूं तथा स्त्रियों में कीर्ति, चाहिए उससे कम है। सचाई तो यह है कि यू कैन नाट स्टेप ईवेन श्री, वाक्, स्मृति, मेवा, धृति और क्षमा हूं। वंस इन दि सेम रिवर। एक बार भी एक ही नदी में उतरना असंभव तथा मैं गायन करने योग्य श्रुतियों में बृहत्साम और छंदों में है। क्योंकि जब आपका पैर नदी की ऊपर की सतह को छूता है, गायत्री छंद तथा महीनों में मार्गशीर्ष महीना और ऋतुओं में | तब तक नीचे का पानी बह चुका; और जब आपका पैर एक कदम वसंत ऋतु मैं हूं। नीचे जाता है, तब तक ऊपर का पानी बह चुका। नदी बह रही है, बहने का नाम नदी है। बहाव सतत है। जीवन की नदी भी वैसी ही सतत है, वैसा ही बहाव है। जीवन अक्षरों में अकार और समासों में द्वंद्व नामक समास हूं | में भी दुबारा उसी जगह खड़े होना असंभव है। और दुबारा वही तथा अक्षय काल और विराट स्वरूप सब का | देखना भी असंभव है, जो देखा। हमें भ्रांति लेकिन होती है। हम धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूं। हे अर्जुन, मैं सोचते हैं, रोज वही सूरज निकलता है। सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे होने वालों की उत्पत्ति का | | वही सूरज रोज नहीं निकल सकता है। सूरज रूपांतरित हो रहा कारण हूं। है प्रतिपल। सूरज जलती हुई आग है। और जैसे लपटें प्रतिपल कुछ नए प्रतीक, कुछ नई दिशाओं से, वही अर्जुन को फिर-फिर बदल रही हैं, जैसे दीए की लौ प्रतिपल बदल रही है, ऐसा ही सूरज कहने की कोशिश कृष्ण की है। सत्य तो एक है, समझाया बहुत भी प्रतिपल बदल रहा है। प्रकार से जा सकता है। और जो समझ सकते हैं, वे बिना प्रकार के सांझ आप एक दीया जलाते हैं, सुबह सोचते हैं, उसी दीए को भी समझ ले सकते हैं। और जो नहीं समझ पाते, अनंत-अनंत बुझा रहे हैं, तो आप गलती में हैं। सांझ जो दीया जलाया था, वह प्रकारों से भी समझाने से कुछ हल नहीं होता है। फिर भी कृष्ण जैसे | तो न मालूम कितनी बार बुझ चुका। लौ प्रतिपल खो रही है आकाश व्यक्ति सतत चेष्टा करते हैं-एक द्वार से न दिखाई पड़े, दूसरे द्वार | में; नई लौ उसकी जगह स्थापित होती चली जा रही है। लेकिन यह से; दूसरे द्वार से न दिखाई पड़े, तीसरे द्वार से। कृष्ण जैसे व्यक्तियों | इतनी तीव्रता से हो रहा है, यह लौ का प्रवाह इतना त्वरित है कि दो का श्रम अथक है, और धैर्य अनंत है। लौ के बीच में आप खाली जगह नहीं देख पाते। इसलिए सोचते हैं, इस सूत्र में कृष्ण कहते हैं, मैं अक्षय काल। एक ही लौ रातभर जलती रही; सुबह हम उसी दीए को बुझा रहे हैं। अस्तित्व में सभी कुछ क्षणिक है और सभी कुछ क्षीण हो जाता अगर उसी दीए को सुबह बुझा रहे हैं, तो रातभर जो तेल जला, है। सभी कुछ परिवर्तित होता है। कुछ भी शाश्वत नहीं मालूम | वह कहां गया? रातभर तेल जलता रहा और दीए की लौ बदलती होता, सिवाय परिवर्तन के। सब कुछ परिवर्तित होता है, सिवाय | रही। सुबह आप दूसरी ही लौ बुझा रहे हैं। वही लौ नहीं, जो आपने परिवर्तन के। सब कुछ बदल जाता है, एक बदलाहट ही स्थिर बात | | सांझ जलाई थी। निश्चित ही, उसी श्रृंखला की लौ है, उसी लौ की है। जो भी है, वह दूसरे क्षण भी वही नहीं रह जाता है। इसे थोड़ा संतान है, लेकिन वही लौ नहीं है। 196 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मैं शाश्वत समय हूं सूरज भी ऐसा ही बदल रहा है। छोटा-सा दीया बदल रहा है हमारी भाषा हमें बहुत-सी भूलों में ले जाती है, क्योंकि भाषा इतनी तेजी से। उतना बड़ा सूरज और भी बड़ी तेजी से बदल रहा | | एक तरह का फिक्सेशन का खयाल देती है कि चीजें ठहरी हुई हैं। है। सुबह रोज वही सूरज नहीं उगता। और आप सोचते हों, सुबह हम कहते हैं, वृक्ष है। कहना चाहिए, वृक्ष हो रहा है। हम कहते हैं, रोज वही पृथ्वी दिखाई पड़ती है, तो भी गलती में हैं। और आप नदी है। कहना चाहिए, नदी हो रही है। हम कहते हैं, बच्चा है। सोचते हों कि रोज उन्हीं वृक्षों के पास से आप गुजरते हैं, तो भी कहना चाहिए, बच्चा हो रहा है। हम कहते हैं, मृत्यु आएगी। कहना आप भूल में हैं। सब बदल रहा है। बदलाहट इतनी तीव्र है कि चाहिए, मृत्यु आ रही है। आपको दिखाई नहीं पड़ती। ___ सब कुछ हो रहा है। प्रत्येक वस्तु एक घटना है, वस्तु नहीं। कोई जैसे बहुत तेजी से बिजली का पंखा चल रहा हो, तो उसकी | वस्तु वस्तु नहीं है, घटना है। घटना का अर्थ है, प्रक्रिया है। इस पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़ती। वैज्ञानिक कहते हैं कि इतनी तेजी से जगत में प्रक्रियाएं हैं, वस्तुएं नहीं। घटनाएं हैं, वस्तुएं नहीं। सब बिजली का पंखा चलाया जा सकता है कि आप अगर गोली भी | | कुछ हो रहा है। प्रवाह है। इस प्रवाह के बीच में अगर कोई एक मारें, तो बीच की जगह से नहीं निकले, पंखड़ी में ही लगे। चीज अक्षय है, तो वह समय है, काल है। वैज्ञानिक कहते हैं, इतनी तेजी से भी बिजली का पंखा चलाया जा यह बहुत मजे की बात है। अगर इस परिवर्तन के बीच में कोई सकता है कि आप उस पर बैठ जाएं और आपको पता न चले कि | चीज थिर है, तो वह परिवर्तन है। यह उलटा मालूम पड़ेगा। लेकिन पंखा चल रहा है। जीवन के गहरे सत्य सभी पैराडाक्सिकल हैं, उलटे होते हैं। ऐसा ___ सब कुछ इतनी ही तेजी से चल रहा है। आप जिस जमीन पर | | हम कहें तो समझ में आ जाएगा, इस जगत में अगर कोई चीज नहीं बैठे हैं, वह भी तेजी से, जमीन का एक-एक टुकड़ा भाग रहा है। | मरती है, तो वह मृत्यु है। बाकी सब चीजें मरती हैं। और इस जगत आपके मकान की दीवाल की ईंट का एक-एक अणु तीव्रता से | । में एक ही चीज अक्षय है, जो क्षीण नहीं होती, वह समय है। सब गतिमान है। कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है। सब चीजें चल रही बदलता रहता है। हैं। तेजी इतनी ज्यादा है कि आपको दिखाई नहीं पड़ती। । लेकिन ध्यान रहे, बदलने की प्रक्रिया समय में घटती है। समय सब बदल रहा होता. तब भी ठीक था। सबहन हो. तो बदलाहट नहीं हो सकती। आप अपने घर से यहां तक सूरज तो दूसरा होता ही है, जमीन दूसरी होती है, वृक्ष दूसरे होते आए, आने में घंटाभर लगा। अगर समय न हो, तो आप यहां नहीं हैं, आकाश दूसरा होता है, आप भी दूसरे होते हैं। रात जो सोया | पहुंच सकते। एक घंटा चाहिए, तब आप यहां पहुंच सकते हैं। था, वही आदमी सुबह नहीं जगता। आपकी जीवन धारा भी बह| समझ लें कि समय समाप्त हो गया, तो फिर आप यहां से हिल भी रही है। प्रतिपल बह रही है। आपमें भी सब बदल जाता है। न सकेंगे। क्योंकि हिलने में भी समय लगेगा। फिर आप श्वास भी . आप कभी खयाल किए हैं कि अगर मां के पेट में जो आपकी न ले सकेंगे, क्योंकि श्वास लेने में भी समय की जरूरत है। तस्वीर थी, पहले दिन मां के पेट में जो अणु निर्मित हुआ था, जो इस जगत में जो कुछ हो रहा है, उस सबके लिए समय अनिवार्य कि आप आज हो गए हैं, अगर वह आपके सामने रख दिया जाए, है। सब चीजें समय के भीतर हो रही हैं। सभी के होने में समय तो आप इन आंखों से उसे देख भी न सकेंगे। बड़ी खुर्दबीन की | | छिपा हुआ है। अस्तित्व समय के साथ एक है। सब चीजें बदल जरूरत पड़ेगी। और फिर भी कोई उपाय नहीं है कि आप पहचान रही हैं, बदलाहट समय के भीतर हो रही है। समय भर नहीं लें कि कभी मैं यह रहा होऊंगा। लेकिन कभी आप वही थे। | बदलता, क्योंकि समय किसके भीतर बदलेगा! समय को बदलने और फिर एक दिन आप जल जाएंगे और राख का एक ढेर रह | | के लिए फिर एक और समय चाहिए। जाएगा। अगर आज वह ढेर आपके सामने रख दिया जाए, तो भी गणितज्ञ उस पर विचार करते हैं, तो वे कहते हैं, टाइम ए को आप मानने को राजी न होंगे कि यही मैं हो जाऊंगा। आपको भरोसा | अगर बदलना हो, तो फिर टाइम बी चाहिए। अगर टाइम बी को न होगा कि यह और मैं। लेकिन वही आप हो जाएंगे। और हो | बदलना हो. तो फिर टाइम सी चाहिए। समय एक को बदलना हो. जाएंगे जब मैं कह रहा हूं, तो आप ऐसा मत सोचना कि यह कल तो समय दो चाहिए। समय दो को बदलना हो, तो समय तीन होने वाली बात है, वही आप हो रहे हैं। | चाहिए। यह तो फिजूल की बात हो जाएगी। और समय को हम [1971 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-500 हो जाए। अंत तक खींचते चले जाएं, तो भी एक समय हमें मानना पड़ेगा, तो आइंस्टीन ने कहा, टाइम इज़ दि फोर्थ डायमेंशन आफ स्पेस, जो नहीं बदलता है। जैसे, इसे हम और तरह से समझें, तो आसान वह आकाश का ही चौथा आयाम है। और तब उसने एक ही शब्द निर्मित किया स्पेसियोटाइम। एक ही अस्तित्व है, समय और आप बैठे हैं जमीन पर। आपके बैठने के लिए जगह चाहिए। आकाश का, क्योंकि किसी भी चीज के होने के लिए परिवर्तन बिना जगह के आप नहीं बैठ सकते। आपके होने के लिए आकाश जरूरी है। अस्तित्व मात्र परिवर्तन का प्रवाह है। चाहिए, जगह चाहिए, स्थान, स्पेस चाहिए। तब एक सवाल उठता । कृष्ण कहते हैं, मैं अक्षय काल हूं। मैं वह समय हूं, जो कभी है, जो दर्शनशास्त्री पूछते रहे हैं कि आकाश को होने के लिए भी | चुकता नहीं। तो फिर कोई और स्थान चाहिए पड़ेगा। आकाश को होने के लिए सब चीजें चुक जाती हैं, समय भर नहीं चुकता। सूरज चुक जाते कोई महाआकाश चाहिए। लेकिन फिर यह इनफिनिट रिग्रेस होगी, | | हैं, बुझ जाते हैं। पृथ्वियां चुक जाती हैं, बूढ़ी हो जाती हैं, मर जाती इसका कोई अंत न होगा। फिर उस महाआकाश के लिए कोई और। | हैं। बड़े-बड़े तारे होते हैं, बिखर जाते हैं। अगर हम इस विराट महाआकाश चाहिए। अस्तित्व में खोजने चलें, तो सभी चीजें बनती हैं, बिखरती हैं। सिर्फ इसलिए वैज्ञानिक कहते हैं कि आकाश सब चीजों के लिए एक समय बनने में भी मौजूद रहता है, बिखरने में भी मौजूद रहता चाहिए, सिर्फ आकाश को छोड़कर। आकाश के लिए कोई स्थान | है। जन्म में भी मौजूद रहता है, मृत्यु में भी मौजूद रहता है। सिर्फ की जरूरत नहीं। आकाश स्वयं स्थान है। सब चीजों के लिए | एक समय अक्षय रूप से मौजूद रहता है। उसकी मौजूदगी सदा है। आकाश जरूरी है। आकाश के लिए कुछ और जरूरी नहीं है। इसलिए महावीर ने तो आत्मा का नाम ही समय रख दिया। ठीक वैसे ही, सब परिवर्तन के लिए समय जरूरी है, सिर्फ | महावीर ने तो आत्मा का नाम ही समय रख दिया। महावीर ने कहा, समय के परिवर्तन के लिए समय जरूरी नहीं है। कहना चाहिए कि आत्मा यानी समय, अस्तित्व यानी समय। जैसे स्थान आकाश है, ऐसे ही परिवर्तन समय है। और समय के | इसलिए अगर आपने कभी जैनियों का शब्द सुना हो, तो वे लिए कोई और चीज की आवश्यकता नहीं है। ध्यान को कहते हैं सामायिक। प्रार्थना को वे कहते हैं सामायिक। वैज्ञानिक, विशेषकर अल्बर्ट आइंस्टीन, समय और आकाश | | सामायिक का अर्थ है, समय में प्रवेश कर जाना, आत्मा में डूब दोनों को जोड़कर एक नई धारणा निर्मित किए हैं, जो आधुनिक | जाना। टु बी इन दि इटरनल टाइम, वह जो अनंत समय है, उसके फिजिक्स की धारणा है। आइंस्टीन ने एक नया प्रस्ताव रखा। वह | साथ एक हो जाना। यह सामायिक शब्द ध्यान से भी ज्यादा प्रस्ताव भारत के लिए बहुत पुराना है। और वह प्रस्ताव पश्चिम में मूल्यवान है। क्योंकि जो व्यक्ति उस शाश्वत समय में एक हो गया, बहुत कीमती सिद्ध हुआ। आधुनिक विज्ञान उसी प्रस्ताव के वह परमात्मा से एक हो गया। आस-पास निर्मित हुआ है। वह प्रस्ताव यह है कि समय और | कृष्ण कहते हैं, मैं अक्षय काल हूं। आकाश भी दो नहीं हैं, एक ही चीज हैं। तो आइंस्टीन ने कहा कि हम सब समय से अपने को भिन्न समझते हैं। हम सब समय से समय भी आकाश का एक आयाम है। अपने को अलग समझते हैं। हम सब ऐसा समझते हैं कि समय यह थोड़ी कठिन गणित की धारणा है। कोई चीज है, जिसमें से हम गुजर रहे हैं। या समय कोई चीज है, आकाश के तीन आयाम आइंस्टीन ने कहे हैं। तीन आयाम। जो हमारे पास से गुजर रहा है। हमारी जो धारणा है वह यही है। कोई भी चीज हो, तो लंबाई होगी, चौड़ाई होगी, गहराई होगी। एक आदमी बैठकर कहता है कि समय पास कर रहा हूं, समय किसी भी चीज के होने के लिए ये तीन आयाम जरूरी हैं, लंबाई, काट रहा हूं। उसे पता नहीं कि वह समय को नहीं काट रहा है, चौड़ाई, गहराई। ये थ्री डायमेंशन आकाश के हैं। आइंस्टीन ने कहा अपने को काट रहा है। समय को आप कैसे काटिएगा! कोई कि चौथा आयाम, चौथा डायमेंशन समय है। किसी भी चीज के छुरी-तलवार नहीं जो समय को काट सके। समय आपको काट होने के लिए एक चौथी दिशा भी है, परिवर्तन। लंबाई चाहिए, सकता है, आप समय को नहीं काट सकते। लेकिन लोग कहते हैं! चौड़ाई चाहिए, गहराई चाहिए और अगर वह चीज है, तो एक बैठकर ताश खेल रहे हैं। वे कहते हैं, समय काट रहे हैं! उनको परिवर्तन की प्रक्रिया चाहिए। वह चौथा आयाम है टाइम। | पता नहीं कि ताश खेलकर समय उनको काट रहा है। 198 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मैं शाश्वत समय हूं आप समय को छू भी नहीं सकते, काटना तो बहुत दूर है। समय | | जाएगा। जो इस बहने को रोकने की कोशिश करेगा, वह और भी का आपको कोई अनुभव भी नहीं होता, काटना तो बहुत दूर है। | जल्दी नष्ट हो जाएगा। उसकी कोशिश ऐसी ही होगी, जैसे कोई आप सिर्फ अपने को काट सकते हैं। समय तो अक्षय है, कटेगा | नदी की तीव्र धार के विपरीत बहने की कोशिश करता हो। वह और भी नहीं। आपके काटे नहीं कटेगा। अब तक किसी के काटे नहीं जल्दी थक जाएगा और धार उसे जल्दी बहा ले जाएगी। कटा है। और सब काटने वाले विलीन हो जाते हैं। सब काटने वाले समय के साथ एकता साध लेनी, परमात्मा के साथ एकता साध आते हैं और खो जाते हैं। और समय शाश्वत अपनी जगह बना लेनी है। लेकिन समय के साथ एकता साधने का अर्थ है, परिवर्तन रहता है। को स्वीकार करने की क्षमता। जो भी हो जाए, उससे राजी हो जाने समय की यह शाश्वतता, यह इटरनिटी, कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं। का गण। जो भी घटित हो. उसके साथ परा आत्मैक्य। कहीं कोई इस जगत में अगर किसी चीज को अक्षय का प्रतीक मानें हम, | विरोध न हो; समय जो भी ले आए, उसके साथ पूरा तालमेल। तो वह समय है। बाकी सब चीजें क्षय हो जाती हैं। समय में जितनी | बीमारी आ जाए, तो बीमारी। बुढ़ापा आ जाए, तो बुढ़ापा। मृत्यु चीजें हैं, वे सभी क्षय हो जाती हैं, सिर्फ समय को छोड़कर। समय आने लगे, तो मृत्यु। कहीं कोई विरोध नहीं। भीतर कहीं कोई विरोध पर मृत्यु का कोई प्रभाव नहीं है। नहीं। जो भी हो, उसके साथ पूरा आत्मैक्य। तो आप समय को इसलिए हमने, विशेषकर भारत ने, समय को और मृत्यु को भी जान पाएंगे कि समय क्या है। एक मान लिया है। इसलिए मृत्यु को भी हम काल कहते हैं और लेकिन हम सब लड़ रहे हैं। हम सब समय से हटने की कोशिश समय को भी काल कहते हैं। कर रहे हैं। हट नहीं सकते, वह आकांक्षा संभव नहीं होगी, लेकिन सिर्फ समय की कोई मृत्यु नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि | हमारी चेष्टा वही है। अगर समय मृत्यु से अलग होता, तो समय की भी मृत्यु घटित सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन को उसके घर के बाहर लोगों ने होती। समय मृत्यु के साथ एक है। इसलिए मृत्यु की तो क्या मृत्यु | पकड़ा और कहा कि तुम यहां क्या कर रहे हो! वह वृक्ष के नीचे होगी! मृत्यु तो कैसे मरेगी? इसलिए हमने मृत्यु को भी काल का | बैठकर कुछ सोच-विचार में लीन था। कहा कि तुम्हारी पत्नी नदी नाम दिया। की बहती धार में गिर गई है। और धार तेज है और वर्षा के दिन महावीर ने आत्मा को काल का नाम दिया, हमने समय को भी | हैं, और ज्यादा देर नहीं लगेगी कि समुद्र में तुम्हारी पत्नी पहुंच काल कहा, हमने मृत्यु को भी काल कहा। इनके पीछे कारण हैं। जाएगी। भागो! मृत्यु भी एक शाश्वतता है। और अगर हम गौर से देखें, तो मृत्यु मुल्ला भागा। कपड़े फेंककर नदी में कूदा और नदी की उलटी सिर्फ एक शब्द है। समय के द्वारा हम काट दिए जाते हैं। जब हम धार में जोर से हाथ मारने लगा। लोगों ने चिल्लाकर कहा कि यह पूरे काट दिए जाते हैं, तो उस घटना को हम मृत्यु कहते हैं। और तुम क्या कर रहे हो? अगर पत्नी बहेगी, तो बहने का एक ही ढंग तो मृत्यु कुछ भी नहीं है। मृत्यु और कुछ भी नहीं है। | है कि वह नीचे की तरफ जाएगी, जहां धार जा रही है। और तुम जैसे नदी की धार बहती हो और जमीन कट जाती है, और उलटे जा रहे हो? धीरे-धीरे जमीन बह जाती है, सॉइल इरोजन हो जाता है। ऐसा ही मुल्ला ने कहा, मैं अपनी पत्नी को तुमसे ज्यादा अच्छी तरह हमारा अस्तित्व समय की धार में कटता जाता है, कटता जाता है, जानता है। उलटा जाना उसकी आदत है। उसके साथ तीस साल इरोजन हो जाता है। एक दिन हम पाते हैं कि हम बह गए, | रह चुका हूं। सारी दुनिया गिरकर नदी में अगर सागर की तरफ जाती कण-कण होकर बह गए। जिस दिन हम पूरे बह जाते हैं, उन दिन होगी, तो मेरी पत्नी नहीं जा सकती, वह उलटी जा रही होगी! हम कहते हैं, मृत्यु हो गई। लेकिन समय हमें प्रतिपल बहाए ले जा | हम सारे लोग ही लेकिन वैसे हैं। अगर हम जीवन की धार को रहा है। हम प्रतिपल बह रहे हैं। | देखें, तो हम सब उलटे तैरने की कोशिश करते हैं। उलटे तैरने में हम रुक भी नहीं सकते। रुकने का कोई उपाय नहीं है। यह होने | | एक मजा जरूर है, उसी कारण हम तैरते हैं। उलटे तैरने में अहंकार का ढंग है, यह नियति है। इसमें रुकने का कोई उपाय नहीं है। निर्मित होता है। अगर मैं दो हाथ उलटे मार लेता हूं, तो लगता है, बहना ही होगा। जो इस बहने से लड़ने लगेगा, वह और जल्दी टूट | मैं कुछ हूं। धार के विपरीत, प्रवाह के विपरीत, मैं कुछ हूं। और 11991 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 अगर प्रवाह में बहता हूं, तो फिर मैं कुछ भी नहीं हूँ! टाइम क्या है! अगर कोई आदमी उलटी धार में तैरकर गंगोत्री पहुंच जाए, तो अभी आप जिस समय को जानते हैं, वह घड़ी का समय है; सारे दनिया के अखबार उसकी फोटो छापेंगे। और कोई आदमी उसका अक्षय काल से कोई संबंध नहीं है। घडी का समय, आपका गंगोत्री से बहकर सागर में पहुंच जाए, कोई अखबार छापने वाला निर्मित समय है। घड़ी का समय, आपका बनाया हुआ समय है। नहीं मिलेगा। उलटा अगर हम दो हाथ जीत पाते हैं, तो विजय वह समय नहीं है। हमने दिन को चौबीस घंटों में बांट लिया है। मालूम पड़ती है। हमने घंटे को साठ मिनटों में बांट लिया है। हमने मिनट को साठ लेकिन ध्यान रहे, समय की धार में कोई भी उलटा नहीं तैर सेकेंडों में बांट लिया है। यह हमारी व्यवस्था है। इससे मूल समय सकता। नदी की धार में दो हाथ कोई मार भी ले। समय की धार में | | का कोई संबंध नहीं है। इससे हम कामचलाऊ समय को निर्मित उलटा नहीं तैर सकता। क्योंकि समय पीछे बचता ही नहीं कि आप कर लिए हैं। इसी को अगर आप समय समझते हैं, तो आप भूल उसमें तैर सकें। नदी तो पीछे भी होती है। समय तो विलीन हो जाता में हैं, आप गलती में हैं। है। एक ही क्षण आपको मिलता है, पिछला क्षण तो विलीन हो | | समय तो उसी दिन आपको पता चलेगा, जिस दिन आप तथाता जाता है। अतीत तो बचता नहीं कि आप पीछे जा सकें। सिर्फ | | को, टोटल एक्सेप्टेंस को उपलब्ध हो जाएंगे। उस दिन, यह कृष्ण जो भविष्य ही बचता है। आगे ही जा सकते हैं, पीछे जाने का कोई | काल का अक्षय स्वरूप कह रहे हैं, यह आपके अनुभव में आएगा। उपाय नहीं। कभी चौबीस घंटे ही ऐसा करें कि बहकर देखें, तेरें मत। धार्मिक लेकिन मन पीछे जाने की कोशिश करता रहता है। उस विपरीत आदमी तैरता नहीं है; अधार्मिक आदमी तैरता है। धर्मिक आदमी दौड़ में अहंकार निर्मित जरूर होता है. लेकिन हम समय के साथ बहता है। बहता है. कहना भी शायद ठीक नहीं। क्योंकि बहता है. एक होने का जो गहन अनुभव है, उससे वंचित हो जाते हैं। | इसमें भी ऐसा लगता है कि कुछ करता है। नहीं, धार्मिक आदमी धार धार के साथ बह जाएं, कोई बाधा न डालें। नदी की धार के साथ | के साथ एक हो जाता है। धार जहां ले जाती है, वहीं चला जाता है। एक हो जाएं। और जीवन जो भी ले आए, उसे परम आनंद से | • लाओत्से ने कहा है कि मैंने एक सूखे पत्ते को देखा। वर्षों तक स्वीकार कर लें। उसमें रंचमात्र भी नकार न हो। उसमें रंचमात्र भी मैंने ध्यान किया। वर्षों तक मैंने पूजा की, प्रार्थना की। वर्षों तक मैंने अस्वीकार न हो। उसमें शिकायत न हो। ऐसे ही आदमी का नाम उसको खोजा। लेकिन उसका मुझे कोई पता नहीं मिला। फिर एक धार्मिक आदमी है, जिसके मन में जीवन के प्रति शिकायत नहीं है। दिन मैं बैठा था। पतझड़ के दिन थे, सूखे पत्ते वृक्षों से गिरकर उड़ मंदिर जाने वाला आदमी धार्मिक नहीं है। क्योंकि हो सकता है, रहे थे। और तब मैंने उस मौन शांत दोपहरी में देखा सूखे पत्तों को। मंदिर वह सिर्फ शिकायत के लिए जा रहे हों। अधिक लोग तो मंदिर और उसी दिन मुझे राज मिल गया। शिकायत के लिए जाते हैं। अधिक लोगों की प्रार्थनाएं यह बताती | | हवा सूखे पत्ते को बाएं ले जाए, तो सूखा पत्ता बायां चला जाता हैं कि भगवान, तुझसे ज्यादा तो हम समझते हैं! तू जो कर रहा है, | | था। दाएं ले जाए, तो दाएं चला जाता था। ऊपर ले जाए, तो वह गलत है। हम जो चाहते हैं, वह कर! हमारी प्रार्थनाएं, हमारे | | आकाश में उठ जाता था। जमीन पर पटक दे, तो नीचे विश्राम करने मंदिर, हमारी पूजाएं, हमारी मस्जिदें, हमारी शिकायतों के घर हैं। लगता था। सूखे पत्ते की अपनी कोई मर्जी ही न थी। सूखे पत्ते की लेकिन जो आदमी शिकायत लेकर मंदिर गया है, वह मंदिर जा | अपनी कोई आकांक्षा न थी। सूखे पत्ते के हृदय में कोई भाव ही न ही नहीं सकता। मंदिर में प्रवेश का तो एक ही मार्ग है कि कोई | था कि मैं कहां जाऊं। हवाएं जहां ले जाएं, वहीं जाने को राजी था। शिकायत न हो। जीवन ने जो दिया है, जीवन ने जो किया है, जीवन | सूखे पत्ते ने अपना अस्तित्व ही खो दिया था। जैसा है, उसमें परम हर्ष हो, उसके स्वीकार में परम उत्सव हो, तब | ___ हमारी वासनाएं ही हमारा अस्तित्व हैं। हमारी आकांक्षाओं का आप बहेंगे। और आपके और समय के बीच जो दुविधा मालूम | जोड़ ही हमारा तथाकथित होना है। सूखा पत्ता हवाओं के साथ एक पड़ती है, वह विलीन हो जाएगी। आप समय के साथ एक हो | | हो गया था। हवाएं आकाश में उठातीं, तो सिंहासन पर विराजमान जाएंगे। इस समय के साथ जो एक होने की घटना है, उस घटना | | होकर आनंदित होता। हवाएं नीचे गिरा देतीं, तो धूल में विश्राम में ही आपको काल के अक्षय स्वरूप का बोध होगा। यह इटरनल करता, आनंदित होता। |200 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मैं शाश्वत समय हूं 8 लाओत्से ने कहा, बस उस दिन से मैं भी सूखा पत्ता हो गया। | उस रास्ते पर मत जाएं। वहां एक आदमी बिलकुल पागल हो गया और जिस दिन से मैं सूखा पत्ता हो गया हूं, उस दिन से मैंने दुख है। और उस आदमी ने कसम खा ली है कि जो भी आदमी इस नहीं जाना, अशांति नहीं जानी। और जिस दिन से मैं सूखा पत्ता हो | | रास्ते से निकलेगा, उसकी गर्दन काटकर उसकी अंगुलियों का हार गया हूं, उस दिन से मुझे सत्य खोजना नहीं पड़ा; सत्य मौजूद ही | | पहन लूंगा। उसने नौ सौ निन्यानबे आदमी मार डाले हैं। और वह था, वह मेरे अनुभव में आ गया है। | कहता है, जब तक हजार पूरे न हो जाएंगे, तब तक मेरा व्रत पूरा काल की यह अक्षयता अनुभव में आए, तो परमात्मा का | नहीं होगा! उस डाकू का नाम अंगुलिमाल था। अंगुलियों की गहनतम रूप स्मरण में आना शुरू होता है। मालाएं पहन रखी थीं उसने। आप उस रास्ते मत जाएं, वह रास्ता हे अर्जुन, मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे होने वालों | निर्जन हो गया है, अब वहां कोई नहीं जाता है। महीनों से उस तरफ की उत्पत्ति का कारण भी हूं। मृत्यु भी मैं हूं, जन्म भी मैं हूं। कोई नहीं गया है। इसे थोड़ा हम समझें। बुद्ध ने कहा, अगर मुझे पता न होता, तो शायद मैं दूसरे रास्ते मजे की बात है कि हम कभी खयाल में नहीं लाते, जन्म आपका | से भी चला जाता। लेकिन अब जब कि मुझे पता है, तो मुझे जाना होता है, कभी आपने सोचा? जन्म एक घटना है, जिसके संबंध में ही पड़ेगा। वह अंगुलिमाल बड़ी मुश्किल में होगा। उसको हजार आप कुछ भी नहीं कर सकते। करेंगे भी कैसे, क्योंकि जन्म के बाद पूरे करने हैं, और कोई आदमी जाता भी नहीं! कुछ उसका भी तो ही आप हो सकते हैं। जन्म के पहले कोई आपसे पूछता भी नहीं | सोचो। और अगर मैं न जाऊंगा, तो फिर कौन जाएगा? कि आप जन्म लेना चाहते हैं! जन्म के पहले आपका कोई भी तो बुद्ध उस रास्ते पर चल पड़े। संगी थे, साथी थे, जो कहते थे चुनाव नहीं हो सकता। होगा भी कैसे? जब जन्म ही नहीं हुआ, तो | कि जन्म-मरण का साथ है, वे भी थोड़े पीछे होने लगे। यह उपद्रव आपका चुनाव क्या है? जन्म आपको मिलता है। इट इज़ ए गिफ्ट, का मामला था। यह कविता में ठीक है कि कि जन्म-मरण का साथ है। वह एक दान है. एक भेंट है। अस्तित्व आपको जन्म देता है। जन्म वस्ततः स्थिति आ जाए तो जन्म-मरण के साथी सबसे पहले पीछे आपके हाथ की बात नहीं है। जन्म के संबंध में आप कुछ भी नहीं | हट जाते हैं। कर सकते। आपके निर्णय की कोई संगति ही नहीं है। आप जब भी अंगुलिमाल ने दूर से देखा बुद्ध को आते हुए। उसे भी दया हैं, जन्म के बाद हैं। जन्म के पहले आप नहीं हैं। निश्चित ही, जन्म | आई। वह आदमी न था दया करने वाला। उसे भी दया आई कि आपका नहीं हो सकता। यह भिक्षु भूल से आ गया मालूम होता है। पर गांव के लोगों ने मृत्यु भी आपकी नहीं है। जैसे जन्म आपके हाथ से घटित नहीं जरूर रोका होगा, यह फिर भी पागल है। यह मुझसे भी ज्यादा होता, वैसे ही मृत्यु भी आपके हाथ से घटित नहीं होती। मृत्यु भी पागल मालूम पड़ता है! विराट का ही हाथ है, और जन्म भी विराट का ही हाथ है। जो वह अपने फरसे पर धार रख रहा है। और बुद्ध उसके रास्ते के आपको जन्म देता है, वही आपको मृत्यु में खींच लेता है। करीब-करीब पगडंडी चढ़ने लगे। और बुद्ध की वैसी निर्दोष इसलिए अगर समस्त जगत के धर्मों ने आत्महत्या का विरोध आंखें, बुद्ध का वैसा बच्चों जैसा व्यक्तित्व, बुद्ध की वह सरलता, किया है, तो उसका कारण है। आत्महत्या को अगर बड़े से बड़ा अंगुलिमाल ने फरसे पर धार रखते नीचे देखा। उसको भी लगा कि पाप कहा है, तो उसका कारण है। जन्म तो आप नहीं ले सकते, | यह आदमी निश्चित ही गलत आ गया। लेकिन आत्महत्या कर सकते हैं। और जो काम परमात्मा को ही उसने भी चिल्लाकर कहा कि ऐ भिक्षु, रुक जा वहीं। आगे मत करना चाहिए, जब जब आप करते हैं, तब महापाप घटित होता है। जन्म बढ़। शायद तुझे पता नहीं कि मैं अंगुलिमाल हं! बुद्ध ने कहा, मुझे तो आप नहीं ले सकते, उसका कोई उपाय नहीं है; लेकिन मृत्यु | पता है। शायद तुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं! और बुद्ध बढ़ते ही आप चुन सकते हैं। लेकिन जब आप जन्म नहीं चुन सकते, तो | | गए। अंगुलिमाल ने फरसे को सूरज की धूप में चमकाकर कहा कि आपको मृत्यु चुनने का कोई हक नहीं रह जाता। नासमझ भिक्षु, तुझे पता नहीं है कि मैंने कसम ली है आदमियों को बुद्ध ने कहा है किसी दूसरे संदर्भ में, एक दूसरे पहलू से, यही | काटने की, और तू आखिरी आदमी है। तुझको काटकर मेरा व्रत बात। बुद्ध को एक गांव के पास से गुजरते वक्त लोगों ने कहा कि | पूरा हो जाएगा। मैं तुझे छोडूंगा नहीं। अगर मेरी मां भी आती हो, 201 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-58 तो भी मैं हजार वाला व्रत पूरा करने वाला हूं। इसलिए तू लौट जा, आगे मत बढ़। एक कदम भी आगे मत बढ़। रुक जा वहीं ! बुद्ध ने कहा कि मुझे तो बहुत समय हो चुका, जब मैं रुक गया। अंगुलिमाल, मैं तुझसे कहता हूं कि तू रुक जा । और बुद्ध चलते ही रहे । अंगुलिमाल ने जाना कि निश्चित ही यह आदमी पागल है और मुझसे ज्यादा पागल है। बैठे हुए आदमी को कहता है कि तू रुक जा! खुद चलता है और कहता है, लंबा समय हुआ तब से मैं रुक गया हूं ! बुद्ध करीब आ गए, अंगुलिमाल का भी मन हुआ कि जरा इससे बात कर ली जाए। इस आदमी का मतलब क्या है ! उसने पूछा, तुम्हारा मतलब क्या है रुक जाने का ! तुम चलते हुए कहते कि मैं रुक गया! बुद्ध ने कहा, जब मन ही रुक गया, तो शरीर के चलने, न चलने क्या होगा! तू बैठा हुआ दिखाई पड़ता है, लेकिन जितने जोर से तेरा फरसा चल रहा है, उससे भी ज्यादा जोर से तेरा मन चल रहा है । इसलिए मैं कहता हूं, अंगुलिमाल, तू ही रुक जा । मैं तो रुक गया हूं। अंगुलिमाल का भी हाथ जरा ढीला हो गया। लेकिन फिर उसे याद आई कि पता नहीं वह हजार का व्रत पूरा हो, न हो। आदमी कोई आए, न आए ! उसने कहा, कुछ भी हो, दया मेरे मन भी आती है, लेकिन फिर भी मैं अपने व्रत से बंधा हूं। और मैं तुम्हें काटूंगा। बुद्ध ने कहा, काटने के पहले मेरी एक छोटी-सी आकांक्षा है मरते आदमी की, वह तू पूरी कर दे। यह जो सामने वृक्ष लगा है, इसका एक पत्ता तोड़कर मुझे दे दे। अंगुलिमाल ने जाना कि आदमी बिलकुल ही पागल है। यह भी कोई इच्छा है मरते वक्त ! उसने वहीं से फरसा ऊपर मारा। एक पत्ता क्या, हजार टूटकर नीचे गिर गए। बुद्ध ने कहा, यह आधी आकांक्षा पूरी हो गई, आधी और पूरी कर दे। इनको वापस जोड़ दे! अंगुलिमाल ने कहा, मैं पहले ही समझ गया था कि तू पागल टूटे हुए पत्ते जोड़े नहीं जा सकते ! तो बुद्ध ने कहा, जितनी अकड़ से तूने काटा था, उससे तो ऐसा लगता था कि तू जोड़ भी सकेगा। इतनी अकड़ से तूने काटा था कि कोई बड़ा काम कर रहा है। यह तो बच्चे भी कर देते। यह तो बच्चे भी कर देते, जो तूने किया है इतनी अकड़ से । इसमें अकड़ क्या थी! जोड़ दे, तो समझें। और अगर न जोड़ सकता हो, तो फिर मैं तुझसे कहता हूं, तू मेरी गर्दन काट। लेकिन थोड़ा सोच लेना, एक | पत्ता भी जो नहीं जोड़ सकता है, वह गर्दन काटने का हकदार है? अब तू अपना फरसा उठा ले और तू गर्दन काट डाल। लेकिन जिसे तू बना नहीं सकता था, उसे मिटाने का तुझे कोई हक न था । अंगुलिमाल का फरसा नीचे गिर गया और उसका सिर बुद्ध के पैरों पर गिर गया। जीवन में हिंसा, हत्या अगर बुरी कही गई है, तो उसका कुल | कारण इतना है कि तुम जन्म अपने को नहीं दे सकते। आत्महत्या का अगर सारे धर्मों ने विरोध किया है, तो कुल कारण इतना है कि तुम जब अपने को जन्म नहीं दे सकते, अपने जन्म के मालिक नहीं हो, तो तुम अपनी मृत्यु के मालिक कैसे हो सकते हो ! वह मालकियत छीननी, परमात्मा के खिलाफ बड़े से बड़ा पाप है। इस संदर्भ में आपको मैं कहना चाहूंगा, पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक आल्बेयर कामू ने अपनी एक किताब की शुरुआत इस वाक्य से ही की है कि मनुष्य के समक्ष आत्महत्या ही सबसे बड़ी दार्शनिक समस्या है, दि ओनली मेटाफिजिकल प्राब्लम बिफोर मैन इज़ स्युसाइड | अब आल्बेयर कामू, सार्त्र, काफ्का और हाइडेगर, पश्चिम के आधुनिकतम, श्रेष्ठतम विचारक ऐसा मानते हैं कि एक ही तो स्वतंत्रता है आदमी को कि वह आत्महत्या कर ले। और तो कोई स्वतंत्रता नहीं मालूम पड़ती। इसलिए वे कहते हैं कि आत्महत्या का हक होना चाहिए। हम और कुछ तो कर ही नहीं सकते। जीवन पा | नहीं सकते, जन्म पा नहीं सकते। एक काम ही हम कर सकते हैं, आत्महत्या का। वही तो हमारी स्वतंत्रता है । उसका हक होना | चाहिए। कोई आदमी अपनी आत्महत्या करना चाहे, तो उसे हक होना चाहिए। उनकी बात तर्कयुक्त मालूम होती है। लेकिन उनकी बात जीवन के विराट तर्क के साथ मेल नहीं खाती। क्योंकि जिस चीज का हम प्रारंभ नहीं कर सकते, उसका अंत भी उसी के हाथों में छोड़ देना | उचित है, जिसने प्रारंभ किया है। 202 कृष्ण कहते हैं, मृत्यु भी मैं हूं, जन्म भी मैं हूं। जन्म का कारण भी मैं, मृत्यु का कारण भी मैं। थोड़ी कठिनाई होगी यह जानकर कि अर्जुन पूछ सकता है कृष्ण से, तो फिर मैं इन लोगों को कैसे मारूं ? इनकी हत्या मैं क्यों करूं? यह तत्क्षण खयाल में उठेगा। जब बुद्ध अंगुलिमाल को कहते हैं कि जिसे तू जोड़ नहीं सकता, उसे तू काट नहीं सकता। मत काट, क्योंकि जोड़ने का तू हकदार नहीं है। अर्जुन के मन में भी यह Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं शाश्वत समय हूं सवाल तो उठ ही सकता है कि जिनको मैं जिला नहीं सकता, जन्म नहीं दे सकता, उनको मैं मारूं कैसे? यही अर्जुन कह ही रहा है, यही उसकी समस्या है। कृष्ण इस समस्या को जिस पर्सपेक्टिव, कृष्ण जिस परिप्रेक्ष्य से इस सारी स्थिति को देखते हैं, वे अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तेरा यह मानना कि तू इन्हें मार रहा है, वह भी भ्रांति है, क्योंकि मारने वाला मैं हूं। वह भ्रांति भी तू मत पाल। वह सिर्फ तेरी भ्रांति है। तू मार भी नहीं सकता। इसका मतलब यह हुआ कि जो आदमी आत्महत्या कर रहा है, वह भी सिर्फ भ्रांति में है कि मैं अपने को मार रहा हूं। वस्तुतः कोई अपने को मार नहीं सकता, जब तक कि मौत ही मारने को न आ गई हो, जब कि परमात्मा का ही हाथ न आ गया हो। जब आपको मरने का खयाल आता है, वह खयाल भी आपका नहीं होता। वह भी उसी स्रोत से आता है, जिस स्रोत से जन्म आता है। सिर्फ आपको भ्रांति हो सकती है। और वह भ्रांति आपको लंबे चक्कर में डाल सकती है। इस जगत में भ्रांतियों के अतिरिक्त हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है । सत्य हमारे हाथ में नहीं है, हम सत्य के हाथ में हैं। हमारे हाथ में सिर्फ भ्रांतियां हो सकती हैं। सत्य हमारे हाथ में नहीं है, हम सत्य हाथ में हैं। हमारे हाथ में सिर्फ भ्रांतियां हो सकती हैं, झूठ हो सकते हैं। एक आदमी सोचता है, मैंने अपने को मार लिया या मार रहा हूं। उसका सोचना भ्रांत है। लेकिन भ्रांतियां बढ़ सकती हैं, और आदमी समझ सकता है कि उसने यह कर लिया। हम जिंदगीभर इसी तरह की भ्रांतियां रखते हैं। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह बैठकर बहुत चिंतन में लीन है। और उसकी पत्नी ने पूछा कि इतना क्या सोच-विचार में पड़े हो? तो मुल्ला ने कहा, मैं यह सोच रहा हूं कि आदमी जब मरता होगा, तो उसके भीतर क्या होता होगा? कैसे पक्का होता होगा कि मैं मर गया ? समझो कि मैं मर जाऊं, तो मैं कैसे जानूंगा कि मैं मर गया? उसकी पत्नी ने कहा कि छोड़ो मूढ़ता की बातें। जब मरोगे, तो एकदम पता चल जाएगा, हाथ-पैर ठंडे हो जाएंगे बर्फ जैसे ! पंद्रह दिन बाद मुल्ला जंगल में लकड़ियां काट रहा है। अपने गधे को उसने एक झाड़ से बांध दिया है और लकड़ियां काट रहा है। सर्द सुबह है और बर्फ पड़ रही है। उसके हाथ-पैर ठंडे होने लगे। उसने सोचा, निश्चित, मौत करीब है । कहा था पत्नी ने कि अपने आप पता चल जाएगा। जब हाथ-पैर ठंडे होंगे, अपने आप जान जाओगे कि मरने लगे। फिर उसने सोचा कि मरे हुए आदमी लकड़ियां तो कभी काटते देखे नहीं गए, तो लकड़ी काटना इस वक्त उचित नहीं है। कुल्हाड़ी छोड़कर वह जमीन पर लेट गया । लेटते ही से और ठंडा होने लगा। बर्फ पड़ रही है जोर की। उसने कहा कि निश्चित ही मौत आ गई ! 203 उसे लेटा हुआ और मरा हुआ देखकर दो भेड़ियों ने उसके गधे पर हमला कर दिया, जो उसके पीछे ही झाड़ से बंधा है। मुल्ला ने अपने मन में कहा, कोई हर्ज नहीं, अगर आज मैं जिंदा होता, तो मेरे गधे के साथ ऐसी स्वतंत्रता तुम नहीं ले सकते थे! काश, मैं जिंदा होता ! यू कुडंट हैव टेकेन सच लिबर्टी विद माई ऐस। लेकिन अब कोई बात ही नहीं है, मैं मर ही गया हूं! आदमी अगर अपनी आत्महत्या भी कर रहा है, तो वह ऐसी ही भ्रांति में है कि मैं कर रहा हूं। लेकिन जिंदगीभर करने का हम भ्रम पालते हैं, इसलिए मौत में भी हम पाल सकते हैं। हम जिंदगीभर सोचते हैं, यह मैं कर रहा हूं। यह मैं कर रहा हूं। यह मैं कर रहा हूं! हम तो यहां तक सोचते हैं कि सांस भी मैं ले रहा हूं। जी भी मैं रहा हूं! नहीं, आप सांस भी नहीं ले रहे हैं, जी भी आप नहीं रहे हैं। अगर आप ही सांस लेते होते, तो मौत तो कभी आ ही नहीं सकती। मौत दरवाजे पर आ जाती, आप कहते, अभी मैं सांस लेना बंद नहीं | करता, मैं लेता ही रहूंगा। लेकिन सांस बाहर जाएगी, नहीं लौटेगी, | आप भीतर नहीं ले सकेंगे। जीवन आपसे नहीं चल रहा है, आपकी बहुत गहराई से चल रहा है। जहां से जीवन चल रहा है, वही परमात्मा है; जहां से मौत आती है, वही परमात्मा है। आप सिर्फ बीच की एक लहर हैं। तो कृष्ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि न तू जन्म दे सकता है, न तू मृत्यु दे सकता है। अगर तू इस सत्य को समझ ले, तो फिर तू निमित्त मात्र है। मौत भी हो तेरे द्वारा, तो वह मेरे से ही होगी। और जन्म भी हो तेरे द्वारा, तो भी मेरे से ही होगा। अंततः मैं हूं । तू बीच में एक निमित्त मात्र है। इसलिए बहुत हैरानी की बात है कि गीता ऐसे तो दिखाई पड़ती है कि हिंसा में ले जाती है, लेकिन गीता से परम अहिंसक दृष्टि खोजनी बहुत मुश्किल है। लेकिन वह अहिंसा महावीर की अहिंसा से मेल नहीं खाएगी। वह अहिंसा बुद्ध की अहिंसा से भी मेल नहीं खाएगी। मेरे देखे कृष्ण की अहिंसा, बुद्ध और महावीर की अहिंसा Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 से ज्यादा गहरी जाती है। क्योंकि वह मौलिक हिंसा का जो आधार अहंकार, उसी को तोड़ डालती है। जब एक आदमी यह सोचता है कि मैं अहिंसा कर रहा हूं, तब भी हिंसा होती है; क्योंकि मैं अहिंसा कर रहा हूं, तो भी अहंकार मजबूत होता है। मैं मार रहा हूं तो भी, मैं बचा रहा हूं तो भी। अगर मुझे यह खयाल हो जाए कि मैंने बचाया, तो भी अहंकार वही है । भाषा वही है। कभी-कभी भाषा एक-सी हो, तो भी हमें खयाल नहीं आता। कभी-कभी भाषा अलग हो, तो भी दोनों के भीतर एक ही तत्व हो सकता है। मुल्ला नसरुद्दीन भारत आया था और एक योगी के द्वार पर रुका। थका-मांदा था, सोचा उसने, विश्राम मिल जाए। बड़ा भवन था, विश्रामकक्ष था, योगी के बड़े शिष्य थे। मुल्ला आकर पास बैठा एक मुसलमान फकीर पास आकर बैठा प्रभावशाली व्यक्ति। योगी भी बहुत आनंदित हुआ कि चलो, अब मुसलमान भी मेरे पास आने लगे। थोड़ी देर योगी की बातचीत सुनी, जो शिष्यों से चल रही थी। योगी समझा रहा था जीव-दया । जीव दया की बात समझा रहा था। कह रहा था कि समस्त जीव एक ही परिवार के हैं। समस्त जीवन जुड़ा हुआ है। इसलिए दया ही धर्म है। जब योगी बोल चुका, तो मुल्ला ने भी खड़े होकर कहा कि आप बिलकुल ठीक कहते हैं। एक बार मेरी जाती हुई जान एक मछली ने बचाई थी । योगी तो एकदम हाथ जोड़कर उसके चरणों में बैठ गया। उसने कहा कि धन्य! मैं बीस साल से साधना कर रहा हूं, लेकिन अभी तक मुझे ऐसा प्रत्युत्तर नहीं मिला कि किसी पशु ने मेरी जान बचाई हो। मैंने कई पशुओं की जान बचाई है, लेकिन किसी पशु ने मेरी जान बचाई हो, अब तक ऐसा मेरा भाग्य नहीं है। तुम धन्यभागी हो ! तुम्हारी बात से मेरा सिद्धांत पूरी तरह सिद्ध हो जाता है। तुम रुको यहां, विश्राम करो यहां । . 'तीन दिन मुल्ला नसरुद्दीन की बड़ी सेवा हुई। और तीन दिन योगी की बहुत-सी बातें नसरुद्दीन ने सुनीं। चौथे दिन योगी ने कहा कि अब तुम पूरी घटना बताओ, वह रहस्य, जिसमें एक मछली ने तुम्हारी जान बचा दी थी। नसरुद्दीन ने कहा कि आपकी इतनी बातें सुनने के बाद मैं सोचता हूं कि अब बताने की कोई जरूरत नहीं है। योगी नीचे बैठ गया, नसरुद्दीन के पैर पकड़ लिए और कहा, गुरुदेव, आप बचकर नहीं जा सकते। बताना ही पड़ेगा वह रहस्य, जिसमें एक मछली ने आपकी जान बचाई। नसरुद्दीन ने कहा, अच्छा यह हो कि वह चर्चा अब न छेड़ी जाए। वह विषय छेड़ना ठीक नहीं है। योगी तो बिलकुल सिर रखकर जमीन पर लेट गया। | उसने कहा कि मैं छोडूंगा नहीं गुरुदेव ! वह रहस्य तो मैं जानना ही चाहूंगा। क्या आप मुझे इस योग्य नहीं समझते? नसरुद्दीन ने कहा, नहीं मानते, तो मैं कहे देता हूं। मैं बहुत भूखा था और एक मछली को खाकर मेरी जान बची ! एक मछली ने मेरी जान बचाई ! शब्द एक से हों, इससे भ्रांति में पड़ने की जरूरत नहीं है। एक से शब्दों के भीतर भी बड़े विभिन्न सत्य हो सकते हैं। और कई बार विभिन्न शब्दों के भीतर भी एक ही सत्य होता है; उससे भी भ्रांति में पड़ने की जरूरत नहीं है। शब्दों की खोल को खोजना जरूरी है। हटाकर सदा सत्य महावीर और बुद्ध जिस अहिंसा की बात कहते हैं, वह इतने पर रुक जाती है कि दूसरे को मत मारो। अच्छी है बात। गहरी है बात । धार्मिक है। साधक के लिए बड़ी उपयोगी है । लेकिन कृष्ण एक कदम और आगे जाते हैं। वे कहते हैं, यह मान्यता ही कि तुम मार सकते हो, यह भी हिंसा है। यह मान्यता ही कि तुम मार सकते हो या बचा सकते हो, यह भी हिंसा है। परम अहिंसा तो तब है, जब तुम जानते हो कि मारे तो, बचाए परमात्मा है; मैं बीच में निमित्त से ज्यादा नहीं हूं। तब परम अहिंसा है। अर्जुन, मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे होने वालों | की उत्पत्ति का कारण हूं | तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूं। पहली दफा, इन प्रतीकों में कृष्ण ने स्त्रियों का प्रतीक भी पहली दफा उल्लिखित किया है। स्त्रियों में भी अगर परमात्मा खोजना हो, तो कहां खोजा जा सकेगा? अगर स्त्रियों में भी परमात्मा की झलक पानी हो, तो वह कहां पाई जा सकेगी? कीर्ति में ! और कीर्ति का स्त्री से क्या संबंध है? और कीर्ति क्या है ? स्त्री को जब भी हम देखते हैं, खासकर आज के युग में जब भी स्त्री को हम देखते हैं, तो स्त्री दिखाई नहीं पड़ती, सिर्फ वासना | दिखाई पड़ती है । स्त्री को हम देखते ही हैं एक वासना के विषय की तरह, एक आब्जेक्ट की तरह । स्त्री को हम देखते ही ऐसे हैं, | जैसे बस भोग्य है, उसका कोई अपना अर्थ, अपना कोई अस्तित्व नहीं है। 204 और स्त्री को भी निरंतर एक ही खयाल बना रहता है, वह भोग्य होने का । उसका चलना, उसका उठना, उसका बैठना, उसके Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मैं शाश्वत समय हूं वस्त्र, सब जैसे पुरुष की वासना को उद्दीपित करने के लिए चुने आंखों से, उस सौंदर्य का जो दर्शन है, उसके व्यक्तित्व से, उसकी जाते हैं। चाहे स्त्री को इस बात की सचेतनता भी न हो, इसकी जो छाया और झलक है, जो उसकी वासना पर पानी डाल दे और कांशसनेस भी न हो कि वह जिन कपड़ों को पहनकर रास्ते पर आग बुझ जाए। उसका नाम कीर्ति है। निकली है, वेधक्के खाने का आमंत्रण भी हैं। शायद धक्का खाकर | लेकिन हम जो कीर्ति से मतलब लेते हैं, कहते हैं कि फलां स्त्री वह नाराज भी हो, शायद वह चीख-पुकार भी मचाए, शायद रोष | की इज्जत चली गई, उसमें सब लोग यही सोचते हैं कि इज्जत लेने भी जाहिर करे; लेकिन उसे खयाल न आए कि उस धक्के में उसका | वाला ही जिम्मेवार होगा। पचास परसेंट तो होगा ही। लेकिन सिर्फ भी उतना ही हाथ है, जितना मारने वाले का है। उसके वस्त्र, उसका पचास परसेंट ही होगा। उसमें इज्जत खोने की तैयारी भी है। और ढंग, उसके शरीर को सजाने और भंगार की व्यवस्था अपने लिए सच तो यह है कि जिस स्त्री की इज्जत को खोने के लिए कोई उत्सुक नहीं मालूम पड़ती, किसी और के लिए मालूम पड़ती है। नहीं है, वह बड़ी बेचैन हो जाती है। वह परेशान हो जाती है। उसको ___ इसलिए उसी स्त्री को घर में देखें, उसके पति के सामने, तब | | लगेगा कि वह है ही नहीं, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। उसे देखकर विराग पैदा हो। उसी स्त्री को बीच पर देखें, भीड़ में, | यह बड़े मजे की बात है। आदमी का माइंड इस तरह डबल बाइंड तब उसे देखकर राग पैदा हो। पति इसीलिए तो विरक्त हो जाते हैं। | है, दोहरा बंधा हुआ है। हम खींचते भी हैं, और हटाते भी हैं। हम स्त्रियां जिस रूप में उनको दिखाई पड़ती हैं, कम से कम उनकी | पुकारते भी हैं, और दुत्कारते भी हैं। एक तरफ हम चाहते हैं, लोग स्त्रियां, पड़ोसियों की स्त्रियों में आकर्षण बना रहता है। लेकिन | आकर्षित भी हों। और दूसरी तरफ हम चाहते हैं कि लोग हमें उनकी स्त्रियां जिस रूप में दिखाई पड़ती हैं...। क्योंकि स्त्री भी | वासना का बिंदु भी न मानें! धीरे-धीरे, टेकन फार ग्रांटेड दोनों हो जाते हैं कि ठीक है। लेकिन | | अभी अमेरिका में स्त्रियों के नए आंदोलन हैं, लिब मूवमेंट्स हैं, जब स्त्री भीड़ में निकलती है, तब उसकी सारी की सारी दृष्टि अपने | | जिनमें स्त्रियां कोशिश कर रही हैं कि हमें वासना की वस्तु न समझा को एक कामवासना का विषय मानकर चलती है। और दूसरे पुरुष | जाए। उनका यह आंदोलन भी चलेगा कि उन्हें वासना की वस्तु न भी उसको यही मानकर चलते हैं। समझा जाए, और उनका व्यक्तित्व और उनके रहने का ढंग और कीर्ति का अर्थ है, जिस स्त्री में ऐसी दृष्टि न हो। ऑनर जिसको जीवन, सब वासना की वस्तु ही बनने की चेष्टा होगी। अंग्रेजी में कहते हैं, इज्जत जिसे उर्दू में कहते हैं। कीर्ति का अर्थ है, कीर्ति स्त्री के भीतर उस गुणवत्ता का नाम है, जहां वासना पर ऐसी स्त्री, जो अपने को वासना का विषय मानकर नहीं जीती; | | पानी गिर जाता है। कीर्ति का अर्थ हुआ कि जिस स्त्री के पास जिसके व्यक्तित्व से वासना की झंकार नहीं निकलती। तब स्त्री को | बैठकर आपकी वासना तिरोहित हो जाए। इसलिए हमने मां को एक अनूठा सौंदर्य उपलब्ध होता है। और वह सौंदर्य उसकी कीर्ति | | इतना मूल्य दिया। कीर्ति के कारण मां को हमने इतना मूल्य दिया, है, उसका यश है। आज वैसी स्त्री को खोजना बहुत मुश्किल | मातृत्व को इतना मूल्य दिया। पड़ेगा। बहुत मुश्किल पड़ेगा। पुराने ऋषियों ने आशीर्वाद दिए हैं, बड़े अजीब आशीर्वाद! कीर्ति एक आंतरिक गुण है, एक भीतरी सौंदर्य है। उस सौंदर्य | | नववधू को आशीर्वाद दिया है, पुराने ऋषियों के उल्लेख हैं कि का नाम कीर्ति है, जिसे देखकर वासना शांत हो, उभरे नहीं। आशीर्वाद दिए हैं, कि दस तेरे पुत्र हों और अंत में तेरा पति तेरा यह थोड़ा कठिन मामला है। यह थोड़ा कठिन मामला है। ग्यारहवां पुत्र हो जाए। और जब तक पति भी तेरा पुत्र न हो जाए, लेकिन एक बात हम समझ सकते हैं कि अगर स्त्री वासना को | तब तक तू जानना कि तूने स्त्री की परम गरिमा उपलब्ध नहीं की। उभाड़ सकती है, तो शांत क्यों नहीं कर सकती? जो भी उभाड़ बन ___ पति पुत्र हो जाए! अदालतों में ऐसे मुकदमे हैं, जहां पुत्र पति हो सकता है, वह शांत करने वाला शामक भी बन सकता है। अगर गया है। हर वर्ष दुनिया की अदालतों में ऐसे सैकड़ों मुकदमे होते हैं। स्त्री अपने ढंगों से वासना को उत्तेजित करती है, प्रज्वलित करती | __यह जो पति भी पुत्र हो जाए जिस गुण से, जिस आंतरिक धर्म है, तो अपने ढंगों से उसे शांत भी कर दे सकती है। | से, उसका नाम कीर्ति है। वह जो शांत करने वाला सौंदर्य है, कि दूसरा व्यक्ति वासनातुर | - कृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में मैं कीर्ति। होकर भी आ रहा हो, विक्षिप्त होकर भी आ रहा हो, तो स्त्री की निश्चित ही, बहुत दुर्लभ गुण है; खोजना बहुत मुश्किल है। 205 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-58 अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के जगत में कीर्ति को खोजना | पाजिटिव है, एग्रेसिव है, आक्रामक है, लेकिन स्वेच्छा पर निर्भर है। बिलकुल मुश्किल है। और मंच पर जो अभिनय कर रहे हैं, वे तो | उसका ऊर्वीकरण हो सकता है। लेकिन स्त्री की काम-ऊर्जा का कम अभिनेता हैं; उनकी नकल करने वाला जो बड़ा समाज है ऊर्वीकरण नहीं होता, क्योंकि उसकी स्वेच्छा पर निर्भर नहीं है। इमीटेशन का, वे सड़क पर, चौराहों पर भी अभिनय कर रहे हैं। इसीलिए महावीर ने तो कहा कि स्त्रियां मोक्ष न जा सकेंगी, इस सदी में अगर सर्वाधिक किसी के गुणों को चोट पहुंची हो, क्योंकि महावीर का जोर पूरा ब्रह्मचर्य की साधना पर था। इसलिए तो वह स्त्री है। क्योंकि उसके किन गुणों का मूल्य है, उनकी धारणा महावीर ने स्त्रियों को मोक्ष जाने के लिए नहीं कहा। उन्होंने कहा ही खो गई है। उन गुणों की धारणा ही खो गई है। कीर्ति का हम कि स्त्री को एक बार पुरुष का जन्म लेना पड़ेगा, पुरुष, की पर्याय कभी सोचते भी नहीं होंगे। आप बाप होंगे, आपके घर में लड़की में आना पड़ेगा, फिर वह मुक्त हो सकती है। सीधी स्त्री के शरीर होगी। आपने कभी सोचा भी नहीं होगा कि इस लड़की के जीवन से स्त्री मुक्त नहीं हो सकती है। उसका कुल कारण इतना था कि में कभी कीर्ति का जन्म हो। आपने लड़की को जन्म दे दिया और | महावीर की जो पूरी प्रक्रिया थी, वह पुरुष के ब्रह्मचर्य की थी। आप अगर उसमें कीर्ति का जन्म नहीं दे पाए, तो आप बाप नहीं हैं, | लेकिन कीर्ति की साधना अलग है, वह ठीक ब्रह्मचर्य के जैसी सिर्फ एक मशीन हैं उत्पादन की। है। अगर कोई स्त्री कीर्ति को उपलब्ध हो जाए, तो पुरुष के शरीर लेकिन कीर्ति बड़ी कठिन बात है। और गहरी साधना से ही | की कोई भी जरूरत नहीं है। स्त्री के शरीर से ही मोक्ष उपलब्ध हो उपलब्ध हो सकती है। जब किसी पुरुष में वासना तिरोहित होती है, | जाएगा। लेकिन कीर्ति की प्रक्रिया बिलकुल और होगी। . तो ब्रह्मचर्य फलित होता है। और जब किसी स्त्री में वासना तिरोहित | कीर्ति की प्रक्रिया का अर्थ है कि स्त्री के मन में जितनी तीव्रता से होती है, तो कीर्ति फलित होती है। कीर्ति काउंटर पार्ट है। स्त्री में मातृत्व का भाव गहन हो जाए। उसकी साधना मां की साधना होगी। कीर्ति का फल लगता है, फूल लगता है, जैसे पुरुष में ब्रह्मचर्य का | वह पूरे जगत की मां हो जाए। उसके मन में एक ही भाव तरंगित फूल लगता है। होता रहे, मां होने का। स्त्री होने का भाव छूट जाए, पत्नी होने का स्त्री में ठीक पुरुष जैसा ब्रह्मचर्य फलित नहीं हो सकता। कारण | | भाव छूट जाए, सिर्फ मां होने का भाव गहन होता चला जाए। जिस हैं उसके। अगर पुरुष ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो, तो उसकी सारी | दिन स्त्री के भीतर मां होने की धारणा इतनी गहन हो जाए कि अगर वीर्य-ऊर्जा आत्मसात होने लगती है। लेकिन स्त्री की जो | कोई कामातुर पुरुष भी उसके पास आकर उसके हृदय से लग जाए, काम-ऊर्जा है, वह अनिवार्य रूप से उसके मासिक धर्म में स्खलित | तो भी उसे अपने बेटे का ही स्मरण हो। वह उसके सिर पर वैसा ही होती रहेगी। वह यंत्रवत है। इसलिए स्त्री की काम-ऊर्जा उस तरह हाथ रख सके, जैसे बेटा उसके पास आ गया हो। उसके भीतर न से अंतस में तिरोहित नहीं हो सकती, जैसे पुरुष की काम-ऊर्जा | कोई भय पैदा हो, न कोई चिंता पैदा हो, न कोई घबड़ाहट पैदा हो; तिरोहित हो सकती है। | वह उसको बेटे की तरह छाती से लगा ले। ' पुरुष की काम-ऊर्जा जब अंतस में तिरोहित हो जाती है, तो तेज | | और यह अदभुत बात है कि अगर कोई भी स्त्री किसी पुरुष को पैदा होता है। वही तेज ब्रह्मचर्य है। स्त्री की व्यवस्था अन्यथा है बेटे की तरह छाती से लगा ले, पुरुष की वासना तत्क्षण वहीं क्षीण शरीर की। बायोलाजिकली उसकी शरीर की व्यवस्था अलग है। | हो जाएगी। वहीं, उसी वक्त क्षीण हो जाएगी। क्योंकि स्त्री का जो मासिक धर्म उसकी स्वेच्छा का हिस्सा नहीं है। आमंत्रक रूप है, वह अगर खो जाए, तो पुरुष तत्काल पाएगा कि इसे थोड़ा समझ लें। | वह शांत हो गया है। पुरुष की वीर्यशक्ति उसकी स्वेच्छा पर निर्भर है। स्त्री की इस गुण का नाम कीर्ति है। और जब यह गुण विकसित होता है, कामशक्ति उसकी स्वेच्छा पर निर्भर नहीं है। वह स्वेच्छा से उसमें तो स्त्री पर भी एक तेज आता है। उस पर भी एक अनूठा सौंदर्य कुछ भी नहीं कर सकती। वह उसके शरीर का हिस्सा है। इसलिए | आता है। उस सौंदर्य का कोई संबंध शरीर के सौंदर्य से नहीं है। स्त्री को जब ब्रह्मचर्य में उतरना हो, तो उसकी ब्रह्मचर्य की साधना | कुरूप से कुरूप स्त्री में भी अगर कीर्ति फलित हो जाए, तो पुरुष की ब्रह्मचर्य की साधना से भिन्न होगी। पुरुष के ब्रह्मचर्य की | | उसकी सारी शारीरिक कुरूपता के भीतर से सौंदर्य की आभा फूटने साधना में वीर्य का ऊर्वीकरण होगा। पुरुष की जो ऊर्जा है, वह लगती है। उसकी कुरूपता को लोग देख ही न पाएंगे, उसके भीतर 206 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं शाश्वत समय हूं का सौंदर्य इतना हावी हो जाएगा। और सुंदरतम स्त्री को भी, अगर कीर्ति न हो, तो उसकी सुंदरता ऊपर चमड़ी पर होती है। और थोड़ी ही देर में भीतर की कुरूपता दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। इसलिए आज अगर पश्चिम में स्त्री-पुरुष के बीच के सारे संबंध टूट गए हैं, दिन दो दिन से ज्यादा नहीं टिक सकते। महीने दो महीने टिक जाएं, तो काफी लंबे हैं। साल दो साल टिक जाएं, तो मानना चाहिए कि महान घटना है। उसका कारण सिर्फ इतना ही है कि सौंदर्य एकदम छिछला है। और पश्चिम में आज सुंदरतम स्त्रियां हैं, संभवतः पृथ्वी पर सर्वाधिक सुंदर स्त्रियां हैं। लेकिन सौंदर्य छिछला है। स्किनडीप! जितनी चमड़ी की गहराई है, उतनी ही सौंदर्य की गहराई है। और जैसे कोई व्यक्ति करीब आता है, थोड़े दिन में ही चमड़ी के सौंदर्य के पार जो विराट कुरूपता छिपी है, वह दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। वही सारे संबंधों को क्षीण कर जाती है और तोड़ जाती है। कृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति... । श्री भी स्त्रैण गुण है, जैसे कीर्ति । कीर्ति एक साधना है। और जब कीर्ति फलित होती है, और जब कीर्ति में फूल लगते हैं, और जब कीर्ति घनी होती है, और जब कीर्ति केवल मातृत्व नहीं रह जाती, बल्कि जब स्त्री को यह बोध भी मिट जाता है कि मैं स्त्री हूं... क्योंकि मां का बोध भी स्त्री का ही बोध है। और कितना ही ऊंचा हो, मां होकर भी स्त्री स्त्री तो बनी ही रहती है। लेकिन जब कभी ऐसी घटना घटती है, कीर्ति के आगे के कदम पर जब कि स्त्री को यह बोध भी नहीं रह जाता कि वह स्त्री है, तब उसमें श्री का फूल खिलता है। तब उसमें एक सौंदर्य आता है। उस सौंदर्य को हम अपार्थिव कह सकते हैं। वह कभी किसी मीरा में दिखाई पड़ता है। कभी किसी मरियम में वह दिखाई पड़ता है। बहुत मुश्किल से ! श्री कृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में श्री मैं हूं। लेकिन जब कभी वह फूल खिलता है— मुश्किल से खिलता है - लेकिन जब कभी वह फूल खिलता है, तो स्त्री स्त्री नहीं होती। पुरुष के प्रति पुरुष होने का जो खयाल है, वह भी खो जाता है। और जिन मुल्कों ने इस श्री को उपलब्ध करने की क्षमता पा ली थी, न मुल्कों ने अपने ईश्वर की धारणा स्त्री के रूप में की मां के रूप में की। जिन मुल्कों में स्त्रियों की साधना इस जगह तक पहुंची कि इस आंतरिक, आत्मिक श्री को उपलब्ध हो गई, उन मुल्कों ने अपने परमात्मा की जो धारणा है, वह पुरुष के रूप में नहीं की है। इसे हम समझें थोड़ा। जर्मनी अपने मुल्क को फादरलैंड कहता है, पितृभूमि ! हम | अपने मुल्क को मातृभूमि कहते हैं, मदरलैंड कहते हैं। जर्मनी ने | कभी भी श्री जैसी घटना नहीं देखी। उसने पुरुषों का बड़ा विकास | देखा है। पुरुष के जो गुण हैं, जर्मनी में अपने चरम शिखर को पहुंचे हैं। इसलिए जर्मनी का अपने मुल्क को फादरलैंड कहना ठीक है। पितृभूमि ! स्त्री गौण है, उसने कभी वैसी चरम स्थिति नहीं पाई। पश्चिम में पुरुष के गुणों ने बड़ी गहनता से विकास किया । लेकिन पूरब ने स्त्री के गुणों को बड़ी गहनता से विकसित किया। और मजे की बात यह है कि पुरुष के गुण विकसित हो जाएं, तो अंतिम परिणाम युद्ध होगा, क्योंकि पुरुष के सारे गुण योद्धा के गुण हैं। और पुरुष का जो परम ऐश्वर्य है, वह उसके योद्धा होने में प्रकट होता है। फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है कि जब मैं रास्ते पर सैनिकों को चलते देखता हूं, पंक्तिबद्ध, उनके जूतों की एक स्वर से गिरती आवाज, एक लय में बंधी, उनकी संगीनों पर चमकती हुई सूरज की किरणें, | उनकी पंक्तिबद्ध संगीनों पर पड़ती सूरज की झलक, तब जैसे | सौंदर्य का मैं अनुभव करता हूं, ऐसा सौंदर्य मैंने कोई और दूसरा नहीं देखा । पुरुष के गुण अगर विकसित होंगे, तो वे ऐसे ही होंगे। अभी पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने कहना शुरू किया है कि हमें पुरुष के गुणों के साथ स्त्री के गुणों को भी विकसित करना जरूरी | है। नहीं तो संतुलन टूट गया है। पूरब स्त्री के गुणों बड़ी गहराई से परखा और विकसित किया। और मैं मानता हूं कि अगर दोनों में चुनाव करना हो, तो स्त्री के गुण ही विकसित करने चाहिए, क्योंकि सब पुरुषों को स्त्री से ही पैदा होना पड़ता है । और अगर स्त्री अविकसित हो, तो पुरुष कभी विकसित नहीं हो पाते। और सब पुरुषों को स्त्री के पास ही बड़ा होना पड़ता है। पुरुष की जिंदगी स्त्री के आस-पास ही व्यतीत होती है— चाहे वह मां हो, चाहे वह पत्नी हो, चाहे वह बहन हो, चाहे बेटी हो - स्त्री के इर्द-गिर्द घूमती है। स्त्री केंद्र है, पुरुष परिधि है; वह आस-पास वर्तुलाकार घूमता है। अगर स्त्री के गुण विकसित न हों, तो समाज बहुत दीन हो जाता है। श्री जो है, स्त्री का चरम उत्कर्ष है। वह उसकी आत्मा है। जब | उसमें स्त्रैणता का भाव भी चला जाता है, तब वह दिव्य हो जाती है। कृष्ण कहते हैं, वह मैं हूं । वाक्, वाणी ! स्त्रियों को हम बहुत बातचीत करते देखते ही हैं। शायद बातचीत ही उनका धंधा है। लेकिन वाक् से इस बातचीत 207 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 का मतलब नहीं है। यह विकृति है स्त्री के गुण की, जो दिखाई पड़ती है। स्त्रियां चुप बैठी दिखाई पड़ें, यह मिरेकल है, चमत्कार है। मैंने सुना है कि लंदन में एक बार एक प्रतियोगिता हुई कि कोई सबसे बड़ी झूठ बोले । उस आदमी को प्रथम पुरस्कार मिला, जिसने कहा, एक बगीचे की बेंच पर दो स्त्रियों को घंटेभर तक चुप बैठे देखा ! कहते हैं, उसे पहला पुरस्कार मिल गया झूठ बोलने का। यह हो ही नहीं सकता। इसके होने का कोई उपाय ही नहीं है। स्त्रियां बातचीत में लगी हैं ! लेकिन वाक् बातचीत नहीं है । वाक् तो तब प्रकट होता है, जब स्त्री अपने अस्तित्व में परम मौन को उपलब्ध होती है। जब वह बिलकुल मौन हो जाती है, तब उसकी जो वाणी है, वह बहुमूल्य हो जाती है। तब उसकी वाणी ऋचाएं बन जाती हैं। लेकिन जो स्त्री मौन नहीं हो सकती, वह कभी वाक् को उपलब्ध नहीं होगी। इसलिए स्त्री का गुण उसका चुप होना, उसका मौन होना है। उसका इतना मौन होना है कि पता चले कि जैसे उसके पास वाणी ही नहीं है। स्त्री में सब अच्छा लगता है, लेकिन उसकी बातचीत बिलकुल बकवास और उबाने वाली होती है। सुंदर से सुंदर स्त्री थोड़ी देर में बहुत घबड़ाने वाली हो जाती है, अगर वह बातचीत करती चली जाए। मौन की एक गरिमा है। असल में शब्द भी आक्रमण है। शब्द भी दूसरे पर हमला है। मौन अनाक्रमण है। सुना है मैंने, वाचस्पति विवाह करके आए। पर वे तो धुनी आदमी थे और बारह वर्षों तक वे तो भूल ही गए कि पत्नी घर में है। कथा बड़ी मीठी है। वाचस्पति लिख रहे थे ब्रह्मसूत्र पर अपनी टीका। वे सुबह से सांझ और रात, आधी रात तक टीका लिखने में लगे रहते। पत्नी को घर ले आए। पिता ने कहा, शादी करनी है। पिता बूढ़े थे। सुखी होते थे। शादी करके घर आ गए। पत्नी घर में चली गई। वाचस्पति अपनी टीका लिखने में लग गए। बारह वर्ष ! उन्हें खयाल ही न रहा, वह जो शादी हो गई, और पत्नी घर में गई। वह सब बात समाप्त हो गई। आ + लेकिन उन्होंने एक निर्णय किया था कि जिस दिन यह ब्रह्मसूत्र की टीका पूरी हो जाएगी, उस दिन मैं संन्यास ले लूंगा । बारह वर्ष बाद आधी रात टीका पूरी हो गई। अचानक वाचस्पति की आंखें पहली दफा टीका को छोड़कर इधर-उधर गईं। देखा कि एक सुंदर - सा हाथ पीछे से आकर दीए की ज्योति को ऊंचा कर रहा है। सोने की चूड़ियां हैं हाथ पर। लौटकर उन्होंने देखा, और कहा, कोई स्त्री इस आधी रात में मेरे पीछे! पूछा, तू कौन है? स्त्री ने कहा कि धन्य भाग्य कि आपने पूछा। बारह वर्ष पहले मुझे आप विवाह करके ले आए थे, तब से मैं प्रतीक्षा कर रही हूं कि कभी आप जरूर पूछेंगे कि तू कौन है ! पर इतनी देर तू कहां थी? उसने कहा कि मैं रोज आती थी। जब दीए की लौ कम होती, तब बढ़ा जाती थी। दीया सांझ जला जाती थी, सुबह हटा लेती थी। आपके काम में बाधा न पड़े, इसलिए आपके | सामने कभी नहीं आई। आपके काम में रंचमात्र बाधा न पड़े, | इसलिए कभी मैंने कोशिश नहीं की कि बताऊं मैं भी हूं। मैं थी, और आप अपने काम में थे । वाचस्पति की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा, अब तो बहुत देर हो गई। क्योंकि मैंने तो निर्णय किया है कि जिस दिन जिस क्षण टीका पूरी हो जाएगी, उसी क्षण घर छोड़कर संन्यासी हो जाऊंगा। अब मैं तेरे लिए क्या कर सकता हूं! तूने बारह वर्ष प्रतीक्षा की और आज की रात मेरे जाने का वक्त है! अब मैं उठकर बस घर के बाहर होने को हूं। अब मैं तेरे लिए क्या कर सकता हूं? वाचस्पति की आंख में आंसू... । उनकी स्त्री का नाम भामती था। इसलिए उन्होंने अपनी ब्रह्मसूत्र की टीका का नाम भामती रखा है। भामती से कोई संबंध नहीं है। | उनकी ब्रह्मसूत्र की टीका का नाम भामती से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन अपनी टीका का नाम उन्होंने भामती रखा है। बड़ी अदभुत टीका है। वाचस्पति अदभुत आदमी थे। कहा कि बस, तेरी स्मृति में भामती इसका नाम रख देता हूं और घर से चला जाता हूं। लेकिन तू दुखी होगी। उनकी पत्नी ने कहा, दुखी नहीं, मुझसे ज्यादा धन्यभागी और कोई भी नहीं। इतना क्या कम है कि आपकी आंखों | में मेरे लिए आंसू आ गए! मेरा जीवन कृतार्थ हो गया। इतनी ही बात वाचस्पति की अपनी स्त्री से हुई है। लेकिन यह बारह साल के मौन के बाद ये जो थोड़े से शब्द हैं, इनको हम वाणी कह सकते हैं, वाक् कह सकते हैं। स्त्री के परम मौन से जब कुछ निकलता है! लेकिन उसका परम मौन होना बड़ा मुश्किल है। कृष्ण कहते हैं, मैं वाक् हूं, स्मृति हूं, मेधा हूं, धृति हूं, क्षमा हूं। स्मृति । पुरुष के पास एक तरह की स्मृति होती है, स्त्री के पास दूसरे तरह की । शायद मनोवैज्ञानिक राजी भी न हों। क्योंकि वे कहें, एक ही तरह की स्मृति होती है। नहीं होती है। स्त्री-पुरुष के पास एक तरह का कुछ भी नहीं 208 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मैं शाश्वत समय हूं होता। पुरुष की स्मृति बौद्धिक होती है, स्त्री की स्मृति अस्तित्वगत | पड़ता। पिता का अस्तित्वगत संबंध नहीं है। मेरा बेटा है, यह एक होती है, टोटल होती है। बौद्धिक स्मृति है। और कल अगर एक चिट्ठी मिल जाए, जिससे अगर पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करता है, तो उसके स्मरण में पता चले कि नहीं, किसी और का बेटा है, तो पिता का सारा संबंध इतना ही रह जाता है कि मैंने प्रेम किया था। यह एक स्मृति होती टूट जाएगा, विलीन हो जाएगा। वह संबंध गणित का है, हिसाब है. मेंटल. मन में। लेकिन स्त्री ने अगर किसी को प्रेम किया है. तो | | का है। बहुत गहरा और आंतरिक नहीं है। उसके रोएं-रोएं और कण-कण में यह स्मृति समा जाती है। उसके ___ इसलिए कोई पुरुष अगर पिता न भी बने, तो कोई भेद नहीं पूरे व्यक्तित्व में रम जाती है, भर जाती है। और जब स्त्री याद करती | पड़ता। कोई भेद नहीं पड़ता; व्यक्तित्व में कोई कमी नहीं आती। है कि किसी ने मुझे प्रेम किया, किसी को उसने प्रेम किया, तो यह इसलिए पुरुष की उत्सुकता पिता बनने की कम और पति बनने की बौद्धिक बात नहीं होती, इसमें पूरा अस्तित्व समाहित होता है! वह | ज्यादा होती है। स्त्री की उत्सुकता भी अगर पत्नी बनने की हो, तो पूरी की पूरी इसमें मौजूद होती है। | उसे स्त्री होने का रहस्य पता नहीं है। इसलिए पुरुष चाहें, तो बहुत स्त्रियों को भी प्रेम कर सकते हैं; | स्त्री की उत्सुकता मौलिक रूप से मां बनने की है। अगर वह स्त्रियों के लिए बहुत पुरुषों को प्रेम करना स्वभावतः कठिन और | पति को भी स्वीकार करती है, तो मां बनने के मार्ग पर। और अगर असंभव है। कोई पुरुष पिता बनना भी स्वीकार करता है, तो पति की मजबूरी । 'पुरुष के लिए सभी घटनाएं बुद्धि में हैं। बुद्धि एक हिस्सा है।। | में। कोई उत्सुकता पुरुष को पिता बनने की वैसी नहीं है। और अगर स्त्री के लिए सारी घटनाएं उसके पूरे व्यक्तित्व में हैं। उसका कभी रही भी है, तो उसके कारण अवांतर रहे हैं। जैसे धन है, रोआं-रोआं इकट्ठा है। संपत्ति है, जायदाद किसकी होगी! क्या नहीं होगा! बेटा चाहिए, मनसविद इतना तो मानते हैं कि पुरुष की कामवासना उसके | तो यह सब सम्हालेगा। या क्रियाकांड और धर्म के कारण, कि -केंद्र में निहित होती है. लेकिन स्त्री की कामवासना उसके परे। अगर पिता मर जाएगा और बेटा नहीं होगा. तो अंतिम क्रिया कौन शरीर में फैली होती है। स्त्री का पूरा शरीर इरोटिक है, पूरा शरीर। | करेगा? और फिर पानी कौन चढ़ाएगा? लेकिन ये सब गणित के और उसकी सारी स्मृति पूरी है। उसकी स्मृति में बौद्धिक स्मरण, संबंध हैं। इन सबमें हिसाब है। ये परपजिव हैं। ऐसा नहीं है। मां का संबंध उसके बेटे से नान-परपजिव है, निष्प्रयोजन है। और जो स्मृति पूरी हो इतनी, उसका गुण ही दूसरा हो जाता है। वह उसके ही अस्तित्व का फैलाव है। अगर बेटा मरता हो, तो मां उसका आयाम, उसका अर्थ, अभिप्राय दूसरा हो जाता है। का हृदय पीड़ित हो जाता है, दुखी हो जाता है, चिंतित हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, मैं स्त्रियों में स्मृति हूं। समग्रता की, इंटिग्रेटेड, और मनुष्यों में ही नहीं, अभी पशुओं पर भी प्रयोग किए हैं रूस पूरी, पूर्ण। स्त्री याद करती है, बुद्धि से नहीं, विचार से नहीं, अपने | | में उन्होंने। खरगोश को काटते हैं और उसकी मां मीलों दूर है और पूरे होने से, टोटल बीइंग। | उसके हृदय में असर पड़ते हैं। उसकी हृदय-गति बढ़ जाती है। वह इसलिए एक पिता है और एक मां है। पिता एक बिलकुल | कंपने लगती है। उसकी आंख में आंसू आ जाते हैं। यंत्रों से अब औपचारिक संस्था मालूम होती है। न भी हो, चल सकता है। तो इसकी परीक्षा हो चुकी है कि पशुओं की मां भी किसी अज्ञात पशुओं में नहीं भी होती है, तो भी चलता है। लेकिन मां एक मार्ग से प्रभावित होती है। कोई इतनी गहरी स्मृति है, जिसको हम औपचारिक संस्था नहीं है। मां और बेटे का संबंध एक स्मृति मात्र | | बायोलाजिकल कहें, साइकोलाजिकल नहीं; जिसको हम मानसिक नहीं है बुद्धि की; एक सारे अस्तित्व का लेन-देन है। मां के लिए | न कहें. बल्कि कहें कि जैविक: उसके रोएं-रोएं में भरी हुई है। उसका बेटा, उसका ही टुकड़ा है, उसका ही फैला हुआ हाथ है। | कृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में मैं स्मृति हूं। अगर एक बेटे की हत्या कर दी जाए और मां को पता भी न हो, कारण से कहते हैं। अगर कोई व्यक्ति ऐसी ही स्मृति से परमात्मा तो भी मां के प्राण आंदोलित हो जाते हैं। अब तो इस पर बड़े | की तरफ भर जाए, तो ही उसे उपलब्ध होता है; ऐसी अस्तित्वगत वैज्ञानिक परीक्षण हुए हैं। एक सैनिक मरता है युद्ध में और उसकी | | स्मृति से। ऐसा खोपड़ी में राम-राम कहने से कुछ भी नहीं होता। मां बेचैन हो जाती है हजारों मील दूर। पिता पर कोई असर नहीं | | जब रोआ-रोआं कहने लगे, धड़कन-धड़कन कहने लगे। कहना 209] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 ही न पड़े और सबमें गूंजने लगे भीतर, कहने की जरूरत ही न रह | इसलिए आपको पता है कि स्त्रियों की उम्र पुरुषों से पांच साल जाए. होना ही उसका स्मरण बन जाए. तब, तब परमात्मा उपलब्ध ज्यादा है। औसत उम्र। स्त्रियां कम बीमार पड़ती हैं, पुरुषों की होता है। बजाय। और अगर बीमार भी पड़ती हैं, तो उसका कारण शारीरिक मेधा, धृति, क्षमा। कम और मानसिक ज्यादा होता है। स्त्रियों की बीमारी को रेसिस्ट धृति का अर्थ है, धीरज, धैर्य, स्थिरता। पुरुष बहुत अधीर है। करने की क्षमता मेडिकली सिद्ध हो गई है कि बहुत ज्यादा है। बहुत अधीर है। शायद बायोलाजिकल कारण भी है। शायद उसकी स्त्रियां कई बीमारियों को बिना तकलीफ के पार हो जाती हैं, जो वीर्य-ऊर्जा है, वह भी अधीर है। इसलिए उसका पूरा व्यक्तित्व बीमारियां प्रवेश नहीं कर सकती हैं। पुरुष बहुत जल्दी से बीमार हो अधीर है। स्त्री शांत है, थिर है, धैर्य से भरी है। जाता है। उसकी मस्कुलर ताकत ज्यादा है। __ अभी तक हम सोचते रहे थे ऐसा कि पुरुष शक्तिशाली है। एक लेकिन मस्कुलर ताकत का तो वक्त भी गया। इसलिए आने हिसाब से है। मस्कुलर, पेशीगत उसकी सामर्थ्य ज्यादा है। अगर वाली दुनिया में स्त्री रोज ताकतवर होती जाएगी। सौ साल के लड़ने जाए, तो स्त्री से ज्यादा शक्तिशाली है। लेकिन यह तो भीतर...। क्योंकि मस्कुलर ताकत का वक्त गया। न तो अब शेर मापदंड की बात हुई, एक क्राइटेरियन की बात हुई। किसी और से लड़ने जाना पड़ता है, न लकड़ी काटने जाना पड़ता है। वह सब हिसाब से स्त्री पुरुष से ज्यादा शक्तिशाली है। काम तो मशीन करने लगी। पुरुष के जितने काम थे, मशीन करने जहां तक थिरता का सवाल है, जहां तक सहने का सवाल है, लगी। और स्त्री का कोई भी काम अभी तक मशीन करने में समर्थ सहनशीलता का सवाल है, धैर्य का सवाल है...। आपको पता नहीं है। नहीं होगा, आपको खयाल नहीं होगा कि नौ महीने एक मां अपने | आने वाले सौ साल में स्त्री आपके ऊपर उठती जाएगी। उसकी बेटे को अपने पेट में ढोती है। एक पुरुष को नौ दिन भी ढोना पड़े, | ताकत बड़ी होती जाएगी। होती ही जाएगी। क्योंकि आपका काम तो उसे पता चले! अगर पुरुष को गर्भ ढोना पड़े, तो गर्भपात नियम | | तो, आप एक अर्थ में अब बेकार हैं। अगर आटोमेटिक पूरा जगत हो जाए। फिर बच्चे को मां बड़ा करती है। एक रात जरा छोटे बच्चे | हो जाता है सौ वर्षों में, तो पुरुष बेकार है। उसके बिना काम चल को अपने बिस्तर पर सुलाकर देखें, तब आपको पता चलेगा कि सकेगा। स्त्री बेकार अभी नहीं हो सकती। उसके कुछ और ही गुण वह आपको पागल कर देगा। हैं, जो अनिवार्य हैं। सना है मैंने. मल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को लेकर एक दिन कष्ण कहते हैं. धति मैं हं. क्षमा मैं हं। बच्चों को घुमाने की गाड़ी में लेकर निकला है। बच्चा रो रहा है। स्त्री के व्यक्तित्व में जिस मात्रा में प्रेम है, उसी मात्रा में क्षमा है। और नसरुद्दीन बार-बार कहता है, नसरुद्दीन, शांत हो जा! | जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतनी क्षमा होगी। जितना ज्यादा धैर्य नसरुद्दीन, शांत हो जा! नसरुद्दीन, शांत हो जा! एक बूढ़ी औरत होगा, उतनी क्षमा होगी। और जितना ज्यादा मातृत्व होगा, उतनी नसरुद्दीन की तकलीफ देखती है। सोचती है कि उसका बेटा, क्षमा होनी ही चाहिए। पुरुष को क्षमा अभ्यास करनी पड़ती है। स्त्री जिसका नाम नसरुद्दीन होगा, रो रहा है, इसलिए उसको शांत कर की क्षमा सहज घटित होती है। वह उसका स्वभाव है। रहा है! लेकिन अब तक ऐसा हुआ कि मनुष्य-जाति ने पुरुषों को केंद्र वह बूढ़ी आकर कहती है कि बेटा तो बड़ा प्यारा है। इसका नाम | मानकर काम चलाया। इसलिए हम कहते हैं मनुष्य-जाति, इसलिए नसरुद्दीन है? नसरुद्दीन ने कहा, इसका नाम नहीं है नसरुद्दीन। | हम कहते हैं मैनकाइंड, सब पुरुष के नाम हैं। सब पुरुष के नाम नसरुद्दीन मेरा नाम है। और में अपने से कह रहा हूं, शांत हो जा, हैं! स्त्री को हम पुरुष में सम्मिलित कर लेते हैं। शांत हो जा। मन तो इसकी गर्दन दबाने का हो रहा है! नसरुद्दीन, | लेकिन वह भूल हो गई। स्त्री का अपना व्यक्तित्व है, पुरुष से शांत हो जा। यह मेरी खोपड़ी खाए जा रहा है! | बिलकुल अलग। और जब तक इस पृथ्वी पर स्त्री के व्यक्तित्व के स्त्री का धैर्य एक अर्थ में अनंत है। उसकी सहने की क्षमता | | जिन गुणों की कृष्ण ने यहां बात की है, वे भी सारे विकसित नहीं भी बहुत है। आप जिस तकलीफ में टिक न सकेंगे, उसमें स्त्री | हो जाते, तब तक दुनिया एक इम्बैलेंस, एक असंतुलन में रहेगी। टिकती है। पुरुष का पलड़ा बहुत भारी होकर नीचे बैठ गया है। और स्त्री के |210 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मैं शाश्वत समय हूं 8 गुण विकसित नहीं हो पाए हैं। ने कहा, माफ करिए। आप फिर भूल कर रहे हैं, मैं उसकी मां हूं! और अब एक दुर्घटना घट रही है दुनिया में कि स्त्रियां इस लंबी स्त्रियां कपड़े पुरुषों जैसा पहनें, चलें पुरुषों जैसा, उठे पुरुषों परेशानी से पीड़ित होकर एक प्रतिक्रिया में उतर रही हैं और वे जैसा, पुरुष का व्यवसाय करें, पुरुष के ढंग से जीएं, पुरुष सिगरेट कोशिश कर रही हैं परुषों जैसा हो जाने की। वह बड़ी से बड़ी पीएं तो वे सिगरेट पीएं, पुरुष गालिया बके ता दुर्घटना है, जो मनुष्य-जाति के ऊपर घट सकती है। स्त्रियां | | अमेरिका में स्त्रियां उन अपशब्दों का प्रयोग कर रही हैं, जिनका कोशिश कर रही हैं पुरुष जैसा हो जाने की—कपड़े-लत्तों से, | | कभी भी स्त्रियों ने नहीं किया था। लेकिन अगर पुरुष के बराबर व्यक्तित्व से, ढंग से, बात से। जो-जो व्यवस्था पुरुष को है, | समानता चाहिए, तो करना ही पड़ेगा। जो पुरुष कर रहा है, वही वही-वही उनको भी होनी चाहिए। करना पड़ेगा। भूल है उसमें, क्योंकि स्त्री का व्यक्तित्व बुनियादी रूप से तो जो पुरुष के अत्याचार से भी नहीं मिटा था, वह उनकी अलग है। उसे भी हक होना चाहिए खुद के विकसित करने का, | नासमझी से बिलकुल मिट जाएगा। स्त्रियों के गुण अलग हैं। उतना ही जितना पुरुष को है। लेकिन पुरुष जैसा विकसित होने का इसलिए कृष्ण ने उचित ही किया कि स्त्रियों के गुण अलग से हक बहुत महंगा सौदा है। और अगर स्त्रियां पुरुष जैसी होती हैं, | | गिनाए और कहा कि अगर मुझे तुझे स्त्रियों में खोजना हो तो तू तो हम इस दुनिया को बिलकुल बेरौनक कर देंगे। कुछ गुण एकदम | | कीर्ति में, श्री में, वाक् में, स्मृति में, मेधा में, धृति में और क्षमा में खो जाएंगे, जो स्त्रियों के ही हो सकते थे। मुझे देख लेना। __ आज पश्चिम में कीर्ति नहीं हो सकती स्त्रियों में। श्री नहीं हो | __ अर्जुन ने पूछा है कि किन भावों में मैं आपको देखू? कहां सकती। क्षमा नहीं हो सकती। धृति नहीं हो सकती। जिस स्मृति की | | आपको खोजूं? कहां आपके दर्शन होंगे? तो स्त्रियों में अगर मैंने बात कही. वैसी समग्र स्मति नहीं हो सकती। क्योंकि वह हर देखना हो, तो इनमें खोज लेना। मामले में पुरुष के साथ, जैसा पुरुष है, वैसा करने की कोशिश में | तथा मैं गायन करने योग्य श्रुतियों में बृहत्साम, छंदों में गायत्री लगी है। | छंद तथा महीनों में मार्गशीर्ष का महीना, ऋतुओं में वसंत ऋतु हूं। इसमें नुकसान पुरुष को होने वाला नहीं है। इसमें नुकसान स्त्री अंतिम, वसंत ऋतु पर दो शब्द हम खयाल में ले लें। को ही हो जाएगा। क्योंकि वह नंबर दो की ही पुरुष हो सकती है। ऋतुओं में खिला हुआ, फूलों से लदा हुआ, उत्सव का क्षण पुरुष तो हो नहीं सकती; सेकेंडरी, नंबर दो की पुरुष हो सकती है। वसंत है। परमात्मा को रूखे-सूखे, मृत, मुर्दा घरों में मत खोजना। और नंबर दो की पुरुष होकर वह एकदम कुरूप और विकृत हो | जहां जीवन उत्सव मनाता हो, जहां जीवन खिलता हो वसंत जैसा, जाएगी। जहां सब बीज अंकुरित होकर फूल बन जाते हों, उत्सव में, वसंत सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन एक भीड़ में खड़ा है। टिकट | में मैं हैं। खरीदने लोग खड़े हैं एक क्यू में सिनेमागृह के पास। सामने के | ईश्वर सिर्फ उन्हीं को उपलब्ध होता है, जो जीवन के उत्सव में, व्यक्ति से, बड़ी देर हो गई है, वह कुछ बात करना चाहता है। उसने | | जीवन के रस में, जीवन के छंद में, उसके संगीत में, उसे देखने की कहा कि देखते हैं, कैसा जमाना बिगड़ गया! सामने देखते हैं उस क्षमता जुटा पाते हैं। उदास, रोते हुए, भागे हुए लोग, मुर्दा हो गए लड़के को, जो खिड़की के करीब पहुंच गया। लड़कियों जैसे कपड़े | लोग, उसे नहीं देख पाते। पतझड़ में उसे देखना बहुत मुश्किल है। पहन रखे हैं। मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोसी व्यक्ति ने कहा, क्षमा करें, | | मौजूद तो वह वहां भी है। लेकिन जो वसंत में भी उसे नहीं देख पाते, आप भूल में हैं। वह लड़का नहीं है, लड़की ही है। नसरुद्दीन ने वे पतझड़ में उसे कैसे देख पाएंगे? वसंत में जो देख पाते हैं, वे तो कहा कि तुम्हारे पास क्या मापदंड है इतनी दूर से! मुझे बिलकुल उसे पतझड़ में भी देख लेंगे। फिर तो पतझड़ पतझड़ नहीं मालूम लड़का मालूम होता है! उसने कहा, क्षमा करिए। वह मेरी ही | | पड़ेगी; वसंत का ही विश्राम होगा। फिर तो पतझड़ वसंत के विपरीत लड़की है। लड़की है, लड़का नहीं; मेरी ही लड़की है। तब तो | | भी नहीं मालूम पड़ेगी; वसंत का आगमन या वसंत का जाना होगा। नसरुद्दीन ने कहा कि क्षमा करिए। मुझसे बड़ी भूल हो गई! कपडे | | लेकिन देखना हो पहले, तो वसंत में ही देखना उचित है। की वजह से यह भूल हो गई। तो आप उसके पिता हैं ! उस व्यक्ति | । शायद पृथ्वी पर हिंदुओं ने, अकेला ही एक ऐसा धर्म है, जिसने 211 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 उत्सव में प्रभु को देखने की चेष्टा की है। एक उत्सवपूर्ण, एक फेस्टिव, नाचता हुआ; छंद में, और गीत में, और संगीत में, और फूल में! आज इतना ही। पांच मिनट रुकें। कीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 चौदहवां प्रवचन परम गोपनीय-मौन Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-50 द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् । की होती है। जो लोग जीवन को. जीवन की सार्थकता को, जीवन जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ।। ३६ ।। के आनंद को पा लेते हैं, वे मृत्यु से पीड़ित होते हुए नहीं देखे जाते। वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः। | उन्हें तो मृत्यु एक विश्राम मालूम होती है। लेकिन अधिकतम लोग मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।। ३७ ।। तो मृत्यु से पीड़ित होते देखे जाते हैं। दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् । ___ हम सबको यही लगता है कि वे मृत्यु से दुखी हो रहे हैं। वह गलत मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ।। ३८॥ | है। वे दुखी हो रहे हैं इसलिए कि वह जीवन चला गया, जिसमें पाने हे अर्जुन, मैं छल करने वालों में जुआ और प्रभावशाली | के बहुत मन्सूबे थे, बड़ी आकांक्षाएं थीं, बड़े दूर के सपने थे। बड़े पुरुषों का प्रभाव हूं तथा मैं जीतने वालों का विजय हूं और | तारे थे, जिन तक पहुंचना था और कहीं भी पहुंचना नहीं हो पाया। निश्चय करने वालों का निश्चय एवं सात्विक पुरुषों का | और आदमी इस पूरी दौड़ में बिना कहीं पहुंचे रास्ते पर ही मर जाता सात्विक भाव हूं। | है। पड़ाव भी उपलब्ध नहीं होता, मंजिल तो बहुत दूर है। और वृष्णिवंशियों में वासुदेव अर्थात मैं स्वयं तुम्हारा सखा ___ मृत्यु का जो दंश है, जो पीड़ा है, वह जीवन की व्यर्थता के और पांडवों में धनंजय अर्थात तू एवं मुनियों में वेदव्यास | कारण है। ___ और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूं। इसलिए बुद्ध को हम दुखी नहीं देखते मरते क्षण में। सुकरात को और दमन करने वालों का दंड अर्थात दमन करने की शक्ति | हम दुखी नहीं देखते। महावीर को हम पीड़ित नहीं देखते। मृत्यु उन्हें हूं, जीतने की इच्छा वालों की नीति हूं और गोपनीयों में | | मित्र की तरह आती हुई मालूम पड़ती है। लेकिन हमें शत्रु की तरह अर्थात गुप्त रखने योग्य भावों में मौन हूं, तथा ज्ञानवानों का | आती मालूम पड़ती है। क्यों? क्योंकि हमारी वासनाएं तो पूरी नहीं तत्व-ज्ञान मैं ही हूं। हुईं; हमें अभी और समय चाहिए। हमारी इच्छाएं तो अभी अधूरी हैं। अभी हमें और भविष्य चाहिए। ध्यान रहे, भविष्य न हो तो हमारी इच्छाओं को फैलने की जगह - अर्जुन, मैं छल करने वालों में जुआ, प्रभावशाली पुरुषों नहीं रह जाती। भविष्य तो चाहिए ही, तभी हम अपनी इच्छाओं की e का प्रभाव, जीतने वालों का विजय, निश्चय करने | शाखाओं को फैला सकते हैं। वर्तमान में इच्छा नहीं होती, इच्छा वालों का निश्चय, सत्पुरुषों का सात्विक भाव हूं। सदा भविष्य में होती है। वासनाओं का जाल तो सदा भविष्य में हैरानी होगी यह सोचकर कि कृष्ण कहते हैं कि मैं छल करने | होता है, वर्तमान में कोई वासना का जाल नहीं होता। अगर कोई वालों में जुआ हूं। व्यक्ति शुद्ध वर्तमान में हो, अभी, यहीं हो, तो उसके चित्त में कोई शायद जीवन में सभी कुछ छल है। और जीवन की जो वासना नहीं रह जाएगी। छल-स्थिति है, वह जैसी जुए में प्रकट होती है, वैसी और कहीं| | वासना हो ही नहीं सकती वर्तमान में। वासना तो होती ही कल नहीं। जीवन जुआ है और जुए में जीवन का जो मायिक रूप है, जो है, आने वाले कल में, आने वाले क्षण में। वासना का संबंध ही छल है, वह अपनी श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति को उपलब्ध होता है। इसे भविष्य से है। जो लोग गहरे में खोजते हैं, वे तो कहते हैं कि भविष्य थोड़ा हम समझें, तो आसानी हो। और यह कीमती है। | ही इसीलिए मन पैदा करता है, क्योंकि बिना भविष्य के वासनाओं __जीवनभर हम कोशिश करते हैं जो भी पाने की, उसे कभी पा | को फैलाएगा कहां। भविष्य कैनवस का काम करता है, जिसमें नहीं पाते हैं। लगता है कि मिलेगा। लगता है कि अब मिला। लगता वासनाओं के सपने फैल जाते हैं। है कि बस, अब मिलने में कोई देर नहीं। और हर बार निशाना चूक इसलिए जो लोग वासनाओं से मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिए जाता है। और मृत्यु के क्षण में आदमी पाता है कि जो भी चाहा था, | एक ही प्रक्रिया है और वह यह है कि भविष्य को छोड़ दो और वह कुछ भी नहीं मिला। सिर्फ अपनी वासनाओं की राख ही हाथ | वर्तमान में जीयो। वर्तमान से आगे मत बढ़ो। जो क्षण हाथ में है, में रह जाती है। उसको ही जी लो; आने वाले क्षण का विचार ही मत करो। जब वह मरते क्षण में जो पीड़ा है, वह मृत्यु की नहीं, वह व्यर्थ गए जीवन | । | आ जाएगा, तब जी लेंगे। 214 . Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम गोपनीय-मौन 8 जो आदमी मोमेंट टु मोमेंट, क्षण-क्षण जीने लगता है, उसके रही है कि आप कुछ दिन और जी लेंगे। चित्त में वासना का उपाय नहीं रह जाता। वासना के लिए भविष्य। फिर भी ययाति को न सूझा! अपनी जिंदगी कठिनाई में हो, तो का विस्तार चाहिए। | फिर हम किसी की भी जिंदगी ले सकते हैं। हम कितना ही कहते मौत दुख देती है, क्योंकि मौत के साथ पहली दफा हमें पता हों कि बाप बेटे के लिए जीता है। हम कितना ही कहते हों, भाई चलता है, अब कोई भविष्य नहीं है। मौत दरवाजा बंद कर देती है | भाई के लिए, मित्र मित्र के लिए; लेकिन ये बातें हैं। मौत सामने भविष्य का, वर्तमान ही रह जाता है। और वर्तमान में तो सिर्फ टूटे खड़ी हो जाए, तो सब बदल जाता है। हुए वासनाओं के खंडहर होते हैं, राख होती है, असफलताओं का | बेटा राजी हो गया। बेटा मर गया, ययाति और सौ साल जीया। ढेर होता है, विषाद होता है, संताप होता है। कोई वासना की पूर्ति | ये सौ साल कब निकल गए, पता न चले। मौत फिर द्वार पर आ का तो उपाय नहीं दिखता, और थोड़ा भविष्य चाहिए। गई, तभी ययाति को खयाल आया। और उसने मौत से कहा, इतनी महाभारत में कथा है ययाति की। ययाति सौ वर्ष का हुआ। बड़ा जल्दी! क्या सौ वर्ष पूरे हो गए? मेरी वासनाएं तो उतनी की उतनी सम्राट था, उसके सौ बेटे थे। अनेक उसकी पत्नियां थीं, बड़ा | ही अधूरी हैं; रंचमात्र भी फर्क नहीं पड़ा। साम्राज्य था। सौ वर्ष का हुआ, मौत उसके द्वार पर आई, तो ययाति इस बीच ययाति के और पुत्र हो गए थे। मौत ने कहा कि फिर ने कहा कि एक क्षण रुक। अभी तो मेरा कुछ भी काम पूरा नहीं किसी पुत्र को पूछ लो, अगर कोई राजी हो। हुआ। अभी तो मैं वहीं खड़ा हूं, जहां जन्म के दिन खड़ा था। यह और कथा बड़ी अदभुत है कि ऐसा दस बार हुआ और ययाति भी कोई आने का वक्त है! अभी तो कोई भी सपना सत्य नहीं हुआ। | हजार साल जीया। और हजार साल बाद जब मौत आई, तब भी अभी तो सभी बीज बीज ही हैं। अभी कोई बीज अंकुरित नहीं हुआ। | ययाति ने वही कहा कि इतनी जल्दी! अभी मुझे समय चाहिए। मुझे समय चाहिए। मौत ने उसे कहा, ययाति, कितना ही समय तुम्हें मिले, वासनाएं मृत्यु ने मजाक में ही ययाति से कहा, अगर तेरा कोई पुत्र तुझे पूरी नहीं होंगी। समय छोटा पड़ जाता है। समय जो कि अनंत है, अपना जीवन दे दे, तो मैं उसे ले जाऊं और तुझे छोड़ जाऊं! ययाति | वासनाओं से छोटा पड़ जाता है। मौत जब भी द्वार पर आई, ययाति ने अपने सौ पुत्रों को कहा कि जीवन तुम मुझे दे दो, मेरा जीवन | कंपने लगा। अधूरा रह गया है। तुम मेरे बेटे हो, मैंने तुम्हें पैदा किया। तुम्हें ही ___ हम सब की भी वही दशा है। और ययाति की कथा हमें लगेगी पैदा करने और बड़े करने में तो मैंने जीवन गंवाया। तुम्हारे लिए ही | | कि काल्पनिक है, लेकिन समझने जाएं, तो हम भी इस तरह तो मैं नष्ट हुआ। तुम मुझे अपना जीवन दे दो; मौत मुझे छोड़ने को बहुत-से जन्म ले चुके हैं और बहुत हजारों वर्ष जी चुके हैं। हमारी राजी है। भी यह कोई पहली जिंदगी नहीं है। हर जिंदगी में हमने यही किया लेकिन बेटों की अपनी वासनाएं थीं, जो और भी अधूरी थीं। | | है। फिर समय मांगा है, हमें फिर जन्म मिल गया है। हर बार वासना बेटों को तो और भी समय चाहिए था। लेकिन एक छोटा बेटा राजी | | अधूरी रही है। हम पुनर्जन्म पा गए हैं। और हर बार जब मौत आती हो गया। बड़े बेटे समझदार थे, अनुभवी थे; वे कोई भी राजी नहीं | | है, तो हम फिर उतने के उतने अधूरे हैं। कहीं कुछ भरता नहीं है। हुए। और उन्होंने कहा कि आपको ऐसा कहते संकोच भी नहीं | | मृत्यु घबड़ा देती है, क्योंकि भविष्य समाप्त हो जाता है। और होता! आप भी मरने को राजी नहीं हैं! और आप तो सौ वर्ष भी जी | | तब जिंदगी की व्यर्थता दिखाई पड़ती है, लेकिन तब कोई प्रयोजन लिए, हम तो अभी इतना भी नहीं जीए हैं। और हमसे आप मरने | | नहीं। तब कोई अर्थ नहीं। तब जिंदगी लगती है एक जुआ थी, के लिए कहते हैं! जिसमें हम हारे। लेकिन एक छोटा बेटा राजी हो गया। ययाति ने उससे पूछा भी जुए की एक खूबी है, वह इसलिए मैंने इतनी बात कही। जुए में कि तू क्यों राजी हो रहा है? उसने कहा कि मैं इसलिए राजी हो रहा कोई कभी जीतता नहीं; यही उसका छल है। और हरेक जीतता हुआ हूं कि अगर सौ वर्ष जीकर भी आपकी वासना तृप्त नहीं हुई, तो मैं | | मालूम पड़ता है, यही उसका छल है। हरेक जीतने की आकांक्षा से भी इस मेहनत में नहीं पडूंगा। सौ वर्ष बाद मरना ही है, तो मेरी जुए के पासे फेंकता है और हर एक को लगता है कि जीत निश्चित जिंदगी बेकार चली जाएगी, अभी कम से कम इतने तो काम आ है। लेकिन जुए में कोई कभी जीतता नहीं। और जो जीतते हुए मालूम 215 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 भी पड़ते हैं, वे केवल और बड़ी हारों की तैयारी कर रहे होते हैं। जुए में जो हारता है, वह सोचता है, इस बार हार गया, भाग्य ने साथ न दिया, अगली बार जीत निश्चित है। और हारता चला जाता है। कभी-कभी जीत की झलक भी मिलती है। वह जीत की झलक और बड़ी हारों का आयोजन करवा देती है। उस झलक से लगता है कि जीत भी हो सकती है। जीत जाता है, वह सोचता है कि एक बार जीत जाऊं, तो फिर रुक जाऊं। लेकिन जो एक बार जीत जाता है, रुकना असंभव है। क्योंकि जीत का जो स्वाद मन को लग जाता है, और जीतने की आकांक्षा प्रबल हो जाती है । वही आकांक्षा हार में ले जाती है। जो हारता है, वह सोचता है, अगली बार जीत जाऊंगा। जो इस बार जीतता है, वह सोचता है, जीत मेरे भाग्य में है; हर बार जीत | जाऊंगा। और अंततः जुआ ही चलता रहता है। सभी उसमें हारने वाले ही सिद्ध होते हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, छलों में मैं जुआ हूं। वह शुद्धतम छल है। कभी कोई जीतता नहीं, अंततः कोई जीतता नहीं । आखिर में हाथ खाली रह जाते हैं। खेल बहुत चलता है। लेकिन, हार-जीत बहुत होती है। कोई हारता, कोई जीतता; कोई बनता, और कोई मिटता ! बहुत खेल होता है। रुपये-पैसे इससे उसके पास जाते हैं। उससे इसके पास जाते हैं, बड़ा लेन-देन होता है। और आखिर में कोई जीतता नहीं। सिर्फ जीतने की और हारने की इस दौड़ में लगे हुए सभी लोग टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं, हार जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। इसलिए जुआ जिंदगी का प्रतीक है। सारी जिंदगी जुआ है। इसलिए आप यह मत सोचना कि जो जुआ खेल रहे हैं, वही जुआ खेल रहे हैं। ढंग हैं बहुत तरह के जुआ खेलने के ! कुछ जरा हिम्मत का जुआ खेलते हैं, कुछ जरा कम हिम्मत का जुआ खेलते हैं। कुछ इकट्ठे दांव लगाते हैं, कुछ दांव छोटे-छोटे लगाते हैं। कोई बड़े दांव लगाते हैं, कोई टुकड़ों में दांव लगाते हैं । किन्हीं की जीत और हार प्रतिपल होती रहती है; किन्हीं की जीत और हार का इकट्ठा हिसाब मौत के क्षण में होता है। लेकिन हम सब जुआ खेल रहे हैं। और जब तक कोई व्यक्ति अपनी तरफ नहीं जाता, तब तक जुए में होता है। इसे ऐसा समझें कि जो व्यक्ति भी दूसरे में उत्सुक है, वह जुए में ही होता है। दूसरे में उत्सुकता जुआ है, चाहे वह प्रेम की हो, चाहे धन की, चाहे यश की, पद की, प्रतिष्ठा की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक आप दूसरे पर निर्भर हैं, तब तक आप एक गहरा जुआ खेल रहे हैं। अगर आपको दूसरे भी अपने में उत्सुक मालूम पड़ते हैं, तो आप पक्का समझ लेना कि आप दोनों एक गहरे जुए में भागीदार हैं। जुआ अकेले नहीं खेला जा सकता, उसमें दूसरे की जरूरत है। इसलिए जो व्यक्ति ध्यान की एकांतता को, अकेलेपन को उपलब्ध हो जाता है, वही जीवन के जुए के बाहर होता है। जिस काम में भी दूसरे की जरूरत हो, समझ लेना कि जुआ होगा। जो काम भी दूसरे के बिना पूरा न हो सके, समझ लेना कि जुआ होगा। जिसमें दूसरा अनिवार्य हो, समझना कि वहां दांव है। | जिस क्षण आप बिलकुल अकेले होने को राजी हों, दूसरा बिलकुल ही अर्थपूर्ण न रह जाए, उस दिन आप समझना कि आप जुए के बाहर हो रहे हैं। 216 जब तक कोई व्यक्ति दूसरे की उत्सुकता से मुक्त नहीं होता और उस उत्सुकता में लीन नहीं होता, जो स्वयं की है, तब तक जुए के बाहर नहीं होता। ध्यान के अतिरिक्त जुए के बाहर होने का कोई उपाय नहीं है। बाकी सब उपाय जुआ ही खेलने के हैं। यह दूसरी बात है कि कोई एक जुआ पसंद करता है, कोई दूसरा जुआ पसंद करता है। यह अपनी पसंद की बात है। लेकिन जिंदगी के आखिर में अगर कोई एक चीज आप मरते वक्त जान सकते हैं कि मैंने पा ली, तो वह आपकी ही आत्मा है। उसके अतिरिक्त आप जो भी पा लेंगे, मृत्यु आपसे छीन लेगी। सुना है मैंने कि सिकंदर जब मरा, तो उस गांव में बड़ी हैरानी हो गई थी। सिकंदर की अर्थी निकली, तो उसके दोनों हाथ अर्थी के बाहर लटके थे! लाखों लोग देखने इकट्ठे हुए थे। सभी एक-दूसरे से पूछने लगे कि ऐसी अर्थी हमने कभी नहीं देखी कि हाथ और अर्थी के बाहर लटके हों। यह क्या ढंग हुआ ! सांझ होते-होते लोगों को पता चला कि यह भूल से नहीं हुआ। भूल हो भी नहीं सकती थी। कोई साधारण आदमी की अर्थी न थी । सिकंदर की अर्थी थी। पता चला सांझ कि सिकंदर ने कहा था कि मरने के बाद मेरे दोनों हाथ अर्थी के बाहर लटके रहने देना, ताकि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। मेरे हाथ में भी कुछ है नहीं। वह दौड़ बेकार गई। वह जुआ सिद्ध हुआ । और यह वही आदमी है कि मरने के दस साल पहले एक यूनानी फकीर डायोजनीज से मिला था, तो डायोजनीज ने सिकंदर से पूछा Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ परम गोपनीय-मौन था कि कभी तुमने सोचा सिकंदर, कि अगर तुम पूरी दुनिया जीत क्रांति घटित नहीं होती, जब तक कोई आदमी अपने को पागल लोगे, तो फिर क्या करोगे? तो डायोजनीज की यह बात सुनकर | जानना शुरू नहीं करता। और जब कोई आदमी यह जान लेता है सिकंदर उदास हो गया था। और उसने कहा कि इससे मुझे बड़ी | | कि मेरी पूरी जिंदगी, जिसको मैंने अब तक जिंदगी कहा, एक लंबा चिंता होती है, क्योंकि दूसरी तो कोई दुनिया नहीं है। अगर मैं यह | पागलपन है, उसी दिन उसकी जिंदगी में क्रांति होनी शुरू हो जाती जीत लूंगा, तो सच ही फिर मैं क्या करूंगा? अभी जीती नहीं थी | | है। जब तक आप दूसरों पर हंसते हैं, तब तक समझना, आप व्यर्थ उसने दुनिया। लेकिन यह पूरी दुनिया भी जीत लेगा, तो भी वासना | | हंसते हैं। जिस दिन आपको अपने पर हंसी आ जाए, समझना कि उदास हो गई। अभी जीती भी नहीं है, अभी सिर्फ सोचकर कि पूरी | रास्ता बदला। अब यात्रा आपकी कुछ और हुई। दुनिया जीत लूंगा तो–सच डायोजनीज, तुम मुझे उदास करते | क्या है? आप क्या कर रहे हैं? लोग आपको अच्छा कहें, इसके हो-फिर मैं क्या करूंगा? दूसरी तो कोई दुनिया नहीं है, जिसको | लिए जिंदगी गंवा रहे हैं। कोई आपके मकान को बड़ा कहे, इसलिए मैं जीतने निकल जाऊं! | जिंदगी गंवा रहे हैं। कोई आपकी तिजोड़ी को देख ले और उसकी यह आदमी मरते वक्त...बहुत कुछ जीतकर मरा था। बड़ा | आंखों में चकाचौंध पैदा हो जाए, इसलिए जिंदगी गंवा रहे हैं। कोई जुआरी था, सब कुछ दांव पर लगाया था। और बड़े ढेर लगा लिए | | दूसरे की आंखों के साथ आप जुआ खेल रहे हैं। थे जीत के। लेकिन मरते वक्त उसका यह कहना कि देख लें लोग __ वे दूसरे की आंखें उतनी ही पानी की बनी हैं, जितनी आपकी हैं। कि मेरे हाथ खाली हैं, विचारणीय है। कल पानी की तरह बह जाएंगी और इस जगत की रेत में उनका कोई सम्राट यहां भिखारी की तरह मर जाते हैं। कभी-कभी कोई भी पता नहीं चलेगा। और दसरों के शब्द वैसे ही हवा के बबले हैं, भिखारी यहां सम्राटों की तरह मरता है। बद्ध के हाथ भरे हए हैं. जैसे आपके और हवा में खो जाएंगे। उनकी प्रशंसाएं. उनकी सिकंदर के हाथ खाली हैं। क्या मामला है! किस चीज से सिकंदर निंदाएं, सब हवा में फूट जाएंगी बबूलों की तरह और खो जाएंगी। के हाथ खाली हैं? और किस चीज से बुद्ध के हाथ भरे हुए हैं? | | उनका कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। और आपकी जिंदगी आप गंवा बुद्ध ने अपने को पाने की कोशिश की है, तो हाथ भरे हुए हैं। चुके होंगे। सिकंदर ने कुछ और पाने की कोशिश की है, स्वयं को छोड़कर, | कृष्ण की इस बात को खयाल में ले लेने जैसा है, छल करने तो हान खाली हैं। | वालों में मैं जुआ हूं। अगर छल को ही देखना है, तो जुए में उसकी ___ इससे कोई संबंध नहीं है कि आप क्या पाने की कोशिश कर रहे शुद्धता है। सौ फीसदी शुद्ध! फिर जिंदगी में उसकी अशुद्धता हैं, आपकी जिंदगी एक जुआ है, अगर आप अपने को छोड़कर | | दिखाई पड़ती है। लेकिन शुद्ध वह जुए में है। कुछ भी पाने की कोशिश कर रहे हैं। और आखिर में आपके हाथ ___ सुना है मैंने कि कनफ्यूशियस ने अपने एक शिष्य को कहा था खाली होंगे, आखिर में आप हारे हुए विदा होंगे। | कि ध्यान करने के पहले तू दो जगह हो आ। एक तो तू जुआघर में कृष्ण कहते हैं, छल करने वालों में मैं जुआ हूं। बैठकर देख कि लोग वहां क्या कर रहे हैं, आब्जर्व। वहां बैठ जा शुद्धतम रूप जुआ है छल का। जुआरी की हम निंदा करते रहते | और देख कि लोग रातभर वहां क्या करते रहते हैं। तुझे कुछ करना हैं। लेकिन हम सब जुआरी हैं। जुआरी की निंदा शायद हमारे मन | नहीं है। सिर्फ निरीक्षण करना। तीन महीने तक तू जुआघर में ही में इतनी ज्यादा इसीलिए है कि हम छोटे जुआरी हैं। और जुआरी | बैठा रह और निरीक्षण कर। और फिर तू मुझे आकर कहना। को देखकर हमारा सारा जुआ उघड़ता है और नग्न हो जाता है। जब | वह शिष्य तीन महीने बाद आया और उसने कहा कि लोग एक जुआरी दांव लगाता है, तो हम कहते हैं, पागल हो। और हम | पागल हैं। कनफ्यूशियस ने कहा कि तब में तुझे दूसरी साधना का सब परी जिंदगी दांव लगाकर जीते हैं. और कभी भी नहीं सोचते सत्र देता है। अब त मरघट पर तीन महीने बैठ जा और लोगों को कि हम पागल हैं। अपना-अपना जआ सभी को ठीक मालम पड़ता जलते हुए देख। है। दूसरे के जुए सभी को गलत मालूम पड़ते हैं। तीन महीने बाद वह शिष्य आया और उसने कहा कि मैं देखकर इस जमीन पर बड़े मजे की घटना है, हर आदमी अपने को ठीक आया हूं। सारी जिंदगी एक जुआ है। और सारी जिंदगी का अंत और शेष को पागल जानता है। लेकिन तब तक जीवन में धार्मिक | मरघट पर हो रहा है। कनफ्यूशियस ने कहा कि अब तू उस गहरी 217 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 यात्रा में जा सकता है। | महाभारत, यह सारी कथा अर्जुन के आस-पास घूमती है। जुए को और मौत को जो समझ ले, वह अंतर्यात्रा पर निकल | ___ धनंजय, अगर तुझे पांडवों में भी परमात्मा को देखना हो, तो तू सकता है। खुद अपने में देख। प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव, जीतने वालों की विजय, निश्चय ये सारे प्रतीक कृष्ण ने कहे, ये दूर थे, पराए थे। कृष्ण धीरे-धीरे करने वालों का निश्चय, सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूं। और उस प्रतीक के पास अर्जुन को ले आए हैं, जहां वह खुद अपने में वृष्णिवंशियों में वासुदेव अर्थात स्वयं मैं, पांडवों में धनंजय अर्थात | भी देख सके। ये इतने स्मरण दिलाए कि ऋतुओं में मैं वसंत हूं, कि त. एवं मनियों में वेदव्यास. कवियों में शक्राचार्य मैं ही हैं। देवताओं में कामदेव हूं। इतनी-इतनी यात्रा, अगर ठीक से समझें, कृष्ण कहते हैं अपने को भी एक प्रतीक बना लेते हैं और | | तो इस गहरे प्रतीक के लिए थी कि वह जगह आ जाए कि कृष्ण अर्जुन को भी–वे कहते हैं, वृष्णिवंशियों में अगर तुझे देखना हो | अर्जुन से कह सकें कि धनंजय, पांडवों में मैं तुझमें है। मुझे, अगर तुझे देखना हो प्रभु को, तो मैं तेरे सामने खड़ा हूं। आपको अपनी श्रेष्ठता के स्मरण के लिए भी दूसरों की श्रेष्ठता निश्चित ही, उस वंश में कृष्ण से ऊंचाई पाने वाला कोई व्यक्ति | तक जाना होता है। और कभी-कभी अपने द्वार पर आने के पहले हुआ नहीं। असल में उस वंश को ही हम कृष्ण की वजह से जानते | | | बहुत दूसरों के द्वार भी खटखटाने होते हैं। असल में हमारा हैं। कृष्ण न हों, तो उनके पूरे वंश में किसी को भी जानने का कोई | | आत्म-अज्ञान इतना गहन है कि हम अपने तक भी आएं, तो हमें कारण नहीं रह जाता। वह जो कृष्ण का फूल खिला है उस वंश के दूसरे के द्वारा आना पड़ता है। अगर हमें अपना भी पता पूछना हो, वृक्ष पर, उस फूल की वजह से ही उस वृक्ष का भी हमें स्मरण है। | तो हमें दूसरे से ही पूछना पड़ता है। बेहोशी अपनी ऐसी है, ऐसी वह उस वंश की श्रेष्ठतम उपलब्धि, जो नवनीत है, वह कृष्ण है। गहरी है बेहोशी हमारी, कि हमें अपना तो कोई पता ही नहीं है, बस कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि जहां भी श्रेष्ठता का फूल दूसरों का ही पता है! खिलता है, वहां तू मुझे देख पाएगा। तो अगर मेरे वंश में तुझे गुरु भी क्या करेगा शिष्य के लिए! जब कोई शिष्य गुरु के चरणों देखना है, तो मैं तेरे सामने मौजूद हूं। में सिर रखकर पूछता है, तो क्या पूछता है? और गुरु क्या बताएगा और अक्सर ऐसा होता है कि जब अंतिम फूल खिल जाता है, अंततः? गुरु इतना ही बता सकता है कि जिसे तू खोज रहा है, वह तो वंश नष्ट हो जाता है। क्योंकि फिर वंश के होने का कोई प्रयोजन तू ही है। जिसकी तलाश है, वह तुझ तलाश करने वाले में ही छिपा नहीं रह जाता। उसका प्रयोजन पूरा हो गया। इसलिए कृष्ण के साथ है। और जिसकी तरफ तू दौड़ रहा है, वह कहीं बाहर नहीं, दौड़ने कृष्ण का वंश तिरोहित हो जाता है। और इतनी श्रेष्ठता को फिर पार वाले के भीतर है। और जो सुवास, जो कस्तूरी तुझे खींच रही है और करना भी संभव नहीं है। इसलिए श्रेष्ठतम जो है, वह एक वंश का आकर्षित कर रही है, वह तेरी ही नाभि में छिपी है और दबी है। अंत भी होता है। आखिरी फूल खिल जाने का अर्थ है, वृक्ष की लेकिन यह बात कृष्ण सीधी भी कह सकते थे, तब व्यर्थ होती। मौत भी आ गई। पूर्णता समाप्ति भी है। कृष्ण यह सीधा भी कह सकते थे कि अर्जुन मैं तुझमें हूं, तब यह कृष्ण के साथ कृष्ण का वंश समाप्त हो जाता है। उस वंश का बात बहुत सार्थक न होती। यह इतनी यात्रा करनी जरूरी थी। अर्जुन जो निहित प्रयोजन था, पूरा हो गया। जो नियति थी, जहां तक | बहुत-बहुत जगह थोड़ी-सी झलक पा ले, तो शायद अपने भीतर पहंचना था, जो आखिरी छलांग थी. लहर जहां तक आकाश में | | भी झलक पा सकता है। उठ सकती थी, उठ गई। धर्मों ने जितनी विधियां खोजी हैं, वे सभी विधियां आवश्यक हैं, तो वे कहते हैं, अगर मेरे वंश में तुझे देखना हो, तो मैं मौजूद अनिवार्य नहीं। उनसे पहुंचा जाता है, लेकिन उनके बिना भी पहुंचा हूं, जहां तुझे परमात्मा दिखाई पड़ सकता है। जा सकता है। उनसे पहुंचा जाता है, लेकिन उनके द्वारा ही पहुंचा साथ ही एक और भी मजे की बात कहते हैं, और पांडवों में जा सकता है, ऐसा नहीं है। सारी विधियां एक ही प्रयोजन से निर्मित धनंजय अर्थात तू! | हुई हैं कि किसी दिन आपको पता चल जाए कि जिसे आप खोज वह जो पांडवों का वंश है, उसमें अर्जुन भी नवनीत है, उसमें | अर्जुन सार है। यह सारा महाभारत अर्जुन के इर्द-गिर्द है। यह सारा । बड़ी अजीब खोज है! क्योंकि जब कोई खुद को खोजने लगे, तो भाप ही हैं। 218 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम गोपनीय - मौन खोज असंभव है। बिलकुल असंभव है। खुद को कैसे खोज सकिएगा? और जहां भी खोजने जाइएगा, वहीं दूसरे पर नजर रहेगी। सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने गधे पर बहुत तेजी से बाजार से निकला है। लोगों ने चिल्लाकर भी पूछा कि मुल्ला इतनी जल्दी कहां जा रहे हो ? नसरुद्दीन ने कहा, बीच में मत रोको । मेरा गधा खो गया है। पर वह इतनी तेजी में था अपने गधे पर कि गांव के लोग चिल्लाते भी रहे कि नसरुद्दीन, तुम अपने गधे पर सवार हो ! लेकिन वह उसे सुनाई नहीं पड़ा। सांझ जब वह थका-मांदा वापस लौटा। और दौड़ने की ताकत चली गई। और भागने की हिम्मत टूट गई। जब गधा भी थक गया और खड़ा हो गया, तब नसरुद्दीन को खयाल आया कि मैं भी कैसा पागल हूं। मैं जिसे खोज रहा हूं, उस पर सवार हूं। गांव लौटकर उसने बाजार के लोगों से कहा कि नासमझो, तुमने कहा क्यों नहीं? मैं तो खैर जल्दी में था, इसलिए नीचे ध्यान न दे पाया। लेकिन तुम तो जल्दी में न थे। गांव के लोगों ने कहा, हम तो चिल्लाए थे, लेकिन तुम इतनी जल्दी में थे कि तुम्हें अपना गधा दिखाई नहीं पड़ता था, तो हमारी आवाज क्या सुनाई पड़ सकती थी ! नसरुद्दीन पर हमें हंसी आ सकती है। लेकिन नसरुद्दीन का मजाक गहरा है। हम सब किसकी तलाश में हैं? किसे हम खोज रहे हैं? क्या हम पाना चाहते हैं? हम अपने को ही खोज रहे हैं। हम खुद को ही पाना चाहते हैं। हमें यही पता नहीं कि मैं कौन हूं? मैं क्या हूं? क्यों हूं? यही हमारी खोज है। लेकिन हम दौड़ रहे हैं तेजी से । और जिस पर सवार होकर हम दौड़ रहे हैं, उसी को हम खोज रहे हैं। जो दौड़ रहा है, उसी को हम खोज रहे हैं। जब तक यह दौड़ बंद न हो जाए, हम थक न जाएं, दौड़ समाप्त न हो जाए, तब तक हमें खयाल नहीं आएगा। हमें पता नहीं चलेगा। ये सारे साधन जो धर्मों ने ईजाद किए हैं, आपको थकाने के हैं । ये सारी प्रक्रियाएं जो धर्मों ने विकसित की हैं, ये आपको खूब दौड़ाकर इतना थका देने की हैं कि एक दिन आप खड़े हो जाएं थककर। जिस दिन आप खड़े हो जाएं, उसी दिन आपका अपने से मिलना हो जाए, अपने से पहचान हो जाए। ठहरते ही हम जान सकते हैं, कौन हैं। दौड़ते हम नहीं जान सकते कि कौन हैं। तेज है इतनी रफ्तार हमारी, और तेजी हमारी रोज बढ़ती जाती है । कभी हम पैदल चलते थे। फिर बैलगाड़ी पर चलते थे। फिर मोटरगाड़ी पर चलते थे। फिर हवाई जहाज पर चलते थे। अब हमारे पास अंतरिक्ष यान हैं। हमारी दौड़ की गति रोज बढ़ती जाती है। कभी आपने खयाल किया कि आदमी की गति जितनी बढ़ती जाती है, आदमी का आत्मज्ञान उतना ही कम होता जाता है ! नहीं, खयाल नहीं किया होगा। इसमें कोई संबंध भी नहीं दिखाई पड़ा होगा। आदमी की जितनी स्पीड बढ़ती जाती है, गति बढ़ती जाती है, उससे उसका अपना संबंध छूटता जाता है। वह दूसरे तक पहुंचने में कुशल होता जाता है और खुद तक पहुंचने में अकुशल होता जाता है। किसी दिन यह हो सकता है कि हमारी रफ्तार इतनी | हो जाए कि हम दूर के तारों तक पहुंचने लगें, लेकिन तब खुद तक पहुंचना बहुत मुश्किल हो जाएगा। नसरुद्दीन तो गधे पर सवार था, सांझ तक थक गया । हमारे अंतरिक्ष यान कब थकेंगे? और अगर हमने सूरज की किरण की गति पा ली किसी दिन, तो शायद अनंत अनंत काल लग जाए, | उस गति में हमें आत्मज्ञान का पता ही न चल सके। इसलिए बहुत मजे की बात है, जितने गति वाले समाज होते हैं, उतने अधार्मिक हो जाते हैं। और जितने कम गति वाले समाज होते हैं, उतने धार्मिक होते हैं। जितने कम गति वाले समाज होते हैं, उतना भीतर पहुंचने की संभावना बनी रहती है। जितने गति वाले समाज हो जाते हैं, उतना बाहर जाने की संभावना तो बढ़ जाती है, खुद तक आने की संभावना घट जाती है। आज सारी दुनिया पर घूमते हुए लोग हैं। बहुत पुरानी कहानी | मुझे याद आती है। सुना है मैंने कि ईश्वर ने सारी सृष्टि बना डाली, फिर उसने आदमी बनाया। वह बड़ा खुश था। सारी दुनिया उसने बना डाली। बहुत खुश था। सब कुछ सुंदर था । फिर उसने आदमी बनाया। और उस दिन से वह बेचैन और परेशान हो गया। आदमी ने उपद्रव शुरू कर दिए। आदमी के साथ उपद्रव का जन्म हो गया। तो उसने अपने सारे देवताओं को बुलाया और उनसे पूछा कि एक बड़ी मुश्किल हो गई है। यह आदमी को बनाकर तो गलती हो गई मालूम होती है। और आदमी रोज-रोज उसके दरवाजे पर खड़े रहने लगे। यह शिकायत है, वह शिकायत है। यह कमी है, वह कमी है। ईश्वर ने कहा, अब एक उपाय करो कुछ मैं किसी तरह आदमी से बचना चाहता हूं। मैं कहां छिप जाऊं ? 219 किसी देवता ने कहा, हिमालय पर बैठ जाएं, गौरीशंकर पर । | ईश्वर ने कहा कि तुम्हें पता नहीं, कुछ ही समय बाद हिलेरी और तेनसिंग एवरेस्ट पर चढ़ जाएंगे, फिर मेरी मुसीबत फिर शुरू हो Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5008 जाएगी। किसी ने कहा, तो चलें चांद पर बैठ जाएं। तो ईश्वर ने | | ही नहीं। जिसको आप जानते हैं भीतर, वह आपका मन है, वह कहा, चांद पर पहुंचने में कितनी देर लगेगी! जल्दी ही आदमी चांद | | वस्तुतः भीतर नहीं है, वह वास्तविक इनरनेस नहीं है। जिसको आप पर उतर जाएगा। मुझे कोई ऐसी जगह बताओ, जहां आदमी पहुंच जानते हैं मन, वह आपका आंतरिक अंतस्तल नहीं है। वह केवल ही न पाए। बाहर की परछाईं है, जो आपके भीतर इकट्ठी हो गई है। वे केवल तब एक बूढ़े देवता ने ईश्वर के कान में कहा। ईश्वर ने कहा, बाहर से बनी हुई प्रतिक्रियाएं हैं, जो आपके भीतर इकट्ठी हो गई हैं। बिलकुल ठीक। यह बात जंच गई। और देवताओं ने पूछा कि ऐसा समझें कि आप जिसको मन कहते हैं, वह बाहर से ही आए कौन-सी है वह बात? ईश्वर ने कहा, अब तुम उसको पूछो ही हुए प्रभावों का जोड़ है। वह भीतर नहीं है। मन के भी भीतर आप मत। क्योंकि लीक आउट हो जाए, आदमी तक पहुंच जाए, तो हैं। अगर मैं आपको देखता हूं, तो बाहर एक दुनिया है। एक दुनिया खतरा हो सकता है। | मेरे बाहर है। फिर मैं भीतर आंख बंद करता हूँ. तो भीतर विचारों उस बूढ़े ने ईश्वर के कान में कहा कि आप आदमी के ही भीतर की एक दुनिया है। वह भी मुझसे बाहर है। क्योंकि उसको भी मैं छिप जाइए। यह वहां कभी नहीं पहुंच पाएगा। एवरेस्ट चढ़ लेगा, | देखता हूं भीतर। तो विचार मुझे दिखाई पड़ते हैं; क्रोध, कामवासना चांद पर उतर जाएगा, भीतर खुद के...। ईश्वर ने कहा, यह बात मुझे दिखाई पड़ती है। जैसे आप मुझे दिखाई पड़ते हैं, ऐसे ही जंच गई। विचारों की भीड़ भीतर दिखाई पड़ती है। वह भी मुझसे बाहर है। और कथा है कि तब से ईश्वर आदमी के भीतर छिप गया है। | मेरे शरीर के भीतर है, लेकिन मुझसे बाहर है। और तब से आदमी ईश्वर से शिकायत करने में असफल हो गया | आप मुझसे बाहर हैं। आंख बंद करता हूं, आपकी तस्वीर मुझे है। खोजता है बहुत, लेकिन मिल नहीं पाता कि उससे शिकायत भीतर दिखाई पड़ती है, वह भी मुझसे बाहर है। और वह तस्वीर कर दे, कि कोई प्रार्थना कर दे, कि कोई स्तुति कर दे। आपकी है। आपने अपने भीतर कभी कोई एकाध तस्वीर देखी है, भीतर जाना--उस भीतर जाने के लिए कृष्ण धीरे-धीरे अर्जुन | | जो बाहर से न आई हो? आपने अपने भीतर कभी कोई एकाध को एक-एक कदम अनेक-अनेक इशारों को देकर आखिरी जगह | | विचार देखा, जो बाहर से न आया हो? आपने भीतर ऐसा कुछ भी ले आए हैं, जहां वे कहते हैं, अर्जुन, हे धनंजय, पांडवों में मैं तुझमें देखा है, जो बाहर का ही प्रतिफलन न हो? हूं। तू अपने में ही देख ले। मत पूछ कि क्या मैं भाव करूं। मत तो फिर से खोज करें। आप अपने भीतर की जांच करें, तो आप पछ कि कहां मैं खोजं। सच ही खोजना चाहता है. तो मैं तेरे भीतर पाएंगे. वह तो सब बाहर की ही कतरन. बाहर का ही कचरा. बाहर मौजूद हं, तू वहीं देख ले, वहीं खोज ले।। का ही जोड़ है। तो यह फिर भीतर नहीं है। यह बाहर का ही हाथ हम सबको भी भरोसा नहीं आता इस बात का कि परमात्मा | है, जो आपके भीतर प्रवेश कर गया है। अगर आपको अंतस्तल हमारे भीतर मौजूद है। आएगा भी नहीं। अगर कोई हमसे कहे कि को जानना है, तो थोड़ा और पीछे चलना पड़े। शैतान आपके भीतर मौजूद है, तो हम थोड़ा मान भी लें। क्योंकि कृष्ण उसी की बात कर रहे हैं, कि धनंजय, पांडवों में मैं तेरे हमारा अपने से जो परिचय है, उससे शैतान का तो तालमेल बैठ भीतर इसी समय मौजूद हूं। जाता है। लेकिन कोई हमसे कहे कि परमात्मा आपके भीतर है, तो | लेकिन भीतर का अनुभव मन से नहीं होता, भीतर का अनुभव हम सोचते हैं, कोई मेटाफिजिकल, कोई ऊंचे दर्शन की बात चल | तो साक्षी से होता है। भीतर का अनुभव तो ज्ञाता से होता है। भीतर रही है। इसमें कुछ है नहीं सार। का अनुभव तो द्रष्टा से होता है। जो अपने मन को भी देखने में परमात्मा, मेरे भीतर! हम किसी के भी भीतर मानने को राजी हो समर्थ हो जाता है, वह भीतर के अनुभव को उपलब्ध होता है। और जाएं, खुद के भीतर मानने में बड़ी तकलीफ होगी। क्योंकि हम जिसे भीतर का अनुभव हो जाए, उसे फिर वसंत में देखने जाने की भीतर अपने जानते हैं कि क्या है। भीतर के चोर को हम जानते हैं। जरूरत नहीं, उसे फिर कामधेनु में देखने की जरूरत नहीं। फिर उसे भीतर के बेईमान को हम जानते हैं। भीतर के व्यभिचारी को हम | | गायत्री छंद में खोजने की जरूरत नहीं। फिर तो सभी जगह उसी का जानते हैं। कैसे हम मान लें कि परमात्मा हमारे भीतर है। छंद है। फिर तो सभी जगह उसी का वसंत है। लेकिन इसका सिर्फ एक ही मतलब है कि आप भीतर को जानते | एक बात खयाल में ले लें। जब तक हमें भीतर परमात्मा नहीं 220 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ परम गोपनीय-मौन 8 दिखता, तब तक हमें उसे बाहर कहीं देखने की कोशिश करनी | पड़ेगा। फिर तो उसके अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं पड़ेगा। फिर पड़ती है। और ध्यान रखें कि वह कोशिश कितनी ही प्रामाणिक हो, | तो जो भी दिखाई पड़ेगा, वही होगा। क्यों? अधूरी होगी, पूरी नहीं हो सकती। वह कोशिश कितनी ही निष्ठा से | क्योंकि जिसे भीतर दिखाई पड़ गया, उसकी सारी आंखें उससे भरी हो, अधूरी होगी, पूर्ण नहीं हो सकती। क्योंकि जिसने उसे | | भर जाती हैं। जिसे भीतर दिखाई पड़ गया, उसकी श्वास-श्वास अभी भीतर नहीं जाना—भीतर का अर्थ है निकटतम-जिसने उसे | | उससे भर जाती है। जिसे भीतर दिखाई पड़ गया, उसका इतने निकटतम नहीं जाना, वह दूर उसे नहीं जान सकेगा। जो इतने | रो-रोआं उसी से स्पंदित होने लगता है। फिर तो वह आदमी पास है मेरे कि मेरे हृदय की धडकन भी मझसे दर है उसके हिसाब जहां भी देखे, यही रंग फैल जाएगा। जहां भी देखे, यही ज्योति फैल से; मोहम्मद ने कहा है कि तुम्हारे गले में जो नस फड़कती है जीवन | जाएगी। फिर तो ऐसा हो गया, जैसे आप एक दीया लेकर चलें. की, वह भी दूर है। वह परमात्मा उससे भी ज्यादा निकट है। जो तो जहां भी दीया लेकर जाएं, वहीं रोशनी पड़ने लगे। अंधेरे में चले इतने निकट उसको नहीं जान पाया, वह उसे दूर कैसे जान पाएगा? जाएं, तो अंधेरा भी रोशन हो जाए। और हम सब आकाश में आंखें उठाकर उसे खोजने की कोशिश ठीक जिस दिन आपके भीतर वह दिखाई पड़ने लगा, आपके करते हैं। हम अंधी आंखों से उसे खोज रहे हैं। अपने भीतर आंख | भीतर दीया जल गया। अब आप कहीं भी चले जाएं, जहां भी यह बंद करके जो उसे नहीं देख पाता, वह इस विराट आकाश में आंखें | रोशनी पड़ेगी आपके दीए की, वहीं वह दिखाई पड़ेगा। अब आप खोलकर ईश्वर को देखने की कोशिश करता है! कभी भी वह अंधेरे में जाएं, तो भी वही होगा। उजाले में जाएं, तो भी वही होगा। कोशिश सफल न हो पाएगी। सुबह भी वही, सांझ भी वही। जन्म में भी वही, मृत्यु में भी वही। ___ हां, एक बात हो सकती है कि वह मानने लगे कि दिखाई पड़ रहा लेकिन एक बार यह भीतर दिखाई पड़ जाए तब। और भीतर जाने है। निष्ठापूर्वक मानने लगे, तो जिंदगी उसकी भली हो जाएगी, के लिए कृष्ण को इतने प्रतीक चुनने पड़े। लेकिन धार्मिक नहीं। जिंदगी उसकी सदवृत्तियों से भर जाएगी, एवं मुनियों में वेदव्यास, कवियों में शुक्राचार्य, दमन करने वाले लेकिन सत्य से नहीं। जिंदगी उसकी शुभ हो जाएगी, लेकिन शुभ | का दंड, जीतने की इच्छा वालों की नीति, गोपनीयों में अर्थात गुप्त भी एक सपना होगा। क्योंकि जिस परमात्मा को वह देख रहा है, वह | रखने योग्य भावों में मौन, ज्ञानवानों का तत्व-ज्ञान मैं ही हूं। उसकी कल्पना है, उसका प्रक्षेपण है, उसका प्रोजेक्शन है। जिसने ये दो प्रतीक बहुत बहुमूल्य हैं, इन्हें हम समझें। अभी अपने भीतर नहीं देखा, वह उसे कहीं भी देख नहीं सकता। गोपनीयों में, गुप्त रखने योग्य भावों में मौन। लेकिन हमारी तकली कलीफ यह है कि हमारी नजरें बाहर घमती हैं। यह बड़ा उलटा मालम पडेगा. क्योंकि गोपनीय तो हम किसी इसलिए कृष्ण ने बाहर से शुरू किया कि यहां देख, यहां देख, | 'बात को रखते हैं। मौन को भी कोई गोपनीय रखता है? गोपनीय यहां देख। फिर वे धीरे-धीरे पास ला रहे हैं। आखिर में बहुत पास | तो हम किसी विचार को रखते हैं। निर्विचार को भी कोई गोपनीय ले आए। उन्होंने कहा कि इधर मेरी तरफ देख। मेरे वंश में, मैं रखता है? कोई बात छिपानी हो तो हम छिपाते हैं। मौन का तो अर्थ यहां मौजूद हूं। यह कृष्ण मौजूद है, यहां देख। वे बहुत करीब ले हुआ कि छिपाने को ही कुछ नहीं है। जब छिपाने को ही कुछ नहीं आए। कृष्ण और अर्जुन के बीच फासला बहुत कम है, फिर भी | | है, तो उसे हम क्या छिपाएंगे! यह सूत्र बहुत कठिन है और उन फासला है। फिर वे और भीतर ले गए, और अर्जुन से कहा कि | गहरे सूत्रों में से एक है, जिन पर धर्म की बुनियाद निर्मित होती है। अपने भीतर देख। तू भी, तू भी मेरा ही घर है। तेरे भीतर भी मैं | गोपनीयों में, गुप्त रखने योग्य में मैं मौन हूं। निवास कर रहा हूं। कुछ मत छिपाना, लेकिन अपने मौन को छिपाना, इसका अर्थ और एक बार कोई व्यक्ति भीतर उसकी झलक पा ले, तो सभी होता है। किसी को पता न चले कि तुम्हारे भीतर मौन निर्मित हो रहा जगह उसकी झलक फैल जाती है। फिर ऐसा नहीं कि वसंत में ही | | है। किसी को पता न चले कि तुम ध्यान में उतर रहे हो। किसी को दिखाई पड़ेगा। वसंत में तो अंधे को दिखाई पड़े, इसकी कोशिश | पता न चले कि तुम शांत हो रहे हो। किसी को पता न चले कि तुम करनी पड़ती है। फिर तो पतझड़ में भी वही दिखाई पड़ेगा। फिर | भीतर शून्य हो रहे हो। क्योंकि दूसरे को बताने की इच्छा भी उसे श्रेष्ठ में ही दिखाई पड़े, ऐसा नहीं, निकृष्ट में भी वही दिखाई भीतर नष्ट कर देती है। 221] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग- 50 . अगर एक आदमी कहता है कि मैं मौन से रहता हूं, यह कहने | | परम मौन में प्रतिष्ठित हो गए हैं, मुझे भी उसी तरफ ले चलें! का जो रस है, दूसरे को बताने का जो रस है, यह जो दूसरे में रस | बायजीद के गुरु ने कहा कि उसको पता न चल जाए कि मैं मौन में है, इसकी वजह से मौन तो हो ही नहीं पाएगा। | प्रतिष्ठित हो गया हूं, इसीलिए तो अनाप-शनाप बककर उसे मैंने एक आदमी कहता है कि मुझे तो ध्यान उपलब्ध होने लगा। विदा कर दिया। लेकिन जब दूसरे से यह कहता है...। दूसरे से कहते ही हम बायजीद ने पूछा, अपने मौन को आप छिपाना क्यों चाहते हैं? इसलिए हैं कि दूसरा प्रभावित हो। इसलिए वही कहते हैं, जिससे | उसके गुरु ने कहा, इस जगत में अगर कुछ भी छिपाने योग्य है, तो दूसरा प्रभावित हो। उस सबको तो हम छिपाते हैं, जिससे दूसरा | | मौन है। क्योंकि वह अंतरतम संपदा है। और वह इतनी नाजुक गलत प्रभावित न हो जाए। वही सब बताते हैं, जिससे दूसरा | संपदा है कि जरा बाहर प्रभावित करने की इच्छा से टूट जाती है प्रभावित हो। हमारा अच्छा चेहरा हम दूसरों को दिखाते हैं, ताकि और खो जाती है। दूसरे प्रभावित हों। एक और सूफी फकीर हुआ है, इब्राहीम। वह बल्ख का राजा लेकिन दूसरे को प्रभावित करने में जो उत्सुक है, वह ध्यान में | था। और जब संन्यासी हुआ और अपने गुरु के पास गया, तो जा ही न सकेगा। क्योंकि दूसरे को प्रभावित करने में जो रस है, | उसके गुरु ने कहा कि तू पहले एक काम कर। नग्न हो जा। तो उसका अर्थ है, अभी अपने से ज्यादा मूल्यवान दुसरा है। अगर मैं | | इब्राहीम अपने कपडे छोडकर नग्न हो गया। इब्राहीम के साथी उसे सोचता हूं कि फलां आदमी अगर मुझसे प्रभावित हो जाए, तो | छोड़ने आए थे, वे बड़े हैरान हुए। एक ने इब्राहीम के कान में भी जिसको भी मैं प्रभावित करना चाहता हूं, उसे मैं अपने से ज्यादा कहा कि जरा पूछ भी लो कि किस लिए? इब्राहीम ने कहा कि जब मूल्यवान मानता हूं, इसीलिए प्रभावित करना चाहता हूं। वह समर्पण करने आ गया, तो अब प्रश्न की गुंजाइश नहीं है। फिर प्रभावित हो जाए, तो मैं भी अपनी नजरों में ऊंचा उठ जाऊं। वह इब्राहीम के गुरु ने कहा कि यह चप्पल जो पड़ी है मेरी, एक उठा ज्यादा कीमती है मुझसे। अगर मुझे मान ले, तो मैं अपनी नजरों में | लो अपने हाथ में। उसने चप्पल उठा ली। और इब्राहीम से कहा कि भी ऊंचा उठ जाऊं। मेरी अपनी नजरों में उठने के लिए भी मुझे जाओ बाजार में उसी की राजधानी थी वह कल तक जाओ दूसरों को प्रभावित करना जरूरी है। बाजार में नग्न और अपने सिर पर चप्पल मारते जाना और एक ध्यान की भी जब कोई बात करता है, या कोई कहता है, मैंने चक्कर पूरे बाजार का लगा आना। ईश्वर को जान लिया, जब इसकी भी कोई चर्चा करता है किसी दूसरे | इब्राहीम निकल पड़ा! वह अपने को चप्पल मारता जाता। भीड़ से और उसे प्रभावित करना चाहता है, तो उसका अर्थ हुआ कि उसने इकट्ठी हो गई। लोग हंसी-मजाक करने लगे। लोग समझे कि अभी ईश्वर को पाया नहीं। अभी ईश्वर को पाने के रास्ते पर भी वह पागल हो गया इब्राहीम। वह पूरा चक्कर लगाकर वापस लौट नहीं है। क्योंकि उस रास्ते पर तो वे ही जाते हैं, जो दूसरे की बिलकुल आया। इब्राहीम के गुरु ने कहा कि तेरी परीक्षा पूरी हो गई। चिंता ही छोड़ देते हैं, जिन्हें दूसरों का पता ही नहीं रह जाता। उसके साथियों ने इब्राहीम के गुरु से पूछा कि क्या हम पूछ सूफी फकीर हुआ बायजीद। जब वह अपने गुरु के पास गया, | सकते हैं क्योंकि इब्राहीम तो कहता है कि पूछने का सवाल ही तो बहुत हैरान हुआ। जब वह अपने गुरु के पास था, तो उसने एक न रहा—क्या हम पूछ सकते हैं कि इसका प्रयोजन क्या है? तो दिन देखा कि गांव का सम्राट आया और उसने आकर बायजीद के इब्राहीम के गुरु ने कहा, इसका प्रयोजन है यह देखना कि अभी भी गुरु को कहा कि मुझे भी दीक्षा दे दें इस परम मौन में, जिसमें आप दूसरे क्या कहते हैं, इसकी चिंता तो भीतर नहीं रह गई! क्योंकि जो, विराजमान हो गए हैं। तो बायजीद का गुरु अनाप-शनाप बातें दूसरे क्या कहते हैं, इसकी चिंता करता है, विचार करता है, योजना बकने लगा। वह सदा चुप रहता था। वह मुश्किल से, कभी कोई | | करता है, वह मौन में प्रवेश नहीं कर सकता। पूछता, तो बहुत मुश्किल से महीनों में जवाब देता था। मौन में सबसे बड़ी कठिनाई है दूसरे की मौजूदगी, जो आपके अनाप-शनाप बातें बोलने लगा! | मन में सदा बनी रहती है। जब आप मौन बैठते हैं, तब भी आप वह सम्राट वापस चला गया। बायजीद ने अपने गुरु से पूछा कि मौन कहां बैठते हैं, किन्हीं दूसरों से कल्पना में बात करते रहते हैं। ऐसा हमने कभी नहीं देखा। उसने आपको आकर कहा था, आप आदमी दो तरह की बातें करता है, वास्तविक लोगों से और 2221 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ परम गोपनीय—मौन ॐ काल्पनिक लोगों से। बातचीत जारी रहती है। जिनसे आप मौन में विचार का कंपन न हो, जैसे झील शांत हो गई हो, कोई लहर न भी बात करते हैं, अगर वे कल्पना के जीव भी आपसे प्रभावित न | उठती हो। हों, तो भी दुख हो जाता है। असली लोगों की तो हम बात छोड़ दें।। । लेकिन कृष्ण कहते हैं, गोपनीयों में मैं मौन हूं। आप कल्पना में किसी से बात कर रहे हों; और वह प्रभावित न हो, और यह सबसे गुप्त बात है, जिसे किसी को बताना ही मत। और कहे कि छोड़ो भी, क्या बकवास लगा रखी है। तो भी मन बताते ही यह नष्ट हो जाती है। इसलिए बहुत बार ऐसा होता है, दुखी और खिन्न हो जाता है। सपने में भी जीतने की इच्छा बनी रहती | | आपका मन बताने का एकदम होता है। और जब भी भीतर कुछ है दूसरे को। होता है, तो आप चाहते हैं, किसी को बता दें। मन बड़ी तीव्रता से एक दिन आधी रात मुल्ला नसरुद्दीन नींद से उठ आया। उसकी | | करता है कि जाओ और बोल दो और किसी को कह दो। आंखों में आंसू हैं। और उसने बड़ा हड़कंप मचा दिया। उसकी | | यह मन की सहज वृत्ति है। क्योंकि जो आपको हुआ है, जब पत्नी ने पूछा कि बात क्या है? उसने कहा कि तू चुप सो। बड़ा | तक आप दूसरे से न कह दें, तब तक वह वास्तविक है, इसका भी नुकसान हो गया। सपना मैंने देखा कि एक देवता मेरे हाथ में रुपये आपको भरोसा नहीं आता। जब दूसरा मान ले, तब आपको भरोसा दे रहा है। गिनती मैंने की। एक दो तीन चार पांच छः सात आठ नौ। आता है कि ठीक है। मैंने उससे कहा कि दस तो पूरा कर दे! बस, इसी में मेरी नींद टूट | । सुना है मैंने, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन जा रहा है रास्ते से और गई। और अब मैं बड़ी देर से आंख बंद कर-करके कह रहा हूं कि गांव के कुछ आवारा लड़के उसे कंकड़-पत्थर फेंककर मारने लगे। अच्छा, चलो जी, नौ में ही राजी हैं लेकिन उसका कोई पता ही नहीं | | अंधेरा रास्ता है और मुल्ला को कोई उपाय नहीं सूझता, तो उसने चलता। छोड़ा एक, छोड़ो भी, इतना क्या! नौ में ही राजी हैं। अभी उन लड़कों को पास बुलाया और कहा कि यहां क्या कर रहे हो? पीछे-पीछे तो मैं और भी नीचे उतर आया; कि चलो, आठ में भी तुम्हें पता है, आज गांव के राजा ने सारे गांव को निमंत्रण दिया है। राजी हैं, सात में भी राजी हैं। करवट बदल रहा हूं, लेकिन उसका | जो भी आए उसको भोजन मिलेगा। और भोजन भी क्या-क्या बना कोई पता नहीं चल रहा! | है! और वह भोजन की चर्चा करने लगा। सपने में भी जिन्हें हम देख लेते हैं, वे भी हमारे लिए वे लड़के उत्सुक हो गए। लड़कों को उत्सुक देखा, तो वह खुद वास्तविकताएं हैं। उनसे भी हम संबंध जोड़ना शुरू कर देते हैं। भी उत्सुक हो गया। और जब वह मिष्ठानों की बात करने लगा, तो अगर आप अपने मन की खोज करें, तो आपकी जिंदगी का अधिक लड़कों के मुंह से तो लार टपकने लगी। उसके मुंह में भी लार आ हिस्सा तो सपनों में और कल्पनाओं में ही बीतता है। बहुत कम गई! फिर तो जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती गई चर्चा की, लड़कों ने भागना हिस्सा बाहर बीतता है। बहत हिस्सा तो भीतर ही बीतता है। शुरू कर दिया। उन्होंने कहा, छोड़ो भी इसको, मुल्ला को, महल __ और कभी-कभी बाहर भी जो आप बोलते हैं, वह आप भूल से | चलें! जब लड़कों को उसने दूर भागते देखा अंधेरे में, तब उसे बोल जाते हैं। आपको पीछे पता चलता है कि आप यह भीतर बोल | खयाल आया कि कहीं सच ही तो नहीं है यह बात! मुल्ला भी रहे थे, उसी का हिस्सा जुड़ गया। किसी से भीतर बात चल रही भागा। हो भी सकता है, कौन जाने! कौन जाने यह सच ही हो! थी, वही बाहर निकल गई। कई बार जो आप नहीं कहना चाहते | । दूसरा जब प्रभावित होता है हमारी किसी बात से, तो हम भी बाहर, वह कह जाते हैं, क्योंकि भीतर चल रहा था। कई बार आप | | प्रभावित होते हैं। म्युचुअल, एक पारस्परिक लेन-देन हो जाता है। कहते हैं, भूल से ऐसा हो गया। लेकिन भूल से हो नहीं सकता। वे | और ये प्रभाव हमें कहां ले जाते हैं. इनका हिसाब लगाना बहत भीतर चल रही थीं पंक्तियां, तो ही आपकी जीभ से सरककर बाहर मुश्किल है। बहुत मुश्किल है। गिर सकती हैं। दो व्यक्ति एक-दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं। तो कोई भी पुरुष भीतर एक सतत डायलाग चल रहा है, एक सतत चर्चा चल रही किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है, तो कहता है कि तुझसे ज्यादा सुंदर है अपनी ही कल्पनाओं से। मौन में जब आप बैठेंगे, तो यही इस पृथ्वी पर कोई स्त्री नहीं है। और सभी स्त्रियां इसको मान लेती आपके मौन का खंडन होगा। यही आपके मौन को तोड़ देगा। । | हैं। मानना चाहती हैं गहरे में। और इसको सुनते से ही स्त्री सुंदर हो मौन का अर्थ है, भीतर कोई विचार न रह जाए, भीतर कोई जाती है। भरोसा आ जाता है! और जब कोई इतना सुंदर मान रहा [223| Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 हो, तो वह भी सुंदर दिखाई पड़ने लगता है। और तब हम कहते हैं जाए। वह सिर्फ अपने पर राजी हो जाए। वह दूसरे में तलाश करने कि तुझसे सुंदर पुरुष, तुझसे श्रेष्ठ पुरुष, खोजना असंभव है। और न जाए। दूसरे से कहे भी न, क्या उसके भीतर हो रहा है। तब म्युचुअल कल्पना की दौड़ शुरू होती है। और तब वे दोनों । और न कहने का एक कारण और भी है, कि जैसे ही आप कहते एक-दूसरे को शिखर पर उठाए चले जाते हैं। और यह शिखर हैं, आपकी गति अवरुद्ध हो जाती है। क्योंकि कहने का अर्थ ही जितना ऊंचा होगा, उतनी ही खाई में कल गिरेंगे। क्योंकि यह | | यह हुआ कि आप बड़े तृप्त हो गए। जब मैं किसी से कहता हूं कि शिखर कल्पना का है। बड़ी शांति हो गई भीतर, तो उसका अर्थ है कि मैं तृप्त हो गया। इसलिए ध्यान रखें, प्रेम-विवाह जिस खतरे में ले जाता है, कोई गति अवरुद्ध हो जाएगी। विवाह नहीं ले जा सकता। और प्रेम-विवाह जिस बुरी तरह ___ अगर बढ़ाए जाना है भीतर की गति को और रुक नहीं जाना है, असफल होता है, कोई विवाह असफल नहीं हो सकता। उसका तो मत कहें। मत कहें। इसे किसी से कहें ही मत। यह आपका ही कारण यह नहीं है कि प्रेम-विवाह बुरा है; उसका कुल कारण इतना | | रहस्य हो। यह आपकी निजी संपदा हो। इसका किसी को भी पता है कि प्रेम-विवाह एक म्युचुअल कल्पना पर निर्मित होता है। | न चले। यह ऐसी कुछ बात हो कि आप और आपके परमात्मा के भारत में विवाह एक सफल संस्था है, क्योंकि हमने प्रेम को | बीच ही रह जाए। बिलकुल ही काट दिया है उसमें से। कल्पना का सवाल ही नहीं, | ___ इसलिए इतनी सीक्रेसी, इतनी गुप्तता धर्मों ने निर्मित की है। उस जमीन पर ही चलाते हैं आदमी को। यहां पति-पत्नी होते हैं, सीक्रेसी के पीछे और कोई कारण नहीं है। उस गुप्तता के पीछे, प्रेमी-प्रेयसी होते ही नहीं। कभी आकाश में चढ़ते ही नहीं, तो गड्डे गोपनीयता के पीछे और कोई कारण नहीं है। वह सहयोगी है में गिरने का सवाल ही नहीं आता। समतल भूमि पर चलते रहते हैं। अंतर्विकास में, इनर ग्रोथ में। अमेरिका में बुरी तरह विवाह अस्तव्यस्त हुआ जा रहा है। और कृष्ण कहते हैं, गोपनीयों में अर्थात गुप्त रखने योग्य भावों में मैं उसका कारण है कि विवाह की बुनियाद दो आदमी एक-दूसरे को मौन हूं। अगर तुझे मुझे खोजना हो भावों में, तो तू मुझे मौन में नशे में डालकर रखते हैं। वह नशा कितनी देर चलेगा? कितनी देर खोजना। अर्जुन ने पूछा भी है कि किस भाव में मैं खोजूं? तो कृष्ण चल सकता है?-वह नशा जल्दी ही उतर जाता है। और इतने बड़े | कहते हैं, तू मुझे मौन में खोजना। अगर तू बिलकुल मौन हो जाए, सपनों के बाद जब जमीन पर लौटते हैं, तो लगता है कि बेकार हो | तो तू मुझे पा लेगा। गया, धोखा हो गया। गलती हो गई, भूल हो गई। वे सब कविताएं हमारे और सत्य के बीच दीवाल शब्दों की है। एक फूल के पास धुआं हो जाती हैं। से आप गुजरते हैं। एक गुलाब का फूल खिला है। फूल दिखाई नहीं हम सब ऐसे ही जीते हैं लेकिन, इसलिए हमें खुशामद प्रीतिकर पड़ता है, उसके पहले गुलाब का फूल बीच में आ जाता है, शब्द लगती है। क्योंकि कोई हमें भरोसा दिलाता है। बिलकुल झूठ भी बीच में आ जाता है। फूल देख भी नहीं पाते और आप कहते हैं, कोई आपसे कह दे, कोई आपसे कह दे कि आप जैसा बुद्धिमान सुंदर है। यह सुंदर है, आपकी पुरानी आदत का हिस्सा है। आपको आदमी नहीं है। आपके भीतर कोई आपसे कहे भी कि झंझट में मत पता है, गुलाब का फूल सुंदर होता है, सुंदर कहा जाता है। सुना पड़ो, यह झूठ ही मालूम पड़ता है; क्योंकि आपको अपनी बुद्धि का है, पढ़ा है, वह आपके मन में रम गया है। फूल को आप देख भी अच्छी तरह पता है! फिर भी इनकार करने का मन नहीं होता, मानने नहीं पाते। यह फूल जो अभी मौजूद है, इसकी पंखुड़ियां आपके का मन होता है। और दस आदमी अगर इकट्ठे होकर कहने लगें, हृदय को छू भी नहीं पातीं। इसकी सुगंध आपके प्राणों में उतर भी तो फिर तो इनकार करने का सवाल ही नहीं। हजार दो हजार की नहीं पाती। और आप कहते हैं, गुलाब का फूल है, सुंदर है। बात भीड़ इकट्ठी हो जाए, फिर तो कोई सवाल ही नहीं। और आपको समाप्त हो गई। आपका संबंध टूट गया। आसमान में उठाया जा सकता है। __ अगर इस गुलाब के फूल से संबंधित होना हो, तो एक छोटा-सा दूसरों की आंखों में जो देख रहा है, वह भूलों में पड़ सकता है, प्रयोग करें। इस गुलाब के फूल को देखें, लेकिन भीतर शब्द को न पड़ेगा ही। साधक के लिए अनिवार्य है कि यह जो पारस्परिक | आने दें। यह ध्यान का एक प्रयोग है। बैठे इसके पास, लेकिन शब्द लेन-देन है कल्पनाओं का, इससे हट जाए। इससे बिलकुल हट को न आने दें। मत कहने दें अपने मन को कि गुलाब का फूल है। 224 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम गोपनीय - मौन मत कहने दें कि सुंदर है। मत कहने दें कि बड़ी सुगंध आ रही है। मत कहने दें कि अच्छा है। कोई निर्णय नहीं । कोई वक्तव्य नहीं । शब्द को कहें कि तू चुप रह, मेरी आंखें हैं। मैं मौजूद हूं। मुझे देखने दे। लाओत्सू एक दिन सुबह घूमने गया है। लाओत्सू रोज सुबह घूमने जाता है, एक मित्र उसके साथ जाता था। मित्र को तो पता था कि लाओत्सू से एक भी शब्द बीच में बोलना खतरनाक है। लेकिन मित्र के घर एक मेहमान था, वह उसको लेकर चला गया। लाओत्सू चुप था, मित्र चुप था, तो मेहमान भी बेचारा चुप रहा। दो घंटे की लंबी यात्रा में, जब सुबह सूर्य निकलने लगा आकाश में, और पक्षी गीत गाने लगे, और फूल खिलने लगे, तो उसने सिर्फ इतना ही कहा, कितनी सुंदर सुबह है— मेहमान ने ! लाओत्सू ने लौटकर अपने मित्र को कहा कि इस बकवासी आदमी को साथ क्यों ले आए ! उस मित्र ने कहा, हद हो गई! सिर्फ इतना ही उस बेचारे ने कहा कि कितनी सुंदर सुबह है! लाओत्सू ने कहा, लेकिन इतनी दीवाल भी बाधा बन जाती है। सूरज था। सुबह थी। हम भी थे। भी था। कहने की क्या जरूरत थी ? कोई हम अंधे थे? कि हमको पता नहीं था कि सुबह नहीं है, कि सुंदर नहीं है ? कहने की क्या जरूरत थी ? उन शब्दों ने सुबह की शांति को बुरी तरह भंग कर दिया। दुबारा इसे साथ मत लाना। यह जो लाओत्सू कह रहा है, निश्चित ही, जब सूरज उगता है और आप कह देते हैं, सुंदर है, तो आपको पता नहीं होगा कि आपके और सूरज के बीच शब्द की एक दीवाल आ गई। हटा दें शब्दों को बीच से | आप खाली हो जाएं। उधर सूरज को उगने दें, . इधर आप रह जाएं, बीच में कुछ भी न हो। तब आपको पहली दफा सूरज का संस्पर्श मिलेगा। तब पहली दफा सूरज के साथ आप आत्मसात हो जाएंगे। तब पहली दफा सूरज और आपके बीच में कोई भी नहीं होगा। सूरज और आपके बीच पहली दफा सेतु निर्मित होगा । या गुलाब के फूल और आपके हृदय के बीच पहली दफा एक संगीत निर्मित होगा। अगर ऐसा ही मौन समस्त अस्तित्व के प्रति आ जाए, तो परमात्मा और हमारे बीच संबंध निर्मित होता है। जिस दिन शब्द न रह जाएं, समाप्त हो जाएं, अलग गिर जाएं, हम और अस्तित्व ही रह जाएं... । अस्तित्व है चारों ओर, हम हैं यहां, बीच में एक शब्दों की दीवाल है। भाषा बड़ी उपयोगी है संसार में, बड़ी बाधा है परमात्मा में। जहां दूसरे से संबंधित होना है, भाषा जरूरी है। जहां अपने से संबंधित होना है, भाषा खतरनाक है। जहां दूसरे से मिलना है, वहां भाषा के बिना कैसे मिलिएगा? लेकिन जहां अपने से ही मिलना है, वहां | भाषा की क्या जरूरत है? लेकिन हम दूसरे से मिल-मिलकर इतने आदी हो गए हैं भाषा के, कि जब अपने से मिलने जाते हैं, तब भी भाषा का बोझ लेकर पहुंच जाते हैं। अगर परमात्मा से मिलना है, तो भाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। वहां मौन ही भाषा है। वहां चुप हो जाना ही बोलना है। वहां मौन हो जाना ही संवाद है। कृष्ण कहते हैं, भावों में अगर मुझे खोजना हो, तो मैं मौन हूं। और ज्ञानवानों का तत्व - ज्ञान मैं ही हूं। यह आखिरी प्रतीक इस आयाम में । ज्ञानवानों का तत्व - ज्ञान मैं ही हूं। तत्व- ज्ञान के संबंध में थोड़ी बात मैंने आपसे कही । तत्व-ज्ञान से अर्थ शास्त्रीय ज्ञान नहीं है । तत्व-ज्ञान से अर्थ हैं, सत्य का निजी अनुभव, अपना अनुभव। आस्पेंस्की रूस का एक बहुत बड़ा विचारक, गणितज्ञ, एक फकीर गुरजिएफ के पास गया। उसने गुरजिएफ से कहा कि मैं आपसे कुछ पूछने आया हूं। गुरजिएफ ने उसे एक कागज दे दिया उठाकर और कहा कि इस कागज पर पहले तुम लिख दो; जो-जो तुम जानते हो, वह तुम लिख दो। फिर तुम जो नहीं जानते, वह मुझसे पूछना। अगर तुम पहले से ही जानते हो, तो पूछने की झंझट की कोई जरूरत नहीं है। तो पहले तुम लिख दो, जो-जो तुम जानते हो। उसकी हम चर्चा ही नहीं करेंगे; उसे हम उठाएंगे ही नहीं । आस्पेंस्की बड़ा लेखक था। और गुरजिएफ से मिलने के पहले | उसने एक बहुत अदभुत किताब लिखी थी, जो दुनिया की तीन बड़ी किताबों में एक है। पश्चिम में तो उस किताब का जोड़ खोजना बहुत मुश्किल है। | उसने एक किताब लिखी थी, टर्शियम आर्गानम। और निष्ठापूर्वक, किसी अहंकार से नहीं, उसने अपनी किताब में वक्तव्य दिया था कि इसके पहले दो किताबें और लिखी गई हैं। एक किताब लिखी है अरस्तू ने, आर्गानम। आर्गानम का अर्थ होता है, पहला सिद्धांत। दूसरी किताब लिखी है बेकन ने, नोवम आर्गानम, नया सिद्धांत। और तीसरी किताब मैं लिखता हूं, टर्शियम आर्गानम, तीसरा सिद्धांत। और उसने बड़ी विनम्रता से, बिना किसी अहंकार के कहा था कि पहला सिद्धांत भी जब जगत में नहीं था, तब भी यह 225 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-58 तीसरा सिद्धांत मौजूद था, जो मैं लिख रहा हूं। कृष्ण जानते होंगे; आप गीता कंठस्थ कर लें, इससे कुछ ज्ञान किताब बड़ी कीमती है, बड़ी अदभुत है। और कभी-कभी | नहीं होगा। बुद्ध जानते होंगे; आप धम्मपद याद कर लें, इससे हैरानी होती है कि बिना जाने भी आदमी का मस्तिष्क कितनी बड़ी कुछ होगा नहीं। यह उधार है। और ध्यान रहे, उधार ज्ञान ज्ञान चीजें लिख सकता है। उसे कोई आत्मज्ञान नहीं था। पर यह किताब | होता ही नहीं। उधार ज्ञान ज्ञान होता ही नहीं। अपना ज्ञान ही सिर्फ ऐसी है कि पढ़कर ऐसा लगे कि यह आदमी परम ज्ञानी है। ज्ञान है। दूसरा क्या जानता है, वह आपको सब दे दे, आपके पास गुरजिएफ ने कहा कि मुझे पता है कि तू कौन है आस्पेंस्की। तेरी । | ज्ञान नहीं आता, सिर्फ शब्द आते हैं। शब्द आप इकट्ठे कर लेते टर्शियम आर्गानम मैंने देखी है। तेरे संबंध में मुझे खबर है। पहले तू हैं, स्मृति में शब्द बैठ जाते हैं। फिर स्मृति को ही आप समझते हैं लिख दे कि जो-जो तू जानता है, उसकी हम बात ही नहीं करेंगे। या कि मैं जानता हूं। अगर तू कहता है कि टर्शियम आर्गानम में जो-जो तूने लिखा है, वह स्मृति ज्ञान नहीं है। ज्ञान का अर्थ है, अनुभव। आपका ही तू जानता है, तब तो बात की कोई जरूरत नहीं है। नमस्कार! | | साक्षात्कार हो, आप ही आमने-सामने आ जाएं, आपका ही हृदय आस्पेंस्की को ऐसा आदमी कभी मिला ही नहीं था। यह भी कोई | जाने, जीए, धड़के, उस अनुभव में, तो ही तत्व-ज्ञान है। बात हुई! गुरजिएफ ने कहा कि पास के कमरे में चला जा। मेरे कृष्ण कहते हैं, ज्ञानियों, ज्ञानवानों का तत्व-ज्ञान मैं ही हूं, सामने तुझे संकोच होगा। यह कागज ले जा और लिख ला। अनुभव मैं ही हूं। आस्पेंस्की ने लिखा है कि मैं कागज-कलम लेकर बैठ गया। और यह बड़े मजे की बात है कि उस तत्व-जान में उस निजी जब मैं लिखने बैठता हूं, तो मेरा हाथ रुकता ही नहीं। उस दिन मेरा - अनुभव में जो जाना जाता है, वही परमात्मा है। निजी अनुभव में हाथ एकदम जाम हो गया। क्या लिखू, जो मैं जानता हूं! जो भी | | जो जाना जाता है, वही परमात्मा है। निजी अनुभव ही परमात्मा है। लिखने की कोशिश करता हूं, भीतर से खबर आती है, यह मैं | | परमात्मा के संबंध में जानना परमात्मा को जानना नहीं है। टु नो जानता कहां हूं? पढ़ा है, सुना है, समझा है। बुद्धि को पता है, मुझे | अबाउट गॉड इज़ नाट टु नो गॉड। अबाउट, संबंध में-झूठी बातें कहां पता है! मेरा अनुभव, ईश्वर? कोई मेरा अनुभव नहीं। | हैं। परमात्मा को ही जानना, संबंध में नहीं। उसके बाबत नहीं, आत्मा? कोई मेरा अनुभव नहीं। ध्यान? कोई मेरा अनुभव नहीं। | उसको ही जानना तत्व-ज्ञान है। यह कब घटित होता है? अज्ञान वह कोरा कागज लाकर उसने गुरजिएफ को दे दिया। उसकी | | हमारी सहज स्थिति है। फिर अज्ञान को हम ज्ञान से ढांक लेते हैं, आंख में आंसू टपक रहे थे। उसने कहा, मुझे क्षमा करना। मुझे तो भ्रांति पैदा होती है। लगता है, जान लिया। कुछ भी पता नहीं है। यह कोरा कागज आप ले लें। उपनिषदों ने कहा है बड़ा बहुमूल्य सूत्र, संभवतः इससे गुरजिएफ ने कहा कि तब तू आगे बढ़ सकता है। क्योंकि जिसने | | क्रांतिकारी वचन जगत में खोजना कठिन है। और उपनिषद को तथाकथित ज्ञान को ही ज्ञान समझ लिया, वह फिर आगे नहीं बढ़ | लोग पढ़ते रहते हैं और उसी उपनिषद को कंठस्थ कर लेते हैं। ऐसा सकता। तू तत्व-ज्ञानी भी हो सकता है। अभी तक तू ज्ञानी था, अब आदमी मजेदार है और विचित्र है। तू तत्व-ज्ञानी भी हो सकता है। जब ज्ञानी को पता चलता है, मैं | ___ उपनिषद ने कहा है कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी नहीं है, तब तत्व-ज्ञान की यात्रा शुरू होती है। | ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं! और ध्यान रहे, अज्ञान इतना नहीं भटकाता, जितना तथाकथित | यह किन ज्ञानियों के लिए कहा होगा जो महाअंधकार में भटक उधार ज्ञान भटकाता है। अज्ञानी तो विनम्र होता है। उसे पता होता | जाते हैं! और मजा यह है कि इसी उपनिषद को लोग कंठस्थ कर है, मुझे पता नहीं। लेकिन तथाकथित जो ज्ञानी होते हैं, जिनके लेते हैं। और इस सूत्र को भी कंठस्थ कर लेते हैं। और इस सूत्र को मस्तिष्क में सिवाय शास्त्र के और कुछ भी नहीं होता। शास्त्र की | | रोज कहते रहते हैं कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी प्रतिध्वनियां होती हैं। उनको यह भी खयाल नहीं आता कि हम नहीं | | महाअंधकार में भटक जाते हैं। इसको भी कंठस्थ कर लेते हैं। जानते। उनको तो पक्का मजबूत खयाल होता है कि मैं जानता हूं। | सोचते हैं, इसे कंठस्थ करके वे ज्ञानी हो गए। इन्हीं ज्ञानियों के यह मैं जानता हूं, यही उनकी बाधा बन जाती है। | भटकने के लिए यह सूत्र है। तत्व-ज्ञान का अर्थ है, जब निजी अनुभव हो। आदमी विचित्र है। और आदमी अपने को धोखा देने में अति 226 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम गोपनीय - मौन कुशल है । और जब वह खुद को धोखा देता है, तो धोखा तोड़ने का उपाय भी नहीं बचता। दूसरे को धोखा दें, तो दूसरा बचने की भी कोशिश करता है । आप खुद ही अपने को धोखा दें, तो फिर बचने का भी कोई उपाय नहीं रह जाता। अगर कोई आदमी सोया हो, तो उसे जगाया भी जा सकता है। लेकिन कोई जागा हुआ सोया हुआ बना पड़ा हो, तो उसे जगानां बिलकुल मुश्किल है। कैसे जगाइएगा ? अगर वह आदमी जाग ही रहा हो और सोने का बहाना कर रहा हो, तब फिर जगाना बहुत मुश्किल है। नींद तोड़ देना आसान है, लेकिन झूठी नींद को तोड़ना बहुत मुश्किल है। अज्ञानी को तत्व - ज्ञान की तरफ ले जाना इतना कठिन नहीं है, जितना पंडित को, ज्ञानी को ले जाना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि वह कहता है, मैं जानता ही हूं। अभी परसों सुबह एक संन्यासी आए। बीस वर्ष से घूमते हैं, खोजते हैं। कहते हैं, हिंदुस्तान में ऐसा एक महात्मा नहीं, जिसके पास मैं न हो आया हूं। ऐसा एक शास्त्र नहीं, जो उन्होंने न पढ़ा हो। ऐसी एक विधि नहीं, वह कहते हैं, मैंने न कर ली हो। तो मैंने उनसे पूछा, आप सब सत्संग कर लिए, सब शास्त्र पढ़ लिए, सब विधियां कर लीं, अब क्या इरादे हैं? अगर आपको पक्का हो गया है कि आपको अभी तक नहीं मिला, तो ये सब शास्त्र और ये सब सत्संग और सब विधियां बेकार गए। अब इनको छोड़ दें। और अगर मिल गया हो, तो मेरा समय खराब न करें। मुझे साफ-साफ कह दें। अगर मिल गया हो, तो ठीक है, बात समाप्त हो गई। अगर न मिला हो, तो अब इस बोझ को न ढोएं। क्योंकि एक घंटा उन्होंने मुझे ब्योरा बताया, कि वे कौन-कौन सी किताब पढ़ चुके हैं, कौन - कौन महात्मा से मिल चुके हैं, कौन-कौन सी विधि कर चुके हैं। मैंने कहा, इनसे अगर मिल गया हो, तो ठीक है। झंझट मिट गई। अगर न मिला हो, तो अब इस बोझ को न ढोए फिरें । लेकिन यह बात उनको रुचिकर नहीं लगी। यह उनके जीवनभर की संपत्ति है। इससे मिला कुछ नहीं। लेकिन यह अनुभव भी करना कि इससे कुछ नहीं मिला, उसका मतलब होता है कि बीस साल मेरे बेकार गए। वह भी चित्त को भाता नहीं है। बीस साल मैंने व्यर्थ ही गंवाए, वह भी चित्त को भाता नहीं है। मिला भी नहीं है । छोड़ा भी नहीं जाता, जो पकड़ लिया है। ज्ञानी, तथाकथित ज्ञानी की तकलीफ यही है। अपना ज्ञान भी नहीं है और उधार ज्ञान सिर पर इतना भारी है, वह छोड़ा भी नहीं जाता। क्योंकि वह संपत्ति बन गई। उससे अकड़ आ गई। उससे अहंकार निर्मित हो गया है। उससे लगता है कि मैं जानता हूं। बिना जाने लगता है कि मैं जानता हूं। यह जो स्थिति हो, तो तत्व - ज्ञान फलित नहीं होगा। कृष्ण कहते हैं, ज्ञानियों का मैं तत्व-ज्ञान हूं। वे यह नहीं कहते कि ज्ञानियों की मैं जानकारी हूं । ज्ञानियों के पास बड़ी जानकारी, बड़ी इनफर्मेशन है। वे कहते हैं, ज्ञानियों का मैं तत्व - ज्ञान, निजी अनुभव, उनका खुद का बोध, उनका सेल्फ रियलाइजेशन, उनकी | प्रतीति, उनकी अनुभूति मैं हूं। उनकी जानकारी नहीं । यह जो अनुभूति है, यह एक बहुत अनूठी घटना है। एक छोटी-सी कहानी, और अपनी बात मैं पूरी करूं । मैंने सुना है, और टाल्सटाय ने उस पर एक कहानी भी लिखी है, कि रूस में एक झील के किनारे तीन फकीरों का नाम बड़ा प्रसिद्ध हो गया था । और लोग लाखों की तादाद में उन फकीरों का दर्शन करने जाने लगे। और वे फकीर महामूढ़ थे, बिलकुल गैर पढ़े-लिखे थे। कुछ धर्म का उन्हें पता ही नहीं था। यह खबर रूस | के आर्च प्रीस्ट को सबसे बड़े ईसाई पुरोहित को लगी । उसे बड़ी | हैरानी हुई। क्योंकि ईसाई चर्च तो कानूनन ढंग से लोगों को संत घोषित करता है, तभी वे संत हो पाते हैं। यह भी बड़े मजे की बात है ! ईसाई चर्च तो घोषणा करता है कि फलां आदमी संत हुआ। और जब पोप इसकी गारंटी दे देता है कि फलां आदमी संत हुआ, तभी वह संत माना जाता है। इसलिए | ईसाइयत में एक मजेदार घटना घटती है कि दो-दो सौ, तीन-तीन सौ साल हो जाते हैं आदमी को मरे हुए, तब चर्च उनको संत घोषित करता है। जिंदों को तो जला दिया कई दफा चर्च ने जान आफ आर्क को जलाया, वह जिंदा थी तब। फिर सैकड़ों साल बाद उसको संतत्व की पदवी घोषित की, कि वह भूल हो गई, वह संत थी। अभी संत कैसे हो गए ये! हिंदुस्तान होता तो चलता, यहां कोई भी संत हो सकता है। इसकी कोई तकलीफ नहीं है। लेकिन रूस में तकलीफ हुई कि ये संत हो कैसे गए ! तो आर्च प्रीस्ट बड़ा परेशान हुआ। और जब पता चला कि लाखों लोग वहां जाते हैं, तो उसने कहा, यह तो हद हो गई! यह तो चर्च के लिए नुकसान होगा । ये कौन लोग हैं। इनकी परीक्षा लेनी जरूरी है। 227 तो आर्च प्रीस्ट एक मोटर बोट में बैठकर झील में गया। जाकर वहां पहुंचा, तो वे तीनों झाड़ के नीचे बैठे थे। देखकर वह बड़ा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 हैरान हुआ। सीधे-सादे ग्रामीण देहाती मालूम पड़ते थे। वह जाकर | उन्होंने कहा, एक दफा और। कहीं भूल न जाएं। उसने कहा, तुम जब खड़ा हुआ, तो उन तीनों ने झुककर नमस्कार किया, उसके चरण | आदमी कैसे हो? तुम संत हो? तो उन्होंने कहा, नहीं, हम कोशिश छुए। उसने कहा कि बिलकुल नासमझ हैं। इनकी क्या हैसियत! तो पूरी याद करने की करेंगे, एक दफा आप और दोहरा दें! उसने उसने बहुत डांटा-डपटा, फटकारा कि तुम यह क्यों भीड़-भाड़ दोहरा दी। यहां इकट्ठी करते हो? उन्होंने कहा, हम नहीं करते। लोग आ जाते | फिर पादरी वापस लौटा। जब वह आधी झील में था, तब उसने हैं। आप उनको समझा दें। पूछा कि तुमको किसने कहा कि तुम देखा कि पीछे वे तीनों पानी पर भागते चले आ रहे हैं। तब उसके संत हो? लोग कहने लगे। हमको कुछ पता नहीं है। तुम्हारी प्रार्थना प्राण घबड़ा गए। उसने अपने माझी से कहा कि यह क्या मामला क्या है ? बाइबिल पढ़ते हो? उन्होंने कहा, हम बिलकुल पढ़े-लिखे है ? ये तीनों पानी पर कैसे चले आ रहे हैं? उस माझी ने कहा कि नहीं हैं। तुम प्रार्थना क्या करते हो? क्योंकि चर्च की तो निश्चित मेरे हाथ-पैर खुद ही कंप रहे हैं। यह मामला क्या है! वे तीनों पास प्रार्थना है। तो उन्होंने कहा, हमको तो प्रार्थना कुछ पता नहीं। हम आ गए। उन्होंने कहा, जरा रुकना। वह प्रार्थना हम भूल गए; एक तीनों ने मिलकर एक बना ली है। तुम कौन हो बनाने वाले प्रार्थना? बार और बता दो! उस पादरी ने कहा कि तुम अपनी ही प्रार्थना जारी प्रार्थना तो तय होती है पोप के द्वारा। बिशप्स की बड़ी एसेंबली रखो। हमारी प्रार्थना तो कर-करके हम मर गए, पानी पर चल नहीं इकटी होती है. तब एक-एक शब्द का निर्णय होता है। तम कौन सकते। तम्हारी प्रार्थना ही ठीक है। तम वही जारी रखो। वे तीनों हो प्रार्थना बनाने वाले? तुमने अपनी निजी प्रार्थना बना ली है! | हाथ जोड़कर कहने लगे कि नहीं, वह प्रार्थना ठीक नहीं। मगर भगवान तक जाना हो, तो बंधे हुए रास्तों से जाना पड़ता है! क्या आपने जो बताई थी, बड़ी लंबी है और शब्द जरा कठिन हैं। और है तुम्हारी प्रार्थना? | हम भूल गए। हम बेपढ़े-लिखे लोग हैं। वे तीनों बहुत घबड़ा गए। कंपने लगे। सीधे-सादे लोग थे। तो | यह घटना टाल्सटाय ने लिखी है। ये तीन आदमी बिलकुल उन्होंने कहा, हमने तो एक छोटी प्रार्थना बना ली है। आप माफ पंडित नहीं हैं, विनम्र भोले-भाले लोग हैं। लेकिन एक निजी करें, तो हम बता दें। ज्यादा बड़ी नहीं है, बहुत छोटी-सी है। अनुभव घटित हुआ है। और निजी अनुभव के लिए कोई अधिकृत ईसाइयत मानती है कि परमात्मा के तीन रूप हैं, ट्रिनिटी। त्रिमूर्ति प्रार्थनाओं की जरूरत नहीं है। और निजी अनुभव के लिए कोई परमात्मा है। परमात्मा है, उसका बेटा है, होली घोस्ट है। ये तीन लाइसेंस्ड शास्त्रों की जरूरत नहीं है। और निजी अनुभव का किसी रूप हैं परमात्मा के। ने कोई ठेका नहीं लिया हुआ है। हर आदमी हकदार है पैदा होने के तो उन्होंने कहा कि हमने तो एक छोटी-सी प्रार्थना बना ली। यू साथ ही परमात्मा को जानने का। वह उसका स्वरूपसिद्ध अधिकार आर थ्री, वी आर थ्री, हैव मर्सी आन अस। तुम भी तीन हो, हम है। वह मैं हूं, यही काफी है, मेरे परमात्मा से संबंधित होने के लिए। भी तीन हैं, हम पर कृपा करो। यही हमारी प्रार्थना है। उस पादरी ने और कुछ भी जरूरी नहीं है। बाकी सब गैर-अनिवार्य है। कहा, नासमझो, बंद करो यह बकवास। यह कोई प्रार्थना है ? सुनी लेकिन जो जानकारी हम इकट्ठी कर लेते हैं, वह जानकारी हमारे है कभी? और तुम मजाक करते हो भगवान का कि तुम भी तीन | सिर पर बोझ हो जाती है। वह जो भीतर की सरलता है, वह भी खो और हम भी तीन हैं? जाती है। पंडित भी उसे पा सकते हैं, लेकिन पांडित्य को उतारकर उन्होंने कहा, नहीं, मजाक नहीं करते। हम भी तीन हैं। और रख दें तो ही। हमने सुना है कि वह भी तीन है। उसका तो हमें पता नहीं। बाकी | ___ और तत्व-ज्ञान मैं हूं। ज्ञान नहीं, जानकारी नहीं, सूचना नहीं, हम तीन हैं। और हम ज्यादा कुछ जानते नहीं। हमने सोचा, हम तीन | शास्त्रीयता नहीं, आत्मिक अनुभव। और निश्चित ही, उस हैं, वे भी तीन हैं, तो हम तीनों पर कृपा कर। उसने कहा कि यह | आत्मिक अनुभव में, जहां एक भी शब्द नहीं होता, व्यक्ति होता है प्रार्थना नहीं चलेगी। आइंदा करोगे, तो तुम नरक जाओगे। तो मैं | और अस्तित्व होता है और दोनों के बीच की सब दीवालें गिर गई तुम्हें प्रार्थना बताता हूं आथराइज्ड, जो अधिकृत है। | होती हैं, वहां जो होता है, वही परमात्मा है। उसने प्रार्थना बताई। उन तीनों को कहलवाई। उन्होंने कहा, एक इसे हम ऐसा कहें, परमात्मा का अनुभव नहीं होता; एक दफा और कह दें, कहीं हम भूल न जाएं। फिर एक दफा कही। फिर अनुभव है, जिसका नाम परमात्मा है। परमात्मा का कोई अनुभव 228/ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ परम गोपनीय-मौन 8 नहीं होता। ऐसा नहीं होता कि आपके सामने परमात्मा खड़ा है, और आप अनुभव कर रहे हैं। इसमें तो दूरी रह जाएगी। एक अनुभव है, जहां व्यक्ति समष्टि में लीन हो जाता है। उस अनुभव का नाम ही परमात्मा है। शायद कठिन मालूम पड़े। परमात्मा का कोई अनुभव नहीं होता, देअर इज़ नो एक्सपीरिएंस आफ गॉड, बट ए सर्टेन एक्सपीरिएंस इज़ नोन एज गॉड। एक खास अनुभव! । ___ वह अनुभव क्या है? वह अनुभव है, जहां बूंद सागर में खोती है। जहां बूंद सागर में खोती है, तो बूंद को जो अनुभव होता होगा! जैसे व्यक्ति जब समष्टि में खोता है, तो व्यक्ति को जो अनुभव होता है, उस अनुभव का नाम परमात्मा है। परमात्मा एक अनुभव है, वस्तु नहीं। परमात्मा एक अनुभव है, व्यक्ति नहीं। परमात्मा एक अनुभव है, एक घटना है। और जो भी तैयार है उस घटना के लिए, उस एक्सप्लोजन के लिए, उस विस्फोट के लिए, उसमें घट जाती है। और तैयारी के लिए जरूरी है कि अपना अज्ञान तो छोड़ें ही, अपना ज्ञान भी छोड़ दें। अज्ञान तो छोड़ना ही पड़ेगा, ज्ञान भी छोड़ देना पड़ेगा। और जिस दिन ज्ञान-अज्ञान दोनों नहीं होते, उसी दिन जो होता है, उसका नाम परमात्मा है। . आज इतना ही। लेकिन पांच मिनट रुकें। बीच में कोई उठ जाता है, दूसरों को | तकलीफ होती है। पांच मिनट और बैठें। कीर्तन के बाद जाएं। 229 Page #260 --------------------------------------------------------------------------  Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 10 पंद्रहवां प्रवचन मंजिल है स्वयं में Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-58 यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । | है कि यह सृष्टि ठीक वैसे ही है, जैसे मकड़ी अपने ही भीतर से न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् । । ३९ ।। । | जाले को निकालकर फैलाती है। यह जो इतना विस्तार है, यह नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप । परमात्मा से वैसे ही निकलता और फैलता है, जैसे मकड़ी का जाला एष तद्देशतः प्रोक्तो विभूतेविस्तरो मया।। ४०।। उसके भीतर से निकलता और फैलता है। यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। यह विस्तार उसका ही विस्तार है। यह विस्तार उससे पृथक नहीं तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसंभवम् ।। ४१।। है। और एक क्षण को भी पृथक होकर इसका कोई अस्तित्व नहीं ___अथवा बहुनतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । हो सकता। यह है उसकी ही मौजूदगी के कारण। वह इसमें समाया विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।। ४२ ।। है, इसीलिए इसका अस्तित्व है। वह मौजूद है, इसीलिए यह मौजूद और हे अर्जुन, जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है वह है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम ईश्वर को अस्तित्व का भी में ही हं, क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत पर्यायवाची मानें। अस्तित्व ही ईश्वर है। नहीं है कि जो मेरे से रहित होवे। इस बात से तो विज्ञान भी राजी होगा। इस बात से तो नास्तिक हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। यह तो मैंने | भी राजी हो जाएगा। लेकिन नास्तिक या वैज्ञानिक कहेगा, फिर अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिए संक्षेप से कहा है। | ईश्वर शब्द के प्रयोग की कोई जरूरत नहीं; प्रकृति काफी है, जगत इसलिए हे अर्जुन, जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात | काफी है, अस्तित्व काफी है। और यहां धर्म के जगत के लिए ऐश्वर्ययुक्त एवं कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, विशेष शब्द के प्रयोग का अर्थ समझ लेना उचित है। उस-उस को तू मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुई जान । | अस्तित्व काफी है कहना, लेकिन अस्तित्व से हमारे हृदय में अथवा हे अर्जुन, इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है! | कोई भी आंदोलन नहीं होता। अस्तित्व से हमारे प्राणों में कोई चीज मैं इस संपूर्ण जगत को अपनी योग-माया के एक अंशमात्र संचारित नहीं होती। अस्तित्व से हमारे हृदय की वीणा पर कोई चोट से धारण करके स्थित हूं। इसलिए मेरे को ही तत्व से नहीं पड़ती। अस्तित्व और हमारे बीच कोई संबंध निर्मित नहीं जानना चाहिए। होता। ईश्वर कहते ही हमारे हृदय में गति शुरू हो जाती है। ईश्वर शब्द इसलिए प्रयोजित है। क्योंकि ईश्वर है, इतना काफी नहीं है कहना, आदमी ईश्वर तक पहुंचे, यह भी जरूरी है। । र हे अर्जुन, जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह ___ धर्म केवल तथ्यों की घोषणा नहीं है, वरन लक्ष्यों की घोषणा भी जा मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत है। यहीं विज्ञान और धर्म का फर्क है। धर्म केवल तथ्यों की, फैक्ट्स नहीं है कि जो मेरे से रहित हो। की घोषणा नहीं है। क्या है, इतने से ही धर्म का संबंध नहीं है। क्या इस सूत्र पर कृष्ण ने बार-बार जोर दिया है। बहुमूल्य है, और होना चाहिए, क्या हो सकता है, उससे भी धर्म का संबंध है। निरंतर स्मरण रखने योग्य इसलिए भी। जब भी हम ईश्वर के संबंध ___ अगर बीज हमारे सामने पड़ा हो, तो विज्ञान कहेगा, यह बीज में विचार करते हैं, तब ऐसा ही विचार में प्रतीत होता है कि ईश्वर है; और धर्म कहेगा, यह फूल है। धर्म उसकी भी घोषणा करेगा जो अस्तित्व से कुछ और है। यह विचार की भूल के कारण होता है; हो सकता है, जो होना चाहिए। और जो नहीं हो पाएगा, तो बीज यह विचार के स्वभाव और विचार की प्रक्रिया के कारण होता है। के प्राण कुंठित, पीड़ित और परेशान रह जाएंगे। बीज अतृप्त रह जब भी विचार का उपयोग किया जाता है, तो चीजें दो में टूट जाती | जाएगा, अगर फूल न हो पाया तो। और बीज के प्राणों में एक गहरा हैं। विचार वस्तुओं को विश्लिष्ट करने का मार्ग है। तो जब भी हम | विषाद, एक संताप रह जाएगा, एक अधूरापन। । सोचते हैं ईश्वर के संबंध में, तो जगत अलग और ईश्वर अलग हो | _ विज्ञान इतना कहकर राजी हो जाता है कि अस्तित्व है। धर्म जाता है। तो हम कहते हैं सृष्टि, तो स्रष्टा अलग हो जाता है। कहता है, ईश्वर और अस्तित्व समानार्थी हैं, फिर भी हम अस्तित्व लेकिन वस्तुतः अनुभूति में सृष्टि और स्रष्टा पृथक-पृथक नहीं नहीं कहते, कहते हैं, ईश्वर है। ईश्वर कहते ही बीज और फूल, हैं, वे एक ही हैं। इसलिए पुराने अनुभव करने वाले लोगों ने कहा । दोनों की एक साथ घोषणा हो जाती है। जब हम कहते हैं, अस्तित्व 1232 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मंजिल है स्वयं में 3 ईश्वर है, तो हम मौलिक रूप से यह कहना चाहते हैं कि प्रत्येक मछली सागर में तैरती रहती है, उसे सागर का पता नहीं चलता। ईश्वर है और हो सकता है। मछली को सागर से निकालकर रेत पर डाल दो, तब उसे पहली दफा कष्ण ने कहा है. ऐसा चर और अचर कोई भी नहीं है. जो मेरे पता चलता है कि सागर था। तब उसकी तड़फन, तब उसकी बेचैनी, से रहित होवे। ऐसी कोई भी सत्ता नहीं है, जहां मैं मौजूद नहीं हूं। | तब उसके प्राणों का संकट खड़ा होता है, तब उसे पता चलता है कि लेकिन पत्थर की तो हम बात छोड़ दें, आदमी को भी पता नहीं जहां मैं थी, वह सागर था, वह मेरे प्राणों का आधार था। चलता कि वह मौजूद है। पत्थर में भी वह मौजूद है। पत्थर को हम । लेकिन आदमी को परमात्मा के बाहर निकालकर किसी भी रेत छोड़ दें, आदमी को भी पता नहीं चलता कि वह मेरे भीतर मौजूद | | पर डालने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए आदमी को पता नहीं है। हमें भी अनुभव नहीं होता कि वह हमारे भीतर मौजूद है। और | | चलता कि वह परमात्मा में जी रहा है! यह अजीब सा लगेगा। हम भी उसे खोजने निकलते हैं, तो कहीं और खोजने निकलते | | हम तो साधारणतः सोचते हैं कि परमात्मा बहुत दूर होना चाहिए, हैं—काबा में, काशी में, मक्का में, मदीना में कहीं उसे खोजने | इसलिए हमें पता नहीं चलता है। वह बिलकुल ही गलत है। दूर निकलते हैं। यह खयाल ही नहीं आता कि वह यहां भीतर हो सकता होता, तो पता हम चला ही लेते। इतना निकट है, इसीलिए पता नहीं है। क्या कारण होगा? चलता। और निकटता इतनी सघन है कि कभी नहीं टूटी, इसलिए __कारण बहुत सहज, बहुत सरल है। जो अति निकट होता है, वह | पता नहीं चलता। विस्मरण हो जाता है। जो बहुत निकट होता है, उसकी हमें याद ही | | दूरी कितनी ही बड़ी हो, पार की जा सकती है। और परमात्मा नहीं आती। और जो भीतर ही होता है, उसका हमें पता ही नहीं अगर दूर होता, तो हमने पार कर लिया होता। और एक आदमी चलता। हमें पता ही उन चीजों का चलता है, जो दूर होती हैं, जिनमें | | पार कर लेता, फिर तो हम पक्का रास्ता बना लेते। फिर कोई और हममें फासला होता है। बोध के लिए बीच-बीच में गैप, कठिनाई न थी। एक कृष्ण पहुंच जाते, एक बुद्ध पहंच जाते, फिर अंतराल चाहिए। हमारे और परमात्मा के बीच में कोई अंतराल नहीं | क्या दिक्कत थी। फिर कोई कठिनाई न थी। चांद पर एक आदमी है, इसलिए बोध पैदा नहीं हो पाता। उतर गया, अब सिद्धांततः पुरी मनष्यता उतर सकती है। अब यह इसे थोड़ा हम समझ लें। कोई कठिनाई की बात नहीं रही, देर-अबेर की बात है। एक बार अगर आपको बचपन से ही शोरगुल के बीच बड़ा किया जाए, | रास्ते का पता चल गया, तो कोई भी उतर सकता है। रेलवे स्टेशन पर बड़ा किया जाए, जहां दिनभर गाड़ियां दौड़ती | ___ जापान की एक हवाई यात्रा कंपनी उन्नीस सौ पचहत्तर के लिए रहती हों, और यात्री भागते रहते हों, और शोरगुल होता हो, इंजन टिकट बेच रही है चांद के लिए! थ्योरेटिकली पासिबल हो गया, आवाज करते हों, तो आपको उसी दिन पता चलेगा कि शोरगुल हो सिद्धांततः तो संभव हो गया; कोई अड़चन नहीं है। चांद पर आज रहा है, जिस दिन रेलवे में हड़ताल हो जाए; उसके पहले पता नहीं नहीं कल कोई भी उतरेगा। एक आदमी उतर गया, तो कोई भी उतर चलेगा। जिस दिन सब गाड़ियां बंद हों और यात्री कोई न आएं, न जाएगा। जाएं, उस दिन आपको पहली दफा पता चलेगा कि शोरगुल हो रहा ___ दूरी की यात्रा की एक खूबी है। दूरी की यात्रा में रास्ता बन जाता था। अन्यथा आप शोरगुल के आदी हो गए होंगे। आपको खयाल | | है। एक आदमी पहुंच जाए, सब पहुंच सकते हैं। लेकिन परमात्मा में भी नहीं आएगा। और हमारे बीच दूरी न होने से रास्ता नहीं बन सकता। रास्ते के लिए जो बात निरंतर होती रहती है, उसका हमें बोध मिट जाता है। | दूरी जरूरी है। कुछ तो फासला हो, तो हम रास्ता बना लें। जो बात अचानक होती है, उसका हमें बोध होता है। जो | इसलिए इतने लोग परमात्मा को पा लेते हैं, फिर भी रास्ता नहीं कभी-कभी होती है, उसका हमें बोध होता है। जो सदा होती रहती | | बन पाता बंधा हुआ कि जिस पर से फिर कोई भी धड़ल्ले से चला है, उसका हमें बोध मिट जाता है। और परमात्मा और हमारे बीच | | जाए। और फिर किसी को भी यह चिंता न रहे कि मुझे खोजना है। कभी भी हड़ताल नहीं होती, यही तकलीफ है। परमात्मा और हमारे | | रास्ता पकड़ लिया, खोज पूरी हो ही जाएगी। बीच कभी ऐसी घटना नहीं घटती कि परमात्मा मौजूद न हो। अगर | | ध्यान रहे, अगर रास्ता मजबूत हो, तो आपको सिर्फ चलना एक क्षण को भी परमात्मा गैर-मौजूद हो जाएं, तो हमें पता चले। जानना जरूरी है। धर्म के मामले की कठिनाई यह है कि चलना तो 233] Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-508 सबको आता है, रास्ता नहीं है। और हर एक को रास्ता अपना ही जा सकता, वही परमात्मा है। बनाना पड़ता है। कोई दूसरे का रास्ता काम नहीं पड़ता। दूरी हो तो - तब तो यह मतलब हुआ कि हम उसे खोज रहे हैं, तो हम गलती दूसरे के रास्ते काम पड़ते हैं, दूरी यहां बिलकुल नहीं है। यहां इंचभर | कर रहे हैं। निश्चित ही! खोजने से कोई उसे पाता नहीं। खोजने से का फासला नहीं है। सिर्फ एक ही बात पता चलती है कि खोज व्यर्थ थी। खोजने से यह बहुत पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी दिखाई पड़ेगा। जब दूरी | सिर्फ हम थकते हैं और रुकते हैं। लेकिन जिस दिन हम थकते हैं होती है, तो हम पहुंच सकते हैं चलकर। और जब दूरी बिलकुल न और रुकते हैं, उसी दिन उसे पा लेते हैं। हो, तो हम पहुंच सकते हैं रुककर; चलकर नहीं पहुंच सकते। | तो खोज का एक उपयोग है, नकारात्मक। उससे व्यर्थता पता अगर मुझे आपके पास आना है, तो मैं चलकर आऊंगा। और चल जाती है। दौड़ना, जाना, कहीं पाने की कोशिश, वह सब व्यर्थ अगर मुझे मेरे ही पास आना है, तो चलना फिजूल है। और अगर | हो जाती है। जिस दिन हम इस हालत में आ जाते हैं कि न कुछ पाने मैं मेरे ही पास पहुंचने के लिए चलता हूं, तो उसका मतलब, मैं | को है, न कुछ खोजने को है, न कहीं जाने को है, और भीतर सारी पागल हूं। कोई आदमी कहे कि मैं मेरे ही पास जाने के लिए दौड़ गति शून्य हो जाती है, उसी क्षण हम उसे पा लेते हैं, क्योंकि उसे रहा हूं, तो आप कहेंगे, वह पागल है। क्योंकि दौड़ तो और दूर ले हम पाए ही हुए हैं। वह हमारा अस्तित्व है। . जाएगी, पास कैसे लाएगी? पास आना हो तो सब दौड़ छोड़ देनी हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। यह तो मैंने पड़ती है। अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिए संक्षेप से कहा है। लेकिन यही सबसे बड़ी कठिनाई है, यह सरलता, परमात्मा का ये जो इतने-इतने प्रतीक कृष्ण ने लिए और अर्जुन को इतने-इतने निरंतर मौजूद होना। यह भाषा में फिर भी गलत है कहना कि वह मार्गों से इशारा किया, वे कहते हैं, यह तो बहुत संक्षिप्त में मैंने तुझे हमारे पास है, क्योंकि पास का मतलब भी थोड़ी दूरी तो होती ही | कुछ इशारे किए हैं। मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है। है। हम वही हैं। फिर भी भाषा में दो हो जाते हैं, मैं और वह। जिसका अंत हो जाए, वह विभूति नहीं है। जिसका अंत हो जाए, इसलिए ज्ञानियों ने या तो कहा कि मैं ही हूं, अहं ब्रह्मास्मि! और वह दिव्य भी नहीं है। जिन-जिन चीजों का अंत होता है, वे-वे चीजें या कहा कि तू ही है। या तो मैं ही हूं, और या तू ही है। क्योंकि दो सांसारिक हैं। और जिन-जिन का प्रारंभ होता है, वे भी चीजें का उपयोग करने में फिर थोड़ा सा फासला बनता है। उतना फासला सांसारिक हैं। दिव्य से अर्थ ही वही है कि जिसका न कोई प्रारंभ है भी नहीं है। और न कोई अंत है; जिसका हम खोज नहीं सकते कि कब प्रारंभ कृष्ण का यह कहना कि सारे अस्तित्व में, होने मात्र में, मैं ही हुआ और जिसकी हम खोज नहीं कर सकते कि कब समाप्त होगा। समाया हुआ हूं, इन बहुत-सी बातों की सूचना है। जिसे भी खोजना ___ इसका यह अर्थ नहीं है कि हमारी खोज छोटी है। नहीं, हम हो उसे, उसे खोजने की भूल में नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि उसे | | कितना ही खोजें, जिसका स्वभाव ही अनादि और अनंत होना है, हमने कभी खोया नहीं है। जिसे हम खो दें, उसे खोज भी सकते हैं। | वही दिव्यता है, वही डिवाइननेस है। लेकिन परमात्मा को खोने का कोई उपाय नहीं है। आप परमात्मा __इस जगत में जहां-जहां हमें प्रारंभ मिल जाता हो और अंत मिल को खो नहीं सकते हैं। जाता हो, समझ लेना कि वहां-वहां संसार है। और जहां प्रारंभ न अगर परिभाषा की तरह से कहा जाए, तो परमात्मा का अर्थ है, मिलता हो और अंत न मिलता हो किसी बात का, वहीं-वहीं आपका वह हिस्सा, जिसे आप खो नहीं सकते। जो-जो हिस्से आप समझना कि परमात्मा की झलक मिलनी शरू हई। खो सकते हैं-शरीर आप खो सकते हैं। मन आपका कल बदल लेकिन हम तो परमात्मा को भी वस्तुओं की तरह देखना चाहते सकता है, खो सकते हैं। आंखें कल आपकी फूट सकती हैं; इंद्रियां | हैं। हम तो चाहते हैं, परमात्मा भी सामने खड़ा हो जाए, तभी हम खो सकते हैं। होश भी, जिसको हम होश कहते हैं, वह भी खो | | मानें। नास्तिक यही कहता है कि कहां है तुम्हारा ईश्वर ? उसे सामने सकता है; कल आप बेहोश हो सकते हैं। लेकिन जिसे आप खो | कर दो; हम मान लें। उसका प्रश्न सार्थक मालूम होता है, लेकिन ही नहीं सकते, वही परमात्मा है आपके भीतर। आपका होना, ! बिलकुल ही व्यर्थ है। क्योंकि वह ईश्वर शब्द की परिभाषा भी नहीं बीइंग. आपका अस्तित्व. वह आप नहीं खो सकते। जो नहीं खोया | समझ पाया। 1234 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंजिल है स्वयं में ईश्वर से अर्थ ही उसका है कि जिसका कोई प्रारंभ नहीं, अंत नहीं, जिसका कोई रूप नहीं, जिसका कोई गुण नहीं, फिर भी जो है और जितने भी गुण हैं और जितने भी आकार हैं, और जितने भी रूप हैं, सबके भीतर है। एक फूल मैं आपको दूं और कहूं कि सुंदर है। फूल तो मैं आपको दे सकता हूं, फूल की परिभाषा भी हो सकती है, लेकिन सौंदर्य की परिभाषा में कठिनाई खड़ी हो जाएगी। और आप सब जानते हैं कि सौंदर्य क्या है। लेकिन अगर कोई पूछ लेगा, तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। आप बता न पाएंगे कि सौंदर्य क्या है। सबको अनुभव है कि सौंदर्य क्या है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने कभी सौंदर्य का अनुभव न किया हो। कभी उगते हुए सूरज में, कभी डूबते हुए चांद में, कभी किसी फूल में, कभी किन्हीं आंखों में, कभी किसी चेहरे में, कभी किसी शरीर के अनुपात में, कभी किसी ध्वनि में, कभी किसी गीत की कड़ी में, कहीं न कहीं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने सौंदर्य का अनुभव न किया हो। लेकिन अब तक, प्लेटो से लेकर बट्रेंड रसेल तक, सौंदर्य के संबंध में निरंतर चिंतन करने वाले लोग एक परिभाषा भी नहीं दे पाए हैं कि सौंदर्य क्या है! संत अगस्तीन ने कहा है कि कुछ चीजें ऐसी हैं कि जब तक तुम नहीं पूछते, मैं जानता हूं; और तुम पूछते हो कि मुश्किल खड़ी हो जाती है। उसने कहा कि मैं भलीभांति जानता हूं कि प्रेम क्या है, लेकिन तुम पूछो और मैं मुश्किल में पड़ा । मैं भलीभांति जानता हूं कि समय, टाइम क्या है, लेकिन तुमने पूछा कि मैं मुश्किल में पड़ा । 1 परमात्मा इनमें सबसे गहरी मुश्किल है, सबसे बड़ी मुश्किल है। समय और प्रेम और सौंदर्य और सत्य, शुभ, ये सब अलग-अलग मुश्किलें हैं। इनकी कोई की परिभाषा नहीं हो पाती। जार्ज ई. मूर ने इस समय पिछले पचास वर्षों में, पश्चिम में जो सबसे ज्यादा तर्कयुक्त बुद्धि का विचारक था, श्रेष्ठतम, और पूरे मनुष्य जाति के इतिहास में दो-चार आदमी उतनी तीव्र प्रतिभा के खोजे जा सकते हैं - जी. ई. मूर ने एक किताब लिखी है, प्रिंसिपिया इथिका; नीति - शास्त्र और दो-ढाई सौ पेजों में सिर्फ एक ही सवाल पर चिंतन किया है, व्हाट इज गुड ? शुभ क्या है? अच्छाई क्या है ? और दो सौ, ढाई सौ पेजों में जी. ई. मूर की हैसियत का बुद्धिमान आदमी इतनी मेहनत किया है, इतनी बारीक मेहनत किया है कि शायद मनुष्यों में कभी किसी मनुष्य ने ऐसी मेहनत शुभ के बाबत | नहीं की है। और आखिर में नतीजा यह है, आखिरी जो निष्कर्ष है, वह यह है, मूर कहता है, गुड इज़ इनडिफाइनेबल, वह जो शुभ है, उसकी कोई परिभाषा नहीं हो सकती ! ढाई सौ पेज सिर्फ इस छोटे-से सवाल पर कि शुभ क्या है? और नतीजा - जी. ई. मूर की हैसियत के आदमी का — कि शुभ की व्याख्या नहीं हो सकती ! और उसने कहा कि ऐसा ही मामला है, जैसे कोई मुझे एक फूल | दे दे और मैं कहूं कि यह पीला फूल है और वह मुझसे पूछे, व्हाट | इज़ यलो ? पीला क्या है? तो जैसी मैं मुश्किल में पड़ जाऊं, ऐसी मुश्किल में पड़ गया हूं। आपसे भी कोई पूछे कि पीला क्या है, तो आप क्या कहेंगे? मूर ने तो कहा है, यलो इज़ यलो, पीला पीला है। और ज्यादा कुछ कहा | नहीं जा सकता। लेकिन यह भी कोई कहना हुआ कि पीला पीला है ! यह कोई बात हुई ? तर्कशास्त्री कहते हैं, टॉटोलाजी है, यह तो | पुनरुक्ति हो गई। आपने कहा, यलो इज़ यलो। इसमें क्या मतलब हुआ, वह तो हमें पता ही था। आपने कोई नई बात नहीं कही। कहिए कि व्हाट इज़ यलो ? मूर कहता है, कैसे कहें। क्योंकि अगर मैं कहूं लाल, पीला लाल है, तो गलत बात है। क्योंकि लाल लाल है। अगर मैं कहूं, पीला हरा है, तो भी गलत बात है; क्योंकि हरा हरा है! मैं पीले को और क्या कहूं पीले के सिवाय ? जो भी मैं कहूंगा, वह गलत होगा। क्योंकि अगर वह पीला ही होगा, तो तुम कहोगे, पुनरुक्ति हो गई। और अगर वह पीला न होगा, तो वह परिभाषा नहीं बनाएगा 235 इतनी छोटी-छोटी चीजों की भी हम परिभाषा नहीं कर पाते। लेकिन परमात्मा की हम परिभाषा पूछते हैं कि परमात्मा क्या है? पीला रंग क्या है, इसकी परिभाषा नहीं खोजी जा पाती। शुभ क्या है, पता नहीं चलता। सौंदर्य क्या है, पता नहीं चलता। पूछते हैं, परमात्मा क्या है ? ये सब जो इनडिफाइनेबल्स हैं, ये जो सब अपरिभाष्य हैं, दि | टोटेलिटी आफ आल इनडिफाइनेबल्स इज़ गॉड। यह जो सब अपरिभाष्य है, इन सबका जो जोड़ है, वही ईश्वर है। इसलिए बुद्ध तो किसी गांव में जाते थे, तो उनका एक शिष्य गांव में घंटा बजाकर खबर कर आता था कि बुद्ध ने ग्यारह प्रश्न तय किए हैं, कोई पूछे न। ईश्वर क्या है, यह पूछे न । ग्यारह प्रश्नों में जितने भी अपरिभाष्य हैं, वे सब बुद्ध ने तय कर रखे थे। वे कहते थे, इनको छोड़कर कुछ भी पूछो। ये पूछो ही मत । अनेक लोग उनसे पूछते कि यही तो पूछने योग्य मालूम पड़ते हैं Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 और आप इन्हीं पर रोक लगा देते हैं! फिर पूछने को कुछ बचता नहीं ! ईश्वर मत पूछो, आत्मा मत पूछो, मोक्ष मत पूछो, यह कुछ पूछो ही मत। इन ग्यारह में, आपके सारे दार्शनिक सवालों को बुद्ध अलग कर देते थे। तो हम क्या पूछें? तो बुद्ध कहते थे, बेहतर हो कि तुम पूछो कि ईश्वर कैसे पाया जा सकता है! पूछो कि ईश्वर कैसे जाना जा सकता है! पूछो कि ईश्वर कैसे हुआ जा सकता है ! यह मत पूछो कि ईश्वर क्या है ! इसका मतलब आप समझे? ईश्वर की हम व्याख्या नहीं कर सकते, लेकिन अनुभव कर सकते हैं। सौंदर्य की हम व्याख्या नहीं कर सकते, अनुभव हम रोज करते हैं। फूल खिलता है और हम कहते हैं, सुंदर है। और छोटा-सा बच्चा भी पूछ ले कि सौंदर्य यानि क्या? क्या मतलब सौंदर्य से? कहां है सौंदर्य इस फूल में, मुझे बताओ! हाथ रखकर, अंगुली रख दो कि यह रहा सौंदर्य। आप पंखुड़ी पर अंगुली रखेंगे, तो लगेगा, यह भी कोई सौंदर्य हुआ ! आप पूरे फूल को भी मुट्ठी में ले लेंगे, तो भी क्या आप समझते हैं, आपने सौंदर्य को मुट्ठी में ले लिया! आप कहां से बताएंगे कि सौंदर्य यह रहा! आप उस बच्चे को कहेंगे, सौंदर्य एक अनुभव है । हो तो हो, न हो तो न हो। और फूल से सौंदर्य का कुछ लेना-देना नहीं है। क्योंकि कल सुबह आप कहेंगे, बड़ा सुंदर सूरज निकल रहा है । बच्चा पूछेगा कि फूल में और सूरज में कोई संबंध तो मालूम नहीं होता ! कल फूल को सुंदर कहते थे, आज सूरज को सुंदर कहने लगे ! कुछ तो समझ का उपयोग करो ! और परसों आप कहेंगे किन्हीं आंखों में देखकर कि आंखें बड़ी सुंदर हैं। तो वह बच्चा कहेगा, अब आप बिलकुल पागल हुए जा रहे हैं। परसों फूल को कहा था सौंदर्य । कल सूरज को कहा था सौंदर्य। आज आंखों को कहने लगे सुंदर हैं! सौंदर्य क्या है ? अगर इन तीनों में है, तो इसका मतलब हुआ कि फूल से वह समाप्त नहीं होता। सूरज पर समाप्त नहीं होता। आंखों में समाप्त नहीं होता। अगर इन तीनों में है, तो तीनों जैसा नहीं है और फिर भी तीनों के भीतर कहीं छिपा है। तीनों में अनुभव होता है और हृदय एक-सा आंदोलित होता है। लेकिन कहां फूल और कहां सूरज और कहां आदमी की आंखें ! इनमें कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता । दृश्य फूल में भी मौजूद है, जिसे आप सौंदर्य कहते हैं। कोई अदृश्य आंख में भी मौजूद है, जिसे आप सौंदर्य कहते हैं। दोनों में कहीं कोई मेल है। अल्बर्ट आइंस्टीन तो बड़ा गणितज्ञ था, लेकिन उसने विवाह जिससे किया, फ्रा आइंस्टीन से, वह एक कवि स्त्री थी। यह बड़ा | कठिन जोड़ है। ऐसे तो पति-पत्नी के सभी जोड़ बड़े कठिन होते | हैं ! लेकिन यह और भी कठिन जोड़ था। दुर्घटना से ही कभी ऐसा होता है कि पति-पत्नी का जोड़ कठिन न हो, सामान्यतया तो कठिन होता ही है। लेकिन यह आइंस्टीन का जोड़ तो और मुश्किल था । आइंस्टीन तो सिर्फ गणित की भाषा ही समझता था । और कविता और गणित की भाषा में जितना फासला हो सकता है, उतना किस भाषा में होगा ? | फ्राने, उसकी पत्नी ने शादी के बाद जो पहला काम चाहा, वह | यह कि आइंस्टीन को कुछ अपनी कविता सुनाए। उसने एक गीत लिखा था, उसने उसे सुनाया। आइंस्टीन आंख बंद करके बैठ गया। फ्रा ने समझा कि वह बहुत चिंतन कर रहा है उसके गीत पर । आखिर उसने आंख खोली और उसने कहा कि यह पागलपन है, | दुबारा मुझे मत इस तरह की बात बताना । उसकी पत्नी ने कहा, | पागलपन ! आइंस्टीन ने कहा, मैंने बहुत सोचा... । क्योंकि फ्रा ने एक प्रेम का गीत लिखा था, जिसमें उसने अपने प्रेमी को, अपने प्रेमी या प्रेयसी के भाव को, चेहरे को, चांद से तुलना की थी। आइंस्टीन ने कहा, मैंने बहुत सोचा। चांद और आदमी के चेहरे में कोई भी संबंध नहीं है। कहां चांद, पागल ! | अगर आदमी के ऊपर रख दो, तो आदमी का पता ही न चले, अगर | उसका सिर बना दो तो । और चांद के सौंदर्य का मैं सोचता हूं, तो वहां तो सिवाय खाई - खड्ड के और कुछ है नहीं । आदमी के चेहरे से चांद का क्या संबंध है? | फ्रा ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैंने समझ लिया कि हम दो अलग जातियों के प्राणी हैं और यह बातचीत आगे चलानी उचित नहीं है। यह बंद ही कर देनी चाहिए। यह विषय ही उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि अगर सिद्ध करने जाओ, तो आदमी के चेहरे और चांद में कोई संबंध नहीं सिद्ध हो सकता। लेकिन फिर भी कभी कोई चेहरा चांद की याद दिलाता है। और कभी चांद किसी चेहरे की भी याद दिलाता है। लेकिन वह कोई और ही बात है सौंदर्य की। उसका गणित से कोई संबंध नहीं है, माप से कोई संबंध नहीं है। ईश्वर को जब भी हम मापने चलते हैं, तभी हम आकार देते हैं। और जब भी हम पूछते हैं, कहां है ईश्वर ? कैसा है ईश्वर ? क्या है | उसका रूप ? क्या है उसका रंग ? क्या है उसकी आकृति ? तब हम | गलत सवाल पूछ रहे हैं। सब आकृतियां जिसकी हैं, और सब रूप 236 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 मंजिल है स्वयं में जिसके हैं, वही है ईश्वर। | वक्तव्य देता हूं, तो भूल हो जाती है। अगर मैं कहूं, ईश्वर नहीं है, इसे हम ऐसा समझें कि आप सागर के किनारे खड़े हो जाएं। तो भी गलत है। और अगर मैं कहूं, ईश्वर है, तो भी गलत है। आपने सागर कभी देखा न होगा। आप कहेंगे, बिलकुल कैसी | इसलिए उचित है कि मैं चुप ही रहूं, कुछ भी न कहूं। पागलपन की आप बात कर रहे हैं! हम सब सागर के किनारे ही अगर कोई आपसे सागर के किनारे पूछने लगे कि सागर किस रहने वाले लोग, सागर हम रोज देखते हैं। लेकिन मैं आपसे कहता लहर जैसा है? तो आप भी सोचेंगे कि उचित है, चुप ही रहूं, जवाब हूं, सागर आपने कभी नहीं देखा। सिर्फ आपने सागर के ऊपर की न दूं। अगर आप यह कहें कि इस लहर जैसा है, तो भी गलती हो उठती हुई लहरें देखी हैं। लहरें सागर नहीं हैं। लहरों में सागर है; जाती है। अगर आप कहें कि सब लहरों जैसा है, तो भी गलती हो लहरें सागर नहीं हैं। क्योंकि सागर बिना लहरों के भी हो सकता है, जाती है। क्योंकि सब लहरों से बड़ा है। और अगर आप कहें, लहरें बिना सागर के नहीं हो सकतीं। किसी लहर जैसा नहीं, तो भी गलती हो जाती है, क्योंकि सभी लेकिन आप लहरों को देखकर लौट आते हैं और सोचते हैं, लहरों में वही है। यह है तकलीफ। सागर को देखकर लौट आए। हर लहर में सागर है, सब लहरों में कृष्ण कहते हैं, मेरे विस्तार का कोई अंत नहीं है। तो संक्षेप में सागर है। लेकिन सागर लहरों के पार भी है, लहरों से गहरा भी है। तुझे कुछ लहरों के प्रतीक मैंने दिए हैं। उन लहरों के प्रतीक से भी लहरें सागर के ऊपर ही डोलती रहती हैं। सागर बहुत बड़ा है। हमने अगर तू नीचे झांकेगा, तो तू सागर में पहुंच जाएगा। लहरें ही देखी हैं। इसलिए कोई यह भी पूछ सकता है कि किस लहर लेकिन खतरा एक है। अगर आप लहर में डुबकी लगाएं, तो को आप सागर कहते हैं? आप सागर में पहुंच जाएं। लेकिन अगर किनारे पर बैठकर लहर हमने आदमी देखे हैं। पौधे देखे हैं। पशु देखे हैं। पक्षी देखे हैं। का चिंतन करें, तो आप कभी सागर में नहीं पहुंच सकते। और हम हम पूछते हैं कि किसको आप भगवान कहते हैं? कौन है ईश्वर? | सब लहर का चिंतन करते हैं। और सोचते हैं कि चिंतन करते-करते ये सब लहरें हैं उसी एक सागर की। इन सबके भीतर जो है, इन कभी तो सागर में पहुंच जाएंगे। डुबकी लगानी पड़ेगी। लहर में सबके नीचे जो है, जिस पर ये लहरें उठती हैं और जिसमें ये लहरें डुबकी लगानी पड़ेगी। विलीन हो जाती हैं, वह सागर परमात्मा है। वह हमने नहीं देखा; — कृष्ण ने जो प्रतीक दिए हैं, अगर किसी में भी डुबकी लग जाए, हम लहरें ही देख पाते हैं। तो परमात्मा से संबंध जुड़ जाए। लेकिन अगर आप बैठकर चिंतन मैं आपको देखता हूं, लेकिन उसको नहीं देखता, जो आपके करने लगें, तो आप किनारे पर बैठ गए। विचार किनारा है जगत पहले भी था; आपके भीतर भी है अभी; और कल आप गिर का। अनुभूति, कहें ध्यान, कहें समाधि, छलांग है सागर में। जाएंगे, तब भी होगा। आप तो सिर्फ एक लहर हैं, जो उठी जन्म ___ इसलिए हे अर्जुन, जो-जो भी विभूतियुक्त, ऐश्वर्ययुक्त, के दिन और गिरी मृत्यु के दिन; और कभी जवान थी और आकाश | कांतियुक्त, शक्तियुक्त है, उस-उस को तू मेरे तेज के अंश से को छूने का सपना देखा। आप सिर्फ एक लहर हैं। लेकिन जब उत्पन्न जान। आप नहीं थे, आपकी आकृति नहीं थी, तब भी आप सागर में थे। जहां-जहां तुझे कोई अभिव्यक्ति अपनी चरम स्थिति को छूती और कल आपकी आकृति गिरकर लीन हो जाएगी, तब भी आप हुई मालूम पड़े, कोई शिखर जहां गौरीशंकर बन जाता हो, कोई सागर में होंगे। सागर सदा होगा। फूल जहां पूरा खिल जाता हो; जहां भी तुझे लगे ऐश्वर्य, जहां भी जो सदा है, वही परमात्मा है। जो कभी है, वही लहर है; और तुझे लगे कांति, जहां भी तुझे लगे विभूति, जहां भी तुझे लगे कि कभी नहीं हो जाता है। इसलिए परमात्मा को तो यह भी कहना ठीक कुछ असाधारण घटित हुआ है, जहां भी तुझे लगे कि कोई चीज नहीं है कि वह है। क्योंकि जितनी चीजों को हम कहते हैं है, वे सभी अपनी चरमता को पहुंच गई, अपनी ऊंचाई को छू ली...। नहीं हो जाती हैं। सभी नहीं हो जाती हैं। जिसको भी हमने कहा है। अमेरिका के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक इरिक फ्रोम ने एक शब्द कल वह नहीं हो जाएगी। और परमात्मा कभी भी नहीं नहीं होता। | ईजाद किया है, और प्रचलित हो गया है और कीमती शब्द है। तो हमारा है शब्द भी बहुत छोटा पड़ जाता है। | इरिक फ्रोम ने कहा है कि जहां भी पीक एक्सपीरिएंस, कोई शिखर इसलिए बुद्ध ने तो कहा कि मैं वक्तव्य ही न दूंगा। क्योंकि अनुभव हो, वहीं व्यक्तित्व उस रहस्यमय के करीब पहुंचता है। 1237 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 पीक एक्सपीरिएंस! कोई भी अनुभव जहां शिखर पर हो, जहां से | तो हम सुन लें। आपको लगे कि इसके पार जाना कहां संभव है, जहां आपको लगे __संभवतः कभी दुनिया के इतिहास में कोई सम्राट किसी फकीर कि इसके पार नहीं जाया जा सकता, वहीं आप समझना...। को ऐसा चोरी से सुनने नहीं गया। अकबर गया। रात दो बजे से वे एक घटना आपसे कहूं, तो खयाल में आए। झोपड़ी के बाहर छिपकर अंधेरे में बैठे रहे। एक-एक क्षण मुश्किल अकबर को निरंतर लगता था कि तानसेन से पार जाना, संगीत | | था। कोई चार बजे हरिदास ने अपनी वीणा बजानी शुरू की। में, असंभव है। था भी। ऐश्वर्य था वहां, जैसे तानसेन की अकबर के आंसू ठहरते ही नहीं हैं। वीणा बंद हो गई और अकबर अंगुलियों से ईश्वर बरसता हो। तानसेन से और आगे भी कोई जा को फिर भी सुनाई पड़ती रही! सकता है, इसकी कल्पना भी तो मुश्किल है। यह इनकंसीवेबल फिर तानसेन ने हिलाया कि बहुत समय हो गया, वीणा तो बंद हो है। इसकी धारणा नहीं बनती। चुकी। अब हम चलें भी। और अब जल्दी ही सूरज निकलने के अकबर ने एक दिन तानसेन को आधी रात विदा करते वक्त करीब है। लेकिन अकबर उठकर ऐसा ही चलने लगा, जैसे अभी सीढ़ियों पर कहा कि तानसेन, बहुत बार मन में ऐसा होता है, तुझसे | | भी खोया हो किसी और ही लोक में। रास्तेभर वह तानसेन से नहीं पार जाना असंभव है, कल्पना भी नहीं कर पाता हूं। कभी सपने में | | बोला। सीढ़ियां चढ़ते अपने महल के उसने तानसेन से कहा कि यह भी मैं सुनता हूं संगीत, तो भी तुझसे फीका होता है। सपने में भी | तो बड़ी मुश्किल हो गई। मैं तो सोचता था, तेरा कोई मुकाबला नहीं तुझसे ऊपर नहीं जा पाता। आज अचानक तुझे सुनते-सुनते एक है। लेकिन अब मैं सोचता हूं, तेरे गुरु से तेरा क्या मुकाबला! तूं कुछ अजीब-सा खयाल मेरे मन में आया कि तेरा भी तो कोई गुरु होगा। भी नहीं है। क्यों इतना अंतर है लेकिन? इतना फर्क क्यों है? तूने शायद किसी से सीखा हो। अगर तूने सीखा है, तो एक बार तो तानसेन ने कहा, फर्क बहुत साफ है। सीधा उसका गणित तेरे गुरु के दर्शन की इच्छा मन में पैदा हो गई है। कौन जाने, तेरा | | है। मैं कुछ पाने के लिए बजाता हूं। और उन्होंने कुछ पा लिया है, गुरु तुझसे आगे जाता हो! इसलिए बजाते हैं। मैं कुछ पाने के लिए बजाता हूं। मेरा बजाना एक तानसेन ने कहा, बड़ी मुश्किल बात है। गुरु मेरे हैं। पर बड़ी | व्यवसाय है। मेरी नजर तो उस पुरस्कार पर होती है, जो बजाने के मुश्किल बात है। अकबर ने कहा, क्या मुश्किल है? कुछ भी खर्च | । बाद मुझे मिलेगा। मेरा धंधा है। उनके लिए संगीत आत्मा है। कुछ करना पड़े, हम अपने खजाने लुटाने को तैयार हैं, लेकिन तेरे गुरु | पाने को नहीं बजाते। कुछ पाने को उन्हें है भी नहीं। लेकिन जो पा को सुनना होगा। तानसेन ने कहा, यही मुश्किल है, कि मेरे गुरु को लिया है भीतर, कभी-कभी वही ओवरफ्लो, कभी वही ऊपर से दरबार में नहीं लाया जा सकता। कोई कीमत नहीं है जिससे दरबार बहने लगता है और संगीत बन जाता है। कभी-कभी वही जो भीतर में लाया जा सके। ऐसा नहीं है कि वे कोई जिद्दी हैं या अहंकारी हैं। अतिरेक से हो जाता है, वही उनका संगीत बन जाता है। झोपड़े में भी चले जाते हैं, यहां भी आ जाएंगे। तो अकबर ने कहा, | ___ अकबर ने तानसेन से कहा कि पहली दफा मैने संगीत में ऐश्वर्य फिर क्या कठिनाई है? तानसेन ने कहा, कठिनाई यह है कि चेष्टा देखा है, दि पीक, शिखर देखा है। से, प्रयत्न से, वे कभी वाद्य नहीं छूते हैं। जब उनके प्राण ही | कृष्ण कहते हैं, जहां-जहां ऐश्वर्य है, जहां-जहां अभिव्यक्ति आंदोलित होते हैं, तभी छूते हैं। कभी! कुछ कहा नहीं जा सकता। | अपनी आखिरी चोटी को छू लेती है, वहीं-वहीं मैं हूं, वहीं-वहीं सहज स्फुरणा जब उन्हें होती है तभी। कोई फरमाइश नहीं हो सकती| मेरा ही अंश प्रकट होता है। है। कहा नहीं जा सकता कि आप बजाइए, कि आप गाइए। । इसे ठीक से समझ लेना। इसका अर्थ यह हुआ, जैसे सूरज अकबर ने क | किसी से कहे...। क्योंकि सरज को सीधा देखना बहत मुश्किल लगाऊंगा। क्योंकि कभी-कभी वे सुबह ब्रह्ममुहूर्त में प्रभु की स्तुति है। दस करोड़ मील दूर है सूरज, फिर भी हम आंख गड़ाकर देख करते हैं; कभी। तो हम झोपड़े के पीछे छिप जाएं उनके। क्योंकि वे नहीं सकते, आंखें मुश्किल में पड़ जाती हैं। अगर सूरज के सामने तो एक फकीर हैं। उनका नाम था हरिदास, वे एक फकीर थे। जमुना ही खड़े हों, तो आंखें अंधी हो जाएंगी। यह बड़े मजे की बात है। के किनारे रहते हैं झोपड़े में। हम पीछे छिप जाएं आधी रात सूरज के बिना सारी पृथ्वी पर अंधेरा हो जाता है। सूरज के बिना चलकर। पता नहीं, चार बजे, तीन बजे, पांच बजे, कब वे बजाएं, हम सब अंधे हो जाते हैं। और सूरज को सामने से देखें, तो भी हम Nणा 238 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 मंजिल है स्वयं में अंधे हो जाएंगे। सूरज को सीधा नहीं देखा जा सकता। | यह दूसरी बात है। कब छिप गई होगी, यह दूसरी बात है। लेकिन लेकिन कोई आदमी सूरज के सामने खड़ा हो, सूरज को तो देख | वह सूरज की किरण है। सूरज प्रतिपल अपनी रोशनी दे रहा है। वह नहीं सकता सीधा, आंखें बंद हो जाएंगी। करीब-करीब अर्जुन वैसे हजारों-हजारों जगह इकट्ठी हो रही है, संगृहीत हो रही है। वही ही कृष्ण के सामने खड़ा है। वह भी नहीं देख पा रहा है। वह भी रोशनी आप पुनः पा लेते हैं। नहीं देख पा रहा है कि कौन सामने है, किससे वह पूछ रहा है, लेकिन सूरज को सीधे देखना मुश्किल है। दीए को आप मजे से किससे वह समझ रहा है। वह भी नहीं देख पा रहा है, वह भी नहीं सीधा देख सकते हैं। दीया बहुत अंश में सूरज है, लेकिन तेज समझ पा रहा है। ठीक है, मित्र है, बुद्धिमान है, आदर योग्य है, उसका ही है। और कभी-कभी किसी क्षण में रहस्यपूर्ण है। कुछ जानता है। सीखा तो कृष्ण कहते हैं, जहां-जहां ऐश्वर्य, जहां-जहां विभूति, जा सकता है उससे। लेकिन अभी वह सूर्य नहीं दिखाई पड़ रहा है जहां-जहां कांति, जहां-जहां शक्ति दिखाई पड़े, वहां-वहां मेरे ही जो कृष्ण हैं। वे आंखें बंद हैं। तेज के अंश से उत्पन्न है, ऐसा तू जानना। __वह पूछता है कि मैं कहां-कहां आपको देखू? जो सामने खड़ा ___ जो शब्द चुने हैं, एक तो है ऐश्वर्य, विभूति, कांति, शक्ति, वे है, वहां न देखकर वह पूछता है, कहां-कहां आपको देखू ? जैसे सब संयुक्त हैं। शक्ति का अर्थ है, ऊर्जा, एनर्जी। एक छोटे-से कोई सूरज से पूछे, तो सूरज कहे, जहां-जहां कोई दीया तुझे दिखाई | । बच्चे में शक्ति दिखाई पड़ती है। एक बूढ़े में शक्ति क्षीण हो गई पड़े, जो अंधेरे को तोड़ता हो, तो जानना कि वहां-वहां मैं हूं। तो | होती है, उस अर्थों में जैसी बच्चे में दिखाई पड़ती है। जहां-जहां भी कोई दीया चमके और भभककर प्रकाश कर दे, | इसलिए जो शक्ति की खोज कर रहे हों, बेहतर है कि बच्चे में वहां-वहां समझना, मेरी ही ज्योति है, मेरा ही तेज है। खोजें, बूढ़े में खोजने न जाएं। वहां शक्ति तो क्षीण होने लगी है। यह जो कृष्ण कहते हैं, जहां-जहां ऐश्वर्य तुझे दिखाई पड़े...। जो शक्ति की खोज कर रहे हों, बेहतर है कि सुबह के सूरज में अगर ईश्वर नहीं दिखाई पड़ता, तो बेहतर है कि तू ऐश्वर्य को देख। खोजें, सांझ के सूरज में खोजने न जाएं, क्योंकि वहां तो ढलने लगा अगर सूरज नहीं दिखाई पड़ता, तो बेहतर है कि तू प्रकाश को देख। | सब। शक्ति तो जितनी नई हो, उतनी तीव्र और गहन होती है। जो जहां-जहां तुझे चमकदार प्रकाश दिखाई पड़े, समझना कि मेरा ही शक्ति को खोजने चलेंगे, उनके लिए बच्चे ईश्वरीय हो जाएंगे अंश, मेरा ही तेज प्रकट हो रहा है। वहां शक्ति अभी नई है, अभी फव्वारे की तरह फूटती हुई है। अभी सूरज का तेज तो हम देख सकते हैं दीयों में, वह बड़ी कठिन उबलता हुआ है वेग, अभी सागर की तरफ दौड़ेगी यह गंगा। अभी बात नहीं है। छोटे-से आपके घर में भी दीए की जो ज्योति जलती यह गंगोत्री है, छोटी है, लेकिन विराट ऊर्जा से भरी है। है, वह सूरज का ही हिस्सा है। वह सूरज का ही हिस्सा है। यह बड़े मजे की बात है। गंगोत्री में जितनी शक्ति है, उतनी जब . एकदम से समझना कठिन होगा। अगर आप मिट्टी का तेल | गंगा सागर में गिरती है, तब नहीं होती है। बड़ी तो हो जाती है गंगा जला रहे हैं, तो आपको पता नहीं होगा कि मिट्टी का तेल निर्मित बहुत, लेकिन बूढ़ी भी हो जाती है। विशाल तो हो जाती है, लेकिन इसीलिए हुआ है कि लाखों-लाखों साल में पृथ्वी के द्रव्यों ने सूरज | शक्ति का विशालता से कोई संबंध नहीं है। शक्ति तो, सच है कि की किरणों को पीया है। और वे ही किरणें आपको वापस आपके जितना छोटा अणु हो, उतनी गहन होती है। मिट्टी के तेल से आपके दीए में वापस उपलब्ध हो जाती हैं। जब इसलिए आज विज्ञान अणु में सर्वाधिक शक्ति को उपलब्ध कर आप एक लकड़ी को रगड़कर जलाते हैं—जैसा कि पुराने जमाने पाया है। परमाणु में, क्षुद्र परमाणु में, अति क्षुद्र परमाणु में, उसमें में रिवाज था—दो लकड़ियों को रगड़कर या दो चकमक पत्थरों जाकर शक्ति का स्रोत मिला है। को रगड़कर आप जब किरण पैदा करते हैं, तो आपको खयाल न छोटे-से बच्चे में भी, पहले दिन के बच्चे में जो शक्ति है, फिर होगा, अरबों-अरबों वर्षों में पत्थर सूरज को पी गए हैं। वही पुनः । वह रोज कम होती चली जाएगी। शक्ति को देखना हो, तो नए में प्रज्वलित हो जाता है। खोजना। इसलिए जो भी समाज नए होते हैं, वे बच्चों का आदर लकड़ी के भीतर भी सूरज छिपा है और आपके भीतर भी। जहां | | करते हैं। जो समाज शक्तिशाली होते हैं, वे बच्चों का आदर करते भी ज्योति है, वहां सूरज की किरण है। वह कब पी ली गई होगी, | हैं, सम्मान करते हैं। 239] Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 लेकिन अगर ऐश्वर्य खोजना हो, तो बूढ़े में खोजना, वृद्ध में खोजना। क्योंकि ऐश्वर्य अनुभव का निखार है, वह बच्चे में कभी नहीं होता। उसमें शक्ति होती है अदम्य । लेकिन अगर ऐश्वर्य खोजना हो, तो वह वृद्ध में खोजना । रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब सच में ही कोई आदमी वृद्ध होता है – सच में ! हम सब भी बूढ़े होते हैं, लेकिन हमारा बूढ़ा होना वृद्ध होना नहीं है; सिर्फ क्षीण होना है, दीन होना है, दरिद्र होना है। हमारा वार्धक्य एक उपलब्धि नहीं है, सिर्फ एक लंबी गंवाई है, कमाई नहीं है। लंबा हमने गंवाया है। खोया है, खोया है। क्षीण हो गए। जर्जर हो गए। सब चुक गया। रवींद्रनाथ ने कहा है, जब सच ही कोई बूढ़ा होता है, तो उसके शुभ्र बाल वैसे ही हिमाच्छादित हो जाते हैं, जैसे हिमालय के पर्वत । उसके शुभ्र बालों में वैसी ही शीतलता और वैसा ही ऐश्वर्य आ जाता है, जैसे कभी जब गौरीशंकर पर बर्फ जमी होती है। अगर कोई व्यक्ति ठीक से जीया है, तो वार्धक्य उसका ऐश्वर्य को उपलब्ध हो जाता है। एक कांति, एक दीप्ति जो बूढ़े में ही होती है, बच्चे में नहीं हो सकती। बच्चे में एक अदम्य वेग होता है, शक्ति होती है, जो कुछ बन सकती है, नष्ट भी हो सकती है। अगर बूढ़ा उसे कुछ बनाने में समर्थ हो जाए, और वह जो शक्ति बच्चे में दिखाई पड़ी थी, अगर ठीक-ठीक यात्रा करे, तो ऐश्वर्य बन जाती है अंत में अनुभव से यात्रा करके शक्ति ऐश्वर्य बनती है। इसलिए जो समाज बूढ़े होते हैं, उनमें ऐश्वर्य देखा जा सकता है। जैसे अगर शक्ति देखनी हो, तो पश्चिम में देखनी चाहिए। और अगर ऐश्वर्य देखना हो, वह आभा देखनी हो जो वार्धक्य को उपलब्ध होती है, तो पूरब में देखनी चाहिए। इसलिए जो समाज पुराने होते हैं, वे बूढ़े को आदर देते हैं, बच्चे को नहीं। उनका आदर ऐश्वर्य के लिए है, चरम के लिए है, आखिरी के लिए है; अंतिम जो शिखर होगा, उसके लिए है। शक्तिशाली समाज बच्चों और जवानों पर निर्भर करेगा । ऐश्वर्यशाली समाज वृद्ध पर, वार्धक्य पर निर्भर करेगा। इसलिए हमने तो अपने मुल्क में बूढ़े हो जाने को ही काफी आदर की बात समझा है। जरूरी नहीं है कि बूढ़ा आदर के योग्य हो । लेकिन फिर भी हमने ऐसे वृद्ध देखे हैं कि उनके कारण सभी बूढ़े आदृत हो गए। और वृद्ध ही पा सकते हैं उस अंतिम बात को, उस सौम्यता को। एक तो भभक है आग की, और एक सिर्फ आभा है। ऐसा समझें कि जब सांझ सूरज डूब जाता है और रात नहीं आई होती है, तब जो प्रकाश फैल जाता है; या सुबह जब सूरज नहीं निकला होता, रात जा चुकी होती है, तब जो प्रकाश, जो आलोक फैल जाता है, वह आभा है, वह ऐश्वर्य है । शक्ति जला देती है, ऐश्वर्य केवल आलोकित करता है। शक्ति आग है; ऐश्वर्य केवल प्रकाश है और | शीतल है। ऐश्वर्य में कोई दंभ और दर्प नहीं है, शक्ति में होगा । शक्ति से प्रारंभ होता है जीवन का, ऐश्वर्य पर उपलब्धि होती है। कांति से यात्रा है। अगर शक्ति कांति से गुजरे, तो ही ऐश्वर्य को उपलब्ध होती है। अगर कोई व्यक्ति अपनी जीवन-ऊर्जा का | उपयोग क्षुद्र को खरीदने में करता रहे, तो कांतिहीन हो जाता है। हम कई बार हीरे-जवाहरातों को देकर रोटी के टुकड़े खरीद लाते हैं। कई बार कहना ठीक नहीं, अधिक बार, ज्यादातर जीवन में जो श्रेष्ठतम है, उसे गंवाकर हम क्षुद्र को खरीद लेते हैं। पूरा जीवन हमारा इसी नासमझी में बीतता है। बस, काफी धंधा किया, काफी लेन-देन किया, इसका भर सुख होता है। कांति का अर्थ है, जो व्यक्ति अपनी जीवन-ऊर्जा को निरंतर श्रेष्ठ के लिए समर्पित कर रहा है । उस व्यक्ति को कांति उपलब्ध होती है, जो जितनी शक्ति देता है, उससे ज्यादा पाता है। जो हमेशा लाभ में है, एक आंतरिक लाभ में। अगर एक इंचभर अपनी शक्ति खोता है, तो इसीलिए कि कोई विराट का द्वार खुल रहा अन्यथा नहीं खोता । इसे हम ऐसा समझें, जैसा मैंने पीछे आपको कहा। काम ऊर्जा है, सेक्स एनर्जी है । आप उसे केवल शरीर के तथाकथित सुख में | गंवा सकते हैं जीवनभर, सारी कांति खो जाएगी। आपके चारों तरफ जो एक मंडल चाहिए व्यक्तित्व का, वह सिकुड़ जाएगा। कभी आपने खयाल किया है, काम-ऊर्जा के क्षीण होते ही आपको एक सिकुड़ाव का अनुभव होता है । कोई चीज सिकुड़ गई भीतर, आप दीन हुए। आपने कुछ खोया, पाया कुछ भी नहीं । ठीक इससे विपरीत स्थिति उस व्यक्ति को उपलब्ध होनी शुरू होती है, जिसकी काम-ऊर्जा ऊर्ध्वगामी होती है और प्रभु के चरणों में समर्पित होने लगती है; और जिसकी काम-ऊर्जा व्यक्तियों और | दूसरे व्यक्तियों की तरफ प्रवाहित नहीं होती, वरन अपनी अंतरात्मा की तरफ प्रवाहित होने लगती है। हर इंच पर उसे लगता है, जीवन विराट हुआ, और बड़ा हुआ। ब्रह्मचर्य शब्द हम सब सुनते हैं, बात करते हैं, लेकिन आपको खयाल न होगा कि इसका अर्थ क्या होता है ! इसका अर्थ होता है, ब्रह्म जैसी चर्या। और ब्रह्म का आपको अर्थ पता है ? ब्रह्म का अर्थ 240 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंजिल है स्वयं में होता है, विस्तार । ब्रह्म का अर्थ है, जो विस्तीर्ण है, जो फैलता ही चला गया है, जिसका ओर-छोर नहीं है। तो जिस दिन आपकी चर्या उस विस्तार की तरफ बढ़ने लगती है, और आपके भीतर कुछ फैलता चला जाता है और फैलता ही चला जाता है, सब सीमाएं छूट जाती हैं और आपके भीतर कोई फैलता ही चला जाता है, जिस दिन आपके भीतर चांद - सूरज घूमने लगते हैं, जिस दिन आपको लगता है कि आप फैल गए सारे आकाश में और आकाश से एक हो गए, उस दिन ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। लेकिन यह होगा, जब हमारी ऊर्जा, हमारी शक्ति निरंतर श्रेष्ठ के प्रति समर्पित हो रही हो। अपने से नीचे का कुछ खोजना, कांति को खोना है। अपने से ऊपर के लिए शक्ति को नियोजित करना, कांति को उपलब्ध होना है। कांति सिर्फ एक खबर है, आपके चेहरे सें, आपकी आंखों से, आपके हाथों से, आपके व्यक्तित्व से, एक खबर है कि भीतर ऊर्जा ने कुछ ऊर्ध्वगमन शुरू किया है। बड़ी मुश्किल की बात है। इस कांति की तरफ खयाल ही नहीं है। इसलिए जवान आदमी...। मैंने कहा, बच्चा होता है शक्तिशाली, बूढ़ा होता है ऐश्वर्ययुक्त, जवान हो सकता है कांतियुक्त । बच्चा शक्तिशाली होता है, यह नैसर्गिक है। जवान कांतियुक्त हो, यह चुनाव है। और जवान अगर कांतियुक्त न हो सके, तो बुढ़ापा एक दीनता होगी, एक दरिद्रता होगी, एक बोझ । हम इस मुल्क में पच्चीस वर्ष तक युवकों को आश्रमों में रखकर कांति की कला सिखाते थे। इसके पहले कि शक्ति क्षीण होनी शुरू हो जाए, उसको रूपांतरण देना जरूरी है। इसके पहले कि शक्ति नीचे से बहनी शुरू हो जाए, उसके पहले उसे ऊपर के मार्ग पर चला देना जरूरी है। क्योंकि एक बार शक्ति नीचे की तरफ बहने लगे, तो हर चीज हैबिट फार्मिंग है, हर चीज की आदत बन जाती है। फिर रिपिटीटिव, फिर पुनरुक्ति होने लगती है। और जीवन एक ऐसी बाल्टी की तरह हो जाता है, जिसे हम पानी में डालते हैं भरने के लिए, लेकिन उसमें इतने छेद होते हैं कि शोरगुल बहुत होता है, पानी भरता भी मालूम पड़ता है, लेकिन आखिर में जब बाल्टी बुढ़ापे में हमारे हाथ आती है, तो उसमें कुछ भी नहीं होता, एक बूंद भी पानी की नहीं होती; सब बीच में गिर गया होता है। बुढ़ापे में जिस व्यक्ति की कुएं की बाल्टी भरी हुई आ जाए, समझना कि ऐश्वर्य उपलब्ध हुआ । लेकिन यह तभी संभव होगा, जब जवानी में छिद्र व्यक्तित्व में पैदा न हों, और जवानी में छिद्रों बचा जा सके, जो कि अति कठिन है। क्योंकि शक्ति अगर ऊपर रूपांतरित न हो, तो शक्ति बोझ बन जाती है, उसको फेंकना जरूरी हो जाता है। इसलिए पश्चिम में एक नया विचार लोगों को पकड़ा है और वह | यह है कि सेक्स इज़ जस्ट ए रिलीज, ए रिलीफ । कामवासना, सिर्फ एक शक्ति भारी हो जाती है, तनाव हो जाता है, उससे छुटकारा है। पश्चिम में एक बहुत क्षुद्र खयाल काम-ऊर्जा के बाबत आया है। वे कहते हैं, काम-ऊर्जा छींक जैसी है। छींक ली, तो राहत मिलती है। छींक आ गई, तो राहत मिलती है। नहीं तो नाक में सनसनाहट और तकलीफ मालूम पड़ती है । सब काम - ऊर्जा भी इसी तरह की है । उसको फेंक दी बाहर, तो राहत मिलती है। शक्ति भारी हो जाती है, अगर काम में न लाई जाए, फिर उसे फेंकना ही पड़ेगा। केवल वे ही लोग शक्ति को फेंकने से बच सकते हैं, जो उस कला को सीख लेते हैं, जिसमें शक्ति रोज काम में आती चली जाती है, बचती ही नहीं फेंकने के लिए। डायोजनीज से किसी ने पूछा था कि तुमने विवाह क्यों न किया ? तो डायोजनीज ने कहा, दो पत्नियां एक साथ रखना बहुत मुश्किल होगा। जिसने पूछा था, वह तो पूछ रहा था, विवाह क्यों न किया ? | वह बड़ा हैरान हुआ कि दो पत्नियां हैं तुम्हारी ! डायोजनीज ने कहा, नहीं, जिस दिन से परमात्मा को खोजने में लग गए, उस दिन से सारी शक्ति तो उसी में लग गई, अब दूसरी पत्नी रखना बहुत मुश्किल होगा। ये दोनों बातें एक साथ करना जरा मुश्किल होगा। सारी शक्ति लग जाए एक तरफ, तो दूसरी तरफ प्रवाहित रहने को कुछ बचता नहीं। और तभी कांति उपलब्ध होती है, जब ऊपर की ओर शक्ति उठने लगे। 241 कांति का अर्थ है, ऊपर की ओर उठती हुई शक्ति। शरीर से भी झलकने लगती है। शरीर से भी उसकी सुगंध आने लगती है । शरीर भी एक अनूठे सौंदर्य से आच्छादित हो जाता है। ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त, शक्तियुक्त जो भी है, वहीं मेरी विभूति है, वहीं मैं प्रकट हुआ हूं, वहीं तू मुझे देख लेना। और जहां भी यह घटित हो, समझना कि मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ है; मेरी ही ज्योति वहां प्रज्वलित हो रही है; मेरे ही अमृत की धार वहां बहती है; मेरे ही स्वरों का संगीत है वहां ; मेरी ही सुवास है; मेरे ही हृदय की धड़कन वहां भी धड़कती है। अथवा हे अर्जुन, इस बहुत जानने से तेरा प्रयोजन ही क्या है ! अगर तू मुझे ऐश्वर्य में भी न देख सके, कांति में भी न देख Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ गीता दर्शन भाग-5 सके, शक्ति में भी न देख सके, और इतने जो मैंने तुझे प्रतीक कहे, इनमें तुझे कोई खयाल न आए, तो फिर बहुत जानने से कोई प्रयोजन नहीं है। अब मैं तुझे कितना ही कहता रहूं, उससे कुछ हल न होगा। तू देखना शुरू कर पूछते हैं हम बिना फिक्र किए कि क्या प्रयोजन है। मैं रोज ऐसे लोगों के संपर्क में आता हूं, जो कुछ भी पूछते चले आते हैं। जिन्हें यह भी पता नहीं कि वे क्यों पूछ रहे हैं। शायद उन्हें पूछना भी खाज या खुजली जैसा है। खुजा लेते हैं, थोड़ी-सी राहत मिलती है। भला नाखून लग जाते हैं, लहू निकल आता है, तकलीफ होती है, लेकिन खुजा लेते हैं। खुजाते वक्त लगता है कि कुछ कर रहे हैं। आपका प्रश्न, आपकी जिज्ञासा अगर खुजली जैसी हो, तो है । कुछ भी पूछते रहने का कोई अंत नहीं है। पूछते चले जाएं जन्मों-जन्मों तक ! और जो भी उत्तर आपको मिलेंगे, उनसे केवल नए प्रश्न निर्मित होंगे, और कुछ भी न होगा। कभी आपने खयाल किया, कि जो भी उत्तर आपको मिलते हैं, उनसे और दस प्रश्न खड़े हो जाते हैं। दर्शनशास्त्र पांच हजार साल में न मालूम कितने सवाल पूछा। एक भी सवाल हल नहीं हुआ। एक भी सवाल हल नहीं हुआ ! अगर हम पांच हजार साल का फिलासफी का इतिहास देखें, तो एक ' सवाल हल नहीं हुआ। यह बड़े मजे की बात है। इतने उत्तर दिए गए और एक भी हल नहीं हुआ। बल्कि और दूसरी घटना घटी। जितने जवाब दिए गए, उनमें और हजार-हजार प्रश्न खड़े हो गए। ट्रेंड रसेल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब मैं बच्चा था और पहली दफा दर्शन की तरफ उत्सुक हुआ, तो मैं सोचता था कि जब मैं दर्शन में निष्णात हो जाऊंगा, तो मेरे भी कुछ सवाल हल हो गए होंगे, उनके जवाब मुझे मिल गए होंगे। मरने के पहले उसने अपने एक पत्र में लिखा है कि अब मैं बूढ़ा होकर यह कह सकता हूं कि मेरा एक भी सवाल हल नहीं हुआ। और दूसरी बात जो घट गई, जिसकी मुझे कल्पना ही नहीं थी, नए-नए सवाल और खड़े हो गए इस नब्बे साल की जिंदगी में। ट्रेंड रसेल ने पहले तो दर्शनशास्त्र की परिभाषा की थी, मनुष्य के आत्यंतिक प्रश्नों के जवाबों की खोज । और अंत में उसने व्याख्या की है, मनुष्य के आत्यंतिक प्रश्नों के संबंध में और प्रश्नों की खोज। और कुछ नहीं, प्रश्न के बाद प्रश्न ! अगर आप पूछने के लिए पूछते चले जाते हैं, तो व्यर्थ है । कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तेरा इतना सब पूछने का प्रयोजन ही क्या है, अगर तू इशारा न समझ पाए ! तो फिर तू पूछता चला जा सकता है और मैं तुझे जवाब देता चला जा सकता हूं, उससे कुछ हल न होगा। आज जमीन पर जो इतना कनफ्यूजन, इतना विभ्रम है, वह | इसलिए है कि इतने जवाब और इतने सवाल आपके मस्तिष्क में | खड़े हो गए हैं कि आज तय करना ही मुश्किल है कि आपका भी कोई प्रश्न है ? और प्रश्न आप पूछ रहे हैं, तो कुछ करने का इरादा है या यों ही पूछने चले आए हैं? एक आदमी मेरे पास अभी दो दिन पहले आए थे। वे पूछने लगे कि सच में ईश्वर है ? तो मैंने उनसे पूछा, आपका क्या इरादा है ? अगर है, तो आप क्या करिएगा? और अगर नहीं है, तो आप क्या करेंगे? उन्होंने कहा, करना क्या है! ऐसे ही पूछने चला आया हूं। हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है उन्हें । न हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। तो यह प्रश्न किसलिए है? तब यह खुजली के जैसा है। फिर वे मुझसे बोले, और मैं कोई आपसे ही पूछ रहा हूं, ऐसा नहीं है। न मालूम कितने महात्माओं से मैं पूछ चुका | एक गांव में तो मैं गया, तो लोग प्रश्न लिखकर देते हैं, एक आदमी ने छपा हुआ प्रश्न मुझे दिया, तब तो मैं बहुत हैरान हुआ। छपा हुआ प्रश्न ! मैं पहले ही दिन वहां बोला हूं और बोलकर मैं | उठने के करीब हूं कि उसने छपा हुआ प्रश्न दिया कि आप इसका उत्तर दें। मैंने कहा, तुम इतनी जल्दी छपा कैसे लाए ? उन्होंने कहा, जल्दी का क्या सवाल है? यह तो मैंने तीस साल पहले छपाया था । और जो भी इस गांव में आता है, उसे मैं दे देता हूं कि इसका जवाब ! मैंने | उससे पूछा कि तुम्हें तीस साल में किसी ने जवाब नहीं दिए? उसने कहा, बहुत जवाब दिए, लेकिन किसी जवाब से तृप्ति नहीं होती । मैंने उसको कहा कि तुम तीस जन्म भी पूछते रहो, तो भी तृप्ति नहीं | होगी। क्योंकि जवाब से कहीं तृप्तियां हुई हैं, जब तक कि तुम्हें अपना जवाब न मिल जाए। दूसरे का जवाब क्या तृप्ति देगा ! मगर हमारी तो कठिनाई यह है कि अपना जवाब तो बहुत मुश्किल है, अपना सवाल भी नहीं होता; वह भी उधार होता है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, यह हमारा प्रश्न नहीं है। यह | मेरे एक मित्र का प्रश्न है। वे आए हैं; मित्र का प्रश्न है ! प्रश्न भी हमारे नहीं हैं। वे भी कोई हममें पैदा करवा देता है। फिर किसी के प्रश्न और किसी के जवाब हममें इकट्ठे होते चले जाते हैं। और हम एक कचराघर हो जाते हैं। 242 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मंजिल है स्वयं में 8 कृष्ण पूछते हैं, हे अर्जुन, इस बहुत जानने से फिर क्या प्रयोजन अगर आपने कभी सम्मोहन का कोई प्रयोग देखा है, हिप्नोटिज्म है! सिर्फ जानना ही है या तुझे उतरना भी है? तू कूदना भी चाहता का कोई प्रयोग देखा है, तो आपको खयाल में होगा। एक आदमी है या सिर्फ सोचता ही रहेगा? तू कुछ करने को आतुर है या सिर्फ को बेहोश कर दिया जाए और फिर उससे कहा जाए कि तू अब एक बौद्धिक कुतूहल है? पुरुष नहीं है, स्त्री हो गया। इस कोने से उस कोने तक स्टेज पर इस संपूर्ण जगत को अपनी योग-माया के एक अंश मात्र से चल। तो उसकी चाल स्त्री जैसी हो जाएगी। वह स्त्री जैसा चलेगा। धारण करके मैं स्थित हूं। उसे क्या हो गया है ? एक खयाल! उसको सम्मोहित करने वाला सारा जगत मेरा ही एक अंश मात्र है। यह बहुत कीमती वचन | | एक खयाल उसके मन में डालता है कि तू स्त्री है। यह खयाल है। क्योंकि मैंने कहा, सारा जगत ईश्वर है। सारा जगत ईश्वर है, | सक्रिय हो जाता है। वह स्त्री जैसा चलने लगता है। लेकिन सारा ईश्वर जगत नहीं है। सारा जगत ईश्वर है, लेकिन सारा लेकिन यह बहुत कठिन बात नहीं है। जो सम्मोहित व्यक्ति है, ईश्वर जगत नहीं है। क्योंकि ईश्वर की अनंत संभावनाएं हैं, अनंत | | गहरे सम्मोहन में गया है, उसके हाथ में आप एक फूल रख दें और जगतों में प्रकट होने की। ईश्वर तो इस पूरे अस्तित्व की मूल | | कहें कि यह आग का अंगारा है, तो चीख मारकर वह फूल को फेंक संभावना है। उसमें से कभी कोई एक बीज अंकुरित होता है, तो | | देगा। लेकिन यह भी बड़ी बात नहीं है, क्योंकि यह भाव है। बड़ी एक जगत निर्मित हो जाता है। उसमें से कभी कोई दूसरा बीज | | बात तो यह है कि उसके हाथ पर फफोला भी आ जाएगा-फूल निर्मित होता है, तो दूसरा जगत निर्मित हो जाता है। अनंत जगत हो | रखने से! सकेंगे, और हर जगत उसका एक अंश ही होगा। क्या हुआ? हमने अंगारा तो रखा नहीं, सिर्फ कहा था, अंगारा पूरा ईश्वर अगर जगत हो, तब ईश्वर भी सीमित हो गया। तब | | है! उसने मान लिया। बेहोशी में उसके हृदय में संदेह नहीं उठता। फिर दूसरा जगत नहीं हो सकता। अगर यही जगत सब कुछ हो | | श्रद्धा पूरी होती है। तर्क सोया होता है। विचार यह नहीं कहता कि ईश्वर का, तो फिर आगे कोई गति और कोई विकास नहीं है। फूल दिखाई पड़ रहा है, अंगारा कैसे! यही मतलब है सम्मोहित ईश्वर के अनंत होने का अर्थ है, यह जगत उसकी एक होने का कि उसकी जो बुद्धि है, सोचने का ढंग है, तर्क है, संदेह अभिव्यक्ति हैं। उसकी अनेक अभिव्यक्तियां हो सकती हैं। होती है. वह सो गया है। उसका अचेतन मन काम कर रहा है. चेतन मन रही हैं। होती रहेंगी। इसलिए कहा, एक अंश में ही मेरी योग-माया बंद हो गया है। उसका अनकांशस हिस्सा काम कर रहा है। उससे का उपयोग है। जो भी कहें, वह मान लेता है। वह पूर्ण श्रद्धा में है इस वक्त। आपने योग-माया शब्द का ठीक वही अर्थ होता है, जो अंग्रेजी में | कहा अंगारा, तो अंगारा हो जाता है हाथ पर। और जब प्राण समझ मैजिक का होता है, जादू का होता है। लेकिन जादू तो जादूगर करता | लेते हैं, अंगारा है, तो हाथ में फफोला आ जाता है। है! पर आपने खयाल किया, जादूगर करता क्या है? वह कहता है। सूफी फकीर इसी तरह जलती हुई आग पर नाचते हैं। उस नाचने कि यह रहा, यह आम का झाड़ होने लगा। और हाथ का इशारा में कुछ और नहीं है। सूफी फकीर प्रार्थनायुक्त होकर प्रभु से कह करता है और एक आम का झाड़ उगना शुरू हो जाता है। छोटे-से देता है कि अंगारे भी, हम तेरा नाम लेकर जाते हैं, तो फूल रहेंगे। झाड़ में आम के फल लगने शरू हो जाते हैं। वह आम का एक यह इतने गहरे में कही गई बात होती है कि अंगारे फिर जला नहीं फल तोड़कर आपको दे देता है। बड़ा चमत्कार है! पाते, क्योंकि शरीर मानता ही नहीं कि वे अंगारे हैं। जादूगर कर क्या रहा है? जो नहीं है, वह आपको दिखाई पड़ने | __यह सब हिप्नोटिज्म भी व्यक्तिगत प्रयोग है योग-माया का। लगे, इस कला का नाम जादू है। मैजिक का अर्थ है, जो नहीं है, | | परमात्मा के लिए सारा का सारा विराट जो विस्तार है, यह वह आपको दिखाई पड़े। वास्तविक सृजन नहीं है, यह केवल उसके विचार का फैलाव है। ईश्वर की भारतीय जो धारणा है, वह यह है कि जगत भी है नहीं, | बहत बड़े वैज्ञानिक एडिंगटन ने लिखा है कि जब मैं नया-नया केवल ईश्वर चाहता है, इसलिए दिखाई पड़ता है। यह है नहीं, | | विज्ञान के जगत में प्रविष्ट हआ था. तो मैं सोचता था कि जगत एक केवल ईश्वर चाहता है, इसलिए दिखाई पड़ता है। इसका होना | वस्तु की भांति है, जस्ट लाइक ए थिंग। अंतिम जीवन के दिनों में केवल उसकी धारणा है, उसका विचार है। एडिंगटन ने कहा है, जब वह नोबल प्राइज पा चुका था और जगत | 243| Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 विख्यात हो गया था, तो उसने कहा है कि अब जितना ही मैंने | की तलाश में हम निकले थे, उसकी स्मृति ही उठ जाती है। अनुभव किया है, दि यूनिवर्स लुक्स मोर लाइक ए थाट, दैन लाइक इसलिए अंतिम वचन में कृष्ण ने याद दिलाया कि यह मैंने तुझसे ए थिंग-एक विचार की भांति मालूम पड़ता है यह जगत, एक थोड़े से विस्तार की बातें कही हैं, लेकिन इस विस्तार में खो जाने वस्तु की भांति नहीं। की जरूरत नहीं है। यह मैंने कहा ही इसलिए, ताकि सब तीर मेरी लेकिन किसका विचार? एडिंगटन वैज्ञानिक आदमी है, वह यह तरफ इशारा कर सकें। और तू मुझको ही सारी खोज का अंत जान, नहीं कह सकता, ईश्वर का विचार। क्योंकि ईश्वर का उसे कोई पता सारी खोज का केंद्र जान। नहीं है। जो व्यक्ति भी ईश्वर की तरफ अपनी सारी खोज के तीरों को झुका कृष्ण कहते हैं, यह सारा जगत मेरी योग-माया के एक अंश का देता है, जो अपनी सारी कामनाओं को, सारी इच्छाओं को, सारी विस्तार है, मेरे विचार का, मेरे खयाल का। . प्रार्थनाओं को, सारी अभीप्साओं को, सारी आकांक्षाओं को एक ही यह सारा अस्तित्व एक स्वप्न है गहन, उस मूल ऊर्जा का एक ईश्वर की तरफ झुका देता है, उसे बहुत देर नहीं है कि वह पा ले। स्वप्न। उस मूल ऊर्जा का एक भाव, और जगत निर्मित हो जाता हम अगर खोते हैं उसे, भूलते हैं उसे, विस्मरण करते हैं उसे, है। उस मूल ऊर्जा का भाव क्षीण होता है, और जगत खो जाता है। नहीं जान पाते उसे, तो उसका कारण केवल इतना ही है कि कभी इसका यह मतलब नहीं है कि आप पत्थर पैर पर मारेंगे, तो खून हमने समग्रता से उसे चाहा ही नहीं, पुकारा ही नहीं। कभी समग्रता नहीं निकलेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि आप नहीं हैं। आप से हमने जाना ही नहीं कि वही एक पाने योग्य है। अगर हमने कभी हैं। लेकिन आपके होने का जो घटक है, जो बुनियादी तत्व है, उसे पाना भी चाहा है, तो वह हमारे हजारों पाने वाली चीजों में एक जिससे आप निर्मित हैं, वह वस्तु नहीं है, विचार है। आप विचार | आइटम वह भी है। और वह भी आखिरी, वह भी आखिरी फेहरिस्त का एक जोड़ हैं, अनंत विचारों का एक जोड़ हैं। यह सारा जगत | पर। जैसे कोई बाजार में सामान खरीदने निकला हो, तो निन्यानबे अनंत विचारों का एक जोड़ है। चीजें उसने सब लिख हों-नोन, तेल, लकड़ी और आखिर में अगर हम भौतिकवादी और गैर-भौतिकवादी विचारों में मेद | | सौवां ईश्वर भी लिखा हो। ऐसे हम हैं। जब सब, तब आखिरी! . करना चाहें, तो वह यही होगा कि भौतिकवादी, मैटीरियलिस्ट ईश्वर को जो अपनी जिंदगी की खोज में आखिरी रख रहा है; कहता है कि जगत की जो बुनियादी इकाई है, वह पदार्थ है; और | वह उसे पाने में आखिरी सिद्ध होगा। जो उसे प्रथम रखता है, वही अध्यात्मवादी कहता है, जगत की जो मौलिक इकाई है. वह विचार उसे पाता है। जगत जिन ईंटों से बना है, वे ईंटें विचार की हैं। और अगर | लेकिन हम क्षुद्र को ऊपर रखे रहते हैं। अगर अभी कोई आपको पदार्थ भी हमें दिखाई पड़ता है, तो वह विचार की सघनता है, मिले और कहे कि एक कार दिए देते हैं या ईश्वर का दर्शन। क्या डेंसिटी आफ थाट। और जिसे हम अपने भीतर विचार कहते हैं, इरादा है ? तो आप कहेंगे, ईश्वर का दर्शन तो कभी भी हो जाएगा, उसमें और बाहर पड़े हुए पत्थर में जो फर्क है, वह गुण का नहीं है, | शाश्वत चीज है। कार पहले ले लें; इसका क्या भरोसा! क्षणिक मात्रा का है, डिग्रीज का है। अगर विचार ही गहन सघन हो जाए, | का भरोसा भी नहीं है, इसको आज ले लें। ईश्वर को तो कल भी तो पत्थर भी मौजूद हो सकता है, मैटीरिअलाइज हो सकता है। । | ले सकते हैं, अगले जन्म में भी ले सकते हैं। यह कोई जल्दी की कृष्ण कहते हैं, यह मेरी योग-माया का एक अंश है और इस | | बात नहीं है। आप पहले क्षुद्र को चुनेंगे। अंश पर ही मैं सारे जगत को धारण करके ठहरा हुआ हूं, इसलिए । ___ कृष्ण कहते हैं, विस्तार में तू मत जा। मैं तेरे सामने खड़ा हूं। तू मेरे को ही तत्व से जान। तू और विस्तार में मत पड़। तू सीधा | | मुझको ही तत्व से जान, उसकी ही आकांक्षा कर। मुझको ही तत्व से जान। मैं ही आधारभूत हूं, या जो आधारभूत है, | अंतिम बात। कृष्ण ने बहुत-से प्रतीक कहे। वे सब प्रतीक इशारे वही मैं हूं। विस्तार में तू खो सकता है। | हैं। कोई भी प्रतीक प्रतिमा नहीं है। कोई भी प्रतीक पूजा के लिए बहुत लोग डिटेल्स में खो जाते हैं। बहुत लोग इतने विस्तार में | नहीं है। सभी प्रतीक केवल समझ के लिए सहारे हैं। जो प्रतीकों की खो जाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं रहता है कि वे किसकी खोज के पूजा में लग जाता है, वह भटक जाता है। प्रतीक पूजा के लिए नहीं लिए निकले थे। कई बार जंगल में खो जाने की वजह से जिस वृक्ष होता; प्रतीक इशारे के लिए होता है। 244 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंजिल है स्वयं में एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है। और किनारे पर पत्थर लगा है, मील का पत्थर लगा है और उस पर तीर लगा है। वह मील का पत्थर बैठकर पूजा करने के लिए नहीं है, वह बैठने के लिए नहीं है । वह तीर यह कह रहा है कि यहां से आगे बढ़ो। अगर मंजिल तक पहुंचना है, तो पत्थरों पर मत रुकना । यह तीर कह रहा है, आगे चलो। ये जितने प्रतीक कृष्ण ने लिए हैं, यह उस महायात्रा के किनारे पर लगे हुए पत्थर हैं। इन पर रुकना नहीं है। बोकोजू एक मंदिर में ठहरा हुआ था। बौद्ध मंदिर था जापान का, लकड़ी की मूर्तियां थीं बुद्ध की। रात बहुत उसे सर्दी लगी । उसने एक मूर्ति उठाकर जला ली और आंच ताप ली। मंदिर का पुजारी घबड़ा गया; नींद खुली। आग देखकर मंदिर में, घबड़ाया हुआ आया और उसने कहा, यह क्या कर रहे हो? पागल हो तुम! तुम्हें मैंने ठहराकर कौन-सा पाप किया! तुम आदमी सीधे-सादे मालूम पड़ते थे। यह तुम भगवान बुद्ध को जला रहे हो ? बोकोजू ने कहा, भगवान बुद्ध ! बड़ी भूल हो गई। पास पड़ी एक छोटी-सी लकड़ी को उठाकर वह राख को कुरेदने लगा। उस पुरोहित ने पूछा, अब क्या कर रहे हो ? उसने कहा, मैं भगवान की अस्थियां खोज रहा हूं। उस पुरोहित ने कहा, तू बिलकुल पागल आदमी है। लकड़ी की मूर्ति जलाकर और अस्थियां खोज रहा है ! तो बोकोजू खिलखिलाकर हंसा और उसने कहा कि तुम भी जानते तो हो कि लकड़ी की मूर्ति है। तो फिर रात अभी बहुत बाकी है और सर्द बहुत ज्यादा है। और भीतर जो बुद्ध हैं, उनको बहुत सर्दी लग है। तुम दो मूर्तियां और उठा लाओ, तो रात बड़े आनंद से गुजर जाए! उस पागल को रात ही निकालना पड़ा। सर्द बहुत थी रात और उसने कहा भी था कि भीतर बुद्ध हैं, फिर भी भीतर के बुद्ध की कौन फिक्र करता? मूर्ति जलाने का गहन अपराध तो हो ही गया था। उसे रात ही बाहर कर दिया उस मंदिर के । उसने बहुत कहा कि तुम क्या कर रहे हो? बुद्ध बाहर किए दे रहे हो? लेकिन कौन उसकी सुनने को राजी था! दरवाजे बंद कर उसे बाहर फेंक दिया गया और रातभर सर्दी में बाहर ठिठुरता पड़ा रहा। सुबह जब मंदिर के द्वार खुले, तो उन्होंने देखा कि वह बाहर जाकर सड़क के किनारे एक पत्थर पर दो फूल रखकर पूजा कर रहा है। तब तो उस पुजारी को फिर परेशानी हुई। उसने जाकर कहा कि तुम आदमी किस भांति के हो ? रात भगवान की मूर्ति जला दी, और | अब सड़क के किनारे पड़े हुए पत्थर की बैठकर पूजा कर रहे हो ? बोकोजू ने कहा, पूजा करनी हो, तो कोई भी प्रतीक काम दे जाता है। कोई भी प्रतीक काम दे जाता है ! और पागल बनना हो, तो लोग प्रतीकों को प्रतिमाएं बना लेते हैं और भटक जाते हैं। सुबह के लिए | मान लिया कि बुद्ध यहां हैं । बुद्ध की पूजा करनी है, इस पत्थर पर भी की जा सकती है। यह सिर्फ प्रतीक है, यह केवल एक डिवाइस । लेकिन तेरी मूर्तियां बहुत वजनी हो गई हैं। तूने जिंदा बुद्ध को | बाहर फेंक दिया और लकड़ी की मूर्तियों को तूने भारी समझा। और जब मैं अस्थियां खोजने लगा, तब तुझे भी पता चल गया कि | अस्थियां वहां मिलेंगी नहीं, क्योंकि लकड़ी है। तेरी पूजा झूठी है। तू प्रतीक को प्रतिमा बना रहा है। यह आखिरी बात इस अध्याय में याद रखें, क्योंकि यह पूरे प्रतीक का अध्याय है। प्रतीक प्रतिमा नहीं है, इशारा है। सब प्रतीक उपयोगी हैं — मंदिर के, मस्जिद के, चर्च के, गुरुद्वारे के। सब प्रतीक उपयोगी हैं। कोई प्रतीक अंतिम नहीं है। प्रतीक से गुजर जाना, प्रतीक पर रुक मत जाना । प्रतीक पर ठहरना, उसका उपयोग करना और पार हो जाना। तो एक दिन विस्तार खो जाएगा, और केंद्र उपलब्ध हो जाता है। इतना ही। पांच मिनट रुकें। अंतिम दिन है, कोई उठे न ! कीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं। 245 Page #276 --------------------------------------------------------------------------  Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 पहला प्रवचन विराट से साक्षात की तैयारी Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 श्रीमद्भगवद्गीता हे भरतवंशी अर्जुन, मेरे में आदित्यों को अर्थात अदिति के अथ एकादशोऽध्यायः द्वादश पुत्रों को और आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को तथा दोनों अश्विनी कुमारों को और उनचास मरुदगणों को देख अर्जुन उवाच तथा और भी बहुत-से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् । को देख। यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ।।१।। और हे अर्जुन, अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित हुए भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। चराचर सहित संपूर्ण जगत को देख तथा और भी जो कुछ त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ।। २।। देखना चाहता है, सो देख। एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ।। ३ ।। मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो। OT ध्यात्म की अत्यधिक उलझी हुई पहेलियों में एक योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ।। ४।। 1 पहेली से ये सूत्र शुरू होते हैं। वह पहेली है कि प्रभु श्रीभगवानुवाच बिना श्रम किए मिलता नहीं। और साथ ही जब पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। मिलता है, तो जिसे मिलता है, उसे लगता है कि मेरे श्रम का फल नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ।। ५।। नहीं, प्रभु की अनुकंपा है। जो उसे पा लेता है, वह जानता है कि पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।। | जो मैंने किया था, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। और जो मैंने पाया बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ।।६।। है. वह सभी मल्यों के अतीत है। जिसे मिलता है. वह समझ पाता इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।। है कि यह प्रसाद है, ग्रेस है, अनुग्रह है। लेकिन जिसे नहीं मिला मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्रष्टुमिच्छसि ।। ७ ।। है, अगर वह यह समझ ले कि प्रभु प्रसाद से मिलता है, मुझे कुछ इस प्रकार श्रीकृष्ण के विभूति-योग पर कहे गए वचन भी नहीं करना, तो उसे प्रसाद भी कभी नहीं मिलेगा। सुनकर अर्जुन बोला, हे भगवन्, मुझ पर अनुग्रह करने के मनुष्य श्रम करे; श्रम से परमात्मा नहीं मिलता; लेकिन मनुष्य लिए परम गोपनीय अध्यात्म-विषयक वचन अर्थात उपदेश इस योग्य हो पाता है कि प्रसाद की वर्षा उसे मिल पाती है। झील, आपके द्वारा जो कहा गया, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गड्डा, वर्षा को पैदा करने का कारण नहीं है। लेकिन वर्षा हो, तो गया है। | गड्ढे में भर जाती है और झील उपलब्ध होती है। वर्षा पहाड़ पर भी क्योंकि हे कमलनेत्र, मैंने भूतों की उत्पत्ति और प्रलय होती है, लेकिन पहाड़ के शिखर रूखे के रूखे रह जाते हैं। वर्षा आपसे विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपका अविनाशी प्रभाव | गड्डे पर भी होती है, लेकिन गड्ढा भर जाता है, आपूरित हो जाता है। भी सुना है। गड्ढे के किसी श्रम से नहीं होती है वर्षा, लेकिन गड्ढे का इतना श्रम हे परमेश्वर, आप अपने को जैसा कहते हो, यह ठीक ऐसा जरूरी है कि वह गड्डा बन जाए। ही है। परंतु हे पुरुषोत्तम, आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल्ल, ___ कोई श्रम करके सत्य को नहीं पा सकता। क्योंकि सत्य इतना वीर्य और तेजयुक्त रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं। | विराट है और हमारा श्रम इतना क्षुद्र कि हम उसे श्रम से न पा इसलिए हे प्रभो, मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना। सकेंगे। और खयाल रहे कि जो हमारे श्रम से मिलेगा, वह हमसे शक्य है, ऐसा यदि मानते हैं, तो हे योगेश्वर, आप अपने | छोटा होगा, हमसे बड़ा नहीं हो सकता। जिसे मेरे हाथ गढ़ लेते हैं, अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइए। | वह मेरे हाथों से बड़ा नहीं होगा। और जिसे मेरा मन समझ लेता इस प्रकार अर्जुन के प्रार्थना करने पर श्रीकृष्ण भगवान | है, वह भी मेरे मन से बड़ा नहीं हो सकता। जिसे मैं पा लेता हूं, बोले,हे पार्थ, मेरे सैकड़ों तथा हजारों नाना प्रकार के और वह मुझसे छोटा हो जाता है। नाना वर्ण तथा आकृति वाले अलौकिक रूपों को देख। | इसलिए श्रम से न कभी कोई सत्य को पाता है, न कभी कोई 2481 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 विराट से साक्षात की तैयारी परमात्मा को पाता है, न कभी कोई मोक्ष को पाता है। और साथ ही | पहला लक्षण है, योग्यता का दंभ, योग्यता का अहंकार। यह भी खयाल रखें कि बिना श्रम के भी कभी किसी ने नहीं पाया इसलिए जिन्हें खयाल है कि वे पात्र हैं, वे ठीक से समझ लें है। यह पहेली है। श्रम से हम इस योग्य बनते हैं कि हमारा द्वार | कि उनसे ज्यादा बड़ा अपात्र खोजना मुश्किल है। और जिन्हें खुल जाए। खुले द्वार में सूरज प्रवेश कर जाता है। खुला द्वार सूरज | खयाल है कि उनकी कोई भी पात्रता नहीं है, उन्होंने पात्र बनना को पकड़कर ला नहीं सकता। लेकिन खुला द्वार, सूरज आता हो, | शुरू कर दिया है। तो बाधा नहीं डालता है। मनुष्य का सारा श्रम बाधा को तोड़ने के । अर्जुन पात्र था। इसलिए सहज भाव से कह सका कि मेरी कोई लिए है। पात्रता नहीं, आपका अनुग्रह है। इस बात को खयाल में लें, तो यह सूत्र समझ में आएगा। __ अपात्र पर तो अनुग्रह भी नहीं हो सकता। उलटे रखे घड़े पर इस प्रकार कृष्ण के विभूति-योग पर कहे गए वचन सुनकर वर्षा भी होती रहे, तो घड़ा भर नहीं सकता। उलटा रखा हुआ घड़ा अर्जुन बोला, मुझ पर अनुग्रह करने के लिए परम गोपनीय | अपात्र है। क्यों उलटा घड़ा मैं कह रहा हूं? ताकि खयाल में आ अध्यात्म-विषयक वचन आपके द्वारा जो कहा गया, उससे मेरा सके कि पात्रता भीतर छिपी है, लेकिन उलटी है। और घड़ा सीधा अज्ञान नष्ट हो गया है। हो जाए, तो पात्र बन जाए। इसमें पहला शब्द समझ लेने जैसा है, अनुग्रह। अनुग्रह का अर्थ | । पात्रता कहीं पाने भी नहीं जाना है; हम पात्रता लेकर ही पैदा होते होता है, जिसे पाने के लिए हमने कुछ भी नहीं किया। जिसे पाने | हैं। ऐसा कोई मनुष्य ही नहीं है, ऐसी कोई चेतना ही नहीं, जो प्रभु के लिए हमने कुछ किया हो, वह सौदा है। उसमें अनुकंपा कुछ भी | को पाने की पात्रता लेकर पैदा न होती हो। फिर भी परमात्मा हमें नहीं है। जिसे पाने के लिए हमने कुछ अर्जित की हो संपदा, वह | मिलता नहीं। उसकी वाणी सुनाई नहीं पड़ती, उसके स्वर हमारे हमारे श्रम का पुरस्कार है, उसमें कुछ प्रसाद नहीं है। हृदय को नहीं छूते। उसका स्पर्श हमें नहीं होता, उसका आलिंगन कि आपके अनग्रह से मझे जो कहा गया है। नहीं मिलता। हम पात्र हैं. लेकिन उलटे रखे हए हैं। और उलटे रखे मेरी कोई योग्यता न थी, और मेरा कोई श्रम भी नहीं था, मेरी कोई | | होने की सबसे सुगम जो व्यवस्था है, वह दंभ है, वह अहंकार है। साधना भी नहीं थी। मैं दावा कर सकू, ऐसी मेरी कोई अर्जित संपदा जितना ज्यादा बड़ा हो मैं का भाव, उतना ही पात्र उलटा होता है। नहीं है। फिर भी आपके अनुग्रह से मुझे जो कहा गया है! अर्जुन ने कहा कि आपका अनुग्रह है। ___ इससे यह अर्थ आप न लेना कि अनुग्रह की इस घटना में कृष्ण कठिन है, क्योंकि अर्जुन के लिए और भी कठिन है। अगर कृष्ण ने अर्जुन के साथ कुछ पक्षपात किया है। क्योंकि आपका भी कोई आपको मिल जाएं, तो कृष्ण से अभिभूत होना कठिन नहीं होगा। श्रम नहीं है, आपकी भी कोई साधना नहीं है, फिर यह कृष्ण अर्जुन | | लेकिन अर्जुन के कृष्ण हैं मित्र, सखा, साथी। उनके कंधे पर हाथ को ही देने पहुंच गए! और आपके द्वार को खोजकर अब तक नहीं रखकर, गले में हाथ रखकर अर्जुन चला है, उठा है, बैठा है, तो ऐसा लगेगा कि कछ पक्षपात मालम होता है। गपशप की है। कष्ण में अनग्रह को देख लेना, मित्र में, जो साथ ___ ध्यान रहे, जो योग्य है, उसे ही यह खयाल आता है कि मेरी ही खड़ा हो! और आज तो साथ भी नहीं, अर्जुन ऊंचा बैठा था और कोई योग्यता नहीं। अयोग्य को तो सदा खयाल होता है कि मेरी | कृष्ण सारथी बने नीचे बैठे थे। आज तो केवल कृष्ण के सारथी होने बड़ी योग्यता है। जो पात्र होता है, वही विनम्र होता है। अपात्र तो | की स्थिति थी। अर्जुन ऊंचा बैठा था। उस क्षण में भी अर्जुन अनुग्रह बहुत उदंड होता है। अपात्र तो मानता है कि मैं योग्य हूं, अभी | मान पाता है, इसके लिए अत्यंत निरअहंकारी मन चाहिए। इतना तक मुझे मिला नहीं। इसमें जरूर नियति, भाग्य, परमात्मा का | | विनम्र मन चाहिए, जो कि ऊपर बैठकर भी अपने को नीचे देख कोई हाथ है। सब भांति मैं योग्य हूं और अगर मुझे नहीं मिला तो | पाता हो। मित्र को भी जो परमात्मा की स्थिति में रख पाता हो। अन्याय हो रहा है। ___ हमें परमात्मा भी मिले, तो हम मित्र की स्थिति में रखना चाहेंगे। पात्र मानता है कि मैं अपात्र हूं। इसलिए नहीं मिला, तो दोषी मैं संगी-साथी, साथ तल पर खड़ा कर लेना चाहेंगे। अर्जुन मित्र को हूं। और अगर मिलता है, तो वह प्रभु की अनुकंपा है, अनुग्रह है। परमात्मा की स्थिति में रख पाता है। और जो परमात्मा को इतने योग्यता का पहला लक्षण है, अयोग्यता का बोध। अयोग्यता का | | निकट देख पाता है, वही देख पाता है। दूर आकाश में बैठे हुए आTS | 2491 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 परमात्मा के लिए सिर झुकाना बहुत आसान है। पास-पड़ोसी में | और प्रेमिका की तरह आत्मा के तल पर एक न हो जाएं, तब तक छिपे परमात्मा को सिर झुकाना बहुत मुश्किल है। पत्नी में, पति में, | | अध्यात्म का संचरण, अध्यात्म का उपदेश, अध्यात्म का दान, बेटे में, भाई में छिपे परमात्मा को सिर झुकाना बहुत मुश्किल है। असंभव है। इसलिए अध्यात्म गोपनीय है। स्वभावतः, जो जितने निकट है, उसके साथ हमारे अहंकार का शरीर भी मिलते हैं तो गुप्तता चाहिए, तो जब आत्माएं मिलती संघर्ष, प्रतिद्वंद्विता उतनी ही बड़ी हो जाती है। इसलिए यहूदी कहते हैं तो और भी गुप्तता चाहिए। इसलिए अध्यात्म छिपा-छिपाकर हैं कि कभी भी कोई पैगंबर अपने गांव में नहीं पूजा जाता। न पूजे दिया गया है, चुपचाप दिया गया है, मौन में दिया गया है। कारण, जाने का कारण है। क्योंकि इतना निकट है गांव के लिए पैगंबर, इतना मौन, इतनी चुप्पी, इतना एकांत न हो, तो वह जो भीतर, दो कि यह मानना मश्किल है कि तम हमसे ऊपर हो। असंभव है। का मिलन. संवाद है. वह असंभव है। इसलिए गांव में तो पैगंबर को पत्थर ही पड़ेंगे। पूजा मिलनी बहुत ___ अर्जुन कहता है कि इतनी गोपनीय बात को आपने मुझ पर प्रकट मुश्किल है। किया, यह सिवाय अनुग्रह के और क्या हो सकता है! अर्जुन कृष्ण को कह सका कि तुम्हारा अनुग्रह है, मेरी कोई पात्रता इस प्रकटीकरण में, इस अभिव्यक्ति में, इस गोपनीय मिलन में नहीं है। यह उसकी पात्रता का सबूत है। यह धार्मिक जगत में प्रवेश और भी एक बात विचारणीय है कि यह घटना घटती है युद्ध के करने वाले व्यक्ति की पहली योग्यता है, पहला लक्षण है। मैदान पर। चारों तरफ बड़ा समूह है। और साधारण समूह नहीं, मुझ पर अनुग्रह करने के लिए परम गोपनीय अध्यात्म-विषयक युद्ध को रत, युद्ध के लिए तत्पर। इस युद्ध के लिए तत्पर समूह में वचन अर्थात उपदेश आपके द्वारा जो कहा गया, उससे मेरा अज्ञान | भी यह गोपनीयता घट जाती है। यह मिलन, यह कृष्ण का संवाद नष्ट हो गया है। | अर्जुन को सुनाई पड़ जाता है, यह कृष्ण अनुग्रह कर पाते हैं। दूसरी बात, परम गोपनीय अध्यात्म। तो एक और बात खयाल ले लेनी चाहिए। और वह यह कि दो अध्यात्म प्रेम से भी ज्यादा गोपनीय है। इसे थोड़ा हम समझ लें। शरीरों को मिलना हो, तो भौतिक अर्थों में एकांत चाहिए। दो आप जिसे प्रेम करते हैं, चाहते हैं, उसके साथ एकांत मिले। दूसरे आत्माओं को मिलना हो, तो भीड़ में भी मिल सकती हैं। भौतिक की मौजूदगी खटकती है। दो प्रेमी किसी को भी मौजूद नहीं देखना अर्थों में एकांत का फिर कोई अर्थ नहीं है। इस भीड़ में भी दो चाहते, अकेले हो जाना चाहते हैं। क्यों? इतना अकेले की क्या आत्माओं का मिलन हो सकता है। क्योंकि भीड़ तो शरीर के तल तलाश है? अकेले में इतना क्या रस है? दूसरे की मौजूदगी क्या पर है। बाधा देती है? यह बहुत विचार की बात रही है। जिन लोगों ने भी गीता पर गहन पहली बात, जिसके साथ हम गहरे प्रेम में हैं, उसमें हम लीन अध्ययन किया है, उन्हें यह मन में विचार उठता ही रहा है, यह प्रश्न होना चाहते हैं और उसे अपने में लीन कर लेना चाहते हैं। जिसके जगता ही रहा है, कि युद्ध के मैदान पर, भीड़ में, युद्ध के लिए तत्पर साथ गहरे प्रेम में हैं, उसके साथ हम द्वैत को तोड़ देना चाहते हैं, । लोगों के बीच, कृष्ण को भी कहां की जगह मिली गीता का संदेश अद्वैत हो जाना चाहते हैं। दो न रहें, एक ही रह जाए। लेकिन वह कहने के लिए! पर यह बहुत सुविचारित मालूम पड़ता है। जो तीसरा मौजूद है, उसके साथ तो हमारा कोई प्रेम नहीं है। उसकी अध्यात्म, शरीर की भीड़ के बीच भी एकांत पा सकता है। मौजूदगी अद्वैत को घटित न होने देगी। अध्यात्म, बाजार के बीच भी अकेला हो सकता है। और इसलिए प्रेमी एकांत चाहते हैं, प्राइवेसी चाहते हैं, अकेलापन आध्यात्मिक मिलन युद्ध के क्षण में भी घट सकता है। क्योंकि चाहते हैं। वह तीसरे की जो मौजूदगी है, बाधा बन जाएगी और द्वैत | युद्ध, बाजार, शरीरों की भीड़, सब बाहर हैं। अगर भीतर तत्परता बना रहेगा। वह मौजूद न हो, तो दो व्यक्ति लीन हो सकते हैं एक | हो, पात्रता हो, और अगर भीतर ग्रहण करने की क्षमता हो, लीन में। इसलिए प्रेम गोपनीय है, गुप्त है, सार्वजनिक नहीं है। | होने की, विनम्र होने की, डूबने की, चरणों में गिर जाने की भावना अध्यात्म और भी गोपनीय है। क्योंकि प्रेम में तो शायद दो शरीर हो, तो अध्यात्म कहीं भी घटित हो सकता है—यद्ध में भी। ही मिलते हैं, अध्यात्म में गुरु और शिष्य की आत्मा भी मिल जाती इस बात को जिस अनूठे ढंग से गीता ने जगत को दिया है, कोई है। और जब तक यह मिलन घटित न हो कि गुरु और शिष्य, प्रेमी दूसरा शास्त्र नहीं दे सका। और इसलिए गीता अगर इतनी रुचिकर | 250] Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ विराट से साक्षात की तैयारी हो गई, और मन पर इतनी छा गई, तो उसका कारण है। यह काफी कीमती है, सोचने जैसा है। क्योंकि बहुत-से लोग उपनिषद हैं, वनों के एकांत में, मौन, शांति में, गुरु और शिष्य इस तरह के अज्ञान मिटने को ही ज्ञान समझ लेते हैं। शास्त्र हैं, के बीच, बड़े ध्यान के क्षण में संवादित हैं। बाइबिल है, बहुत सदवचन हैं, सदगुरु हैं, उनके वचनों को लोग इकट्ठा कर लेते हैं; एकांत में चुने हुए शिष्यों से कही गई बातें हैं। लेकिन गीता घने और सोचते हैं, ज्ञान हो गया; और सोचते हैं, जान लिया। क्योंकि संसार के बीच दिया गया संदेश है। और युद्ध से ज्यादा घना संसार | गीता कंठस्थ है, वेद के वचन याद हैं, उपनिषद होंठ पर रखे हैं, क्या होगा? वहां भी अध्यात्म घटित हो सकता है, अगर पात्र सीधा | तो ज्ञान हो गया। हो। और वह जो गोपनीय है, अधिकतम गोपनीय है, जो सबके ___ ध्यान रहे, अर्जुन कहता है, अज्ञान नष्ट हो गया। अब तक जो सामने नहीं कहा जा सकता, वह भी कहा जा सकता है, अगर पात्र | | मेरी मान्यता थी अज्ञान से भरी हुई, वह टूट गई। लेकिन अभी ज्ञान शांत, मौन, स्वीकार करने को तैयार हो। नहीं हुआ है, क्योंकि ज्ञान तो तभी होता है, जब मैं अनुभव कर लूं। फिर भौतिक अकेलेपन का अर्थ होता है, कोई और मौजूद नहीं।। ___ यह कृष्ण ने जो कहा है, इस पर भरोसा आ गया। और कृष्ण आध्यात्मिक अकेलेपन का अर्थ होता है, आप मौजूद नहीं। । | जैसे लोग भरोसे के योग्य होते हैं। उनकी मौजूदगी भरोसा पैदा इसे ठीक से समझ लें। | करवा देती है। उनका खुद का आनंद, उनका खुद का मौन, उनकी भौतिक भीड़ का अर्थ होता है, बहुत लोग मौजूद हैं। शांति, उनकी शून्यता, छा जाती है, आच्छादित कर लेती है। उनकी आध्यात्मिक एकांत का अर्थ होता है, शिष्य मौजूद नहीं। | आंखें, उनका होना, पकड़ लेता है चुंबक की तरह, खींच लेता है गुरु तो गैर-मौजूदगी का नाम ही है, इसलिए उसकी हम बात | प्राणों को, भरोसा आ जाता है। ही न करें। गुरु का तो अर्थ ही है कि जो गैर-मौजूद हो गया। जो | __ लेकिन यह भरोसा ज्ञान नहीं है। यह भरोसा उपयोगी है हमारी अब एब्सेंट है, जो उपस्थित नहीं है; जो दिखाई पड़ता है और | भ्रांत धारणाओं को तोड़ देने के लिए। लेकिन भ्रांत धारणाओं का भीतर शून्य है। टूट जाना ही सत्य का आ जाना नहीं है। जब शिष्य भी गैर-मौजूद हो जाए, इतना डूब जाए कि भूल जाए| | पंडित ज्ञानी नहीं है। पंडित अज्ञानी नहीं है, पंडित ज्ञानी भी नहीं अपने को कि मैं हूं, तो आध्यात्मिक एकांत घटित होता है। और | है। पंडित अज्ञानी और ज्ञानी के बीच है। अज्ञानी वह है, जिसे कुछ उस एकांत में ही वे गोपनीय सूत्र दिए जा सकते हैं; किसी और तरह | भी पता नहीं। पंडित वह है, जिसे सब कुछ पता है। और ज्ञानी वह से दिए जाने का जिनका कोई भी उपाय नहीं है। है, जिसके पता में और जिसके अनुभव में कोई भेद नहीं है। जो तो अर्जुन ने कहा कि जो अत्यंत गोपनीय है, वह भी अनुग्रह | | जानता है, जो उसकी जानकारी है, वह उसका अपना निजी अनुभव करके तुमने मुझे कहा, उससे मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है। | भी है। वह उधार नहीं जानता। किसी ने कहा है, ऐसा नहीं जानता। - इसे खयाल कर लें। अज्ञान का नष्ट हो जाना, यहां ज्ञान का पैदा खुद ही जानता है, अपने से जानता है। हो जाना नहीं है। ज्ञान तो है अनुभव। अज्ञान तो नष्ट हो सकता है | | अभी अर्जुन को जो जानकारी हुई, वह कृष्ण के कहने से हुई है। गुरु के वचन से भी। लेकिन नकारात्मक है। अर्जुन कह रहा है, मेरा | | अभी कृष्ण ऐसा कहते हैं, और कृष्ण पर अर्जुन को भरोसा आया अज्ञान नष्ट हो गया। | है, इसलिए अर्जुन कहता है कि मेरा अज्ञान टूट गया। लेकिन अभी वह यह कह रहा है कि अब तक मेरी जो मान्यताएं थीं, वे टूट | | मैं नहीं जानता हूं, अभी तुम कहते हो। गईं। अब तक जैसा मैं सोचता था, अब नहीं सोच पाऊंगा। आपने | इसलिए अगर कृष्ण थोड़ा हट जाएं अलग, अर्जुन के संदेह जो कहा, उसने मेरे विचार बदल दिए। आपने जो मुझे दिया, उससे | वापस लौट आएंगे। इसलिए कृष्ण अगर खो जाएं, तो अर्जुन फिर मेरा मन रूपांतरित हो गया; मैं बदल गया हूं। मेरा अज्ञान टूट गया। | वापस वहीं पहुंच जाएगा, जहां वह गीता के प्रारंभ में था। उसमें देर लेकिन अभी ज्ञान नहीं हो गया है। अभी बीमारी तो हट गई है. | नहीं लगेगी। और अगर ईमानदार होगा तो जल्दी पहंच जाएगा. लेकिन अभी स्वास्थ्य का जन्म नहीं हुआ है। अभी नकारात्मक रूप अगर बेईमान होगा तो थोड़ी देर लगेगी। क्योंकि तब वह शब्दों को से बाधाएं मेरी टूट गईं, लेकिन अभी पाजिटिवली, विधायक रूप ही दोहराता रहेगा, घोंटता रहेगा। और अपने को समझाता रहेगा से मेरा आविर्भाव नहीं हुआ है। | कि मुझे मालूम है, मुझे मालूम है। [251 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-58 लेकिन अर्जुन ईमानदार है। आया, कि आप जैसा कहते हो, ऐसा ही है, ऐसी मेरी श्रद्धा बनी। और इस जगत में सबसे बड़ी ईमानदारी अपने प्रति ईमानदारी परंतु हे पुरुषोत्तम...। है। आप दूसरे को धोखा देते हैं, उससे कुछ बहुत बनता-बिगड़ता और यह परंतु विचारणीय है। नहीं तो बात खतम हो गई। अर्जुन नहीं। अच्छा नहीं है, लेकिन कुछ बहुत बनता-बिगड़ता नहीं। थोड़ा | कहता है, जैसा आप कहते हो, ऐसा ही है। ऐसी भी मेरी श्रद्धा हो पैसे का नुकसान पहुंचा देंगे, कुछ और करेंगे। लेकिन जो धोखा गई। अब बात खतम हो जानी चाहिए। जब श्रद्धा ही आ गई, तो आप अपने को दे सकते हैं, उससे आपका पूरा जीवन मिट्टी हो अब लेकिन-परंतु का क्या अर्थ है! अब चुप हो जाओ। गीता जाता है। और हम धोखा देते हैं। सबसे बड़ा धोखा जो हम अपने समाप्त हो जानी चाहिए थी। यहां बात पूरी हो गई। . को दे सकते हैं, वह यह है कि बिना स्वयं जाने हम मान लें कि हम अगर होते, तो गीता यहां समाप्त हो गई होती। हम इसी हमने जान लिया है। जगह रुक गए हैं आकर। श्रद्धा आ गई है, मंदिर में पूजा कर लेते __ अगर कोई आपसे पूछे, ईश्वर है? तो आप चुप न रह पाएंगे। हैं, शास्त्र को सिर झुका लेते हैं, गुरु के चरण में फूल चढ़ा आते या तो कहेंगे, है; या कहेंगे, नहीं है। यह न कह पाएंगे कि मुझे पता | हैं। बात समाप्त हो गई। हमें शब्द याद हैं, सिद्धांतों का पता है, नहीं है। अगर आप यह कह पाएं कि मुझे पता नहीं, तो आप शास्त्र हमारे मन पर हैं। अब और क्या बाकी बचा है? ईमानदार आदमी हैं। अगर आप कहें कि हां है, और लड़ने-झगड़ने अभी कुछ भी नहीं हुआ। अभी नौका किनारे से भी नहीं छूटी। को तैयार हो जाएं, और बिना कुछ अनुभव के, तो आप बेईमान इसलिए अर्जुन कहता है, परंतु हे पुरुषोत्तम, आपके ज्ञान, हैं। अगर आप कहें, नहीं है; और तर्क करने को तैयार हो जाएं, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेजयुक्त रूप को प्रत्यक्ष देखना बिना किसी अनुभव के, तो भी आप बेईमान हैं। चाहता हूं। यह तो आपकी आंखों से जो आपने देखा है, वह मुझे जिनको हम आस्तिक और नास्तिक कहते हैं, वे बेईमानी की दो कहा। यह मेरे कानों ने सुना है, लेकिन आपकी आंखों का देखा हुआ शक्लें हैं। ईमानदार आदमी कहेगा, मुझे पता नहीं। मैं कैसे कहूं कि है। अब मैं अपनी ही आंख से देखना चाहता हूं, प्रत्यक्ष। और जब है, मैं कैसे कहूं कि नहीं है! कोई कहता है कि है, कोई कहता है | तक मैं न देख लूं, तब तक आप भरोसे योग्य हैं, भरोसा करता हूं। कि नहीं है। कभी एक पर भरोसा आ जाता है, अगर आदमी | | लेकिन जब तक मैं न देख लूं, तब तक ज्ञान का जन्म नहीं होता है। बलशाली हो। | शब्द पर मत रुक जाना, शब्द पर रुकने वाला भटक जाता है। बुद्ध जैसा आदमी आपके पास खड़ा हो, तो भरोसा दिला देगा | | और सारी दुनिया शब्द पर रुकी है। कोई कुरान के शब्द पर रुका कि ईश्वर वगैरह कुछ भी नहीं है। यह बुद्ध की वजह से। महावीर है, वह अपने को मुसलमान कहता है। कोई गीता के शब्द पर रुका जैसा आदमी आपके पास खडा हो. तो भरोसा दिलवा देगा कि है. वह अपने को हिंद कहता है। कोई बाइबिल के शब्द पर रुका ईश्वर वगैरह सब बकवास है। और कृष्ण जैसा आदमी पास खड़ा है, वह अपने को ईसाई कहता है। लेकिन ये शब्दों पर रुके हुए हो, तो आस्था आ जाएगी कि ईश्वर है। और जीसस जैसा आदमी लोग हैं। पास खड़ा हो, तो आस्था आ जाएगी कि ईश्वर है। लेकिन आपका दुनिया में सब संप्रदाय, शब्दों के संप्रदाय हैं। धर्म का तो कोई अपना अनुभव कोई भी नहीं है। संप्रदाय हो नहीं सकता। क्योंकि धर्म शब्द नहीं, अनुभव है। और लेकिन कृष्ण के कारण जो झलक आती है, वह भी उधार है। बुद्ध अनुभव हिंदू, मुसलमान, ईसाई नहीं होता। अनुभव तो ऐसा ही के कारण जो झलक आती है, वह भी उधार है। उधार झलकों से | निखालिस एक होता है, जैसे एक आकाश है। अज्ञान मिट जाता है, लेकिन ज्ञान अपनी ही झलक से पैदा होता है। कृष्ण से बड़ी तरकीब से अर्जुन ने यह बात पूछी है। कहा कि इसलिए अर्जुन कहता है कि आपने जो मुझे कहा, उससे मेरा आस्था पूरी है, आप जो कहते हैं; भरोसा आता है। आप कहते हैं, अज्ञान नष्ट हो गया है। क्योंकि हे कमलनेत्र, मैंने भूतों की उत्पत्ति | | ठीक ही कहते होंगे। अब यह कहने की कोई भी गुंजाइश नहीं कि और प्रलय आपसे विस्तारपूर्वक सुने हैं, आपका अविनाशी प्रभाव | आप गलत कहते हैं। आपने मुझे ठीक-ठीक समझा दिया। जैसा भी सुना। हे परमेश्वर, आप अपने को जैसा कहते हो, यह ठीक | आपने कहा है, वैसा ही है। लेकिन अब मैं अपनी आंख से देखना ऐसा ही है। ऐसा भी मैंने अनुभव लिया, ऐसा भी मुझे समझ में चाहता हूं। 2521 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 विराट से साक्षात की तैयारी और जो शिष्य अपने गुरु से यह न पूछे कि मैं अपनी आंख से हमारी खिड़की है, उससे हम देखते हैं। इस खिड़की से तो विराट को देखना चाहता हूं, वह शिष्य ही नहीं है। जो गुरु के शब्द मानकर बैठ देखा नहीं जा सकता, क्योंकि यह खिड़की ही विराट पर ढांचा बिठा जाए और उन्हें घोंटता रहे और मर जाए, वह शिष्य नहीं है। और जो देती है। यह खिड़की के कारण ही विराट पर आकार बन जाता है। गुरु अपने शिष्य को शब्द घुटाने में लगा दे, वह गुरु भी नहीं है। आप अपनी खिड़की से आकाश को देखते हैं। आकाश भी कृष्ण प्रतीक्षा ही कर रहे होंगे कि कब अर्जुन यह पूछे। अब तक लगता है कि खिड़की के ही आकार का है। उतना ही दिखाई पड़ता की जो बातचीत थी, वह बौद्धिक थी। अब तक अर्जुन ने जो सवाल है, जितना खिड़की का आकार है। उठाए थे, वे बद्धिगत थे, विचारपूर्ण थे। उनका निरसन कृष्ण करते तो इन आंखों से तो विराट देखा नहीं जा सकता। इसलिए बड़ी चले गए। जो भी अर्जुन ने कहा, वह गलत है, यह बुद्धि और तर्क | हिम्मत की जरूरत है, अंधा हो जाने की। इन आंखों से तो सारी से कृष्ण समझाते चले गए। निश्चित ही, वे प्रतीक्षा कर रहे होंगे कि | | शक्ति को खींच लेना पड़े। और उस दिशा में शक्ति को प्रवाहित अर्जुन पूछे; वह क्षण आए, जब अर्जुन कहे कि अब मैं आंख से | | करना पड़े, जहां कोई खिड़की नहीं है, खुला आकाश है, तब विराट देखना चाहता हूं। देखा जा सके। उस घटना को ही हम तीसरा नेत्र, थर्ड आई, शिव _आमतौर से गुरु डरेंगे, जब आप कहेंगे कि अब मैं आंख से | नेत्र या कोई और नाम देते हैं। वह तीसरी आंख खुल जाए, वह देखना चाहता हूं। तब गुरु कहेंगे कि श्रद्धा रखो, भरोसा रखो; दिव्य-चक्षु, तो! उसके बिना परमात्मा के प्रत्यक्ष रूप को नहीं देखा संदेह मत करो। लेकिन ठीक गुरु इसीलिए सारी बात कर रहा है। जा सकता। कि किसी दिन आप हिम्मत जुटाएं और कहें कि अब मैं देखना तब जो भी हम देखते हैं, वह परोक्ष है। जो भी हम देखते हैं, वह चाहता हूं। अब शब्दों से नहीं चलेगा। अब विचार काफी नहीं हैं। अनेक-अनेक परदों के पीछे से देखते हैं। उसे सीधा नहीं देखा जा अब तो प्राण ही उसमें एक न हो जाएं, मेरा ही साक्षात्कार न हो, | | सकता। हमारे पास जो उपकरण हैं, वे ही उसे परोक्ष कर देते हैं। तब तक अब कोई चैन, अब कोई शांति नहीं है। | इन उपकरणों को छोड़कर, इंद्रियों को छोड़कर, आंखों को तो अर्जुन ने कहा, हे कमलनेत्र, हे परमेश्वर, अब मैं आपके छोड़कर, किसी और दिशा से भी देखना हो सकता है। विराट को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं। तो पहला तो दुस्साहस, अंधा होने का। क्योंकि इन आंखों से यह प्रश्न अति दुस्साहस का है। शायद इससे बड़ा कोई ज्योति न हटे, तो तीसरी आंख पर ज्योति नहीं पहुंचती।। दुस्साहस जीवन में नहीं है। क्योंकि विराट को अगर आंख से | | दूसरा दुस्साहस, विराट को देखना बड़ा खतरनाक है। जैसे कि देखना हो, तो बड़े उपद्रव हैं। क्योंकि हमारी आंख तो सीमा को ही | | कोई गहन गड्ड में झांके, तो घबड़ा जाए; हाथ-पैर कंपने लगे; सिर देखने में सक्षम है। हम तो जो भी देखते हैं, वह रूप है, आकार घूम जाए। कभी किसी पहाड़ की चोटी पर किनारे, बहुत किनारे है। हमारी आंख ने निराकार तो कभी देखा नहीं। हमारी आंख की | | जाकर गड्ढ में झांककर देखा है? तो जो भय समा जाए, मृत्यु दिखाई क्षमता भी नहीं है निराकार को देखने की। हमारी आंख बनी ही | पड़ने लगे उस गड्ड में। आकृति को देखने के लिए है। तो विराट को देखने के लिए यह । लेकिन वह गड्ढ तो कुछ भी नहीं है। परमात्मा तो अनंत गड्डा है, आंख काम नहीं करेगी। विराट शून्य है, जहां सब आकार खो जाते हैं, जहां फिर कोई तल सच तो यह है कि इस आंख की तरफ से बिलकुल अंधा हो | और सीमा नहीं है। जहां फिर दृष्टि चलेगी तो रुकेगी नहीं कहीं, जाना पड़ेगा। यह आंख छोड़ देनी पड़ेगी। यह आंख तो बंद ही कर कोई जगह न आएगी, जहां रुक जाए। वहां घबड़ाहट पकड़ेगी। लेनी पड़ेगी। और इस आंख, इन दो आंखों से जो शक्ति बाहर | परम संताप पकड़ लेगा। और लगेगा, मैं मिटा, मैं मरा, मैं गया। प्रवाहित हो रही है, उस शक्ति को किसी और आयाम में प्रवाहित | | विराट के साथ दोस्ती बनाने का मतलब ही खुद को मिटाना है। करना होगा, जहां कि नई आंख उपलब्ध हो सके। तो पहला काम तो अंधा होना पड़े, तब वह आंख खुले। और जिससे मैं देख रहा हूं, इन आंखों के द्वारा...। ध्यान रहे, हम दूसरा काम, मरने की तैयारी दिखानी पड़े, तब उस जीवन से आंख से नहीं देखते; आंख के द्वारा देखते हैं। आंख से कोई नहीं | संस्पर्श हो। देखता। आंख के द्वारा देखते हैं। आंख के पीछे खड़े हैं हम। आंख । इसलिए कीर्कगार्ड ने, एक ईसाई रहस्यवादी संत ने कहा है कि 253] Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 परमात्मा को खोजना सबसे बड़े खतरे की खोज है - दि मोस्ट डेंजरस थिंग । है भी। सबसे बड़ा जुआ है। अपने जीवन को ही दांव पर लगाने का उपद्रव है। यह ऐसे जैसे बूंद सागर को खोजने जाए, तो मिटने को जा रही है। जहां सागर को पाएगी, वहां मिटेगी; फिर लौटना भी मुश्किल हो जाएगा। सीमा असीमा को खोजती हो; क्षुद्र विराट को खोजता हो; आकार निराकार को खोजता हो; तो मृत्यु की खोज है यह । इसलिए बुद्ध ने ईश्वर नाम ही नहीं दिया उसे । इसलिए बुद्ध ने कहा, वह है महाशून्य; ईश्वर नाम मत दो। क्योंकि ईश्वर नाम देने से हमारे मन में आकृति बन जाती है। हमने ईश्वर की आकृतियां बना ली हैं इसलिए। इसलिए बुद्ध ने कहा, ईश्वर की बात ही मत करो, वह है महाशून्य । इसलिए लोगों ने जब बुद्ध से पूछा कि क्या वहां परम जीवन है? बुद्ध ने कहा, जीवन की बात ही मत करो। वह है परम मृत्यु, वह है निर्वाण, सबका मिट जाना । बुद्ध के पास से भी लोग भाग खड़े होते थे। हमारे इस बड़े आध्यात्मिक मुल्क में भी बुद्ध के पैर न जम सके। और उसका कारण एक ही था। उसका कारण कुल इतना था कि बुद्ध के पास भी जाने में खतरा था। बुद्ध के पास भी वह खाई थी। बुद्ध के पास जाने का मतलब था कि वह परम शून्य...। बुद्ध में झांकना, बुद्ध से दोस्ती बनानी, उस परम शून्य के साथ दोस्ती बनानी थी। और बुद्ध आकृति की बात ही न करते; वे कहते, मिटना, समाप्त होना । सागर को खोजने की बात मत करो। वे कहते थे, बूंद मिटने की तैयारी रखती हो, तो सागर यहीं है। तो कृष्ण से पूछा जा रहा है वह परम खतरनाक सवाल अर्जुन द्वारा, कि मैं तुम्हें अपनी ही आंखों से देखना चाहता हूं, प्रत्यक्ष । यह खतरनाक सवाल है, इसलिए अर्जुन एक शर्त भी रख देता है। वह कहता है, इसलिए हे प्रभो ! मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना शक्य है, ऐसा यदि मानते हों, तो योगेश्वर, आप अपने अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइए। भय तो उसे पकड़ा होगा। वह जो कह रहा हैं, वह खतरनाक है। वह जो देखना चाहता है, वह मनुष्य की आखिरी आकांक्षा है। वह असंभव चाह है, इम्पासिबल डिजायर है। और मनुष्य उसी दिन पूरा मनुष्य हो पाता है, जिस दिन यह असंभव चाह उसे पकड़ लेती है। तब तक हम कीड़े-मकोड़े हैं। तब तक हमारी चाह में और जानवरों की चाह में कोई फर्क नहीं है। हम भी धन इकट्ठा कर रहे हैं, जानवर भी परिग्रह करते हैं। थोड़ा 254 करते हैं हमसे, तो उसका मतलब हुआ, हमसे थोड़े छोटे जानवर हैं। हम थोड़ा ज्यादा करते हैं। वे एक मौसम का करते हैं, तो हम पूरी जिंदगी का करते हैं। तो हमारा जानवरपन थोड़ा विस्तीर्ण है। वे भी कामवासना की तलाश कर रहे हैं - स्त्री पुरुष को खोज रही है, पुरुष स्त्री को खोज रहा है- हम भी वही कर रहे हैं। तो पशु में और हममें फर्क क्या है ? हमारी भी वासना वही है, जो पशु की है। लेकिन एक वासना है, परमात्मा की वासना, जो मनुष्य की ही है। कोई पशु विराट को नहीं खोज रहा है। और जब तक आप विराट को नहीं खोज रहे हैं, तब तक जानना कि पशु की सीमा का आपने अतिक्रमण नहीं किया। मनुष्य विराट की खोज है, असंभव की चाह है। सभी पशु अपने को बचाने की कोशिश में लगे हैं। कोई भी पशु मरना नहीं चाहता, कोई पशु मिटना नहीं चाहता। सिर्फ मनुष्य में कभी-कभी कोई मनुष्य पैदा होते हैं, जो अपने को दांव पर लगाते हैं, अपने को मिटाने की हिम्मत करते हैं, ताकि परम को जान सकें। अकेला मनुष्य है, जो अपने जीवन को भी दांव पर लगाता है। जीवन को दांव पर लगाने का साहस, असंभव की चाह है। विराट को आंखों से देखने की वासना, यह अभीप्सा । अर्जुन को लगा होगा, पता नहीं मेरी योग्यता भी है या नहीं! यह शक्य भी है या नहीं! यह संभव भी है या नहीं ! और मैं भी इस जगह आ गया हूं या नहीं, जहां ऐसा सवाल पूछ सकूं। यह सवाल कहीं मैंने जरूरत से ज्यादा तो नहीं पूछ लिया? यह सवाल कहीं मेरी सीमा का अतिक्रमण तो नहीं कर जाता ? यह सवाल कहीं ऐसा तो नहीं है कि अगर कृष्ण इसे पूरा करें, तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊं ? इसलिए उसने कहा कि वह आपका रूप देखा जाना शक्य हो, संभव हो, योग्यता हो मेरी, पात्रता हो मेरी, ऐसा यदि आप मानते हों ! क्योंकि यहां मेरी मान्यता क्या काम करेगी? जिसे हमने जाना नहीं है, उसके संबंध में हम पात्र भी हैं, यह भी हम कैसे जान सकते हैं? बिना किए पात्रता का कोई पता भी तो नहीं चलता। जो हमने किया ही नहीं है, वह हम कर सकेंगे या न कर सकेंगे, इसे जानने का उपाय, मापदंड भी तो कोई नहीं है। इसलिए शिष्य पूछता है, लेकिन उत्तर मिले ही, इसका आग्रह नहीं करता। और जो शिष्य इसका आग्रह करता है कि उत्तर मिलना ही चाहिए, उसे अभी पता ही नहीं है कि वह बचकानी बात कर रहा है। प्रश्न पूछा जा सकता है, लेकिन उत्तर तो गुरु पर ही छोड़ देना Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट से साक्षात की तैयारी होगा। पता नहीं, अभी समय आया या नहीं! अभी फल पका या | सभी साधक जल्दबाजी करने की कोशिश करते हैं। क्योंकि जो भी नहीं! अभी घड़ी पकी या नहीं! अभी उस जगह हूं या नहीं, जहां उसकी तलाश में है, प्यासा है; चाहता है, जल्दी पानी मिल जाए। तीसरी आंख खुले सके! और अगर खुल भी सके, तो मैं झेल भी लेकिन जल्दी मिला हुआ पानी हो सकता है जहर साबित हो। जल्दी सकंगा उस विराट को या नहीं! जहर है। विराट को देखना, उसे झेलना, उसे आत्मसात कर लेना, आग हो सकता है, अभी प्यास ही न थी इतनी, और पानी का सागर के साथ खेलना है। तो यह हो सकेगा मुझसे या नहीं, इसे ध्यान रखें। ऊपर टूट पड़े, तो भी मुसीबत हो जाए। फिर हमारी आदत सागर अर्जुन ने बड़ी समझ की बात कही है कि आप ऐसा मानते हों | के पानी को पीने की नहीं है। सागर का पानी मिल भी जाए, तो हम तो, तो ही मुझे प्रत्यक्ष कराएं। अन्यथा मैं रुक सकता हूं। जल्दी नहीं प्यासे मर जाएंगे। हम तो पानी, छोटे-छोटे कुएं, गड्डे खोदकर, पीने करूंगा, धैर्य रख सकता हूं, प्रतीक्षा करूंगा। और जब समझें कि की हमारी आदत है। वहीं हमारा तालमेल भी है। अचानक विराट मैं योग्य हुआ...। का संपर्क अस्तव्यस्त कर जाता है। केआस! कई बार ऐसा हुआ है कि शिष्यों को वर्षों प्रतीक्षा करनी पड़ी। नीत्शे को ऐसा हुआ। यह जर्मन विचारक नीत्शे उसी हैसियत इसलिए नहीं कि गुरु को उत्तर पता नहीं था। इसलिए भी नहीं कि | की चेतना थी, जिस हैसियत की बुद्ध, महावीर। लेकिन विक्षिप्त गुरु कुछ मजा ले रहा था, कि काफी समय व्यतीत हो जाए और हो गया यह आदमी। और विक्षिप्त होने का एक ही कारण था। इस आप उसकी सेवा-स्तुति करते रहें। सिर्फ इसलिए कि शिष्य जब | आदमी ने अति आग्रह किया अनंत में उतर जाने का; सब सीमाओं तक इसके योग्य न हो जाए कि झांक सके अनंत गड्डू में; को तोड़कर-विचार की, शब्द की, शास्त्र की, सिद्धांत की, विस्तारहीनता में झांक सके, जब तक इसके योग्य न हो जाए। नहीं समाज की सब सीमाओं को तोड़कर नीत्शे ने हिम्मत जुटाई तो होगा क्या? अगर अर्जुन थोड़ा भी कच्चा हो, तो पागल होकर | अनंत में झांकने की, बिना गुरु के। वापस लौटेगा, विक्षिप्त हो जाएगा। कभी-कभी बुद्ध जैसा व्यक्ति बिना गुरु के भी वापस लौट ___ अनेक साधक विक्षिप्त हो जाते हैं, जल्दबाजी के कारण; पागल | आया है। लेकिन शायद पीछे अनंत जन्मों की साधना होगी। हो जाते हैं। और साधारण पागल का तो इलाज हो सकता है। नीत्शे, ऐसा लगता है कि बिलकुल अपरिपक्व, उस विराट के साधक अगर पागल हो जाए, तो मनोचिकित्सक के पास इलाज का आमने-सामने खड़ा हो गया। भी उपाय नहीं है। क्योंकि उसकी बीमारी शरीर की बीमारी नहीं नीत्शे ने कहा है कि जैसे समय से हजारों मील ऊपर मैं खडा हं। है, उसकी बीमारी मन की भी बीमारी नहीं है, उसकी बीमारी मन के समय से हजारों मील ऊपर! कोई मतलब नहीं होता इसका। क्योंकि जो अतीत है, उससे संपर्क से पैदा हुई है। उसके इलाज का कोई समय और मील का क्या संबंध? लेकिन मतलब एक है कि समय उपाय नहीं है। . के बाहर खड़ा हूं। हजारों मील बाहर खड़ा हूं, और देख रहा हूं आपने उन फकीरों के संबंध में सुना होगा, जिनको हम मस्त विराट अराजकता को। कहते हैं, सूफी जिनको मस्त कहते हैं। मस्त का मतलब ही केवल उसके बाद नीत्शे फिर कभी स्वस्थ नहीं हो सका। उसके बाद इतना है कि अभी कुछ कच्चा था आदमी, और कूद गया। तो देख | जो भी उसने लिखा, उसमें हीरे हैं; ऐसे हीरे हैं, जो कि मुश्किल से तो लिया उसने, लेकिन सब अस्तव्यस्त हो गया। उस अराजक में | मिलें; लेकिन सब हीरे विक्षिप्त मालूम पड़ते हैं। सब हीरे जैसे जहर झांककर वह भी अराजक हो गया। सब अस्तव्यस्त हो गया। वापस में बुझाए गए हों। उसकी वाणी में झलक बुद्ध की है, और साथ में लौटना मुश्किल हो गया। अगर वह वापस भी लौट आए, तो जो पागलपन भी है। कहीं-कहीं आकाश झांकता है विराट का, और उसने देखा है, उसे भूल नहीं सकता। जो उसने जाना है, वह उसका | सब तरफ पागलपन दिखाई पड़ता है। पीछा करेगा। जो उसने अनुभव कर लिया है, वह उसके रोएं-रोएं क्या हुआ इसे? इसने कुछ देखा जरूर। लेकिन शायद अभी में समा गया है। अब उससे छुटकारा नहीं है। और अब वह बेचैन | | उचित न था देखना। समय के पहले देख लिया। नीत्शे पागल ही करेगा। और अब उसे जीने नहीं देगा, और मुश्किल में डाल देगा। विक्षिप्तता घटित होती है, अगर साधक जल्दबाजी करे। और अर्जुन डरा होगा कि जो मैं पूछता हूं, छोड़ दूं कृष्ण पर ही। यदि 255 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-500 शक्य हो, यदि आप समझें कि यह रूप देखा जाना शक्य है, तो | है; दो-चार दिन टिकता है, फिर खो जाता है। दो-चार दिन कहते अपने अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइए। अब मुझे कहिए | हुए सुने जाते हैं, बड़ी शांति मिल रही है। फिर दो-चार दिन के बाद मत कुछ, अब मुझे दिखाइए। अब मैं स्वाद लेना चाहता हूं। सुनना | | उनका पता नहीं चलता। वह जो बड़ी शांति मिल रही होती है, वह नहीं चाहता, हो जाना चाहता हूं। अनुभव! कि मैं भी वही जान | | मौसमी फूल था, उसकी कोई जड़ नहीं थी। अधैर्य की कोई जड़ें सकू, जो आप जानते हैं। और वही जान सकू, जो आप हैं। नहीं हैं। धैर्य चाहिए। इस प्रकार अर्जुन के प्रार्थना करने पर कृष्ण ने कहा, हे पार्थ, मेरे और अर्जुन ने यह जो कहा कि अगर शक्य हो...। मुझे कुछ सैकड़ों तथा हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा आकृति | पता नहीं है। और मुझे पता हो भी नहीं सकता। जिस अनंत में मैं वाले अलौकिक रूपों को देख। | झांका नहीं हूं, उसमें झांक सकूँगा, यह मैं कैसे कहूं? आप ही तय अर्जुन बिलकुल तैयार था। और उसकी रुकने की तैयारी लक्षण | कर लें। है। अधैर्य रुग्ण चित्त का लक्षण है। जो कहता है, मैं रुक सकता | | जो शिष्य गुरु पर छोड़ता है इतनी हिम्मत से—यह समर्पण हूं, प्रतीक्षा कर सकता हूं, जब समझें कि योग्य हूं, तब तक राह | | है—वह इसी क्षण भी तैयार हो गया। इसलिए कृष्ण ने अर्जुन की देखूगा, वह इसी वक्त योग्य हो गया। इतना धैर्य योग्यता है। जो योग्यता की बात ही नहीं की। उन्होंने तत्क्षण कहा कि ठीक है, तो कहता है, अभी दिखा दें, अभी करवा दें, अभी हो जाए, जल्दी हो | तू मेरे अलौकिक रूपों को देख। जाए...। और हे भरतवंशी अर्जुन, मेरे में आदित्यों को, अदिति के द्वादश मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान कितने दिन करें तो पुत्रों को, आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को, अश्विनी कुमारों परमात्मा का अनुभव हो जाए! कितने दिन! कितने जन्म पूछे, तो को, मरुदगणों को देख और भी बहत-से पहले न देखे हए संगत मालूम पड़ता है। वे पूछते हैं, कितने दिन! मैं उनसे पूछता | आश्चर्यमय रूपों को देख। और हे अर्जुन, अब इस मेरे शरीर में हूं, चौबीस घंटे करिएगा? कहते हैं, नहीं। आधा घंटा, पंद्रह मिनट | | एक जगह स्थित हुए चराचर सहित संपूर्ण जगत को देख और भी रोज निकाल सकते हैं। पंद्रह मिनट भी सच में मौन हो जाइएगा? जो कुछ देखना चाहता है सो देख। वे कहते हैं, कहीं एकाध क्षण को पंद्रह मिनट में हो गए तो हो गए, | । इसमें कुछ बातें समझ लेने जैसी हैं। पहली तो बात यह कि कृष्ण कुछ पक्का नहीं है। पर कितने दिन लगेंगे? और अगर मैं उनको | ने फिर योग्यता की बात ही न की। कृष्ण ने फिर शक्यता की बात कह दूं, एक साल, दो साल, तो ऐसा लगता है, यह उनके वश के | ही न की। कृष्ण ने फिर यह सवाल ही नहीं उठाया इस संबंध में कि बाहर की बात है। उनको लगता है, कोई उनको कहे कि ऐसा | तू पात्र हो गया या नहीं, घड़ी आ गई या नहीं। कृष्ण ने कहा, देख। दस-पंद्रह दिन में हो जाएगा, तो भरोसा आता है। यही अर्जुन अगर गीता में थोड़ी देर पहले यह पूछता, तो कृष्ण इतना अधैर्य हो, तो फिर वही चीजें हम पा सकते हैं, जो | | दिखाने को इतनी सरलता से राजी नहीं हो सकते थे। तो अर्जुन ने दस-पंद्रह दिन में मिलती हैं। फिर वे चीजें नहीं पा सकते, जो क्या अर्जित कर लिया है इस बीच में, उस पर हम खयाल कर लें, जन्मों-जन्मों में मिलती हैं। फिर मौसमी पौधे लगाना चाहिए हमें। तो वह आपको भी सहयोगी हो जाए, कि जिस दिन आप उतना जो लगाए नहीं कि दो-चार दिन में फूल देना शुरू कर देते हैं। | अर्जित कर लें, उस दिन आपको भी परमात्मा क्षणभर नहीं रुकाता लेकिन बस मौसम में ही रौनक रहती है। फिर हमें उन वृक्षों की | है, उसी क्षण दिखा देता है। आशा छोड़ देनी चाहिए, जो सदियों तक लगते हैं। उनकी हमें ___ और ऐसा मत सोचना कि अर्जुन के पास तो कृष्ण थे, आपके आशा छोड़ देनी चाहिए। क्योंकि इतना अधैर्य हो, तो जड़ें गहरी पास तो कोई भी नहीं है। हर अर्जुन के पास कृष्ण है। और जब आप नहीं जा सकतीं। और जड़ें जितनी गहरी जाएं, वृक्ष उतना ऊपर जाता अर्जुन की इस घड़ी में आ जाते हैं, तब आप अचानक पाएंगे कि है। जितना होता है वृक्ष ऊपर, उतना ही जड़ों में होता है नीचे। तो कृष्ण मौजूद है। आपको भी जो चला रहा है, वह कृष्ण ही है। वह जो मौसमी पौधा है, उसकी कोई जड़ तो होती नहीं। उतना ही | आपका भी जो सारथी है, वह कृष्ण ही है। आपने न कभी उससे पूछा ऊपर होता है, उतनी ही देर टिकता है। है, न कभी उसकी तरफ ध्यान दिया है, न कभी उसकी सुनी है। इसलिए बहुत लोग ध्यान सीखते हैं; बस, मौसमी पौधा होता अगर हम आदमी को एक रथ समझ लें, तो आपका मन अर्जुन 256 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट से साक्षात की तैयारी 3 है; और आपके भीतर जो साक्षी चैतन्य है, वह कृष्ण है। आपके लाख सवाल भी जोड़ लें, तो एक जवाब नहीं बनता। और एक भीतर वह जो मन को भी देखने वाला है, वह जो विटनेस है, वह | जवाब आपके पास आ जाए, तो लाख सवाल तत्क्षण विलीन हो जो मन को भी जानता है, उसका द्रष्टा है, वह कृष्ण है। जाते हैं, हवा में खो जाते हैं। लेकिन आपने अर्थात मन ने कभी उस तरफ देखा नहीं। और इसलिए जो व्यक्ति उत्तर की तलाश में है, उसे पहले तो अपने अगर वहां से कोई आवाज भी आई, तो कभी सुना नहीं। जिस दिन सवाल खोने की तैयारी दिखानी चाहिए। यह जरा कठिन लगेगा। भी आप तैयारी पूरी कर लेंगे, कृष्ण को आप अपने निकट पाएंगे क्योंकि हम कहेंगे, यह तो बड़ी उलटी बात आप कह रहे हैं। उन्हीं सदा-सदा। इसलिए उसकी फिक्र छोड़ दें। वह कृष्ण की चिंता है, का तो हमें जवाब चाहिए, जिनको आप छोड़ने को कह रहे हैं। वह आपकी चिंता नहीं है। अगर उनको छोड़ देंगे, तो फिर जवाब किस चीज का! आपमें क्या हो जाए कि आप कहें कि परमात्मा, मुझे दिखा! | बुद्ध के पास कोई जाए, तो वे यही कहते कि तेरे सवालों का और परमात्मा कहे कि देख! और बीच में एक क्षणभर का भी | जवाब हम दे देंगे, कुछ दिन तू सवालों को छोड़ने की फिक्र कर। अंतराल न हो। अर्जुन ने इस बीच क्या कमाया है? और जिस दिन तू कहे कि अब मेरे भीतर कोई सवाल नहीं, हम गंवाने से शुरू करें। क्योंकि इस अध्यात्म के जगत में कमाई | उसी दिन तेरा जवाब दे देंगे। गंवाने से शुरू होती है। अर्जुन ने अपने संदेह गंवाए। अब उसका तो एक युवक मौलुंकपुत्त ने बुद्ध से कहा कि लेकिन अभी क्या कोई संदेह नहीं है। अब वह कहता है, आप जो कहते हैं, ऐसा ही तकलीफ है आपको जवाब देने में? तो बुद्ध ने कहा, तू सवालों से है, यह मेरी भी श्रद्धा बन गई। इतना भरा है कि जवाब सुनेगा कौन? और सवाल तुझे इस तरह __ अब तक वह पूछ रहा था, सवाल उठा रहा था, संदेह कर रहा | घेरे हुए हैं कि मेरा जवाब भीतर प्रवेश कैसे करेगा? और जब मेरा था। वह कहता था, अगर ऐसा करूंगा, तो ऐसा होगा। अगर युद्ध जवाब तेरे भीतर जाएगा, तो तेरे सवाल मेरे जवाब को तोड़कर में जाऊंगा, तो इतने लोग मरेंगे। अगर मर जाएंगे, तो इतना पाप हजार सवाल खड़े कर लेंगे और कुछ भी नहीं होगा। लगेगा। तो संन्यास ले लूं, सब छोड़ दूं, विरक्त हो जाऊं? क्या हमारे चारों तरफ सवालों की एक भीड़ है। उसमें रंचभर भी करूं, क्या न करूं? और कृष्ण जो भी कहते थे, वह उस पर दस जगह नहीं है भीतर कि कुछ प्रवेश हो जाए। तो जो भी जवाब नए सवाल उठाता था। अब उसके कोई सवाल न रहे। मिलता है, हमारे सवाल उस पर हमला कर देते हैं, उसे तोड़कर न आपके भीतर कोई सवाल न रहे, आप समझना कि दस सवाल बना देते हैं; वापस लौटा देते हैं कि अब इनको पूछकर आपने कुछ कमाया। एक लिहाज से तो गंवाया, क्योंकि हम | आओ। और भीतर हमारे कोई जवाब नहीं पहुंच पाता। हम बिना समझते हैं, सवाल ही हमारी संपत्ति है। उत्तर के मर जाते हैं, क्योंकि हम सवालों से भरे हुए जीते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे एक सवाल पूछते हैं, मैं जवाब भी अर्जुन ने पहली तो कमाई यह कर ली कि अब उसके पास कोई नहीं दे पाया कि वे दूसरा पूछते हैं! मैं जवाब दे रहा हूं, इसकी भी | सवाल नहीं है। वह यह कहने को तैयार हो गया है कि तुम जो कहते उन्हें फिक्र नहीं, उन्हें पूछने की ही फिक्र है! मैंने क्या जवाब दिया, हो कृष्ण, ऐसा ही है। अब इसमें मुझे कुछ पूछना नहीं है। यह भी मैं लौटकर उनसे पूछता हूं, तो वे कहते हैं, कुछ याद नहीं | __और जब पूछना न हो, तभी देखने की क्षमता पैदा होती है। जो आता। उन्हें सवाल पूछने हैं। जैसे सवाल पूछना ही उनकी कुल पूछना चाहता है, वह अभी देखना नहीं चाहता, सुनना चाहता है। जिंदगी है। और अगर उन्हें एक जवाब दें, तो उस जवाब में से कल | फर्क समझ लें। जो पूछता है, वह सुनना चाहता है कि कुछ कहो। वे दस सवाल फिर खोज कर आ जाते हैं। जवाब का वे एक ही | | प्रश्न का मतलब है, कुछ सुनाओ। प्रश्न का मतलब है, मेरे कान उपयोग करते हैं, नए सवाल बनाने के लिए। बाकी उनके लिए कोई | में कुछ डालो। उपयोगिता नहीं है। जैसे उन्होंने यही काम चुन रखा है कि सवाल | लेकिन सत्य कान के रास्ते से कभी भी गया नहीं है। अब तक इकट्ठे कर लेने हैं! तो नहीं गया है। और अभी तक कोई उपाय नहीं दिखता कि कान लेकिन क्या होगा सवालों से? और लाख सवाल भी आप पूछ के रास्ते से सत्य चला जाए। सत्य जब भी गया है, आंख के रास्ते सकते हों, तो भी लाख सवाल से एक जवाब भी तो बनता नहीं है। से गया है। 257 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 गीता दर्शन भाग-50 इसलिए हम सत्य के जानने वाले को कहते हैं, द्रष्टा। श्रोता दिन ही दर्शन की बात संभव हो सकती है। नहीं, द्रष्टा। इसलिए जिन्होंने जान लिया उनके ज्ञान को हम कहते लोग आते हैं मेरे पास। वे कहते हैं कि मन में बड़ी अशांति रहती हैं, दर्शन। श्रवण नहीं, देखा। इसलिए हम तीसरी आंख की खोज | है। मैं पूछता हूं, क्या कारण है? वे कहते हैं, नौकरी नहीं है। किसी करते हैं, तीसरे कान की नहीं। कोई तीसरा कान है ही नहीं। को बेटा नहीं है। किसी का धंधा ठीक नहीं चल रहा: मन में बड़ी पूछते हैं जब आप, तो आप चाहते हैं, आपके कान में कुछ डाला अशांति रहती है। उनके जितने भी कारण हैं अशांति के, उनमें एक जाए। सत्य उस रास्ते नहीं आता। और ध्यान रहे, कान का अनुभव भी कारण आध्यात्मिक नहीं है। नौकरी नहीं चलती है, इसलिए सदा ही उधार होता है। सदा ही उधार है। आंख का अनुभव ही अशांति है। और आते हैं कि ध्यान से शायद शांति मिल जाए। अपना हो सकता है। जब तक सवाल हैं, तब तक आप उन लोगों अगर ध्यान से नौकरी मिलती होती, तो शांति मिल सकती थी। की तलाश कर रहे हैं, जो आपके कान को कचरे से भरते रहें। जिस ध्यान से नौकरी मिलेगी नहीं। अगर ध्यान से बच्चा पैदा हो सकता दिन आपके पास कोई सवाल नहीं है, उस दिन आप उस आदमी | था, तो शायद शांति मिल जाती। अगर बच्चे पैदा होने से शांति की खोज करेंगे, जो आपको दिखा दे। मिलती हो तो। क्योंकि जिनको है, उनको बिलकुल नहीं है। वे तो अर्जन का यह कहना कि जो आप कहते हैं. ऐसा ही है. खबर कहते हैं, ये बच्चों की वजह से अशांति है। . देता है कि उसके सवाल गिर गए। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कब इस नौकरी से छुटकारा दूसरी बात। जिंदगी में एक तो हमारे रोजमर्रा की उलझनें हैं। होगा? इसकी वजह से अशांति है। रिटायर हो जाएं। विश्राम मिल अर्जुन जहां से यात्रा शुरू किया, वह रोजमर्रा की उलझन थी, युद्ध जाए, तो थोड़ा शांति से ध्यान करें। जो बेकार हैं, वे कहते हैं, का सवाल था। क्षत्रिय के लिए रोजमर्रा की उलझन है। मारना, नहीं नौकरी कब मिले। जो नौकरी में हैं, वे कहते हैं, बेकार कब हो जाएं मारना; नैतिक, अनैतिक; क्या करें, क्या न करें; क्या उचित है, कि थोड़ी शांति मिले। क्या करने योग्य है; वह उसकी चिंतना थी। सवाल तो शुरू हुआ लेकिन इनकी कोई भी जिज्ञासा आध्यात्मिक नहीं है। इनका प्रश्न था जिंदगी से। जिंदगी की सामान्य उलझन थी। | जिंदगी के रोजमर्रा काम से उलझा हुआ है। इस रोजमर्रा के काम हम सबको भी वही उलझन है कि यह करें या न करें? इसका से सत्य के दर्शन का कोई भी संबंध नहीं है। ये जो पूछ रहे हैं, यह क्या फल होगा? पुण्य होगा, पाप होगा? न करें तो अच्छा है कि धार्मिक जिज्ञासा ही नहीं है। करें तो अच्छा है? अंतिम परिणाम जन्मों-जन्मों में क्या होंगे? हम __अब तक अर्जुन जो पूछ रहा था, वह नैतिक जिज्ञासा थी, सब की भी चिंता यही है। मांसाहार करें या न करें? पाप होगा कि धार्मिक नहीं। अब वह जो जिज्ञासा कर रहा है, वह धार्मिक है। पुण्य होगा? धन इकट्ठा करें कि न करें? क्योंकि कहीं कोई गरीब अर्जुन भूल गया कि युद्ध में खड़ा है। हो जाएगा; तो हम पुण्य कर रहे हैं कि पाप कर रहे हैं? क्या करें? इसको खयाल में रखें। इस घड़ी आकर अर्जुन भूल पाया कि क्या उचित, क्या अनुचित? यही उसकी चिंतना थी। इसी से यात्रा युद्ध में खड़ा है। इस घड़ी आकर वह भूल पाया कि प्रियजन सामने शुरू हुई थी। अभी तक वह यही पूछता रहा था। खड़े हैं और मैं इनको मारने को आया हूं। इस घड़ी युद्ध विलीन हो लेकिन अचानक इस बात को कहने के बाद–कि अब जो आप गया। वह जो चारों तरफ शस्त्र-अस्त्र लिए हुए योद्धा खड़े थे, वे कहते हैं, वैसा ही है, ऐसी श्रद्धा का मुझमें जन्म हुआ—वह एक खो गए, जैसे स्वप्न में चले गए हों। वे नहीं हैं अब। अब सिर्फ दो दूसरा ही सवाल उठा रहा है, जो जीवन की उलझन का नहीं, जीवन ही रह गए उस बड़ी भीड़ में अर्जुन और कृष्ण। आमने-सामने के पार है। वह कह रहा है कि अब मैं विराट को देखना चाहता हूं। खड़े हैं। भीड़ तिरोहित हो गई है। यह आयाम, यह डायमेंशन अलग है। ऐसा नहीं कि भीड़ कहीं चली गई। भीड़ तो जहां है, वहीं है। पर जब तक आप उन सवालों को पूछ रहे हैं, जिनका संबंध इस अर्जुन के लिए अब उस भीड़ का कोई भी पता नहीं है। अर्जुन अब जीवन के चारों तरफ के विस्तार से है, तब तक आप दर्शन की यात्रा उस भीड़ के संबंध में नहीं सोच रहा है। यह संसार हट गया। अब नहीं कर सकते। जिस दिन आप इस उलझन के थोड़ा पार उठते हैं अर्जुन एक सवाल पूछ रहा है कि जो आपने कहा, अनंत, जिस और परम जिज्ञासा करते हैं कि इस जीवन का स्वरूप क्या है? उस विराट लीला की आपने बात कही, जिस अमृत, अनंत धारा का 258 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट से साक्षात की तैयारी आपने स्मरण दिलाया, मैं उसे देखना चाहता हूं। संसार खो गया। अब तुम भी न हो जाओ। अब तुम्हारा दरवाजा भी हट जाए और यह जिज्ञासा, यह जिज्ञासा धर्म की जिज्ञासा है। मैं खुले आकाश को सीधा देख लूं। भारत का अनूठा ग्रंथ ब्रह्म-सूत्र जिस वचन से शुरू होता है, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा। ऐसे ही क्षण में ब्रह्म की जिज्ञासा शुरू वह बड़ा अदभुत है। वह वचन है, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा, यहां से | होती है। यहां संसार खो गया। ब्रह्म की जिज्ञासा। और यहां से शुरू होता है, इसके पहले कुछ है इसीलिए शंकर ने बहुत-बहुत आग्रह करके कहा है कि संसार नहीं। तो जो किताबों को पकड़ते हैं, वे सोचते हैं कि शायद इसका माया है, स्वप्न है। इसलिए नहीं कि संसार स्वप्न है। बहुत पहला हिस्सा खो गया है। अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ! इसका मतलब वास्तविक है। अगर स्वप्न होता, तो शंकर समझाते किसको? हुआ, यहां से ब्रह्म की जिज्ञासा। तो इसका मतलब है, यह किताब | लिखते-बोलते किसके लिए? स्वप्न के पात्रों के लिए? सिर अधूरी है। आगे का हिस्सा कहां है? इस वाक्य से ऐसा ही लगता खोलते उनके साथ? सिर खपाते, वाद-विवाद करते पूरे मुल्क में है कि यहां से ब्रह्म की जिज्ञासा, तो अभी आगे की बात, इसमें | भटकते, स्वप्न के पात्रों के साथ? गांव-गांव खोजते? तब तो खुद पहले कोई और भी बात रही होगी, इसका कोई पहला खंड खो गया ही पागल साबित होते। है। नहीं तो अथातो ब्रह्म जिज्ञासा की क्या जरूरत है कहने की! ___ संसार अगर सच में ही स्वप्न है, तो शंकर को फिर इस किताब का कोई हिस्सा नहीं खो गया है। यह किताब पूरी हिलना-डुलना ही नहीं था अपनी जगह से। फिर बोलने का कोई है। यह वचन अधरा लगता है, उसका कारण दसरा है। जिससे यह कारण नहीं था। किससे बोलना है? जब आप जाग जाते हैं सबह कहा गया है और जिसने यह कहा है, आयाम की बदलाहट है। और जानते हैं कि रात जो देखा, वह स्वप्न था, तब आप स्वप्न के अब तक हो रही थी संसार की बकवास। अब गुरु ने कहा, अथातो | पात्रों से कोई चर्चा करते हैं? उनको समझाते हैं कि सब झूठा था ब्रह्म जिज्ञासा। अब छोड़ यह बकवास। अब हम यहां से ब्रह्म की जो देखा। वे होते ही नहीं, समझाइएगा किसको? चर्चा शुरू करें। या शिष्य ने यहां कोई सवाल उठाया होगा, जिससे ___नहीं। शंकर जब कहते हैं, जगत स्वप्न है, तब इसका एक आयाम बदल गया। जगत खो गया, स्वप्न हो गया, और ब्रह्म । डिवाइस, एक उपाय की तरह उपयोग कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं वास्तविक लगने लगा। इसलिए यहां से ब्रह्म की जिज्ञासा। कि अगर तुम जगत को एक स्वप्न देख पाओ, थोड़ी देर के लिए भी, अर्जुन को यहां युद्ध खो गया, संसार मिट गया। और उसने पूछा | | तो तुम्हारी आंख उस तरफ हट सकती है, जो जगत के पार है। जब कि अब मैं देखना चाहता हूं, क्या है अस्तित्व! सीधा, प्रत्यक्ष, | तक तुम्हें जगत सत्य मालूम पड़ता है, तब तक तुम किसी और सत्य आमने-सामने, सीधे देख लेना चाहता हूं। अब मैं आपको भी बीच की खोज में निकलोगे ही कैसे! जब तक तुम्हारे चारों तरफ जिसने में लेने को तैयार नहीं हूं। | तुम्हें घेरा है, वह तुम्हें इतना वास्तविक मालूम पड़ता है कि जीवन __ जिस दिन शिष्य कहता है गुरु से कि अब आप भी हट जाएं, | इसी में लगा दें; इसी दुकान में, इसी दो-दो पैसे को इकट्ठा करने में, अब मैं सीधा ही देखना चाहता हूं, उस दिन गुरु के आनंद का कोई | | इसी मकान को खड़ा करने में, इन्हीं बच्चों को पालने-पोसने में, तुम्हें पारावार नहीं है। जब तक शिष्य कहता रहता है, मैं तो आपके चरण इतनी वास्तविकता लगती है कि अपने जीवन को इसमें तिरोहित कर ही पकड़े रहूंगा; चाहे आप नरक जाएं, तो मैं नरक चलूंगा; जहां | दें, समाप्त कर दें, शहीद हो जाएं, तब तक तुम उठोगे कैसे? उस जाएं, आपको छोड़ नहीं सकता; तब तक गुरु पीड़ित होता है। | तरफ आंख कैसे उठाओगे जो सत्य है? क्योंकि फिर यह एक नया मोह, एक नई आसक्ति, एक नया ___ इसलिए अगर यह बात खयाल में आ जाए कि यह स्वप्न है, उपद्रव, एक नया संसार...। घडीभर को भी; यह बोध में गहरा उतर जाए कि चारों तरफ जो है, यहां अर्जुन क्या कह रहा है? बहुत डिप्लोमेटिकली, बहुत | | एक स्वप्न है, तो खोज शुरू हो जाती है कि सत्य क्या है! सत्य की राजनैतिक ढंग से क्षत्रिय था, होशियार था, कुशल था-बड़े खोज हो सके, इसलिए शंकर ने बड़े अनुग्रह से समझाया है लोगों शिष्ट ढंग से वह कष्ण से क्या कह रहा है. आप समझें। वह यह को कि जगत स्वप्न कह रहा है कि हटो तुम अब, अब मुझे सीधा ही देख लेने दो। अब लेकिन लोग बड़े मजेदार हैं। वे इस पर बैठकर विवाद करते हैं तुम्हारा रूप भी हटा लो। अब तुम्हारी आकृति भी विदा कर लो। | | कि स्वप्न है या नहीं! स्वप्न है, तो किस प्रकार का स्वप्न है! और 259 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-58 स्वप्न है, तो किसको आ रहा है! और स्वप्न है, तो ब्रह्म से स्वप्न | चौंककर आपको खयाल हुआ हो कि मैं कौन हूं? कहां खड़ा हूं? का क्या संबंध है! यह स्वप्न ब्रह्म को आ रहा है कि आत्मा को आ क्या है मेरे चारों तरफ? रहा है! अगर ब्रह्म को आ रहा है, तो फिर यह वास्तविक हो गया। __अगर ऐसा कोई क्षण आपको आ जाए, तो समझना कि उसके और अगर आत्मा को आ रहा है, तो यह आत्मा को शुरुआत इसकी बाद अथातो ब्रह्म जिज्ञासा, उस क्षण के बाद ब्रह्म-सत्र शरू होता कैसे हुई? लोग इसकी चर्चा में लग जाते हैं! है। लेकिन वह क्षण हमें आता ही नहीं। हमें सब पता है कि मैं कौन अगर शंकर हों, तो वे अपना सिर पीटें। उन्होंने कहा था कि थोड़ी हूं। नाम का पता है। पते का पता है। अपने घर का, बैंक बैलेंस देर के लिए तुम अपने इस उपद्रव के प्रति आंख बंद कर सको। तो का, सब पता है। कौन कहता है कि नहीं पता है! . एक उपाय था कि तुम्हें कहा कि यह स्वप्न है। छोड़ो भी इसे। थोड़ा अर्जुन इस घड़ी में ऐसी जगह आ गया, जहां उसे कुछ भी पता और तरफ भी देखो। आंख को थोड़ा मुक्त करो यहां से। देखने की नहीं रहा। वह भल ही गया कि यद्ध होने के करीब है। थोड़ी ही देर क्षमता यहां से थोड़ी हटे, तो नई यात्रा पर निकल जाए। में शंख बजेंगे. यद्ध में कद जाना पडेगा। वह नीति-अनीति. वह और निश्चित ही, जो उस नई यात्रा पर निकल जाता है, उसे क्षुद्र सब प्रश्न, सब खो गए। अभी थोड़ी देर पहले उसे बड़े लौटकर यह जगत स्वप्न मालूम पड़ता है। लेकिन स्वप्न इसलिए महत्वपूर्ण मालूम पड़ते थे। वह मरना-जीना, अपने-पराए, वे सब मालूम पड़ता है कि अब सापेक्ष रूप से उसने जो जाना है, वह इतना | खो गए। अब उसके लिए एक ही बात महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है, विराटतर सत्य है कि तुलना में यह बिलकुल फीका और मुर्दा हो | यह अस्तित्व क्या है? एक्झिस्टेंस, यह होना ही क्या है ? तो कृष्ण गया है। उसे ठीक यह ऐसे ही स्वप्नवत हो जाता है, जैसे आपने को कहता है, तुम भी हट जाओ। मुझे आमने-सामने सीधा हो जाने कागज के फूल देखे हों, और फिर आपको असली फूल देखने मिल | दो। मैं एक दफा सीधा ही देख लूं, क्या है। जाएं। और तब आप कहें कि ये कागज के फूल हैं। लेकिन जिन्होंने । यह योग्यता उसने अर्जित की गीता के इस क्षण तक। जब जीवन कागज के फूल ही देखे हों, उनको इसमें कुछ भी अर्थ न मालूम | की क्षुद्रता प्रश्न नहीं बनती, तभी जीवन का विराट, जिज्ञासा बनता पड़े, क्योंकि फूल का मतलब ही कागज के फूल होता है, और तो | है। जिसने हमें चारों तरफ घेर रखा है अभी और यहां, समय के घेरे फूल कोई होता नहीं! में, जब अचानक हमें उसका पता भी नहीं चलता, तो वह जो समय जिस दिन हम विराट को देख पाते हैं, उस दिन सीमित स्वप्न के पार है, हमें आच्छादित कर लेता है। जब क्षुद्र को हम भूलते हैं, जैसा फीका, मुर्दा, बेजान, अर्थहीन मालूम पड़ने लगता है। तो विराट की स्मृति आती है। रिलेटिव, वह सापेक्ष दृष्टि है। वह हमने कुछ और जान लिया। सब उपाय धर्म के क्षुद्र को भूलने के उपाय हैं। कहो उसे प्रार्थना, जैसे कोई सूरज को देख ले, फिर घर में लौटकर मिट्टी के दीए को कहो ध्यान, कहो पूजा, कहो जप; जो भी नाम देना हो, दो। लेकिन देखकर कहे कि यह बिलकुल अंधेरा है। अंधेरा है नहीं, क्योंकि क्षुद्र को भूलने के उपाय हैं। और क्षुद्र भूल जाए, तो हम उस किनारे घर में जो बैठा है, उसके लिए दीया ही सूर्य है। लेकिन जो सूरज पर खड़े हो जाते हैं, जहां से नौका विराट में छोड़ी जा सकती है। को देखकर लौटा है, उसे दीए की ज्योति दिखाई भी नहीं पड़ेगी। | थोड़ी देर को भी क्षुद्र भूल जाए, तो कुछ हो सकता है; कोई नए इतने विराट को जिसने जाना है, दीए की ज्योति अब उसकी आंखों | तल पर हमारा होना, कोई नई दृष्टि, कोई नया हृदय हम में धड़क में कहीं पकड़ में नहीं आएगी। वह कहेगा, दीया यहां है ही नहीं। सकता है। कोई नया स्वर, जो भीतर निरंतर बजता रहा है; सनातन तुम अंधेरे में बैठे हो। | है। लेकिन हमारे लिए नया है, क्योंकि हम पहली दफा सुनेंगे। वह यह सूर्य की तुलना में है। सब शब्द सापेक्ष हैं। | चारों तरफ की भीड़, आवाज, शोरगुल, बंद हो जाए क्षणभर को, अर्जुन को जिस क्षण यह बाहर का सारा जगत कृष्ण की | | तो वह भीतर की धीमी-सी आवाज, सनातन आवाज, हमें सुनाई तल्लीनता में स्वप्नवत हो गया, वह भूल गया कि मैं कहां खड़ा हूं। पड़ने लगती है। कभी आप भूले हैं एकाध क्षण को कि आप कहां खड़े हैं? कभी | | अर्जुन भूल गया है। संसार का विस्मरण, युद्ध का विस्मरण, आप भले हैं. एकाध क्षण को. अपनी पत्नी को. बच्चे को. घर को. परिस्थिति का विस्मरण, उसके लिए ब्रह्म की जिज्ञासा बन गई है। दुकान को, मकान को? कभी एकाध क्षण को ऐसा हुआ है कि और कृष्ण ने उससे एक बात भी नहीं कही। कहा कि देख। 1260/ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट से साक्षात की तैयारी यह भी थोड़ा सोच लेने जैसा है कि क्या अर्जुन को अब कुछ करना नहीं है। कृष्ण कहते हैं, देख और अर्जुन देखना शुरू कर देगा! क्या हुआ होगा? यह बहुत बारीक है। और जो अध्यात्म में गहरे उतरते हैं, उन्हें समझ लेने जैसा है। या उतरना चाहते हैं कभी, इसे सम्हाल- सम्हालकर रख लेने जैसा है। वह जो तीसरी आंख है, दो प्रकार से सक्रिय हो सकती है। या तो साधक चेष्टापूर्वक अपनी दोनों आंखों की ज्योति को भीतर खींच ले, आंख को बंद करके । वर्षों की लंबी साधना है, आंखों को निर्ज्योति करने की। क्योंकि आंख से हमारी जो चेतना बह रही है बाहर, उसे आंख बंद करके भीतर खींच लेने । इसको कबीर ने आंख को उलटा कर लेना कहा है। मतलब है कि धारा जो बाहर बह रही थी, वह भीतर बहने लगे। आपने कृष्ण की प्रेयसी राधा का नाम सुना है। आपको खयाल न होगा, वह धारा का उलटा शब्द है। कृष्ण के समय के जो भी शास्त्र हैं, उनमें राधा का कोई उल्लेख नहीं है। राधा के नाम का भी कोई उल्लेख नहीं है। बहुत बाद में, बहुत बाद की किताबों में राधा का उल्लेख शुरू हुआ। जिन्होंने उल्लेख शुरू किया, वे बड़े होशियार लोग थे। उन्होंने एक प्रतीक में बड़ा रहस्य छिपाकर रखा। लेकिन लोगों ने फिर राधा की मूर्तियां बना लीं। और फिर लोग कृष्ण और राधा बनकर मंच पर रास-लीला करने लगे ! राधा एक यौगिक प्रक्रिया है । वह जो जीवन की धारा बाहर की तरफ बह रही है, जिस दिन उलटी हो जाती है, उस दिन उस धारा का नाम राधा हो जाता है। सिर्फ शब्द को उलटा कर लेने से। T वह जो आंख से हमारी जीवन-धारा बाहर जा रही है, जब भीतर आने लगती है, तो वह राधा हो जाती है। और भीतर हमारे छिपा है मैंने कहा, कृष्ण, , साक्षी । वह साक्षी, जो हमारे भीतर छिपा है, जब हमारी जीवन-धारा उसकी राधा बन जाती है, उसके चारों तरफ नाचने लगती है, बाहर नहीं जाती; भीतर, और रास शुरू हो जाता है । उस रास की बात है। और हम नौटंकी कर रहे हैं, मंच वगैरह सजाकर । ऊधम करने के बहुत उपाय हैं। उपद्रव करने के बहुत उपाय हैं। और आदमी हर जगह से उपद्रव खोज लेता है। और अपने को भरमा लेता है, और सोचता है, बात खतम हो गई। राधा हमारी जीवन-धारा का नाम है, जब उलटी हो जाए, वापस लौटने लगे स्रोत की तरफ। अभी जा रही है बाहर की तरफ। जब जाने लगे भीतर की तरफ, अंतर्यात्रा पर हो जाए, तब, तब जो रास भीतर घटित होता है, परम रास, वह जो परम जीवन का अनुभव और आनंद, वह जो एक्सटैसी है, वह जो नृत्य है भीतर, उसकी बात है। तो एक तो उपाय है कि हम चेष्टा से, श्रम से, योग से, तंत्र से, साधन से, विधि से, मैथड से, सारी जीवन चेतना को भीतर खींच लें। एक उपाय है साधक का, योगी का । एक दूसरा उपाय है भक्त का, समर्पित होने वाले का, कि वह समर्पण कर दे । जिस व्यक्ति की अंतर्धारा भीतर की तरफ दौड़ रही हो, उसको समर्पण कर दे। तो जैसे अगर आप एक चुंबक के पास एक साधारण लोहे का | टुकड़ा रख दें, तो चुंबक की जो चुंबकीय धारा है, जो मैग्नेटिक फील्ड है, वह उस लोहे के टुकड़े को भी मैग्नेटाइज कर देता है, उस लोहे के टुकड़े को भी तत्काल चुंबक बना देता है। ठीक वैसे ही अगर कोई व्यक्ति उस व्यक्ति की तरफ अपने को पूरी तरह समर्पित कर दे, जिसकी धारा भीतर की तरफ जा रही है, तो तत्क्षण उसकी धारा भी उलटी होकर बहने लगती है। अर्जुन ने न तो कोई साधना की अभी अभी साधना करने का उपाय भी नहीं। अभी तो यह चर्चा ही चलती थी। और अचानक अर्जुन ने कहा कि अगर आप समझें मुझे योग्य, समझें शक्य, अगर यह संभव हो, आपकी मर्जी हो, तो दिखा दें। और कृष्ण ने कहा, देख। इन दोनों शब्दों के बीच में जो घटना घटी है, वह मैग्नेटाइजेशन | की है। वह अर्जुन का यह समर्पण भाव कि आप जो कहते हैं, वह ठीक ही है; मैं तैयार हूं; अब मेरा कोई विरोध नहीं, अब मेरा कोई असहयोग नहीं; अब मैं सहयोग के लिए राजी हूं; अब मेरी समग्र स्वीकृति है! कृष्ण ने कहा, देख | इन दोनों के बीच जो घटना घटी, उसका कोई उल्लेख गीता में नहीं है, हो भी नहीं सकता। उसका क्या उल्लेख हो सकता है ! वह घटना यह घटी कि समर्पण के साथ ही, वह जो कृष्ण की भीतर बहती हुई धारा थी, अर्जुन की धारा उसके साथ भीतर की तरफ लौट पड़ी। कृष्ण खो गए और अर्जुन ने देखना शुरू कर दिया। इस देखने की बात हम कल करेंगे। 261 लेकिन पांच मिनट उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन करें। वह मेरा प्रसाद है। फिर जाएं। कोई भी उठेगा नहीं। अपनी जगह बैठकर ताली बजाएं। अपनी जगह बैठकर कीर्तन में सहयोगी हों, और फिर जाएं। Page #292 --------------------------------------------------------------------------  Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 दूसरा प्रवचन दिव्य चक्षु की पूर्व-भूमिका Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । की इन बातों में तर्कयुक्त रूप से कुछ भी गलत न होगा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ।। ८।। अंधे को प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। और प्रकाश को देखने के संजय उवाच अतिरिक्त और कोई जानने का उपाय नहीं है। प्रकाश सुना नहीं जा एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः। | सकता, अन्यथा अंधा भी प्रकाश को सन लेता। प्रकाश छुआ नहीं दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ।। ९ ।। जा सकता, अन्यथा अंधा भी उसे स्पर्श कर लेता। प्रकाश का कोई अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् । स्वाद नहीं, कोई गंध नहीं। अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ।। १० ।। तो जिसके पास आंख नहीं हैं, उसका प्रकाश से संबंधित होने दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् । का कोई उपाय नहीं है। तो अंधा आदमी भी कह सकता है कि जो सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ।।११।। मानते हैं, वे भ्रांति में होंगे; और अगर प्रकाश है, तो मुझे दिखा दो। परंतु मेरे को इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने को तू और उसकी बात में कुछ अर्थ है। अगर प्रकाश है, तो मेरे अनुभव निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तेरे लिए दिव्य अर्थात में आए, तो ही मैं मानूंगा। अलौकिक चक्षु देता हूं, उससे तू मेरे प्रभाव को और मनुष्य भी परमात्मा को खोजना चाहता है। बिना यह पूछे कि मेरे योगशक्ति को देख। पास वह आंख, वह उपकरण है, जो परमात्मा को देख ले? संजय बोले, हे राजन्, महायोगेश्वर और सब पापों के नाश इसलिए जो कहते हैं कि परमात्मा है, हमें लगता है कि किसी भ्रम करने वाले भगवान ने इस प्रकार कहकर उसके उपरांत में हैं, किसी मानसिक स्वप्न में, किसी सम्मोहन में खो गए हैं। और अर्जुन के लिए परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्य स्वरूप दिखाया। | या फिर अंधविश्वास कर लिया है किसी भय के कारण, प्रलोभन और उस अनेक मुख और नेत्रों से युक्त तथा अनेक अदभुत के कारण। या केवल परंपरागत संस्कार है बचपन से डाला गया दर्शनों वाले एवं बहुत-से दिव्य भूषणों से युक्त और | मन में, इसलिए कोई कहता है कि परमात्मा है। बहुत-से दिव्य शस्त्रों को हाथों में उठाए हुए परमात्मा है या नहीं, यह बड़ा सवाल नहीं है। यह सवाल भी तथा दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किए हुए उठाया नहीं जा सकता, जब तक कि हमारे पास वह आंख न हो, और दिव्य गंध का अनुलेपन किए हुए, एवं सब प्रकार के जो परमात्मा को देखने में सक्षम है। प्रकाश है या नहीं, यह सवाल आश्चयों से युक्त, सीमारहित, विराटस्वरूप परमदेव ही व्यर्थ है, जब तक देखने वाली आंख न हो। परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। अंधे को प्रकाश तो बहुत दूर, अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता है। आमतौर से हम सोचते होंगे कि अंधे को कम से कम अंधेरा तो दिखाई पड़ता ही होगा। हमारी धारणा भी हो सकती हो कि अंधा 11 नुष्य ने सदा ही जीवन के परम रहस्य को जानना चाहा अंधेरे से घिरा होगा। 1 है। क्या है प्रयोजन जीवन का? क्या है लक्ष्य ? क्यों गलत है खयाल। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। उत्पन्न होती है सृष्टि और क्यों विलीन? कौन छिपा है अंधेरे का अनुभव भी आंख का ही अनुभव है। अंधे को अंधेरे का इस सबके पीछे ? किसके हाथ हैं? उस मूल को, उस स्रोत को, भी कोई अनुभव नहीं होता। आप आंख बंद करते हैं, तो आपको उस परम को मनुष्य ने सदा ही जानना चाहा है। अंधेरे का अनुभव होता है, क्योंकि आप अंधे नहीं हैं। आपको , लेकिन मनुष्य जैसा है, वैसा ही उस परम को जान नहीं सकता। | प्रकाश का अनुभव होता है, इसलिए उसके विपरीत अंधेरे का इससे ही दुनिया में नास्तिक दर्शनों का जन्म हो सका। जैसे अंधा अनुभव होता है। जिसे प्रकाश का अनुभव नहीं होता, उसे अंधेरे आदमी प्रकाश को जानना चाहे, न जान सके; तो अंधा आदमी भी | का भी कोई अनुभव नहीं हो सकता। कह सकता है कि प्रकाश एक भ्रांति है। और जिन्हें प्रकाश दिखाई | अंधेरा और प्रकाश दोनों ही आंख के अनुभव हैं। प्रकाश देता है, वे किसी विभ्रम में पड़े हैं, किसी इलूजन में पड़े हैं। जो | | मौजूदगी का अनुभव है, अंधेरा गैर-मौजूदगी का अनुभव है। प्रकाश की बात करते हैं, वे अंधविश्वास में हैं। और अंधे आदमीलेकिन जिसे प्रकाश ही नहीं दिखाई पड़ा, उसे प्रकाश की 264 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 दिव्य-चक्षु की पूर्व-भूमिका अनुपस्थिति कैसे दिखाई पड़ेगी! वह असंभव है। अंधे को अंधेरा | | को आकाश में देखकर कंपते थे और सोचते थे कि इंद्र नाराज है। भी नहीं है। | उसने बिजली को बांध लिया है। अगर पुरानी भाषा में कहें, तो इंद्र और जिसे अंधेरा भी दिखाई न पड़ता हो, वह प्रकाश के संबंध | को उसने बांध लिया है। घर में इंद्र रोशनी कर रहा है, और पंखे में क्या प्रश्न उठाए! और प्रश्न उठाए भी तो उसे क्या उत्तर दिया जा चला रहा है! सकता है! और जो भी उत्तर हम देंगे, वे अंधे के मन को जंचेंगे नहीं।। | आदमी ने इधर तीन सौ वर्षों में जो भी पाया है, उस पाने से उसे क्योंकि मन हमारी इंद्रियों के अनुभव का जोड़ है। अंधे के पास | बाहर कुछ चीजें मिली हैं और भीतर अहंकार मिला है। उसे लगता आंख का अनुभव कुछ भी नहीं है मन में। तो जंचने का, मेल खाने | है, मैं कुछ कर सकता हूं। और जितना अहंकार मजबूत होता है, का, तालमेल बैठने का कोई उपाय नहीं है। अंधे का पूरा मन कहेगा | उतनी ही नास्तिकता सघन हो जाती है। क्योंकि उतना ही यह मानना कि प्रकाश नहीं है। अंधा जिद्द करेगा कि प्रकाश नहीं है। सिद्ध भी | मुश्किल हो जाता है कि मुझमें कोई कमी है, कोई उपकरण, कोई करना चाहेगा कि प्रकाश नहीं है। इंद्रिय मुझमें खो रही है, अभाव है; मेरे पास कोई उपाय कम है, क्यों? क्योंकि स्वयं को अंधा मानने की बजाय, यह मान लेना | | जिससे मैं और देख सकूँ। ज्यादा आसान है कि प्रकाश नहीं है। अंधे के अहंकार की इसमें फिर एक और बात पैदा हो गई। हमने अपनी भौतिक इंद्रियों को तृप्ति है कि प्रकाश नहीं है। अंधे के अहंकार को चोट लगती है यह विस्तीर्ण करने की बड़ी कुशलता पा ली है। आदमी आंख से मानने से कि मैं अंधा हूं, इसलिए मुझे प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। | | कितनी दूर तक देख सकता है? लेकिन अब हमारे पास दूरदर्शक इसलिए मनुष्य में जो अति अहंकारी हैं, वे कहेंगे, परमात्मा नहीं| यंत्र हैं, जो अरबों-खरबों प्रकाश वर्ष दूर तारों को देख सकते हैं। है; बजाय यह मानने के कि मेरे पास वह देखने की आंख नहीं है, आदमी अपने अकेले कान से कितना सुन सकता है? लेकिन अब जिससे परमात्मा हो तो दिखाई पड़ सके। और ध्यान रहे, जिसको हमारे पास टेलिफोन है, रेडियो है, बेतार के यंत्र हैं; कोई सीमा नहीं परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, उसको परमात्मा का न होना भी दिखाई है। हम कितने ही दूर की बात सुन सकते हैं, और कितने ही दूर तक नहीं पड़ सकता है। क्योंकि न होने का अनुभव भी उसी का अनुभव बात कर सकते हैं। होगा, जिसके पास देखने की क्षमता है। ___ एक आदमी अपने हाथ से कितनी दूर तक पत्थर फेंक सकता नास्तिक कहता है, ईश्वर नहीं है। उसके वक्तव्य का वही अर्थ है? लेकिन अब हमारे पास सुविधाएं हैं कि हम पूरे के पूरे यानों को है, जो अंधा कहता है कि प्रकाश नहीं है। नास्तिक की तकलीफ | पृथ्वी के घेरे के बाहर फेंककर चांद की यात्रा पर पहुंचा सकते हैं। ईश्वर के होने न होने में नहीं है। नास्तिक की तकलीफ अपने को | | एक आदमी कितना मार सकता है? कितनी हत्या कर सकता है? अधूरा मानने में, अपंग मानने में, अंधा मानने में है। इसलिए | अब हमारे पास हाइड्रोजन बम हैं, कि चाहें तो दस मिनट में हम जितना अहंकारी युग होता है, उतना नास्तिक हो जाता है। पूरी पृथ्वी को राख बना दे सकते हैं। सिर्फ दस मिनट में; खबर अगर आज सारी दनिया में नास्तिकता प्रभावी है, तो उसका पहंचेगी. इसके पहले मौत पहंच जाएगी। कारण यह नहीं है कि विज्ञान ने लोगों को नास्तिक बना दिया है। __ तो स्वभावतः, आदमी ने अपनी बाहर की इंद्रियों को बढ़ा और उसका कारण यह भी नहीं है कि कम्युनिज्म ने लोगों को | | लिया। यह सब इंद्रियों का विस्तार है। इंद्रियों को हमने यंत्रों से नास्तिक बना दिया। उसका कुल मात्र कारण इतना है कि मनुष्य ने | जोड़ दिया। इंद्रियां भी यंत्र हैं। हमने और नए यंत्र बनाकर उन इधर पिछले तीन सौ वर्षों में जो उपलब्धियां की हैं, उन उपलब्धियों | इंद्रियों की शक्ति को बढ़ा लिया। इसलिए आदमी इंद्रियों को ने उसके अहंकार को भारी बल दे दिया है। बढ़ाने में लग गया और उसे यह खयाल भी नहीं कि कुछ इंद्रियां इन तीन सौ वर्षों में आदमी ने उतनी उपलब्धियां की हैं, जितनी ऐसी भी हैं, जो बंद ही पड़ी हैं। पिछले तीन लाख वर्षों में आदमी ने नहीं की थीं। आदमी की ये अगर हम पीछे लौटें, तो आदमी की बाहर की इंद्रिय की शक्ति उपलब्धियां उसके अहंकार को बल देती हैं। वह बीमारी से लड़ बहुत सीमित थी। और आदमी का बल बहुत सीमित था। आदमी सकता है। वह उम्र को भी शायद थोड़ा लंबा सकता है। उसने | | की उपलब्धियां बहुत सीमित थीं। आदमी के अहंकार को सघन बिजली को बांधकर घर में रोशनी कर ली है। उसके पूर्वज बिजली | | होने का उपाय कम था। सहज ही जीवन विनम्रता पैदा करता था। 2651 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गीता दर्शन भाग-5 सहज ही चारों तरफ इतनी विराट शक्तियां थीं कि हम निहत्थे, असहाय, हेल्पलेस मालूम होते थे। बाहर तो हमारे बल को बढ़ने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता था। इसलिए आदमी भीतर मुड़ने की चेष्टा करता था। आज बाहर के यात्रा-पथ इतने सुगम हैं भीतर लौटने का खयाल भी नहीं आता है। आज बाहर जाने की इतनी सुविधा है कि भीतर जाने का सवाल भी नहीं उठता है। आज जब हम किसी से कहें, भीतर जाओ, तो उसकी समझ में नहीं आता। उससे कहें, चांद पर जाओ, मंगल पर जाओ, बिलकुल समझ में आता है। चांद पर जाना आज आसान है, अपने भीतर जाना कठिन है। और आदमी निश्चित ही, जो सुगम है, सरल है, उसको चुन लेता है। जहां लीस्ट रेजिस्टेंस है, उसे चुन लेता है। आदमी के अहंकार के अनुपात में उसकी नास्तिकता होती है। जितना अहंकार होता है, उतनी नास्तिकता होती है । क्यों ? क्योंकि आस्तिकता पहली स्वीकृति से शुरू होती है कि मैं अधूरा हूं । ईश्वर है या नहीं, मुझे पता नहीं। लेकिन परम सत्य को जानने का मेरे पास कोई भी उपाय नहीं है। गणित के भीतर आ सकता है, बुद्धि समझ सकती है। जो भी तर्क के भीतर आ जाता है, बुद्धि समझ सकती है। विज्ञान बुद्धि का विस्तार है । इसलिए विज्ञान उसी को मानता है, जो नप सके, जांचा जा सके, परखा जा सके, छुआ जा सके, | प्रयोग किया जा सके, उसको ही। जो न छुआ जा सके, न परखा जा सके, न पकड़ा जा सके, न तौला जा सके, विज्ञान कहता है, वह है ही नहीं। समझें। एक तराजू है। उससे हम उसी चीज को जांच सकते हैं, जो नापी जा सकती है। एक तराजू को लेकर हम एक आदमी के शरीर को नाप सकते हैं। लेकिन अगर तराजू से हम आदमी के मन को जानने चलें, तो मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि मन तराजू पर नहीं नापा जा सकता। एक आदमी के शरीर में कितनी हड्डियां, मांस-मज्जा है, यह हम नाप सकते हैं तराजू से। लेकिन एक आदमी के भीतर कितना प्रेम है, कितनी घृणा है, इसको हम तराजू से नहीं नाप सकते। इसका यह मतलब नहीं कि प्रेम है नहीं। इसका केवल इतना ही मतलब है कि जो मापने का उपकरण है, वह संगत नहीं है। जो भी नापा जा सकता है, उसे बुद्धि समझ सकती है। जो भी वहां विज्ञान भूल करता है। विज्ञान को इतना ही कहना चाहिए कि उस दिशा में हमारे पास जाने का कोई उपाय नहीं है। हो भी सकता है, न भी हो, लेकिन बिना उपाय के कुछ भी कहा नहीं जा |सकता है। परमात्मा का अर्थ है, असीम । परमात्मा का अर्थ है, सब । परमात्मा का अर्थ है, जो भी है, उसका जोड़। इस विराट को बुद्धि नहीं नाप पाती। क्योंकि बुद्धि भी इस विराट का एक अंग है। बुद्धि भी इस विराट का एक अंश है। अंश कभी | भी पूर्ण को नहीं जांच सकता । अंश कभी भी अपने पूर्ण को नहीं पकड़ सकता। कैसे पकड़ेगा ? अगर बुद्धि आदमी के पास है। लेकिन बुद्धि से आदमी क्या जान पाता है ? जो नापा जा सकता है, वह बुद्धि से जाना जा सकता है। क्योंकि बुद्धि नापने की एक व्यवस्था है । जो मेजरमेंट के भीतर आ सकता है, वह बुद्धि से जाना जा सकता है। हमारा शब्द है, माया। माया बहुत अदभुत शब्द है । उसका मौलिक अर्थ होता है, दैट व्हिच कैन बी मेजर्ड, जिसको नापा जा सके; माप्य जो है; जिसको हम नाप सकें। तो बुद्धि केवल माया कोही जान सकती है, जो नापा जा सकता है। अपने हाथ से अपने पूरे शरीर को पकड़ना चाहूं, तो कैसे पकडूंगा? कोई उपाय नहीं है । मेरा हाथ कई चीजें उठा सकता है । लेकिन मेरा हाथ मेरे पूरे शरीर को नहीं उठा सकता। अंश है, छोटा है; शरीर बड़ा है। बुद्धि एक अंश है इस विराट में। एक बूंद सागर में है, इस पूरे सागर को नहीं उठा पाती है। तो बुद्धि उपाय नहीं है जानने का। और हम बुद्धि से ही जानने की कोशिश करते हैं । दार्शनिक सोचते हैं, मनन करते हैं, तर्क करते हैं। बुद्धि से सोचते हैं कि ईश्वर है या नहीं । वे जो भी दलीलें देते वे दलीलें बचकानी हैं। बड़े से बड़े दार्शनिक ने भी ईश्वर के होने के लिए जो प्रमाण दिए हैं, वह बच्चा भी तोड़ सकता है। जितने | भी प्रमाण ईश्वर के होने के लिए दिए गए हैं, वे कोई भी प्रमाण नहीं हैं। क्योंकि उन सभी को खंडित किया जा सकता है। इसलिए प्रमाण से जो ईश्वर को मानता है, उसे कोई भी नास्तिक दो क्षण में मिट्टी में मिला देगा | ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है, जो ईश्वर के होने को सिद्ध कर सके। क्योंकि अगर हमारा प्रमाण ईश्वर को सिद्ध कर सके, तो हम ईश्वर से भी बड़े हो जाते हैं। और हमारी बुद्धि अगर ईश्वर के लिए प्रमाण जुटा सके और अगर ईश्वर को हमारे प्रमाणों की जरूरत हो, तभी वह हो सके, और हमारे प्रमाण न हों तो वह न हो सके, 266 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 दिव्य-चक्षु की पूर्व-भूमिका हम ईश्वर से भी विराट और बड़े हो जाते हैं। और अंधे के चारों तरफ मौजूद है, अंधे की चमड़ी को छू रहा है। मार्क्स ने मजाक में कहा है कि जब तक ईश्वर को टेस्ट-टयूब | | अंधे को जो गरमी मिल रही है, वह उसी प्रकाश से मिल रही है। में न जांचा जा सके, तब तक मैं मानने को राजी नहीं हूं। लेकिन और अंधे को जो उसका मित्र हाथ पकड़कर रास्ते पर चला रहा है, उसने फिर यह भी कहा है कि और अगर ईश्वर टेस्ट-टयूब में आ वह भी उसी प्रकाश के कारण चला रहा है। और अंधे के भीतर जो जाए और जांच लिया जाए, तब भी मानूंगा नहीं, क्योंकि तब मानने | हृदय में धड़कन हो रही है, वह भी उसी प्रकाश की किरणों के की कोई जरूरत नहीं रह गई। कारण हो रही है। और उसके खून में जो गति है, वह भी प्रकाश के जो टेस्ट-टयूब में आ गया हो आदमी के, उसको ईश्वर कहने | कारण है। का कोई कारण नहीं रह गया। वह भी एक तत्व हो जाएगा। जैसे | | अंधे का पूरा जीवन प्रकाश में लिप्त है, प्रकाश में डूबा है। अगर आक्सीजन है, हाइड्रोजन है, वैसा ईश्वर भी होगा। हम उससे भी प्रकाश न हो, तो अंधा नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी अंधे को काम लेना शुरू कर देंगे! पंखे चलाएंगे, बिजली जलाएंगे; कुछ प्रकाश का कोई भी पता नहीं चलता है। क्योंकि जो आंख चाहिए और करेंगे। आदमी को मारेंगे, बच्चों को पैदा होने से रोकेंगे, या | | देखने की, वह नहीं है। अंधा जीता प्रकाश में है, होता प्रकाश में उम्र ज्यादा करेंगे। अगर ईश्वर को हम टेस्ट-टयूब में पकड़ लें, तो | । है, लेकिन अनुभव में नहीं आता। हम उसका भी उपयोग कर लेंगे। विज्ञान तभी मानेगा, जब उपयोग | हम भी परमात्मा में हैं। उसके बिना न खून चलेगा, न हृदय कर सके। धड़केगा, न श्वासें हिलेंगी, न वाणी बोलेगी, न मन विचारेगा। आदमी जो भी प्रमाण जुटा सकता है, वे प्रमाण सब बचकाने | | उसके बिना कुछ भी नहीं होगा। वह अस्तित्व है। लेकिन उसे देखने हैं। क्योंकि बद्धि बचकानी है। उस विराट को नापने के लिए बुद्धि की हमारे पास अभी कोई भी इंद्रिय नहीं है। उपाय नहीं है। क्या कोई उपाय और हो सकता है बुद्धि के हाथ हैं, उनसे हम छू सकते हैं। जिसे हम छू सकते हैं, वह स्थूल अतिरिक्त? बुद्धि के अतिरिक्त हमारे पास कुछ भी नहीं है। सोच है। सूक्ष्म को हम छू नहीं सकते। यहां भी सूक्ष्म-परमात्मा को सकते हैं। | अलग कर दें—पदार्थ में भी जो सूक्ष्म है, उसे भी हम हाथ से नहीं थोड़ा इसे हम समझ लें कि सोचने का क्या अर्थ होता है, तो इस | | छू सकते। हमारे पास कान हैं, हम सुन सकते हैं। लेकिन कितना सूत्र में प्रवेश आसान हो जाएगा। सुन सकते हैं? एक सीमा है। आपका कुत्ता आपसे हजार गुना हम सोच सकते हैं। आप क्या सोच सकते हैं? जो आप जानते | ज्यादा सुनता है। उसके पास आपसे ज्यादा बड़ा कान है। अगर हैं, उसी को सोच सकते हैं। सोचना जुगाली है। गाय-भैंस को कान से परमात्मा का पता लगता होता, तो आपसे पहले आपके आपने देखा! घास चर लेती है, फिर बैठकर जुगाली करती रहती कुत्ते को पता लग जाएगा। घोड़ा आपसे दस गुना ज्यादा सूंघ सकता है। वह जो चर लिया है, उसको वापस चरती रहती है। | है। कुत्ता दस हजार गुना सूंघ सकता है। अगर सूंघने से परमात्मा विचार जुगाली है। जो आपके भीतर डाल दिया गया, उसको | का पता होता, तो कुत्तों ने अब तक उपलब्धि पा ली होती। आप फिर जुगाली करते रहते हैं। आप एक भी नई बात नहीं सोच ___ हमसे ज्यादा मजबूत आंखों वाले जानवर हैं। हमसे ज्यादा सकते हैं। कोई विचार मौलिक नहीं होता। सब विचार बाहर से मजबूत हाथों वाले जानवर हैं। हमसे ज्यादा मजबूत स्वाद का डाले गए होते हैं, फिर हम सोचने लगते हैं उन पर। सब विचार | अनुभव करने वाले जानवर हैं। मधुमक्खी पांच मील दूर से फूल उधार होते हैं। तो जो हमने जाना नहीं है अब तक, उसको हम सोच | की गंध को पकड लेती है। अगर आपके घर में चोर घसा हो. तो भी नहीं सकते। हम सोच उसी को सकते हैं, जिसे हमने जाना है, | | उसके जाने के घंटेभर बाद भी कुत्ता उसकी सुगंध को पकड़ लेता जिसे हमने सुना है, जिसे हमने समझा है, जिसे हमने पढ़ा है; उसे | | है। उसके जाने के घंटेभर बाद भी। और फिर पीछा कर सकता है। हम सोच सकते हैं। | और दस-बीस मील कहीं भी चोर चला गया हो, अनुगमन कर ईश्वर को न तो पढ़ा जा सकता; न ईश्वर को सुना जा सकता। | सकता है। ईश्वर को सोचेंगे कैसे? ईश्वर है अज्ञात, अननोन। मौजूद है यहीं, ___ हमारे पास जो इंद्रियां हैं, उनसे स्थूल भी पूरा पकड़ में नहीं लेकिन इसी तरह अज्ञात है, जैसे अंधे के लिए प्रकाश अज्ञात है। आता। सूक्ष्म की तो बात ही अलग है। हम जो सुनते हैं, वह एक 267 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-568 छोटी-सी सीमा के भीतर सुनते हैं। उससे नीची आवाज भी हमें प्रभाव को और योग-शक्ति को देख। सुनाई नहीं पड़ती। उससे ऊपर की आवाज भी हमें सुनाई नहीं कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि जो आंखें तेरे पास हैं, प्राकृत नेत्र, पड़ती। हमारी सब इंद्रियों की सीमा है, इसलिए असीम को कोई इनसे तू मुझे देखने में समर्थ नहीं है। इंद्रिय पकड़ नहीं सकती। हमारी कोई भी इंद्रिय असीम नहीं है। निश्चित ही, अर्जुन कृष्ण को देख रहा था, नहीं तो बात किससे हमारा जीवन ही सीमित है। होती! यह चर्चा हो रही थी। कृष्ण को सुन रहा था, नहीं तो यह थोड़ा कभी आपने खयाल किया कि आपका जीवन कितना चर्चा किससे होती! सीमित है। घर में थर्मामीटर होगा, उसमें आप ठीक से देख लेना, यहां ध्यान रखें कि एक तो वे कृष्ण हैं, जो अर्जुन को अभी उसमें सीमा पता चल जाएगी! इधर अट्ठानबे डिग्री के नीचे गिरे, दिखाई पड़ रहे हैं, इन प्राकृत आंखों से। और एक और कृष्ण का कि बिखरे। उधर एक सौ आठ-दस डिग्री के पार जाने लगे, कि होना है, जिसके लिए कृष्ण कहते हैं, तू मुझे न देख सकेगा इन गए। बारह डिग्री थर्मामीटर में आपका जीवन है। उसके नीचे मौत, आंखों से। उसके उस तरफ मौत। तो जिन्होंने कृष्ण को प्राकृत आंखों से देखा है, वे इस भ्रांति में बारह डिग्री में जहां जीवन हो, वहां परम जीवन को जानना बड़ा न पड़ें कि उन्होंने कृष्ण को देख लिया। अभी तक अर्जुन ने भी नहीं मुश्किल होगा। इस सीमित जीवन से उस असीम को हम कैसे जान | देखा है। उनके साथ रहा है। दोस्ती है। मित्रता है। पुराने संबंध हैं। पाएं! जरा-सा तापमान गिर जाए पृथ्वी पर सूरज का, हम सब | नाता है। अभी उसने कृष्ण को नहीं देखा है। अभी उसने जिसे देखा समाप्त हो जाएंगे। जरा-सा तापमान बढ़ जाए, हम सब वाष्पीभूत | है, वह इन आंखों, प्राकृत आंखों और अनुभव के भीतर जो देखा हो जाएंगे। हमारा होना कितनी छोटी-सी सीमा में, क्षुद्र सीमा में जा सकता है, वही। अभी उसने कृष्ण की छाया देखी है। अभी है! इस छोटे-से क्षुद्र होने से हम जीवन के विराट अस्तित्व को उसने कृष्ण को नहीं देखा। अभी उसने जो देखा है, वह मूल नहीं जानने चलते हैं, और कभी नहीं सोचते कि हमारे पास उपकरण | देखा, ओरिजिनल नहीं देखा, अभी प्रतिलिपि देखी है। जैसे कि क्या है जिससे हम नापेंगे! | दर्पण में आपकी छवि बने, और कोई उस छवि को देखे। जैसे कोई तो जो कह देता है बिना समझे-बूझे कि ईश्वर है, वह भी | आपका चित्र देखे। या पानी में आपका प्रतिबिंब बने और कोई उस नासमझ; जो कह देता है बिना समझे-बूझे कि ईश्वर नहीं है, वह | प्रतिबिंब को देखे। भी नासमझ। समझदार तो वह है, जो सोचे पहले कि ईश्वर का ___ पानी में प्रतिबिंब बनता है, ऐसे ही ठीक प्रकृति में भी आत्मा की अर्थ क्या होता है? विराट! अनंत! असीम! मेरी क्या स्थिति है? प्रतिछवि बनती है। अभी अर्जुन जिसे देख रहा है, वह कृष्ण की इस मेरी स्थिति में और उस विराट में क्या कोई संबंध बन सकता प्रतिछवि है, सिर्फ छाया है। अभी उसने उसे नहीं देखा, जो कृष्ण है? अगर नहीं बन सकता, तो विराट की फिक्र छोडूं। मेरी स्थिति | हैं। और आपने भी अभी अपने को जितना देखा है, वह भी आपकी में कोई परिवर्तन करूं, जिससे संबंध बन सके। छाया है। अभी आपने उसे भी नहीं देखा, जो आप हैं। धर्म और दर्शन में यही फर्क है। दर्शन सोचता है ईश्वर के संबंध और अगर अर्जुन कृष्ण के मूल को देखने में समर्थ हो जाए, तो में। धर्म खोजता है स्वयं को, कि मेरे भीतर क्या कोई उपाय है? | | अपने मूल को भी देखने में समर्थ हो जाएगा। क्योंकि मूल को क्या मेरे भीतर ऐसा कोई झरोखा है? क्या मेरे भीतर ऐसी कोई | | देखने की आंख एक ही है, चाहे कृष्ण के मूल को देखना हो और स्थिति है, जहां से मैं छलांग लगा सकू अनंत में? जहां मेरी सीमाएं | चाहे अपने मूल को देखना हो। और छाया को देखने वाली आंख मुझे रोकें नहीं। जहां मेरे बंधन मुझे बांधे नहीं। जहां मेरा भौतिक | भी एक ही है, चाहे कृष्ण की छाया देखनी हो और चाहे अपनी अस्तित्व रुकावट न हो। जहां से मैं छलांग ले सकू, और विराट में | छाया देखनी हो। कूद जाऊं और जान सकूँ कि वह क्या है। तो यहां कुछ बातें ध्यान में ले लें। अब हम इस सूत्र को समझने की कोशिश करें। पहली, कि कृष्ण जो दिखाई पड़ते हैं, अर्जुन को दिखाई पड़ते परंतु मेरे को इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने को तू निःसंदेह थे, आपको मूर्ति में दिखाई पड़ते हैं...। समर्थ नहीं है, इसी से मैं तेरे लिए दिव्य-चक्षु देता हूं, उससे तू मेरे । अब थोड़ा समझें कि आपकी मूर्ति तो प्रतिछवि की भी प्रतिछवि 268 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य-चक्षु की पूर्व-भूमिका है, छाया की भी छाया है। वह तो बहुत दूर है। कृष्ण की जो आकृति | | में ही चक्षु का जन्म हो जाता है। हमने मंदिर में बना रखी है, वह तो बहुत दूर है कृष्ण से। क्योंकि खुद | लेकिन शायद कृष्ण की मौजूदगी वहां न हो, तो अड़चनें हो कृष्ण भी जब मौजूद थे शरीर में, तब भी वे कह रहे हैं कि मैं यह नहीं | सकती हैं, क्योंकि कृष्ण कैटेलिटिक एजेंट का काम कर रहे हैं। जो हूं, जो तुझे अभी दिखाई पड़ रहा हूं। और इन आंखों से ही अगर | लोग विज्ञान की भाषा से परिचित हैं, वे कैटेलिटिक एजेंट का अर्थ देखना हो तो यही दिखाई पड़ेगा, जो मैं दिखाई पड़ रहा हूं। समझते हैं। कैटेलिटिक एजेंट का अर्थ होता है, जो खुद करे न नई आंख चाहिए। प्राकृत नहीं, दिव्य-चक्षु चाहिए। इन आंखों | | कुछ, लेकिन जिसकी मौजूदगी में कुछ हो जाए। को प्राकृत कहा है, क्योंकि इनसे प्रकृति दिखाई पड़ती है। इनसे | | वैज्ञानिक कहते हैं कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी दिव्यता दिखाई नहीं पड़ती। इनसे जो भी दिखाई पड़ता है, वह मैटर | बनता है। अगर आप हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिला दें, तो है, पदार्थ है। और जो भी दिव्य है, इनसे चूक जाता है। दिव्य को | पानी नहीं बनेगा। लेकिन अगर आप पानी को तोड़ें, तो हाइड्रोजन देखने का इनके पास कोई उपाय नहीं है। और आक्सीजन बन जाएगी। अगर आप पानी की एक बूंद को तोड़ें, तो कृष्ण कहते हैं कि मैं तुझे अब वह आंख देता हूं, जिससे तुझे | तो हाइड्रोजन और आक्सीजन आपको मिलेगी और कुछ भी नहीं मैं दिखाई पड़ सकू, जैसा मैं हूं-अपने मूल रूप में, अपनी | | मिलेगा। स्वभावतः, इसका नतीजा यह होना चाहिए कि अगर हम मौलिकता में। प्रकृति में मेरी छाया नहीं, तू मुझे देख। लेकिन तब | | हाइड्रोजन और आक्सीजन को जोड़ दें, तो पानी बन जाना चाहिए। मैं तुझे एक नई आंख देता हूं। लेकिन बड़ी मुश्किल है। तोड़ें, तो सिर्फ हाइड्रोजन और यहां बहुत-से सवाल उठने स्वाभाविक हैं कि क्या कोई और | आक्सीजन मिलती है। जोड़ें, तो पानी नहीं बनता। जोड़ने के लिए आदमी किसी को दिव्य आंख दे सकता है ? कि कृष्ण कहते हैं, मैं | | बिजली की मौजूदगी जरूरी है। और बिजली उस जोड़ में प्रवेश नहीं तुझे दिव्य-चक्षु देता हूं। क्या यह संभव है कि कोई आपको करती, सिर्फ मौजूद होती है, जस्ट प्रेजेंट। सिर्फ मौजूदगी चाहिए दिव्य-चक्षु दे सके? और अगर कोई आपको दिव्य-चक्षु दे सकता | | बिजली की। बिजली मौजूद हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन है, तब तो फिर अत्यंत कठिनाई हो जाएगी। कहां खोजिएगा कृष्ण | | मिलकर पानी बन जाता है। बिजली मौजूद न हो, तो हाइड्रोजन और को जो आपको दिव्य-चक्षु दे? आक्सीजन मिलकर पानी नहीं बनते। __ और अगर कोई आपको दिव्य-चक्षु दे सकता है, तो फिर कोई | वह जो बरसात में आपको बिजली चमकती दिखाई पड़ती है, आपके दिव्य-चक्षु ले भी सकता है। और अगर कोई दूसरा आपको | वह कैटेलिटिक एजेंट है, उसके बिना वर्षा नहीं हो सकती। उसकी दिव्य-चक्षु दे सकता है, तो फिर आपके करने के लिए क्या बचता | वजह से वर्षा हो रही है। लेकिन वह पानी में प्रवेश नहीं करती है। है? कोई देगा। प्रभु की अनुकंपा होगी कभी, तो हो जाएगा। फिर | | वह सिर्फ मौजूद होती है। आपके लिए प्रतीक्षा के सिवाय कुछ भी नहीं है। फिर आपके लिए | | यह कैटेलिटिक एजेंट की धारणा बड़ी कीमती है और अध्यात्म संसार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। | में तो बहुत कीमती है। गुरु कैटेलिटिक एजेंट है। वह कुछ देता इस पर बहुत-सी बातें सोच लेनी जरूरी हैं। नहीं। क्योंकि अध्यात्म कोई ऐसी चीज नहीं कि दी जा सके। वह पहली बात तो यह है कि कृष्ण ने जब यह कहा कि मैं तुझे | | कुछ करता भी नहीं। क्योंकि कुछ करना भी दूसरे के साथ हिंसा दिव्य-चक्षु देता हूं, तो इसके पहले अर्जुन अपने को पूरा समर्पित | करना है, जबरदस्ती करनी है। वह सिर्फ होता है मौजूद। लेकिन कर चुका है, रत्ती-मात्र भी अपने को पीछे नहीं बचाया है। अगर | उसकी मौजूदगी काम कर जाती है; उसकी मौजूदगी जादू बन जाती कृष्ण अब मौत भी दें, तो अर्जुन उसके लिए भी राजी है। अब है। सिर्फ उसकी मौजूदगी, और आपके भीतर कुछ हो जाता है, जो अर्जुन का अपना कोई आग्रह नहीं है। | उसके बिना शायद न हो पाता। आदमी जो सबसे बड़ी साधना कर सकता है, वह समर्पण है, पहली तो बात यह है कि कृष्ण मौजूद न हों, तो समर्पण बहुत वह सरेंडर है। और जैसे ही कोई व्यक्ति समर्पित कर देता है पूरा, मुश्किल है। इसलिए मैं मानता हूं कि अर्जुन को समर्पण जितना तब कृष्ण को चक्षु देने नहीं पड़ते, यह सिर्फ भाषा की बात है कि आसान हुआ होगा, मीरा को उतना आसान नहीं हुआ होगा। मैं तुझे चक्षु देता हूं। जो समर्पित कर देता है, उस समर्पण की घड़ी इसलिए मीरा की कीमत अर्जुन से ज्यादा है। क्योंकि कृष्ण सामने 269 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 मौजूद हों, तब समर्पण करना आसान है। कृष्ण बिलकुल सामने कल्पना जल बन जाए, दर्पण बन जाए, उस दिन वह मूल फिर मौजूद न हों, तब दोहरी दिक्कत है। पहले तो कृष्ण को मौजूद करो, | प्रतिबिंब आपमें बना देता है। उसी प्रतिबिंब के पास मीरा नाच रही फिर समर्पण करो। है। वह प्रतिबिंब मीरा को ही दिखाई पड़ रहा है। क्योंकि वह उसने मीरा को दोहरे काम करने पड़े हैं। पहले तो कृष्ण को मौजूद अपनी ही कल्पना के जल में निर्मित किया है। किसी और को करो; अपनी ही पुकार, अपनी ही अभीप्सा, अपनी ही प्यास से दिखाई नहीं पड़ रहा। लेकिन जिनमें समझ है, वे मीरा की आंख में निर्मित करो, बुलाओ, निकट लाओ। ऐसी घड़ी आ जाए कि कृष्ण भी उस प्रतिबिंब को पकड़ पाते हैं। वह मीरा की धुन और नाच में मालूम पड़ने लगें कि मौजूद हैं। रत्ती मात्र फर्क न रह जाए, कृष्ण भी खबर मिलती है कि कोई पास है। क्योंकि मीरा जब उसके पास की मौजूदगी में और इसमें। दूसरों को लगेगी कल्पना, कि मीरा होने पर नाचती है, तो फर्क होता है। कल्पना में पागल है। नाच रही है, किसके पास! जो देखते हैं, उन्हें | मीरा के दो तरह के नाच हैं। एक तो जब कृष्ण को वह पकड़ कोई दिखाई नहीं पड़ता। और यह मीरा जो गा रही है और नाच रही नहीं पाती अपनी कल्पना में, तब वह रोती है, तब वह उदास है, है, किसके पास? तब उसके पैर भारी हैं, तब वह चीखती है, चिल्लाती है, तब उसे तो मीरा की आंखों में जो देखते हैं, उन्हें लगता है कि कोई न | जैसे मृत्यु घेर लेती है। और एक वह घड़ी भी है, जब उसकी कोई मौजूद जरूर होना चाहिए। और या फिर मीरा पागल है। जो कल्पना प्रखर हो जाती है, और कल्पना का जल स्वच्छ और साफ नहीं समझ उनके लिए मीरा पागल है। क्योंकि कोई भी नहीं है हो जाता है. और जब उस दर्पण में वह कष्ण को पकड लेती है. और मीरा नाच रही है, तो पागल है। जो नहीं समझते, वे समझते | तब उसकी धुन, और तब उसके पैरों के धुंघरू की आवाज हैं, कल्पना है। बिलकुल और है। तब उसमें जैसे महाजीवन प्रवाहित हो जाता है। लेकिन अगर कल्पना इतनी प्रगाढ़ है, इतनी सृजनात्मक, इतनी तब जैसे उसके रोएं-रोएं से जो गरिमा प्रकट होने लगती है, वह क्रिएटिव है कि कृष्ण मौजूद हो जाते हों, तो जो कल्पनाशील हैं, वे सूर्यों को फीका कर दे। तब वह और है, जैसे आविष्ट, पजेस्ड, धन्यभागी हैं। जिनकी कल्पना इतनी सशक्त है कि कृष्ण के और कोई और उसमें प्रवेश कर गया है। अपने बीच के पांच हजार सालों को मिटा देती हो, अंतराल टूट जाता तो जब वह रोती है विरह में, तब उसकी उदासी, तब मीरा हो; और मीरा ऐसे करीब खड़ी हो जाती हो, जैसे अर्जुन खड़ा था। | अकेली है, उसको प्रतिबिंब पकड़ में नहीं आ रहा। और जब वह तो पहली तो कठिनाई, जब मौजूद कृष्ण न हों, तो उनको मौजूद गाती है, आनंद में, अहोभाव में, कृष्ण से बात करने लगती है, तब करने की है। और अगर कोई अपने मन में उनको मौजूद करने को कृष्ण निकट हैं। उस निकटता में समर्पण है। मीरा को कठिन पड़ा राजी हो जाए, तो वे हर घड़ी मौजूद हैं। क्योंकि परम सत्ता तिरोहित होगा, अर्जुन को सरल रहा होगा। नहीं होती, सिर्फ उसके प्रतिबिंब तिरोहित होते हैं। परम सत्ता का | | लेकिन उलटी बात भी हो सकती है। जिंदगी जटिल है। हो मूल, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं कि अर्जुन तू देख सकेगा, जब सकता है मीरा को भी सरल पड़ा हो, और अर्जुन को कठिन पड़ा मैं तुझे आंख दूंगा; वह मूल तो कभी नहीं खोता, प्रतिलिपियां खो | | हो। क्योंकि जो वास्तविक शरीर में खड़ा है, उसे परमात्मा मानना जाती हैं। बहुत मुश्किल है। उसे भी प्यास लगती है, उसे भी भूख लगती है। वह मूल कभी पानी में झलकता है और राम दिखाई पड़ते हैं। वह भी रात सोता है। वह भी स्नान न करे. तो बदब आती है। वह वह मल कभी पानी में झलकता है. और बद्ध दिखाई पड़ते हैं। वह भी रुग्ण होगा, मृत्यु आएगी। पदार्थ में बने सब प्रतिबिंब पदार्थ के मूल कभी पानी में झलकता है, और कृष्ण दिखाई पड़ते हैं। यह भेद | | नियम को मानेंगे, चाहे वह कोई भी, किसी का भी प्रतिबिंब क्यों न भी पानी की वजह से पड़ता है। अलग-अलग पानी अलग-अलग हो। तो उसे परमात्मा मानना मुश्किल हो जाता है। और परमात्मा न प्रतिबिंब बनाते हैं। वह मूल एक ही बना रहता है। उस मूल का तो | | मान सकें, तो समर्पण असंभव हो जाता है। खोना कभी नहीं होता; वह अभी आपके भी पास है। वह सदा सवाल यह नहीं है बड़ा कि कृष्ण परमात्मा हैं या नहीं। सवाल आपके आस-पास आपको घेरे हुए है। बड़ा यह है कि जो उन्हें परमात्मा मान पाता है, उसके लिए समर्पण जिस दिन आपकी कल्पना इतनी प्रगाढ़ हो जाती है कि आपकी आसान हो जाता है। और जो समर्पण कर लेता है, उसे परमात्मा कहीं 2701 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ दिव्य-चक्षु की पूर्व-भूमिका - भी दिखाई पड़ सकता है। इसे थोड़ा समझ लें, यह जरा उलटा है। अभी एक जर्मन युवती मेरे पास आई। वह लौटती थी सिक्किम कृष्ण का परमात्मा होना और न होना विचारणीय नहीं है। हों, न | | से। वहां एक तिब्बेतन आश्रम में साधना करती थी छः महीने से। हों। कोई तय भी नहीं कर सकता। कोई रास्ता भी नहीं है, कोई परख | मैंने उससे पूछा कि वहां क्या साधना तू कर रही थी? उसने कहा, की विधि भी नहीं है। लेकिन जो कृष्ण को परमात्मा मान पाता है, छः महीने तक तो अभी मुझे सिर्फ नमस्कार करना ही सिखाया जा उसके लिए समर्पण आसान हो जाता है। और जिसके लिए समर्पण | | रहा है। सिर्फ नमस्कार करना। इसमें छः महीने कैसे व्यतीत हए आसान हो जाता है, उसे पत्थर में भी परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। | होंगे? उसने कहा कि दिनभर करना पड़ता था। जो भी—दो सौ कृष्ण तो पत्थर नहीं हैं, उनमें तो दिखाई पड़ ही जाएगा। भिक्षु हैं उस आश्रम में जो भी भिक्षु दिखाई पड़े, तत्क्षण लेटकर अगर परमात्मा भी आपके सामने मौजूद हो और आप परमात्मा साष्टांग नमस्कार करना। दिन में ऐसा हजार दफे भी हो जाता; न मान पाएं, तो समर्पण न कर सकेंगे। समर्पण न कर सकें, तो कभी दो हजार दफे भी हो जाता। बस, इतनी ही साधना थी अभी, सिर्फ पदार्थ दिखाई पड़ेगा, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ सकता। | उसने कहा। समर्पण आपका द्वार खोल देता है। मैंने पूछा, तुझे हुआ क्या? उसने कहा, अदभुत हो गया है। मैं कृष्ण ने अर्जुन को आंख दी, यह सिर्फ उसी अर्थ में, जैसा हूं, इसका मुझे खयाल ही मिटता गया है। एक नमस्कार का सहज कैटेलिटिक एजेंट का अर्थ होता है, उनकी मौजूदगी से। कृष्ण ने दे | | भाव भीतर रह गया। और पहले तो यह देखकर नमस्कार करती थी नहीं दी, नहीं तो वे पहले ही दे देते। इतनी देर, इतना उपद्रव, इतनी कि जो कर रही हूं जिसको नमस्कार, वह नमस्कार के योग्य है या चर्चा करने की क्या जरूरत थी? इतना युद्ध को विलंब करवाने की | नहीं। अब तो कोई भी हो, सिर्फ निमित्त है; नमस्कार कर लेना है। क्या जरूरत थी? अगर कृष्ण ही आंख दे सकते थे बिना अर्जुन की | | और अब बड़ा मजा आ रहा है। अब तो जो आश्रम में भिक्षु भी नहीं किसी तैयारी के, तो यह आंख पहले ही दे देनी थी। इतना समय | हैं, जिनको नमस्कार करने की कोई व्यवस्था नहीं है, उनको भी मैं क्यों व्यर्थ खोया? | नमस्कार कर रही हूं। और कभी-कभी आश्रम के बाहर चली जाती नहीं। जब तक अर्जुन समर्पित न हो, यह आंख नहीं अर्जुन को हूं, वृक्षों और चट्टानों को भी नमस्कार करती हूं। आ सकती थी। समर्पित हो, तो आ सकती है। लेकिन अगर कृष्ण । अब यह बात गौण है कि किसको नमस्कार की जा रही है, अब मौजूद न हों, तो भी बहुत कठिनाई है इसके आने में। | यही महत्वपूर्ण है कि नमस्कार परम आनंद से भर जाती है। क्योंकि बहुत बार ऐसा हुआ है कि निकट मौजूद न हो दिव्य व्यक्ति, तो | नमस्कार अहंकार का विरोध है। झुक जाना अहंकार की मौत है। लोग आखिरी किनारे से भी वापस लौट आए हैं। क्योंकि | जो नहीं झुक पाता, वह कितना ही पवित्र हो जाए, शुद्ध हो जाए, कैटेलिटिक एजेंट नहीं मिल पाता। अनेक बार लोग उस घड़ी तक | चरित्र, आचरण सब अर्जित कर ले, ब्रह्मचर्य फलित हो जाए, . पहुंच जाते हैं, जहां समर्पित हो सकते थे, लेकिन कहां समर्पित हों, अहिंसक हो जाए, सत्यवादी हो जाए, लेकिन न झुक पाए, तो भी वह कोई दिखाई नहीं पड़ता। आंख नहीं खुलेगी। अब उसकी यह सारी पवित्रता भी उसका तो यदि उनकी कल्पना प्रखर और सजनात्मक हो, अगर वे बड़े अहंकार बन जाएगी। अब यह भी उसका दंभ होगा। बलशाली चैतन्य के व्यक्ति हों और भावना गहन और प्रगाढ़ हो, __ और इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि चरित्रवान, तथाकथित तो वे उस व्यक्ति को निर्मित कर लेंगे, जिसके प्रति समर्पित हो | चरित्रवान, चरित्रहीनों से भी ज्यादा अहंकारी हो जाते हैं। और सकें। और नहीं तो वापस लौट आएंगे। बहुत-से आध्यात्मिक | अहंकार से बड़ा उपद्रव नहीं है। अच्छा आदमी अक्सर अहंकारी साधक भी समर्पित नहीं हो पाते हैं, और तब अधूरे में लटके त्रिशंकु | | हो जाता है, क्योंकि सोचता है, मैं अच्छा हूं। की भांति रह जाते हैं। ___ इसलिए कभी-कभी ऐसा होता है कि पापी परमात्मा के पास गुरु का उपयोग यही है कि वह मौका बन जाए। मूर्ति का भी | जल्दी पहुंच जाते हैं, बजाय साधुओं के। इसका यह मतलब नहीं कि उपयोग यही है कि वह मौका बन जाए। मंदिर का, तीर्थ का भी | | आप पापी हो जाना। इसका यह मतलब भी नहीं कि आप साधु मत उपयोग यही है कि वहां मौका बन जाए। आपको आसानी हो जाए | होना। इसका कुल मतलब इतना है कि साधु के साथ भी अहंकार कि आप अपने सिर को झुका दें, लेट जाएं, खो जाएं। | हो, तो रोकेगा; और पापी के साथ भी अहंकार न हो, तो पहुंचा देगा। 271 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 देता हूं। इसका इतना ही मतलब हुआ कि अहंकार से बड़ा पाप और कोई इंस्ट्रमेंटल है। देखने वाला भीतर है। भी नहीं है। और निरअहंकारिता से बड़ी कोई साधुता नहीं है। दिव्य-चक्षु का अर्थ होता है, सिर्फ देखने वाला ही हो, बिना अर्जुन झुक गया। उसने कहा, अब जो मर्जी; अब मैं राजी हूं। | किसी माध्यम के। क्यों? क्योंकि माध्यम सीमा बनाता है। जिससे अब न मेरा कोई संदेह है, न कोई सवाल है। अब तुम जो करना | | आप देखते हैं, उससे आपकी सीमा बंध जाती है। जब कोई भी चाहो। तो कृष्ण ने कहा, तुझे मैं अलौकिक चक्षु देता हूं, दिव्य-चक्षु | | देखने का माध्यम न हो और देखने की शुद्ध क्षमता भीतर जाग्रत हो | जाए, तो जो दिखाई पड़ता है, वह असीम है। दिव्य-चक्षु के संबंध में थोड़ी बात समझ लेनी जरूरी है। थोड़ा ऐसा ही समझें कि आप एक छोटे-से छेद से दीवाल से अपने कठिन है, क्योंकि हमें उसका कोई अनुभव नहीं है। तो किस भाषा | | घर के भीतर छिपे हुए बाहर के आकाश को देखते हैं। फिर आप में, कैसे उसे पकड़ें? दीवाल को तोड़कर और बाहर खुले आकाश के नीचे आकर खड़े अभी हम देखते हैं; अभी हम आंख से देखते हैं। रात आप | हो जाते हैं। सपना भी देखते हैं। कभी आपने खयाल किया कि वह आप बिना अभी तक हमने अपने भीतर छिपकर, शरीर के भीतर छिपकर आंख के देखते हैं। आंख तो बंद होती है। आप सपना देख रहे हैं, जगत को आंखों के छेद से देखा है। इन आंखों का विस्मरण करके बिना आंख के देख रहे हैं। अगर आपकी आंख फूट भी जाए, आप | सिर्फ भीतर देखने वाला ही सजग हो जाए, सिर्फ देखने वाला ही अंधे हो जाएं, तो भी आप सपना देख सकेंगे। रह जाए-जिसको हम द्रष्टा कहते हैं, साक्षी कहते हैं सिर्फ जन्मांध नहीं देख सकेगा। और जन्मांध अगर देखेगा भी सपना, चैतन्य भीतर रह जाए और कोई माध्यम न हो देखने का, तो खुला तो उसमें आंख का हिस्सा नहीं होगा, कान का हिस्सा होगा, हाथ आकाश प्रकट हो जाता है। का हिस्सा होगा। सुनेगा सपने में, देख नहीं सकेगा। लेकिन अगर वह देखने की क्षमता, शुद्ध, बिना माध्यम के, उसका नाम ही आप अंधे हो जाएं, तो आप आंख के बिना भी सपना देख सकेंगे। दिव्य-चक्षु है। उसे दिव्य इसलिए कह रहे हैं कि फिर हम असीम सपना बिना आंख के देखते हैं; कौन देखता है! को देख सकते हैं। फिर सीमा से कोई संबंध न रहा। ___ शायद आपने कभी सोचा ही नहीं कि आंख के बिना भी देखना ध्यान रहे, वस्तुओं में सीमा नहीं है, हमारी इंद्रियों के कारण हो जाता है! अंधेरा होता है, आंख बंद होती है, आप भीतर सपना | दिखाई पड़ती है। इस जगत में कुछ भी सीमित नहीं है, सब असीम देखते हैं, सपना रोशन होता है। जिनके पास थोड़ी कलात्मक रुचि है। लेकिन हमारे पास देखने का जो उपाय है, वह सभी पर सीमा है, वे रंगीन सपना भी देखते हैं। जो थोड़े कलाहीन हैं, वे | बिठा देता है। वह ऐसा ही है जैसे कि एक आदमी रंगीन चश्मा ब्लैक-व्हाइट देखते हैं। जो थोड़े पोएटिक हैं, कवि है जिनके पास | | लगाकर देखना शुरू करता है। सब चीजें रंगीन हो जाती हैं। और मन में या चित्रकार जिनके भीतर छिपा है, वे रंगीन भी देखते हैं। | अगर हम जन्म के साथ ही रंगीन चश्मे को लेकर पैदा हुए हों, तो रंग भी दिखाई पड़ते हैं बिना आंख के। कान भी बंद हों, तो सपने | हमें खयाल भी नहीं आ सकता कि चीजें रंगीन नहीं, सब हमारे में आवाज सुनाई पड़ती है। और हाथ तो होते नहीं भीतर। फिर भी चश्मे से दिए गए रंग हैं। सपने में स्पर्श होता है, गले मिलना हो जाता है। हम जो भी अपने चारों तरफ देख रहे हैं, वह वही नहीं है, जो तो एक बात तय है कि जो आपके भीतर देखने वाला है, उसका | है। हम वही देख रहे हैं, जो हम देख सकते हैं। हम वही सुन रहे आंख से कोई बंधन नहीं है, आंख से कोई देखने की अनिवार्यता | हैं, जो हम सुन सकते हैं। हम वही अनुभव कर रहे हैं, जो हम नहीं है। आंख जरूरी नहीं है देखने के लिए। लेकिन बाहर देखने अनुभव कर सकते हैं। चुनाव कर रहे हैं हम, सिलेक्टिव है हमारा के लिए जरूरी है। भीतर देखने के लिए जरूरी नहीं है। भीतर तो | सारा अनुभव, क्योंकि हमारी सारी इंद्रियां चुनाव कर रही हैं। आंख बंद करके भी देखा जा सकता है। अभी वैज्ञानिक इस पर बहुत अध्ययन करते हैं, तो वे कहते हैं तो एक तो खयाल ले लें, जो आंखें हमारी हैं, वे हमारे दर्शन की | | कि सौ में से हम केवल दो प्रतिशत देख रहे हैं। जो भी हमारे चारों क्षमता नहीं हैं, केवल दर्शन को बाहर ले जाने वाले द्वार, माध्यम तरफ घटित होता है, उसमें अट्ठानबे प्रतिशत हमें पता ही नहीं हैं। हमारी देखने की क्षमता को बाहर तक पहुंचाने की व्यवस्था है, चलता। उसे हम चुनते ही नहीं हैं; वह हमसे छूट ही जाता है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ दिव्य चक्षु की पूर्व - भूमिका इसे हम थोड़ा ऐसा समझें कि आप एक रास्ते से भागे चले जा रहे हैं; आपके घर में आग लगी है। उसी रास्ते से आप रोज गुजरते हैं, आज भी गुजर रहे हैं, लेकिन आज आप रास्ते में वही बातें नहीं देखेंगे, जो आप रोज देखते थे। एक सुंदर स्त्री पास से निकलेगी, आपको पता ही नहीं चलेगा। ऐसा बहुत बार आपने चाहा था कि ऐसी घड़ी आ जाए चित्त की कि सुंदर स्त्री पास से निकले और पता न चले। लेकिन वह घड़ी कभी नहीं आई। आज मकान में आग लग गई है, तो घड़ी आई है। सुंदर स्त्री पास से निकलती है, आपकी स्थिति वही है, जो बुद्ध की रही होगी। अभी आपको बिलकुल दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन बुद्ध बिना मकान में आग लगे; आपको मकान में आग लगे तब । क्या हो गया? आंखें वही हैं, कान वही हैं। रास्ते पर कोई गीत चल रहा है, आज सुनाई नहीं पड़ता । कोई नमस्कार करता है, कितनी दफे चाहा था कि यह आदमी नमस्कार करे और इस नासमझ को, कमबख्त को, आज नमस्कार करने का मौका मिला ! वह आज दिखाई नहीं पड़ता। आज मकान में आग लगी है। आपकी सारी चेतना एक तरफ दौड़ गई है। आपकी सभी इंद्रियां निस्तेज हो गई हैं । कोई भी इंद्रिय से आपकी चेतना का कोआपरेशन, सहयोग नहीं रहा, टूट गया। आंख से देखने के लिए आंख के पीछे आपकी मौजूदगी जरूरी है। आज आपकी मौजूदगी यहां नहीं है। मकान में आग लगी है; आप वहां मौजूद हैं। आंख से अब आप भाग रहे हैं। आंख से सिर्फ आप इतना ही काम ले रहे हैं कि किस तरह उस मकान के पास पहुंच जाएं, जहां आपकी चेतना पहले ही पहुंच गई है। इस शरीर को कैसे उस मकान के पास तक पहुंचा दें, जहां आपका मन पहले ही पहुंच गया है। बस इतना इस आंख से काम लेना है, बाकी कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है। इसे हम ऐसा समझें कि रास्ते पर अट्ठानबे - निन्यानबे प्रतिशत चीजों के लिए आप अंधे हो गए हैं। सिर्फ एक प्रतिशत आंख का काम रह गया है। संसार से जब कोई सौ प्रतिशत अंधा हो जाता है, तो दिव्य-चक्षु उत्पन्न होता है। क्योंकि वह जो एक प्रतिशत भी है, वह भी काफी है। जोड़ तो बना ही हुआ है। और वह एक प्रतिशत के पीछे फिर वापस निन्यानबे लौट आएगा। जब कोई संसार के प्रति सौ प्रतिशत अनुपस्थित हो जाता है, इस अनुपस्थिति का पारिभाषिक नाम वैराग्य है। वैराग्य का मतलब यह नहीं कि घर को छोड़कर कोई भाग जाए। छोड़ने में भी राग है । छोड़ने में भी घर की पकड़ है। क्योंकि जो पकड़े है, वही छोड़ता है । और छोड़ने की कोशिश करनी है, तो | उसका मतलब है कि पकड़ भारी है। और छोड़कर जो भाग जाता है, उसके भागने में उतनी ही गति होती है, जितनी पकड़ मजबूत होती है। क्योंकि वह डरता है कि कहीं खींच न लिया जाऊं । जोर से भाग जाऊं । सब बीच के सेतु तोड़ दूं कि लौटने का कोई रास्ता न रहे। सब रास्ते गिरा दूं कि फिर वापस न लौट सकूं। लेकिन यह सब भय है; वैराग्य नहीं है। वैराग्य का मतलब तो इतना ही है कि संसार जहां है, वहां है; न मैं उसे छोड़ता हूं, न पकड़ता हूं। सिर्फ मैं उसके प्रति, मेरी जो चेतना सब इंद्रियों से दौड़ती थी उसके प्रति, उसे वापस लौटा रहा हूं। उसका प्रतिक्रमण, उसकी वापसी, उसका लौट आना, बस इतना ही वैराग्य का अर्थ है। अगर आंख विरागी हो जाए, तो दिव्य चक्षु खुल जाता है। समर्पण कोई करता ही तब है, जब संसार में रस न रह जाए। इसे थोड़ा समझ लें। संसार में थोड़ा भी रस हो, तो हम समर्पण नहीं कर सकते। थोड़ी भी वासना हो, तो हम कहेंगे कि... वासना का मतलब ही यह होता | है कि मैं चाहता हूं, ऐसा हो । समर्पण का मतलब है कि अब मैं कहता हूं, जैसा परमात्मा चाहे । अगर मेरे भीतर जरा-सी भी वासना है, तो मैं कहूंगा कि सब कर सकता हूं, बस परमात्मा इतना मेरे लिए कर देना। बाकी सब समर्पण है। बाकी यह मकान मुझे मिल जाए, इतनी शर्त! सुना है मैंने, फकीर जुन्नैद एक दिन प्रार्थना कर रहा है। और परमात्मा से वह कह रहा है कि वर्षों हो गए तेरी पुकार, तेरी प्रार्थना, तेरे गीत गाते । सब तुझ पर छोड़ दिया। मेरे लिए तेरे सिवाय अब कुछ भी नहीं है। एक बात पूछनी है। यह तो मेरी भावना हुई कि मेरे | लिए तेरे सिवाय कुछ भी नहीं है। तुझसे भी मैं पूछना चाहता हूं कि मेरी तरफ तेरी क्या नजर है? मेरी तरफ तेरी क्या नजर है? यह तो | मेरा खयाल है कि मेरे लिए तेरे सिवाय कोई भी नहीं है। तेरी क्या | नजर है मेरी तरफ, इसका भी तो पता चले! तो कहते हैं, आवाज जुनैद को सुनाई पड़ी, इसी वासना के कारण तू मुझसे दूर है। इतनी-सी वासना भी; तेरा इतना भी आग्रह कि यह तो पता चले कि आपका क्या खयाल है मेरे प्रति ? अभी तू | अपने को पकड़े ही हुए है। तूने अपने को छोड़ा नहीं है। तूने पूरा नहीं छोड़ा। अभी आखिर में तू मौजूद है और जानना चाहता है कि 273 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 परमात्मा मेरे बाबत क्या सोचता है? केंद्र तू ही है। अभी परमात्मा शायद श्वास को तो हम रोक भी सकते हैं थोड़ी देर, प्रेम को परिधि है, अभी केंद्र नहीं हुआ। इतनी-सी वासना भी बाधा है। । हम रोक भी नहीं सकते। शायद श्वास को हम बाहर भी जोर से समर्पण तो वही कर पाएगा, जिसको संसार में कुछ अर्थ नहीं | फेंक सकते हैं, लेकिन प्रेम को हम जोर से फेंक भी नहीं सकते। रहा। शायद अर्जुन इस घड़ी में आ गया है कि अब उसे कुछ अर्थ | | हम प्रेम के साथ कुछ भी नहीं कर सकते। इसलिए प्रेमी एकदम नहीं रहा है। उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। वह सारा युद्धस्थल, वे | असहाय हो जाता है, हेल्पलेस हो जाता है। उसे लगता है, मैं कुछ सारे लोग, सब खो गए, स्वप्न हो गए। वह कहता है, मैं सब भी नहीं कर सकता। कुछ मुझसे बड़ी शक्ति ने मुझे पकड़ लिया। छोड़ने को राजी हूं। अब मुझे, अगर आप चाहते हों, और शक्य इसलिए प्रेमी हमें पागल मालूम पड़ने लगता है। क्यों? क्योंकि हो और उचित मानें, तो मुझे दिखा दें। वह सारा कंट्रोल, सारा नियंत्रण खो देता है। अब वह कुछ कर नहीं इस समर्पण की घड़ी में कृष्ण ने कहा कि मैं तुझे दिव्य अलौकिक सकता। कुछ और उसमें हो रहा है, जिसमें उसे बहना ही पड़ेगा। चक्षु देता हूं। अब किसी बड़ी धारा ने उसे पकड़ लिया, जिसमें कुछ करने का क्यों कहा, देता हूं? भाषा की मजबूरी है। भाषा में सब तरफ द्वंद्व उपाय नहीं है। तैर भी नहीं सकता। है। इसलिए भाषा में जो भी कहा जाए, वह द्वैत हो जाता है। अगर । इसलिए जो समझदार हैं, तथाकथित समझदारं, वे प्रेम से बचते कृष्ण ऐसी भाषा बोलें, जिसमें द्वैत न हो, तो अर्जुन की समझ में हैं। नहीं तो कंट्रोल खो जाता है, नियंत्रण खो जाता है। समझदार नहीं आएगा। अभी तो नहीं आएगा, अभी दिव्य-चक्षु तो मिला नहीं पैसे की फिक्र करते हैं, प्रेम की नहीं, क्योंकि पैसे पर नियंत्रण हो है। अभी तो भाषा लेने-देने की बोलनी पड़ेगी। हम भी भाषा में जब | | सकता है; लिया-दिया जा सकता है; तिजोड़ी में रखा जा सकता किसी ऐसे अनुभव को रखते हैं, जो भाषा के पार है, तो अड़चन | | है; जरूरत हो वैसा उपयोग किया जा सकता है। प्रेम आपसे बड़ा आनी शुरू होती है। साबित होता है। आप किसी को कहते हैं कि मैं तुम्हें प्रेम देता हूं। पर आपने कभी | ध्यान रहे, प्रेम प्रेमी से बड़ा साबित होता है। प्रेमी छोटा पड़ स्तगाल किया कि क्या दिया जाता है या आप चाहते तो क्या जाता है और प्रेम बड़ा हो जाता है। और प्रेमी एक तफान. एक देने से रोक सकते थे? प्रेम होता है, दिया नहीं जा सकता। या फिर | अंधड़ में फंस जाता है। कोई बड़ी ताकत, उससे बड़ी ताकत उसे कोशिश करके देखें किसी को प्रेम देकर! कि चलो, इसको कोशिश | चलाने लगती है। इसलिए वह निरवश हो जाता है, अवश हो जाता करें; प्रयास, अभ्यास करें; प्राणायाम साधे; और प्रेम दें। तब आप | है, असहाय हो जाता है। पाएंगे कि कुछ नहीं हो रहा है। कुछ हो ही नहीं रहा है। प्रेम की कोई | फिर भी प्रेमी भाषा में कहता है कि मैं प्रेम देता हूं। ऊर्जा प्रकट नहीं होती। कोई किरण नहीं जगती। कोई धुन पैदा नहीं | ठीक ऐसे ही कृष्ण ने कहा है कि मैं तुझे दिव्य-चक्षु देता हूं। होती। कुछ नहीं होता। कृष्ण चाहते भी, और अर्जुन का समर्पण पूरा होता, तो दिव्य-चक्षु आप नकल कर सकते हैं; अभिनय कर सकते हैं। लेकिन प्रेम | | देने से रुक नहीं सकते थे। यह खयाल में ले लें। चाहते भी, तो भी नहीं दिया जा सकता। प्रेम होता है। लेकिन फिर भी हम भाषा में दिव्य-चक्षु देने से रोका नहीं जा सकता था। कृष्ण का होना पास कहते हैं कि प्रेम देता हूं। वह देना गलत है। मगर भाषा में ठीक है। और अर्जुन का समर्पण, दिव्य-चक्षु घटता ही। यह वैसे ही घटता, भाषा में कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि सारी भाषा लेने-देने पर जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है। ऐसे ही परमात्मा भी अर्जुन की निर्मित है। और प्रेम दोनों के बाहर है। | तरफ बहता ही, इसमें कोई उपाय नहीं है। इसलिए जीसस ने कहा कि प्रेम ही परमात्मा है। और किसी लेकिन जरा अजीब-सा लगता कि कृष्ण कहते कि अब कारण से नहीं। इसलिए नहीं कि परमात्मा बहुत प्रेमी है। सिर्फ दिव्य-चक्षु तुझमें घटित हो रहा है। वह अर्जुन की समझ के बाहर इसीलिए कि मनुष्य के अनुभव में प्रेम एक अद्वैत का अनुभव है। होता। हैपनिंग! देना नहीं है वह, एक घटना है। उससे समझ में आ जाए शायद, कि जैसा प्रेमी को कठिन हो जाता। लेकिन भाषा हमेशा ही अद्वैत को द्वैत में तोड़ देती है। और जहां है कहना कि देता हूं। होता है। जैसे श्वास चलती है, ऐसा प्रेम दो हो जाते हैं, वहां लेना-देना हो जाता है। चलता है। इसलिए प्रेम को दिया-लिया नहीं जा सकता, क्योंकि वहां दो 274 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ दिव्य-चक्षु की पूर्व-भूमिका 3 नहीं रह जाते। कौन ले! कौन दे! वहां एक ही रह जाता है। उसको तो दिव्य-दृष्टि होती है। जो अनुभवी और गैर-अनुभवियों के समर्पण की इस घड़ी में अर्जुन मिल गया कृष्ण की सत्ता के बीच में खड़ा होता है, उसके पास दूर-दृष्टि होती है। वह देख पा साथ! सागर बूंद की तरफ दौड़ पड़ा। आंख खुल गई। सीमाएं टूट | रहा है। दूर की घटना है, बहुत दूर घट रही है, पर उसको पकड़ पा गईं। सब ढांचे गिर गए। खुले आकाश को वह देख सका। | रहा है। और पकड़ वह किसके लिए रहा है? अंधे धृतराष्ट्र के लिए! संजय ने कहा, हे राजन्, महायोगेश्वर और सब पापों के नाश | वह अंधे धृतराष्ट्र को समझा रहा है। इसलिए और कठिनाई है। करने वाले भगवान ने इस प्रकार कहकर उसके उपरांत अर्जुन के ध्यान रहे, यह जो गीता की भाषा है, यह संजय की भाषा है। ये लिए परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्य स्वरूप दिखाया। शब्द संजय के हैं। और ये शब्द भी संजय के हैं, एक अंधे की बड़े मजे की कहानी है। और इसमें कई तल सत्य की खबर में | | समझ में आ सकें, उस लिहाज से बोले गए। विभक्त हो जाते हैं, बंट जाते हैं। घटना घटी कृष्ण के भीतर से अर्जुन ___ इसलिए कई तल हैं। घटना का तल है एक तो कृष्ण। फिर एक के भीतर की तरफ। घटी; की नहीं गई। हुई; हुआ कि अर्जुन खुल दूसरे तल पर निकट में खड़ा हुआ अर्जुन है। फिर बहुत दूरी पर गया, उसकी सब पंखुड़ियां खुल गईं चेतना की, और देख सका। | | खड़ा हुआ संजय है। और फिर अनंत दूरी पर बैठा हुआ अंधा __ यह संजय अंधे धृतराष्ट्र को सुना रहा है। संजय बहुत दूर है, धृतराष्ट्र है। तो गीता इन चार चरणों में चलती है। जितने दूर हम हैं। कृष्ण से उतनी ही दूर, जितनी दूर हम हैं, कृष्ण | | | हम सब धृतराष्ट्र हैं, अंधे हैं। वहां हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। से उतनी ही दूर। हमारी दूरी समय की है, उसकी दूरी स्थान की थी। | कुछ सूझ में नहीं आता। धृतराष्ट्र पूछता है संजय से। और संजय बाकी दूरी में कोई फर्क नहीं पड़ता। दूरी थी। बहुत दूर। कह रहा है, उस दूर की घटना को बांध रहा है शब्दों में। स्वाभाविक सत्य जब भी घटता है, तो जिनको सत्य घटता है, वे हमसे समय | | है कि संजय के शब्द अधूरे होंगे। और इसलिए भी अधूरे होंगे, और स्थान में बड़े दूर हो जाते हैं। पर उनकी खबर लाने वाला हमारे क्योंकि अंधे को समझाना है। बीच में कोई चाहिए, अन्यथा खबर नहीं आ सकेगी। हम अंधों के इसलिए ध्यान रहे, गीता बहुत लोकप्रिय हो सकी; उसका कारण पास खबर आ भी कैसे सकेगी! है, हम अंधों की थोड़ी-थोड़ी समझ में आ सकी। बहुत पापुलर है। महावीर को घटना घटती है, महावीर बोलते नहीं हैं। उनके | लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि गीता से ज्यादा लोकप्रिय कुछ गणधर, उनके संदेशवाहक बोलते हैं। महावीर चुप रह जाते हैं। | भी और क्यों नहीं है? हमारे पास और अदभुत ग्रंथ हैं। बहुत अदभुत महावीर और हमारे बीच में गणधर की जरूरत है, एक संदेशवाहक ग्रंथ हैं हमारे पास। पर गीता क्यों इतनी लोकप्रिय हो सकी? की, एक मैसेंजर की जरूरत है। मैसेंजर, वह जो बीच का तो मैं कहता हूं, धृतराष्ट्रों के कारण! वे जो अंधे हैं, उनकी समझ संदेशवाहक है, उसमें दो गुण होने चाहिए। वह आधा हम जैसा | में आ सके, संजय ने उनके योग्य शब्द उपयोग किए हैं। तो जब तक होना चाहिए, और आधा उस तरफ, कृष्ण, महावीर की चेतना की दुनिया में अंधे हैं, तब तक गीता की लोकप्रियता में कोई कमी पड़ने तरफ होना चाहिए। आधा-आधा, बीच में होना चाहिए। वाली नहीं है। और दुनिया में अंधे सदा रहेंगे, इसलिए निष्फिक्र रहा संजय थोड़ी दूर तक अर्जुन जैसा है। थोड़ी दूर तक! पूरा होता, जा सकता है। जिस दिन दुनिया में अंधे न हों, उस दिन संजय की तो वह भी फिर घटना अंधे धृतराष्ट्र को नहीं सुना सकता। आधा! | बातें बचकानी मालूम पड़ेंगी। या जो अंधा नहीं रह जाता, जिसकी आधा कृष्ण जैसा है, आधा अर्जुन जैसा है। आधा झुका है उस आंख खुल जाती है, उसे लगता है कि संजय धृतराष्ट्र के लिए बोल तरफ। उसे चीजें दिखाई पड़ती हैं, जो बहुत दूर घट रही हैं। वह रहा है। इस बोलने में कुछ खबर तो है सत्य की, लेकिन कुछ असत्य पकड़ पाता है। उसके पास दिव्य-चक्षु नहीं हैं। क्योंकि दिव्य-चक्षु का मिश्रण भी है। क्योंकि वह अंधे की समझ में ही तब आ सकेगा। तो पूरी घटना में घटता है, वह अर्जुन को घट रहा है। वह संजय शुद्ध सत्य अंधे की समझ में नहीं आ सकता। के पास नहीं है। यह मीठा प्रतीक है धृतराष्ट्र का। इसे खयाल में लें। ___ अनेक लोगों को यह विचारणीय रहा है कि संजय इतनी दूर से - संजय ने कहा कि ऐसा कहने के बाद, अर्जुन के लिए कृष्ण ने कैसे देख रहा है? उसके पास टेलिपैथिक, सिर्फ दूर-दृष्टि है। परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्य स्वरूप दिखाया। दिव्य-दृष्टि नहीं, दूर-दृष्टि। जो अनुभव को उपलब्ध होता है, जो पहली बात कही है, वह है ऐश्वर्ययुक्त दिव्य स्वरूप। वह 275] Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 भी अर्जुन की तैयारी के लिए। क्योंकि परमात्मा के सभी रूप हैं। वह जो विकराल, भयंकर और कुरूप है, वह भी परमात्मा है। और वह जो सुंदर, ऐश्वर्ययुक्त, महिमावान है, वह भी परमात्मा है। इस संबंध में भारतीय दृष्टि को ठीक से समझ लेना जरूरी है। भारत यह नहीं कहता कि कुछ बुरा जो है, वह परमात्मा नहीं है। सारी दुनिया में दूसरे धर्म बांट देते हैं जगत को दो हिस्सों में। वे एक तरफ शैतान को खड़ा कर देते हैं, कि जो-जो बुरा है, वह शैतान की तरफ; और जो-जो अच्छा है, वह भगवान की तरफ। भगवान उनके लिए अच्छे-अच्छे का जोड़ है, और शैतान बुरे-बुरे का । लेकिन तब वे समझा नहीं पाते कि बुरा क्यों है! और यह जो तुम्हारा अच्छा भगवान है, अब तक बुरे को नष्ट क्यों नहीं कर पाया? और अगर अब तक नहीं कर पाया, तो कब तक कर पाएगा? और जो अब तक नहीं कर पाया और अनंतकाल व्यतीत हो गया, संदेह पैदा होता है कि वह कभी भी कर पाएगा ! क्योंकि अब तक कर लिया होता, अगर कर सकता होता । नीत्शे ने कहा है कि जो कुछ भी हो सकता था दुनिया में, वह हो चुका होना चाहिए। कितने अनंत काल से दुनिया है, अब क्या आशा रखने की जरूरत है ! ठीक कहा है। इतने अनंत काल से जगत है, जो भी होना चाहिए था, वह हो चुका होगा। और अगर अब तक नहीं हुआ है, तो कभी नहीं होगा। तो बड़ी कठिनाई है। जिन धर्मों ने, जैसे जरथुस्त्र ने दो हिस्सों में बांट दिया, जीसस ने दो हिस्सों में बांट दिया, मोहम्मद ने दो हिस्सों बांट दिया। ऐसा मालूम होता है कि उनको भी शायद यह अंधों के लिए बांटना पड़ा होगा। और शायद उनके पास बड़े मजबूत अंधे रहे होंगे आस-पास। बड़े मजबूत अंधे ! वे अद्वैत की भाषा ही नहीं समझ सकते होंगे। और ऐसा लगता है कि मोहम्मद के आस-पास जो समूह था, वह निपट अंधा समूह रहा होगा। असंस्कृत; मरुस्थल के लोग; जंगली, खूंखार; मारना ही उनके लिए एक मात्र समझ थी ! मरना और मारने की भाषा उनकी पकड़ में आती होगी। तो मोहम्मद को जो भाषा बोलनी पड़ी है, इन धृतराष्ट्रों के लिए है, मजबूत धृतराष्ट्र। यह जो संजय को धृतराष्ट्र मिले, काफी विनम्र रहे होंगे; तैयारी रही होगी। तो द्वैत की भाषा बोलनी पड़ी है। तो जिन्होंने जिन धर्मों ने दो में बांट दिया है, उनके लिए बड़ा सवाल खड़ा हो गया कि बुराई फिर है क्यों! और परमात्मा की बिना अनुमति के अगर बुराई हो सकती है, तो इस जगत में परमात्मा से 276 भी बड़ी ताकत है। और अगर परमात्मा की अनुमति से ही बुराई हो रही है, तो फिर परमात्मा को अच्छा कहने का क्या प्रयोजन है ! भारत ने बड़ी हिम्मत की है। भारत ने स्वीकार किया है कि बुरा भी परमात्मा है, भला भी परमात्मा है। भारत यह कहता है कि सारा द्वैत परमात्मा है । उसको दो में हम बांटते ही नहीं। हम जन्म को भी परमात्मा कहते हैं, मृत्यु को भी । और हम सुख को भी परमात्मा कहते हैं, और दुख को भी । और हम सत्य को भी परमात्मा कहते हैं और संसार को भी। ये दो छोर हैं उस एक के ही। जो उस एक को जान लेता है, उसके लिए ये दो तिरोहित हो जाते हैं। जो उस एक को नहीं जानता, वह इन दो के बीच परेशान होता रहता है। परेशानी इसलिए है कि हम एक को नहीं जानते। परेशानी बुराई के कारण नहीं है। परेशानी इसलिए है कि भलाई और बुराई दोनों के बीच जो छिपा है एक, उससे हमारी कोई पहचान नहीं है। परेशानी मौत के कारण नहीं है। परेशानी इसलिए है कि जीवन और मौत दोनों में जो छिपा है एक, उससे हमारी कोई पहचान नहीं है। इसलिए मौत से परेशानी है। पाप से परेशानी नहीं है। पाप से परेशानी इसलिए है कि पाप और पुण्य दोनों में जो छिपा है, उस एक की हमें कोई झलक नहीं मिलती। पुण्य में नहीं मिलती, तो पाप | में कैसे मिले? पुण्य तक में नहीं दिखाई पड़ता वह, तो पाप में हमें कैसे दिखाई पड़ेगा? अंधापन है हमारा | लेकिन कृष्ण शुरू करते हैं ऐश्वर्ययुक्त रूप से। अर्जुन राजी हो जाए। जब पहली दफा आंख खुलती है उस परम में, तो अगर पहली दफे ही विकराल दिखाई पड़ जाए, कुरूप दिखाई पड़ जाए, पहली दफे ही मृत्यु दिखाई पड़ जाए, तो शायद अर्जुन सिकुड़कर वापस सदा के लिए बंद हो जाए। जिन लोगों ने भी कभी किन्हीं कारणों से, कुछ गलत विधियों से परमात्मा का विकराल रूप पहली दफा देख लिया है, वे अनेक जन्मों के लिए मुश्किल में पड़ जाते हैं। वह रूप है। जर्मन विचारक आटो ने एक किताब लिखी है, दि आइडिया आफ दि होली - उस पवित्रतम का प्रत्यय। और उसमें उसने दो रूप कहे हैं, एक उसका प्रीतिकर, सुंदर; एक उसका विकराल, कुरूप, खतरनाक । कोई खतरनाक रूप पास अगर पहुंच जाता है किन्हीं गलत विधियों के कारण, और पहली दफा पर्दा उठते ही उसका विकराल रूप दिखाई पड़ जाता है, तो वह व्यक्ति जन्मों-जन्मों के लिए बंद हो जाता है। फिर वह दिव्य चक्षु की हिम्मत नहीं जुटा पाता। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ दिव्य-चक्षु की पूर्व-भूमिका - इसलिए ध्यान रखना, कृष्ण ने जो पहला पर्दा उठाया, वह प्रीतिकर थीं और इसीलिए यही परमात्मा का पहला चेहरा था अर्जुन ऐश्वर्य का, महिमा का, सौंदर्य का, प्रीतिकर, कि अर्जुन डूब जाए, | | के लिए। इसमें जितनी चीजें कही गई हैं, वे अर्जुन की ही प्रीति की आलिंगन करना चाहे, लीन होना चाहे, मिल जाना चाहे, एक हो | चीजें हैं। इसे फिर से हम सुन लें, तो खयाल में आ जाएगा। जाना चाहे-ताकि तैयार हो जाए। परम ऐश्वर्ययुक्त! ईश्वर का अर्थ होता है, मालिक, ऐश्वर्य से इसलिए जो ठीक-ठीक साधना पद्धतियां हैं...। और गलत भरा हुआ। क्षत्रिय के लिए ईश्वर जैसा होना, ऐश्वर्य से भर जाना, साधना पद्धतियां भी हैं। गलत साधना पद्धतियों से इतना ही मतलब उसकी पहली वासना है। क्षत्रिय जीता उसके लिए है। गुलाम होकर है कि आपको पहुंचा तो देंगी वे, लेकिन ऐसे किनारे से पहुंचा देंगी, क्षत्रिय मरना पसंद करेगा। मालिक होकर ही जीना पसंद करेगा। जहां परमात्मा से भी आपका तालमेल होना मुश्किल हो जाए। ठीक ऐश्वर्य उसकी वासना है, उसकी आकांक्षा है। वह ऐश्वर्य की भाषा साधना पद्धतियों से इतना ही मतलब है कि वे ठीक सामने के द्वार ही समझ सकता है। वह दूसरी कोई भाषा नहीं समझ सकता। से आपको परमात्मा के पास पहुंचाएंगी। जहां मिलन सुखद और इसलिए पहली जो छबि, पहला जो रूप आविष्कृत हुआ अर्जुन प्रीतिकर और आनंदपूर्ण हो। पीछे दूसरा छोर भी देखा जा सकता के सामने, वह था ऐश्वर्य से परिपूर्ण। और ऐश्वर्य में भी जो चीजें है। देखना ही पड़ेगा, क्योंकि पूरे को ही जानना होगा, तभी कोई | गिनाई हैं, वे कई लोगों को लगेंगी, कैसी फिजूल की बातें हैं! मुक्त होता है। खासकर उनको, जो त्याग इत्यादि की भाषा सुन-सुनकर परेशान - इसलिए गलत और ठीक साधना पद्धति का इतना ही फर्क है कि | हो गए हैं। उनको बड़ी मुश्किल लगेगी कि यह भी क्या बात है! परमात्मा के किस द्वार से...। वहां शंकर तांडव करते हुए भी __ अनेक मुख, नेत्रों से युक्त, अदभुत दर्शनों वाले, बहुत-से दिव्य मौजूद हैं, और वहां कृष्ण बांसुरी बजाते हुए भी मौजूद हैं। अच्छा | भूषणों से युक्त! दिव्य भूषणों से युक्त, आभूषण पहने हुए! हो कि कृष्ण की तरफ से यात्रा करें। बहुत-से दिव्य शस्त्रों को हाथ में उठाए हुए! शंकर की तरफ से भी यात्रा होती है। और कुछ के लिए वही | वे अर्जुन की प्रीति की चीजें हैं। अगर उसको इस दरवाजे से उचित होगी, और कुछ के लिए वही प्रीतिकर होगी। कुछ हैं, जो प्रवेश न मिले, तो शायद प्रवेश असंभव हो जाए, मुश्किल हो शंकर की बारात में ही सम्मिलित होना चाहेंगे। वहां से भी परमात्मा जाए, कठिन तो हो ही जाए। वह जो-जो, जिन-जिन चीजों से प्रेम तक पहुंचा जाता है। लेकिन वह जो रूप है, अत्यंत विकराल, मृत्यु करता है, अस्त्र-शस्त्र अर्जुन का प्रेम है, और जब उसने परमात्मा का, अत्यंत दुस्साहसियों के लिए है, जो मृत्यु में भी छलांग लगाने के अनंत-अनंत विराट हाथों में अस्त्र-शस्त्र देखे होंगे, तो उसका को तैयार हों। | | परमात्मा में प्रवेश धीमे-धीमे नहीं हआ होगा: दौड़कर इब गया __ आप तो अभी जीवन से भी डरते हैं, डर-डरकर जीते हैं, मृत्यु होगा, जैसे नदी डूबती है सागर में दौड़कर।। की तो बात अलग है। डर-डरकर तो सभी मरते हैं। डर-डरकर दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किए हुए वे भी अर्जुन की जीते हैं। कंपते रहते हैं, और जीते हैं। इनके लिए विकराल के निकट | प्रीति की चीजें हैं—दिव्य गंध का अनुलेपन किए, सब प्रकार के जाना खतरनाक हो जाए। इसलिए गीता बहुत व्यवस्था से आगे आश्चर्यों से युक्त, सीमारहित, विराटस्वरूप परमदेव परमेश्वर को बढ़ती है। अर्जुन ने देखा। संजय ने कहा कि अर्जुन के लिए परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्य स्वरूप वह विमोहित हो गया होगा, स्तब्ध हो गया होगा। इस सौंदर्य को दिखाया। और उस अनेक मुख और नेत्रों से युक्त तथा अनेक देखकर विस्मृत हो गया होगा सब कुछ। इसे देखकर उसकी श्वासें अदभुत दर्शनों वाले, एवं बहुत-से दिव्य भूषणों से युक्त और | ठहर गई होंगी। इसे देखकर उसके प्राणों में हलन-चलन न रही बहुत-से दिव्य शस्त्रों को हाथ में उठाए हुए, तथा दिव्य माला और | होगी। इसे देखकर वह बिलकुल शून्यवत हो गया होगा। यही उसकी वस्त्रों को धारण किए हुए, और दिव्य गंध का अनुलेपन किए हुए | वासना थी। यही वह चाहता था। यह उसकी चाह की भाषा है। एवं सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्त, सीमारहित, विराटस्वरूप इसलिए जब त्यागवादी परंपरा के लोग इसको पढ़ते हैं, तो उन्हें परमदेव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। बहुत हैरानी लगती है कि ईश्वर को ऐसी बातें...! जैसे महावीर को ये जितनी बातें वर्णन की गई हैं, ध्यान रखना, अर्जुन के लिए यही जो नग्न पूजते हैं, उनको कृष्ण का सजा हुआ रूप बड़ा अप्रीतिकर 277] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 लगता है। आभूषणों से भरा हुआ, तो ऐसा लगता है, यह भी क्या नाटक है! तपस्वी होना चाहिए। यह कृष्ण भी क्या हीरे-जवाहरात पहने हुए, मोर-मुकुट बांधे हुए खड़े हैं! मगर जो यह कह रहा है, तपस्वी होना चाहिए, वह भी अगर ठीक से समझे, तो यही उसकी भी भाषा है। और कृष्ण के इस प्रीतिकर रूप से उसको भी प्रवेश मिल सकता है। क्योंकि यही उसकी भी चाह है। इस चाह की भाषा में ही पहला अनुभव अर्जुन को हुआ। ध्यान रखें, परमात्मा कैसा दिखाई पड़ता है, यह आप पर निर्भर करेगा कि आप कैसा उसे पहली दफा देखेंगे। यह परमात्मा पर निर्भर नहीं करेगा। यह आप पर निर्भर करेगा कि कैसा आप उसे देखेंगे। आप अपनी ही अनुभव की संपदा के द्वार से उसे देखेंगे। आप अपने ही द्वारा उसे देखेंगे। तो जो पहला रूप आपको दिखाई पड़ेगा, वह परमात्मा का रूप कम, आपकी समझ, भाषा का रूप ज्यादा है। यह अर्जुन की भाषा, समझ का रूप है, जो उसे दिखाई पड़ा। और धन्यभागी है वह व्यक्ति, जिसको अपनी ही भाषा में परमात्मा से मिलना हो जाए। क्योंकि दूसरी भाषा में मिलना हो, तो तालमेल नहीं बैठ पाता। कठिन हो जाता, शायद द्वार भी बंद हो जाता। आज इतना ही। लेकिन पांच मिनट रुकें। कीर्तन में सम्मिलित हों, फिर जाएं। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 तीसरा प्रवचन धर्म है आश्चर्य की खोज Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-58 दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेयुगपदुत्थिता। सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, देखने में अति गहन और अप्रमेय यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः । । १२ ।। स्वरूप सब ओर से देखता हूं। तत्रकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकया। अपश्यदेवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।। १३ ।। ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः। एक मित्र ने पूछा है कि अर्जुन और कृष्ण के बीच प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ।। १४ ।। घटी घटना अत्यंत वैयक्तिक थी। संजय आधा अर्जुन अर्जुन उवाच था, उसे दिव्य-चक्षु उपलब्ध नहीं थे। फिर, संजय पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान् । अधूरेपन से पूर्ण को कैसे निहार पाया? अंश से ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषीश्च सर्वानुरगांश्च विराट के दर्शन और वर्णन कैसे कर पाया? संजय दिव्यान् ।।१५।। का वर्णन क्यों न क्षेपक और कल्पना मानी जाए? अनेकबाहूदरवकत्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् । नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादि पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ।। १६ ।। ट स संबंध में कुछ बातें समझ लेनी अत्यंत उपयोगी हैं। किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् । र पहली बात तो यह कि अंश से पूर्ण को पकड़ा नहीं जा पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्य सकता, लेकिन छुआ जा सकता है। अंश से पूर्ण को समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ।। १७ ।। | पकड़ा नहीं जा सकता, स्पर्श किया जा सकता है। और हे राजन्, आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय | मेरा हाथ मेरे पूरे शरीर को नहीं पकड़ सकता, क्योंकि हाथ शरीर होने से उत्पन्न हुआ जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्वरूप | का एक अंश है, लेकिन मेरे शरीर को स्पर्श कर सकता है। पूरे को परमात्मा के प्रकाश के सदश कदाचित ही होवे।। | न भी स्पर्श करे, तो भी स्पर्श कर सकता है। हम इन छोटी-छोटी ऐसे आश्चर्यमय रूप को देखते हुए पांडुपुत्र अर्जुन ने उस आंखों से विराट को न पकड़ पाएं, लेकिन इन छोटी-छोटी आंखों काल में अनेक प्रकार से विभक्त हुए अर्थात पृथक-पृथक | से जिसे भी हम पकड़ते हैं, वह भी विराट का ही हिस्सा है। मेरे हुए संपूर्ण जगत को उस देवों के देव श्रीकृष्ण भगवान के हाथ बहुत छोटे होंगे, पूरे आकाश को नहीं भर पाऊंगा अपनी बाहों शरीर में एक जगह स्थित देखा। | में, लेकिन जिसे भी भर पाऊंगा, वह भी आकाश ही है। और उसके अनंतर वह आश्चर्य से युक्त हुआ हर्षित रोमों संजय अधूरा है, इसलिए प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है कि वह वाला अर्जुन, विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धा-भक्ति सहित | अधूरी चेतना का व्यक्ति कृष्ण और अर्जुन के बीच घटी उस सिर से प्रणाम करके, हाथ जोड़े हुए बोला। महिमापूर्ण घटना को कैसे देख पाया? अधूरा कैसे पूरे को देख हे देव, आपके शरीर में संपूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के पाएगा? समुदायों को और कमल के आसन पर बैठे हुए ब्रह्मा को देख पाएगा, पूरा नहीं देख पाएगा। संजय भी पूरा नहीं देख पा तथा महादेव को और संपूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सपों सकता है। आध्यात्मिक अनुभव, जब भी घटित होते हैं, तो उनकी को देखता हूं। पूरी खबर हम तक नहीं आती और न ही आ सकती है। और हे संपूर्ण विश्व के स्वामिन्, आपको अनेक हाथ, पेट, इसे हम थोड़ा यूं समझें। मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनंत रूपों वाला बुद्ध को अनुभव हुआ। बुद्ध स्वयं उस अनुभव को कहते हैं। देखता हूं। हे विश्वरूप, आपके न अंत को देखता हूं, तथा लेकिन साथ यह भी कहते भी कहते हैं कि जो मैं कह रहा है, वह उतना नहीं न मध्य को और न आदि को ही देखता हूं। | है, जितना मैंने जाना। जो मैंने जाना, वह कहते ही आधा हो गया और मैं आपका मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा | | है। क्योंकि शब्द सीमित हैं और जो जाना था, वह असीम था। उस सब ओर से प्रकाशमान तेज का पुंज, प्रज्वलित अग्नि और | असीम को शब्द में रखते ही वह आधा हो गया। 280/ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म है आश्चर्य की खोज फिर बुद्ध जितना जानें, उससे आधा कह पाते हैं; लेकिन जब हम सुनते हैं उसे, तो हम उतना भी नहीं सुन पाते, जितना बुद्ध कहते हैं। क्योंकि सुनने वाले के पास और भी छोटी बुद्धि है। और भी अंधेरे में डूबा हुआ मन है। और भी अविकसित चेतना है। तो बुद्ध जब हमसे बोलते हैं, तो जो हम समझ पाते हैं, वह उसका भी आधा हो, तो बड़े सौभाग्यशाली हैं हम, जितना वे कहते हैं। और अगर हम किसी और को कहें, तो प्रतिपल सत्य टूटता चला जाता है, और असत्य होता चला जाता है। कृष्ण के भीतर जो अर्जुन को दिखाई पड़ा, वह पूरा अनुभव है। संजय उसको आधा ही पकड़ पाएगा। और धृतराष्ट्र कितना पकड़ पाए होंगे, इस संबंध में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। तो पहली तो बात यह खयाल रख लें कि अधूरा आदमी भी आंखें उठा सकता है उस दिशा में। दूसरी बात यह खयाल ले लें कि अधूरा आदमी किनारे पर खड़ा हुआ है - आधा इस तरफ, आधा उस तरफ। उसके दो मुंह हैं। एक तरफ वह अंधे धृतराष्ट्र की तरफ देख रहा है, दूसरी तरफ वहां महाप्रकाश की जो घटना घटी है, अर्जुन की आंखों का खुल जाना जो हुआ है, उस तरफ। संजय की क्या जरूरत थी बीच में? अर्जुन भी यह खबर बाद में दे सकता था। गीता हमें अर्जुन से भी मिल सकती थी । अर्जुन से मिलनी बहुत कठिन थी। जिसको पूरा अनुभव होता है, जरूरी नहीं है कि वह अभिव्यक्ति में भी कुशल हो । अनुभूति एक बात है, अभिव्यक्ति बिलकुल दूसरी बात है। अर्जुन के पास अभिव्यक्ति नहीं थी। अर्जुन को अनुभव तो हुआ, लेकिन वह कह नहीं सकता था। यह हो सकता हैं कि आप सुबह का सूरज उगते हुए देखें, लेकिन आप चित्र न बना पाएं। क्योंकि चित्र बनाना और बात है। और यह भी हो सकता है कि उस चित्रकार ने जिसने सुबह का सूरज उगते न देखा हो, उसको आप जाकर सिर्फ बताएं कि क्या देखा है, वह चित्र आपसे बेहतर बना सके। अर्जुन कहने में असमर्थ था, इसलिए गीता में संजय को लाना अनिवार्य हो गया। बिना संजय के गीता बिना कही रह जाती। कृष्ण उसे अर्जुन से कह दिया था, लेकिन अर्जुन उसे हम तक नहीं पहुंचा सकता था। अर्जुन के पास अभिव्यक्ति की कोई क्षमता नहीं है। इसलिए बहुत बार ऐसा हुआ है कि जिन्होंने जाना है, वे जानकर चुप ही रह गए हैं, क्योंकि कहने की उनके पास कोई व्यवस्था न और कई बार ऐसा भी हुआ है कि जिन्होंने नहीं जाना है, उन्होंने भी बहुत बातें हमें समझा दी हैं, उनसे सुनकर जिन्होंने जाना था या उनके पास रहकर जिन्होंने जाना था। अभी इस सदी में ऐसी घटना घटी है। काकेशस में एक बहुत अदभुत आदमी इस सदी में पैदा हुआ, जार्ज गुरजिएफ | उसने गहनतम अनुभव उपलब्ध किया, जो इस सदी में दो-चार लोगों को ही मिला है। लेकिन उसकी कहने की कोई भी योग्यता नहीं थी। न तो वह बोल सकता था, न लिख सकता था, न ही किसी भाषा पर उसका कोई अधिकार था । गुरजिएफ की बात ऐसे ही खो जाती, पर उसे एक बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति पी. डी. आस्पेंस्की मिल गया । आस्पेंस्की को कोई अनुभव नहीं था। लेकिन आस्पेंस्की एक | कुशल लेखक था । भाषा पर उसका अधिकार था । गणित पर उसकी पकड़ थी। रूस के बड़े से बड़े गणितज्ञों में एक था। इसलिए किसी भी चीज को तर्क से, जांचकर, परखकर, ठीक-ठीक माप में प्रकट करने की उसकी प्रतिभा थी। आस्पेंस्की कह सका, जो गुरजिएफ नहीं कह सका । और गुरजिएफ जानता था और आस्पेंस्की नहीं जानता था । आस्पेंस्की गुरजिएफ के पास रहकर पकड़ सका, वह जो अधूरा -अधूरा, | टूटा-फूटा प्रकट करता था, बिना व्याकरण के, बिना भाषा के। वह जो टटोल - टटोलकर कुछ बातें कहता था, आस्पेंस्की उसे निखार-निखारकर प्रकट कर सका। आस्पेंस्की न हो, तो गुरजिएफ 'की शिक्षा खो जाएगी। 281 यह संजय के कारण कृष्ण ने जो अर्जुन को कहा था, वह बच सका है। संजय अधूरा है, लेकिन बड़ा योग्य है। ऐसा कभी-कभी घटता है कि एक ही व्यक्ति में दोनों बातें होती हैं। कभी-कभी घटता है। बहुत अनूठा संयोग है। महावीर को अनुभव हुआ, महावीर नहीं बोले। बोलने वाले दूसरे लोग उन्होंने | इकट्ठे किए। महावीर उनसे मौन में बोले, और उन्होंने फिर वाणी से प्रकट किया। बुद्ध को जो अनुभव हुआ, बुद्ध स्वयं बोले । यह | बहुत कठिन है। कभी-कभी ऐसा होता है कि अनुभव को उपलब्ध | व्यक्ति अभिव्यक्ति भी कर पाता है । अन्यथा सहारे खोजने पड़ते हैं। कोई और सहारा खोजना पड़ता संजय इस पूरी व्यवस्था में सहारा है। और संजय ने जो कहा है, वह रूपक नहीं है। उसने जो देखा है, वही कहा है। लेकिन जिसके लिए कहा है, वह अंधा आदमी है। वह बिना रूपक के नहीं समझ पाएगा। इसलिए रूपक का भी उपयोग किया है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 इसे थोड़ा ठीक से समझ लें, कि जब भी हम बोलते हैं, बोलने वाला ही महत्वपूर्ण नहीं होता, सुनने वाला भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। हम किसके लिए बोलते हैं! जिसके लिए हम बोलते हैं, वह भी निर्धारक होता है, बात बोली जाती है। जब दो व्यक्ति बोलते हैं, तो सुनने वाला, बोलने वाला, दोनों ही निर्णायक होते हैं, जो बोला जाता है। संजय शून्य में नहीं बोल रहा है। संजय धृतराष्ट्र से बोल रहा है । धृतराष्ट्र जो समझ सकेंगे, उस व्यवस्था में बोल रहा है। और इसलिए मैंने कल आपसे कहा कि गीता हमारे लिए उपयोगी है, क्योंकि हम अंधे हैं। और अच्छा हुआ कि संजय धृतराष्ट्र से बोला । अगर वह किसी आंख वाले से बोलता, किसी जानने वाले से बोलता, तो पहली तो कठिनाई यह थी कि बोलने की कोई जरूरत न थी। क्योंकि जो जान सकता था, आंख वाला था, वह खुद ही देख लेता। और जो जानता था, जो देख सकता था, उसके लिए प्रतीक खोजने न पड़ते। इसलिए बहुत बार यह सवाल उठता है, युद्ध के मैदान पर, जहां कि एक-एक पल मुश्किल रहा होगा, इतनी बड़ी गीता कृष्ण ने कैसे कही है? जहां एक-एक पल मुश्किल रहा होगा, इतनी बड़ी गीता, पूरे अठारह अध्याय अर्जुन से कहे होंगे, कितना समय नहीं व्यतीत हुआ होगा ! और युद्ध सब ठप्प पड़ा रहा! लोग वहां लड़ने को, मरने को उत्सुक होकर आए थे। वहां कोई धर्म-संवाद, कोई धर्म-उपदेश सुनने नहीं आए थे। यह इतनी लंबी बात कृष्ण ने कही होगी ? तो अनेक लोगों को कठिनाई होती है। और उनको लगता है कि संक्षिप्त में कही होगी, बाद में लोगों ने विस्तीर्ण कर ली होगी। बहुत सार में इशारा किया होगा, बाद में चीजें जुड़ती चली गई होंगी । नहीं, ऐसा नहीं है। दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। एक तो, समय बहुत प्रकार के हैं। टाइम एक ही प्रकार का नहीं है। समय बहुत प्रकार के हैं। आपको रात एक झपकी आ जाती है। ट्रेन में आप चल रहे हैं, आंख लग गई है, झपकी आ गई है। आप एक लंबा स्वप्न देखते हैं। स्वप्न इतना लंबा हो सकता है कि आप छोटे बच्चे थे, और बड़े हुए, और स्कूल में पढ़े, और कालेज में गए, और किसी के प्रेम में पड़े, और शादी की, और आपके बच्चे हो गए, और आप बच्चों की शादी कर रहे हैं, और बैंड-बाजे बज रहे हैं, उससे आपकी नींद खुल गई। और आप घड़ी में देखते हैं, तो अभी मुश्किल से दो-चार सेकेंड ही आपकी झपकी लगी थी। तो दो-चार सेकेंड में इतनी लंबी कथा तो कही भी नहीं जा सकती, जो आपने देख ली। अगर आप अपना सपना किसी को | सुनाएं, तो उसमें भी आधा घंटा लगेगा। और आपने सुना नहीं है, आप जीए। बच्चे थे, बड़े हुए, पढ़े-लिखे, प्रेम में गिरे, विवाह किया, बच्चा हुआ, बड़ा हुआ, शादी कर रहे थे। यह सब आप जीए भीतर सपने में। और घड़ी में दो-चार सेकेंड या मिनट, आधा मिनट निकला। क्या हुआ ? स्वप्न में समय की व्यवस्था और है। जागने में समय की व्यवस्था और है । जागने में भी समय की व्यवस्था बदलती रहती है। घड़ी में नहीं बदलती, इसलिए हमें भ्रम पैदा होता है। घड़ी में | क्यों बदलेगी, घड़ी तो यंत्र है। वह अपने हिसाब से घूमती रहती है। साठ मिनट में घंटा पूरा हो जाता है, चौबीस घंटे में दिन पूरा हो जाता है। घड़ी घूमती रहती । लेकिन अगर आप घड़ी और अपने बीच थोड़ा-सा विचार करें, तो आपको समझ में आ जाएगा। आपके भीतर समय एक-सा नहीं रहता। जब आप दुख में होते हैं, समय धीमा जाता हुआ मालूम पड़ता है। जब आप सुख में होते हैं, समय तेजी से जाता हुआ मालूम पड़ता है। जब आप सफल होते हैं, तब समय ऐसे बीत जाता है, साल ऐसे बीत जाते हैं, जैसे पल। | और जब आप असफल होते हैं, तो पल ऐसे बीतते हैं, जैसे वर्ष । कोई मर रहा हो प्रियजन, उसके पास आप बैठे हैं। तब एक घड़ी ऐसी लगती है कि जैसे युग। कितनी लंबी ! कभी किसी मरणासन्न व्यक्ति के पास अगर रात बिताई हो, तो आपको पता चलेगा कि घड़ी और आपके समय में फर्क है। मरणासन्न व्यक्ति के पास बैठे रात कटती ही नहीं है। और अगर आपको आपकी प्रेयसी, आपका | प्रिय, आपका मित्र मिल गया हो अचानक, तो रात कब बीत जाती है, पता नहीं चलता । और ऐसा लगता है कि सांझ एकदम सुबह हो गई, रात बीच में हुई ही नहीं। आपका अगर चित्त दुख से भरा हो, तो समय लंबा हो जाता है। आपका चित्त अगर सुख से भरा हो, तो समय छोटा हो जाता है। | जो लोग आनंद को अनुभव किए हैं...। आपको सुख-दुख का अनुभव है, आनंद का आपको कोई अनुभव नहीं है। सुख में समय छोटा हो जाता है, दुख में बड़ा हो जाता है। जितना ज्यादा दुख होता है, समय उतना लंबा हो जाता है। जितना ज्यादा सुख होता है, | उतना छोटा हो जाता है। आनंद है परम सुख । समय शून्य हो जाता है, समय होता ही नहीं । इसलिए जिन्होंने आनंद का अनुभव किया है, वे कहते हैं, समय 282 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म है आश्चर्य की खोज ६ वहां होता ही नहीं । और जैसे स्वप्न में मिनट, आधा मिनट में वर्षों का जीवन व्यतीत हो जाता है, वैसे उस आनंद के क्षण में कितना ही समय व्यतीत हो सकता है और बाहर की घड़ी में कुछ भी फर्क न पड़ेगा। कृष्ण और अर्जुन के बीच जो घटना घटी, वह हमारे समय के हिसाब से कितनी ही लंबी मालूम पड़े, उनके बीच क्षणभर में घट गई होगी। जैसे दो आंखों का मिलना क्षणभर को हो गया होगा और बस । संजय को जरूर वक्त लगा कहने में, जैसा आपको अपना सपना बताने में वक्त लगता है। सपना तो जल्दी बीत जाता है, पर बताने जाते हैं तो वक्त लगता है । धृतराष्ट्र को समझाने में इतना लंबा वक्त लगा। यह जो गीता है, इसके बीच जो समय व्यतीत हुआ, वह संजय और धृतराष्ट्र के बीच व्यतीत हुआ समय है, अर्जुन और कृष्ण के नहीं। अर्जुन और कृष्ण के बीच तो ऐसे घट गई है यह घटना कि उस युद्ध के स्थल पर मौजूद किसी व्यक्ति को पता ही नहीं चला होगा कि क्या हो गया। यह कोई भी जान नहीं सका होगा कि यह कब हो गई है बात! अनुभव पल में हो गया होगा। लेकिन अनुभव इतना विराट था कि उसे बताते वक्त संजय बहुत समय लगा होगा। इसे ऐसा समझ लें । आपकी तरफ मैं देखूं, तो एक झलक में आप सबको देख लेता हूं। लेकिन मैं फिर किसी को बताने जाऊं कि नंबर एक पर कौन बैठा था, और नंबर दो पर कौन बैठा था, और नंबर तीन पर... । तो यहां हजारों लोग मौजूद हैं, अगर इनका एक-एक का नाम मैं वर्णन करने लगूं, तो मुझे दिनों लग जाएंगे। लेकिन एक झलक में मैं आपको देख लेता हूं, एक पलक में आपको देख लेता हूं। अर्जुन ने जो जाना, वह तो एक पलक में हो गया। लेकिन जो उसने जाना था विस्तीर्ण, उसको फिर जब वर्णन करने संजय चला, तो एक-एक टुकड़े में उसे करना पड़ा। फिर समय लगा। भाषा रेखाबद्ध है। अनुभव मल्टी-डायमेंशनल है, अनुभव में अनेक आयाम हैं। भाषा एक रेखा में चलती है। तो एक रेखा में जब वर्णन करना पड़ता है, तो वह जो अनेक आयाम में अनुभव हुआ था, उसे खंड-खंड में तोड़कर करना पड़ता है। यह जो गीता हमें इतनी-इतनी लंबी मालूम पड़ रही है, यह संजय और धृतराष्ट्र के कारण है। यह कृष्ण और अर्जुन के बीच नहीं। लेकिन संजय योग्य था। शायद उस क्षण में संजय से ज्यादा कोई योग्य आदमी नहीं था कि कृष्ण और अर्जुन के बीच जो घटा, | उसे कह सकता। और शायद उस दिन धृतराष्ट्र से ज्यादा योग्य कोई जिज्ञासु नहीं था, जो इसको पूछता । हैं। यह अदभुत ये चार जो पात्र हैं गीता के, ये एक लिहाज से | संयोग असंभव संयोग है। कृष्ण जैसा गुरु खोजना बहुत मुश्किल है। अर्जुन जैसा शिष्य खोजना, उससे भी ज्यादा मुश्किल है। संजय | जैसा व्यक्त करने वाला खोजना, उससे भी ज्यादा मुश्किल है। धृतराष्ट्र जैसा अंधा जिज्ञासु, उससे भी ज्यादा खोजना मुश्किल है। क्यों? अंधे जिज्ञासा करते ही नहीं । अंधे मानते हैं कि हम | जानते हैं। अंधे जिज्ञासा करते ही नहीं, अंधे तो मानकर ही बैठे हैं कि हम जानते हैं। उनका यह मानना ही तो उनका अंधापन है कि हम जानते हैं। आपका अंधापन क्या है? आपको पता है कि आपको पता है, और पता बिलकुल नहीं है! और जिस आदमी को यह खयाल है कि मुझे मालूम है बिना मालूम हुए, वह जिज्ञासा क्यों करेगा? वह पूछेगा क्यों ? वह जानने की उत्सुकता क्यों प्रकट करेगा? उसकी कोई इंक्वायरी नहीं है, उसकी कोई खोज नहीं है। और जो यह माने ही बैठा है कि मैं जानता हूं, वह कभी भी नहीं जान पाएगा। क्योंकि | जानने के लिए जो पहला कदम है, वह जिज्ञासा है। धृतराष्ट्र, अंधे धृतराष्ट्र ने पूछा; यह बड़ी बात है । जो बता सकता था, संजय, उसने बताया । जिसको यह घटना घट सकती थी, अर्जुन, उसे यह घटना घटी। जो इस घटना के लिए कैटेलिटिक | एजेंट हो सकता था, कृष्ण, वह एजेंट हो गया। गीता एक अर्थ में श्रेष्ठतम संयोगों का जोड़ है। फिर यह भी ध्यान रखें कि अधूरा आदमी ही बता सकता है। क्योंकि पूरा आदमी संसार की तरफ से पूरा मुड़ जाता है। और बड़ी कठिनाई हो जाती है। आधा आदमी आधा संसार की तरफ भी होता है, आधा परमात्मा की तरफ भी होता है। उधर की भी उसके पास झलक होती है और इधर संसार में खड़े लोगों की पीड़ा का भी उसे बोध होता है। जब बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो कथा है कि सात दिन तक वे बोले नहीं। क्योंकि बुद्ध का मुख फिर गया पूरा का पूरा सत्य की तरफ । | वे मौन हो गए, वे संसार को भूल ही गए। उन्हें पता ही न रहा कि पीछे अनंत अनंत लोग पीड़ा से परेशान, इसी सत्य की खोज के लिए रो रहे हैं। वे भूल ही गए। तो बड़ी मीठी कथा है कि देवताओं ने आकर बड़ा शोरगुल 283 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 किया। बहुत बैंड-बाजे बजाए। उनका मौन तोड़ने की कोशिश की। इसलिए वही ठीक आदमी है, जो खबर दे सके। उनको हिलाया-डुलाया। उन्हें काफी डांवाडोल किया, ताकि उन्हें अब हम सूत्र को लें। खयाल आ जाए कि पीछे एक बड़ा संसार भी है, जिससे उन्हें | और हे राजन्! आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने अपनी बात कह देनी है। | से उत्पन्न हुआ जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के बुद्ध को देवताओं ने कहा कि आप चुप क्यों हो गए हैं? | प्रकाश के सदृश कदाचित ही होवे। अनेक-अनेक युगों के बाद कभी कोई व्यक्ति इस परम अनुभव को | पहला अनुभव उसने कहा ऐश्वर्य का। संजय ने कहा कि अर्जुन उपलब्ध होता है। लाखों लोग प्यासे हैं, आप उनसे कहें। बुद्ध ने ने देखा, परमात्मा का महिमाशाली ऐश्वर्य रूप। जो सुंदर है, जो कहा, जो समझ सकते हैं उस अनुभव को, वे मेरे बिना कहे समझ श्रेष्ठ है, जो बहुमूल्य है, वह सब। जगत का जैसे सारा सौंदर्य जाएंगे। और जो नहीं समझ सकते, उनके सामने मैं सिर पटकता | निचोड़ लिया हो, और जगत की जैसे सारी सुगंध निचोड़ ली हो, रहूं, तो भी वे समझने वाले नहीं हैं। तो मुझे क्यों परेशान करते हैं! और जगत का जैसे सारा प्रेम निचोड़ लिया हो, और तब उस सार बुद्ध ने कहा, मुझे छोड़ें। मेरा बोलने का कोई भी मन नहीं है। में जो अनुभव हो, वह ऐश्वर्य है परमात्मा का। अर्जुन ने पहले। फिर जो मैंने जाना है, वह बोला भी नहीं जा सकता। और जो मैं | | परमात्मा का ऐश्वर्य रूप देखा। बोलूंगा, वह वही नहीं होगा, जो मुझे घटा है। शब्द में उसे बांधना दूसरी बात संजय कहता है कि परमात्मा का प्रकाश रूप देखा। मुश्किल है। और फिर जो नहीं समझेंगे, वे नहीं ही समझेंगे। और | यह उचित है कि ऐश्वर्य के बाद प्रकाश दिखाई पड़े। क्योंकि ऐश्वर्य जो समझ सकते हैं, वे मेरे बिना भी देर-अबेर पहुंच ही जाएंगे। | भी धीमा प्रकाश है। ऐश्वर्य भी धीमा प्रकाश है। जैसे सुबह होती इसलिए मैं क्यों परेशान होऊ? | है। रात भी चली गई और अभी दिन भी हुआ नहीं है और बीच में कुशल लोग थे वे देवता, क्योंकि उन्होंने बुद्ध को किसी तरह वे जो भोर के क्षण होते हैं, जब धीमा प्रकाश होता है, जो आंख को राजी कर लिया। राजी उन्होंने इस तरह किया, उन्होंने बुद्ध को कहा। परेशान नहीं करता, जो आंख पर चोट नहीं करता, जिसमें कोई कि आप बिलकुल ठीक कहते हैं। जो समझ सकते हैं, वे आपके चमक नहीं होती, सिर्फ आभा होती है। या सांझ को जब सूरज ढल बिना भी समझ जाएंगे। जो बिलकल नासमझ हैं. वे. आप उनके गया, और रात अभी उतरी नहीं, और बीच का वह जो संधिकाल सामने सिर पटकते रहें जिंदगीभर, तो भी नहीं समझेंगे या कुछ है, तब धीमा-सा आलोक रह जाता है। ऐश्वर्य आलोक है। समझेंगे, जो आपने कहा ही नहीं है। मगर इन दोनों के बीच में भी | __ऐश्वर्य आंखों को तैयार कर देगा अर्जुन की कि वह प्रकाश को कुछ लोग हैं, जो अधूरे खड़े हैं। जो नासमझ भी नहीं हैं, जो | | देख सके। अन्यथा परमात्मा का प्रकाश, आंखें बंद हो जाएंगी। समझदार भी नहीं हैं। आपके बिना वे समझदार न हो सकेंगे। और | अन्यथा परमात्मा का प्रकाश, वह चकाचौंध में होश खो जाएगा। आपके बिना वे नासमझ रह जाएंगे। आप उन बीच में खड़े थोड़े से ऐसा बहुत बार हुआ है। ऐसा बहुत बार हुआ है कि कुछ साधना लोगों के लिए बोलें, जिनके लिए तिनका भी सहारा हो जाएगा। | पद्धतियां हैं, जिनसे व्यक्ति सीधा परमात्मा के प्रकाश स्वरूप को बुद्ध को कठिन पड़ा उत्तर देना; वे राजी हुए। | देख लेता है। तो वह प्रकाश इतना ज्यादा है कि सहा नहीं जा संजय अधरा आदमी है। वह दोनों तरफ देख रहा है। उसे सकता। और सदा के लिए भीतर घप्प अंधेरा छा जाता है। धृतराष्ट्र की पीड़ा भी पता है, उसे अर्जुन का आनंद भी। वह यह यह शायद आपने नहीं सुना होगा। आपको भी खयाल नहीं है। भी देख रहा है कि अर्जुन को क्या घट रहा है, किस परम हर्षोन्माद | | अगर आप सूरज की तरफ सीधा देखें और फिर कहीं और देखें, तो में उसका रोआं-रोआं नाच रहा है, किस महाप्रकाश में अर्जुन | | सब तरफ घुप्प अंधेरा मालूम पड़ेगा। अगर रात आप रास्ते से गुजर डूबकर खड़ा हो गया है, यह भी। और धृतराष्ट्र का अंधापन और | रहे हैं, अंधेरा है, अमावस की रात है, लेकिन फिर भी आपको अंधेपन में घिरी हुई आत्मा की पीड़ा और नर्क। और अंधेपन में डूबा | कुछ-कुछ दिखाई पड़ रहा है। फिर पास से एक तेज प्रकाश वाली हुआ धृतराष्ट्र, जो टटोल रहा है, और कहीं कोई रास्ता नहीं कार गुजर जाती है। वह प्रकाश आंखों को चौंधिया जाता है। फिर मिलता, कहीं कुछ समझ में नहीं आता। इसकी पीड़ा भी उसके कार तो गुजर जाती है, रात और अंधेरी हो जाती है। अभी तक उस खयाल में है, अर्जुन का आनंद भी। वह बीच में खड़ा आदमी है। रास्ते पर चल रहे थे, अब अंधेरा और घना हो जाता है। 284 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ धर्म है आश्चर्य की खोज ईसाई फकीरों ने इस बात के संबंध में बड़ी-बड़ी महत्वपूर्ण खोजें चल सकती है, कभी-कभी जन्मों चल सकती है। की हैं। अगस्टीन ने, फ्रांसिस ने, उन्होंने इसे डार्क नाइट आफ दि सीधे, बिना तैयारी के, परमात्मा के प्रकाश रूप के सामने खड़ा सोल कहा है-आत्मा की अंधेरी रात। क्योंकि जब प्रकाश का होना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए ऐश्वर्य के बाद अर्जुन को इतना तीव्र आघात होता है, तो सब तरफ अंधेरा छा जाता है। वर्षों अनुभव हुआ अनंत-अनंत सूर्य जैसे जन्म गए हों। लग जाते हैं कभी-कभी साधक को, वापस इस अंधेरे के बाहर | एक बात समझ लेने जैसी है। आने में। इसलिए प्रकाश की सीधी साधना खतरनाक है। आज तो विज्ञान भी स्वीकार करता है कि पदार्थ की जो आंतरिक जो लोग सूर्य पर एकाग्रता करते हैं, वे इसीलिए कर रहे हैं। | घटना है, वह पदार्थ नहीं है, प्रकाश ही है। जहां-जहां हम पदार्थ ताकि इस सूर्य पर अभ्यास हो जाए, तो जब वह महासूर्य भीतर देखते हैं, वह प्रकाश का घनीभूत रूप है, कंडेंस्ड लाइट। या उसको प्रकट हो, तो आंखें एकदम अंधी न हो जाएं और अंधेरा न छा विद्युत कहें, या उसको प्रकाश की किरण कहें, या शक्ति कहें। जाए। इस सूर्य पर एकाग्रता का अभ्यास इसीलिए है सिर्फ कि ताकि लेकिन आज विज्ञान अनुभव करता है कि पदार्थ जैसी कोई भी चीज थोड़ा तो...यह सूर्य कुछ भी नहीं है। लेकिन फिर भी जो कुछ है, जगत में नहीं है। सिर्फ प्रकाश है। और प्रकाश ही जब घनीभूत हो काफी है। हमारे लिए तो बहुत कुछ है। इस पर थोड़ा अभ्यास हो | | जाता है, तो हमें पदार्थ मालूम पड़ता है। जाए, तो जब महासूर्य, अनंत सूर्य भीतर प्रकाशित हो जाएं, तो उस | विज्ञान के विश्लेषण से पदार्थ का जो अंतिम रूप हमें उपलब्ध वक्त थोड़ी-सी तो तैयारी रहे। इसलिए सूर्य पर एकाग्रता के प्रयोग | हुआ है, वह इलेक्ट्रान है, वह विद्युत-कण है। विद्युत-कण छोटा किए जाते हैं। सूर्य है। अपने आप में पूरा, सूर्य की भांति प्रकाशोज्ज्वल। विज्ञान लेकिन अगर ऐश्वर्य का अनुभव पहले हो...। इसीलिए हमने | भी इस नतीजे पर पहुंचा है कि सारा जगत प्रकाश का खेल है। भगवान को ईश्वर का नाम दिया है। हम उसके ऐश्वर्य रूप को और धर्म तो इस नतीजे पर बहुत पहले से पहुंचा है कि परमात्मा पहले स्वीकार करते हैं, वह आभा है। और ध्यान रहे, सुबह जब का जो अनुभव है, वह वस्तुतः प्रकाश का अनुभव है। फिर कुरान आभा घेर लेती है भोर की और फिर सूरज निकलता है, तो सुबह | | कितनी ही भिन्न हो गीता से, और गीता कितनी ही भिन्न हो बाइबिल के सूरज के साथ भी आंखों को मिलाना आसान है; वह बाल-सूर्य | से, लेकिन एक मामले में जगत के सारे शास्त्र सहमत हैं, और वह है। और अगर कोई सुबह से ही अभ्यास करता रहे सूर्य के साथ है प्रकाश। सारे धर्म एक बात से सहमत हैं, और वह है, प्रकाश आंख मिलाने का, तो दोपहर के सूर्य के साथ भी आंख मिला की परम अनुभूति। सकता है। आभा से शुरू करे, बाल-सूर्य से बढ़ता रहे और विज्ञान और धर्म दोनों एक नतीजे पर पहुंचे हैं, अलग-अलग धीरे-धीरे, धीरे-धीरे...। रास्तों से। विज्ञान पहुंचा है पदार्थ को तोड़-तोड़कर इस नतीजे पर मेरे गांव में मैं एक आदमी को जानता हूं, जो भैंस को पूरा का | कि अंतिम कण, अविभाजनीय कण, प्रकाश है। और धर्म पहुंचा पूरा उठा लेता था। वह गांव में अजूबा था। किसकी हिम्मत, पूरी | है स्वयं के भीतर डूबकर इस नतीजे पर कि जब कोई व्यक्ति अपनी भैंस को उठा ले! वह उठा लेता था। मैं पूछताछ किया, तो उसने | पूरी गहराई में डूबता है, तो वहां भी प्रकाश है; और जब उस गहराई बताया कि जब से यह भैंस छोटा बच्चा जब हुआ था, तब से मैं | से बाहर देखता है, तो सब चीजें विलीन हो जाती हैं, सिर्फ प्रकाश इसे रोज उठाकर घंटेभर चलने का अभ्यास कर रहा हूं। भैंस का रह जाता है। बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होता गया, उसका अभ्यास भी साथ-साथ | अगर यह सारा जगत प्रकाश रह जाए, तो निश्चित ही हजारों बढ़ता चला गया। अब भैंस पूरी भैंस हो गई है, अब भी वह उठा | सूर्य एक साथ उत्पन्न हुए हों, ऐसा अनुभव होगा। हजार भी सिर्फ लेता है। | संख्या है। अनंत सूर्य! अनंत से भी हमें लगता है कि गिने जा बाल-सूर्य के साथ जो यात्रा शुरू करेगा, वह धीरे से जब दोपहर | | सकेंगे, कुछ सीमा बनती है। नहीं, कोई सीमा नहीं बनेगी। अगर का प्रौढ़ सूर्य होगा, तब भी आंखें सूर्य से मिला सकेगा और आंखें | पृथ्वी का एक-एक कण एक-एक सूर्य हो जाए। और है। एक-एक अंधेरी न होंगी। ईश्वर इसीलिए हमने शब्द चुना है। ऐश्वर्य से शुरू कण सूर्य है। पदार्थ का एक-एक कण विद्युत ऊर्जा है। करना, अन्यथा भयंकर अंधेरी रात भी आ सकती है भीतर, जो वर्षों | तो तब कोई गहन अनुभव में उतरता है अस्तित्व के, तो प्रकाश 285 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 ही प्रकाश रह जाता है। संजय इसी तरफ धृतराष्ट्र को कह रहा है कि और हे राजन्... । लेकिन बेचारे धृतराष्ट्र को क्या समझ में आया होगा ! उसे तो दीया भी दिखाई नहीं पड़ता। सूर्य तो सुना है । हजार सूर्य कहने से क्या फर्क पड़ेगा, क्योंकि सूर्य का पता हो तो हजार गुना भी कर धृतराष्ट्र को क्या समझ में आया होगा ! हजार-हजार सूर्य के उत्पन्न होने से जैसा प्रकाश हो, विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश वह भी कदाचित ही हो पाए । लेकिन धृतराष्ट्र समझ गया होगा शब्द, क्योंकि सूर्य शब्द उसने सुना है, प्रकाश शब्द भी उसने सुना है, हजार शब्द भी उसने सुना है। ये सब शब्द उसकी समझ में आ गए होंगे। लेकिन वह बात जो संजय समझाना चाहता था, वह बिलकुल समझ में नहीं आई होगी। यही हम सब की भी दुर्दशा है। सब शब्द समझ में आ जाते हैं, और उनके पीछे जो है, वह समझ के बाहर रह जाता है। शब्दों को लेकर हम चल पड़ते हैं। संगृहीत हो जाते हैं शब्द, और उनके भीतर जो कहा गया था, वह हमारे खयाल में नहीं आता । ईश्वर ! सुन लेते हैं, समझ में आ जाता है। ऐसा लगता है कि समझ गए कि ईश्वर कहा। लेकिन क्या कहा ईश्वर से ? आत्मा ! सुन लिया। कान में पड़ी चोट । पहले भी सुना था । शब्दकोश में अर्थ भी पढ़ा है। समझ गए कि ठीक। आत्मा कह रहे हैं। लेकिन क्या मतलब है? जब मैं कहता हूं घोड़ा, तो एक चित्र बनता है आंख में। जब मैं कहता हूं आत्मा, कुछ भी नहीं होता, सिर्फ शब्द सुनाई पड़ता है। शब्द भ्रांति पैदा कर सकते हैं, क्योंकि शब्द हमारी समझ में आ जाते हैं। इसे ध्यान रखना जरूरी है कि शब्दों की समझ को आप अपनी समझ मत समझ लेना। उनके पार खोज करते रहना। और जो शब्द सिर्फ सुनाई पड़े और भीतर कोई अनुभव पकड़ में न आए, फौरन पूछ लेना कि यह शब्द समझ में तो आता है, लेकिन अनुभव हमारे भीतर इसके बाबत कोई भी नहीं ! अनुभव से कोई हमारा अर्थ नहीं निकलता। तो ही आदमी साधक बन पाता है। और नहीं तो शास्त्रीय होकर समाप्त हो जाता है। शास्त्र सिर पर लद जाते हैं, बोझ भारी हो जाता है। आत्मा वगैरह तो कभी नहीं मिलती, शास्त्र ही इकट्ठे होते चले जाते हैं। और धीरे-धीरे आदमी उन्हीं के नीचे दब जाता है । धृतराष्ट्र ने सुना तो होगा, समझा क्या होगा ! ऐसे आश्चर्यमय रूप को देखते हुए, पांडुपुत्र अर्जुन ने उस काल में अनेक प्रकार से विभक्त हुए, पृथक-पृथक हुए संपूर्ण जगत को श्रीकृष्ण भगवान के शरीर में एक जगह स्थित देखा। यह दूसरी बात। यह प्रकाश के अनुभव के बाद ही घटित होती है। यह सारी श्रृंखला खयाल में रखना - ऐश्वर्य, प्रकाश, एकता । जब तक हमें जगत में पदार्थ दिखाई पड़ रहा है, तब तक हमें अनेकता दिखाई पड़ेगी। एक तरफ मिट्टी का ढेर लगा है, एक तरफ सोने का ढेर लगा है | लाख कोई समझाए कि सोना भी मिट्टी है, और लाख, हम कहें, लेकिन फिर भी भेद दिखाई पड़ता रहेगा। और अगर चुराकर भागने की नौबत आई, तो हम मिट्टी चुराकर भागने वाले नहीं हैं। और | ऐसा सामान्य आदमी की बात नहीं है, जिनको हम समझदार कहें, साधु कहें, महात्मा कहें, वे कहते रहते हैं कि मिट्टी-सोना बराबर है और एक है। एक स्वामी को मैं जानता हूं, वे बड़े संन्यासी हैं। सोने को हाथ नहीं लगाते, और कहते हैं कि सोना-मिट्टी एक है। तो मैं उनके आश्रम में ठहरा हुआ था। तो मैंने कहा, जब एक ही है, तो फिर मिट्टी को भी हाथ लगाना बंद कर दो। और या फिर सोने को भी | लगाते रहो! इतनी फिर चिंता क्या है? बोले, सोने को मैं हाथ नहीं लगा सकता। सोना तो मिट्टी है। उनके खयाल में भी नहीं आ रहा कि वे क्या कह रहे हैं! सोने को मैं हाथ नहीं लगा सकता; सोना मिट्टी है । यह वे अपने को समझा रहे हैं कि सोना मिट्टी है; हाथ नहीं लगा सकते। लेकिन डर क्या है ? मिट्टी से तो कोई भी नहीं डरता; फिर सोने से इतना डर | क्या है? वह डर बता रहा है कि मिट्टी मिट्टी है, सोना सोना है। और सोने को हाथ नहीं लगाते, मिट्टी को तो मजे से लगाते हैं। तो फिर बात एक ही है, कोई सोने को तिजोड़ी में भर रहा है, क्योंकि वह मानता है, सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी है। कोई कह रहा है, सोने को हाथ न लगाएंगे। लेकिन दोनों को भेद है। भेद में कोई अंतर नहीं पड़ा है। कोई अंतर नहीं पड़ा है। दृष्टि बदल गई है, उलटा हो गया रुख, लेकिन भेद कायम है। और मिट्टी सोना हो कैसे सकती है आपकी आंख में? कितनी ही नीति समझाएं, और कितना ही धर्म-शास्त्र, सोना मिट्टी हो कैसे सकती है? यह तो तभी हो सकती है, जब सोने का भी परम रूप आपको दिखाई पड़ जाए और मिट्टी का भी परम रूप आपको | दिखाई पड़ जाए। सोना भी प्रकाश है परम रूप में और मिट्टी भी । जब दोनों प्रकाशित हो जाएं, सोना भी खो जाए, मिट्टी भी खो जाए, सिर्फ प्रकाश की किरणें ही रह जाएं, प्रकाश का जाल ही रह जाए; 286 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ धर्म है आश्चर्य की खोज उस दिन आपको पता चलता है कि सोना, मिट्टी, दो नहीं हैं। उसके कर रहा है, कि तुम गलत हो, मैं सही हूं। लेकिन अगर कोई गलत पहले पता नहीं चलता। यह कोई नैतिक सिद्धांत नहीं है कि सोना, | है और कोई सही है, तो कम से कम दो तो हो ही गए जगत में, कि मिट्टी एक! यह एक आध्यात्मिक अनुभव है। कोई गलत है, कोई सही है। ___ जगत एक है, इसका अनुभव तभी होगा, जब जगत की जो | एक का अनभव उस द्वैतवादी में भी उसी प्रकाश को देखेगा. मौलिक इकाई है, उसका हमें पता चल जाए। नहीं तो एक जगत और उस द्वैतवादी की वाणी में भी उसी प्रकाश को देखेगा, और उस नहीं है। कैसे एक है? कैसे मानिएगा एक? सब चीजें | द्वैतवादी के सिद्धांत में भी वही प्रकाश को देखेगा, जो वह अलग-अलग दिखाई पड़ रही हैं। पत्थर पत्थर है। सोना सोना है। अद्वैतवाद में, अद्वैतवादी की वाणी में, अद्वैतवादी के शब्दों में मिट्टी मिट्टी है। वृक्ष वृक्ष है। आदमी आदमी है। सब अलग दिखाई देखता है। सभी शब्द उसी प्रकाश का रूपांतरण हैं-सभी पड़ रहे हैं। लेकिन अगर सबका जो कांस्टिटयूएंट, सबको बनाने सिद्धांत, सभी शास्त्र, सभी वाद। जिस दिन ऐसे प्रकाश का वाला जो घटक है भीतर–चाहे आदमी के शरीर के कण हों, और अनुभव होता है, उस दिन वाद गिर जाता है। उस दिन अनुभव। चाहे सोने के कण हों. और चाहे मिट्टी के कण हों वे सभी कण | ___ संजय ने कहा, इस प्रकाश के अनुभव के बाद अर्जुन ने भगवान प्रकाश के कण हैं। | के शरीर में जो-जो चीजें पृथक-पृथक हो गई हैं, उनको एक जगह अगर यह दिखाई पड़ जाए कि सभी तरफ प्रकाश ही प्रकाश है, स्थित देखा, एक हुआ देखा। और उसके अनंतर वह आश्चर्य से तो भेद खो जाएगा। तब वह आदमी यह नहीं कहेगा कि मिट्टी भी युक्त हुआ, हर्षित रोमों वाला अर्जुन, विश्वरूप परमात्मा को सोना है, सोना भी मिट्टी है। वह पूछेगा, कहां है मिट्टी? कहां है श्रद्धा-भक्ति सहित सिर से प्रणाम करके, हाथ जोड़े हुए बोला। सोना? वह पूछेगा, प्रकाश ही है, वे सारे भेद कहां? वे सब खो गए। इसमें कई बातें खयाल में ले लेने की हैं। 'इसलिए प्रकाश के बाद अद्वैत का अनुभव होता है, प्रकाश के और उसके अनंतर वह आश्चर्य से युक्त हुआ...। पहले नहीं। जिसको परम प्रकाश का अनुभव हुआ, वही अद्वैत को आश्चर्य, हम सभी सोचते हैं, हम सबको होता है। सिर्फ धारणा अनुभव कर पाता है। है हमारी। आश्चर्य बड़ी कीमती घटना है। और तभी होता है संजय ने कहा, इस महाप्रकाश के अनुभव के बाद अर्जुन ने आश्चर्य का अनुभव, जब उसके हम सामने खड़े होते हैं, जिस पर समस्त विभक्त चीजों को, समस्त खंड-खंड, अलग-अलग बंटी हमारी समझ कोई भी काम नहीं करती। अगर आपकी समझ काम हुई चीजों को उन परमात्मा में एक ही जगह एक रूप स्थित देखा। कर सकती है, तो वह आश्चर्य नहीं है। जल्दी ही आप आश्चर्य को सब एक हो गया। सारे भेद गिर गए। सारी सीमाएं, जो भिन्न हल कर लेंगे। जल्दी ही आप कोई उत्तर खोज लेंगे। जल्दी ही आप करती हैं, वे तिरोहित हो गईं। और एक असीम सागर रह गया। कोई विचार निर्मित कर लेंगे और किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे; प्रकाश का ऐसा सागर अनुभव हो जाए, तो अद्वैत का अनुभव आश्चर्य समाप्त हो जाएगा। हुआ है। अद्वैत कोई सिद्धांत नहीं है। अद्वैत कोई फिलासफी नहीं है। आश्चर्य का अर्थ है, जिसके सामने आपकी बुद्धि गिर जाए। अद्वैत कोई वाद नहीं है कि आप तर्क से समझ लें कि सब एक है। जिसके साथ आप बुद्धिगत रूप से कुछ भी न कर सकें। जिसके बड़े मजे की बात है। लोग तर्क से समझते रहते हैं कि सब एक सामने आते ही आपको पता चले, मेरी बुद्धि तिरोहित हो गई। अब है। और तर्क से सिद्ध करते रहते हैं कि दो नहीं हैं, एक है। लेकिन | मेरे भीतर कोई बुद्धि नहीं है। अब मैं विचार नहीं कर सकता। अब उन्हें पता ही नहीं कि जहां भी तर्क है वहां दो रहेंगे, एक नहीं हो | विचार करने वाला बचा ही नहीं। जहां बुद्धि तिरोहित हो जाती है, सकता। तर्क चीजों को बांटता है, जोड़ नहीं सकता। वाद चीजों को | तब जो हृदय में अनुभव होता है, उसका नाम आश्चर्य है। बांटता है, एक नहीं कर सकता। विचार खंडित करता है, इकट्ठा और उस आश्चर्य में आपके सारे रोएं खड़े हो जाते हैं। आपने नहीं कर सकता। कभी-कभी रोओं को खड़ा देखा होगा, कभी किसी दुख में, कभी इसलिए अद्वैतवादी एक रोग है। अद्वैत का अनुभव तो एक | | किसी आकस्मिक घटना में, कभी किसी बहुत अचानक आ गए महाअनुभव है। लेकिन अद्वैतवाद, कोई अद्वैतवादी हो जाए, वह | | भय की अवस्था में। लेकिन आश्चर्य में आपके रोएं कभी खड़े नहीं एक तरह का रोग है। वह लड़ रहा है। वह द्वैतवादी को गलत सिद्ध हुए। आश्चर्य में! क्योंकि आश्चर्य तो आपने कभी किया ही नहीं। 287 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 और आज की सदी में तो आश्चर्य बिलकुल मुश्किल हो गया है। सभी चीजों के उत्तर पता हो गए हैं। और सभी चीजों का विश्लेषण हमारे पास है । और ऐसी कोई भी चीज नहीं, जिसको हम न समझा सकें, इसलिए आश्चर्य का कोई सवाल नहीं है। इसलिए आज की सदी जितनी आश्चर्य - शून्य सदी है, मनुष्य जाति के इतिहास में कभी भी नहीं रही। छोटे-छोटे बच्चे थोड़ा-बहुत आश्चर्य करते हैं, थोड़ा-बहुत । क्योंकि अब तो बच्चे भी खोजना बहुत मुश्किल है। अब तो बच्चे होते से ही हम उनको बूढ़ा करने में लग जाते हैं। पुरानी सदियां थीं, वे कहते थे, बूढ़े फिर से बच्चे हो जाएं, तो परम अनुभव को उपलब्ध होते हैं। हमारी कोशिश यह है। कि बच्चे जितने जल्दी बूढ़े हो जाएं, तो संसार में ठीक से यात्रा करते हैं। तो सब मिलकर - शिक्षा, समाज, संस्कार - बच्चे को बूढ़ा करने में लगते हैं कि वह जल्दी बूढ़ा हो जाए। आपकी नाराजगी क्या है आपके बच्चे से ? इसीलिए कि तू जल्दी बूढ़ा क्यों नहीं हो रहा ! आप हिसाब-किताब लगा रहे हैं अपनी बही में और वह वहीं तुरही बजा रहा है। आप उसको डांट रहे हैं कि बंद कर। वह वहीं नाच रहा है । आप उसको रोक रहे हैं कि विघ्न-बाधा खड़ी मत कर। आप कर क्या रहे हैं? आप यह कोशिश कर रहे हैं कि तू भी मेरे जैसा बूढ़ा जल्दी हो जा । खाते-बही हाथ में ले हिसाब लगा। यह तुरही बजाना और नाचना! यह क्या कर रहा है ! हमारे लिए किसी को यह कह देना कि क्या बचकानी हरकत कर रहे हो, काफी निंदा का उपाय है। बच्चा निंदित है आज। लेकिन बच्चे में थोड़ा-बहुत आश्चर्य है। वह भी हम ज्यादा देर बचने नहीं देंगे। क्योंकि जैसे-जैसे हम समझदार होते जा रहे हैं, बच्चे की उम्र स्कूल भेजने की कम होती जा रही है। पहले हम उसको सात साल में भेजते थे, अब पांच साल भेजते हैं, अब ढाई साल में भेजने लगे। और अब रूस में वे कहते हैं कि यह भी समय बहुत ज्यादा है, इतनी देर रुका नहीं जा सकता। ढाई साल ! तब क्या करिएगा ! तो वे कहते हैं, अब बच्चे को, जब वह अपने झूले में झूल रहा है, तब भी बहुत-सी बातों में शिक्षित किया जा सकता है। और उनके विचारक तो और दूर तक गए हैं। वे कहते हैं कि मां के गर्भ भी बच्चे में बहुत तरह की कंडीशनिंग डाली जा सकती है। और जो संस्कार मां के गर्भ में डाल दिए जाएंगे, वे जीवन पर्यंत पीछा करेंगे, उनसे फिर बचा नहीं जा सकता। तो इसका मतलब यह हुआ कि हम आज नहीं कल, बच्चे को | गर्भ में भी स्कूल में डाल देंगे, सिखाना शुरू कर देंगे। हम उसको पैदा ही नहीं होने देंगे कि वह आश्चर्य करता हुआ पैदा हो। वह जानकारी लेकर ही पैदा होगा। अभी वे कहते हैं कि आज नहीं कल, जैसे आज हृदय को | ट्रांसप्लांट करने के उपाय हो गए कि एक आदमी का हृदय खराब | हो गया है, तो दूसरा आदमी का हृदय डाल दिया जाए; नवीनतम जो विचार है - अब वे काम में लग गए हैं, वह इस सदी के पूरे होते-होते पूरा हो जाएगा – वे कहते हैं, जब एक बूढ़ा आदमी | मरता है, तो उसकी स्मृति को क्यों मरने दिया जाए, वह ट्रांसप्लांट | कर दी जाए। एक बूढ़ा आदमी मर रहा है, अस्सी साल का अनुभव और स्मृति, वह सब निकाल ली जाए मरते वक्त, जैसे हम हृदय को निकालते हैं। उसके पूरे मस्तिष्क के यंत्र को निकाल लिया जाए, और एक छोटे बच्चे में डाल दिया जाए। तो उनका कहना यह है कि वह छोटा बच्चा बूढ़े की सारी स्मृतियों के साथ काम शुरू कर देगा। जो बूढ़े ने जाना था, वह इस बच्चे को मुफ्त उपलब्ध हो जाएगा; इसको सीखना नहीं पड़ेगा । और प्रयोग इस तरफ काफी सफल हैं। इसलिए बहुत ज्यादा देर की जरूरत नहीं है। काफी सफल हैं! | अगर हम किसी दिन स्मृति को, मेमोरी को ट्रांसप्लांट कर सके, | तो फिर तो बच्चे कभी पैदा ही नहीं होंगे। इस जरात में फिर कोई बच्चा ही नहीं होगा। सिर्फ कम उम्र के बूढ़े, बड़े उम्र के बूढ़े, बस | इस तरह के लोग होंगे। अभी-अभी पैदा हुए बूढ़े, नवजात बूढ़े, बहुत देर से टिके बूढ़े, इस तरह के लोग होंगे। आश्चर्य के खिलाफ हम लगे हैं। हम जगत से रहस्य को नष्ट करने में लगे हैं। हमारी चेष्टा यही है कि ऐसी कोई भी चीज न रह जाए, जिसके सामने मनुष्य को हतप्रभ होना पड़े। ऐसा कोई सवाल न रहे जिसका जवाब आदमी के पास न हो। लेकिन इसका सबसे घातक परिणाम हुआ है और वह यह कि एक अनूठा अनुभव, आश्चर्य, मनुष्य के जीवन से तिरोहित हो गया है। इसलिए धर्म है रहस्य | और धर्म है आश्चर्य की खोज । संजय ने कहा, आश्चर्य से युक्त हुआ... । यह अर्जुन कोई साधारण व्यक्ति नहीं था, पूर्ण सुशिक्षित। उस समय का ठीक-ठीक संस्कृत; उस समय जो भी संभावना हो सकती थी शिखर पर होने की, ऐसा व्यक्ति था । इसको आश्चर्य से भर देना आसान मामला नहीं है। वह तो आश्चर्य से तभी भरा | होगा, जब इस विराट के उदघाटन के समक्ष उसकी क्षुद्र बुद्धि के 288 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म है आश्चर्य की खोज सब तंतु टूट गए होंगे। जब उसकी कुछ भी समझ में नहीं आया होगा । और जब उसको लगा होगा कि मैं समझ के पार गया। अब मेरा अनुभव, मेरा ज्ञान, मेरी बुद्धि, कोई भी काम नहीं करती। तब उसका रो-रोआं खड़ा हो गया होगा। तब वह आश्चर्य से चकित हुआ, आश्चर्य से युक्त हुआ, हर्षित रोमों वाला...। उसका रो-रो आनंद से नाचने लगा होगा। क्यों? क्योंकि बुद्धि दुख है। और जब तक बुद्धि का साथ है, तब तक दुख से कोई छुटकारा नहीं । बुद्धि दुख की खोज है। इसलिए बुद्धिमान आदमी वह है कि जहां दुख हो भी न, वहां भी दुख खोज ले। दुख खोजने की जितनी कुशलता आप में हो, उतने आप बुद्धिमान हैं। करते क्या हैं आप बुद्धि से ? थोड़ा समझें । कोई पशु मृत्यु से परेशान नहीं है। मृत्यु की कोई छाया पशुओं के ऊपर नहीं है। मृत्यु आती है, पशु मर जाता है। लेकिन मृत्यु के बाबत बैठकर सोचता- विचारता नहीं है। आदमी मरेगा, तब मरेगा; उसके पहले हजार दफे मरता है। जब भी सड़क पर कोई मरता है, फिर मरे । फिर किसी की अर्थी निकली, फिर अपनी अर्थी निकली। फिर किसी को मरघट की तरफ ले जाने लगे लोग राम-राम सत्य कहकर, फिर आप मरे — रोज, हर घड़ी । क्या, कारण क्या है? जीवन दिखाई नहीं पड़ता बुद्धि को, मृत्यु दिखाई पड़ती है । जीवन बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता । मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि जीवन क्या है ? जी रहे हैं। अभी जिंदा हैं। सांस लेते हैं। इधर चलकर आ गए हैं। पूछ रहे हैं। और पूछते हैं, जीवन क्या है ? तो अगर जीते जी आपको पता नहीं चला जीवन का, तो फिर कब पता चलेगा, मरकर? और आप जी रहे हैं, आपको पता नहीं, और मुझसे पूछने चले आए हैं ! अगर जीकर पता नहीं चल रहा है, तो मेरे जवाब से पता चलेगा ? नहीं । बुद्धि जीवन को देख ही नहीं पाती, यह तकलीफ है। बुद्धि मौत को देखती है। जब आप स्वस्थ होते हैं, तब आप नाचते नहीं। लेकिन जब बीमार होते हैं, तब रोते जरूर हैं। यह बड़े मजे की बात है। जब बीमार होते हैं, तो रोते हैं। लेकिन जब स्वस्थ होते हैं, तो कभी आपको नाचते नहीं देखा । बुद्धि सुख को देखती ही नहीं, दुख को ही देखती है। बुद्धि ऐसी ही है, जैसे आपका एक दांत गिर जाए और जीभ उसी उसी जगह को खोजे, जहां दांत गिर गया; और जब तक था, तब तक दांत की कोई चिंता नहीं, इस जीभ ने उसकी कोई चिंता न की । तब तक मिलने के उपाय थे। अगर यही प्रेम इतना ज्यादा था इस दांत से, तो मिल लेना था। लेकिन अब जब गिर गया, तब गड्ढे में जीभ उसको खोजती है ! वह बुद्धि है। बुद्धि हमेशा अभाव को खोजती है। आपकी पत्नी है। जब मरेगी, तब आपको पता चलेगा, थी । फिर आप रोएंगे कि प्रेम कर लिए होते, तो अच्छा था। जो खो जाए, वह दिखाई पड़ता है, या जो न हो, वह दिखाई पड़ता है बुद्धि को । जो हो, जो है, वह बिलकुल नहीं दिखाई पड़ता। अस्तित्व से बुद्धि का संबंध ही नहीं होता, अभाव से संबंध होता है । जब नहीं होती कोई चीज, तब बुद्धि को पता चलता है । और इसकी वजह से जीवन में कई वर्तुल पैदा होते हैं। एक वर्तुल तो यह पैदा होता है कि जो हमारे पास नहीं है, वह हमें दिखाई पड़ता है। | जब पास आ जाता है, तब दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। तब फिर हमारे पास जो नहीं है, वह दिखाई पड़ता है। लोग कहते हैं, यह वासना की भूल है। यह वासना की भूल नहीं है, यह बुद्धि की भूल है। लोग कहते हैं, वासना के कारण ऐसा हो रहा है। वासना के कारण ऐसा नहीं हो रहा है, बुद्धि के कारण ऐसा हो रहा है। बुद्धि देखती ही खाली जगह को है, जहां नहीं है। तो अभी जो आपके पास नहीं है, जो मकान नहीं है, उसकी वजह से दुख पा रहे हैं। जो कार नहीं है, उसकी वजह से दुख पा रहे हैं। जो पत्नी, पति, बेटा नहीं है, उसकी वजह से दुख पा रहे हैं। जिनके पास है, उनको उससे कोई सुख नहीं मिल रहा। इसे थोड़ा समझ लें। जो मकान आपके पास नहीं है, उससे आप दुख पा रहे हैं। जो नहीं है, उससे ! और जिसके पास है, जरा उसके पास पूछें कि कितना आनंद पा रहा है उस मकान से ! वह कोई आनंद नहीं पा रहा है। वह भी दुख पा रहा है। वह किसी दूसरे मकान से दुख पा रहा है, जो | उसके पास नहीं है। यह उलटा दिखाई पड़ेगा। लेकिन हम उससे दुखी हैं, जो नहीं है। और हम उससे बिलकुल सुखी नहीं हैं, जो है । मैं एक घर में ठहरता था, किसी गांव में। तो जिस घर में ठहरता था, उस घर की गृहिणी - मैं तीन दिन या चार दिन उनके घर वर्ष में रहता - चार दिन सतत रोती रहती। मैंने उससे पूछा कि बात क्या है ? उसका मुझसे लगाव था। वह कहती कि जब आप आते हैं, तो बस मुझे यह फिक्र हो जाती है कि बस, अब आप चार दिन बाद जाएंगे! जब आप नहीं होते, तब मैं सालभर आपके लिए रोती हूं, राह देखती हूं। और जब आप होते हैं, तब इसलिए रोती हूं कि अब 289 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 ये चार दिन बीते ! आप जाएंगे। वह स्त्री बुद्धिमान है। मेरे चार दिन वहां रहने से आनंदित नहीं हो पाती। वे चार दिन भी दुख के ही कारण हैं। क्योंकि बुद्धि सिर्फ दुख को ही खोजती है। अगर वह निर्बुद्धि हो सके, तो हालत उलटी हो जाएगी। जब मैं उसके घर रहूंगा, तब वह आनंदित होगी, नाचेगी कि मैं उसके घर हूं। और जब मैं वर्षभर उसके घर नहीं रहूंगा, तब वह आनंद से प्रतीक्षा करेगी कि अब मैं आता हूं। लेकिन उसके लिए निर्बुद्धि होना पड़े। बुद्धिमान यह काम नहीं कर सकता। बुद्धि की तलाश ही अभाव की तलाश है, अस्तित्व की तलाश नहीं है। अर्जुन की बुद्धि गिरी होगी, तो वह आश्चर्य से भर गया । उसका रो-रोआं हर्ष से कंपित होने लगा। रोआं- रोआं ! ध्यान रहे, जब अनुभव घटित होता है, तो वह सिर्फ आत्मा में ही नहीं होता; वह शरीर के रोएं रोएं तक फैल जाता है। इसलिए आत्मिक अनुभव में शरीर समाविष्ट है। आप यह मत सोचना कि आत्मिक अनुभव कोई भूत-प्रेत जैसा अनुभव है, जिसमें शरीर का कोई समावेश नहीं होता। और आप यह भी मत सोचना कि शरीर के जो अनुभव हैं, वे सभी अनात्मिक हैं। शरीर का अनुभव भी इतना गहरा जा सकता है कि आत्मिक हो जाए। । और आत्मिक अनुभव भी इतने बाहर तक आ सकता है कि शरीर का रो-रो पुलकित हो जाए। और दोनों तरफ से यात्रा हो सकती है। आप अपने शरीर के अनुभव को भी इतना गहरा कर ले सकते हैं कि शरीर की सीमा के पार आत्मा की सीमा में प्रवेश हो जाए। योग, शरीर से शुरू करता है और भीतर की तरफ ले जाता है। भक्ति, भीतर की तरफ से शुरू करती है और बाहर की तरफ ले जाती है। बाहर और भीतर दो चीजों के नाम नहीं हैं, एक ही चीज के दो छोर हैं। इसलिए जो भी घटित होता है, वह पूरे प्राणों में स्पंदित होता है। ईश्वर का अनुभव भी रोएं - रोएं तक स्पंदित होता है। स्वामी राम अमेरिका से लौटे, तो वे राम का जप करते रहते थे। सरदार पूर्णसिंह उनके एक भक्त थे और उनके साथ रहते थे। एक रात सरदार पूर्णसिंह ने अचानक अंधेरी रात में राम, राम, राम की आवाज सुनी। पहाड़ी पर थे दोनों, एक छोटे-से झोपड़े में, एक ही कमरा था। कोई और तो था नहीं। स्वामी राम सोए थे। सरदार उठे। दीया जलाया। कौन आ गया यहां ? राम सोए हुए हैं । पूर्णसिंह बाहर गए, झोपड़ी का पूरा चक्कर लगा आए । कोई भी नहीं; लेकिन आवाज आ रही है। बाहर जाकर अनुभव में आया कि आवाज तो कमरे के भीतर से ही आ रही है; बाहर से नहीं आ रही है। भीतर आए। राम सो रहे हैं वहां ; और कोई है नहीं। राम के पास गए। जैसे-जैसे पास गए, आवाज बढ़ने लगी। राम के हाथ और पैरों के पास कान लगाकर सुना, राम की आवाज आ रही है। घबड़ा गए! क्या हो रहा है? जगाया राम को, कि यह क्या हो रहा है ? तो राम ने कहा, आज जप पूरा हुआ। जब तक रोआं-रोआं जप न करने लगे, तब तक अधूरा है। आज राम मेरे शरीर तक में प्रवेश | कर गए। आज रोआं- रोआं भी बोलने लगा और कंपित होने लगा। : जब परम अनुभव घटित होता है, तो रोएं - रोएं तक व्याप्त हो जाता है। शरीर भी पवित्र हो जाता है आत्मा के अनुभव में। और जब तक शरीर भी पवित्र न हो जाए आत्मा के अनुभव में, समझना अनुभव अधूरा है। जब तक शरीर भी पवित्र न हो जाए, तब तक समझना अधूरा है। यह संजय कह रहा है कि रोआं- रोआं हर्षित हो गया अर्जुन का । विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धा-भक्ति सहित सिर से प्रणाम करके, हाथ जोड़े हुए बोला। इसमें फिर भाषा की कठिनाई है। ऐसे क्षण में हाथ जोड़ने नहीं पड़ते, जुड़ जाते हैं। यह कोई अर्जुन ने हाथ जोड़े होंगे, ऐसा नहीं; जैसा आप जोड़ते हैं कि चलो, गुरुजी आ रहे हैं, हाथ जोड़ो। न जोड़ेंगे, तो बुरा मान जाएंगे। और फिर कर्तव्य भी है। और फिर संस्कार भी है। और हाथ जोड़ने से अपना बिगड़ेगा भी क्या ! कुछ मिलता होगा, तो मिल ही जाएगा। तो जोड़ लो। आपके हाथ जोड़ने में भी व्यवसाय है, और चेष्टा है। आप न | जोड़ें, तो हाथ जुड़ेंगे नहीं। आपको जोड़ना पड़ते हैं। अर्जुन को उस क्षण में जोड़ने पड़े नहीं होंगे, जुड़ गए होंगे। कुछ उपाय ही न रहा होगा। हाथ जुड़ गए होंगे। सिर झुक गया होगा। इसलिए मैं कहता हूं कि भाषा की भूल है। संजय समझा रहा है; भाषा की तकलीफ है। उसको कहना पड़ रहा है कि अर्जुन ने हाथ जोड़े, श्रद्धा-भक्ति से भरकर सिर झुकाया । नहीं, न तो हाथ जोड़े, न श्रद्धा-भक्ति से भरकर सिर झुकाया। | श्रद्धा-भक्ति से भर गया। यह घटना है। इसमें कोई श्रम नहीं है। | आप भी श्रद्धा-भक्ति से भरते हैं। भरने का मतलब होता है कि | आप चेष्टा करते हैं कि श्रद्धा-भक्ति से भरो। मंदिर में जाते हैं; श्रद्धा-भक्ति से भरकर सिर झुकाते हैं । सब झूठा होता है। सब अभिनय होता है। नहीं तो कोई श्रद्धा-भक्ति से अपने को चेष्टा से 290 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म है आश्चर्य की खोज कैसे भर सकता है? या तो भीतर से बहती हो; और न बहती हो, तो कैसे भरिएगा? अभिनय कर सकते हैं, एक्ट कर सकते हैं। देखें मंदिर में खड़े आदमी को । और उसी आदमी को मंदिर के बाहर सीढ़ियों से उतरते हुए देखें। और उसी आदमी को दुकान पर बैठे हुए देखें। आप पाएंगे, ये तीन आदमी हैं। यह एक ही आदमी मालूम नहीं पड़ता। यही आदमी मंदिर में हाथ - सिर झुकाकर खड़ा था, कैसी श्रद्धा-भक्ति से भरा हुआ ! लेकिन यह श्रद्धा-भक्ति को मंदिर में ही छोड़ आता है। और मंदिर में केवल वही श्रद्धा-भक्ति छोड़ी जा सकती है, जो रही ही न हो। जो रही हो, तो छोड़ी नहीं जा सकती। वह साथ ही आ जाएगी। श्रद्धा-भक्ति कोई जूते की तरह नहीं है, कि उतार दिया, पहन लिया ! प्राण है। अर्जुन को इस क्षण में जब इतना आश्चर्य का अनुभव हुआ और जब इतने प्रकाश से भर गया, आच्छादित हो गया, तो श्रद्धा-भक्ति र नहीं पड़ी हो गई। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि गुरु वह नहीं है, जिसको आपको प्रणाम करना पड़े। गुरु वह है, जिसके सान्निध्य में प्रणाम हो जाए। आपको करना पड़े, तो कोई मूल्य नहीं है; हो जाए। अचानक आप पाएं कि आप प्रणाम कर रहे हैं। अचानक आप पाएं कि आप झुक गए हैं। मैं एक विश्वविद्यालय में था । तो वहां शिक्षकों की तो सारे मुल्क में, सारी दुनिया में एक ही चिंता है कि विद्यार्थी कोई आदर नहीं | देते; अनुशासन नहीं है। तो उस विश्वविद्यालय के सारे शिक्षकों ने एक समिति बुलाई थी विचार के लिए। भूल से मुझे भी बुला लिया। वे भारी चिंता में पड़े थे कि अनुशासन नहीं है। कोई आदर नहीं . करता है। श्रद्धा खो गई है। और गुरु का आदर, तो हमारे देश में तो कम से कम होना ही चाहिए। तो मैंने उनसे पूछा कि मुझे एक व्याख्या पहले साफ-साफ समझा दें। | गुरु को आदर देना चाहिए, ऐसा अगर आप मानते हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि आदर देने के लिए विद्यार्थी स्वतंत्र है। दे, तो दे। न दे, तो न दे। और अगर आप ऐसा मानते हैं कि गुरु है ही वही जिसको आदर दिया जाता है, तो विद्यार्थी स्वतंत्र नहीं रह जाता। मेरी दृष्टि में तो गुरु वही है, जिसे आदर दिया जाता है। अगर विद्यार्थी आदर न दे रहे हों, तो बजाय इस चिंता में पड़ने के कि विद्यार्थी कैसे आदर दें, हमें इस चिंता में पड़ना चाहिए कि गुरु हैं या नहीं हैं ! गुरु खो गए हैं। गुरु हो, और आदर न मिले, यह असंभव है। आदर न मिले, तो यही संभव है कि गुरु वहां मौजूद नहीं है। गुरु का अर्थ ही यह है कि जिसके पास जाकर श्रद्धा-भक्ति पैदा हो। जिसके पास जाकर लगे कि झुक जाओ। जिसके पास झुकना आनंद हो जाए। जिसके पास झुककर लगे कि भर गए। जिसके पास झुककर लगे कि कुछ पा लिया। कहीं कोई हृदय के भीतर तक स्पंदित हो गई कोई लहर । अर्जुन झुक गया। श्रद्धा-भक्ति उसने अनुभव की । हाथ उसके जुड़ गए। सिर उसका झुक गया। और बोला, हे देव! आपके शरीर में संपूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को और कमल के आसन पर बैठे हुए ब्रह्मा को, महादेव को और संपूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों देखता हूं। और हे संपूर्ण विश्व के स्वामिन्, | आपके अनेक हाथ, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनंत रूपों वाला देखता हूं। और हे विश्वरूप, आपके न अंत को | देखता हूं, न मध्य को और न आदि को देखता हूं। और मैं आपका | मुकुटयुक्त, गदायुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज का पुंज, | प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, देखने में अति गहन और अप्रमेय स्वरूप सब ओर से देखता हूं। अर्जुन जो कह रहा है, वह बिलकुल अस्तव्यस्त हो गया है। ये जो वचन हैं उसके, जैसे होश में कहे हुए नहीं हैं। जैसे कोई बेहोश "हो, जैसे कोई शराब पी ले, मदहोश हो जाए और फिर कुछ कहे। और उसकी वाणी में सब अस्तव्यस्त हो जाए। और वह जो कहना चाहे, न कह सके। और जो कहे, उससे पूरी अभिव्यक्ति न हो। उस साधारण शराब में ऐसा हो जाता है, जिससे हम परिचित हैं। और जिस शराब में अर्जुन इस क्षण में डूब गया होगा, जिस हर्षोन्माद में, जिस एक्सटैसी में, वहां होश खो गया मालूम पड़ता है । वह जो कह रहा है, वह ऐसा है, जैसे छोटा बच्चा कहता चला जाता है। और फिर अनुभव करता है कि जो मैं कह रहा हूं, जो मैं देख रहा हूं, उसमें संगति नहीं है, तो बदल भी देता है। वह कहता है कि देखता हूं समस्त देवों को, समस्त भूतों को, कमल पर बैठे हुए ब्रह्मा को, महादेव को ... । बड़ी अनुभूतियां हैं। ब्रह्मा और महादेव दो छोर हैं। ब्रह्मा का है, जिसने किया सृजन । और महादेव का अर्थ है, जो करता है विध्वंस । अर्जुन यह कह रहा है कि साथ-साथ देखता हूं, ब्रह्मा को, महादेव को ! उसने जिसने जगत को बनाया, देखता हूं आपके भीतर। वह जो जगत को मिटाता है, उसको भी देखता हूं आपके भीतर। प्रारंभ सृष्टि का, अंत; जन्म, मृत्यु; साथ-साथ | देखता हूं । सारी शक्तियां, सारी दिव्य शक्तियां दिखाई पड़ रही हैं। 291 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-583 हे संपूर्ण विश्व के स्वामी, कितने आपके हाथ, कितने पेट, | उसे मध्य कहना गलत है। मध्य का मतलब ही यह है कि आदि कितने नेत्र! | और अंत के बीच में। जब हमें दोनों छोर ही नहीं दिखाई पड़ते, तो अगर हम थोड़ी कल्पना करें, तो खयाल में आ जाए। अगर हम | | इसे हम मध्य भी कैसे कहें! दो छोर के बीच का नाम मध्य है। अगर पृथ्वी के सारे मनुष्यों के हाथ जोड़ लें, सारे मनुष्यों के पेट जोड़ लें, | आपको दोनों छोर दिखाई ही नहीं पड़ते, तो हम इसे भी कैसे कहें सारे मनुष्यों की आंखें जोड़ लें, सारे मनुष्यों के सब अंग जोड़ लें, कि यह मध्य है! तो जो रूप बनेगा, वह भी पूरी खबर नहीं देगा। क्योंकि हमारी पृथ्वी | इसलिए अर्जुन कहता है कि न तो मुझे मध्य दिखाई पड़ता है, न बड़ी छोटी है। और ऐसी हजारों-हजारों पृथ्वियां हैं। और उन | अंत दिखाई पड़ता है, न प्रारंभ दिखाई पड़ता है। सब कुछ दिखाई हजारों-हजारों पृथ्वियों पर हम जैसे हजारों-हजारों प्रकार के जीवन | पड़ रहा है विराट, फिर भी मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है। यह हैं। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार पृथ्वियों | बिलकुल जैसे एक बेहोशी की घड़ी आदमी पर उतर आई हो। पर जीवन की संभावना है। | उसकी बुद्धि बिलकुल चकरा गई है। परमात्मा का तो अर्थ है, समस्त समष्टि का जोड़। तो हम ___ मैं आपका मुकुटयुक्त, गदायुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान सबको जोड लें। आदमियों को ही नहीं पश-पक्षियों को भी जोड | तेज का पुंज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, लें। और सारी अनंत पृथ्वियों के सारे जीवन को जोड़ लें, तब देखने में अति गहन और अप्रमेय स्वरूप सब ओर देखता है। कितने हाथ, कितने मुख, कितने पेट! वे सब अर्जुन को दिखाई पड़े बहुत गहन है जो मैं देख रहा हूं। गहन का यहां खयाल ले लेना होंगे। हम उसकी दुविधा समझ सकते हैं कि सब जुड़ा हुआ दिखाई जरूरी है। गहन का अर्थ है, जो मैं देख रहा हूं, वह-सतह मालूम पड़ा होगा। वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया होगा। उसकी कुछ समझ होती है। और सतह के पीछे और सतह, सतह के पीछे और सतह, में नहीं आता होगा कि क्या है! और सतह के पीछे और गहराइयां दिखाई पड़ रही हैं। यह ऐसा इसलिए वह फिर पूछ रहा है कि यह सब क्या है? और इतना | लगता है कि मैं आपके बाहर खड़े होकर देख रहा हूं। आपमें मुझे सब देखता हूं, फिर भी न तो आपका अंत दिखाई पड़ता है, न मध्य | | पहला पर्दा दिखाई पड़ रहा है। और उस पर्दे के पीछे-पर्दे दिखाई पड़ता है, न आदि दिखाई पड़ता है। यह सब देख रहा हूं, ट्रांसपैरेंट मालूम पड़ते हैं। जैसे नदी के किनारे खड़े हैं, और पानी फिर भी मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैं आपको पूरा देख रहा हूं, में गहराई दिखाई पड़ती है। और गहरा, और गहरा, और गहरा। क्योंकि प्रारंभ का मुझे कुछ पता नहीं चलता, अंत का भी कोई पता और यह गहराई कहां पूरी होती है, इसका मुझे कुछ पता नहीं है। नहीं चलता। ऐसा आपको गहन देखता हूं। इसमें थोड़ी-सी एक बड़ी कीमती बात है। अर्जुन कहता है, मध्य __ अप्रमेय! और जो देखता हूं, वह ऐसा है, जिसके लिए न तो भी दिखाई नहीं पड़ता। इसमें हमें थोड़ा संदेह होगा। क्योंकि फिर | कोई प्रमाण है कि मैं क्या देख रहा हूं। न मेरी बुद्धि के पास कोई जो दिखाई पड़ता है, वह क्या है? अर्जुन को दिखाई पड़ रहा है। तर्क है, जिससे मैं अनुमान कर सकूँ कि क्या देख रहा हूं। न मेरे इतने तक बात तर्कयुक्त है कि वह कहे. मझे प्रारंभ नहीं दिखाई | | पास कोई निष्पत्ति है, न कोई सिद्धांत है, कि मैं क्या देख रहा हूं! पड़ता, मुझे अंत नहीं दिखाई पड़ता। अप्रमेय का अर्थ है कि अगर अर्जुन दूसरे को कहेगा जाकर, तो आप एक नदी के किनारे खड़े हैं। न आपको नदी का प्रारंभ | | वह दूसरा समझेगा, यह पागल है। जो इसने देखा, इसका दिमाग दिखाई पड़ता है, न सागर में गिरती हुई नदी का अंत दिखाई पड़ता खराब हो गया। है, लेकिन मध्य तो दिखाई पड़ता है। जहां आप खड़े हैं, वह क्या इसलिए जिन्होंने देखा है उसे, वे कई बार तो, आप उन्हें पागल है? तो हमें लगेगा कि...लेकिन अर्जुन कहता है कि न मुझे प्रारंभ | न कहें, इसलिए आपसे कहने से रुक जाते हैं। क्योंकि अगर वे दिखाई पड़ता है, और न अंत दिखाई पड़ता है, और न मध्य दिखाई | कहेंगे, तो आप भरोसा तो करने वाले नहीं हैं। आपको शक होने पड़ता है! | लगेगा कि इस आदमी का इलाज करवाना चाहिए। यह क्या कह कारण हैं, उसके कहने का। क्योंकि जब हमें आदि न दिखाई | रहा है? यह जो कह रहा है, किसी भ्रम में खो गया है, किसी पड़ता हो, अंत न दिखाई पड़ता हो, तो जो हमें दिखाई पड़ता है, डिलूजन में। या तो विक्षिप्त हो गया है। 292 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म है आश्चर्य की खोज पड़ता है। आज पश्चिम के मनसविद कहते हैं कि जिन लोगों को हम | आया नहीं। पागल करार दे रहे हैं, उनमें सभी पागल हों, यह जरूरी नहीं है। | यह भी हो सकता है कि बुद्ध बहुत-से अनुभव कह ही न पाए उनमें कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जिन्होंने जगत को किसी और हों। एक बार जंगल से गुजरते वक्त आनंद ने बुद्ध से पूछा कि पहलू से देख लिया और मुसीबत में पड़ गए हैं। | आपने जो-जो जाना है, वह हमें कह दिया? तो बुद्ध ने—पतझड़ लेकिन जब एक दफा किसी और पहलू से कोई जगत को देख | | के दिन थे और सारे जंगल में सूखे पत्ते गिर रहे थे और उड़ रहे ले, तो हमारे बीच फिर गैर-फिट हो जाता है; फिर हमारे बीच बैठ थे-एक मुट्ठी में सूखे पत्ते ऊपर उठा लिए और कहा, आनंद, मेरी नहीं पाता। फिर वह जो कहता है, वह हमें मालूम पड़ता है कि मुट्ठी में कितने पत्ते हैं? आनंद ने कहा, चार-छः। और बुद्ध ने कहा, किसी स्वप्न की बात कर रहा है। या वह जो बताता है, हमारी भाषा | इस जंगल में कितने सूखे पत्ते जमीन पर पड़े हैं? आनंद ने कहा, में, हमारे अनुभव में उसका कोई मेल न होने से वह व्यर्थ मालूम अनंत। तो बुद्ध ने कहा, मैंने जितना जाना, वह इन अनंत पत्तों की तरह है। और जितना मैंने तुमसे कहा, वह जो ये मुट्ठी में मेरे पत्ते सूफी फकीर कहते रहे हैं कि जब तक योग्य आदमी न मिल हैं, इनकी भांति है। क्योंकि अमृत भी ज्यादा हो जाए, तो जहर हो जाए, तब तक अपने भीतर के अनुभव कहना ही मत, नहीं तो तुम जाता है। तुम झेल न पाओगे। मसीबत में पडोगे। और ऐसी मसीबत आती रही है। अलहिल्लाज | यह जो अर्जुन को दिखाई पड़ा विराट, अप्रमेय, जिसकी बुद्धि भल से चिल्लाकर कह दिया कि मैं ब्रह्म हं. अनलहक। लोगों ने | कभी कोई कल्पना भी नहीं कर सकती थी, अनुमान भी नहीं कर उसे पकड़कर उसकी हत्या कर दी। कि तुम और ब्रह्म! तुम? इसी | सकती थी, सोच भी नहीं सकती थी, जिसकी तरफ कोई उपाय न गांव में पैदा हुए। इसी गांव में बड़े हुए। और तुम ब्रह्म। यह कुफ्र | | था, वह उसे दिखाई पड़ा है। है। यह तुम पाप कर रहे हो कि तुम अपने को ब्रह्म कहो। । ___ यह अप्रमेय स्वरूप सब ओर देखता हूं। और ऐसा नहीं है कि अलहिल्लाज ने उन लोगों से बात कह दी, जिनसे नहीं कहनी | आप ही अप्रमेय हो गए, कृष्ण! अर्जुन कह रहा है, सब तरफ जो थी। निश्चित ही, उनको यह बात ऐसी मालूम पड़ी कि धोखा है। कुछ भी है इस समय, सभी बुद्धि-अतीत हो गया है। कुछ भी या तो यह आदमी पागल है, और या फिर धोखा दे रहा है। समझ में नहीं आता। मेरी समझ बिलकुल खो गई है। मैं बिलकुल अलहिल्लाज को अनुभव हुआ था। लेकिन जो हुआ था, वह इतना शून्य हो गया हूं। बड़ा था कि ब्रह्म से छोटे शब्द से नहीं कहा जा सकता था। और | आज इतना ही। जो हुआ था, वह इतना निकट था, अपने से भी ज्यादा निकट, कि | | रुकें। पांच मिनट कीर्तन करें, फिर जाएं। रुकें, कोई बीच में उठे इसके सिवाय कि मैं ब्रह्म हूं, कहने का और कोई उपाय नहीं था। न। और जब तक कीर्तन चलता है, पीछे दो मिनट धुन चलती है, .लेकिन यह गलत लोगों के बीच कह दी गई बात। तब तक धैर्य रखकर बैठे रहें; उठे न। इस मुल्क में हमने ऐसी व्यवस्था की थी कि जब भी इस तरह की घोषणाएं, इस तरह के अनुभव कोई कहे, तो उन लोगों को कहे, जो समझ सकते हों। उनको कहे, जो शब्द में न अटक जाएंगे उनको कहे, जिनकी खुद की भी कोई प्रतीति हो। कबीर से उसके शिष्य पूछते रहे निरंतर कि कहें कि आपको भीतर क्या हुआ है ? तो कबीर कहते थे, सुनने वाला आ जाए। थोड़ा रुको। एक दफा बुद्ध एक गांव में गए। सारे लोग इकट्ठे हो गए। बुद्ध बैठ गए। लेकिन वे देखते हैं चारों तरफ, जैसे किसी को खोजते हों। तो लोगों ने कहा, आप शुरू भी करिए! बुद्ध ने कहा कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। वह जो समझ सकता है इस गांव में, वह अभी | 293] Page #324 --------------------------------------------------------------------------  Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 चौथा प्रवचन परमात्मा का भयावह रूप Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-563 आठ वसु और साध्यगण, विश्वेदेव तथा अश्विनी कुमार और मरुदगण और पितरों का समुदाय तथा गंधर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धगणों के समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित हुए आपको देखते हैं। | एक मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि गीता चार व्यक्तियों के संयोग के कारण हमें उपलब्ध हो सकी है-कृष्ण, अर्जुन, संजय और धृतराष्ट्र। लेकिन गीता श्रीमद्भागवत का एक अंश है और श्रीमद्भागवत को महर्षि व्यास ने लिखा है। इसलिए महर्षि व्यास या संजय, कौन उसका मूल स्रोत है? त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ।।१८।। अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् । पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् । । १९ ।। द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः। दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् । । २०।। अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति। स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभि ।। २१।। रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनी मरुतश्चोष्मपाश्च। गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे।। २२ ।। इसलिए हे भगवन, आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं अर्थात परब्रह्म परमात्मा हैं और आप ही इस जगत के परम आश्रय है तथा आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष है, ऐसा मेरा मत है। हे परमेश्वर, मैं आपको आदि, अंत और मध्य से रहित तथा अनंत सामर्थ्य से यक्त और अनंत हाथों वाला तथा चंद्र-सूर्य रूप नेत्रों वाला और प्रज्वलित अग्निरूप मुख वाला तथा अपने तेज से इस जगत को तपायमान करता हुआ देखता हूं। और हे महात्मन्, यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का संपूर्ण आकाश तथा सब दिशाएं एक आप से ही परिपूर्ण हैं तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर तीनों ___ लोक अतिव्यथा को प्राप्त हो रहे हैं। और हे गोविंद, वे सब देवताओं के समूह आपमें ही प्रवेश करते हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम और गुणों का उच्चारण करते हैं तथा महर्षि और सिद्धों के समुदाय, कल्याण होवे, ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं। और हे परमेश्वर, जो एकादश रुद्र और द्वादश आदित्य तथा - स संबंध में कुछ बातें विचारणीय हैं। र एक तो जो लोग श्रीमद्भागवत को या गीता को केवल साहित्य मानते हैं, लिटरेचर मानते हैं, ऐतिहासिक | घटनाएं नहीं; जो ऐसा नहीं मानते कि कृष्ण और अर्जुन के बीच जो घटना घटी है, वह वस्तुतः घटी है; जो ऐसा भी नहीं मानते कि संजय ने किसी वास्तविक घटना की खबर दी है या कि धृतराष्ट्र | कोई वास्तविक व्यक्ति हैं; बल्कि जो मानते हैं कि वे चारों, व्यास ने जो महासाहित्य लिखा है, उसके चार पात्र हैं। __ जो ऐसा मानते हैं, उनके लिए तो व्यास की प्रतिभा मौलिक हो | जाती है, मूल आधार हो जाती है और शेष सब पात्र हो जाते हैं। तब तो सारा व्यास की ही प्रतिभा का खेल है। जैसे सार्च के उपन्यास में उसके पात्र हों या दोस्तोवस्की की कथाओं में उसके | पात्र हों, ठीक वैसे ही इस महाकाव्य में भी सब पात्र हैं और व्यास की प्रतिभा से जन्मे हैं। __ ऐसा भारतीय परंपरा का मानना नहीं है। और न ही जो धर्म को | समझते हैं, वे ऐसा मानने को तैयार हो सकते हैं। तब स्थिति | बिलकुल उलटी हो जाती है। तब व्यास केवल लिपिबद्ध करने वाले रह जाते हैं। तब घटना तो कृष्ण और अर्जुन के बीच घटती | है। उस घटना को पकड़ने वाला संजय है। वह पकड़ने की घटना | संजय और धृतराष्ट्र के बीच घटती है। लेकिन उसे लिपिबद्ध करने | का काम हमारे और व्यास के बीच घटित होता है। वह तीसरा तल है। जो हुआ है, उसे संजय ने कहा है। जो संजय ने कहा है धृतराष्ट्र 296 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का भयावह रूप को, उसे व्यास ने संगृहीत किया है, उसे लिपिबद्ध किया है। है। लिखना और कहना दो विधियां हैं। कहने में और लिखने में अगर साहित्य है केवल, तब तो व्यास निर्माता हैं; और कृष्ण, | कोई अंतर पड़ने की जरूरत नहीं है। अर्जुन, संजय, धृतराष्ट्र, सब उनके हाथ के खिलौने हैं। अगर यह ___ इसलिए मैंने व्यास को छोड़ दिया था, कोई बात नहीं उठाई थी। वास्तविक घटना है, अगर यह इतिहास है, न केवल बाहर की वे परिधि के बाहर हैं। हमारे लिए उनकी बहुत जरूरत है। हमारे आंखों से देखे जाने वाला, बल्कि भीतर घटित होने वाला भी, तब | पास गीता बचती भी नहीं। व्यास के बिना बचने का कोई उपाय न व्यास केवल लिपिबद्ध करने वाले रह जाते हैं। वे केवल लेखक था। लेकिन घटना के भीतर वे नहीं हैं, इसलिए मैंने उनकी चर्चा हैं। और पुराने अर्थों में लेखक का इतना ही अर्थ था; वह लिपिबद्ध | नहीं की है। ये चार व्यक्ति ही घटना के भीतर गहरे हैं। व्यास का कर रहा है। होना बाहर है, परिधि पर है। हमारे और व्यास के बीच गहरा संबंध है। क्योंकि संजय ने जो कहा है, वह धृतराष्ट्र से कहा है। अगर बात कही हुई ही होती, तो खो गई होती। हमारे लिए संगृहीत व्यास ने किया। हमारे तो | एक मित्र ने पूछा है कि क्या दिव्य-चक्षु सिद्धावस्था निकटतम व्यास हैं। लेकिन मूल घटना कृष्ण और अर्जुन के बीच | | के पूर्व भी उपलब्ध हो सकता है? घटी; और मूल घटना को शब्दों में पकड़ने का काम संजय और धृतराष्ट्र के बीच हुआ है। हमारे और व्यास के बीच भी कुछ घट रहा है-उन शब्दों को संगृहीत करने का। नहीं, दिव्य-चक्षु सिद्धावस्था के पूर्व उपलब्ध नहीं हो और इसीलिए व्यास के नाम से बहुत-से ग्रंथ हैं। और जो लोग UI सकता। क्योंकि दिव्य-चक्षु का उपलब्ध होना और पाश्चात्य शोध के नियमों को मानकर चलते हैं, उन्हें बड़ी सिद्धावस्था एक ही बात के दो नाम हैं। लेकिन कठिनाई होती है कि एक ही व्यक्ति ने, एक ही व्यास ने इतने ग्रंथ | टेलीपैथी, दूर-दृष्टि उपलब्ध हो सकती है। उससे कोई सिद्धावस्था कैसे लिखे होंगे! का संबंध नहीं है। और वह तो ऐसे व्यक्ति को भी उपलब्ध हो सच तो यह है कि व्यास से व्यक्ति के नाम का कोई संबंध नहीं सकती है, जिसकी कोई साधना भी न हो। है। व्यास तो लिखने वाले को कहा गया है। किसी ने भी लिखा हो, टेलीपैथी तो हमारे मन की ही क्षमता है। हमारे मन के पास व्यास ने लिखा है, लिखने वाले ने लिखा है। कोई एक व्यक्ति ने संभावना है कि वह दूर की चीजों को भी देख ले, आंख के बिना। ये सारे शास्त्र नहीं लिखे हैं। लेकिन लिखने वाले ने अपने को कोई | | हमारे मन के पास संभावना है कि दूर की वाणी को सुन ले, कान मूल्य नहीं दिया, क्योंकि वह केवल लिपिबद्ध कर रहा है। उसके | | के बिना। और बहुत बार तो हममें से अनेक लोग देख लेते हैं, सुन . नाम की कोई जरूरत भी नहीं है। जैसे टेप रिकार्डर रिकार्ड कर रहा | | लेते हैं। लेकिन हमें खयाल नहीं कि हम क्या कर रहे हैं। बहुत बार हो, ऐसे ही कोई व्यक्ति लिपिबद्ध कर रहा हो, तो लिपिबद्ध करने | हमें पीछे पता चलता है, तो आज के युग की वजह से हम सोच वाले ने अपने को कोई मूल्य नहीं दिया। और इसलिए एक लेते हैं, संयोग की बात है। सामूहिक संबोधन, व्यास, जिसने लिखा। वह सामूहिक संबोधन | अगर बेटा मर रहा हो, तो दूर मां को भी प्रतीत होने लगता है। है: वह किसी एक व्यक्ति का नाम भी नहीं है। कोई सिद्धावस्था की बात नहीं है, सिर्फ एक प्रगाढ़ लगाव है। तो लेकिन हमारे लिए तो लिखी गई बात अत्यंत महत्वपूर्ण है, कितना ही फासला हो, अगर बेटा मर रहा हो, तो मां को कुछ इसलिए व्यास को हमने महर्षि कहा है। जिसने लिखा है, उसने परेशानी शुरू हो जाती है। वह समझ पाए या न समझ पाए। अगर हमारे लिए संगृहीत किया है, अन्यथा बात खो जाती। बहुत निकट मित्र कठिनाई में पड़ा हो, तो मित्र को भीतर बेचैनी शुरू निश्चित ही, संजय के कहने में और व्यास के लिखने में कोई | | हो जाती है, फासला कितना भी हो। कोई धक्के आंतरिक तरंगों के अंतर नहीं है, क्योंकि लिखने में और कहने में किसी अंतर की कोई | | लगने शुरू हो जाते हैं, कोई संवाद किसी द्वार से मिलना शुरू हो जरूरत नहीं है। अंतर तो घटित हुआ है, कृष्ण के देखने में और जाता है, जिसके हम ठीक-ठीक उपयोग को नहीं जानते हैं। संजय के कहने में। जो कहा जा सकता है, वह लिखा भी जा सकता | || लेकिन कुछ लोग इसका ठीक उपयोग करना सीख लें, तो जरा 297 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 भी अड़चन नहीं है। आप छोटे-मोटे प्रयोग खुद भी कर सकते हैं, तब आपको खयाल आएगा कि टेलीपैथी, दूर- दृष्टि, दूर- श्रवण, साधना से संबंधित नहीं है; अध्यात्म से इनका कोई लेना-देना नहीं है। आप छोटे-मोटे प्रयोग कर सकते हैं। छोटे बच्चे के साथ करें, तो बहुत आसानी होगी। छोटे बच्चे को बिठा लें एक कमरे के कोने में, कमरे में अंधेरा कर दें, दरवाजे बंद कर दें। आप दूसरे कोने बैठ जाएं और उस बच्चे से कहें कि तू मेरी तरफ ध्यान रख अंधेरे और सुनने की कोशिश कर कि मैं क्या कह रहा हूं। और अपने कोने में बैठकर आप एक ही शब्द मन में दोहराते रहें - बाहर नहीं, मन में - कमल, कमल, कमल, या राम, राम, राम। एक ही शब्द दोहराते रहें। आप दो-तीन दिन में पाएंगे कि आपके बच्चे ने पकड़ना शुरू कर दिया। वह कह देगा कि राम । क्या हुआ? फिर इससे जब आपका भरोसा बढ़ जाए कि बच्चा पकड़ सकता है, तो फिर मैं भी पकड़ सकता हूं। तब उलटा प्रयोग शुरू कर दें। बच्चे को कहें कि वह एक शब्द को दोहराता रहे— कोई भी — बिना आपको बताए। और आप सिर्फ शांत होकर बच्चे की तरफ ध्यान रखें। बच्चे ने अगर तीन दिन में पकड़ा है, तो नौ दिन में आप भी पकड़ लेंगे। नौ दिन इसलिए लग जाएंगे कि आप विकृत हो गए हैं; बच्चा अभी विकृत नहीं हुआ है। अभी उसके यंत्र ताजे हैं, वह जल्दी पकड़ लेगा। और अगर एक शब्द पकड़ लिया, तो फिर डरिए मत, फिर पूरे वाक्य का अभ्यास भी आप कर सकते हैं। और अगर एक वाक्य पकड़ लिया है, तो कितनी ही बातें पकड़ी जा सकती हैं। और बीच में एक कमरे की दूरी ही सवाल नहीं है। जब बच्चा एक शब्द पकड़ कमरे में, तो उसको छः मंजिल ऊपर भेज दीजिए, वहां भी पकड़ेगा। फिर दूसरे गांव में भेज दीजिए, वहां भी पकड़ेगा। ठीक समय नियत कर लीजिए, कि ठीक रात नौ बजे बैठ जाए आंख बंद करके, वहां भी पकड़ेगा। आप भी पकड़ सकते हैं। इसका कोई आध्यात्मिक साधना से संबंध नहीं है। लेकिन बहुत-से साधु-संन्यासी इसको करके सिद्ध हुए प्रतीत होते हैं। इससे सिद्धावस्था का कोई भी लेना-देना नहीं है । यह मन की साधारण क्षमता है, जो हमने उपयोग नहीं की है और निरुपयोगी पड़ी हुई है। इसका उपयोग हो सकता है। और जितने चमत्कार आप देखते हैं चारों तरफ, साधुओं के आस-पास, उनमें से किसी का भी कोई संबंध आध्यात्मिक उपलब्धि से नहीं है। वे सब मन की ही सूक्ष्म शक्तियां हैं, जिनका थोड़ा अभ्यास किया जाए, तो वे प्रकट होने लगती हैं। और अक्सर तो ऐसा होता है कि जो व्यक्ति इस तरह की शक्तियों में उत्सुक होता है, वह धार्मिक होता ही नहीं है, क्योंकि इस तरह की उत्सुकता ही अधार्मिक व्यक्ति का लक्षण है। अक्सर अध्यात्म की साधना में ऐसी शक्तियां अपने आप प्रकट होनी शुरू होती हैं, तो अध्यात्म का पथिक उनको रोकता है, उनका प्रयोग नहीं करता है। क्योंकि उनके प्रयोग का मतलब है, भीतर की ऊर्जा का अनेक-अनेक शाखाओं में बंट जाना। हम शक्ति का प्रयोग ही करते हैं दूसरे को प्रभावित करने के लिए। और दूसरे को प्रभावित करने का रस ही संसार है। कोई आदमी धन से प्रभावित कर रहा है कि मेरे पास एक करोड़ रुपए हैं। कोई आदमी एक आकाश छूने वाला मकान खड़ा करके | लोगों को प्रभावित कर रहा है कि देखो, मेरे पास इतना आलीशान मकान है। कोई आदमी किसी और तरह से प्रभावित कर रहा है कि देखो, मैं प्रधानमंत्री हो गया, कि मैं राष्ट्रपति हो गया। कोई आदमी बुद्धि से प्रभावित कर रहा है कि देखो, मैं महापंडित हूं। कोई आदमी हाथ में ताबीज निकालकर प्रभावित कर रहा है कि देखो, मैं चमत्कारी हूं, मैं सिद्धपुरुष हूं। कोई राख बांट रहा है। लेकिन सबकी चेष्टा दूसरे को प्रभावित करने की है। यह अहंकार की खोज है। अध्यात्म का साधक दूसरे को प्रभावित करने में उत्सुक नहीं है। अध्यात्म का साधक अपनी खोज में उत्सुक है। दूसरे इससे प्रभावित हो जाएं, यह उनकी बात; इससे कुछ लेना-देना नहीं है, | इससे कोई प्रयोजन नहीं है। यह लक्ष्य नहीं है। लेकिन दिव्य-नेत्र अलग बात है। इसलिए ध्यान रखना, दूर- दृष्टि और दिव्य-दृष्टि का फर्क ठीक से समझ लेना। दूर-दृष्टि तो है संजय के पास, दिव्य-दृष्टि उपलब्ध हुई है अर्जुन को। दिव्य-दृष्टि का अर्थ है, जब हमारे पास अपनी कोई दृष्टि ही न | रह जाए। यह थोड़ा उलटा मालूम पड़ेगा। अध्यात्म के सारे शब्द बड़े उलटे अर्थ रखते हैं। उसका कारण है कि जिस संसार में हम रहते हैं और जिन शब्दों का उपयोग करते हैं, इनका यही अर्थ अध्यात्म के जगत में नहीं होने वाला है। वहां चीजें उलटी हो जाती हैं। 298 करीब-करीब ऐसा, जैसा आप झील के किनारे खड़े हैं और आपका प्रतिबिंब झील में बन रहा है। अगर झील में रहने वाली मछलियां आपके प्रतिबिंब को देखें, तो आपका सिर नीचे दिखाई पड़ेगा और पैर ऊपर। वह आपका प्रतिबिंब है । प्रतिबिंब उलटा होता है। अगर मछली ऊपर झांककर देखे, पानी पर छलांग लेकर Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का भयावह रूप देखे, तो बहुत हैरान हो जाएगी; आप उलटे मालूम पड़ेंगे ऊपर! कर लेगा। मैं उन्मत्त हो गया हूं। मछली को लगेगा कि आप शीर्षासन कर रहे हैं, क्योंकि सिर ऊपर, | | यह बात पागल की ही है। हमें भी लगेगा कि पागल की है। पैर नीचे! और उसने सदा आपको नीचे देखा था, सिर नीचे, पैर | लेकिन लगना इसलिए स्वाभाविक है कि हमें ऐसा कोई भी अनुभव ऊपर। आप उलटे दिखाई पड़ेंगे। प्रतिबिंब उलटा हो जाता है। नहीं है, जहां दूसरा विलीन हो जाता है और केवल देखने वाला ही संसार प्रतिबिंब है। इसलिए संसार में शब्दों का जो अर्थ होता रह जाता है। है, ठीक उलटा अर्थ अध्यात्म में हो जाता है। यही खयाल दृष्टि के | | यह जो अर्जुन को घटित हो रहा है, वह दिव्य-दृष्टि है। जो बाबत भी रखें। दृष्टि का अर्थ है, देखने की क्षमता। दृष्टि का अर्थ | | संजय के पास है, वह दूर-दृष्टि है। है, दूसरे को देखने की योग्यता। लेकिन अध्यात्म में तो दूसरा कोई | __ अब हम सूत्र को लें। बचता नहीं है। इसलिए दूसरे का तो कोई सवाल नहीं है। और दृष्टि | इसलिए हे भगवन्, आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं। का अर्थ सदा दूसरे से बंधा है, आब्जेक्ट से, विषय से। तो दृष्टि | | परमब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं। आप का वहां क्या अर्थ होगा? ही अनादि धर्म के रक्षक हैं। आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। महावीर ने कहा है कि जब सब दृष्टि खो जाती है, तब दर्शन ऐसा मेरा मत है। उपलब्ध होता है। जब सब देखना-वेखना बंद हो जाता है, जब __ अर्जुन अति विनम्र है। और जो भी जान लेते हैं, वे अति विनम्र कोई दिखाई पड़ने वाला भी नहीं रह जाता, जब सिर्फ देखने वाला हो जाते हैं। विनम्रता जानने की शर्त भी है और जानने का परिणाम ही बचता है, तब दर्शन उपलब्ध होता है। जब देखने वाला, द्रष्टा भी। जो जानना चाहता है, उसे विनम्र होना होगा, झुका हुआ। और ही बचता है, तब, तब दिव्य-दृष्टि उपलब्ध होती है। जो जान लेता है, वह अति विनम्र हो जाता है। शायद जान लेने के • यहां दिव्य-दृष्टि कहना बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा। क्यों कहें बाद उसे विनम्र होना ही नहीं पड़ता. विनम्रता उस पर छा जाती है: दृष्टि? जब दृष्टियां खो जाती हैं सब, जब सब बिंदु, देखने के ढंग वह एक हो जाता है विनम्रता के साथ। खो जाते हैं, जब सब माध्यम देखने के खो जाते हैं और शुद्ध चैतन्य | | अर्जुन देख रहा है अपनी अनुभूति में सब घटित हुआ, फिर भी रह जाता है, तब दृष्टि क्यों कहें? लेकिन फिर हम न समझ पाएंगे। कहता है, ऐसा मेरा मत है। हमारा ही शब्द उपयोग करना पड़ेगा, तो ही इशारा कारगर हो | यह थोड़ा विचारें। सकता है। अर्जुन देख रहा है। वह कह सकता है कि मैं देख रहा हूं। वह ...दूर-दृष्टि तो दृष्टि है। दिव्य-दृष्टि, समस्त दृष्टियों से मुक्त कह सकता है कि मेरा अनुभव है। लेकिन कहीं मेरा अनुभव कहने होकर द्रष्टा मात्र का रह जाना है। तब जो अनुभव होता है, वह से मैं को बल न मिले। वह कहे कि मेरी प्रतीति है, तो कहीं प्रतीति अनुभव ऐसा नहीं होता कि मैं बाहर से किसी को देख रहा हूं। तब | | गौण न हो जाए और मेरा होना महत्वपूर्ण न हो जाए! अनुभव होता है कि जैसे मेरे भीतर कुछ हो रहा है। सारा जगत जैसे | | इसलिए अर्जुन कहता है कि हे भगवन्। आप ही हैं अक्षर, मेरे भीतर समा गया हो। सब कुछ मेरे भीतर हो रहा हो। अविनाशी, परम आश्रय, रक्षक, ऐसा मेरा मत है-दिस इज़ माई स्वामी राम को जब पहली दफा समाधि का अनुभव हुआ, तो | ओपिनियन। यह सिर्फ मेरा मत है, यह गलत भी हो सकता है। यह वे नाचने लगे। रोने भी लगे, हंसने भी लगे, नाचने भी लगे। जो | सही भी हो सकता है। मैं कोई आग्रह नहीं करता कि यह सत्य है। पास थे इकट्ठे, उन्होंने कहा कि आपको क्या हो रहा है? आप उन्मत्त इस कारण कई बार बड़ी कठिनाई खड़ी होती है। जो अहंकारी तो नहीं हो गए हैं? स्वामी राम ने कहा कि समझो कि उन्मत्त ही हो हैं. वे अपने मत को भी इस भांति कहते हैं, जैसे प्रतीति हो गया हूं। क्योंकि आज मैंने देखा कि मेरे भीतर ही सूरज उगते हैं, | सत्य है। वे जो नहीं जानते, केवल सोचते हैं, उसको भी इस भांति और मेरे भीतर ही चांद-तारे चलते हैं। और आज मैंने देखा कि मैं | घोषणापूर्वक कहते हैं कि लगे कि यह उनका अनुभव है। और जो आकाश की तरह हो गया हूं; सब कुछ मेरे भीतर है। और आज जान लिए हैं, वे इस भांति कहते हैं कि ऐसा लगे कि उन्होंने भी मैंने देखा कि वह मैं ही हूं, जिसने सबसे पहले सृष्टि को जन्म दिया | | किसी से सुना होगा। था। और वह मैं ही हूं, जो अंत में सारी सृष्टि को अपने में लीन पुराने ऋषियों की बड़ी पुरानी आदत है कि वे कहते हैं, ऐसा कि यह 299 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 50 फलां ऋषि ने फलां ऋषि से कहा। उन्होंने फिर किसी और से कहा; लोग ठीक कहते हैं, तो फिर ठीक क्या है? महावीर कहते हैं कि फिर उन्होंने किसी और से कहा; फिर मैंने किसी से सुना। यह मात्र बड़े से बड़े असत्य में भी थोड़ा-बहुत सत्य तो होता ही है। उतना गहन विनम्रता का परिणाम है। मैंने देखा, इसे कहने में कोई सत्य तो होता ही है। उस सत्य को हम पकड़ लें। और महावीर कठिनाई नहीं है। इसे कहने में कोई अड़चन भी नहीं है। अर्जुन कहते हैं कि बड़े से बड़े सत्य में भी व्यक्ति का अहंकार थोड़ा न अभी कह सकता है कि मैंने देखा। लेकिन अर्जुन कहता है, मेरा बहुत प्रवेश कर जाता है, उतना असत्य हो जाता है। उस असत्य मत। बस, मेरा ऐसा विचार है। आग्रह नहीं है कि मैं जो कह रहा को हम छोड़ दें। हूं, वह सत्य ही है। क्यों? इसलिए वे कहते हैं कि जो कहता है, आत्मा नहीं है, उसकी बात शायद इस आघात के क्षण में, इस गहन शक्ति का आघात हुआ में भी थोड़ा सत्य है। कम से कम इतना सत्य तो है ही कि संसारी है उसके ऊपर, इस क्षण में उसे मैं का कोई पता भी नहीं चल रहा व्यक्ति का अनुभव यही है कि आत्मा नहीं है। आपका भी अनुभव होगा। इस क्षण में उसे खयाल भी नहीं आ रहा होगा कि मैं भी हूं। यही है कि आत्मा नहीं है। आपका अनुभव यही है कि शरीर है। इसलिए कह रहा है, मेरा मत है। यह मत माना भी जाए तो ठीक, तो महावीर कहते हैं, अगर चार्वाक कहता है कि आत्मा नहीं है, न भी माना जाए तो ठीक। यह गलत भी हो। तो ठीक ही कहता है। करोड़ों लोगों का अनुभव है कि हम शरीर मत और सत्य में इतना ही फर्क होता है। जब कोई कहता है, हैं। आत्मा का पता किसको है! इतना सत्य तो है ही। यह सत्य है, तो उसका अर्थ यह है, यह गलत नहीं हो सकता। और | और अगर हम लोकतंत्र के हिसाब से सोचें, तो शरीरवादी का जब कोई कहता है, यह मत है, तो वह यह कह रहा है कि यह गलत | ही सत्य जीतेगा। आत्मवादी का कैसे जीतेगा? कभी करोड़ में एक भी हो सकता है। यह मेरा है, इसलिए गलत भी हो सकता है। आदमी अनुभव कर पाता है कि आत्मा है। करोड़ में एक! बाकी हमारी स्थिति उलटी है। जिस चीज को हम कहते हैं सत्य, हम | | शेष तो अनुभव करते हैं कि वे शरीर हैं। उसे सत्य ही इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह मेरा है। अगर आपसे इसलिए हमने एक बड़ी अदभुत बात की है। हमने चार्वाक को कोई पूछे कि हिंदू धर्म सत्य क्यों है? या कोई पूछे कि मुसलमान | | जो नाम दिए हैं-नास्तिक विचार को भारत में-वे बड़े धर्म सत्य क्यों है? या कोई पूछे कि जैन धर्म सत्य क्यों है ? तो जैनी | | विचारणीय हैं। दो नाम हैं चार्वाक के, एक तो चार्वाक और दूसरा कहेगा कि जैन धर्म सत्य है। हजार कारण बताए, लेकिन मूल में लोकायत। दोनों बड़े मीठे हैं। कारण यह होगा कि वह मेरा धर्म है। हिंदू हजार कारण बताए, लोकायत का मतलब है, जिसे लोग मानते हैं, जो लोक में लेकिन मूल में कारण होगा कि वह मेरा धर्म है। चाहे वह कहे और | प्रभावी है। बड़े मजे की बात है, अगर आप खोजने जाएं, तो एक चाहे न कहे। लेकिन अगर विश्लेषण करे, तो उसे पता चलेगा कि | भी आदमी जनगणना के वक्त अपने को नास्तिक नहीं लिखवाता जो भी मेरा है, वह सत्य होना ही चाहिए। | है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन है, यह अहंकार का आरोपण है। सत्य, मेरे होने से सत्य नहीं होता। | कोई बौद्ध है। लेकिन हमारी परंपरा कहती है कि चार्वाक को मानने सच तो यह है कि मेरे होने से मेरा सत्य भी असत्य हो जाता है। | वाले सर्वाधिक लोग हैं। हालांकि कोई नहीं लिखवाता कि मैं सत्य होता है अपने कारण। और मैं जितना कम रहूं, उतना ज्यादा | चार्वाकवादी हूं। मगर हमारी परंपरा कहती है कि करोड़ में एक को होता है। और मैं जितना ज्यादा हो जाऊं, उतना क्षीण हो जाता है। छोड़कर बाकी तो सब चार्वाक को ही मानते हैं। चाहे समझते हों, इसलिए अर्जुन कहता है, मेरा मत है। न समझते हों; चाहे कहते हों, चाहे न कहते हों। उनका अनुभव तो महावीर इस दिशा में अनूठे व्यक्ति हैं। महावीर से कोई पूछे कि | | यही है कि वे शरीर हैं। और इंद्रियों से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। और आत्मा है? तो वे कहते हैं, है; ऐसा भी कुछ लोगों का मत है; वे | जो इंद्रियों का भोग है, वही जीवन है। भी ठीक कहते हैं। और ऐसा भी कुछ लोगों का मत है कि नहीं है, | | इसलिए हमने चार्वाक को–हालांकि कोई संप्रदाय मानने वाला वे भी ठीक कहते हैं। और ऐसा भी कुछ लोगों का मत है कि कुछ नहीं है-कहा, लोकायत, कि लोक जिसको मानता है। और भी नहीं कहा जा सकता, वे भी ठीक कहते हैं। चार्वाक शब्द भी बड़ा अदभुत है, उसका मतलब होता है हम अड़चन में पड़ जाएंगे महावीर के साथ, कि अगर सभी चारु-वाक, जिनके वचन बड़े मधुर हैं। बड़ी उलटी बात है। क्योंकि 1300/ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ परमात्मा का भयावह रूप हमें तो बुरे लगेंगे चार्वाक के वचन। जो भी सुनेगा कि ईश्वर नहीं को तृप्त कर लेते हैं। जो नासमझ हैं, वे बुद्ध बन जाते हैं और तृप्त है, आत्मा नहीं है, हमें तो बुरे लगेंगे, कटु लगेंगे। लेकिन हमारी नहीं कर पाते। हमको भी लगेगी यह बात भीतर-ऊपर से हम परंपरा ने नाम दिया है चारु-वाक, जिनके वचन बड़े मधुर हैं। | कहेंगे कि नहीं लेकिन भीतर हमको लगेगी कि बात तो बड़ी हम बड़े सोचकर शब्द दिए हैं। हम ऊपर से कितना ही कहें कि रुचिकर है, कि भोग लो। चार्वाक ने कहा है, क्षण की खबर नहीं है। हमें यह बात जंचती नहीं कि ईश्वर नहीं है, भीतर यह बात बड़ी | अगला क्षण होगा या नहीं होगा, नहीं कहा जा सकता। इसलिए इस प्रीतिकर लगती है। भीतर बड़ा रस आता है कि ईश्वर नहीं है, क्षण को निचोड़ लो पूरा। जितना भोग सकते हो, भोग लो। बेफिक्र! कोई फिक्र नहीं। चोरी करो, बेईमानी करो, हत्या करो। ___ हम कहते कुछ हों, करते यही हैं। न कर पाते हों, तो पछताते ऊपर से हम भला कहें कि नहीं, यह बात जंचती नहीं; भीतर बहुत | हैं। और जो कर लेता है, उससे हमारी ईर्ष्या है। उससे हमारी ईर्ष्या जंचती है। तो फिर कोई भी पाप नहीं है। पकड़ जाती है। दोस्तोवस्की ने लिखा है कि अगर ईश्वर नहीं है, देन एवरीथिंग ___ आप किसी को भी सुख में देखकर बड़े दुखी हो जाते हैं। भला इज़ परमिटेड। अगर ईश्वर नहीं है, तो फिर हर चीज की आज्ञा मिल | | आप कहते हों, धन में कुछ भी नहीं है, लेकिन जिसके पास धन गई। फिर कुछ भी करने में कोई हानि नहीं है। अगर ईश्वर है, तो है, उसको देखकर आपको विपदा शुरू हो जाती है, भीतर कष्ट अड़चन है। ईश्वर का डर घेरे ही रहता है। कितने ही अकेले में चोरी | शुरू हो जाता है। भला आप कहते हों कि शरीर में क्या रखा है, कर रहे हों, फिर भी लगा रहता है कि कम से कम कोई एक देख | यह तो मल-मूत्र है। लेकिन एक सुंदर स्त्री दूसरे के साथ देखकर रहा है। अगर नहीं है कोई, तो आदमी स्वतंत्र है। प्रीतिकर लगेगा | बेचैनी शुरू हो जाती है। भीतर कि कोई ईश्वर नहीं है। हम ऊपर से कुछ कहते हों, लेकिन भीतर से हम सब 'नीत्शे ने कहा है, गॉड इज़ डेड। ईश्वर मर गया। और अब तुम्हें चार्वाकवादी हैं। इसलिए हमने दो शब्द दिए हैं, लोकायत, और जो भी करना हो, तुम कर सकते हो। आदमी स्वतंत्र है। नाउ मैन | मधुर वचन वाले लोग, चार्वाक। इज़ फ्री। ईश्वर ही उसका बंधन था, नीत्शे ने कहा है, वही इसकी ___ यह जो चार्वाक कहता है, इसमें भी महावीर कहते हैं, थोड़ा सत्य रहा था कि यह मत करो. वह मत करो। यह बरा है है। क्योंकि अधिक लोगों का अनभव तो यही है। हम जो कहते हैं. यह भला है; यह पाप, यह पुण्य; यह नर्क, यह स्वर्ग। नीत्शे ने | महावीर कहेंगे, वह तो कितने थोड़े लोगों का सत्य है! इसलिए कहा कि ईश्वर मर चुका है और अब मनुष्य स्वतंत्र है; और अब महावीर कहते हैं, जो भी कहा जाए, उसको मत की तरह व्यक्त तुम्हें जो करना हो, करो। करना, सत्य की तरह व्यक्त मत करना। कहना कि यह हमारा एक स्वतंत्रता तो हम सभी चाहेंगे। इसलिए ऊपर से हम भला कहते मत है, विपरीत मत भी हो सकते हैं। वे भी ठीक हो सकते हैं। . हों कि चार्वाक के वचन कटु मालूम पड़ते हैं, भीतर हम भी चाहते अनेक मत हो सकते हैं, वे भी ठीक हो सकते हैं। आग्रह मत करना हैं कि ईश्वर न हो। क्यों? क्योंकि अगर ईश्वर न हो, तो हमारे ऊपर | कि यही सत्य है। क्योंकि यह आग्रह सत्य को कमजोर कर देता है, से सारा दबाव हट गया। फिर कोई दबाव नहीं है। फिर आदमी | मैं को मजबूत कर जाता है। उत्तरदायित्वहीन है। फिर कोई दायित्व नहीं है। फिर कोई जवाब | थोड़ा ध्यान रखें, जितना आग्रह हम करते हैं, आग्रह सत्य को मांगने वाला नहीं है। फिर जिंदगी स्वच्छंद होने के लिए मुक्त है। नहीं मिलता, अहंकार को मिलता है। इसलिए धार्मिक आदमी तो भला हम कहते हों कि ये बातें जंचती नहीं हैं। लेकिन चार्वाक विनम्र होगा। और अगर धार्मिक आदमी विनम्र नहीं है, तो धार्मिक की बातें हमारे मन को बड़ी प्रीतिकर लगती हैं। चार्वाक ने कहा है | नहीं है। कि अगर ऋण लेकर भी घी पीना पड़े, तो लेते रहना ऋण, क्योंकि | । इसलिए हमने अपने इस मुल्क में कभी किसी आदमी के धर्म मरने के बाद न कोई लेने वाला है, न कोई देने वाला है, न कोई । | को कनवर्ट करने की चेष्टा नहीं की। कभी आग्रह नहीं किया कि चुकतारा है। कोई लेना-देना नहीं है, कोई ऋणी नहीं है, कोई धनी | हम एक आदमी को समझा-बुझाकर, जबर्दस्ती, कोई भी उपाय नहीं है। सिर्फ नासमझ और समझदार लोग हैं। करके, एक धर्म से दूसरे धर्म में खींच लें। क्योंकि यह कृत्य ही चार्वाक ने कहा है, जो समझदार हैं, वे सब तरह से अपनी इंद्रियों अधार्मिक हो गया। यह आग्रह करना कि मैं जो कहता हूं, वही ठीक 301 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 है, और तुम जो कहते हो, वह गलत है, मान लो मेरे धर्म को; चाहे धन देकर, चाहे पद देकर और चाहे तर्कों से समझा-बुझाकर, किसी भी तरह आक्रमण करके किसी व्यक्ति को उसके धर्म को बदलने की कोशिश हमने इस मुल्क में नहीं की। कनवर्शन हमने कभी उचित नहीं माना। और उसका कुल कारण इतना था कि कनवर्शन के लिए – हिंदू को ईसाई बनाने के लिए, ईसाई को हिंदू बनाने के लिए - मतांध आदमी चाहिए, आग्रहपूर्ण, जो कहें कि यही ठीक है । जो इतने पागलपन से कह सकें कि यही ठीक है; और दूसरे की सुनने को बिलकुल राजी ही न हों। महावीर कैसे किसी को कनवर्ट करें ! अगर उनके विपरीत भी आप जाकर कहें, तो महावीर कहेंगे कि आप भी ठीक हैं। इसमें भी सचाई है। आप जो कह रहे हैं, बड़ा कीमत का है। महावीर के विपरीत कहें, तो भी! तो कनवर्शन असंभव है। इसलिए महावीर जैसे बहुत विचार का आदमी भी हिंदुस्तान में बहुत जैन पैदा नहीं करवा पाया। उसका कारण था। क्योंकि कनवर्ट करने का कोई उपाय ही नहीं था। मतांध आदमी दूसरे पर जबर्दस्ती छा जाते हैं। लेकिन जो मतांध है, वह राजनैतिक हो सकता है, धार्मिक नहीं। दूसरे को बदलने की चेष्टा ही असल में राजनीति है। स्वयं को बदलने की चेष्टा धर्म है। दूसरे पर छा जाना, अहंकार की यात्रा है। अपने को सब भांति पोंछकर मिटा देना, धर्म की। अर्जुन कहता है, यह मेरा मत है। और अभी अनुभव हो रहा है उसे। अभी प्रत्यक्ष है, अभी क्षण भी नहीं बीता है। अभी वह अनुभव के बीच में खड़ा है। चारों तरफ घटनाएं घट रही हैं उसके । द्वार खुल गया है अनंत का। और ऐसे क्षण में भी अर्जुन कहता है, यह मेरा मत है, यह बहुत कीमती है। आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं। जानने योग्य! जानने योग्य क्या है? किस चीज को कहें जानने योग्य ? आमतौर से जिसका कोई उपयोग हो, उसे हम जानने योग्य कहते हैं। विज्ञान जानने योग्य है, क्योंकि उसके बिना न मशीनें चलेंगी, न रेलगाड़ियां दौड़ेंगी, न रास्ते बनेंगे, न कारें होगी; न यंत्र होंगे, न टेक्नालाजी होगी। विज्ञान जानने योग्य है, क्योंकि उसके बिना जीवन की सुख-सुविधा असंभव हो जाएगी। चिकित्साशास्त्र जानने योग्य है, क्योंकि उसके बिना बीमारियों से कैसे लड़ेंगे? उपयोगिता ! हमारे जानने योग्य का अर्थ होता है, जिसकी यूटिलिटी है, जिसकी उपयोगिता है। इसीलिए जिन चीजों की उपयोगिता है, उनकी तरफ हम ज्यादा दौड़ते हैं। अगर आज यूनिवर्सिटी में जाएं, तो इंजीनियरिंग की तरफ, मेडिकल साइंस की तरफ दौड़ते हुए युवक मिलेंगे। फिलासफी, दर्शनशास्त्र के कमरे खाली होते जाते हैं। वहां कोई | जाता नहीं । या जिनको कहीं जाने के लिए उपाय नहीं बचता, वे वहां चले जाते हैं । सब दरवाजे जिनके लिए बंद हो जाते हैं, वे सोचते हैं कि चलो, अब दर्शनशास्त्र ही पढ़ लें। सारी दुनिया में दर्शनशास्त्र की तरफ लोगों का जाना कम होता जाता है। क्यों? क्योंकि उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। क्या करिएगा? अगर दर्शन में कोई उपाधि भी ले ली, तो करिएगा क्या? उससे न रोटी पैदा हो सकती है, न यंत्र चलता है। किसी काम का | नहीं है, बेकाम हो गया; उपयोगिता गिर गई। हमारे लिए जानने योग्य वह मालूम पड़ता है, जो उपयोगी है। लेकिन यहां अर्जुन कहता है, आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं। क्या अर्थ होगा इसका ? भगवान की क्या उपयोगिता होगी ? क्या करिएगा भगवान को जानकर ? रोटी पकाइएगा ? दवा बनाइएगा? यंत्र चलवाइएगा ? क्या करिएगा? अगर उपयोगिता की दृष्टि से देखें, तो भगवान बिलकुल जानने योग्य नहीं है । | जानकर करिएगा भी क्या ? अगर आज पश्चिम के मस्तिष्क को हम समझाना चाहें कि भगवान, तो वह पूछेगा कि किसलिए? क्या करेंगे जानकर ? क्या होगा जानने से ? उपयोगिता क्या है ? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान ! लेकिन ध्यान से होगा क्या ? मिलेगा क्या? उपयोगिता क्या है ? स्वभावतः, ध्यान बाबत भी वे वही सवाल पूछते हैं, जो रुपए के बाबत, धन के बाबत पूछेंगे, मकान के बाबत पूछेंगे। उपयोग ही मूल्य है। तो ध्यान का उपयोग क्या है ? प्रार्थना का उपयोग क्या है? कोई उपयोग तो मालूम नहीं पड़ता। और परमात्मा तो परम निरुपयोगी है। क्या उपयोग है? उपादेयता क्या है उसकी ? उससे क्या कर सकते हैं? कोई प्राफिट मोटिव, कोई लाभ का विचार लागू नहीं होता । क्या | करिएगा? और यह अर्जुन कह रहा है कि आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं! जानने योग्य की हमारी परिभाषा और हैं। हम कहते हैं उसे जानने | योग्य, जिसे जानने के बाद कुछ जानने को शेष न रह जाए। हम कहते हैं उसे जानने योग्य, जिसको जान लिया, तो फिर जानने को 302 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का भयावह रूप कुछ बाकी न रहा। तो वह जो जानने की दौड़ थी, समाप्त हो गई। लोग तप रहे हैं, लोग भस्मीभूत हो जाएंगे। ऐसा अग्निरूप अर्जुन वह जो अज्ञान की पीड़ा थी, तिरोहित हो गई। वह जो जिज्ञासा का के सामने प्रकट होना शुरू हुआ। उपद्रव था, विलीन हो गया। जीवन जोड़ है विपरीत द्वंद्वों का, डायलेक्टिकल है, द्वंद्वात्मक जब तक जानने को कुछ शेष है, तब तक मन में अशांति रहेगी। | है। यहां जन्म है, तो दूसरे छोर पर मृत्यु है। यहां प्रेम है, तो दूसरे जब तक जानने को कछ भी शेष है. तब तक तनाव रहेगा। जब तक | छोर पर घृणा है। यहां सुख है, तो दूसरे छोर पर दुख है। यहां जानने को कुछ भी शेष है, चिंता पकड़े रहेगी कि कैसे जान लूं। सफलता है शिखर, तो वहां खाई है असफलता की। जोड़ है। और तो हम जानने योग्य उसे कहते हैं, जिसे जानकर फिर और कुछ | द्वंद्व के आधार पर ही सारे जीवन की गति है। जानने को शेष नहीं रह जाता। जिज्ञासा शून्य हो जाती है। तनाव __ हम सब की आकांक्षा होती है, इसमें जो प्रीतिकर है, वह बच रहे; विलीन हो जाता है। सब जान लिया जैसे। एक को जान लिया, | जो अप्रीतिकर है, वह समाप्त हो जाए। हम चाहते हैं कि सुख बच सबको जान लिया जैसे। रहे और दुख नहीं। और मजे की बात यह है कि जो ऐसा चाहता है, जानने योग्य, पाने योग्य, कामना करने योग्य, इन सबका | वह इसी चाह के कारण दुख में गिरता है। क्योंकि इस दो में से एक भारतीय परंपरा में जो गहन अर्थ है, वह यह एक ही है। पाने योग्य | को बचाया नहीं जा सकता। ये दोनों जीवन के अनिवार्य हिस्से हैं। वह है, जिसको पाने के बाद फिर पाने को कुछ बचे न। कामना | __ जैसे कोई चाहे कि खाइयां तो मिट जाएं और शिखर बचें, तो करने योग्य वह है, जिसके साथ ही सब कामनाएं शांत हो जाएं। वह पागल है। खाई और शिखर साथ-साथ हैं। एक ही तरंग है। पहुंचने योग्य वह जगह है, जिसके बाद पहुंचने को कोई जगह न | जब शिखर बनता है, तो खाई बनती है। और खाई मिटती है, तो बचे। उसको हम कहते हैं, अल्टीमेट, परम। वह है परम बिंदु | शिखर मिट जाता है। कोई चाहे कि जवानी तो बचे और बुढ़ापा मिट अभीप्सा का। जाए। हम सभी चाहते हैं। लेकिन जवानी शिखर है, तो बुढ़ापा खाई अर्जुन कहता है, अनुभव कर रहा हूं, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि | है। जवान होने के साथ ही आप बूढ़े होने शुरू हो जाते हैं। जवानी आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं, परम ब्रह्म परमात्मा हैं। आप | बुढ़ापे की शुरुआत है। जिस दिन जवान हुए, उस दिन जान लेना, ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं, अब बढ़ापा ज्यादा दूर नहीं है, अब करीब है। आप ही अविनाशी सनातन परुष हैं. ऐसा मेरा मत है। हे परमेश्वर। हम चाहते हैं. सौंदर्य तो बचे. करूपता विलीन हो जाए। लेकिन मैं आपको आदि, अंत और मध्य से रहित तथा अनंत सामर्थ्य से | हमें पता ही नहीं कि अगर कुरूपता विलीन हो जाए, तो सौंदर्य युक्त और अनंत हाथों वाला तथा चंद्र, सूर्य रूप नेत्रों वाला और बचेगा कैसे! सौंदर्य है ही अनुभव कुरूपता के विपरीत; उसी की प्रज्वलित अग्निरूप मुख वाला तथा अपने तेज से इस जगत को पृष्ठभूमि में होता है। तपायमान करता हुआ देखता हूं। जब आकाश में काले बादल घिरे होते हैं, तो बिजली चमकती अब दूसरा रूप शुरू होता है। एक रूप था सुंदर, मोहक, | | दिखाई पड़ती है। हम चाहते हैं, बिजली तो खूब चमके, काले मनोहर, मन को भाए, लुभाए, आकर्षित करे। लेकिन यह एक | | बादल बिलकुल न हों। वह काले बादल में ही चमकती है। और पहलू था। अब दूसरा रूप भी होगा। जो जीवन को तपाए, भयंकर | काले बादल में चमकती है, तो ही दिखाई पड़ती है। यह जीवन की अग्निमुखों वाला, मृत्यु जैसा विकराल, विनाश करे। सारी चमक मृत्यु की ही पृष्ठभूमि में दिखाई पड़ती है। हम चाहते अर्जुन कहता है कि देख रहा हूं कि आपके अनंत मुख हैं, | हैं, मृत्यु विदा हो जाए। मृत्यु हो ही न दुनिया में, बस जीवन ही प्रज्वलित अग्निरूप, आपके हर मुख से आग जल रही है। जीवन हो। आभा नहीं, प्रकाश नहीं, आग। पहले ऐश्वर्य की आभा देखी __हमें खयाल ही नहीं है कि हम क्या कह रहे हैं! हम असंभव की उसने, फिर सूर्यों का प्रकाश देखा उसने, अब अग्नि, अब आग्नेय | | मांग कर रहे हैं। और असंभव की जो मांग करता है, वह दुख में अनुभव है। | पड़ता चला जाता है। यह होने वाला नहीं। समझदार वह है, जो मुखों से अग्नि की लपटें निकल रही हैं और आपके इस तेज से | | संभव को स्वीकार कर लेता है और असंभव को विदा कर देता है इस जगत को तपायमान करता हुआ देखता हूं। लोग जल जाएंगे, | अपनी कामना से। 303 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 द्वंद्व जीवन का स्वरूप है। हर चीज दो में है। जिससे हम प्रेम करते हैं, सोचते हैं, कभी इस पर क्रोध न करें। करना ही पड़ेगा। जिससे हम प्रेम करते हैं, उससे क्रोध भी होगा, घृणा भी होगी, संघर्ष भी होगा, द्वंद्व भी होगा, झगड़ा भी होगा। प्रेम के साथ ही घृणा जुड़ी हुई है। इसलिए जितने प्रेमी हैं, लड़ते रहते हैं । और जब प्रेमी लड़ना बंद कर दें, समझ लेना कि प्रेम समाप्त हो गया। वह जुड़ा है। उसमें एक को बचाने का कोई भी उपाय नहीं है। या तो दोनों बचते हैं, या दोनों विदा हो जाते हैं। अर्जुन ने एक रूप देखा परमात्मा का। हम भी वह रूप देखना चाहेंगे। लेकिन दूसरे रूप से भी बचने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि अगर जन्म उससे होता है, तो मृत्यु भी उसी से होती है। और अगर अच्छाई उससे पैदा होती है, तो बुराई भी उसी से पैदा होती है। और अगर जगत में सौंदर्य का जन्म उससे होता है, तो कुरूपता भी उसका ही पहलू है। वह भी देखना ही पड़ेगा। वह दूसरी तरफ यात्रा शुरू हो गई। जो लोग भी परमात्मा के अनुभव में जाते हैं, उन्हें इसकी तैयारी रखनी चाहिए। दुनिया में दो तरह के धर्म हैं इन दो रूपों के कारण। एक तो वे धर्म हैं, जिन्होंने इस ऐश्वर्य, महिमा वाले रूप को प्रमुखता दी है। और एक वे धर्म हैं, जिन्होंने उस भयंकर रूप को प्रमुखता दी है। जैसे कि पुराना जरथुस्त्र या पुराना यहूदियों का धर्म ओल्ड टेस्टामेंट का, वहां ईश्वर विकराल है, भयंकर है। बहुत क्रूर और कठोर है; दुष्ट मालूम पड़ता है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते। इसीलिए जीसस की बात यहूदियों को स्वीकृत न हो सकी। उसका कारण जीसस नहीं थे। उसका कारण था ओल्ड टेस्टामेंट, पुराने यहूदी की जो ईश्वर की धारणा थी, उससे बिलकुल उलटी बात जीसस ने कही है। पुरानी धारणा यह थी कि ईश्वर, अगर तुमने उसके खिलाफ जरा-सा भी काम किया, तो तुम्हें जलाएगा, मारेगा, सड़ाएगा, अनंत काल तक भयंकर कष्ट देगा, दंड देगा। नर्क उसने बनाए हैं। पुराने टेस्टामेंट का जो नर्क है, वह इटरनल है, अनंत है। उसमें जरा से पाप के लिए भी फेंका जाएगा आदमी, तो फिर दुबारा वापसी का कोई उपाय नहीं है। और ईश्वर एक भयंकर विकराल व्यक्तित्व है, जिसकी आंखों से लपटें निकल रही हैं। और जिसको शांत करने का एक ही उपाय है, भय, स्तुति, प्रार्थना, उसके चरणों में सिर को रख देना। और वह जो कहता है उसको मान लेना, उसकी आज्ञा के अनुकूल। उसकी आज्ञा से जरा-सी प्रतिकूलता हुई कि वह भस्म कर देगा। यह था यहूदी रूप ईश्वर का । यह एक पहलू है। यह गलत नहीं है । यह भी ईश्वर का एक पहलू है। और ऐसा लगता है, मोजेज | को इसका अनुभव हुआ होगा। मोजेज भूल-चूक से ईश्वर के भयंकर पहलू को पहले देख लिए। और वह भयंकर पहलू मोजेज पर इस तरह आविष्ट हो गया कि उन्होंने जो बात कही, उसमें वह भयंकर पहलू केंद्र बन गया । जीसस उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं, गॉड इज़ लव । ईश्वर प्रेम है। इसलिए यहूदी मन जीसस को स्वीकार नहीं कर पाया। कहां | ईश्वर था भयंकर ! और यहूदियों की सारी साधना पद्धति यह थी कि उससे भयभीत होओ, उससे डरो। उससे डरोगे, यही धार्मिक होने का लक्षण है। और जीसस ने कहा कि ईश्वर है प्रेम । तो जिससे प्रेम है, उससे डरने की क्या जरूरत है। और जिससे हमारा प्रेम है, उससे डर समाप्त हो जाता है। और जब डर समाप्त हो जाता है, तो यहूदियों ने कहा, फिर ईश्वर का वह जो रूप – उसको उन्होंने कहा, ट्रिमेंडम, वह जो भयंकर रूप है, वह जो विकराल तांडव करता रूप है - तो सारा धर्म नष्ट हो जाएगा। इसलिए जीसस को यहूदी मन स्वीकार न कर पाया। ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट बड़ी विपरीत किताबें हैं, दो पहलू वाली । लेकिन एक अर्थ में बाइबिल पूरी किताब है। ओल्ड टेस्टामेंट, न्यू टेस्टामेंट दोनों मिलकर बाइबिल पूरी किताब है, | क्योंकि उसमें परमात्मा के दोनों पहलू हैं। मोजेज ने जो देखा अग्निरूप और जीसस ने जो देखा प्रेमरूप, वे दोनों समाहित हैं, दोनों इकट्ठे हैं। 304 अगर किसी तरह यहूदी और ईसाइयत दोनों का तालमेल हो जाए गहरा, तो वह ईश्वर की पूरी छवि हो गई। लेकिन बहुत मुश्किल है। क्योंकि जो उसके प्रेमपूर्ण रूप को प्रेम कर पाता है, वह सोच नहीं पाता कि वह भयंकर और विकराल भी हो सकता है। मैं पीछे जार्ज गुरजिएफ की बात कर रहा था । जार्ज गुरजिएफ अनूठा आदमी था। जैसा हम साधारणतः साधु को मानते हैं, ऐसा भी; और जैसा हम कभी सोच भी नहीं सकते साधु को, वैसा भी । अमेरिका के बहुत विचारशील साधक अलन वाट ने गुरजिएफ को रास्कल सेंट कहा है । रास्कल सेंट! बड़ा अजीब शब्द है। हिंदी में बनाएं तो और कठिनाई हो जाएगी। शैतान साधु, या कुछ ऐसा अर्थ करना पड़े। मगर ठीक कहा है उसने । गुरजिएफ ऐसा आदमी था । और Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 परमात्मा का भयावह रूप लोगों के ऐसे अनुभव हैं कि गुरजिएफ बैठा है अपने शिष्यों के बीच | | काटो, क्योंकि कोई कटता ही नहीं, बेफिक्री से काटो। हमारी समझ और वह इस तरफ मुंह करेगा और उसका मुंह इतना प्रेमपूर्ण होगा| के बाहर हो जाता है। और जो लोग उसे देखेंगे. प्रफल्लित हो जाएंगे। और वह दसरी | इसलिए कृष्ण के भक्त भी बंटे हुए हैं। पूरे कृष्ण को कोई तरफ मुंह करेगा और उसकी आंखें इतनी दुष्ट हो जाएंगी कि जो |स्वीकार नहीं करता। कोई बांसुरी बजाने वाले को स्वीकार करता लोग उसको देखेंगे, वे एकदम थर्रा जाएंगे। और ये दोनों तरफ बैठे | | है, तो बाकी हिस्से को छोड़ देता है, कि वह अपने काम का नहीं हुए आदमी, जब उसके मकान के बाहर जाकर बात करेंगे, तो | है! सिलेक्ट करना पड़ता है कृष्ण में से। कोई दूसरे हिस्से को इनकी बातों का कोई मेल ही नहीं हो सकेगा। क्योंकि एक ने चेहरा | स्वीकार करता है, तो फिर बांसुरी वाले को मानता है कि यह देखा था उसका बड़ा प्यारा; और एक ने चेहरा देखा उसका बड़ा | कवियों की कल्पना होगी, हटाओ। दुष्टता से भरा हुआ, कि वह गर्दन दबा देगा, मार डालेगा, क्या लेकिन पूरे कृष्ण को स्वीकार करना वैसे ही मुश्किल है, जैसे करेगा! और वे दोनों जाकर बाहर कहेंगे; एक कहेगा, वह रास्कल | पूरे जीवन को स्वीकार करना मुश्किल है। और जो पूरे जीवन को है; और एक कहेगा, वह सेंट है। | स्वीकार करता है, वही केवल कृष्ण को पूरा स्वीकार कर सकता अलन वाट कहता है, वह दोनों था। रास्कल-सेंट एक ही साथ | है। और पूरे जीवन को स्वीकार करने का अर्थ है, परमात्मा की दोनों था वह आदमी। वह एक आंख से क्रोध प्रकट कर सकता था, और | शक्लें एक साथ। एक से प्रेम। दो शक्लें नहीं हैं लेकिन परमात्मा की। हमने अपने मुल्क में तीन बहुत कठिन है। बहुत कठिन है। कोई चालीस साल की लंबी | शक्लों की बात की है, दो तो छोर हैं। एक उसका जन्मदाता का साधना थी उसकी इस तरह का अभिनय करने की, कि वह एक | छोर, मां का। एक विध्वंस का, मृत्यु का। ये दो छोर हैं, ये दो आंख से क्रोध प्रकट कर सके और एक से प्रेम। और एक हाथ से | शक्लें खास हैं। पर बीच में एक शक्ल और है। क्योंकि जहां भी प्रेम दे सके और दूसरे हाथ से जहर, एक साथ! लेकिन एक अर्थ | दो हों, वहां जोड़ने के लिए तीसरे की जरूरत पड़ जाती है। ये दो में वह पूरा संत था, पूरा। | इतने विपरीत हैं कि इनको जोड़ने के लिए एक तीसरे की जरूरत है, अगर हम परमात्मा के दोनों रूप लें, तो वे जो संत मछलियों को | जो दोनों के मध्य में हो। दाना चुगा रहे हैं और चींटियों को आटा डाल रहे हैं, वे एक ही इसलिए हमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीन शक्लें, त्रिमूर्ति की हिस्से वाले मालूम पड़ते हैं; अधूरे। तो दूसरे हिस्से का क्या होगा? | | धारणा की है। उन तीनों मूर्तियों के पीछे एक ही व्यक्ति है। एक ही कृष्ण में जरूर परमात्मा के दोनों रूप एक साथ प्रकट हुए हैं। | शक्ति है, कहें। एक ही विराट ऊर्जा है। लेकिन एक तरफ से वह इसलिए कई लोगों को कठिनाई होती है कि कृष्ण को समझें कैसे? | बनाती है, एक तरफ से मिटाती है, बीच में सम्हालती भी है। क्योंकि क्योंकि कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत कंट्राडिक्टरी है। एक तरफ बनने और मिटने के बीच में कोई सम्हालने वाला भी चाहिए। आश्वासन देते हैं कि मैं युद्ध में अस्त्र नहीं उठाऊंगा; मौका आता | अगर ब्रह्मा और महादेव ही हों जगत में, तो बनना-मिटना है, उठा लेते हैं। वचन का कोई भरोसा नहीं उनके। बेईमान! हम | काफी होगा, लेकिन और कुछ नहीं होगा। बीच में कुछ भी नहीं सोच भी नहीं सकते कि साधु, और वचन दे और पूरा न करे। होगा। इधर ब्रह्मा बना नहीं पाएंगे, वहां महादेव मिटा डालेंगे! लेकिन कारण है कि हम ईश्वर के एक ही पहलू को पकड़ते हैं। आपको रहने का बीच में मौका नहीं मिलेगा। संसार के लिए उपाय कृष्ण में ईश्वर के दोनों पहलू एक साथ हैं। इसलिए कृष्ण एक तरफ | नहीं रहेगा। इसलिए विष्णु! गीता जैसा अदभुत ग्रंथ दे पाते हैं, दूसरी तरफ स्त्रियों के साथ नाच ___ इसलिए हमने सारी जमीन पर जो मंदिर बनाए, वे विष्णु के मंदिर भी पाते हैं। और इसमें उन्हें कोई अड़चन नहीं है। इसमें कोई | हैं। और सारे अवतार विष्णु के अवतार हैं। उसका कारण है। अड़चन नहीं है। एक तरफ प्रेम की बात भी कर पाते हैं और दूसरी | | क्योंकि वे बीच में हैं। वही संसार है हमारा। विष्णु संसार हैं। दो तरफ अर्जुन को युद्ध में जाने के लिए सलाह भी दे पाते हैं। काटो! छोर हैं, ब्रह्मा और महादेव तो। महादेव की हम पूजा करते हैं, तो इसकी भी कोई चिंता नहीं है। दूसरी तरफ बांसुरी भी बजा पाते हैं। | भय के कारण, कि मना-बुझा लो, समझा-बुझा लो। यह बांसुरी बजाने वाला कभी कहेगा कि उठाओ तलवार और आपको पता है कि भय के कारण हम बहुत पूजा करते हैं। सभी 305 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-503 लोग अपनी बही-खाता शुरू करते हैं, श्री गणेशायनमः, गणेश जी हो रहा है। की स्तुति से। आपको पता नहीं कि क्यों? शायद आप भी करते आप व्यथित हो रहे हैं किसलिए? बीमारी है, दुख है, मौत है, होंगे, लेकिन पता नहीं। गणेश जी की मूर्ति मकान पर बनाए रखते यह दुख है। मृत्यु गहन दुख है। और सारे दुख उसी की छायाएं हैं। हैं। हर जगह पहले कुछ करना हो, तो गणेश जी की पहले | हर आदमी कंप रहा है, दुखी हो रहा है, घबड़ा रहा है, मिट न पूजा-प्रार्थना करनी पड़ती है। | जाऊं। जब कोई इस विराट को अनुभव करता है दूसरे रूप में, तो उसका कुल कारण इतना है कि पुराने शास्त्र कहते हैं कि गणेश देखा होगा अर्जुन ने कि सारे लोग मृत्यु के मुंह में चले जा रहे हैं, जो हैं, वे पहले बहुत विध्वंसकारी थे, बहुत उपद्रवी थे। और जहां चाहे वे कुछ भी कर रहे हों, चाहे वे दुकान जा रहे हों, मंदिर जा रहे भी कुछ शुभ कार्य हो रहा हो, वहां विघ्न खड़ा करना उनका काम हों, घर लौट रहे हों। कहीं भी जा रहे हों आप, आपका जाना-आना था। विघ्नेश्वर उनका पुराना नाम है। तो चूंकि उपद्रव वे न करें, | कुछ अर्थ नहीं रखता। एक बात तय है कि आप मौत के मुंह में जा इसलिए पहले उनकी स्तुति करके हम समझा-बुझा लेते हैं कि कोई रहे हैं। चाहे दुकान जा रहे हैं, चाहे घर आ रहे हैं। हर हालत में आप गड़बड़ न करना महाराज! श्री गणेशायनमः। तो उनका हम पहले मौत के मुंह में जा रहे हैं। स्मरण करते हैं। जब अर्जुन को प्रतीत हुआ होगा यह विकराल अग्निमुख, तब यह अक्सर हो जाता है। जिससे भय होता है, उसको पहले | | उसने देखा होगा, सारा लोक, सारे प्राणी, मौत के मुंह में चले जा स्मरण करना होता है। अब तो हम भूल भी गए कि वे विघ्नेश्वर रहे हैं और हर एक कंप रहा है। हैं। अब तो हम समझते हैं कि वे मंगलमूर्ति हैं। उपद्रवी हैं! उपद्रव ___ यह एक बहुत गहन अनुभव है। अगर आप भी आंख बंद करके से बचने के लिए, कि आपको पहले मनाए लेते हैं, फिर किसी और | लोगों के बाबत सोचे–यहां इतने लोग बैठे हैं, अगर आंख बंद की करेंगे पूजा और प्रार्थना। आप पहले राजी रहें, नहीं तो सब करके क्षणभर को सोचें तो यहां जो लोग बैठे हैं, वे सब मौत के उपद्रव हो जाएगा। मुंह में जा रहे हैं। एक घंटा व्यतीत हुआ, तो आप मौत के मुंह में शंकर की भी हम पूजा-प्रार्थना करते हैं भय के कारण। ब्रह्मा की | | सरक गए और थोड़ा ज्यादा। कोई आज मरेगा, कोई कल मरेगा, हम कोई पजा नहीं करते। शायद एक मंदिर है मल्क में ब्रह्मा के कोई परसों मरेगा, समय का ही फासला है। हम सब लाशें हैं, जिन लिए और कोई मंदिर नहीं है। क्योंकि क्या करना, वह तो बात | पर तारीखें लिखी हैं कि कब घोषणा हो जाएगी। लाशें चल रही हैं, खतम हो गई। ब्रह्मा ने जन्म दे दिया, अब कुछ और काम है नहीं | | गिर रही हैं, उठ रही हैं और कंप रही हैं, क्योंकि वह तारीख...! उनका। शंकर का अभी थोड़ा डर है, क्योंकि मौत वे देंगे। विष्णु गुरजिएफ कहा करता था कि अगर इस जमीन को अब धार्मिक के सारे मंदिर हैं। और सब रूप-राम हों, कृष्ण हों-सब विष्णु | बनाना हो, तो एक ही उपाय है। और वह कहता था, वैज्ञानिकों को के रूप हैं। और हम उनके मंदिर में पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं। सारी चिंता छोड़कर एक यंत्र खोज लेना चाहिए घड़ी की तरह, जो विष्णु संसार हैं। वह मध्य है। ये दो छोर द्वंद्व हैं। और इन दोनों छोरों | | हर आदमी के हाथ पर बांध दिया जाए, जो हमेशा उसको बताता को जोड़ने वाली लकीर विष्णु। | रहे कि अब मौत कितने करीब है। वह कांटा उसका घूमता रहे। दूसरा छोर अर्जुन को दिखाई पड़ना शुरू हो रहा है। यह हो सकता है, कठिन नहीं है। लेकिन वैज्ञानिक अगर अग्निरूप मुख वाला तथा अपने तेज से इस जगत को तपायमान बनाएंगे भी, तो हम उस वैज्ञानिक को ही मार डालेंगे, वह यंत्र भी करता हआ देखता है। और हे महात्मन। यह स्वर्ग और पथ्वी के तोड़ देंगे। यंत्र बन सकता है, क्योंकि शरीर के स्पंदन बताते हैं कि बीच का संपूर्ण आकाश तथा दिशाएं एक आपसे ही परिपूर्ण हैं। | अब आपमें कितना जीवन शेष है, आज नहीं कल। क्योंकि बच्चा तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर, | जब पैदा होता है, तो उसके जो क्रोमोसोम हैं, उसकी जो बनावट अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर, तीनों लोक अतिव्यथा | | के बुनियादी ढांचे हैं, जिस पर खड़ा है सारा जीवन, उनकी को प्राप्त हो रहे हैं। | नाप-जोख हो सकती है कि ये कितनी देर चलेंगे। जैसे आप घड़ी ___ अर्जुन को दिखाई पड़ रहा है, यह दूसरा रूप। और उसे साथ खरीदते हैं, तो दस साल की गारंटी हो सकती है। में दिखाई पड़ रहा है, इस दूसरे रूप के कारण सारा लोक व्यथित | तो बच्चा पैदा होता है, उसकी सारी की सारी, जिस दिन हम 3061 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का भयावह रूप शरीर की व्यवस्था को पूरा समझ लेंगे, उसके जीवन-कोष्ठ की व्यवस्था को, उस दिन हम कह सकेंगे कि यह बच्चा सत्तर साल चलेगा, कि अस्सी साल चलेगा। तो फिर एक यंत्र उसके हाथ पर बिठाया जा सकता है, जो बताता रहेगा कि अब कितना कम होता जा रहा है। घड़ी का कांटा घूमता रहेगा और मौत की तरफ आता रहेगा। और एक दिन आकर मौत पर रुक जाएगा। लेकिन जिएफ कहता है कि अगर यह यंत्र खोज लिया जाए, तो दुनिया आज फिर से धार्मिक हो सकती है। वह ठीक कहता है। यंत्र चाहे खोजा जाए या न खोजा जाए, जिस आदमी को भी मौत का खयाल आना शुरू हो जाता है, उसकी जिंदगी में परिवर्तन शुरू हो जाता है। क्योंकि जिसको भी यह पता चल जाए कि मैं मिट जाऊंगा, उसकी सारी वासनाओं का अर्थ खो जाता है। सबफ्यूटायल, सब व्यर्थ मालूम होने लगता है। क्या अर्थ है फिर एक मकान बनाने का ? फिर क्या अर्थ है इतना धन इकट्ठे करने का ? फिर क्या अर्थ है कि इतने लोग इज्जत दें, प्रतिष्ठा करें? कुछ भी अर्थ नहीं है। मुर्दे मुर्दों से प्रतिष्ठा मांग रहे हैं! मुर्दे मुर्दों से इज्जत इकट्ठी कर रहे हैं। और कुल फर्क इतना है कि हम आते थोड़ी देर से हैं, आप जाते थोड़े जल्दी हैं । या हम जाते थोड़े जल्दी हैं, आप आते थोड़ी देर से हैं। क्यू है। वह जो बस के पास क्यू लगा रहता है! क्यू लगाकर हम मौत के पास खड़े हैं। आपके प जरा आगे होंगे, आपका बेटा जरा पीछे होगा, आप जरा क्यू के बीच में होंगें। बाकी क्यू लगा हुआ है और उधर मुंह है। अर्जुन को दिखा होगा, सारा प्राणी-जगत क्यू लगाए खड़ा है, और मौत के मुंह में जा रहा है, और लपटें हर एक के ऊपर घूम रही हैं। इसलिए वह कह रहा है कि सारा जगत, आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक अतिव्यथा को प्राप्त हो रहे हैं। अलौकिक भी है यह रूप और भयंकर भी अलौकिक क्यों ? भयंकर कैसे अलौकिक कहा होगा अर्जुन ने ? अगर आप पूरे को देख पाएं, तो जब पतझड़ हो रही है और पत्ते गिर रहे हैं और वृक्ष नग्न हो गए हैं - अगर आपको दिखाई पड़ता हो थोड़ा गहरा, अगर आपके पास झांकने की क्षमता हो तो ये जो पत्ते गिर गए हैं और वृक्ष नग्न हो गए हैं, यह आने वाली बहार की खबर है। ये गिरते हुए पत्ते नए आने वाले पत्तों के द्वारा धक्का दिए गए हैं। भीतर से नए पत्ते आ रहे हैं, वह जगह बना रहे हैं। वे पुराने पत्तों को धक्का देकर गिरा रहे हैं। वृक्ष थोड़ी देर को नग्न हो | गया है, क्योंकि फिर दुल्हन की तरह सजने की उसकी तैयारी है। तो एक तरफ पतझड़ बहुत विकराल है, और दूसरी तरफ पतझड़ वसंत के आगमन की खबर है, वह जो आने वाला है, वह जो हो रहा है। 307 एक तरफ मौत दुख है। लेकिन हर मौत जन्म की खबर है। जब एक बूढ़ा आदमी मर रहा है, तो हमें सिर्फ एक मरता हुआ आदमी दिखाई पड़ता है। हमें पता नहीं कि जैसे नया पत्ता पुराने पत्ते को धक्का देकर गिरा रहा है। कोई नया बच्चा इस जगत में प्रवेश कर रहा है, एक पुराने शरीर को गिरा रहा है। अगर हम इस पूरे को देख पाएं, तो हम देखेंगे कि एक नया बच्चा किसी गर्भ में प्रवेश कर गया है, और एक बूढ़ा आदमी कब्र के किनारे आ गया है। वह नया बच्चा गर्भ में बढ़ने लगेगा और यह बूढ़ा आदमी कब्र में प्रवेश करने लगेगा। वह नया बच्चा गर्भ छलांग लगाकर बाहर आ जाएगा, यह बूढ़ा आदमी छलांग लगाकर कब्र में प्रवेश कर जाएगा। ये जरा दूर हैं फासले पर, इसलिए हमें दिखाई नहीं पड़ते, जरा बड़ा पर्सपेक्टिव, जरा बड़ा परिप्रेक्ष्य, देखने की नजर चाहिए। तो बूढ़ा आदमी जब मर रहा है, तो नया बच्चा पैदा हो रहा है। इसलिए अर्जुन कहता है, अलौकिक और भयंकर । इधर देखता हूं कि जन्म हो रहा है । इधर देखता हूं कि मौत हो रही है। और | देखता हूं कि जन्म और मौत किसी एक ही चीज के दो पैर हैं, जिसे हम जीवन कहते हैं। तो बहुत अलौकिक है। अलौकिक क्यों? क्योंकि लोक में ऐसा दिखाई नहीं पड़ता । | अलौकिक का मतलब है, जैसा लोक में दिखाई नहीं पड़ता। यहां तो हम बच्चे को बच्चा देखते हैं, बूढ़े को बूढ़ा देखते हैं। पतझड़ | को पतझड़ और वसंत को वसंत देखते हैं। यहां हम दोनों को जोड़कर नहीं देखते। वे लेकिन जो आदमी जरा ऊपर उठता है और दृष्टि उसकी खुलती है, उसे दिखाई पड़ता है, ये दोनों तो जुड़े हैं। कल तक हमने समझा था, जन्म अलग, मौत अलग। अब हम देखते हैं, वे एक ही हैं। एक ही लहर के दो छोर हैं। यह अलौकिक है। इसलिए अर्जुन को लगता है, बड़ा अलौकिक ! क्योंकि हम तो सोचते थे, सुंदर अलग, कुरूप अलग। हम तो सोचते थे, मित्र | अलग, शत्रु अलग। हम तो सोचते थे, अपना-पराया। यहां तो दोनों एक हैं। द्वंद्व, हम सोचते थे, विपरीत हैं; यहां पता चलता है कि द्वंद्व तो 1 हैं। यह तो साजिश है। यह तो जन्म और मौत की Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 साजिश है। ये दोनों एक साथ जुड़े हैं। अब तक हमने विपरीत समझा था। हमने सोचा था, मृत्यु जो है, वह जन्म के खिलाफ है। और हमने चाहा था कि मृत्यु को रोक दें, ताकि जगत में जन्म ही जन्म रह जाए। लेकिन हमें पता नहीं है कि हम जो सोचते हैं, वह हो नहीं सकता, क्योंकि व्यवस्था अस्तित्व की हमारे खयाल में नहीं है। जिस दिन जन्म हुआ, मौत हो गई। जन्म के साथ ही मरना शुरू हो गया। आप कल मरेंगे, लेकिन मरने का काम आपको जीवनभर करना पड़ेगा, तब तो मरेंगे। एकदम से कैसे मरेंगे ! इस जगत में कुछ एकदम से नहीं घटता । प्रक्रिया है, सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ेंगे और मरेंगे। तो जन्म पहला कदम है की तरफ। अगर जन्म पहला कदम मौत की तरफ, तो जो देखता है उसको दिखाई पड़ेगा, मौत फिर पहला कदम है नए जन्म की तरफ। हम मरते आदमी को देखते हैं कि मर गया, क्योंकि हमें आगे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। हमें लगता है कि बस, एक खाई के किनारे जाकर एक आदमी गिर गया, खतम हो गया। क्योंकि हमें आगे दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन जहां मौत घट रही है, तत्क्षण उससे जुड़ा हुआ जन्म घट रहा है। क्योंकि इस जगत में कुछ भी मिट नहीं सकता। मिटने का कोई उपाय ही नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, रेत के एक छोटे-से कण को भी नष्ट नहीं किया जा सकता। इस जगत में जितना है, जो है, वह उतना ही है, उतना ही रहेगा। न हम उसमें कुछ जोड़ सकते हैं, न कुछ घटा सकते हैं। तो फिर एक आदमी मरता है, मर कैसे सकेगा? कुछ मिटता नहीं है, तो यह आदमी कैसे मिट सकेगा? यह केवल हमारी नजर ओझल हुआ जा रहा है। जहां तक हम देख सकते हैं, वहां तक दिखाई पड़ रहा है; उसके पार हम नहीं देख सकते। यह किसी नए डायमेंशन में, किसी नए आयाम में प्रवेश कर रहा है, जहां हमें दिखाई नहीं पड़ता । जैसे एक जहाज जाता है पानी में दिखाई पड़ता है, दिखाई पड़ता है, दिखाई पड़ता है । फिर फीका होता जाता है, फीका होता जाता है। फिर अचानक तिरोहित हो जाता है। क्योंकि जमीन गोल है । जैसे ही जमीन की उस गोलाई को जहाज पार कर लेता है, जिसके पार गोलाई उसको छुपाने का कारण बन जाएगी, हमारी आंख से ओझल हो जाता है, गया! मृत्यु भी एक वर्तुल, एक गोलाकार घटना है। जन्म और मृत्यु 308 तक आधा वर्तुल पूरा होता है। फिर मृत्यु से जन्म तक आधा वर्तुल पूरा होता है । मृत्यु के किनारे जाकर एक चेतना उस ओझल होते जहाज की तरह आगे निकल जाती है, जहां तक हम देखते हैं उस सीमा के आगे। हम कहते हैं, आदमी मर गया। शरीर गिरकर हमारे पास रह जाता है, चेतना नए जन्म की यात्रा पर निकल जाती है। जब अर्जुन ने देखा होगा कि जन्म और मौत एक ही वर्तुल के हिस्से हैं, सुंदर - कुरूप एक ही वर्तुल के हिस्से हैं, मित्र - शत्रु एक ही बात है, तो अलौकिक लगा होगा ! क्योंकि लोक में ऐसा अनुभव नहीं होता। और भयंकर भी लगा कि यह क्या है सब ! घबड़ाने वाला भी लगा । और यह देखकर कि सारा जगत इसमें फंसा हुआ है, वह कहने लगा, और हे गोविंद ! वे देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम और गुणों का उच्चारण कर रहे हैं। देवता भयभीत होकर, हाथ जोड़े हुए, आपके ही नाम और गुणों की स्तुति कर रहे हैं! यह थोड़ा विचारें । मनसविद, समाजशास्त्री कहते हैं कि धर्म का जन्म भय से हुआ है। उनके कारण दूसरे हैं। वे कहते हैं, आदमी डरता रहा है प्रकृति की शक्तियों से । और डर की वजह से उन्हें फुसलाने के लिए हाथ जोड़कर प्रार्थना करता रहा है। आकाश में बादल गरजते हैं, अगर आप गुफा में रहते रहे होंगे कभी, तो घबड़ा गए होंगे। प्रकृति की विराट शक्तियां हैं, विध्वंस कर सकती हैं। क्षण में पहाड़ गिर जाते हैं, लोग दबकर नष्ट हो जाते हैं। भूकंप होता है, लोग विनष्ट हो जाते हैं, खो जाते हैं। गर्जना होती है बिजली की, कुछ समझ नहीं आता। तूफान आते हैं, बाढ़ आती है, और कुछ आदमी कर नहीं सकता। विज्ञानविद कहते हैं कि आदमी उस भय की स्थिति में एक ही बात सोच सका, और वह यह था कि यह जो इतनी भयभीत करने वाली शक्तियां हैं, इनसे प्रार्थना की जाए, इन्हें परसुएड, फुसलाया जाए कि नाराज मत होओ। वह यही सोच सका कि नाराज हो गई है नदी, इसलिए हाथ जोड़कर प्रार्थना करो। नाराज हो गए हैं बादल इसलिए पानी नहीं गिर रहा है। हाथ जोड़कर प्रार्थना करो। कुछ पूजा करो, स्तुति करो, महिमा गाओ। वैज्ञानिक कहते हैं, इसी भय से धर्म का जन्म हुआ है। थोड़ी दूर तक उनकी बात सच है, लेकिन बहुत ज्यादा दूर तक नहीं है। बहुत ज्यादा दूर तक नहीं है। थोड़ी दूर तक इसलिए सच है कि जरूर भय Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 परमात्मा का भयावह रूप का थोड़ा हाथ है। लेकिन इतना ही भय काफी नहीं है। तो अर्जुन देख रहा है कि आदमी की तो बिसात क्या, देवता भी असली भय न तो नदियों का है, असली भय न तो पहाड़ों के कंप रहे हैं। वे भी हाथ जोड़े खड़े हैं। उनके भी घुटने टिके हैं। वे गिरने का है, असली भय न तो ज्वालामुखियों के फूटने का है, | भी प्रार्थना कर रहे हैं। वे आपका नाम लेकर उच्चारण कर रहे हैं, असली भय तो मौत का है। मौत के भय के कारण ही बाढ़ भी | स्तुति कर रहे हैं! क्यों? क्योंकि देवता भी मिटने से उतना ही डरा भयभीत करती है, ज्वालामुखी भी भयभीत करता है, गिरता पहाड़ | | हुआ है। भी भयभीत करता है। लेकिन अगर पहाड़ गिरे और आप न मरें और | बुरा आदमी ही मिटने से डरता है, ऐसा मत समझना; भला वैसे के वैसे ही वापस निकल आएं, फिर पहाड़ भयभीत नहीं करेगा। | आदमी भी मिटने से डरता है। बल्कि कई दफे तो बुरे आदमी से बाढ़ आए और कुछ न बिगाड़ पाए, पृथ्वी कंपे और आप अडिग | ज्यादा भला आदमी मिटने से डरता है। क्योंकि भले को लगता है बैठे रहें और आपका बाल भी बांका न हो, तो फिर भय नहीं होगा। | कि इतना सब भला किया और मिट गए। बुरे को लगता है, डर भी तो न तो पहाड़ों का भय है, न नदियों का भय है, न सूर्यों का क्या है! ऐसा कुछ किया भी क्या है, जिसको बचाने की जरूरत भय है, भय तो सिर्फ एक है, मौत का। उसको अगर हम ठीक से हो। मिट गए, तो मिट गए। और बुरा तो चाहेगा कि मिट ही जाएं समझें, तो एक ही भय है, मिट जाने का। मैं नहीं हो जाऊंगा। मैं तो अच्छा है, क्योंकि जो किया है, कहीं उसका फल न भुगतना नहीं बचूंगा। मेरा मिटना हो जाएगा, मैं शून्य हो जाऊंगा। ना-कुछ पड़े। भला चाहता है कि बचे, क्योंकि इतना उपद्रव किया, इतनी हो जाऊंगा। मेरी सब रेखाएं खो जाएंगी, जैसे रेत पर बनी रेखाएं, | साधना की, इतने व्रत-उपवास किए, इतनी पूजा-प्रार्थना की, और हवा का झोंका आए और मिट जाएं। ऐसा मैं नहीं हो जाऊंगा. यह मिट गए। तो इसका पुरस्कार ? तो नाहक ही जीवन गया! नथिंगनेस...। देवता भली चेतनाओं के नाम हैं, शुद्धतम चेतनाओं के नाम हैं। • सार्च ने एक किताब लिखी है, बीइंग एंड नथिंगनेस-होना और लेकिन देवता वासना के बाहर नहीं हैं। शुद्धतम चेतना है, लेकिन न होना। सारी कथा जीवन की यही है। हैं हम, और न होना हमें वासना के भीतर है। इसलिए हमने मनुष्य से देवता को एक अर्थ चारों तरफ से घेरे हुए है। और कुछ भी करें, वह कंपाता है कि आज | | में ऊपर रखा है, कि वह मनुष्य से ज्यादा शुद्धतर स्थिति है। लेकिन नहीं कल, आज नहीं कल मैं नहीं हो जाऊंगा। यह है भय। । | एक अर्थ में नीचे भी रखा है, क्योंकि अगर उसको मुक्त होना हो, निश्चित ही, इस भय से धर्म का विचार पैदा हुआ होगा। और तो उसे मनुष्य में वापस लौट आना पड़ेगा। यह खयाल में आना शुरू होगा कि अगर नहीं ही हो जाना है, तो | | मनुष्य चौराहा है। पशु होना हो, तो मनुष्य की तरफ से यात्रा जाती इसके पहले कि मैं नहीं हो जाऊं, मैं थोड़ा इसका भी तो पता लगा | | है। देवता होना हो, तो मनुष्य की तरफ से यात्रा जाती है। और अगर लूं कि क्या कुछ मेरे भीतर ऐसा भी है, जिसे दुनिया की कोई शक्ति | समस्त जीवन के पार जाना हो, तो भी मनुष्य से ही यात्रा जाती है। मिटा नहीं सकती? क्या सारी मृत्यु भी आ जाए, तो भी मेरे भीतर तो देवता एक छोर है शुद्ध होने का। इसे हम ऐसा समझें कि अगर कोई अमृत बचेगा? क्या मैं बचूंगा? सारे मिटने की घटना के बाद नैतिक आदमी सफल हो जाए पूरी तरह, तो देवता हो जाएगा। नैतिक भी क्या कुछ बच रहेगा? वह कुछ क्या है? उसको ही हम आत्मा आदमी अगर सफल हो जाए पूरी तरह, जो दस धर्मों को मानकर कहते हैं। वही सार है। जिसको मृत्यु नहीं मिटा पाती, उसका नाम चलता है, अगर सफल हो जाए पूरी तरह, अहिंसा, सत्य, आत्मा है। अपरिग्रह, अचौर्य, सब सध जाए, सारे पाप क्षीण हो जाएं और सारे अगर आपको ऐसा पता चलता हो कि जो भी आप अपने बाबत | पुण्य उसे उपलब्ध हो जाएं, तो जो हमारी अंतिम कल्पना है, वह यह जानते हैं, वह मृत्यु में मिट जाएगा, तो आप पक्का समझना, | है कि वह देवता हो जाएगा। वह शुद्धतम होगा, उसके पास शरीर आपको आत्मा का कोई पता नहीं है। अगर आपको ऐसी किसी | | नहीं होगा, सिर्फ चेतना होगी। उसके पास इंद्रियां नहीं होंगी, लेकिन चीज का अनुभव होता हो आपके भीतर जो मृत्यु में नहीं मिटेगा, | | वासना होगी। इंद्रियों के कारण वासना को जो बाधा पड़ती है, वह तो ही समझना कि आपको आत्मा का कोई अनुभव शुरू हुआ है। उसे नहीं पड़ेगी। उसकी वासना, उसकी इच्छा, पैदा होते ही पूर्ण हो आत्मा मानने की बात नहीं है, अनुभव की बात है। आत्मा मृत्यु के | जाएगी, उसी क्षण। वह सोचेगा, यह हो, वैसा हो जाएगा। उसकी विपरीत खोज है। | वासना में और वासना के पूरे होने में समय का व्यवधान नहीं होगा। 309 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 आपको भूख लगती है, तो फिर रोटी बनानी पड़ती है, भोजन आखिरी शिखर, एवरेस्ट, गौरीशंकर, वह इंद्र है। वहां एक ही पहुंच पकाना पड़ता है, या होटल जाना पड़ता है, आर्डर करना पड़ता है, सकता है। वह शिखर आखिरी है, चोटी। वहां दो नहीं हो सकते। समय लगता है। देवता को भूख लगेगी, भोजन हो जाएगा। बीच तो जब भी नीचे से कोई ऊपर चढ़ने की कोशिश शुरू करता है, में कोई इंद्रियां नहीं हैं, जिनकी वजह से समय के लिए कोई बाधा | तब वह शिखर कंपने लगता है। और इंद्र घबड़ाता है। इसके पहले पड़े, कोई माध्यम नहीं है। उसकी वासना उसकी तृप्ति होगी। कि यह आदमी चढे. इसको उतारने की कोशिश करो। और आदमी लेकिन वासना होगी, शुद्ध वासना होगी। को उतारने के लिए स्त्री से ज्यादा बेहतर और कुछ भी नहीं है। भेजो . लेकिन वासना जहां होती है, वहां अहंकार भी होता है। और | स्त्री को! वह तो स्त्रियों ने साधना नहीं की, नहीं तो आदमियों को जहां अहंकार होता है, वहां मिटने का डर भी होता है। जब तक भेजना पड़ता, वह कोई बात नहीं है! स्त्रियां इस झंझट में नहीं पड़ीं लगता है, मैं हूं, तब तक मिटने का डर भी रहेगा। तो देवता भी डर कि क्यों तकलीफ दो! इंद्र को काहे को हिलाओ! किसी को क्यों रहा है। बल्कि सच तो यह है कि देवता आपसे ज्यादा डर रहे हैं, तकलीफ दो! क्योंकि उनके पास खोने को ज्यादा है। | यह जो भय है इंद्र का, यह बहुत साइकोलाजिकल है, यह बहुत कम्युनिस्ट कहते हैं कि जब तक जमीन पर किसी मुल्क में बड़ी | मनस के गहरे में है। जो भी शिखर पर होगा किसी चीज के, वह संख्या ऐसी न हो जाए जिसके पास खोने को कुछ भी नहीं, तब | उतना ही ज्यादा भयभीत हो जाएगा। आप जिस मजे से सोते हैं, तक क्रांति नहीं हो सकती। वे ठीक कहते हैं। मध्यवर्गीय आदमी | प्रधानमंत्री नहीं सो सकता। कोई उपाय नहीं है। क्योंकि कई कभी क्रांतिकारी नहीं होता। और धनपति तो क्रांतिकारी होगा कैसे! | ऋषि-मुनि नीचे कोशिश कर रहे हैं! वे चढ़ रहे हैं! कुछ भेजो उनके क्योंकि क्रांति का मतलब है, जो है, वह खो जाएगा। मध्यवर्गीय | लिए। कोई अप्सरा भेजो। कोई पद भेजो। कहीं गवर्नर बनाओ। भी क्रांतिकारी नहीं होता। कुछ करो। नहीं तो वे ऋषि-मुनि आ रहे हैं! वे चढ़ दौड़ेंगे। आज इसलिए अमेरिका में कोई क्रांति नहीं हो रही। क्योंकि अमेरिका | नहीं कल उतारकर प्रधानमंत्री को, राष्ट्रपति को, नीचे करेंगे। खुद! में पूरा देश मध्यवर्गीय हो गया है। गरीब से गरीब आदमी भी | | आखिर वहां एक ही बैठ सकता है। तो वह जो एक बैठा हुआ है, बिलकुल गरीब नहीं है, उसके पास भी कुछ है। और वह जो कुछ दिक्कत में है। है, वह खद उसको बचाना चाहता है, तो क्रांति की बातचीत में वह | लाओत्से ने कहा है. उस जगह रहना जो आखिरी हो. ताकि कोई नहीं पड़ सकता। क्योंकि क्रांति में खोने का डर है। और अगर तुम | तुम्हें धक्का देने न आए। आखिरी जगह खड़े हो जाना, ताकि तुम्हें दूसरों से छीनने जाओगे, तुम्हारा भी छिन जाएगा। तो क्रांति रोकने कोई धक्का न दे। अगर पहले जाने की कोशिश करोगे, तो अनेक का एक ही उपाय अमेरिका में सफल हो पाया है, और वह यह कि तुम्हें पीछे खींचने की कोशिश करेंगे। जो क्रांति कर सकते हैं, उनके पास कुछ होना चाहिए। अगर पास तो इंद्र बेचैन है। कुछ भी नहीं है, तो फिर बहुत उपद्रव है, फिर क्रांति होगी। कृष्ण से अर्जुन कह रहा है कि देवताओं को भी मैं देख रहा हूँ डर क्या है? डर हमेशा यह है कि जो मेरे पास है, वह खो न जाए। | कि वे कंप रहे हैं, भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए हैं, आपके नाम इसलिए आपने कहानियां सुनी हैं पुरानी, लेकिन कभी इस कोण और गुणों का उच्चारण कर रहे हैं। महर्षि और सिद्धों के समुदाय, से नहीं देखा होगा। इस पूरे प्राणियों के विस्तार में इंद्र से ज्यादा | कल्याण होवे, ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम शब्दों द्वारा आपकी प्रशंसा भयभीत, पुरानी कहानियों में कोई भी नहीं मालूम पड़ता। हमेशा कर रहे हैं। उसका सिंहासन डगमगा जाता है। जरा ही किसी ने तपस्या की कि | ___ महर्षि और सिद्धों के समुदाय भी कह रहे हैं, कल्याण, कल्याण उनको तकलीफ शुरू हुई! कोई साधु-मुनि बेचारा ब्रह्मचारी हुआ, | | होवे। दया हो, कृपा हो, अनुग्रह हो! महर्षि और सिद्धों के समुदाय कि वे मुश्किल में पड़े, कि उन्होंने अपनी अप्सराएं भेजीं, कि करो | भी क्यों घबड़ा रहे हैं? भ्रष्ट इसको! आखिर इंद्र को इतना डर क्या है? इतना क्या भय है ? | | मिटने का भय आखिरी सीमा तक है। आखिरी सीमा तक! भय का कारण है। उसके पास है। वह शिखर पर बैठा है वासना | जिसने बहुत-सी सिद्धियां पा ली हैं, उसको सिद्ध कहा है। ये सिद्ध के। देवता शुद्धतम वासना हैं। और देवताओं में श्रेष्ठतम वासना, महावीर और बुद्ध के अर्थों में नहीं हैं। सिद्ध उसको कहा है, जिसने 3101 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ परमात्मा का भयावह रूप बहुत-सी सिद्धियां पा ली हैं, ऋद्धियां-सिद्धियां पा ली हैं, | भी यह रूम रहेगा, बिना दीवाल के रहेगा। अगर आपने दीवालों चमत्कार कर सकता है। वह भी कंप रहा है। महर्षि, जो बहुत जानते | | से समझा कि अपना मकान, तो आप घबड़ाए रहेंगे, कि आज हैं, ज्ञान का अंबार जिनके ऊपर है, जिनकी जानकारी का कोई अंत | | मिटा, कल मिटा। अगर आपने इस खाली जगह, रूम को समझा नहीं है, वे भी कंप रहे हैं। वे भी कह रहे हैं, कल्याण, कल्याण। | कि मेरा मकान, फिर आपको भय की कोई भी जरूरत नहीं है। मैं दया करो, क्षमा करो। भयभीत हो रहे हैं। | दीवाल है। भीतर जो शून्य, शांत, चैतन्य है, वह आकाश है। क्यों? दूसरी तरफ से समझें। देवता भी कंपेंगे, मुनि भी कंपेंगे, सिद्ध भी कंपेंगे। वे सभी के बुद्ध ने कहा है, जब तक तुम्हें खयाल है कि तुम हो, तब तक | सभी किसी न किसी तरह के मैं से अभी जुड़े हुए हैं। तुम्हारा भय नहीं मिट सकता। तो बुद्ध ने कहा है, अगर तुम भय | और हे परमेश्वर! जो एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, आठ वसु, से मुक्त होना चाहते हो, तो तुम पहले ही मान लो कि तुम हो ही | | साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनी कुमार, मरुदगण और पितरों का नहीं। और तुम इस तरह जीयो जैसे नहीं हो। और तुम्हारी एक ही | समुदाय तथा गंधर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धगणों के समुदाय हैं, वे साधना हो कि तुम हो ही नहीं। फिर तुम्हें कोई भयभीत न कर | सभी विस्मित हुए आपको देख रहे हैं। उनकी किसी की समझ में सकेगा। और एक क्षण भी जिस दिन तुम्हें यह अनुभव हो जाएगा नहीं आता कि यह क्या है! कि तुम हो ही नहीं, शून्य हो, उस दिन तुम्हें कहीं भी भय का कोई | | जहां द्वंद्व खो जाते हैं, वहां समझ भी खो जाती है और केवल कारण नहीं रह गया। क्योंकि जो मिट सकता था, उसे तुमने खुद | | विस्मय रह जाता है। समझ चलती है तब तक, जब तक द्वंद्व को ही त्याग दिया। अब तो वही बचा है, जो मिट ही नहीं सकता। अलग-अलग करके हम रखते हैं। जहां एक हो जाती हैं दोनों बातें, हमारे भीतर जो मैं का भाव है, वह मिट सकता है। और हमारे | वहां समझ खो जाती। और यह जो नासमझी है, समझ के खो जाने भीतर जो मैं-शून्यता की अवस्था है, वह नहीं मिट सकती। मैं | पर जो आती है, इस नासमझी को ज्ञान कहा है। यह जो नासमझी स्ट्रक्चर है, ढांचा है हमारे चारों तरफ, वह मिटेगा। जैसे शरीर का है, इसे ज्ञान कहा है। एक ढांचा है, वह मत्य में मिटेगा। ऐसे ही मैं का भी एक ढांचा है. इस ज्ञान के क्षण में सिर्फ भीतर का शन्य. बाहर का शन्य दिखाई वह भी मिटेगा। इस ढांचे के भीतर एक शून्य है। | पड़ता है, जो एक हो गए। और बाहर-भीतर भी दिखाई नहीं पड़ता ऐसा समझें कि आपने एक मकान बनाया। मकान तो मिटेगा, | | कि क्या बाहर है, क्या भीतर है। दोनों एक हो गए होते हैं। इस दीवालें तो गिरेंगी, खंडहर होगा, देर-अबेर। लेकिन मकान के | | बाहर-भीतर की एकता में, इस शून्य में ही भय तिरोहित होता है। भीतर जो शून्य आकाश था, वह नहीं मिटेगा। जब आपकी दीवालें| | तो अर्जुन कह रहा है कि सभी भयभीत हो रहे हैं। आपका यह नहीं थीं, तब भी था। फिर आपने दीवालें उठाईं, तो आपने उस शून्य | | रूप देखकर सभी विस्मित हो गए हैं, किसी की कुछ समझ में नहीं आकाश को दीवालों के भीतर घेर लिया। फिर आपकी दीवालें गिर पड़ रहा है। जाएंगी, वह शून्य आकाश वहीं का वहीं रहेगा। आज इतना ही। __ और ध्यान रखें, मकान है क्या? दीवालों का नाम मकान नहीं पांच मिनट रुकें। कीर्तन के बाद जाएं। है, क्योंकि दीवालों में कौन रह सकता है। रहते तो शन्य आकाश में हैं। दीवाल में रह सकते हैं आप? रहते कमरे में हैं। अंग्रेजी का शब्द रूम बहुत अच्छा है। रूम का मतलब होता है, स्पेस। आप रहते रूम में हैं, खाली जगह में हैं, दीवालों में नहीं रहते। अगर अकेली दीवालें ही हों मकान में और खाली जगह न हो, तो उसको कौन मकान कहेगा? आप रहते खाली जगह में हैं, वहीं जीवन है। दीवालें सिर्फ खाली जगह को घेरे हुए हैं। दीवालें नहीं थीं, तब भी यह खाली जगह थी। यह रूम था, बिना दीवाल के था। कल दीवालें गिर जाएंगी, तब 311 Page #342 --------------------------------------------------------------------------  Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 पांचवां प्रवचन अचुनाव अतिक्रमण है Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग- 58 रूपं महत्ते बहुवकत्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहरुपादम् । और हे विश्वमते, जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात समुद्र में प्रवेश करते हैं, प्रव्यथितास्तथाहम् ।। २३ ।। वैसे ही वे शूरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्ण व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् । हुए मुखों में प्रवेश करते हैं। दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृति न विन्दामि शमं च विष्णो ।। २४ ।। दंष्ट्राकरानानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि । | एक मित्र ने पूछा है कि परमात्मा के विराट स्वरूप को दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश समझाते हुए आपने कल जन्म और मृत्यु, सृजन और जगनिवास ।। २५।। संहार, सुंदर और भयानक आदि के द्वंद्वात्मक अस्तित्व अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहवावनिपालसंधः। की बात की। समझाएं कि जिस परम सत्य को अमृत भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि या सच्चिदानंद के नाम से कहा गया, वह उपरोक्त योधमुख्यैः । । २६ ।। द्वंद्वों का जोड़ है, अथवा इन दो के अतीत वह कोई वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि । तीसरी सत्ता है? केचिद्धिलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गः ।। २७ ।। यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति । । द्वचारों ओर है। संसार में जहां भी देखेंगे, वहां एक तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति ४ कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगा। विपरीत सदा मौजूद वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ।। २८।। होगा। संसार के होने का ढंग ही विपरीत के बिना और हे महाबाहो, आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले तथा असंभव है। इस एक बात को ठीक से समझ लें। जैसे कि कोई बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले और बहुत उदरों वाले तथा | मकान बनाने वाला राजगीर विपरीत ईंटों को जोड़कर गोल दरवाजा बहुत-सी विकराल जाड़ों वाले महान रूप को देखकर सब बनाता है। अगर एक ही रुख में ईंटें लगाई जाएं, तो दरवाजा गिर लोक व्याकुल हो रहे हैं तथा में भी व्याकुल हो रहा हूं। | जाए। विपरीत ईंटें एक-दूसरे के प्रति विरोध का काम करके दरवाजे __ क्योंकि हे विष्णो, आकाश के साथ स्पर्श किए हुए, | को सम्हालने का आधार बन जाती हैं। देदीप्यमान, अनेक रूपों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और । सारा जगत विपरीत ईंटों से बना हुआ है। वहां प्रकाश है, तो प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत केवल इसीलिए कि अंधेरा भी है। और अंधेरा भी हो सकता है तभी अंतःकरण वाला मैं धीरज और शांति को नहीं प्राप्त होता है। तक, जब तक प्रकाश है। प्रकाश और अंधेरा विपरीत ईंटें हैं। दो ___ और हे भगवन, आपके विकराल जाड़ों वाले और कारणों से। एक तो सभी ईंटें समान होती हैं, हम उन्हें विपरीत लगा प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर सकते हैं। अंधेरा और प्रकाश एक ही सत्ता के दो रूप हैं। ईंटें एक दिशाओं को नहीं जानता हूं और सुख को भी नहीं प्राप्त । | जैसी हैं, लेकिन एक-दूसरे के विपरीत लग जाती हैं। होता हूं। इसलिए हे देवेश, हे जगन्निवास, आप प्रसन्न होवें।। | जन्म और मृत्यु एक ही जीवन के दो छोर हैं। लेकिन जन्म नहीं और मैं देखता हूं कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के | होगा जिस दिन, मत्य बंद हो जाएगी। और मत्य भी नहीं होगी उसी दिन, जिस दिन जन्म बंद हो जाएगा। जन्म और मृत्यु का विरोध जो द्रोणाचार्य, तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं तनाव पैदा करता है, वही तनाव संसार है। के सहित सब के सब, वेगयुक्त हुए आपके विकराल जाड़ों | | संसार एक अशांत अवस्था है। और अशांत अवस्था तभी हो वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्ण | सकती है, जब वैपरीत्य, द्वंद्व मौजूद हो। आप भी अगर केवल हुए सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखते हैं। आत्मा हों, तो संसार में नहीं रह जाएंगे। आप भी केवल शरीर हों, |314 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अचुनाव अतिक्रमण है | तो भी आप आप नहीं रह जाएंगे, मिट्टी हो जाएंगे। आपके भीतर | | है। और ऐसे विकास होता है। भी शरीर और आत्मा का एक द्वंद्व है। उस द्वंद्व के तनाव में विपरीत मार्क्स ने इसी विचार के आधार पर समाज की व्याख्या की। ईंटों के बीच ही आपका अस्तित्व है। जहां भी खोजेंगे, वहां पाएंगे और उसने कहा कि गरीब और अमीर का द्वंद्व है। इस द्वंद्व से, इस कि विरोध है। . द्वंद्व के पार समाजवाद का जन्म होगा। राम के अकेले होने का कोई उपाय नहीं है। रावण का होना लेकिन मार्क्स अपने ही विचार को बहुत दूर तक नहीं खींच सका। एकदम जरूरी है। और रावण हमें कितना ही अप्रीतिकर लगे, अगर यह सच है कि विकास द्वंद्व से होता है, तो समाजवाद के पैदा कितना ही हम चाहें कि वह न हो, लेकिन हमें पता नहीं कि रावण | | होते ही समाजवाद के विपरीत कोई धारा तत्काल पैदा हो जाएगी। के न होते ही राम के होने का कोई उपाय नहीं रह जाता। थोड़ा सोचें, लेकिन मार्क्स को यह हिम्मत नहीं पड़ सकी कि वह कहे कि रावण को हटा लें राम की कथा से। तो रावण के हटाते ही राम में | | समाजवाद के विपरीत भी कोई धारा पैदा होगी। उसने पुराने जो भी महत्वपूर्ण है, तत्क्षण गिर जाएगा। वह तो रावण की विपरीत | इतिहास में तो द्वंद्व को देखा, कामना की कि भविष्य में कोई द्वंद्व ईंट के कारण ही राम की प्रखरता है। राम को हटा लें, तो रावण | | नहीं होगा, और साम्यवाद सदा बना रहेगा, उसका कोई विरोध नहीं व्यर्थ हो जाएगा। होगा! वह अपने विचार के प्रति अति मोह के कारण। जैसे मां सारे जीवन का चक्र द्वंद्व के आधार पर है। यह जो द्वंद्व है, यह अपने बेटे को नहीं चाहती कि वह मरे, जानते हुए कि सभी मरते जिस दिन शांत हो जाता है, उस दिन हम संसार के बाहर हो जाते हैं। | हैं, उसका बेटा भी मरेगा। विचारक भी अपने विचार से अति जिस क्षण यह द्वंद्व शांत होता है, उस क्षण अद्वैत में प्रवेश होता है। | मोहग्रस्त हो जाते हैं। लेकिन अद्वैत जीवन नहीं है। अद्वैत ब्रह्म है। अद्वैत जीवन इसलिए | | इस जगत में कुछ भी पैदा नहीं हो सकता, जिसका विरोध न हो। नहीं है कि वहां कोई मृत्यु नहीं है। जहां मृत्यु नहीं है, वहां जीवन का विरोध होगा ही। विरोध ही गति है, इस जगत का प्राण है। यहां कोई अर्थ नहीं होता। जहां हार हो सकती है, वहां विजय का कोई निर्विरोध कोई बात नहीं हो सकती। मूल्य है। जहां मिटना हो सकता है, वहां होने का कोई अर्थ है। जिन्होंने पूछा है, उन्होंने पूछा है कि उस परम एकाकार का जब हमारे सारे शब्द संसार के हैं। इसलिए जो भी हम कहें भाषा में. अनभव होगा. तो दोनों द्वंद्व मिल जाएंगे या दोनों द्वंद्रों के अतीत उसका विपरीत होगा ही। उस विपरीत को हम कितना ही भुलाने की | चला जाता है व्यक्ति? कोशिश करें, उसे भुलाने का कोई उपाय नहीं है। हम कितना ही दोनों बातें एक ही हैं। जहां द्वंद्व मिलते हैं, वहां एक-दूसरे को काट छिपाएं, वह छिपेगा नहीं। इस पहली बात को ध्यान में ले लेना | देते हैं। जैसे ऋण और धन अगर मिल जाएं, तो दोनों कट जाते हैं। जरूरी है। संसार का अस्तित्व द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है। जहां दोनों द्वंद्व मिलते हैं, वहां उनकी दोनों की शक्ति एक-दूसरे को और संसार की सारी गति द्वंद्व से होती है। काट देती हैं और द्वंद्व शून्य हो जाता है। वही शून्यता पार होना भी जर्मन विचारक हीगल ने पश्चिम की विचारधारा में | | है, वही ट्रांसेंडेंस भी है, वहीं आदमी पार भी हो जाता है। डायलेक्टिक्स को जन्म दिया। उसने पहली दफा पश्चिम में यह | | जब तक आपका जीवन से मोह है, तब तक मृत्यु से भय रहेगा। विचार प्रस्तुत किया कि जीवन की सारी गति द्वंद्व से है। और जहां | | अगर जीवन का मोह छूट जाए, मृत्यु का भय भी तत्क्षण छूट द्वंद्व है, वहां गति होगी। और जहां गति है, वहां द्वंद्व होगा। और जाएगा। जहां जीवन का मोह नहीं, मृत्यु का भय नहीं, वहां आप जहां गति नहीं होगी, वहां द्वंद्व समाप्त हो जाएगा। या द्वंद्व बंद हो | पार निकल गए। वहां आप उस जगह पहुंच गए, जहां द्वंद्व नहीं है। जाए, तो गति समाप्त हो जाएगी। लेकिन हम तो ईश्वर की भी बात करते हैं, तो हमारी भाषा का हीगल के ही विचार को कार्ल मार्क्स ने नया रूप देकर | | द्वंद्व प्रवेश कर जाता है। हम कहते हैं, ईश्वर प्रकाश है। हम डरेंगे कम्यूनिज्म को जन्म दिया। क्योंकि हीगल ने कहा था, वाद पैदा | कहने में कि ईश्वर अंधकार है। क्योंकि हमारी आकांक्षा हमारे शब्द होता है, तो तत्क्षण विवाद पैदा होता है; थीसिस, एंटी-थीसिसः | की निर्मात्री है। हम चाहते हैं कि ईश्वर प्रकाश हो। तो अंधेरे को और दोनों मिलकर सिंथीसिस बन जाता है. समन्वय बनता है। लेकिन समन्वय फिर वाद हो जाता है, फिर उसका प्रतिवाद होता। हम कहते हैं, ईश्वर अमृत है, परम जीवन है। हम यह कहने की हम छोडद 315 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग- 58 हिम्मत नहीं जुटा पाते कि ईश्वर परम मृत्यु है, महामृत्यु है। हम आपके मन में कोई चुनाव न हो कि जीवन ही रहे, मृत्यु न रहे। आप चुनते हैं शब्द भी, तो हमारा मोह! हम चाहते हैं, कहीं भी मृत्यु न | | दोनों के लिए राजी हो जाएं। जो हो, उसके लिए आपकी पूरी की हो। तो हम ईश्वर के लिए अमृत का उपयोग करते हैं। पूरी तथाता, एक्सेप्टिबिलिटी हो, स्वीकार हो, तो आप संन्यस्त हैं। हम कहते हैं, ईश्वर सच्चिदानंद है। यह भी हमारा मोह है। हम फिर आप मकान में हैं, दुकान में हैं, बाजार में हैं कि हिमालय पर नहीं कह सकते कि ईश्वर परम दुख है, हम कहते हैं, परम सुख हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके भीतर चुनाव खड़ा न हो, है। द्वंद्व में से एक को चुनते हैं। वहां भूल हो जाती है। ईश्वर च्वाइसलेसनेस। सुख-दुख दोनों का मिल जाना है। और जहां सुख-दुख मिल जाते कृष्णमूर्ति निरंतर च्वाइसलेसनेस, चुनावरहितता की बात करते हैं, एक-दूसरे को काट देते हैं। उस घड़ी को हम जो नाम देंगे, वह | | हैं। वह चुनावरहितता यही है। दो के बीच कोई भी न चुनें। नाम सुख नहीं हो सकता। जैसे ही आप दो के बीच चुनाव बंद करते हैं, दोनों गिर जाते हैं। इसलिए हमने आनंद चुना है। आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं | | | क्यों? क्योंकि आपके चुनाव से ही वे खड़े होते हैं। और जटिलता है। सुख के विपरीत दुख है, आनंद के विपरीत कुछ भी नहीं है। | यह है कि जब आप एक को चुनते हैं, तब अनजाने आपने दूसरे हालांकि आप जब भी आनंद की बात करते हैं, तो आपका अर्थ | को भी चुन लिया। जब मैं कहता हूं, मुझे सुख ही सुख चाहिए, सुख होता है। वह अर्थ ठीक नहीं है। या होता है महासुख, वह भी | तभी मैंने दुख को भी निमंत्रण दे दिया। जो सुख की मांग करेगा, अर्थ ठीक नहीं है। आपके आनंद की धारणा में सुख समाया होता | वह दुखी होगा। उस मांग में ही दुख है। जो सुख की मांग करेगा, है और दुख अलग होता है, वह ठीक नहीं है। वह अगर सुख न पाएगा, तो दुखी होगा। अगर पा लेगा, तो भी आनंद की ठीक स्थिति का अर्थ है, जहां सुख और दुख मिलकर | दुखी होगा। क्योंकि जो सुख पा लिया जाता है, वह व्यर्थ हो जाता शून्य हो गए। एक-दूसरे को काट दिया उन्होंने। एक-दूसरे का | है। और जो सुख नहीं पाया जाता, उसकी पीड़ा सालती रहती है। निषेध हो गया। जहां दोनों नहीं रहे। | जैसे ही हम चनते हैं एक को. दसरा भी आ गया पीछे के द्वार इसलिए बुद्ध ने आनंद शब्द का प्रयोग नहीं किया। क्योंकि से। और हम चाहते हैं कि दूसरा न आए। इसीलिए हम चुनते हैं कि आनंद से हमारे सुख का भाव झलकता है। तो बुद्ध ने कहा, शांति, | दूसरा न आए। हम चाहते हैं, यश तो मिले, अपयश न मिले। परम शांति। सब शांत हो जाता है, द्वंद्व शांत हो जाता है। इसे चाहे | प्रशंसा तो मिले, कोई अपमान न करे। लेकिन जो प्रशंसा चाह रहा हम कहें दो का मिल जाना, चाहे हम कहें दो के पार हो जाना, एक है, उसने अपमान को बुलावा दे दिया। अपमान मिलेगा। अपमान ही बात है। तो केवल उसी को नहीं मिलता है, जिसने मान को चुना नहीं। जीवन में जहां भी आपको द्वंद्व दिखाई पड़े, चुनाव मत करना। | जिसने मान को चुना, उसे अपमान मिलेगा। जो चुनाव करता है, वह गृहस्थ है। जो चुनाव नहीं करता, वह ___ जरूरी नहीं है कि आप मान को न चुनें, तो कोई आपको गाली संन्यस्त है। | न दे। दे, लेकिन आपके पास गाली गाली की तरह नहीं पहुंच इस बात को थोड़ा समझ लें। सकती है। यह दूसरे देने वाले पर निर्भर है कि वह फूल फेंके कि दुख है, सुख है, तत्क्षण हमारा मन चुनाव करता है कि सुख | | पत्थर फेंके। लेकिन आपके पास अब पत्थर भी नहीं पहुंच सकता, चाहिए और दुख नहीं चाहिए। जन्म है और मृत्यु है, तत्क्षण हमारा | फूल भी नहीं पहुंच सकता। वह तो फूल मुझे मिले, इसलिए पत्थर मन कहता है, जन्म ठीक, मृत्यु ठीक नहीं है। मित्र हैं, शत्रु हैं, | पहुंच जाता था। फूल ही मेरे पास आए, इसलिए पत्थर भी निमंत्रित हमारा मन कहता है, मित्र ही मित्र रहें, शत्रु कोई भी न रहे। यह हो जाता था। जैसे ही आप चुनाव छोड़ देते हैं, आप जगत के बीच चुनाव है, च्वाइस है। और जहां चुनाव है, वहां संसार है। क्योंकि भी जगत के बाहर हो जाते हैं। आपने दो में से एक को चुन लिया। और दो ही अगर आप एक यह जो चुनावरहितता है, यह संन्यास की गुह्य साधना है, साथ चुन लें, तो कट जाएंगे दोनों। आंतरिक साधना है। संन्यास है मार्ग, दो के पार जाने का। संसार अगर आप मान लें कि मित्र भी होंगे, शत्रु भी होंगे, और आपके है द्वार, दो के भीतर जाने का। मन में कोई रत्तीभर चुनाव न हो कि मित्र ही बचें, शत्रु न बचें। तो जितना आप ज्यादा चुनेंगे, उतने आप उलझते चले जाएंगे। 3161 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचुनाव अतिक्रमण है जितना आप मांग करेंगे, उतने आप परेशान होते चले जाएंगे। जितना आप कहेंगे, ऐसा हो, और ऐसा न हो, उतनी ही आपकी चित्त-दशा विक्षिप्त होती चली जाएगी। जितना आप चुनाव क्षीण करते जाएंगे और आप कहेंगे, जैसा हो, मैं राजी हूं। जो भी हो, मैं राजी हूं। जैसा भी हो रहा है, उससे विपरीत की मेरी कोई मांग नहीं है। जीवन मिले तो ठीक, और मृत्यु मिल जाए तो ठीक। दोनों के साथ मैं एक-सा ही व्यवहार करूंगा। मैं कोई भेद नहीं करूंगा। जैसे ही आपके भीतर यह तराजू समतुल होता जाएगा, वैसे ही वैसे द्वंद्व क्षीण होगा और आप अद्वैत में, निर्द्वद्व में प्रवेश कर जाएंगे। अर्जुन ऐसी ही घड़ी में खड़ा है, जहां उसके भीतर, वह जो संसार था, खो गया है। वह चुनावरहित हो गया है। इस चुनावरहित होने के लिए बहुत उपाय हैं। एक उपाय साधक का है, योगी का है। वह चेष्टा कर-करके चुनाव को छोड़ता है । एक उपाय भक्त का है, प्रेमी का है। वह चेष्टा कर-करके नहीं छोड़ता । वह नियति को स्वीकार कर लेता है, भाग्य को स्वीकार कर लेता है, वह राजी हो जाता है। 'यह कृष्ण के पास जो अर्जुन खड़ा है, अर्जुन का यह खड़ा होना, एक भक्त का खड़ा होना है, एक समर्पित चेतना का । (श्रोताओं के बीच शोरगुल । कुछ उपद्रव की कोशिशें भगवान बोले, उनकी चिंता न करें। जिस द्वंद्व की मैं बात कर रहा हूं, वही है । उसकी कोई चिंता न करें। वह रहेगा। उससे कोई बचने का उपाय नहीं हैं। उसमें चुनाव न करें। शांत बैठे रहें।) कृष्ण के सामने अर्जुन की जो दशा है, वह किसी साधक की नहीं है, वह कोई साधना नहीं कर रहा है, वह कोई योग नहीं साध रहा है। लेकिन कृष्ण के प्रेम में समर्पित हो गया है। वह एक गहरी समर्पण की भाव- दशा है। उसने छोड़ दिया सब कृष्ण पर । छोड़ने का अर्थ है, अब मेरा कोई चुनाव नहीं है। समर्पण का अर्थ है, अब मैं न चुनूंगा, अब तुम्हारी मर्जी ही मेरा जीवन होगी। अब जो तुम चाहोगे, अब जो तुम्हारा भाव हो, मैं उसके लिए बहने को राजी हूं। अब मैं तैरूंगा नहीं। एक तो आदमी है, नदी में तैरता है। वह कहता है, उस किनारे, उस जगह मुझे पहुंचना है। एक आदमी है, नदी में बहता है। वह कहता है, कहीं मुझे पहुंचना नहीं । नदी जहां पहुंचा दे, वही मेरी मंजिल है। अगर नदी बीच में डुबा दे, तो वही मेरा किनारा है। मुझे कहीं पहुंचना नहीं, नदी जहां पहुंचा दे, वही मेरा लक्ष्य है। यह समर्पित, सरेंडर्ड भक्त का लक्षण है। अर्जुन ऐसी दशा में है। वह कह रहा है, मैंने छोड़ा, अब मैं | तैरूंगा नहीं। मैंने तैरकर देख लिया; सोचकर, विचारकर देख लिया। अब मैं छोड़ता हूं; अब मैं बहूंगा। अब कृष्ण, तुम्हारी नदी मुझे जहां ले जाए। जो भी हो परिणाम, और जो भी हो मंजिल, या न भी हो, तो जहां भी मैं पहुंच जाऊं, जहां तुम पहुंचा दो, मैं उसके लिए राजी हूं। यह अचुनाव है। च्वाइस समाप्त हो गई। चुनाव समाप्त हो गया। इस चुनाव के समाप्त होने के कारण ही अर्जुन निर्द्वद्व हो सका और अद्वैत की उसे झलक मिल सकी। एक और मित्र ने पूछा है कि क्या गीता स्वयं में पर्याप्त नहीं है, | जो आप उसकी इतनी लंबी व्याख्या कर रहे हैं? और शब्दों से दबी हुई आज की मनुष्य-सभ्यता के लिए आप गीता को इतना विस्तृत रूप दे रहे हैं, इसके पीछे क्या कारण है? गीता तो अपने में पर्याप्त है। लेकिन आप बिलकुल बहरे हैं। गीता तो पर्याप्त से ज्यादा है। उसकी व्याख्या की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन आप उसे सुन भी न पाएंगे, आप उसे पढ़ भी न पाएंगे। वह आपके भीतर प्रवेश भी न पा सकेगी। बुद्ध की आदत थी कि वह एक बात को हमेशा तीन बार कहते थे। तीन बार ! छोटी-मोटी बातों को भी तीन बार कहते थे । आनंद ने एक दिन बुद्ध को पूछा कि आप क्यों तीन-तीन बार किसी बात को कहते हैं? और छोटी-मोटी बात को भी आप तीन बार क्यों दोहराते हैं ? सुन लिया ! बुद्ध ने कहा कि तुम्हें भ्रम होता है कि तुमने सुन लिया। तीन बार कहना पड़ता है, तब भी पक्का नहीं है कि तुमने सुना हो। क्योंकि सुनना बड़ी कठिन बात है। सुन केवल वही सकता है, जो भीतर विचार न कर रहा हो। जब आप भीतर विचार कर रहे होते हैं, तो जो आप सुनते हैं, वह कहा गया हुआ नहीं है । वह तो आपके विचारों ने तोड़ लिया, बदल दिया, नई शक्ल दे दी, नया ढंग दे दिया, नया अर्थ हो गया। 317 तो जब मैं कुछ कह रहा हूं, तो आप वही सुनते हैं जो मैं कह रहा हूं, ऐसी भ्रांति में न पड़ें। आप वही सुनते हैं, जो आप सुन सकते हैं, सुनना चाहते हैं। और आप जो सुनते हैं, वह आपकी व्याख्या हो जाती है। तो गीता तो पर्याप्त है। लेकिन आपके लिए ऐसा अवसर खोजना जरूरी है, जब कि गीता आपके ऊपर हैमर की जा सके, | हथौड़ी की तरह आपके सिर पर ठोंकी जा सके। इसलिए इतनी | लंबी व्याख्या करनी पड़ती है। फिर भी कोई पक्का भरोसा नहीं है Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 03 गीता दर्शन भाग-500 कि आपको सुनाई पड़ जाएगी। | आस्था, भरोसा, विश्वास, ट्रस्ट। आज मन का आधार नहीं है फिर दूसरा कारण भी है। जिस दिन गीता निर्मित हुई, उस दिन श्रद्धा पर। आज आस्था आधार नहीं है। आज ठीक विपरीत आधार के आदमी और आज के आदमी में जमीन-आसमान का अंतर पड़ | है, संदेह, डाउट। उसका कारण है। क्योंकि विज्ञान की सारी की गया है। रोज अंतर पड़ जाता है। शब्द पुराने हो जाते हैं। जैसे वस्त्र | | सारी खोज संदेह पर खड़ी होती है, डाउट पर खड़ी होती है। विज्ञान पुराने हो जाते हैं, जैसे शरीर पुराने हो जाते हैं, ऐसे शब्द पुराने हो | | चलता ही संदेह करके है। विज्ञान खोजता ही संदेह करके है। और जाते हैं। और पुराने शब्दों की पकड़ हम पर खो जाती है। उनको | | जो संदेह नहीं कर सकता, वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता। सुन-सुनकर हम बहरे हो जाते हैं। फिर उस अर्थ को बाहर खींचकर । इसलिए जिसे वैज्ञानिक होना है, उसे संदेह की कला सीखनी ही नए शब्द देने की हर युग में जरूरत पड़ जाती है। पड़ेगी। सारी दुनिया को हम विज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं। हर बच्चा सत्य तो कभी बासा नहीं होता, लेकिन शब्द सदा बासे हो जाते | | विज्ञान में दीक्षित हो रहा है। इसलिए हर बच्चे के मन में संदेह हैं। आत्मा तो कभी पुरानी नहीं पड़ती, लेकिन शरीर पुराने पड़ जाते | | प्रवेश कर रहा है। और जरूरी है। विज्ञान की शिक्षा ही बिना संदेह हैं। जब आप बूढ़े हो जाएंगे, आपका शरीर पुराना पड़ जाएगा। फिर | के हो नहीं सकती। विज्ञान का आधार ही संदेह है। सोचो। पूछो। आपकी आत्मा को नया शरीर ग्रहण कर लेना पड़ेगा। | तब तक मत मानो, जब तक कि प्रमाण न मिल जाए, तब तक गीता बहुत पुरानी हो गई है। और युग-युग में जरूरत है कि रुको। मानने की जल्दी मत करो। उसको नई देह मिल जाए, नए शब्द, नए आकार मिल जाएं। हमने | | | धर्म का आधार बिलकुल विपरीत है। धर्म का आधार है, इस मुल्क में इसकी बड़ी गहरी कोशिश की है। और इसके परिणाम | | चुपचाप, सहज, स्वीकार कर लो। पूछो मत। पूछना ही बाधा हो हुए। अगर हम दूसरे मुल्कों को देखें, तो खयाल में आ जाएगी बात। | जाएगी। तो पांच हजार साल पहले विज्ञान का कोई शिक्षण नहीं सुकरात ने कुछ कहा, वह बहुत कीमती है। लेकिन फिर उस पर था। आदमी का मन धार्मिक था। गीता में जो कहा गया है, वह कभी व्याख्या नहीं की गई। फिर उस पर कोई व्याख्या नहीं हुई; वह | सीधा भीतर प्रवेश कर जाता। संगृहीत है। लेकिन हमने इस मुल्क में एक अनूठा प्रयोग किया। आज आदमी का मन धार्मिक बिलकुल नहीं है, वैज्ञानिक है। और वह अनूठा प्रयोग यह था, कृष्ण ने गीता कही, अर्जुन ने सुनी। विज्ञान बुरा है, यह मैं नहीं कह रहा हूं, या धर्म अच्छा है, यह भी फिर बार-बार शंकर होंगे, रामानुज होंगे, निंबार्क होंगे, वल्लभ नहीं कह रहा हूं। इतना ही कह रहा हूं कि वैज्ञानिक होने के लिए होंगे. फिर से व्याख्या करेंगे। संदेह अनिवार्य है, और धार्मिक होने के लिए श्रद्धा अनिवार्य है। शंकर क्या कर रहे हैं? वे जो शब्द पुराने पड़ गए हैं, उनको उन दोनों के यात्रा-पथ बिलकुल अलग हैं, विपरीत हैं। हटाकर नए शब्द रख रहे हैं। आत्मा को नए शब्दों में प्रवेश दे रहे तो सारी दुनिया का मन आज विज्ञान की तरफ आंदोलित हो रहा हैं, ताकि शंकर के युग के कान सुन सकें और शंकर के युग का | | है। इसलिए धर्म की जो बात है, उससे और आज के मन का कोई मन समझ सके। लेकिन अब तो शंकर भी पुराने पड़ गए। और तालमेल नहीं है, कोई हार्मनी नहीं है; कोई संगति नहीं बैठती; कोई हमेशा बात पुरानी पड़ जाएगी; शब्द तो पुराने पड़ ही जाएंगे। मैं | संबंध नहीं जुड़ता। आदमी जा रहा है विज्ञान की तरफ; उसकी पीठ जो कह रहा हूं, वह थोड़े दिन बाद पुराना हो जाएगा। जरूरत होगी | है श्रद्धा की तरफ। तो पीठ की तरफ से जो भी सुनाई पड़ता है, वह कि फिर अर्थ को शब्द से छुटकारा करा दिया जाए। समझ में नहीं आता। ___ व्याख्या का अर्थ है, अर्थ को, आत्मा को, शब्द से मुक्ति | | दो ही उपाय हैं, या तो आदमी को मोड़कर श्रद्धा की तरफ खड़ा दिलाने की कोशिश। वह जो शब्द उसे पकड़ लेता है, उसे हटा किया जाए, जो कि अति कठिन हो गया है। अति कठिन है, क्योंकि दिया जाए, नया ताजा शब्द दे दिया जाए, ताकि आप नए ताजे शब्द | | एक दिन में किसी का चित्त मोड़ा नहीं जाता। और अब तो वैज्ञानिक को सुन सकें। मन रोज बदल जाता है। और मन के बदलने के साथ | | कहते हैं कि पहले सात वर्षों में बच्चे को जो शिक्षण मिल जाता है, मन के पकड़ने, समझने के ढंग बदल जाते हैं। वह फिर जीवनभर पीछा करता है; फिर बदलना बहुत मुश्किल है। इसे थोड़ा समझ लें। वैज्ञानिक कहते हैं कि चौदह वर्ष में बच्चे की बुद्धि करीब-करीब आज से पांच हजार साल पहले मन का आधार था, श्रद्धा, | | परिपक्व हो जाती है। चौदह वर्ष के बाद फिर बुद्धि में कोई बहुत 318 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अचुनाव अतिक्रमण है - विकास नहीं होता। आज किसी से कहना, श्रद्धा करो, नासमझी है। आज तो एक ही तो चौदह वर्ष की उम्र तक जो प्रवेश कर जाता है, वह आधार | उपाय है कि उसके संदेह को संदेह के ही मार्ग से काट डाला जाए। बन जाता है। फिर जो कंछ भी होगा. उसके ऊपर होगा। एक ऐसी घडी आ जाए कि उसका संदेह करने वाला मन संदेह करने इसलिए किसी आदमी के चेहरे को एकदम मोड़ा नहीं जा | | में असमर्थ हो जाए, संदेह कर-करके असमर्थ हो जाए। सकता। उसके संदेह को श्रद्धा नहीं बनाई जा सकती। और अगर एक उपाय तो यह होता है कि आपको बांधकर बिठा दिया जाए जबरदस्ती बनाने की कोशिश की जाए, तो संदेह भीतर होगा, श्रद्धा कि शांत हो जाओ। छोटे बच्चों को घर में मां-बाप बिठा देते हैं कि ऊपर हो जाएगी–थोथी, झूठी, मुर्दा। उसमें कोई प्राण नहीं होंगे। | शांत हो जाओ। छोटा बच्चा बैठ जाता है। लेकिन जरा उसका तो एक ही उपाय है और वह यह है कि धर्म की ऐसी व्याख्या | निरीक्षण करें, आब्जर्व करें। वह हाथ-पैर हिलाएगा, कुछ करेगा, की जाए, जो संदेहशील मन को भी आकर्षित करती हो। संदेह को | | सिर हिलाएगा, कुछ करेगा। वह जो दौड़ता था, वह दौड़ अब इनकार न किया जाए, स्वीकार कर लिया जाए। और श्रद्धा की उसके भीतर-भीतर चलेगी। जबरदस्ती न की जाए, श्रद्धा को संदेह के मार्ग से ही लाया जाए, आप उसको जबरदस्ती बिठा दिए हैं। इससे कुछ हल होने वाला जो अति कठिन है। लेकिन अब इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। | नहीं है। ज्यादा वैज्ञानिक यह होगा कि उसे कहें कि जाकर मकान के __ अगर मनुष्य-जाति पुनः धार्मिक होगी, तो एक नया अनूठा दस चक्कर लगाकर आ! उसे दस चक्कर लगाने दें। शायद दस वह प्रयोग करना पड़ेगा; वह यह कि आपके संदेह का ही उपयोग किया लगा भी न पाएगा, तीन-चार या पांच में थक जाएगा। और कहेगा, जाए, आपको श्रद्धा तक लाने के लिए। आपके विचार, आपके मुझे नहीं लगाना। उसे कहें कि और पांच पूरे कर। फिर आप कोने तर्क, आपकी समझ का ही उपयोग किया जाए, समझ को ही नष्ट में बैठा हुआ उसे देखें। अब उसके भीतर कोई गति नहीं होगी। अब करने के लिए। आपके तर्क का ही उपयोग किया जाए, आपके तर्क वह शांत होगा। अब वह बुद्ध की प्रतिमा की तरह बैठा होगा। को ही काट डालने के लिए। आपके लिए अब दूसरा ही रास्ता है। आपको सीधे नहीं बिठाया यह हो सकता है। पैर में कांटा लग जाता है, तो हम दूसरे कांटे | | जा सकता। इसलिए दस चक्कर मुझे लगाने पड़ते हैं। जो सीधा बैठ से उस कांटे को निकाल लेते हैं। और कोई भी यह नहीं कहता कि सकता है, उससे मुझे कुछ नहीं कहना है। लेकिन मुझे एक आदमी आप कांटे से कांटे को कैसे निकालेंगे? आदमी बीमार होता है, नहीं दिखाई पड़ता, जो अब सीधा बैठ सकता है। आपको दस उसके शरीर में जहर फैल जाता है, तो हम एंटीबायोटिक्स, और चक्कर लगाने पड़ेंगे। इसलिए इतनी लंबी व्याख्या करनी पड़ती है। जहर डालकर उसके जहर को नष्ट कर देते हैं। वैक्सिनेशन का तो | | वह चक्कर है। और आपके साथ मुझे भी लगाने पड़ते हैं। क्योंकि सारा सिद्धांत इस बात पर खड़ा हुआ है, कि आपके शरीर में जो | ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं बीच में आप रुक न जाएं। जब तक कीटाणु हैं बीमारी के, वे ही कीटाणु और बड़ी मात्रा में आपके भीतर | थक न जाएं, एक्झास्टेड! आपकी बुद्धि को थकाने के सिवाय अब डाल दिए जाएं। श्रद्धा तक ले जाने का कोई मार्ग नहीं है। तो अब तो धर्म होगा वैक्सिनेशन। अब तो आपसे यह नहीं कहा अब हम सूत्र को लें। जा सकता कि श्रद्धा करिए। यह कोई खेल नहीं है। अब बहुत और हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले तथा बहुत मुश्किल है। हाथ, जंघा और पैरों वाले और बहुत उदरों वाले तथा बहुत-सी ___ अब किसी छोटे बच्चे को भी कहना कि चुपचाप मान लो, व्यर्थ | | विकराल जाड़ों वाले महान रूप को देखकर सब लोग व्याकुल हो है। वह बच्चा भी कहेगा, आप क्या कह रहे हैं। पूर्वी न? विचार न | | रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूं। करूं? तर्क न करूं? तो आपका यह कहना कि श्रद्धा ही हमारी | | (कोई मित्र के बीच में से उठकर जाने से कुछ व्यवधान होता है। पहली शर्त है, बच्चे के लिए आपके धर्म का द्वार बंद हो गया। इस पर भगवान श्री ने कहा, ये जो मित्र उठ रहे हैं उनको वहीं बिठा इसका अर्थ हुआ कि आप व्यर्थ की बकवास कर रहे हैं। जिसमें | | दें। बिलकुल उनको वहीं बिठा दें। जाने न दें बाहर। और कल से मैं प्रश्न न पूछा जा सके और जिसमें संदेह न किया जा सके, वह सत्य | आपको कहता हूं कि जिसको जाना हो, पहले से बाहर रहे, बीच में नहीं हो सकता, वह अंधविश्वास है। आपने द्वार बंद कर दिए। बैठने की कोई जरूरत नहीं। उनको बिठाइए वहां। वह जो मित्र जा 319 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-58 रहे हैं उनको बिठाइए वहीं। और कल से मैं एक भी व्यक्ति को बीच मृत्यु, दोनों को एक साथ काली में इकट्ठा किया। एक तरफ वह से नहीं उठने दूंगा। आप पहले से बाहर रहें। कोई कारण नहीं है बीच | | जन्मदात्री है, और दूसरी तरफ मृत्यु उसके हाथ से घटित हो रही है। में बैठने का।) और हड्डियों की, खोपड़ियों की माला उसने गले में डाल रखी है! __ अर्जुन ने देखा, विकराल रूप! जहां परमात्मा मृत्यु का मुख बन | ___ कभी आपने अपनी मां को इस भाव से देखा? बहुत घबड़ाहट गया है। वह कह रहा है कि हे महाबाहो! यह मैं देख रहा हूं, इससे | | होगी। और अगर आप अपनी मां को इस भाव से नहीं देख सकते, सारे लोक व्याकुल हो रहे हैं, मैं भी व्याकुल हो रहा हूं। मेरा हृदय तो काली को आप मां कैसे कह सकते हैं! असंभव है। धड़कता है और घबड़ाहट रोएं-रोएं में समा गई है। क्या यह भी | लेकिन जिन्होंने, जिन तांत्रिकों ने यह द्वंद्व को जोड़ने का खयाल आप हैं? किया, बड़े अदभुत लोग थे। इसमें एक प्रतीक है। इसमें जन्म और यह व्याकुलता स्वाभाविक है। क्योंकि हमने परमात्मा का एक मृत्यु एक साथ खड़े हैं। इसमें प्रेम और मृत्यु एक साथ खड़े हैं। ही रूप देखा। और हमने परमात्मा के एक ही रूप की पूजा की। इसमें मां का हृदय और मृत्यु के हाथ एक साथ खड़े हैं। मगर और हमने परमात्मा के एक ही रूप को सराहा। और हमने यह माना धीरे-धीरे यह रूप खोता चला गया। यह रूप आज अगर कभी कि वह एक इसी रूप से एक है; दूसरा रूप परमात्मा का नहीं है। आपको दिखाई भी पड़ता है, तो सिर्फ परंपरागत है। इसकी धारणा तो जब हमें पूरा परमात्मा दिखाई पड़े, तो व्याकुलता बिलकुल खो गई। इसके हृदय में संबंध हमारे खो गए। . स्वाभाविक है। हमने परमात्मा का तो सौम्य, सुंदर रूप—कृष्ण बांसुरी बजाते यह व्याकुलता परमात्मा के रूप के कारण नहीं है, हमारी बुद्धि खड़े हैं, वे लगते हैं कि परमात्मा हैं। मोर-मुकुट बांधा हुआ है, के तादात्म्य के कारण है। हमने एक हिस्से के साथ तादात्म्य कर उनके होंठों पर मुस्कान है। वे लगते हैं कि परमात्मा हैं। उनसे हमें लिया है। हमने देखा कि परमात्मा होगा सौंदर्य। हमने परमात्मा की आश्वासन मिलता है, राहत मिलती है, सांत्वना मिलती है। हम सारी प्रतिमाएं सुंदर बनाई हैं। कुछ हिम्मतवर तांत्रिकों ने कुरूप वैसे ही बहुत दुखी हैं। काली को देखकर और उपद्रव क्यों खड़ा प्रतिमाएं भी बनाई हैं, लेकिन वे धीरे-धीरे खोती जा रही हैं। हमारे करना है! मन को उनकी अपील नहीं है। कृष्ण को देखकर सांत्वना, कंसोलेशन मिलता है कि ठीक है। अगर आप विकराल काली को देखते हैं, हाथ में खंजर लिए, | इस जीवन में होगा दुख। इस जीवन में होगी मृत्यु। आज नहीं कल, कटा हुआ सिर लिए, गले में मुंडों की माला डाले हुए, पैरों के नीचे | वह मुकाम आ जाएगा, जहां बांसुरी ही बजती रहती है। जहां सुख किसी की छाती पर सवार, लाल जीभ, खून टपकता हुआ, तो भला | ही सुख है। जहां शांति ही शांति है, जहां संगीत ही संगीत है। जहां भय की वजह आप नमस्कार करते हों, लेकिन मन में यह भाव नहीं | फिर कुछ बुरा नहीं है। उसकी आशा बंधती है, उसका भरोसा उठता कि यह परमात्मा का रूप है। भला मान्यता के कारण आप बंधता है। मन को राहत मिलती है। तो जो हमारे पास नहीं है, जो सोचते हों कि ठीक; लेकिन भीतर यह भाव नहीं उठता कि यह जिंदगी में खोया हुआ है, जिसका अभाव है, उसे हमने कृष्ण में पूरा परमात्मा का रूप है। कर लिया। और स्त्री, ममता, मां जिसको हमने कहा! और काली को हम आपने कभी खयाल किया कि हमने कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, मां कहते हैं। मां जो है, वह ऐसा विकराल रूप लिए खड़ी है, तो | किसी के बुढ़ापे का चित्र नहीं बनाया है। कोई बुढ़ापे की मूर्ति नहीं मन को बड़ी बेचैनी होती है कि क्या बात है! लेकिन जिन्होंने यह | बनाई है। ऐसा नहीं है कि ये लोग बूढ़े नहीं हुए। बूढ़े तो होना ही विकराल रूप खोजा था, उन्होंने एक द्वंद्व को इकट्ठा करने की | पड़ेगा। इस जमीन पर जो है, जमीन के नियम उस पर काम करेंगे। कोशिश की थी। और ये जमीन के नियम किसी को भी छूट नहीं देते, यहां कोई छुट्टी मां से ज्यादा प्रेम से भरा हुआ हृदय पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। | नहीं है। और अगर इस जमीन के नियमों में छुट्टी हो, तो फिर जगत इसलिए मां को खड़ा किया इतने विकराल रूप में, जो कि दूसरा | बिलकुल एक बेईमान व्यवस्था हो जाए। यहां तो कृष्ण को भी बूढ़ा छोर है। मां को ऐसे खड़ा किया, जैसे वह मृत्यु हो। मां तो जन्म | होना पड़ेगा, राम को भी होना पड़ेगा, बुद्ध को भी होना पड़ेगा, है। मां को ऐसे खड़ा किया, जैसे वह मृत्यु हो। दो द्वंद्व, जन्म और | | महावीर को भी होना पड़ेगा। 13201 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अचुनाव अतिक्रमण है लेकिन हमने उनको बूढ़ा नहीं बनाया । उससे यह पता नहीं चलता कि वे बूढ़े नहीं हुए। उससे यही पता चलता है कि बुढ़ापे से हम कितने भयभीत हैं, कितने डरे हुए हैं। और अगर राम को भी हम देखें, टूटे हुए दांत, लकड़ी टेकते हुए, तो फिर भगवान मानना बहुत मुश्किल हो जाएगा। सुंदर, युवा ! वे सदा ही युवा हैं। उनका युवापन ठहर गया है; वह आगे नहीं बढ़ता। कृष्ण को बूढ़ा देखें । खखारते हुए, खांसते हुए, खाट पर, किसी अस्पताल में भर्ती ! बिलकुल यह हमारे भरोसे के, विश्वास के बाहर हो गया। हमारी सारी श्रद्धा नष्ट हो जाएगी। और हमें लगेगा, यह भी क्या बात हुई ! कम से कम भगवान होकर तो ऐसा नहीं होना था। तो भगवान हमारी कामनाओं से हम निर्मित करते हैं। उनकी मूर्ति हम अपनी वासना से निर्मित करते हैं । उसका तथ्य से कम संबंध है, हमारी भावना से ज्यादा संबंध है। देखते हैं आप, न दाढ़ी उगती राम को, न कृष्ण को, न बुद्ध को, न महावीर को । न मूंछ निकलती, न दाढ़ी निकलती। जरा कठिन मामला है। कभी-कभी ऐसा होता है, कोई पुरुष मुखन्नस होता है। कभी-कभी किसी पुरुष को दाढ़ी-मूंछ नहीं उगती । क्योंकि उसमें कुछ हार्मोन की कमी होती है; वह पूरा पुरुष नहीं है। लेकिन यह कभी-कभी होता है। सब अवतार हमने मुखन्नस खोज लिए! जरा कठिन है। थोड़ा सोचने जैसा है! जैनियों के चौबीस तीर्थंकर हैं। चौबीस तीर्थंकरों में किसी की दाढ़ी-मूंछ नहीं उगती । यह मानना मुश्किल है कि उन्होंने इतनी खोज कर ली हो। और हमेशा जब भी कोई तीर्थंकर हुआ, तो वह ऐसा आदमी हुआ जिसमें हार्मोन की कमी थी। यह बात नहीं है। दाढ़ी-मूंछ उगी ही है। लेकिन हमारा मन नहीं कहता कि दाढ़ी-मूंछ उगे । क्यों? क्योंकि वह दाढ़ी-मूंछ जो उगे, तो फिर बुढ़ापा आएगा। वह जो दाढ़ी-मूंछ उगे, तो युवावस्था को ठहराना मुश्किल हो जाएगा। वह जो दाढ़ी-मूंछ उगे, तो वे फिर ठीक हम जैसे हो जाएंगे। और हमारा मन करता है कि वे हम जैसे न हों। हम अपने से बहुत परेशान हैं। हम अपने से बहुत पीड़ित हैं। वे हम जैसे न हों। इसलिए हमने अपने अवतारों, अपने तीर्थंकरों, अपने पैगंबरों वे सब बातें जोड़ दी हैं, जो हम चाहते हैं, हममें होतीं, और नहीं हैं। हम सुबह-शाम लगे हैं दाढ़ी छोलने में वह हम चाहते हैं कि न होती। वह हम चाहते हैं कि न होती। और आज नहीं कल विज्ञान व्यवस्था खोज लेगा कि पुरुष दाढ़ी-मूंछ से छुटकारा पा जाए। इतनी उत्सुकता दाढ़ी-मूंछ से छुटकारा पाने की भी बड़ी अजीब है और बड़ी विचारणीय है और बड़ी मनोवैज्ञानिक है। थोड़ी पैथालाजिकल है, थोड़ी रुग्ण भी है। पुरुष के मन में जो सौंदर्य की धारणा है, वह स्त्री की है । उसको स्त्री का चेहरा सुंदर मालूम पड़ता है। और स्त्री के चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं है। वह सोचता है, सुंदर होने का लक्षण दाढ़ी-मूंछ का न होना है। मगर स्त्रियों से भी पूछो, कि दाढ़ी-मूंछ न हो, तो स्त्री को चेहरा सुंदर सच में लग सकता है ? लगना नहीं चाहिए। और अगर लगता है, तो उसका मतलब पुरुषों ने उनका दिमाग भी भ्रष्ट किया हुआ है। लगना नहीं चाहिए । प्राकृतिक रूप से स्त्री को दाढ़ी-मूंछ वाला चेहरा सुंदर लगना चाहिए, जैसा पुरुष को गैर दाढ़ी-मूंछ का चेहरा सुंदर लगता है। थोड़ा सोचें कि आपकी पत्नी दाढ़ी-मूंछ लगाए हुए खड़ी है ! तो जब आप गैर दाढ़ी-मूंछ के खड़े हैं, तब वही हालत हो रही है। लेकिन चूंकि पुरुष प्रभावी है और स्त्रियों के मन को उसने अपने ही सांचे में ढाल रखा है हजारों साल में... । स्त्रियां कह भी नहीं सकतीं कि तुम यह क्या कर रहे हो ? क्यों स्त्री जैसे हुए जा रहे हो ? स्त्रियां भी मानती हैं कि यह सुंदर है, क्योंकि उनकी अपनी सुंदर की व्याख्या भी हमने नष्ट कर दी है। स्त्री का हमने मंतव्य ही समाप्त कर दिया है। पुरुष की ही धारणा, उसकी भी धारणा है। जिसको पुरुष सुंदर मानता है, वह भी सुंदर मानती है। तो सुंदर की जो हमारी धारणा थी, हमने राम पर, कृष्ण पर, बुद्ध पर थोप दी है। लेकिन वे हमारी कामनाएं हैं; वे तथ्य नहीं हैं। तथ्य तो, जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी है, यह है। मृत्यु से हम भयभीत हैं। हम बचना चाहते हैं। हम में से अधिक लोग आत्मा को अमर इसीलिए मानते हैं कि | इसके सिवाय बचने का और कोई उपाय नहीं दिखता। उन्हें कुछ पता नहीं है कि आत्मा अमर है। उन्हें कुछ भी पता नहीं है कि आत्मा है भी। लेकिन फिर भी वे माने चले जाते हैं कि आत्मा अमर है। क्यों? भय है मृत्यु का। शरीर तो जाएगा, यह पक्का है, कितना ही उपाय करो। तो बचने का अब एक ही उपाय है कि आत्मा अमर हो। इसलिए जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होता है, आत्मा में भरोसा करने लगता है। जवान आदमी कहता है, पता नहीं, है या नहीं। हो सकता है, न भी हो । यह आदमी अभी समझकर नहीं बोल रहा है। अभी जवानी का जोश बोल रहा है। थोड़ा हाथ-पैर ढीले पड़ने दें, भरोसा आने 321 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 लगेगा। थोड़ी मौत करीब आने दें, दांत गिरने दें, भरोसा आने तो हम परमात्मा का रूप बनाते हैं, मोहक, सुंदर। हमने नाम जो लगेगा। क्यों? रखे हैं, वे सब ऐसे रखे हैं कि मन को लुभाएं। लेकिन जो दूसरा इसलिए नहीं कि इसे कोई अनुभव हुआ जा रहा है। कोई बूढ़े | | हिस्सा है, वह हमने काट रखा है। होने से अनुभवी नहीं होता। अगर बूढ़े होने से दुनिया में अनुभव __अर्जुन भी भयभीत हुआ। इसलिए नहीं कि परमात्मा का भयंकर मिलता होता, तो सारे लोग कितनी दफे बूढ़े हो चुके हैं, अनुभव | रूप है, बल्कि इसलिए कि आज तक उसने सोचा ही नहीं था कभी। ही अनुभव होता। कोई अनुभव नहीं मिलता। लेकिन बूढ़े होने से | | यह कभी धारणा ही मन में न बनी थी कि यह भयंकर रूप भी भय बढ़ता है, मौत करीब मालूम पड़ने लगती है। अब इतना भरोसा | परमात्मा का होगा। हम सोचते हैं यमराज को, भैंसे पर बैठे हुए, नहीं मालूम पड़ता, पैरों में इतनी ताकत नहीं मालूम पड़ती। अब | विकराल दांतों वाला, काला आदमी, सींगों वाला। लेकिन हम तर्क करने की सुविधा नहीं मालूम पड़ती। अब लगता है, अब तो | कभी यमराज को परमात्मा के साथ एक करके नहीं देखते। यमराज ऐसा लगता है कि वह जो अंधविश्वासी कहते हैं, वही ठीक हो, | | अलग ही मालूम पड़ता है। उसका डिपार्टमेंट, वह सब अलग तो अच्छा। आत्मा हो! यह हमारा विश फलफिलमेंट है, आत्मा | विभाग है। परमात्मा से हम उसको नहीं जोड़ते हैं, कि मृत्यु हो। तो हम मानने लगते हैं कि आत्मा है। परमात्मा से आती है। जाएं मस्जिद में, मंदिर में, चर्च में; बूढ़े लोग! और पुरुषों से भी | गीता के ये सूत्र बड़े कीमती हैं, इन्हें थोड़ा समझ लेना। ज्यादा बूढ़ी स्त्रियां वहां इकट्ठी हैं। क्योंकि पुरुष बूढ़ा भी हो जाए, यमराज कहीं भी नहीं, परमात्मा के मुंह में ही है। और यमराज तो थोड़ा-बहुत अपना पुरुषत्व, अकड़ कायम रखता है। स्त्रियां | कहीं किसी हाथी-घोड़े पर बैठकर नहीं आने वाला है, किसी भैंसे और जल्दी घबड़ा जाती हैं और मंदिर की तरफ चल पड़ती हैं। । | पर सवार होकर। परमात्मा के दांत, वे ही यमराज हैं। घबड़ाहट की वजह से, भय की वजह से आदमी मान लेता है, | । यह देखकर अर्जुन घबड़ा गया है और वह कह रहा है कि सारे आत्मा अमर है, अनुभव की वजह से नहीं। क्योंकि अनुभव तो| लोक व्याकुल हो रहे हैं, मैं भी व्याकुल हो रहा हूं। क्योंकि हे बड़ी और बात है। और अनुभव तो उसे उपलब्ध होता है, जो मृत्यु विष्णो! आकाश के साथ स्पर्श किए हुए, देदीप्यमान, अनेक रूपों से भय छोड़ देता है और जीवन की वासना छोड़ देता है। से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से ___ हम तो मृत्यु के भय से, आत्मा अमर है, मान लेते हैं। हमें कभी | युक्त आपको देखकर भयभीत अंतःकरण वाला मैं धीरज और पता नहीं चलेगा कि आत्मा है भी। उसी को पता चलेगा, जो मृत्यु | शांति को नहीं प्राप्त होता हूं। का भय नहीं करता और जीवन का मोह नहीं करता। वह ठीक कह रहा है। वह कह रहा है, आपकी वजह से मैं कौन है जो मृत्यु का भय नहीं करे और जीवन का मोह न करे? | | भयभीत हो रहा हूं, ऐसा नहीं; भयभीत अंतःकरण वाला, मैं वही व्यक्ति, जो जीवन और मृत्य को एक की तरह देख ले, भयभीत अंतःकरण वाला हूं, इसलिए भयभीत हो रहा हूं। आपके अनुभव कर ले शास्त्र में जाने की जरूरत कारण भयभीत नहीं हो रहा है। आप तो विशाल हैं. महान हैं. विष्ण नहीं। और इसके लिए किसी महापुरुष, महाज्ञानी के चरणों में बैठने | | हैं, महादेव हैं, आप तो परमेश्वर हैं। आपके कारण नहीं भयभीत की जरूरत नहीं। जीवन काफी शिक्षा है। हो रहा हूं, लेकिन मेरा अंतःकरण भय वाला है। जीवन और मृत्यु दो कहां हैं? वे एक ही हैं। हमने अपने मोह में । इसे हम थोड़ा समझ लें। बांटा है दो में। वे एक ही हैं। कभी आपको पता है किस दिन जन्म हम सबके पास अंतःकरण भय वाला है। यह थोड़ा गहन है। समाप्त होता है और मृत्यु शुरू होती है? और किस दिन, किस | | और आपको पता भी नहीं कि आपका अंतःकरण क्या है, सीमा पर जीवन समाप्त होता है और मृत्यु का आगमन होता है? कानशिएंस क्या है। कहीं कोई विभाजन नहीं है। कोई वाटर-टाइट कंपार्टमेंट, कोई | | आप चोरी करने से डरते हैं। भीतर कोई कहता है, चोरी बुरी है। खंड-खंड बांटने का उपाय नहीं है। जीवन, मृत्यु एक ही चीज के | आप पड़ोसी की स्त्री को भगा ले जाने से बचते हैं। भीतर कोई दो नाम मालूम पड़ते हैं। एक ही घटना के लिए दो शब्द मालूम कहता है, यह बात बुरी है। किसी की हत्या करने से भय है, कंपता पड़ते हैं। एक छोर जीवन, दूसरा छोर मृत्यु। है मन। भीतर कोई कहता है, हत्या पाप है। हिंसा बुरी है। कौन |322] Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचुनाव अतिक्रमण है कहता है आपके भीतर ? जो आपके भीतर बोलता है, यह अंतःकरण है। यह अंतःकरण वास्तविक नहीं है। क्योंकि वास्तविक अंतःकरण भय के कारण नहीं जीता। वास्तविक अंतःकरण तो ज्ञान के कारण जीता है। यह अंतःकरण सोशल प्रोडक्ट है, समाज के द्वारा पैदा किया गया है। यह समाज बच्चा पैदा होते से ही बच्चे में अंतःकरण पैदा करने में लग जाता है। क्योंकि समाज को भय है कि अगर बच्चे को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा। और इस भय में सचाई है। अगर बच्चे को कुछ भी न कहा जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा। तो समाज उसे बताना शुरू करता है। वह कहता है, अगर तुम ऐसा करोगे, तो दंड पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो पुरस्कार पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो माता-पिता प्रसन्न होंगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो दुखी होंगे, नाराज होंगे, कष्ट पाएंगे। धीरे-धीरे हम बच्चे में भय और लोभ के आधार पर अंतःकरण पैदा करते हैं। हम कहते हैं, तुम ऐसा करो, मां प्रसन्न है, पिता प्रसन्न हैं, सब लोग प्रसन्न हैं तुमसे । तुम ऐसा करो, और सब लोग तुम्हारी निंदा करेंगे, और सब तुम्हें निंदित कर रहे हैं। तो बच्चे को धीरे-धीरे समझ में आने लगता है, किस चीज से डरे । तो जिस-जिस चीज से मां-बाप डराते हैं, उस-उस से वह डरने लगता है। भय गहरे में बैठ जाता है, अंतःकरण बन जाता है। इसलिए हर समाज का अंतःकरण अलग-अलग होता है। हिंदू का अलग, मुसलमान का अलग, ईसाई का अलग, जैन का अलग। आत्मा अलग-अलग नहीं होती, अंतःकरण अलग-अलग होता है। अब एक जैन है, वह मांसाहार नहीं कर सकता। क्योंकि बचपन से उसे कहा गया है कि यह महापाप है। तो अगर मांस सामने आ जाए, तो भीतर उसके हाथ-पैर कंपने लगेंगे। इसलिए नहीं कि मांस को देखकर कंपते हैं। क्योंकि दूसरा मुसलमान बैठा है, उसके नहीं कंप रहे हैं। तो मांस में कंपाने वाली कोई बात नहीं है। कंप रहे हैं अंतःकरण के कारण। और इसी बच्चे को अगर एक मांसाहारी घर में रखा जाता, तो इसके भी नहीं कंपते । और अगर एक मांसाहारी बच्चे को गैर-मांसाहारी घर में रखा जाता, तो उसके भी कंपते। वह जो अंतःकरण बचपन से पैदा किया गया है, वह जो भय, 1 कि क्या गलत है, वह नहीं करना । उसे देखकर यह कंप रहा है । यह वास्तविक अंतःकरण नहीं है । यह सामाजिक व्यवस्था है। इसलिए एक समाज में अगर चचेरी बहन से शादी होती है, तो कोई अड़चन नहीं है । चचेरी बहन से शादी हो जाती है। किसी को कोई तकलीफ नहीं होती। और दूसरे समाज में उसी के पड़ोस में चचेरी बहन से शादी करने की बात ही महापाप हो सकती है। कोई सोच भी नहीं सकता कि बहन से भी, और प्रेम कर सकते हैं। संभव ही नहीं है । और उसको पत्नी बना सकते हैं, यह तो बिलकुल ही कल्पना के बाहर है। यह अंतःकरण है। यह जब तक दुनिया में बहुत समाज हैं, बहुत संप्रदाय हैं, तब तक बहुत अंतःकरण होंगे। और इन अंतःकरण के कारण बड़ा | उपद्रव है । और दुनिया तब तक एक नहीं हो सकती, जब तक हम | कोई एक युनिवर्सल कांशिएंस पैदा न कर लें। तब तक दुनिया एक नहीं हो सकती। लाख लोग सिर पटकें कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई | लाख लोग सिर पटकें कि हिंदी चीनी भाई-भाई । यह असंभव है। क्योंकि भाई-भाई तब तक नहीं हो सकते, जब तक भीतर के अंतःकरण भिन्न-भिन्न हैं । तब तक सब ऊपरी होगा, थोथा, दिखावा। मौके पर सब कलई खुल जाएगी और दुश्मन बाहर निकल आएंगे। ऊपर से होगा, क्योंकि वह जो भीतर अंतःकरण बैठा है, वह भेद निर्मित कर रहा है। अर्जुन कहता है, मेरे अंतःकरण के कारण मैं भयभीत हो रहा हूं, आपके कारण नहीं | और ठीक कह रहा है। यह उसका निरीक्षण बिलकुल उचित है। अंतःकरण ने आज तक उसके यही जाना है कि परमात्मा सौम्य है, सुंदर है, प्रीतिकर है, आनंदपूर्ण है, सच्चिदानंद है, आनंदघन है। अब तक उसने यही जाना है। मृत्यु भी परमात्मा है, यह उसने न सुना है, न जाना है। इसलिए बचपन से बना हुआ अंतःकरण परमात्मा की एक | प्रतिमा लिए है, वह प्रतिमा खंडित हो रही है। इसलिए वह व्यथित है । और न केवल वह कहता है, मैं व्यथित हूं, सारे लोक व्य हैं। यह रूप बहुत घबड़ाने वाला है। और हे भगवन्! आपके विकराल जाड़ों वाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूं और सुख को भी प्राप्त नहीं होता हूं। 323 दिशा-भ्रांति हो गई है। अब मुझे पता नहीं कि उत्तर कहां है, दक्षिण कहां है, पूरब कहां है। वह यह कह रहा है कि अब मुझे कुछ | समझ में नहीं आ रहा है, मेरा सिर घूम रहा है। दिशाएं पहचान में | नहीं आतीं कि क्या क्या है ! यह तुम्हारा रूप देखकर दिशाएं भ्रांत Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 हो गईं, मेरे पथ खो गए। मेरा मार्ग धुएं से भर गया। और जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं। यह जो आपको देख रहा हूं- आप भगवान हैं! वह कह रहा है, आप भगवान हैं, आप परमेश्वर हैं, फिर भी आपका यह रूप देखकर जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं | जरा भी मुझे, जरा भी सहारा सुख के लिए आपकी इस स्थिति को देखकर नहीं मिलता है। इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होवें । वह यह कह रहा है कि आप कृपा करें और यह रूप तिरोहित कर लें। और वह जो प्रसन्नवदन, वह जो मुस्कुराता हुआ आनंदित रूप था, आप उसमें वापस लौट आएं। आदमी का मन आखिर तक, अंत तक भी परमात्मा पर अपने को थोपना चाहता है। अंत तक भी, परमात्मा जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेने की तैयारी नहीं होती। अंत तक ! साधक की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि वह परमात्मा पर भी अपने को थोपता है । और तब तक सिद्ध नहीं हो पाता, जब तक परमात्मा जैसा भी हो, उसको वैसा ही स्वीकार कर लेने की स्थिति न आ जाए। अभी अर्जुन थोड़ा-सा विनम्र निवेदन कर रहा है कि प्रसन्न हो जाएं। यह हटा लें। यह प्रज्वलित, प्रलयंकारी रूप अलग कर लें। होंठों पर थोड़ी मुस्कुराहट ले आएं। आपके चेहरे पर हंसी को देखकर, आनंद को देखकर मुझे सुख होगा। इसे खयाल में लें। जब तक आप सोचते हैं कि परमात्मा ऐसा होना चाहिए, जब तक आपकी परमात्मा की कोई धारणा है, तब तक आप परमात्मा को नहीं जान पाएंगे। तब तक जो भी आप जानेंगे, वह परदा होगा। अगर आपको परमात्मा को ही जानना है, तो आपको अपनी सारी धारणा अलग कर देनी होगी, हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सब हटा देने होंगे। आपको निपट परमात्मा को शून्य की तरह जानने के लिए खड़ा हो जाना पड़ेगा। अपना अंतःकरण, अपने भरोसे, विश्वास, अपनी दृष्टि, सब हटा देनी होगी। और जैसा भी हो — विकराल हो, मृत्यु हो, अमृत हो, जो भी हो - उसके लिए राजी हो जाना होगा। जब भी कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में राजी हो जाता है, तो परमात्मा के दोनों रूप खो जाते हैं - विकराल भी, सौम्य भी । और जिस दिन ये दोनों रूप खोते हैं, उस अनुभव को हमने ब्रह्म-अनुभव कहा है। जब तक ये रूप रहते हैं, तब तक हमने इसे ईश्वर - अनुभव कहा है। इस फर्क को थोड़ा समझ लें। यह ईश्वर का अनुभव है, जब तक ये दो रूप हमें दिखाई पड़ते हैं। जिस दिन ये दो रूप भी नहीं दिखाई पड़ते- दोनों में चुनाव नहीं रह जाता, उसी दिन दिखाई नहीं पड़ते-उस दिन जो रह जाता है, वह ब्रह्म है। . भारत ने बड़ी साहस की बात कही है। भारत ने ईश्वर को भी माया का हिस्सा कहा है। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। भारत कहता है, ईश्वर भी माया का हिस्सा है। ईश्वर - अनुभव भी माया का हिस्सा है। ब्रह्मानुभव ! क्योंकि ईश्वर में भी रूप हैं। और ईश्वर के साथ भी हमारा लगाव है, अच्छा-बुरा; ऐसा हो, ऐसा न हो । | भक्त भगवान को निर्मित करते रहते हैं, सजाते रहते हैं। मंदिरों में ही नहीं; मंदिरों में तो वे सजाते ही हैं, क्योंकि भगवान बिलकुल अवश है, वहां वह कुछ कर नहीं सकता; जो करना चाहो, करो। लेकिन यह अर्जुन ठेठ भगवान के सामने खड़े होकर भी कह रहा है कि ऐसा अच्छा होगा, मुझे सुख मिलेगा। आप जरा प्रसन्न हो जाएं। यह रूप हटा लें, यह तिरोहित कर लें। 324 ये क्या कह रहा है? ये यह कह रहा है कि अभी भी केंद्र मैं हूं । मेरा सुख! आप ऐसे हों, जिसमें मुझे सुख मिले। मैं ऐसा हो जाऊं, जिसमें आप आनंदित हों, ऐसा नहीं । मैं आनंदित होऊं, ऐसे आप हो जाएं। यह आखिरी राग है। और तब तक शेष रहता है, जब तक हम माया की आखिरी परिधि ईश्वर को पार नहीं कर लेते। शंकर ने कहा है कि ईश्वर माया का हिस्सा है। इसलिए ईश्वर अनुभव को भी अंतिम अनुभव मत समझ लेना। यहीं कठिनाई खड़ी हो जाती है । ईसाइयत, इस्लाम, शंकर की बात से व्यथित हो जाते हैं। हिंदू, साधारण चित्त भी व्यथित हो जाता है। क्योंकि ईश्वर हमारे लिए लगता है आखिरी । भारत की मनीषा के लिए ईश्वर भी आखिरी नहीं है। आखिरी तो वह स्थिति है, जहां कहने को इतना भी शेष नहीं रह जाता कि आनंद है, कि दुख है, कि मृत्यु है, कि जीवन है । सब भेद गिर जाते हैं। सारी रेखाएं खो जाती हैं। कहता है अर्जुन, हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होवें । और मैं देखता हूं कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के समुदाय आपमें प्रवेश करते हैं। और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सबके सब वेगयुक्त हुए | आपके विकराल जाड़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और | कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखते हैं। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अचुनाव अतिक्रमण है - और हे विश्वमूर्ते! जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह समुद्र पड़ता कि मृत्यु कहीं और घटित हो रही है, परमात्मा के मुंह में नहीं, के ही सम्मुख दौड़ते हैं और समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे तो इतना भयभीत न होता। कम से कम परमात्मा से सहारा मिल शूरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश सकता था, मृत्यु के विपरीत भी। अगर मृत्यु कहीं और घट रही थी, कर रहे हैं। अगर कोई शैतान, कोई यमदूत मृत्यु को ला रहा था, तो परमात्मा वह कहता है कि आपके दांतों में दबे हैं। और न केवल दबे हैं, | बचाने वाला हो सकता था। अब तो बचने का भी कोई उपाय नहीं उनके सिर चूर्ण हो गए हैं। जैसे आपने उनका भोजन कर लिया हो | | है। क्योंकि यह परमात्मा का ही मुंह है, जहां मृत्यु घटित हो रही है। और वे आपकी दाढ़ों में चिपककर रह गए हैं। और वे | इससे भयभीत हुआ है। महाबलशाली लोग, जिनके लिए कल्पना भी नहीं कर सकता | | अगर आपको भी यह पता चल जाए कि आपके दुख का कारण अर्जुन! भीष्म पितामह, इतना बलशाली व्यक्ति, वह भी जाकर परमात्मा ही है, आपकी मृत्यु का कारण परमात्मा ही है, तो भय चूर्ण हो जाएगा मृत्यु के मुख में पड़कर! द्रोणाचार्य, उसका गुरु, । और भी ज्यादा संतप्त कर देगा। हम कई तरकीबें निकालते हैं। हम वह भी इस तरह असहाय होकर दांतों में चिपट जाएगा! कर्ण, उस कहते हैं कि दुख का कारण दुष्ट आत्माएं हैं। दुख का कारण विपरीत शत्रुओं के वर्ग का सबसे शूरवीर पुरुष, वह भी ऐसा शैतान, इबलीस, बीलझेबब-हमने शैतान के हजार नाम खोज दयनीय हो जाएगा! और न केवल धृतराष्ट्र के पुत्र, मेरे पक्ष के लोग रखे हैं—वह है दुख का कारण। दुख का कारण पिछले जन्मों के भी आपके दांतों में दबे मर रहे हैं, चूर्ण हुए जा रहे हैं। न केवल | कर्म हैं। यह मृत्यु कोई परमात्मा के कारण नहीं हो रही, यह तो शरीर इतना ही, बल्कि जो बाहर हैं, वे तेजी से दौड़ रहे हैं आपके मुंह की क्षणभंगुर है, इसके कारण हो रही है। हम हजार तरकीबें खोजते हैं। तरफ, जैसे नदियां सागर की तरफ दौड़ती हैं। परमात्मा को बचाते हैं। उससे हमारे मन में एक तो राहत रहती है बहुत भय लगता है, अर्जुन कहता है, बहुत व्यथा होती है। हंसें। कि सब कुछ हो...। बंद कर लें यह मुंह। सुना है मैंने, कबीर ने एक पद लिखा कि चलती चक्की देखकर हम सभी दौड़ रहे हैं मृत्यु की तरफ, जैसे नदियां दौड़ती हैं। और मैं बहुत घबड़ा गया। क्योंकि उस चलती चक्की के बीच जो भी अगर यह सारा जगत, यह सारा जगत अगर शरीर है, तो निश्चित | दाने दब गए, वे चूर्ण हो गए। और कबीर ने कहा है कि मुझे ऐसा ही इस जगत के मुंह में कहीं दांतों के नीचे दबकर हम सब चूर्ण हो | लगा, यह सारा जगत एक चलती चक्की है, जिसके भीतर सब जाएंगे। और फिर कोई भी हो-भीष्म हों, कि द्रोणाचार्य, कि कर्ण, | पिसे जा रहे हैं। या कि अर्जुन-कोई भी हो, वे सभी चूर्ण हो जाएंगे। और जो नहीं कबीर का लड़का था कमाल। कमाल अक्सर कबीर के विपरीत चूर्ण हो रहे हैं, वे भी दौड़ रहे हैं। बड़ा श्रम उठा रहे हैं, भागे जा रहे बातें कहा करता था। अक्सर बेटे बाप के विपरीत कहा करते हैं। हैं, कुछ उपलब्धि के लिए! और बेटा भी क्या, जो बाप के विपरीत थोड़ा-बहुत न हो! उसमें हम सबको यह खयाल है कि जिंदगी में कुछ पा लेंगे। और नमक ही नहीं है, उसमें जान ही नहीं है। और कबीर का बेटा था, आखिर में सिवाय मौत के हम कुछ भी नहीं पाएंगे। लगता है, न इसलिए जानदार तो था ही। कबीर ने ही उसको नाम दिया था मालूम क्या पा लेंगे। और पाते सिर्फ मौत हैं, और कुछ भी नहीं कमाल। वह कबीर के खिलाफ पद लिखा करता था। पाते। लाख करे उपाय आदमी, कब्र के सिवाय कहीं और पहुंचता तो कबीर ने जब यह लिखा कि दो चक्की के बीच मैंने किसी नहीं। कोई और दूसरी मंजिल नहीं। और कितना ही इकट्ठा करे, | | को बचता हुआ न देखा, तो कमाल ने एक पद लिखा कि ठीक है कितनी ही उपलब्धियां, कितना ही सोचे, विचारे, योजना बनाए, | यह तो, लेकिन जिसने बीच की डंडी का सहारा पकड़ लिया चक्की आखिर में पहुंच जाता है मृत्यु के मुंह में बिना योजना बनाए। | में, वह बच गया। वह डंडी हमारे लिए परमात्मा है। उसमें भी वही बचता है, तो भी नहीं बच पाता। शायद बचने की कोशिश में भी मतलब था उसका कि जिसने राम का सहारा ले लिया, वह बच वहीं पहुंच जाता है। गया। बाकी सब पिस गए। अर्जुन को इस जीवन की पूरी की पूरी मृत्यु में दौड़ती हुई धारा । अब इस बेचारे ने, अगर अर्जुन ने कमाल की पंक्ति पढ़ी दिखाई पड़ रही है। वह भयभीत न होता, अगर उसे ऐसा दिखाई होती-नहीं पढ़ी होगी, क्योंकि कमाल बहुत बाद में हुआ तो 325) Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-588 यह घबड़ा जाएगा कि यह मामला क्या है! तुम्हारे ही मुंह में! हम | | के निकट पहुंचते हैं और ईश्वर-अनुभूति को उपलब्ध होते हैं, तो सोचते थे, तुम बीच की डंडी हो, जिसके सहारे बचेंगे। तुम्हारे । | उनकी यही दुविधा है। मुंह में ही मौत घट रही है! तो जिन्हें अपना समझा था, जिनके सहारे | सुना है मैंने, मुसलमान फकीर जुनैद एक रात प्रार्थना किया कि सोचते थे, मौत से लड़ लेंगे, और जिनके सहारे सदा सोचा था कि हे प्रभु, मैं जानना चाहता हूं कि इस मेरे गांव में सबसे पवित्र आदमी कोई भय नहीं है, बचाने वाला है, उसके ही मुंह में मौत घट रही कौन है, सबसे ज्यादा पुण्यात्मा, ताकि मैं उसके चरणों में सिर रखू, है। रक्षक जिसे समझा था, वह भक्षक दिखाई पड़ गया हो, तो हम | | उसका आशीर्वाद पाऊं। रात उसने स्वप्न देखा। बहुत घबड़ा गया। सोच सकते हैं कि अर्जुन की घबड़ाहट कैसी रही होगी। नींद टूट गई उसकी। स्वप्न में उसे दिखाई पड़ा कि परमात्मा कहता वह घबड़ाहट स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक इसलिए है कि है, वह जो तेरे पड़ोस में रहता है आदमी, वही सबसे ज्यादा पवित्र हमने परमात्मा का जो रूप बनाया है, वह अपनी मनोनुकूल | और पुण्यात्मा है! आकांक्षा से बनाया है। वह परमात्मा का रूप नहीं, हमारी वह एक बिलकुल साधारण आदमी था। जुनैद ने कभी उस पर वासनाओं का रूप है। नजर भी नहीं डाली थी। पांव छूना तो दूर, वह इसके पांव छूता मृत्यु भी परमात्मा में ही घटित होती है और जीवन भी उसमें ही था। वह जो बगल में रहता था, वह इसके पांव छूता था। जब भी घटित होता है। वही मां भी है, वही मृत्यु भी। इसलिए काली की यह निकलता था, तो इसको नमस्कार करता था। इसको वह प्रतिमा बड़ी सार्थक है। उससे ही सब निकलता है और उसमें ही महात्मा मानता था। वह तो बहुत जुन्नैद मुश्किल में पड़ गया कि सब लीन होता है। सागर में सारी नदियां गिरती हैं और सारी नदियां | इसके मैं पांव छुऊ! और यह भी क्या मजाक रही! हमने पूछा, सागर से ही पैदा होती हैं। सारी नदियां सागर से पैदा होती हैं। फिर पवित्रतम आदमी? इससे तो हम ही ज्यादा पवित्र हैं। यह खुद चढ़ती हैं नदियां धूप की किरणों के सहारे बादलों में, फिर बादलों हमारे पैर छूता है! के सहारे पहाड़ों पर, फिर गंगोत्रियों में गिरती हैं और फिर सागर | अक्सर जिनके लोग पैर छूते हैं, वे सोचते हैं कि हम ज्यादा की तरफ दौड़ती हैं। पवित्र हैं, क्योंकि लोग हमारे पैर छूते हैं। और हो यह सकता है कि जो नदी सागर में अपने को गिरते देखती होगी, वह घबड़ा जाती | जो पैर छूता है, वह ज्यादा पवित्र भी हो सकता है। क्योंकि पैर छूना होगी। मिट रही है, मौत है सागर। लेकिन उसे पता नहीं कि यह | भी एक गहरी पवित्रता है। वह भी एक बड़े निष्कलुष हृदय का सागर मौत भी है, गर्भ भी। क्योंकि कल फिर उठेगी ताजी होकर, | लक्षण है। नई होकर, युवा होकर। बूढ़ी हो गई, बासी हो गई, जमीन ने गंदी | । पर जब आदेश हो गया परमात्मा का, तो मुसीबत हो या कुछ कर दी। सब गंदगी सागर छांट देगा। फिर ताजा, फिर शुद्ध, फिर भी हो। जुनैद उठा। अपने को सम्हाला। संयम से साधा। निकला वाष्पीभूत होगी। फिर गंगोत्री, फिर यात्रा शुरू होगी। यह वर्तुल है। घर के बाहर कि पैर तो छूने ही पड़ेंगे, अब आदेश परमात्मा का सागर नदी की मृत्यु भी है, जन्म भी। परमात्मा सृष्टि भी है, हुआ है। देखा कि कोई नहीं है, अकेला बैठा है वह आदमी। जल्दी प्रलय भी वहां होना भी है और न होना भी। जाकर उसने पैर छू लिए, कि कोई देख न ले गांव में कि इसके तू इससे अर्जुन भयभीत हो गया है। और वह कहता है, वापस | पैर छू रहा है जुन्नैद! पूरा गांव उसको महात्मा मानता था। लौटा लो; इस रूप को मत दिखाओ। यह रूप प्रीतिकर नहीं है। __उस आदमी ने कहा कि मेरे पैर छू रहे हैं! कुछ भूल-चूक हो इससे मुझे जरा भी सुख नहीं मिलता है। फिर भी वह कहे चला जा | | गई। कुछ मुझसे नाराज हैं? ऐसा मैंने क्या पाप किया, उस आदमी रहा है, भगवान, परमेश्वर, महादेव, देवों के देव! ने कहा, कि आप और मेरे पैर छुएं! नहीं-नहीं, वापस ले लें। थोड़ा हम उसका द्वंद्व, उसकी दुविधा समझें। वह अनुभव तो आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया, उस आदमी ने कहा, जुनैद, कर रहा है कि यह भी परमात्मा का ही रूप है, लेकिन मन मानना | | तुम जैसा साधु पुरुष मुझ जैसे असाधु के पैर छुए! जुनैद कुछ बोला नहीं चाहता कि यह भी रूप है। वह कहता है, हटा लो, प्रसन्न हो | नहीं। उसने कहा, बताना ठीक भी नहीं कि मामला क्या है। क्योंकि जाओ। यह रूप नहीं देखा जाता है। झंझट में पड़ गए परमात्मा से पूछकर। एक दफे छू लिया, बात यह अर्जुन की ही दुविधा नहीं है, जो व्यक्ति भी परम अनुभव | खत्म हो गई। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचुनाव अतिक्रमण है - रात उसने फिर परमात्मा को कहा कि एक मर्जी और पूरी कर दे। एक तूने पूरी कर दी। अब मैं जानना चाहता हूं, इस गांव में सबसे बुरा, सबसे शैतान, सबसे पापी आदमी कौन है? उसका भी तो पता चल जाए। परमात्मा फिर रात सपने में प्रकट हुआ और उसने कहा कि वही आदमी जो तेरे पड़ोस में रहता है। और कल सुबह उठकर तू उसके पैर छु आना। अब तो और मुसीबत हो गई। कल तो पैर छूना आसान भी था, कम से कम परमात्मा ने कहा था। भरोसा तो नहीं आ रहा था। फिर भी परमात्मा ने कहा था कि आदमी पवित्र है, तब पैर छूना... । तब भी मुसीबत थी। और अब यह आदमी सबसे बड़ा पापी है, परमात्मा कहता है। और अब इसके पैर छूना! और फिर जुनैद ने कहा, यह क्या खेल है मालिक! यही आदमी पवित्र और यही आदमी पापी! यह एक ही आदमी है। तो उसे आवाज सुनाई पड़ी कि जिस दिन तू दोनों को एक साथ देख पाएगा, बस उसी दिन तू मुझे देख पाएगा, उसके पहले नहीं। • वह जो बुरा है, वह जो भला है; वह जो शुभ है, वह जो अशुभ है; प्रीतिकर, अप्रीतिकर; जिस दिन हम दोनों को एक में देख पाते हैं, उसी दिन, उसी दिन हम पार होते हैं द्वंद्व के। अर्जुन की तकलीफ यही है कि वह द्वंद्व के पार होने के किनारे खड़ा है। वह कृष्ण से कहता है, लौटा लो। वापस हो जाओ। वही रूप ठीक था, तुम जैसे थे वही। हंसो, मुस्कुराओ। यह मृत्यु वाला रूप मुझे जरा भी सुख नहीं देता है। हालांकि उसे अनुभव हो रहा है कि यह भी उनका ही रूप है। __ अगर वह आज राजी हो जाए इस रूप के लिए, तो द्वंद्व के इसी क्षण पार हो जाए। लेकिन अर्जुन इस क्षण तक राजी नहीं हो सका। और वापस द्वंद्व में गिरने के आग्रह कर रहा है। आज इतना ही। शेष हम कल...। पांच मिनट रुकें। कीर्तन करें. फिर जाएं। 327 Page #358 --------------------------------------------------------------------------  Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 छठवां प्रवचन पूरब और पश्चिम नियति और पुरुषार्थ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। | होता है। यदि भविष्य अनिश्चित है, तो अशांत होना होगा, बेचैन तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि होना होगा, असंतुष्ट होना होगा। उसे बदलने की कोशिश करनी समृद्धवेगाः ।। २९।। होगी। यदि बदलाहट हो सकी, तो भी तृप्ति नहीं मिलेगी, क्योंकि लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनवलभिः । भविष्य का कोई अंत नहीं है। एक बदलाहट पचास और बदलाहट तेजोभिरापूर्य जगत्समधे भासस्तवोग्राः . की आकांक्षा पैदा करेगी। अगर बदलाहट न हो सकी, तो बहुत गहन प्रतपन्ति विष्णो ।।३०।। पीड़ा, उदासी, विपदा घेर लेगी। मन संतप्त हो जाएगा, हारा हुआ, आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । पराजित हो जाएगा। दोनों ही स्थितियों में, भविष्य अगर अनिश्चित विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव है और आदमी के हाथ में है, तो आदमी परेशान होता है। प्रवृत्तिम् ।।३१।। पश्चिम ने यह दृष्टिकोण लिया है। पश्चिम मानकर चलता है अथवा जैसे पतंग मोह के वश होकर नष्ट होने के लिए | कि अतीत तो निश्चित है, हो गया। वर्तमान हो रहा है। आधा प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं, निश्चित है, आधा अनिश्चित है। भविष्य पूरा अनिश्चित है, अभी वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में बिलकुल नहीं हुआ है। अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं। अगर भविष्य अनिश्चित है, तो मुझे आज वर्तमान के क्षण को और आप उन संपूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा प्रसन भविष्य के लिए अर्पित करना होगा। आज ही मुझे काम में लग करते हए सब ओर से चाट रहे हैं। हे विष्णो. आपका उग्र जाना होगा कि भविष्य को मैं अपनी आकांक्षा के अनुकूल बना लूं। प्रकाश संपूर्ण जगत को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके ___ इसके दो परिणाम होंगे। एक तो वर्तमान का क्षण मेरे हाथ से तपायमान करता है। चूक जाएगा। उसे मैं भविष्य के लिए समर्पित कर दूंगा। मैं आज हे भगवन, कृपा करके मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप | नहीं जी सकूँगा। मैं आशा रखूगा कि कल जब मेरे मनोनुकूल वाले कौन हैं! हे देवों में श्रेष्ठ, आपको नमस्कार होवे। | स्थिति बनेगी, तब मैं जीऊंगा। आज को मैं भविष्य के लिए कुर्बान आप प्रसन्न होइए। आदिस्वरूप, आपको मैं तत्व से जानना कर दूंगा, पहली बात। और कल की चिंता मुझे आज सताएगी, चाहता हूं, क्योंकि आपकी प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता। खींचेगी, परेशान करेगी। पश्चिम ने इसका प्रयोग किया है और परिणाम में पश्चिम को गहन अशांति उपलब्ध हुई है। लेकिन भौतिक अर्थों में पश्चिम एक मित्र ने पूछा है कि महाभारत युद्ध शुरू होने के अपने जीवन को नियत करने में बहुत दूर तक सफल भी हुआ है। पहले ही अर्जुन देखता है कि परमात्मा के विराट यह बड़ी उलझन की बात है, इसे थोड़ा गौर से समझ लेना चाहिए। स्वरूप के अंदर सब योद्धा मृत्यु-मुख में प्रविष्ट हो रहे पश्चिम अपनी भौतिक स्थिति को मनुष्य के मन के अनुकूल हैं। तो क्या यह महायुद्ध उस क्षण एक अपरिहार्य बनाने में बहुत दूर तक सफल हो गया है। तो एक अर्थ में तो उनकी नियति थी, जिसे संपन्न करने के लिए सब मजबूर थे? जो धारणा है, सत्य सिद्ध हो गई है कि वर्तमान को अगर हम | भविष्य के लिए अर्पित करें, तो भविष्य को मन के अनुकूल कुछ दूरी तक निश्चित ही निर्मित किया जा सकता है। इस मामले में न वन को देखने के दो दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टिकोण है | पश्चिम की सफलता साफ है। बीमारी कम हुई है। लोगों की उम्र UII कि भविष्य अनिश्चित है और परिवर्तनीय भी। मनुष्य बढ़ी है। भौतिक समृद्धि बढ़ी है। साधन बढ़े हैं। वैभव की सुविधा चाहे तो भविष्य वैसा ही हो सकता है, जैसा वह | बढ़ी है। उन्होंने अपने मन के अनुकूल जो कल भविष्य था और चाहता है। भविष्य पूर्व से निश्चित नहीं है, मनुष्य के हाथ में है कि | | आज वर्तमान हो गया है, उसे निर्मित करने में सफलता पाई है। भविष्य को निर्मित करे। लेकिन दूसरे अर्थों में वे हार गए हैं। यह सब हो गया है और यह जो दृष्टि है, इसका अपरिहार्य परिणाम मनुष्य की अशांति आदमी इतना अशांत हो गया है, इतना भीतर विक्षिप्त हो गया है 330/ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ पूरब और पश्चिमः नियति और पुरुषार्थ 8 कि अब विचार होने लगा है कि इतनी कीमत पर, आदमी को | कि आज को कल पर कुर्बान कर दूं, तो कल जब आएगा, वह भी खोकर, इतनी व्यवस्था करनी क्या उचित है? और अगर आदमी आज होकर आएगा। उसे भी मैं आने वाले कल पर कुर्बान करूंगा। की भीतर की सारी शांति और आनंद ही खो जाता हो, तो हम बाहर वह कल भी जब आएगा, तब आज होकर आएगा। उसे भी मैं आने कितनी समृद्धि अर्जित कर लेते हैं, उसका प्रयोजन क्या है? क्योंकि | वाले कल पर कुर्बान करूंगा। तो जीवन निरंतर पोस्टपोन होता अंततः सारी समृद्धि मनुष्य के लिए है; मनुष्य समृद्धि के लिए नहीं | रहेगा, जी नहीं सकेंगे हम कभी। है। और अंततः बाहर जो भी हम बना लेते हैं, वह आदमी के लिए ___ कल तो कभी आता नहीं है, आता तो सदा आज है। मिलता तो है कि उसके काम आ सके। लेकिन अगर आदमी ही खो जाता हो सदा वर्तमान है. भविष्य तो कभी मिलता नहीं। आपकी भविष्य से बनाने में, तो यह बहुत महंगा सौदा है और मूढ़तापूर्ण भी। कोई मुलाकात हुई है? कभी नहीं हुई है। कभी होगी भी नहीं। पश्चिम इस बात में सफल हुआ है कि भविष्य को आदमी मुलाकात तो वर्तमान से होती है। लेकिन अगर मन की यह आदत प्रभावित कर सकता है। लेकिन प्रभावित करने में आदमी नष्ट हो हो जाए कि वर्तमान को भविष्य के लिए नष्ट करना है, तो यह जाता है। आदत आपका पीछा करेगी। मरते दम तक आप जी नहीं पाएंगे, पूरब ने दूसरा दृष्टिकोण लिया है। पूरब कहता है, भविष्य को | सिर्फ जीने का सपना देखेंगे, सोचेंगे कि जीऊंगा। आदमी निश्चित निर्मित कर ही नहीं सकता। भविष्य नियति है, | तो पश्चिम ने जीवन के साधन जटा लिए. लेकिन जो जी सकता अपरिहार्य है। जो होना होगा, वह होगा। है, वह अनुपस्थित हो गया। हम जीवन के साधन न जुटा पाए, इसका दुष्परिणाम हुआ कि बाहर के जगत में हम गरीब हैं, दीन | लेकिन जो जी सकता है, वह उपस्थित रहा है। और दोनों बातें एक हैं, दुखी हैं, बीमार हैं, परेशान हैं। हम कोई भौतिक समृद्धि अर्जित साथ नहीं हो सकती हैं। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती हैं। नहीं कर पाए। यह परिणाम हुआ। क्योंकि जब भविष्य को हमने सत्य क्या है ? दोनों ही सत्य हैं। भविष्य निर्मित किया जा सकता छोड़ ही दिया नियति पर, तो हम भविष्य के लिए कोई श्रम करें, | है, अगर मनुष्य अपने को कीमत में चुकाने को राजी है। भाग्य यह बात ही समाप्त हो गई। बदला जा सकता है, अगर आप अपने को मिटाने को राजी हैं। लेकिन इसका एक गहरा लाभ भी हुआ। और वह लाभ यह अगर आप अपने को बचाने की इच्छा रखते हैं, और अपने होने हुआ कि भविष्य की चिंता से जो विक्षिप्तता मनुष्य में पैदा हो सकती का आनंद लेना चाहते हैं, तो फिर भविष्य नहीं बदला जा सकता। थी, उससे हम बच सके। और कुछ लोग सब कुछ भविष्य पर फिर भविष्य नियति है। छोड़कर परम आनंद के क्षण को भी उपलब्ध हो सके। | पश्चिम का विचारशील व्यक्तित्व आज अनुभव कर रहा है कि अभी पश्चिम को बुद्ध पैदा करने में देर है। अभी पश्चिम को शायद पूरब के लोग जो कहते रहे हैं, वही ठीक है। और यह उचित देर है। अभी पश्चिम चेतना की उन ऊंचाइयों भी है। अनभव के बाद ही यह बात अनभव की जा सकती है। अब को छूने में असमर्थ है, जो हमने छुईं। उसका आधार सिर्फ एक था | पश्चिम को अनुभव हो रहा है कि उन्होंने जो पाया, वह ठीक। कि हमने कहा, भविष्य तो निश्चित है, जो होना है, होगा। इसका | लेकिन जो गंवाया! परिणाम हुआ। हम भी परेशान हैं, क्योंकि हमने भी कुछ गंवाया है। चुनाव जब __ अगर भविष्य में जो होना है, होगा, तो मुझे भविष्य के लिए | भी करना होता है, तो कुछ गंवाना भी होता है। हम भी आज परेशान चिंतित और परेशान होने का कोई भी कारण नहीं है। दूसरा परिणाम | हैं। इसलिए एक बड़ी अनूठी स्थिति पैदा हो गई है। यह हुआ कि अगर भविष्य निश्चित है, तो वर्तमान को भविष्य पर __ पूरब पश्चिम की तरफ हाथ फैलाए खड़ा है, भिक्षापात्र लिए; कुर्बान करना नासमझी है। तो मैं अभी जीऊं, यहीं। इस क्षण को | और पश्चिम पूरब की तरफ भिक्षापात्र लिए खड़ा है। पश्चिम पूछ रहा है पूरब से मन की शांति के उपाय-ध्यान, योग, तंत्र, जप, मजे की बात यह है कि वर्तमान ही हमारे हाथ में होता है, भविष्य | | पूजा, प्रार्थना क्या है? और पूरब पश्चिम से मांग रहा है-रोटी, कभी हमारे हाथ में होता नहीं। आज ही हमारे हाथ में होता है, कल | | कपड़ा, अन्न, भोजन, मकान, इंजीनियर, डाक्टर। दोनों भिक्षा मांग हमारे हाथ में होता नहीं। और अगर मन की ऐसी आदत हो जाए । रहे हैं! यह होने वाला था। कृष्ण पैदा का यहबाराज पूरा जीऊं। |33i Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-588 लेकिन पश्चिम का अनुभव नया है अभी। पश्चिम पहली दफा | उस आदमी से पूछा गया कि क्यों उसने तोड़ दिया? तो उसने कहा समृद्ध हुआ है। और समृद्ध होकर उसने भीतर की दरिद्रता जानी कि मुझे तोड़ने में बहुत आनंद आया। अगर मेरी जान भी ले ली है। और समृद्ध होकर उसे पता चला कि कितनी ही समृद्धि हो जाए अब इसके बदले में, तो मुझे कोई चिंता नहीं है। जाए, भीतर की दरिद्रता उससे घटती नहीं, बल्कि बढ़ जाती है। । जीसस की मूर्ति तोड़ने में। मूर्ति तोड़ने में क्या आनंद मिला होगा? पूरब बहुत बार समृद्ध हो चुका है। पूरब बहुत बार यह अनुभव | | लेकिन उस मूर्ति को लाखों लोग प्रेम करते थे। वह अपने तरह की कर चुका है कि सब मिल जाए, जब तक आत्मा न मिले, तब तक अनूठी मूर्ति थी। उस मूर्ति को तोड़कर उसने करोड़ों लोगों के हृदय सब मिलना व्यर्थ है। आज जहां पश्चिम खड़ा है, पूरब बहुत बार को तोड़ने की कोशिश की है। यह कहता है, इसे आनंद मिला! इस जगह खड़ा हो चुका है। पूरब की कथा बहुत पुरानी है। अगर आज हम पश्चिम में देखें, तो विनाश का आनंद बढ़ता , गीता जिस क्षण घटित हुई होगी, उस क्षण पूरब करीब-करीब जाता है। विनाश रुचिकर, आनंदपूर्ण मालूम हो रहा है। सैकड़ों उसी विज्ञान के शिखर पर था, जहां आज पश्चिम है। क्योंकि हत्याएं हो रही हैं, सिर्फ इसलिए कि हत्या करने में लोगों को मजा महाभारत में जिन अस्त्र-शस्त्रों की चर्चा है. उन अस्त्र-शस्त्रों को आ रहा है। सैकड़ों लोग आत्मघात कर रहे हैं. सिर्फ इसलिए कि हम आज पहली दफे समझ सकते हैं कि वे क्या रहे होंगे। क्योंकि | मिटाने का एक रस; एक थ्रिल तोड़ देने की, समाप्त कर देने की। हमें आज हाइड्रोजन और एटम बम की प्रक्रिया पता है। आज हम सार्च ने कहा है, आदमी जन्म होने के लिए तो स्वतंत्र नहीं है, पहली दफा समझ सकते हैं कि महाभारत में जो घटित हुआ होगा, | | लेकिन अपने को मार डालने के लिए तो स्वतंत्र है। वह क्या था, और आदमी ने क्या खोज लिया था। आज हमने फिर तो जब कोई अपने को मारता है, तो स्वतंत्रता का अनुभव होता पश्चिम में उसे खोज लिया है। उस समृद्धि के शिखर पर खड़े | है। पैदा आप हो गए, आपसे कोई पूछता नहीं। आपकी कोई राय होकर महाभारत घटित हुआ। नहीं ली जाती। आप पाते हैं कि आप पैदा हो गए, बिना आपकी जब भी समृद्धि बहुत बढ़ जाती है, तो युद्ध अनिवार्य हो जाता | मर्जी के। यह परतंत्रता है निश्चित ही। स्वतंत्रता कहां है फिर? है। उसके कारण हैं। क्योंकि जितना ही आदमी बाहर समृद्ध हो सार्च को मानने वाला वर्ग कहता है कि स्युसाइड, आत्महत्या जाता है. भीतर दरिद्र हो जाता है। और जितना ही भीतर दरिद्र हो। में ही स्वतंत्रता मालूम पड़ती है; बाकी कुछ भी करो, परतंत्रता जाता है, घृणा, वैमनस्य, क्रोध उसमें बढ़ जाते हैं। प्रेम, करुणा, | मालूम पड़ती है। एक चीज कम से कम आदमी कर सकता है; दया, ममता कम हो जाती है। प्रेम और करुणा और दया और ममता | अपने को मिटा सकता है। और मिटाकर अनुभव कर सकता है तो भीतर की समृद्धि के लक्षण हैं। जब भीतर आदमी दरिद्र होता कि मैं स्वतंत्र हूं। है, तो हिंसा बढ़ जाती है। जब भी आदमी भीतर दरिद्र होगा, तो अगर विध्वंस स्वतंत्रता बन जाए और आत्मघात स्वतंत्रता बन हिंसा बढ़ेगी। हिंसा का अंतिम परिणाम युद्ध होगा, विनाश होगा। | जाए, तो सोचना पड़ेगा कि आदमी भीतर गहन रूप से रुग्ण और समृद्धि शिखर पर थी, आदमी भीतर दरिद्र था। वह आदमी बीमार हो गया है, विक्षिप्त और पागल हो गया है। भीतर जो दरिद्र था, वह हिंसा के लिए तत्पर था। आज वियतनाम में जो हो रहा है, बिलकुल अकारण है। कोई भी आज पश्चिम पूरी तरह उसी हालत में है, जहां महाभारत के | कारण नहीं सूझता कि वियतनाम में क्यों आदमी की हत्या जारी रखी समय पूरब था। और कुछ आश्चर्य न होगा कि पश्चिम को तीसरे | जाए। न अमेरिका को विजय से कोई प्रयोजन है कि वियतनाम की महायुद्ध से न बचाया जा सके। कोई आश्चर्य न होगा। बहुत विजय कोई अमेरिका में चार चांद जोड़ देगी। वियतनाम का कोई संभावना तो यह है कि पश्चिम विनाश को करके ही रुकेगा। | मूल्य भी नहीं है अमेरिका के लिए। पर यह युद्ध क्यों जारी है? आदमी भीतर दरिद्र है, दीन है, हिंसा, क्रोध से भरा है, विनाश से | विध्वंस अपने आप में सुख दे रहा है। अकारण! अब कोई भरा है। आवश्यकता नहीं कि कोई कारण हो। अभी रोम में एक पागल आदमी ने, कुछ दिन पहले, आपने जैसे एक मूर्तिकार मूर्ति बनाता है। हम उससे पूछे, क्यों बना रहा खबर पढ़ी होगी, जीसस की एक मूर्ति को जाकर तोड़ दिया। अब है? तो वह कहता है, बनाने में आनंद है। एक चित्रकार चित्र बनाता जीसस की मूर्ति को तोड़ देने का कोई भी प्रयोजन नहीं है। और जब है। हम उससे पूछे, क्यों? तो वह कहता है, निर्मित करने में आनंद 332 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 पूरब और पश्चिम ः नियति और पुरुषार्थ 88 है। एक मां अपने बेटे को बड़ा होते देखकर खुश होती है। हम पूछे, | चंद्र पर पहुंचता है, तो जिस तरह के कपड़े पहने होता है, जिस तरह क्यों? तो सृजन, एक जन्म विकसित हो रहा है उसके हाथों; वह की ड्रेस पहने होता है, जिस तरह का नकाब लगाए होता है। सत्तर आनंदित है। हजार साल पुराना पत्थर पर खुदा हुआ चित्र अंतरिक्ष यात्री का! ठीक ऐसे ही विध्वंस का भी आनंद है, रुग्ण, बीमार। और जब | | जब तक हमारे पास अंतरिक्ष यात्री नहीं था, तब तक तो हम समझ आदमी की आत्मा दरिद्र होती है, तो विध्वंस का आनंद होता है। | | भी नहीं सकते थे कि यह चित्र किस चीज का है। अब हम समझ महाभारत ऐसे ही घटित नहीं हुआ। वह घटित हुआ समृद्धि के | | सकते हैं। शिखर पर, जब भीतर आत्मा बिलकल दरिद्र हो गई। और जब । अब बड़ी कठिनाई है। यह सत्तर हजार साल पुराना चि हिंसा में रस रह गया। और तोडने-फोडने. मिटा डालने की। लोगों ने बनाया. उनके पास अंतरिक्ष यात्री जैसी कोई चीज रही उत्सुकता इतनी बढ़ गई कि दुर्योधन राजी न हुआ एक इंच जमीन | | होगी। अन्यथा इसके बनाने का कोई उपाय नहीं है। अगर सत्तर देने को। चाहे सारी मनुष्य-जाति नष्ट हो जाए, इसके लिए राजी | हजार साल पहले आदमी अंतरिक्ष की यात्रा कर सकता था, तो हमें था। लेकिन एक इंच जमीन देने को राजी नहीं था! सोचना होगा कि हम पहली दफा चांद पर पहुंच गए हैं, इस भ्रम में यह जो भाव-दशा है, यह भाव-दशा पश्चिम में फिर खड़ी हो न पड़ें। और हमें यह भी सोचना होगा कि हम पहली दफा इन सारी गई है। और पश्चिम किसी भी दिन फूट सकता है, विस्फोट हो| समृद्धियों को पा लिए हैं, इस भ्रम में न पड़ें। सकता है। और सारी तैयारी है विस्फोट की। किसी भी क्षण तिब्बत के एक पर्वत पर सत्तर रिकार्ड मिले हैं पत्थर के। जैसा जरा-सी चिनगारी, और फिर पश्चिम को मृत्यु के मुंह से रोकना ग्रामोफोन रिकार्ड होता है, वे पत्थर के हैं। और ठीक ग्रामोफोन मुश्किल हो जाएगा। रिकार्ड पर जैसे ग्रव्स होते हैं, वैसे ग्रव्स उन पत्थर पर हैं। बीच में 'ठीक ऐसी ही घड़ी भारत में महाभारत के समय आ गई थी। और छेद है, जैसा कि ग्रामोफोन रिकार्ड पर होता है। और अभी वैज्ञानिक ऐसी घड़ी पूरब में बहुत बार आ चुकी है। यह दुनिया नई नहीं है | | उन पर अनुसंधान करते हैं, तो वे कहते हैं, उन पत्थर के रिकार्ड से और हम जमीन पर पहली दफा सभ्य नहीं हुए हैं। ठीक वैसी ही विद्युत की तरंगें उठती हैं, जैसे ग्रामोफोन के रिकार्ड अभी जितनी नवीनतम खोजें हैं पुरातत्व की, वे आदमी के | | से उठती हैं। फिर एकाध नहीं, सत्तर! और अंदाजन कोई बीस इतिहास को पीछे हटाती जाती हैं। अभी सिर्फ पचास साल पहले हजार से चालीस हजार साल पुराने। पश्चिम के इतिहासविद मानते थे कि जीसस से चार हजार साल तो क्या कभी आज से बीस हजार साल पहले किसी सभ्यता ने पहले दनिया का निर्माण हआ। तो कल इतिहास छः हजार साल कोई उपाय खोज लिया था पत्थर पर भी रिकार्ड करने का। और का था। अगर खोज लिया हो, तो फिर हमें भ्रम छोड़ देना चाहिए कि हम हमें मानने में सदा कठिनाई रही कि छः हजार साल का कुल पहली बार सभ्य हुए हैं। इतिहास! हमारे पास किताबें हैं, वेद हैं, जो पश्चिम भी स्वीकार पूरब बहुत बार सभ्य हो चुका है और पूरब बहुत बार अनुभव करता है कि कम से कम छः हजार साल पुराने तो हैं ही। हमारे लेखे ले चुका है समृद्धि का। और हर समृद्धि के अनुभव के बाद उसे से तो वे कोई नब्बे हजार साल पुराने हैं। और हमारा लेखा पता चला है कि आदमी चीजें तो कमा लेता है, अपने को खो देता रोज-रोज सही होता जा रहा है। संभव है कि वे और भी पुराने हों। है। मकान तो बन जाता है, धन इकट्ठा हो जाता है; आत्मा विनष्ट मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की खुदाई ने बताया है कि सात हजार साल हो जाती है। इस कारण पूरब ने यह विकल्प चुना कि भविष्य की पुरानी सभ्यता थी। लेकिन ये अब पुरानी बातें हो गईं। अभी जो चिंता छोड़ी जा सके, तो ही आत्मा निर्मित होती है। . नवीन खोजें हैं, वे सभ्यता को-सभ्यता को–पचास हजार साल भविष्य का तनाव ही पीड़ा है। और भविष्य की चिंता छोड़ने का पीछे ले जाती हैं। और अभी नवीनतम कुछ ऐसी खोजें हाथ में लगी | एक ही उपाय है, और वह उपाय यह है कि अगर आप इस बात को हैं, जिन्होंने कि सारे इतिहास की धारणा को अस्तव्यस्त कर दिया। | मानने को राजी हो जाएं कि भविष्य अपरिहार्य है; नियत है; जो आस्ट्रेलिया में कोई सत्तर हजार साल पुराने पत्थर पर खुदे हुए | | होना है, होगा। जो होना है, होगा, अगर इसके लिए राजी हो जाएं, दो चित्र मिले हैं। वे चित्र ऐसे हैं, जैसे कि जब हमारा अंतरिक्ष यात्री | | तो फिर आपको करने को कुछ नहीं बचता है। और जब करने को 333 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00 गीता दर्शन भाग-50 सोहै। । ही नहीं बचता, तो बेचैन होने का कोई कारण नहीं है। आप होते हैं वर्तमान में, मन भविष्य में चला जाता है। करने को कुछ है, तो फिर बेचैनी है। करने के पहले भी बेचैनी यह नियति की धारणा भविष्य का दरवाजा बंद करने की है। मैं रहेगी, और करने के बाद भी बेचैनी रहेगी। क्योंकि करने के बाद कुछ कर ही नहीं सकता हूं, तो भविष्य में यात्रा करने का कोई उपाय भी लगेगा कि अगर जरा ऐसा कर लिया होता, तो परिणाम दूसरा नहीं है। दस रुपए मिलें, कि दस लाख, कि कुछ भी न मिले, मैं हो सकता था। अगर मैंने ऐसा कर लिया होता, तो ऐसा हो सकता | भिखारी रह जाऊं; जो भी होगा, वह होगा। उसमें मेरा कोई हाथ था। तो आप पीछे भी परेशान रहेंगे कि अगर ऐसा न करके जरा-सा | | नहीं है। ऐसा आदमी कभी असफल नहीं होता है। फर्क किया होता, तो आज जिंदगी दसरी होती। और भविष्य के इसे थोड़ा समझ लें। लिए भी परेशान रहेंगे कि मैं क्या करूं? ऐसे आदमी को आप असफल नहीं कर सकते, क्योंकि फिर एक आखिरी परिणाम, जब आप असफल हो जाते हैं...। | असफलता को भी वह स्वीकार कर लेगा कि यही होना था। आप और आदमी कुछ ऐसा है कि वह सफल कभी होता ही नहीं! इसे | | सफल नहीं हो सकते। आप सफलता को भी असफलता कर देंगे, थोड़ा समझ लें। . क्योंकि जो हो गया, वह कुछ भी नहीं है, जो होना चाहिए, वह सदा . आदमी के मन का ढांचा ऐसा है कि वह सदा अंत में असफल | आगे है। ही होता है। उसका कारण यह है कि जितने आप सफल हो जाते नियति की धारणा वाला आदमी असफल नहीं किया जा सकता। हैं, वह तो व्यर्थ हो जाती है बात; और नए लक्ष्य निर्मित हो जाते | आप कुछ भी करें, वह सफल है। और जो सफल है, वह शांत है; हैं। एक आदमी को दस हजार रुपए कमाने हैं, वह कमा लेता है। और जो असफल है, वह अशांत है। और जो सफल है, वह प्रसन्न कोई दस हजार रुपए कमा लेना मुश्किल मामला नहीं है। कमा लेता | | है; और जो असफल है, वह उदास है। और जो सफल है...। और है। सफल हो गया। एक घटना घटती है। जब आप असफल होते चले जाते हैं अपनी लेकिन उसे पता ही नहीं कि सफलता की खुशी वह कभी नहीं | | वासना की यात्रा में, तो सिवाय आपके और कोई जिम्मेवार नहीं मना पाता। क्योंकि जब तक दस हजार इकट्ठे कर पाता है, तब तक | होता असफलता के लिए। आप ही जिम्मेवार होते हैं। तो गहन पीड़ा उसकी आकांक्षा लाख की हो जाती है। जब दस हजार पा लेता है, | आदमी पर टूट पड़ती है। तो खुशी से नाचता नहीं है, केवल दुख से पीड़ित होता है कि अभी __ अकेला आदमी इस बड़ी दुनिया में लड़ता है, इस बड़ी दुनिया यात्रा और बाकी है; उसे लाख कमाने हैं! ऐसा भी नहीं है कि लाख | से। टूट जाता है। उसके कंधे पर बोझ पहाड़ों का इकट्ठा हो जाता न कमा ले। वह भी हो जाएगा। लेकिन जिस मन ने दस हजार से | है। और आखिर में सिवाय स्वयं की निंदा करने के और कोई उपाय लाख पर यात्रा पहुंचा दी थी, वही मन लाख से दस लाख पर यात्रा | नहीं है। पहुंचा देगा। लेकिन नियति की धारणा वाला व्यक्ति अपने कंधे पर कोई भार हर आदमी असफल मरता है। कोई आदमी सफल नहीं मर लेता ही नहीं। वह कहता है, परमात्मा की मर्जी। जीतूं तो वह, हारूं सकता। क्योंकि जो भी आप पा लेते हैं, आपकी वासना उससे आगे | तो वह, सदा जिम्मेवार वही है। वह जिम्मेवार नहीं है। और जो चली जाती है। मरते वक्त भी आपकी वासना अधूरी ही रहेगी; वह | | रिस्पांसिबिलिटी, जो दायित्व का बोध और भार है व्यक्ति के ऊपर, पूरी नहीं हो सकती। वह उसके ऊपर नहीं है। एंडु कार्नेगी, अमेरिका का सबसे बड़ा धनपति मरा, तो अपने | | आप उस आदमी की तरह हैं, जो ट्रेन में चल रहा हो और अपना पीछे देस अरब रुपए छोड़ गया। लेकिन मरने के दो दिन पहले | सब सामान सिर पर रखे हो। और नियतिवादी वह आदमी है, जो का उसका वक्तव्य है कि मैं एक असफल आदमी हूं, क्योंकि मेरे सब सामान ट्रेन में रख दिया है और खुद भी सामान के ऊपर बैठा इरादे सौ अरब रुपए छोड़ने के थे, केवल दस छोड़ जा रहा हूं। हुआ है। वह कहता है, ट्रेन चला रही है, मैं क्यों बोझ ढोऊ! दस अरब रुपए। | आपको पक्का नहीं कि ट्रेन चला रही है। आप सोच रहे हैं, आप आप कितना पा लेंगे, इससे कोई संबंध नहीं है। आपका मन ही चला रहे हैं सारा; और जरा ही भूल-चूक हुई, तो आप ही उससे ज्यादा की मांग करेगा। मन सदा आपसे आगे चला जाता है। जिम्मेवार हैं; कुछ भी गड़बड़ हुई, तो आप ही फंस जाएंगे! 334 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ पूरब और पश्चिम : नियति और पुरुषार्थ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कौन-सी धारणा ठीक है; खयाल रखना। मैं सिर्फ यह कह रहा हूं, ये दो धारणाएं हैं। इसे थोड़ा खयाल में ले लेना । आमतौर से लोग जल्दी करते हैं कि कौन-सी धारणा ठीक है। अगर नियतिवाद ठीक है, तो हम मान लें। और अगर ठीक नहीं है, तो हम कोशिश में लग जाएं। यह कुछ भी नहीं कह रहा हूं। मेरा वक्तव्य बहुत अलग है। मैं ये दोनों धारणाएं आपको समझा रहा हूं। इसमें से फिर जो आपको चुननी हो, आप चुन सकते हैं। फिर उसका परिणाम आपके साथ होगा। ये दोनों धारणाएं ठीक हैं। अगर आपको अशांत होना है, विक्षिप्त होना है, धन इकट्ठा करना है, महल बनाने हैं, तो आप नियति को कभी मत मानें। आपको शांत होना है, आनंदित होना है, और झोपड़ा भी महल जैसा मालूम पड़े, ऐसी आपकी कामना हो; और ना कुछ हो पास में, तो भी आप सम्राट मालूम पड़ें, ऐसी आपकी कामना हो; तो नियति आपके लिए चुनना उचित है। 'ये दोनों रास्ते हैं। एक पागलखाने में ले जाता है। ले ही जाएगा। इसलिए अब सारी दुनिया एक बड़ा पागलखाना है। अब किसी को पागलखाना वगैरह भेजना ठीक नहीं है। अब तो जो ठीक हों, उनके चारों तरफ घेरा लगाकर उनको बचाने का उपाय करना चाहिए । क्योंकि बाकी तो बड़ा पागलखाना है। अगर आज आप मनसविद से पूछें, तो वह कहता है, चार में से तीन आदमियों का मस्तिष्क गड़बड़ है। चार में से तीन का ! जमीन करीब-करीब तीन चौथाई पागलखाना हो गई है । और जिस एक को भी वह कह रहा है कि इसका ठीक है, कितनी देर ये तीन उसका ठीक रहने देंगे! ये तीन उसके पीछे पड़े हैं, उसको भी डांवाडोल कर रहे हैं। आपको पता नहीं चलता कि आपका मस्तिष्क विक्षिप्त है, क्योंकि आपके चारों तरफ पागलों की भीड़ है। उन्हीं जैसा आपके पास मस्तिष्क है, इसलिए कोई अड़चन नहीं होती। लेकिन आप जरा बैठकर एक कागज पर अपने दिमाग में जो चलता है, उसे लिखें, और फिर किसी को दिखाएं। यह मत बताएं कि मैंने लिखा है। बता भी नहीं सकेंगे कि मैंने लिखा है। ऐसा बताएं कि किसी का पत्र आया है। वह आदमी कहेगा, किसी पागल ने लिखा है ! तब आपको पता चल जाएगा, कि आपके दिमाग में जो चलता है, ईमानदारी से दस मिनट एक कोने में बैठ जाएं और लिख डालें, जो भी चलता हो । उसमें आप कुछ फर्क मत करना। जो भी चल रहा हो। दस मिनट का एक टुकड़ा लिख लें और अपने निकटतम मित्रों को बताएं, जो आपको प्रेम करते हैं । और उनसे पूछें कि यह किसी का पत्र आया है, थोड़ा समझ लें। आप एक आदमी न खोज सकेंगे पूरी जमीन पर, | जो आपसे कहे कि यह किसी ऐसे आदमी ने लिखा है, जिसका | दिमाग ठीक है। जो भी मिलेंगे, वे कहेंगे, किसी पागल ने लिखा है। क्या चल रहा है आपके भीतर ? कोई संगति है वहां ? एक अराजकता है। आप जैसे एक भीड़ हैं भीतर, जिसमें कुछ हो रहा है। किसी तरह अपने को सम्हाले हुए हैं, बाहर प्रकट नहीं होने देते। वह भी मौके - बेमौके निकल ही जाता है। कोई जरा जोर से | धक्का मार दे, वह भीतर जो चल रहा है, बाहर निकल आता है। कोई जरा गाली दे दे, तो उसने आपके भीतर छेद कर दिया, उसमें से आपके भीतर का पागलपन बहकर बाहर निकल आएगा। क्रोध क्या है ? अस्थायी पागलपन है। जरा देर के लिए आप पागल हो गए। फिर सम्हाल लेते हैं अपने को ! बड़ी अच्छी बात है कि फिर सम्हाल लेते हैं। लेकिन वह घड़ीभर में जो प्रकट होता है, | उस पर आपने कभी खयाल किया है कि क्या होता है? यह जो विक्षिप्तता है, यह इस दृष्टि का परिणाम है कि जो कुछ किया जा सकता है, वह हम कर सकते हैं। हम जिंदगी को बदल सकते हैं। हम जिंदगी जैसी बनाना चाहते हैं, वैसी जिंदगी बन सकती | है; कोई नियति नहीं है । भविष्य मुक्त है और हमारे हाथों में है । नहीं कहता, यह गलत है। यह हो सकता है। पश्चिम ने करके | देखा है। हमने भी बहुत बार करके देखा है। लेकिन इसका परिणाम यह होता है कि भविष्य तो हमारे हाथ में थोड़ा-बहुत चलने लगता | है, लेकिन हम बिलकुल पटरी से उतर जाते हैं। भविष्य को चलाने में आदमी अस्तव्यस्त हो जाता है। यह बहुत बार के अनुभव के बाद भारत ने यह निर्णय लिया कि भविष्य को छोड़ दो परमात्मा पर। वह अपरिहार्य है, इनएविटेबल है। जो होना है, वह होकर रहेगा। आप बीच में कुछ भी नहीं हैं। इसका चुकता परिणाम यह होता है कि आप तत्क्षण मुक्त हो गए भविष्य से। अब कोई चिंता न रही। सुख आएगा कि दुख आएगा, अच्छा होगा कि बुरा होगा, बचेंगे कि नहीं बचेंगे, अब आपके हाथ में कोई बात नहीं है। आप वर्तमान सकते हैं - अभी और यहीं । जो निरंतर कहते हैं, वर्तमान . में जीयो । लेकिन आदमी वर्तमान में जी नहीं सकता, जब तक बहुत-से शिक्षक हैं, कृष्णमूर्ति हैं, 335 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 उसको यह खयाल है कि भविष्य बनाया जा सकता है। कैसे जी कृष्ण उसे यही कहना चाहते थे कि तू नाहक परेशान हो रहा है सकता है? इसलिए शिक्षा ठीक होकर भी अधूरी है। कैसे जी | | कि ऐसा करूं, कि वैसा करूं। जो होना है, वह होगा। तेरी परेशानी सकता है, जब तक उसे पता है कि मैं चाहूं तो कल और कुछ हो अकारण है, असंगत है। कृष्ण उसे यही समझा रहे थे कि जो होना सकता है! और अगर मैं कुछ न करूं तो कुछ और होगा! कल है, वह हो ही चुका है। तू चिंता छोड़। कहानी लिखी जा चुकी है। बदला जा सकता है, यह मेरे आज को तो परेशान करेगा ही। अगर नाटक का अंत तय हो चुका है। तू सिर्फ पात्र है। तू नाटक का कल बदला ही नहीं जा सकता...। रचयिता नहीं है। तू लेखक नहीं है। यह जो कथा है, यह तुझसे लिखी कल ऐसा ही है, जैसे कोई उपन्यास में पढ़ रहा हूं, जिसकी कथा जाने वाली नहीं है। तू लिखने वाला नहीं है। लिखने वाला लिख लिखी ही हुई है, या कोई फिल्म देख रहा हूं। तो मैं हाल में बैठकर चुका है। नतीजा तय हो चुका है। तुझे सिर्फ काम पूरा करना है। कुछ भी करूं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। फिल्म में जो यह ऐसे ही है, जैसे रामायण खेल रहे हैं लोग। रामलीला कर घटना घटने वाली है, वह घटकर ही रहेगी। फिल्म तो सिर्फ उघड़ रहे हैं। अब उसमें कोई उपाय नहीं है। रही है। सब नियत है। वह अगर शादी होनी है पात्र की, तो हो एक गांव में ऐसा हो गया। एक गांव में एक ही आदमी हर बार जाएगी। पीछे बैंड-बाजा बजेगा, और शहनाई बज जाएगी। नहीं | रावण बनता था। रावण जैसा था शक्ल-सूरत से। तो हर बार जब होनी है, तो नहीं होगी। और जो भी होना है, वह एक अर्थ में हो | रामलीला होती, वह रावण बनता। और गांव की एक सुंदर स्त्री चुका है। फिल्म से सिर्फ मुझे दिखाई पड़ना है। थी, वह सीता बनती। ऐसा हुआ, धीरे-धीरे साथ-साथ काम अब मैं हाल में बैठकर करवटें बदल रहा हूं कि कोई उपाय करूं करते-करते सच में ही रावण को सीता से प्रेम हो गया, उस लड़की कि यह जो अभिनेता प्रेम कर रहा है, इसकी शादी हो जाए। तो मैं | से। और उसे बड़ा कष्ट होता था कि हर बार प्रेम तो उसका है और नाहक परेशान हो रहा है। कोई परेशान नहीं होता। लेकिन कछ हर बार शादी राम के साथ होती है। कष्ट स्वाभाविक था। लोग परेशान फिल्म में भी होते हैं। कम से कम थोड़ी देर को तो एक बार ऐसा हुआ कि जब स्वयंवर रचा और रावण भी बैठा। भूल ही जाते हैं। फिल्म में भी सोचने लगते हैं कि ऐसा हो जाए, तो कथा ऐसी है कि रावण के दूत आए और उन्होंने खबर दी कि तो अच्छा। ऐसा न हो, तो बेचैनी होती है। लंका में आग लगी है, इसलिए वह लंका चला गया। उसी बीच भारतीय दष्टि यह है और गीता की दष्टि है यह और बहत राम ने धनष तोड दिया. शादी हो गई। दत आकर चिल्लाने लगे लंबे अनभव के बाद इस नतीजे पर भारत पहुंचा कि भविष्य सिर्फ कि रावण तेरे राज्य में आग लगी है। रावण ने कहा. लगी रहने दे। अनफोल्ड हो रहा है। मैं यह नहीं कह रहा हूं, यह सही है या गलत इस बार तो शादी करके ही जाऊंगा। बहुत बार देख चुका; लगी है। यह कुछ भी नहीं कह रहा हूं। यह सिर्फ एक डिवाइस है, एक रहने दे। और उसने आव देखा न ताव, उठाकर शिवजी का धनुष उपाय है। तोड़कर दो टुकड़े कर दिए। एक उपाय है, अगर आपको वस्तुएं इकट्ठी करनी हैं, तो भविष्य जनक घबड़ा गए। सीता भी घबड़ाई। राम भी परेशान हुए। नियत नहीं है, मानकर चलें। आत्मा खो जाएगी। एक उपाय है कि | वशिष्ठ भी सोचने लगे होंगे कि अब क्या हो? यह सारी कथा खराब भविष्य नियत है, चिंता न करें। आप अपनी आत्मा को सरलता से हो गई! वह तो जनक कुशल आदमी था, गांव का बूढ़ा आदमी था। उपलब्ध कर सकेंगे। उसने कहा, भृत्यो, यह तुम मेरे बच्चों के खेलने का धनुष उठा लाए! इसलिए अर्जुन ने जो देखा कृष्ण में...अभी योद्धा मरे नहीं हैं। | शिवजी का धनुष लाओ। परदा गिराकर, रावण को अलग करके, समझिए। अभी योद्धा मरे नहीं हैं। अभी भीष्म पितामह जीवित हैं। | दूसरा आदमी रावण बनाना पड़ा। तो वह सारी कथा...! अभी द्रोणाचार्य पूरी तरह जीवित हैं। अभी हारे भी नहीं हैं, मिटे भी कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि वह जो होने वाला है, वह तेरे हाथ नहीं हैं। अभी तो युद्ध शुरू नहीं हुआ है। और उसने देखा, कृष्ण के | में नहीं है; तू नाहक चिंता ले रहा है। वह लिखा जा चुका है, वह हो दांतों में दबे हुए, पिसते हुए, मरते हुए, समाप्त होते हुए। जैसे फिल्म चुका है, वह नियत है, वह बंधा हुआ है। तू निश्चित हो जा। और में उसने आगे झांक लिया, या उपन्यास के कुछ पन्ने एकदम से उलट | तू अपना पार्ट ऐसे कर ले, जैसे एक अभिनय में कर रहा है। दिए, और पीछे का निष्कर्ष पढ़ लिया। भविष्य उसे दिखाई पड़ा। हो जाती है भूल। यह अभिनेता भूल गया कि मैं सिर्फ अभिनय |336 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरब और पश्चिम ः नियति और पुरुषार्थ : कर रहा हूं। मुसीबत में पड़ा । मुसीबत में पड़ा । ऐसा मैंने सुना कि अभी निक्सन के इलेक्शन में हुआ अमेरिका में। निक्सन के चुनाव में एक अभिनेता हालीवुड का, निक्सन का प्रचार करने गया। एक मंच पर खड़े होकर व्याख्यान दे रहा है। अभिनेता का व्याख्यान | वह तैयार करके लाया था। जैसा फिल्म में देता है, वैसा सब तैयार था। सब - हाथ कब हिलाना, सिर कब हिलाना — सब तैयार था। जोश से भाषण दे रहा था । तभी एक आदमी, जो निक्सन के खिलाफ है, बीच में खड़े होकर गड़बड़ करने लगा। इस अभिनेता को भी जोश आ गया। इसने कहा, क्या गड़बड़ करते हो ! अगर हो ताकत, तो आ जाओ। दोनों कूद पड़े। कुश्तमकुश्ती हो गई । उस आदमी ने दो-चार हाथ जोर से जड़ दिए। अभिनेता ने कहा, अरे! यह क्या? तुमको अभिनय नहीं करना आता! इस तरह कहीं मारा जाता है ! वह असली हाथ मारने लगा। यह बेचारा अभिनेता था। यह भूल ही गया कि यह सभा असली है और यहां मार-पीट असली हो जाएगी। वह समझा कि कोई फिल्म का दृश्य है, और यह सब हो रहा है। ठीक है । आदमी के भूलने की संभावना है। हम भी, जो असली नहीं हैं, उसे असली मान लेते हैं। जो असली है, उसे नकली मान लेते हैं। तब जीवन में बड़ी असुविधा हो जाती है। तब जीवन में बड़ी उलझन हो जाती है। कृष्ण का सूत्र ही यही है अर्जुन को कि तू बीच में मत आ। जो हो रहा है, उसे हो जाने दे; तू बाधा मत डाल। और तू निर्णय मत ले कि मैं क्या करूं। तुझसे कोई पूछ ही नहीं रहा है कि तू क्या करे। तू निमित्त मात्र है। अगर तू पूरा नहीं करेगा, तो कोई और पूरा करेगा। एक बहुत अदभुत घटना मुझे याद आती है। बंगाल में एक बहुत अनूठे संन्यासी हुए, युक्तेश्वर गिरि । वे योगानंद के गुरु थे। योगानंद ने पश्चिम में फिर बहुत ख्याति पाई। गिरि अदभुत आदमी थे। ऐसा हुआ एक दिन कि गिरि का एक शिष्य गांव में गया। किसी शैतान आदमी ने उसको परेशान किया, पत्थर मारा, मार-पीट भी कर दी। वह यह सोचकर कि मैं संन्यासी हूं, क्या उत्तर देना, चुपचाप वापस लौट आया। और फिर उसने सोचा कि जो होने वाला है, वह हुआ होगा, मैं क्यों अकारण बीच में आऊं। तो वह अपने को सम्हाल लिया। सिर पर चोट आ गई थी। खून भी थोड़ा निकल आया था। खरोंच भी लग गई थी। लेकिन यह मानकर कि जो होना है, होगा । जो होना था, वह हो गया है। वह भूल ही गया। ही जब वह वापस लौटा आश्रम कहीं से भिक्षा मांगकर, तो वह भूल चुका था कि रास्ते में क्या हुआ । गिरि ने देखा कि उसके चेहरे पर | चोट है, तो उन्होंने पूछा, यह चोट कहां लगी? तो वह एकदम से खयाल ही नहीं आया उसे कि क्या हुआ। फिर उसे खयाल आया। उसने कहा कि आपने अच्छी याद दिलाई। रास्ते में एक आदमी ने मुझे मारा । तो गिरि ने पूछा, लेकिन तू भूल गया इतनी जल्दी! तो उसने कहा कि मैंने सोचा कि जो होना था, वह हो गया। और जो होना ही था, वह हो गया, अब उसको याद भी क्या रखना ! अतीत भी निश्चितता से भर जाता है, भविष्य भी । लेकिन एक और बड़ी बात इस घटना में है आगे । .. गिरि ने उसको कहा, लेकिन तूने अपने को रोका तो नहीं था ? जब वह तुझे मार रहा था, तूने क्या किया? तो उसने कहा कि एक क्षण तो मुझे खयाल आया था कि एक मैं भी लगा दूं। फिर मैंने अपने को रोका कि जो हो रहा है, होने दो। तो गिरि ने कहा कि फिर तूने ठीक नहीं किया। फिर तूने थोड़ा रोका। जो हो रहा था, वह पूरा | नहीं होने दिया । तूने थोड़ी बाधा डाली। उस आदमी के कर्म में तूने | बाधा डाली, गिरि ने कहा । उसने कहा, मैंने बाधा डाली! मैंने उसको मारा नहीं, और तो मैंने कुछ किया नहीं। क्या आप कहते हैं, मुझे मारना था। गिरि ने कहा, मैं यह कुछ नहीं कहता। मैं यह कहता हूं, जो होना था, वह होने | देना था। और तू वापस जा, क्योंकि तू तो निमित्त था। कोई और उसको मार रहा होगा। 337 और बड़े मजे की बात है कि वह संन्यासी वापस गया। वह आदमी बाजार में पिट रहा था। लौटकर वह गिरि के पैरों में पड़ गया। और उसने कहा कि यह क्या मामला है? गिरि ने कहा कि जो तू नहीं कर पाया, वह कोई और कर रहा है। तू क्या सोचता है, तेरे बिना नाटक बंद हो जाएगा ! तू निमित्त था। बड़ी अजीब बात है यह। और सामान्य नीति के नियमों के बड़े पार चली जाती है। कृष्ण अर्जुन को यही समझा रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि जो होता है, तू होने दे। तू मत कह कि ऐसा करूं, वैसा करूं, संन्यासी हो जाऊं, छोड़ जाऊं । कृष्ण उसको रोक नहीं रहे हैं संन्यास लेने से। क्योंकि अगर संन्यास होना ही होगा, तो कोई नहीं रोक सकता, वह हो जाएगा। इस बात को ठीक से समझ लें। अगर संन्यास ही घटित होने को हो अर्जुन के लिए, तो कृष्ण Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-500 रोकने वाले नहीं हैं। वे सिर्फ इतना कह रहे हैं कि तू चेष्टा करके | - इसके दो उत्तर हैं। और जो उत्तर भारत ने दिया है, वह बड़ा कुछ मत कर। तू निश्चेष्ट भाव से, निमित्त मात्र हो जा और जो होता अदभुत है। एक उत्तर तो कोई प्रयोजन खोजना है। जैसे कुछ धर्म है, वह हो जाने दे। अगर युद्ध हो, तो ठीक। और अगर तू भाग कहते हैं कि आत्मज्ञान को पाना इसका प्रयोजन है। जैसा जैन जाए और संन्यास ले ले, तो वह भी ठीक। तू बीच में मत आ, तू कहते हैं कि इस सारी यात्रा के पीछे, इस सारे भवजाल के पीछे स्रष्टा मत बन। तू केवल निमित्त हो। आत्मसिद्धि, आत्मज्ञान, कैवल्य को पाना लक्ष्य है। या जैसे ऐसी अगर दृष्टि हो, तो आप कैसे अशांत हो सकेंगे? ऐसी ईसाइयत कहती है कि परमात्मा का अनुभव, उसके राज्य में प्रवेश, अगर दृष्टि हो, तो कौन आपको परेशान कर सकेगा? ऐसी अगर किंगडम आफ गॉड, उसके साथ उसके सान्निध्य में रहना, उसकी दृष्टि हो, तो चिंता फिर आपके लिए नहीं है। और जो परेशान नहीं, खोज इसका प्रयोजन है। चिंतित नहीं, बेचैन नहीं, उसके भीतर वे शांति के वर्तुल बन जाते लेकिन ये बातें बहुत गहरी जाती नहीं। क्योंकि पूछा जा सकता हैं, जिनसे भीतर की यात्रा होती है और परम स्रोत तक पहुंचना हो | है कि अगर सिद्धि और आत्मज्ञान पाना ही इसका प्रयोजन है, तो जाता है। इतनी बाधाएं खड़ी करने की क्या जरूरत है सिद्धि और आत्मज्ञान | में? और आत्मा तो. मिली ही हई है। तो इतनी लंबी यात्रा. इतना कष्ट का जाल, इतना उपद्रव क्यों है? यह सीधा-सीधा हो जाए। एक और प्रश्न। परम सत्ता को परम चैतन्य और परम अगर कोई परमात्मा यही चाहता है कि हम आत्मज्ञान को प्रज्ञा कहा गया है। लेकिन उसमें घटित सृजन, फिर | उपलब्ध हो जाएं, तो वह हमें आशीर्वाद दे दे और हम आत्मज्ञान विनाश, फिर सृजन, फिर विनाश के वर्तुल को को उपलब्ध हो जाएं; वह प्रसाद बांट दे, हम आत्मज्ञान को देखकर बडा अजीब-सा लगता है। क्या आप समझा उपलब्ध हो जाएं। उसके चाहने से घटना घट जाएगी। यह इतना सकते हैं कि इस वर्तुल के पीछे कोई कारण, कोई | जाल किस लिए? जन्मों-जन्मों का इतना कष्ट, यह किस लिए? अर्थ, कोई मीनिंग, कोई सार्थकता है? अगर यह परमात्मा ही कर रहा है, तो परमात्मा बहुत विक्षिप्त मालूम पड़ता है। यही काम करना है कि सभी लोग सिद्ध हो जाएं, तो वह सभी लोगों को सिद्ध इसी क्षण कर सकता है। . - सको थोड़ा खयाल में लेना जरूरी होगा। क्योंकि | ___ इसलिए जैनों ने परमात्मा को नहीं माना। क्योंकि अगर परमात्मा र गीता को समझना बहुत आसान हो जाएगा। न केवल | को मानते हैं, तो बड़ी कठिनाई खड़ी होगी। वह क्यों नहीं अभी तक गीता को, बल्कि भारत की पूरी खोज को समझना | लोगों को मुक्त कर देता है? तो जैनों ने कहा है कि संसार में कोई आसान हो जाएगा। | परमात्मा नहीं, जो तुम्हें मुक्त कर सके। तुम्हीं को मुक्त होना है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या है कारण इस सबका मगर क्यों? यह अमुक्ति क्यों है? और आदमी अमुक्त क्यों कि आदमी को जन्म दो, मृत्यु दो; सृष्टि बनाओ, प्रलय करो। इधर | हुआ? इसका कोई उत्तर जैनों के पास नहीं है। वे कहते हैं, अनादि ब्रह्मा बनाएं, उधर विष्णु सम्हालें, वहां शंकर विनष्ट करें। यह सब है। मगर क्यों? वे कहते हैं कि मुक्त होना है और मुक्त होने की क्या उपद्रव है? और इसका क्या प्रयोजन है? यह बनाने-मिटाने | संभावना है, मुक्त लोग हो गए हैं। लेकिन आदमी की आत्मा बंधन का जो वर्तुल है, अगर यह गाड़ी के चाक की तरह घूमता ही रहता | | में ही क्यों पड़ी? इसका कोई उत्तर नहीं है। वे कहते हैं, निगोद से है, तो यह जा कहां रही है गाड़ी? यह जो चाक घूम रहा है, यह | पडी है. अनंत काल से पडी है। लेकिन क्यों पडी है? कितने ही काल कहां ले जा रहा है ? इसकी निष्पत्ति क्या होगी? अंततः क्या है लक्ष्य | | से पड़ी हो, आदमी अमुक्त क्यों है? इसका कोई उत्तर नहीं है। इस सारे विराट आयोजन का? इसके पीछे क्या राज है? यह सवाल | | अगर ईश्वर के राज्य में पहुंचना ही लक्ष्य हो, तो ईश्वर ने हमें गहरा है और आदमी निरंतर पूछता रहा है कि क्या है प्रयोजन इस | पटका क्यों है? वह हमें पहले से ही राज्य में बसा सकता था! अगर जीवन का? इस विराट आयोजन में निहित क्या है? क्यों यह सब | ईसाइयत कहती है कि चूंकि आदमी ने बगावत की ईश्वर के हो रहा है? खिलाफ, अदम ने आज्ञा नहीं मानी और आदमी को संसार में 338 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ पूरब और पश्चिम ः नियति और पुरुषार्थ यह काम है। भटकाना पड़ा। तो भी बड़ी हैरानी की बात लगती है कि अदम यह हवा की टक्कर, और यह गहरी श्वास, और यह जो होने का अवज्ञा कर सका, इसका मतलब यह है कि ईश्वर की ताकत अदम मजा है, बस यह ले रहा हूं। मैं कहीं जा नहीं रहा हूं। यह कहीं जाने की ताकत से कम है। अदम बगावत कर सका, इसका मतलब यह के लिए निकला भी नहीं है। सिर्फ आनंदित हो रहा होता है कि अदम जो है, वह ईश्वर से भी ज्यादा ताकत रखता है, यह घूमना एक खेल है। इसकी कोई मंजिल नहीं, कोई प्रयोजन बगावत कर सकता है, स्वतंत्र हो सकता है। नहीं। और बड़ी कठिनाई है कि अदम में यह बगावत का खयाल फिर उसी रास्ते से आप दोपहर दफ्तर जा रहे हैं। रास्ता वही है, किसने डाला? क्योंकि ईसाइयत कहती है कि सभी कुछ का निर्माता | पैर वही हैं, आप वही हैं, लेकिन सब कुछ बदल गया। अब आप ईश्वर है, तो इस आदमी को यह बगावत का खयाल किसने डाला? | | कहीं जा रहे हैं। दफ्तर जा रहे हैं! कहीं पहुंचना है। कोई लक्ष्य है। वे कहते हैं, शैतान ने। लेकिन शैतान को कौन बनाता है? यह काम है। बड़ी मुसीबत है। धर्मों की भी बड़ी मुसीबत है। जो उत्तर देते हैं, फर्क आप अनुभव कर लेंगे। सुबह आप उसी रास्ते पर उन्हीं उससे और मुसीबत में पड़ते हैं। शैतान को भी ईश्वर ने बनाया। पैरों से वही आदमी घूमता है, और घूमने में एक आनंद होता है। इबलीस जो है, वह भी ईश्वर का बनाया हुआ है, और उसी ने और वही आदमी थोड़ी देर बाद उसी रास्ते से उन्हीं पैरों से दफ्तर इसको भड़काया! जाता है, और दफ्तर जाने में कोई भी आनंद नहीं होता। सिर्फ एक तो ईश्वर को क्या इतना भी पता नहीं था कि इबलीस को मैं जबरदस्ती, एक बोझ, पूरा करना है। लक्ष्य है, उसे पूरा करना है। बनाऊंगा, तो यह आदमी को भड़काएगा! और आदमी भड़केगा, सुबह इसी आदमी की पुलक दूसरी थी। इसकी आंखों की तो पतित होगा। पतित होगा, तो संसार में जाएगा। और फिर ईसा | | रौनक और थी; इसके चेहरे पर हंसी और थी। यही दफ्तर जब जा मसीह को भेजो; साधु-संन्यासियों को भेजो; अवतारों को भेजो, | रहा है, तब वह सब रौनक खो गई, वह हंसी खो गई। रास्ता वही, कि मुक्त हो जाओ। यह सब उपद्रव! क्या उसे पता नहीं था इतना आदमी वही, पैर वही, हवाएं वही, सब कुछ वही है। फर्क क्या भी? क्या भविष्य उसे भी अज्ञात है? अगर भविष्य अज्ञात है, तो पड़ गया है? वह भी आदमी जैसा अज्ञानी है। और अगर भविष्य उसे ज्ञात है, - इस आदमी के मन में एक लक्ष्य है अब, लक्ष्य से तनाव पैदा तो सारी जिम्मेवारी उसकी है। फिर यह उपद्रव क्यों? होता है। सुबह कोई लक्ष्य नहीं था, बिना लक्ष्य के कोई तनाव नहीं नहीं। हिंदुओं के पास एक अनूठा उत्तर है, जो जमीन पर किसी | होता। अब इस आदमी के मन में एक भविष्य है, कहीं पहुंचना है। ने भी नहीं खोजा। वह दूसरा उत्तर है। वे कहते हैं, इस जगत का | | भविष्य से तनाव पैदा होता है। सुबह कहीं पहुंचना नहीं था। चाहे कोई प्रयोजन नहीं है, यह लीला है। बाएं गए, चाहे दाएं गए। चाहे इस तरफ गए, चाहे उस तरफ गए। इसे थोड़ा समझ लें। चाहे यहां रुके, चाहे वहां रुके। कोई फर्क नहीं पड़ता था। कोई वे कहते हैं, इसका कोई प्रयोजन नहीं है, यह सिर्फ खेल मंजिल न थी। चलना ही मंजिल थी। है—जस्ट ए प्ले। यह बड़ा दूसरा उत्तर है। क्योंकि खेल में और खेल बच्चे खेलते हैं। क्या कर रहे हैं वे? हमें लगता भी है बड़ों काम में एक फर्क है। काम में प्रयोजन होता है, खेल में प्रयोजन | | को कभी-कभी, कि क्या बेकार के खेल में पड़े हो! हमें लगता है नहीं होता। | कि खेल में भी कोई कार, कोई काम होना चाहिए। बेकार है! हम आप सुबह मरीन ड्राइव से जा रहे हैं, घूमने। अगर कोई आपसे | | तो अगर खेल भी खेलते हैं, बड़े अगर खेल भी खेलते हैं, तो खेल पूछे कि कहां जा रहे हैं? तो आप कहते हैं, सिर्फ घूमने जा रहे हैं। नहीं खेल पाते। आप कोई लक्ष्य नहीं बता सकते कि वहां जा रहे हैं। आपसे पूछे, | अगर वे ताश खेल रहे हैं, तो थोड़े-बहुत पैसे लगा लेंगे। आपका दिमाग खराब है! क्यों नाहक चल रहे हैं जब कहीं जाना | क्योंकि पैसे लगाने से प्रयोजन आ जाता है। नहीं तो बेकार है। ही नहीं है? तो आप कहते हैं, मैं घूम रहा हूं। इस घूमने का क्या | बेकार ताश फेंट रहे हैं, फेंक रहे हैं, उठा रहे हैं, क्या मतलब! कुछ मतलब? जा कहां रहे हैं? आप कहेंगे, जा कहीं भी नहीं रहा हूं। दांव लगा लो, तो रस आ जाता है। क्यों? क्योंकि तब खेल नहीं बस, घूमने का आनंद ले रहा हूं। बस, यह जो पैरों का उठना, और रह जाता। काम हो जाता है। तब उसमें से कुछ मिलेगा। तब खेल 339 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 50 के बाहर कोई चीज पाने के लिए है, तो काम हो गई। जुआ काम जिंदगी निर्बोझ हो जाएगी। है, खेल नहीं है। खेल का मतलब ही इतना होता है कि बाहर कोई धार्मिक आदमी वह है, जिसके लिए सभी कुछ खेल हो गया। लक्ष्य नहीं है, अपने में ही रसपूर्ण है। और अधार्मिक आदमी वह है, जिसके लिए खेल भी खेल नहीं है, भारतीय गहरी खोज है कि परमात्मा के लिए सृष्टि कोई काम उसमें भी जब काम निकलता हो कुछ, तो ही। धार्मिक आदमी वह नहीं है, कोई परपज नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है, खेल है। इसलिए | | है, जिसके लिए सब लीला हो गई। उसे कोई अड़चन नहीं है कि हमने इसे लीला कहा है। लीला जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा | | ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा क्यों नहीं हो रहा? यह बुरा आदमी क्यों में नहीं है। लीला जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। है? यह भला आदमी क्यों है? क्योंकि लीला का अर्थ यह होता है कि सारी सृष्टि एक निष्प्रयोजन निष्प्रयोजन लीला की दृष्टि से, वह जो बुरे में छिपा है, वह भी खेल है। इसमें कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन परमात्मा आनंदित हो वही है। वह जो भले में छिपा है, वह भी वही है। रावण में भी वही रहा है। बस। जैसे सागर में लहरें उठ रही हैं, वृक्षों में फूल लग रहे | है, राम में भी वही है। दोनों तरफ से वह दांव चल रहा है। और हैं, आकाश में तारे चल रहे हैं, सुबह सूरज उग रहा है, सांझ तारों वह अकेला है। से आकाश भर जाता है। यह सब उसके होने का आनंद है। वह | अस्तित्व अकेला है। इस अस्तित्व के बाहर कोई लक्ष्य नहीं है। आनंदित है। इसलिए जो आदमी अपने जीवन में लक्ष्य छोड़ दे और वर्तमान के यह होना, इसमें कुछ पाना नहीं है उसे, कि कल कोई | क्षण में ऐसा जीने लगे, जैसे खेल रहा है, वह आदमी यहीं और सर्टिफिकेट उसे मिलेगा, कि खूब अच्छा चलाया नाटक। कि कोई | अभी परमात्मा का अनुभव करने में सफल हो जाता है। उसकी पीठ थपथपाएगा, कि शाबाश! उसके अलावा कोई नहीं है। लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि परमात्मा पाने को भी एक धंधा बना कि कोई ताली बजाएगा, अखबार में खबर छापेगा, कि बड़ी अच्छी लेते हैं। एक धंधा! उसको भी ऐसी व्यवस्था से चलते हैं पाने के व्यवस्था रही तुम्हारी! कोई नहीं है उसके अलावा, वह अकेला है। लिए, कि छोड़ेंगे नहीं, पाकर ही रहेंगे! और उसको भी भविष्य में वह अकेला है। रखते हैं कि कहीं पाकर रहेंगे। अभी यह करेंगे, यह करेंगे, फिर कभी आपने अकेले ताश के पत्ते खेले हैं? अगर खेले हों, तो | ऐसा करेंगे। उपवास करेंगे, तप करेंगे, तपश्चर्या करेंगे—पूरा थोड़ी देर के लिए ईश्वर होने का मजा आ सकता है। कुछ लोग ट्रेन | | धंधा! आप समझते हैं न गोरखधंधा! में खेलते रहते हैं अकेले। कोई नहीं होता, तो दोनों बाजियां चल | | आपको पता है, यह शब्द आया है गोरखनाथ से। वह महान देते हैं। फिर इस तरफ से जवाब देते हैं, फिर उस तरफ से जवाब | | तांत्रिक गोरखनाथ हुआ। पर उसकी साधना पद्धति जो गोरख की देते हैं। उसमें भी पूरा मजा आ जाता है हार-जीत का। थी, पक्की धंधे की थी। साधना पद्धति यह थी कि यह क्रिया करो, लीला का अर्थ है, वही है इस तरफ, वही है उस तरफ; दोनों और यह कर्म करो, और यह करो, और वह करो। इतना उपद्रव था बाजियां उसकी। हारेगा भी, तो भी वही; जीतेगा, तो भी वही। फिर उसमें कि धीरे-धीरे उसकी साधना को लोग गोरखधंधा ही कहने भी मजा ले रहा है। हाइड एंड सीक, खुद को छिपा रहा है और खुद लगे। क्योंकि वह बड़ा उपद्रव है। ही खोज रहा है। कोई प्रयोजन नहीं है। ___ आप अपने साधु-संन्यासियों के पास जाएं, सब गोरखधंधे में हमें बहुत घबड़ाहट लगेगी। इसलिए भारत की यह धारणा लगे हैं। अलग-अलग गोरखधंधे हैं, अलग-अलग ढंग के हैं, दुनिया में बहुत लोगों तक प्रभाव नहीं छोड़ती। भारतीय के मन में लेकिन बड़े धंधे में लगे हैं! भी प्रभाव नहीं छोड़ती, क्योंकि लगता है तब बेकार! हमारे मन में लेकिन ईश्वर को पा पाता है वही आदमी, जो धंधे में ही नहीं भी कुछ मतलब तो निकलना चाहिए! इतनी दौड़-धूप, इतने होता। जो धंधे में भी हो, तो भी खेल ही समझता है। दुकान पर उपद्रव, जन्म-जन्म की यात्रा, और मतलब कुछ भी नहीं। यह भी बैठा है, तो भी एक नाटक का पात्र है। और युद्ध में खड़ा है, तो थोड़ा सोच लेने जैसा है। भी नाटक का एक पात्र है। हमने यहां तक हिम्मत की है कि अगर अगर हम जिंदगी को एक काम समझते हैं, तो हमारी जिंदगी में | | वह आदमी हत्यारा है, किसी की हत्या कर रहा है, या चोर है और एक बोझ होगा। और अगर जिंदगी को हम खेल समझते हैं, तो चोरी कर रहा है, अगर वहां भी वह आदमी सिर्फ अपने को नाटक | 3401 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 पूरब और पश्चिमः नियति और पुरुषार्थ 8 का एक पात्र समझ रहा हो, तो चोरी भी नहीं छूती और हत्या भी. हे विष्णु! आपका उग्र प्रकाश संपूर्ण जगत को तेज के द्वारा नहीं छूती। | परिपूर्ण करके तपायमान कर रहा है। मगर बड़ा कठिन है। बड़ा कठिन है अपने को निमित्त मात्र मान । सब तप रहे हैं, जल रहे हैं, भस्म हुए जा रहे हैं। लेना, कि जो हो रहा है, होने देना। हम कुछ न करेंगे। अपनी बुद्धि । हे भगवन् ! कृपा करके मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप वाले को बीच में न डालेंगे। अपना निर्णय न लेंगे। बहे चले जाएंगे इस | कौन हैं? प्रवाह में। ऐसा जो प्रयोजनहीन होकर जीता है, बच्चे की भांति, | | मानने का मन नहीं होता उसका कि यह आप जो रूप दिखला वही है संत। वह क्या कर रहा है, इस पर निर्भर नहीं है। उसके करने रहे हैं, यह सच में आपका ही रूप है। सोचता है, कोई भ्रम पैदा में जो दृष्टि है, वह घूमने वाले की है, पहुंचने वाले की नहीं। मौज | कर रहे होंगे। सोचता है, कोई प्रतीक! सोचता है, मुझे कुछ धोखा ले रहा है। जो हो रहा है, उसमें ही मौज ले रहा है। | दे रहे होंगे, डरवा रहे होंगे। सोचता है, मेरी परीक्षा ले रहे होंगे। यह अब हम सूत्र को लें। मानने का मन नहीं करता है कि यह आप ही हैं। तो वह कहता है, अर्जुन कह रहा है, अथवा जैसे पतंग मोह के वश होकर नष्ट यह उग्र रूप वाला कौन है? यह आप नहीं मालूम पड़ते! होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते | । हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार होवे, आप प्रसन्न होइए। हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में | | वह घबड़ा भी रहा है। बेचैन हो रहा है। और कह रहा है, आप अति वेग से युक्त हुए प्रवेश कर रहे हैं। प्रसन्न होइए। जैसे दीया जल रहा हो और पतंगा चक्कर लगाता है दीए के, आदिस्वरूप, आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं, क्योंकि और पास आता चला जाता है। उसके पंख भी जलने लगते हैं, तो आपकी प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता। भी हटता नहीं, और पास आता चला जाता है। लपट उसे छूने | - आप अपनी प्रवृत्तियां सिकोड़ लें। कि आप लोगों की मृत्यु बनते लगती है, तो भी पास आता चला जाता है। अंत में वह लपट में हैं, मुझे प्रयोजन नहीं। कि आप लोगों को लील जाते हैं, मुझे छलांग लगाकर जल जाता है। और ऐसा भी नहीं कि एक पतंगे को मतलब नहीं। कि आप लोगों को बनाते हैं, मुझे मतलब नहीं। जलता देखकर दूसरे पतंगे कुछ समझ लें। वे भी चक्कर लगाते हैं, | | आपकी प्रवृत्ति को हटा लें। आप क्या करते हैं, इससे मुझे प्रयोजन और निकट आते जाते हैं प्रकाश के। जहां भी प्रकाश हो, पतंगे | | नहीं। आप क्या हैं, केंद्र में, इसेंस में, सार में, तत्व में, वही मैं प्रकाश को खोजते हैं। जानना चाहता हूं। अर्जुन कह रहा है, मैं ऐसे ही देख रहा हूं इन सारे लोगों को ___ हम सब भी परमात्मा को जानना चाहते हैं, और उसकी प्रवृत्ति आपके इस मृत्यु रूपी मुंह में जाते हुए। वे सब भाग रहे हैं अति | से बचना चाहते हैं। यह सारा संसार उसकी प्रवृत्ति है। यह सारा वेग से और एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं कि कौन पहले पहुंच | संसार उसका खेल है। हम इससे बचना चाहते हैं और उसे जानना जाए। बड़ा वेग है। और जा कहां रहे हैं! आपके मुंह में जा रहे हैं, चाहते हैं। वही अर्जुन कह रहा है। अर्जुन की आकांक्षा हमारी जहां मौत के सिवाय और कुछ भी नहीं है। यह क्या हो रहा है! ये आकांक्षा है। सब महाशूरवीर, महायोद्धा, बुद्धिमान, पंडित, ज्ञानी, ये सब मृत्यु हम भी कहते हैं, संसार से छुड़ाओ प्रभु, अपने पास बुला लो। की तरफ जा रहे हैं। और इतनी साज-सजावट से जा रहे हैं कि ऐसा | | जैसे कि संसार में वह पास नहीं है! हम कहते हैं, हटाओ इस नहीं लगता कि इनको पता हो कि ये मृत्यु की तरफ जा रहे हैं। इतनी | | भवसागर से, इस बंधन से और अपने गले लगा लो। जैसे इस बंधन शान से जा रहे हैं। शोभायात्रा बना रखी है इन्होंने अपनी गति को। | में उसी ने गले नहीं लगाया है! हम कहते हैं, कब छूटेगी यह पत्नी? और जा रहे हैं, देखता हूं, आपके मुंह में, जहां मृत्यु घटित होगी। | कब छूटेगा यह पति? यह छुटकारा कब होगा? हे प्रभु! पास __ और आप उन संपूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रसन करते बुलाओ। जैसे कि इस पति में और पत्नी में वही मौजूद नहीं है! हुए सब ओर से चाट रहे हैं। बुद्ध वापस आए हैं, जब वे बुद्ध हो गए हैं। और उनकी पत्नी और आप हैं एक कि आपकी अग्नि लपटें सब तरफ से छू रही | | ने एक सवाल पूछा है। पता नहीं, पूछा या नहीं। रवींद्रनाथ ने एक हैं लोकों को और उनको लीले चली जा रही हैं। गीत लिखा है, जिसमें पूछा है। रवींद्रनाथ ने एक गीत लिखा है। 341 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-5 ॐ और रवींद्रनाथ बड़े आलोचक थे बुद्ध के, गहरे आलोचक थे। पर | | का रूप देता हूं, तब वह आप तक पहुंचता है। सवाल बड़ा कीमती है। न भी पूछा हो, तो बुद्ध की पत्नी को पूछना | अगर आप मुझसे कहें कि ऐसा कुछ करिए कि मैं आपका मौन चाहिए था। | सुन पाऊं, तो बड़ी कठिन होगी बात। क्योंकि उसके लिए फिर बुद्ध वापस लौट आए हैं। यशोधरा पूछती है कि एक ही बात | | आपके कान काम नहीं दे सकेंगे; वे सिर्फ शब्द सुनने को बने हैं। मुझे पूछनी है। जो तुम्हें वहां जंगल में जाकर, मुझे छोड़कर मिला, | और उसके लिए आपकी बुद्धि भी काम नहीं दे सकेगी, क्योंकि वह क्या तुम हाथ रखकर छाती पर कह सकते हो, वह यहीं नहीं मिल | भी केवल शब्द पकड़ने को बनी है। फिर तो आपको भी शून्य में सकता था मेरे पास? ही खड़ा होना पड़े, तो ही फिर मौन से सुना जा सकता है। बुद्ध निरुत्तर खड़े रह गए हैं। पता नहीं, वे खड़े रहे कि नहीं। __एक अदभुत साधक कुछ समय पहले हुआ। अनिर्वाण उस रवींद्रनाथ ने उनको निरुत्तर खड़े रखा है। और मैं भी मानता हूं कि साधक का नाम था। बहुत कम लोग जानते हैं। क्योंकि कभी कोई उत्तर है नहीं। बुद्ध को चुप खड़े रह जाना ही पड़ा होगा। क्योंकि बहुत लोगों को पास नहीं आने दिया। एक फ्रेंच महिला अनिर्वाण झूठ वे बोल नहीं सकते। और सच यही है कि जो उन्होंने जंगल में के पास कोई पांच साल तक रही। बस, वह अकेली एक किताब पाया है, वह यशोधरा के पास भी पाया जा सकता था। क्योंकि वह | उसने लिखी है। वही जगत को जानकारी है अनिर्वाण के संबंध में। वहां भी मौजूद है। पांच साल अनिर्वाण के पास चुपचाप बैठी रही। वे कुछ कहेंगे नहीं, संसार से हटा ले प्रभु हमें। क्यों? वही संसार बना रहा है। आप या कुछ कहेंगे तो बहुत अल्प। प्रार्थना कर रहे हैं, हटा लो! पांच साल बाद उसने अनिर्वाण से कहा, आपने कुछ मुझे कहा अर्जुन यह कह रहा है, तुम्हारी प्रवृत्ति नहीं, तुम्हारा तत्व। मैं तो | नहीं, हालांकि मैंने बहुत कुछ सुना। अनिर्वाण ने कहा, यही मेरी तुम्हें सारभूत जानना चाहता हूं। तुम क्या करते हो, वह मुझे मतलब | | एकमात्र महत्वाकांक्षा थी। जब से मैं जन्मा हूं, जब से मुझे होश है, नहीं है। तुम क्या हो? तुम्हारा डूइंग नहीं, तुम्हारी बीइंग। मैं तुम्हारे | | तब से मेरी एक ही महत्वाकांक्षा थी कि किसी को मैं मौन से कुछ उस केंद्र को जानना चाहता हूं, जहां कोई गति नहीं है, जहां कोई कह पाऊं। लेकिन मौन होने के लिए कोई राजी नहीं होता। कर्म नहीं है, जहां सब शांत और मौन है। प्रवृत्ति को हटा लो। पांच साल चुप बैठी रही। दो साल निरंतर उनके पास चुप लेकिन वह कह जरूर रहा है, लेकिन उसे पता नहीं कि वह साथ बैठ-बैठकर वह क्षमता आई. जब उनका मौन थोडा-सा स्पर्श ही अपना विरोध भी कर रहा है। एक तरफ वह कहता है, हटा लो | | करने लगा। पांच साल होने पर सुनाई पड़ना शुरू हुआ। पांच साल यह उग्र रूप और प्रसन्न हो जाओ। प्रसन्नता भी प्रवृत्ति है। और दूसरी | पूरे होने पर जब उस महिला ने कहा कि अब मैं सुन पाती हूं, जो तरफ वह कह रहा है कि प्रवृत्ति का मुझे कुछ पता नहीं। जानना भी आप मौन में कहते हैं। तो अनिर्वाण ने कहा कि बस, तेरा काम पूरा नहीं चाहता। तत्व जानना चाहता हूं। प्रसन्नता तत्व नहीं है। प्रसन्नता | हो गया। अब तू यहां से जा। क्योंकि अब तू कहीं भी हो, तो सुन भी कर्म है। जैसे उग्रता कर्म है, वैसे प्रसन्नता कर्म है। जैसे मृत्यु कर्म पाएगी। क्योंकि मौन के लिए कोई बाधा नहीं है। शब्द के लिए दूरी है. वैसे जीवन भी कर्म है। लेकिन हम चनाव करते ही चले जाते हैं। बाधा है। अब त जा. तेरा काम परा हो गया। वह कहता है कि प्रसन्नता, आनंदित हो जाइए। वह भी मानेगा कि । उस महिला ने लिखा है, अंतिम क्षण विदा देते वक्त जब हाथ शायद आनंदित होना ही तत्व है। वह भी तत्व नहीं है। जोड़कर हम नमस्कार करके अलग हो गए, तब मुझे खयाल आया तत्व तो शून्य है। और शून्य को देखने की क्षमता बड़ी मुश्किल |कि पांच साल हो गए मैंने उनके हाथ का भी स्पर्श नहीं किया! है। हम प्रवृत्ति को ही देख पाते हैं। शून्य को हम कहां देख पाते हैं! | लेकिन पांच साल तक मुझे खयाल नहीं आया कि मैंने अनिर्वाण शून्य जब प्रवृत्ति बनता है, तभी हमारी पकड़ में आता है। नहीं तो | | के शरीर को छुआ तक नहीं है, हाथ का भी स्पर्श नहीं किया। यह कहां पकड़ में आता है! | विदा होने पर खयाल आया। और तब उसे लगा कि यह खयाल ही मैं यहां चुप बैठ जाऊं, तो मेरा मौन आपको पकड़ में नहीं इसलिए आया कि मौन में निकटता इतनी गहन थी कि और स्पर्श आएगा। जब मेरा मौन शब्द बनता है, तब आपको सुनाई पड़ता उससे ज्यादा क्या निकटता दे सकता है! है। जो मैं कहना चाहता हूं, वह तो मेरे मौन में है। जब मैं उसे शब्द लेकिन अगर आप कहें, मौन में सुनना है, तो फिर मौन होने की 342 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरब और पश्चिम ः नियति और पुरुषार्थ 8 कला सीखनी पड़े। वह अर्जुन कह रहा है कि मैं आपको देखना चाहता हूं आपके तत्व में। लेकिन तत्व में केवल वही देख सकता है, जो स्वयं तत्व होने को राजी हो, शून्य होने को राजी हो। शून्य होने को जो राजी है, वह इस जगत के शून्य को देख लेगा। जब तक हम शून्य होने को राजी नहीं हैं, तब तक हमें प्रवृत्ति ही दिखाई पड़ेगी। और जब तक प्रवृत्ति है, तब तक चुनाव रहेगा। हम कहेंगे, उदासी हटाओ, रुद्रता हटाओ, यह क्रूरता हटाओ, यह मृत्यु का उग्र रूप बंद करो। मुस्कुराओ, प्रसन्न हो जाओ। हम चुनेंगे, हमारी पसंद की प्रवृत्ति! ध्यान रहे, इस सूत्र में थोड़ी एक बात खयाल ले लेने जैसी है। संसार को अक्सर हम कहते हैं, प्रवृत्ति का जाल। और संन्यासी को हम कहते हैं निवृत्ति, प्रवृत्ति से हट जाना। लेकिन संसार प्रवृत्ति का जाल है, यह तो सच है। और कोई कितना ही संसार से भागे, संसार के बाहर नहीं जा सकता, यह भी ध्यान रखना। जहां भी जाएं, वहीं संसार है। कहीं भी जाएं, वहीं संसार है, क्योंकि सभी तरफ प्रवृत्ति है, उसकी। कहीं बाजार की प्रवृत्ति है। कहीं वृक्षों में पक्षियों की कलकलाहट है। कहीं नदी में पानी का शोर है। कहीं पहाड़ों का सन्नाटा है। लेकिन सब उसकी ही प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं। प्रवृत्ति के बाहर जाने का एक ही उपाय है कि प्रवृत्ति में चुनना मत। यह मत कहना कि यह विकराल है, हटाओ; प्रसन्न को प्रकट करो। यह चुनाव बांधता है, प्रवृत्ति नहीं बांधती। और जो प्रवृत्ति में चुनाव नहीं करता, वह अचानक शून्य हो जाता है। क्योंकि चुनाव से ही भीतर का शून्य खंडित होता है। जो शून्य हो जाता है, वह उसे तत्व से जान लेता है। अर्जुन कहता है, हे भगवन्, कृपा करके मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ, आपको नमस्कार होवे। आप प्रसन्न होइए। आदिस्वरूप, आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं। क्योंकि आपकी प्रवृत्ति को न मैं जानता हूं, न आपकी प्रवृत्ति से मुझे कोई बहुत प्रयोजन है। आप क्या है, वही मैं जानना चाहता हूं। आज इतना ही। पांच मिनट रुकें। कीर्तन करें, फिर जाएं। 343 Page #374 --------------------------------------------------------------------------  Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 सातवां प्रवचन साधना के चार चरण Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 58 श्रीभगवानुवाच | संकोच है, तो अस्वीकार शुरू हो जाता है और भय भी। कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः । | भय एक ही है कि कहीं मैं मिट न जाऊं। और यह भय अंतिम ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु | बाधा है। इसलिए जो जानते रहे हैं, उन्होंने कहा है, जैसे जीसस ने, योधाः ।। ३२ ।। | कि जो अपने को बचाएगा, वह खो देगा। और जो अपने को खोने तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्मुश्व राज्यं | को तैयार है, वह प्रभु को पा लेगा। अपने को बचाना ही धर्म के मार्ग समृद्धम्। | पर पाप है। अपने को बचाने की चेष्टा ही एकमात्र रुकावट है। मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव __ तो अर्जुन सामने खड़ा है; विराट के द्वार खुल गए हैं। लेकिन सव्यसाचिन् ।। ३३ ।। | कहीं मैं मिट न जाऊं—इसकी वह बात कर नहीं रहा है, यह भी द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्ण तथान्यानपि योधवीरान् । | समझ लेने जैसा है। वह कह रहा है कि आपके दांतों में दबे हुए, मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे | पिसते हुए द्रोण को देखता हूं, भीष्म को देखता हूं, कर्ण को देखता सपत्नान् ।। ३४।। हूं। आपका मुंह मृत्यु, महाकाल बन गया है। आपके मुंह से लपटें इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले,हे निकल रही हैं और विनाश की लीला हो रही है। और मैं बड़े-बड़े अर्जुन, मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल योद्धाओं को भी इस विनाश के मंह की तरफ भागते हए देखता है. हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ | | जैसे पतंगे दीप-शिखा की तरफ भागते हों, अपनी ही मौत की हूं। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित हुए योद्धा तरफ। कहीं भी वह अपनी बात नहीं कह रहा है। . लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न लेकिन ध्यान रहे, जब भी कोई दूसरा मरता है, तो हमें अपने मरने करने से भी सबका नाश हो जाएगा। की खबर मिलती है। और जब भी कहीं मृत्यु घटित होती है, तो किसी इससे तू खड़ा हो और यश को प्राप्त कर तथा शत्रुओं को एक अर्थ में तत्काल हमें चोट भी लगती है कि मैं भी मरूंगा। जीतकर धनधान्य से संपन्न राज्य को भोग। और ये सब __जब अर्जुन यह देख रहा होगा सबको मिटते हुए कृष्ण के मुंह शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन्, तू | में, तो यह असंभव है कि यह छाया की तरह चारों तरफ यह बात तो केवल निमित्तमात्र ही हो जा। उसको न घेर ली हो कि मैं भी मिलूंगा, मैं भी ऐसे ही मरूंगा। और तथा इन द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह तथा जयद्रथ और मैं भी पतंगे की तरह किसी ज्योति में जलने को इसी तरह भागा जा कर्ण तथा और भी बहुत-से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर । रहा हूं, जैसे यह सारा लोक। मैं भी इस लोक से अलग नहीं हूं। योद्धाओं को तू मार और भय मत कर, निस्संदेह तू युद्ध में । | वह कह तो दूसरों की बात रहा है, लेकिन उसमें खुद स्वयं की बात वैरियों को जीतेगा, इसलिए युद्ध कर! भी गहरे में सम्मिलित है। वह भय पकड़ता है। बुद्ध अपने साधकों को कहते थे, इसके पहले कि तुम परम सत्य को जानने जाओ, तुम ऐसे हो जाओ जैसे मर गए हो, जीते जी मृत। एक मित्र ने पूछा है, दिव्य-दृष्टि को पाकर भी अर्जुन | | अगर तुम जीते जी मृत नहीं हो गए हो, तो उस परम सत्य को तुम परमात्मा को उसकी समग्रता में स्वीकार करने में क्यों | न झेल पाओगे। जो जीते जी मृत हो गया है, उसे फिर कोई भी भय असफल हो रहा है? क्यों भयभीत है? | नहीं है। फिर परमात्मा के सामने खड़े होकर मिटने की उसकी पहले से ही तैयारी है। यह तैयारी न हो, तो अड़चन होगी। और जो लोग भी परमात्मा की खोज में जाते हैं, वे जीवन की 17 रमात्मा के साक्षात्कार में, उसकी पूर्ण स्वीकृति में, स्वयं खोज में जाते हैं, मृत्यु की खोज में नहीं। जो जीवन के पिपासु हैं 4 को पूरा खोने की तैयारी चाहिए। परमात्मा का अनुभव अभी, वे उसे न पा सकेंगे। जो मिटने को राजी हैं, वे उसे पा लेंगे, अपनी पूर्ण मृत्यु का अनुभव है। जो मिटने को राजी है, परम जीवन भी उन्हें मिलेगा। लेकिन परम जीवन मिलता है पूर्ण वही उसे पूरी तरह स्वीकार कर पाता है। अगर मिटने में जरा-सा भी मृत्यु की स्वीकृति से। "बुद्ध अपने सावकार हो जाओ जैसे परम सत्य को 346 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ साधना के चार चरण अपने को मिटाने को जो तैयार है, उसे इस जगत में फिर कोई भी नहीं मिटा सकता। और अपने को बचाने को जो पागल है, वह मिटेगा ही। क्योंकि जो हमारे भीतर भयभीत है कि मिट न जाऊं, वह है अहंकार | वह मिटेगा ही, वह बनाई हुई चीज है। जो बनाई हुई चीज है, वह मिटती ही है। . हमारे भीतर जो मृत्यु से भी नहीं मिटती, वह है आत्मा । और जब तक हमें मृत्यु का भय है, उसका अर्थ हुआ कि हमें आत्मा का कोई भी पता नहीं। हमें सिर्फ अपने अहंकार का, अस्मिता का, मैं भाव का पता है। हमारे भीतर मरणधर्मा है अहंकार, और अमृत है आत्मा । हम सबको अपने मैं का पता है, आत्मा का कोई पता नहीं है। इस मैं को ही हम लिए जाते हैं परमात्मा के द्वार पर भी । यह भीतर प्रवेश न कर सकेगा। इसे मिटना होगा, इसे बाहर दरवाजे पर ही छोड़ना होगा। अर्जुन का भय भी उन सभी साधकों का भय है, जो आखिरी किनारे पर खड़े हो जाते हैं और जहां सवाल उठता है कि क्या अब मैं अपने को खोने को राजी हूं? हम परमात्मा को भी पाना चाहते हैं अपने में जोड़ने को, ध्यान रखना। वह भी हमारी संपत्ति हो । वह भी हमारी मुट्ठी में हो। वह भी हमारे बैंक बैलेंस में लिखा हो, कि इस आदमी को भगवान मिल गया। वह भी हमारे हाथ में हो। हमारा अहंकार उसके होने से और प्रगाढ़ होता हो, कि मैंने परमात्मा को पा लिया। इसलिए हम उसकी भी खोज करते हैं। और धर्म बड़ी उलटी व्यवस्था है। धर्म कहता है, जब तक तुम हो, तब तक तुम उसे न पा सकोगे। कबीर ने कहा है, जब तक मैं था, खोज - खोजकर, परेशान हो-होकर मिट गया, उसे न पाया। और जब मैं मिट गया, तो मैंने देखा कि वह सामने खड़ा हुआ है ! वह दूर नहीं था। मैं था, इसीलिए दूर था । मेरा होना ही एकमात्र अड़चन, बाधा, अवरोध है। अर्जुन भी उसी अंतिम, आखिरी ... । ज्ञानियों ने कहा है, अहंकार अंतिम बाधा है। सब छूट जाता है। धन छोड़ना आसा है। परिवार छोड़ना आसान है। शरीर छोड़ना आसान है। अहंकार छोड़ना सबसे कठिन है कि मैं हूं। और जब तक मैं हूं, तब तक मैं हूं केंद्र। और अगर परमात्मा भी सामने खड़ा हो, तो वह भी नंबर दो है। जब तक मैं हूं, तब तक वह भी नंबर दो है, नंबर एक तो मैं ही हूं! और जब तक परमात्मा को नंबर एक पर रखने की तैयारी न हो, तब तक बाधा रहेगी। जिस क्षण मैं कह सकता हूं कि अब तू ही है, अब मैं नहीं हूं... 1 जार्ज गुरजिएफ ने आदमी की साधना के चार चरण कहे हैं। उसने कहा है, पहली स्थिति तो आदमी की है, बहुत मैं; मल्टी आइज। आपके भीतर एक मैं भी नहीं है अभी, बहुत मैं हैं । आपको खयाल भी नहीं होगा कि आप एक आदमी नहीं हैं। आपके भीतर कई ईगो, कई मैं हैं । इसलिए सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ हो जाता है। सुबह एक बात का वचन देते हैं, दोपहर भूल जाते हैं। सांझ एक बात तय करते हैं, सुबह विस्मृत हो जाती है। आज तय किया था क्रोध नहीं करेंगे और क्रोध हो गया। 347 गुरजिएफ कहता है, जिस मैं ने तय किया था कि क्रोध नहीं करूंगा, वह मैं और है । और जिस मैं ने क्रोध किया, वह मैं और है | आपके भीतर भीड़ है, आपके भीतर एक मैं नहीं है। इसलिए आपकी बात का कोई भरोसा नहीं है। गुरजिएफ के पास कोई आता और वह कहता कि मैं आया हूं साधना करने, तो गुरजिएफ कहता, तुम्हारी बात का भरोसा कर सकता हूं? तुम अभी साधना करने आए हो, सुबह, कल सुबह भी साधना करने के लिए तत्पर रहोगे ? तुम्हें पक्का है कि तुमने तय किया था कि क्रोध नहीं करूंगा, तो फिर नहीं ही किया ? तब वह आदमी डगमगा जाएगा। वह कहेगा, तय तो बहुत बार किया कि क्रोध न करूंगा, लेकिन हो नहीं पाता। एक बूढ़े आदमी ने मुझे कलकत्ते में कहा- बड़े प्रतिष्ठित आदमी थे मुल्क के- - कि मैं ब्रह्मचर्य का व्रत जीवन में चार बार ले चुका हूं! अब ब्रह्मचर्य का व्रत एक ही बार लिया जा सकता है। चार बार ब्रह्मचर्य के व्रत का क्या मतलब होता है ? जो मेरे साथ सज्जन थे, वे बहुत प्रभावित हुए । उनके खयाल में ही न आया; उनकी बुद्धि में प्रवेश न हुआ कि चार बार ब्रह्मचर्य के व्रत का क्या मतलब होता है ! मैं बूढ़े सज्जन से पूछा कि फिर पांचवीं बार आपने क्यों नहीं लिया? तो उन्होंने कहा, मैं हार गया चार बार और फिर मैंने लेना ही छोड़ दिया, व्रत लेना छोड़ दिया ! आप व्रत लेते हैं, लेकिन आपका व्रत टिक नहीं सकता। गुरजिएफ कहता है, आपके भीतर कई मैं हैं। एक मैं नहीं है आपके भीतर, मल्टी आइज, पोलीसाइकिक। महावीर ने ठीक शब्द उपयोग किया है, बहुचित्तवान । एक आदमी के भीतर बहुत-से चित्त हैं । और महावीर के इस बहुचित्तवान की स्वीकृति अभी | पश्चिम के मनोविज्ञान ने देनी शुरू की है। मनोविज्ञान भी कहा Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 गीता दर्शन भाग-500 हम अ है, मल्टीसाइकिक, बहुत मन हैं आदमी के पास; एक मन नहीं है। | कि मैं नहीं है, इसका भी पता नहीं चलता। क्योंकि इसका भी पता यह पहली अवस्था है, भीड़। इस आदमी का कोई भरोसा नहीं | चलना थोड़े-से मैं का पता चलना है। मैं नहीं हूं, तो भी लगता तो है है। इसका भरोसा करने का कोई सवाल नहीं है। इससे वचन भी | कि मैं हूं। कौन कह रहा है कि मैं नहीं हूं? किसको पता चल रहा है लेने का कोई मतलब नहीं है। इसके वचन की कोई पूर्ति नहीं होने | कि मैं नहीं हूं? यह कौन है, जो बोलता है कि मैं नहीं हूं? यह है। वाली है। | तो गुरजिएफ कहता है, चौथी अवस्था इसका भी विसर्जन है। दूसरी अवस्था गुरजिएफ ने कही है, एक मैं। यह सारी भीड़ को ___ पहले एक भीड़ है मैं की, एक क्राउड; फिर एक मैं का जन्म है; नष्ट करके जो व्यक्ति अपने भीतर एक स्वर पैदा कर लेता है; | | फिर एक मैं का त्याग है, न-मैं का जन्म है; फिर न-मैं का भी जिसके वचन का अर्थ है; जो कुछ कहेगा, तो पूरा करेगा; जो विसर्जन है। इस शून्य अवस्था में जो आदमी खड़ा होगा, वह टिकेगा, अपनी बात पर, अपने व्रत पर। उसके भीतर एक मैं है। | परमात्मा को पूरा का पूरा स्वीकार करता है। इसके पहले परमात्मा सुबह हो कि सांझ, फर्क नहीं पड़ेगा। उसने प्रेम किया है तो प्रेम ही | | को पूरा स्वीकार नहीं किया जा सकता। हम उसमें भी चुनाव करेंगे। करेगा, फिर घृणा नहीं कर सकेगा। अभी डर है मिटने का। अभी मैं हूं, तो मुझे भय है। यही आपके प्रेम का कोई भरोसा नहीं है। अभी प्रेम है, क्षणभर में | तकलीफ अर्जुन की है, यही तकलीफ सभी साधकों की है। घृणा हो जाए। फिर घृणा प्रेम हो जाए। अभी क्रोध है, फिर शांति हो जाए। फिर क्रोध हो जाए। अभी पछता रहे थे, और अभी फिर हत्या करने को राजी हो जाएं। आपकी बात का कोई भी भरोसा नहीं एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आपने समझाया कि है। आपको दोष देने का भी कोई कारण नहीं है। आपके भीतर एक परमात्मा के विराट स्वरूप के साक्षात्कार के लिए आदमी नहीं, कई आदमी हैं। जैसे एक मकान के कई मालिक हों मनुष्य की इंद्रियां सक्षम नहीं हैं। अपरिपक्व साधक और किसी की बात का कोई भरोसा न हो। कैसे हो सकता है? यदि किसी प्रकार विराट स्वरूप की झलक पा ले, तो गुरजिएफ कहता है, दूसरी स्थिति है एक मैं की, यूनिटरी आई। पागल भी हो सकता है। तो समझाएं कि एक स्वर रह जाए। साधना आपकी भीड़ को काटती है और एक परमात्म-ऊर्जा की झलक या साक्षात तक पहुंचने के का निर्माण करती है। लेकिन वह दूसरी अवस्था है। तीसरी अवस्था | लिए साधक क्या तैयारी करे? गुरजिएफ कहता है, न-मैं की, नो-आई। जब कि मैं न रह जाए। अनुभव होने लगे कि मैं नहीं हूं। यह तीसरी अवस्था है। दूसरी अवस्था वाले आदमी को ही तीसरी मिल सकती है। 1 रने की तैयारी करे, मिटने की तैयारी करे, न होने की जिसके पास पक्का है कि मैं हूं, वही हिम्मत कर सकता है मैं को 1 तैयारी करे। नहीं हूं, ऐसा जीने लगे। कर सकते हैं। खोने की। जो आपके पास नहीं है, उसको खोइएगा कैसे? जो गहन से गहन साधना वही है। आपके पास है. उसे आप छोड़ सकते हैं। जो आपके पास है ही | मगर हम तो सभी तरफ से मैं को मजबूत करने की साधना करते नहीं, उसे छोड़िएगा कैसे? आपके पास अभी मैं भी नहीं है, हैं। अगर आप मंदिर भी जा रहे हैं, तो आप देखते हैं कि लोग देख अहंकार भी नहीं है पूरा, मजबूत, एक, जिसको आप त्याग कर दें। | रहे हैं कि नहीं, कि मैं मंदिर जा रहा हूं। मंदिर में भी हाथ जोड़कर और त्याग कौन करेगा? एक त्याग करेगा, दूसरा पकड़े रहेगा, फिर | प्रार्थना करते हैं, तो भगवान की तरफ ध्यान कम रहता है। खयाल आप क्या करिएगा! आप एक भीड़ हैं। | रहता है कि आस-पास के लोग ठीक से देख रहे हैं? कोई गुरजिएफ कहता है, जिसको दूसरी अवस्था प्राप्त हो जाए, एक फोटोग्राफर आया कि नहीं? कोई अखबार खबर छापेगा कि नहीं मैं की, वह फिर तीसरी अवस्था में भी छलांग लगा सकता है। वह कि आज मैं प्रार्थना कर रहा था, लीन हो गया था? कहता है, छोड़ता हूं इसे! तब वह न-मैं, मैं नहीं हूं, इस भाव को मन में लगा है, कोई देख ले कि मैं प्रार्थना कर रहा हूं। कोई जान उपलब्ध होता है। | ले कि मैं प्रार्थना करने वाला हूं। कि मैं रोज मंदिर जाता हूं, कि मैं और गुरजिएफ कहता है, इस तीसरे के पार चौथी अवस्था है, जब धार्मिक हूं। धार्मिक होने की उतनी चिंता नहीं है। लोगों को पता हो 348 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ साधना के चार चरण कि मैं धार्मिक हूं, इसकी ज्यादा चिंता है। क्यों? वह मंदिर से भी | आप जीते ही हैं शब्दों से, खबर से, प्रचार से। तो आदमी, अहंकार ही भर रहा है। उससे भी मैं कुछ हूं-मैं पापी नहीं हूं, धार्मिक आदमी भी अगर प्रचार करके ही जी रहा हो, कि कितना पुण्यात्मा हूं; अधार्मिक नहीं हूं, धार्मिक हूं-यह मजा मैं इकट्ठा रस मिल रहा है उसको तपश्चर्या से-तपश्चर्या से नहीं, तपश्चर्या कर रहा है। | की खबर से; लोगों की आंखों में कितनी प्रशंसा मिल रही है तो आदमी उपवास करता है, तो चुपचाप नहीं करता। करना चाहिए | अहंकार ही भर रहा है। चुपचाप। क्योंकि किसी को बताने की क्या जरूरत कि आपने | हम सब तरह से अपने अहंकार को भरते हैं। बुरे अहंकार भी उपवास किया है ? लेकिन ढोल-मंजीरा पीटकर खबर करनी पड़ती | | हैं। अगर आप जेलखाने में जाएं, तो वहां भी जो बड़ा हत्यारा है, है कि उपवास पर हो गए हैं। फिर उपवास पूरा हो, तो जुलूस उसकी ज्यादा इज्जत होती है कैदियों में। जो दस-पांच दफा जेल में निकालना पड़ता है कि उपवास पूरा हो गया है! कि दस दिन | आ चुका है, उसकी ज्यादा प्रतिष्ठा होती है। वह नेता है। जो उपवास किया, कि अठारह दिन उपवास किया। नया-नया आया है, उसको लोग कहते हैं, अभी सिक्खड़ है। क्या, उपवास का शोरगल करने की क्या जरूरत है? यह तो आपकी | किया क्या था? वह कहता है, जेब काट ली थी। वे कहते हैं, चुप निजी बात थी। आपके और परमात्मा के बीच इसकी खबर काफी | भी रह। इसका भी कोई मतलब है! कोई मूल्य है! अभी सीख। थी। और उसको खबर मिल जाएगी। आपके बैंड-बाजे की कोई ___ मैंने सुना है कि एक जेलखाने में ऐसा हुआ। एक कोठरी में एक भी जरूरत नहीं है। आदमी पहले से था। फिर दूसरा आदमी भी जेलखाने में आया और कबीर ने कहा है, वह तुम्हारा परमात्मा क्या बहरा है जो तुम | | उसको भी उसी कोठरी में डाला गया। तो उस दूसरे आदमी ने पूछा, इतना शोरगुल मचा रहे हो? | कितने दिन की सजा हुई है? तो उसने कहा, चालीस साल की। ' लेकिन परमात्मा से किसी को प्रयोजन भी नहीं। और उसका | | उसने कहा, सिर्फ चालीस साल की! तो दरवाजे के किनारे अपना पक्का पता भी नहीं कि वह है भी या नहीं। और यह भी पक्का नहीं बिस्तर लगा। मुझे सत्तर साल की हुई है। तुझे पहले निकलना कि आपके उपवास से प्रसन्न हो रहा है कि दुखी हो रहा है, यह कुछ पड़ेगा। दरवाजे के पास ही अपना बिस्तर रख। सिर्फ चालीस साल पता नहीं है। आपके उपवास की उसको खबर भी हो रही है, यह | की ही सजा हुई है, तो दरवाजे के पास ही टिक! तुझे पहले निकलने भी पता नहीं है। लेकिन लोगों को तो कम से कम खबर हो जाए! | का मौका आएगा। उसको सत्तर साल की हुई है! सत्तर साल का वह जो अठारह दिन आदमी उपवास में तड़पता रहा है, ये लोग मजा और है। वह भीतर जमकर बैठा है। उसका जुलूस निकालें, इसमें उसका रस है। आदमी पाप में भी अहंकार को भरता है, छोटे-बड़े पापी होते आदमी जरा-सा तप करे. साधना करे. तो उत्सकता होती है कि हैं। आदमी पण्य में भी अहंकार को भरता है. छोटे-बड़े पण्यात्मा दूसरों को खबर हो जाए। हम छोटे बच्चों की तरह हैं। अनुभव से | होते हैं। अगर आप साधु-महात्माओं के पास जाएं, तो भी इस पर हमें संबंध नहीं है, खबर से संबंध है। और यह सारा हमारा जगत | निर्भर करता है कि वे आपसे कहेंगे, आइए बैठिए या कुछ भी न खबर से जी रहा है। कहेंगे, इस पर निर्भर करता है कि आपकी कितनी प्रतिष्ठा उनकी आप मानते हैं, फलां आदमी बहुत बड़ा महात्मा है। मानने का | | आंखों में है। दान किया हो, उपवास किया हो, तप किया हो, इस कारण? क्योंकि वह आदमी ठीक से आपको खबर पहुंचा सका है। | पर निर्भर करेगा। कोई छिपा हो, न हो उसका पता, तो आपको पता चलने वाला नहीं | | मैं एक महात्मा का प्रवचन सुन रहा था। मैं बहुत हैरान हुआ। है। आपके सामने अगर कृष्ण भी आकर खड़े हो जाएं और पहले वे कुछ कहते, दो वचन मुश्किल से बोलते, फिर पूछते, सेठ से ठीक से आपको खबर न की गई हो, तो आप पहचानने वाले | कालीदास, समझ में आया? बहुत लोग बैठे थे। कौन सेठ नहीं हैं। या हो सकता है आप समझें कि कोई नाटक का पात्र आ | | कालीदास है ? सेठ कालीदास एक बिलकुल बुद्ध की शक्ल के एक गया है। यह क्या कलगी, बांसुरी वगैरह लिए आदमी चला आ रहा | | आदमी सामने बैठे हुए थे। वे सिर हिलाते कि जी महाराज! फिर वे है! या हो सकता है कि पुलिस को खबर करें कि यहां एक गड़बड़ | पूछते, सेठ माणिकलाल, समझ में आया? फिर एक दूसरे सेठ वहीं आदमी दिखाई पड़ रहा है, इसको पकड़कर ले जाएं। | सामने पगड़ी बांधे बैठे थे। वे भी सिर हिलाते कि समझ में आया। 349 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 मैंने बाद में पूछा कि बात क्या है? क्या ये दो ही आदमी यहां समझने वाले हैं इतने लोगों में? और यह नाम ले-लेकर पूछने की बात क्या है ? तो पता चला कि दोनों ने काफी दान किया है। जिसने दान किया, उसी के पास समझ भी हो सकती है ! और फिर कालीदास को जो मजा आ रहा है कि महात्मा बार-बार पूछते हैं, कालीदास, समझ में आया ! तो इतने लाखों लोगों में समझते हैं कि एक कालीदास समझदार है ! हमारा सारा ढंग अहंकार के आस-पास चलता है, उसी के पास जीता है। तो अच्छे पापी हैं, बुरे पापी हैं। बुरे पापी वे हैं, जो बुराई से अहंकार को भर रहे हैं। अच्छे पापी वे हैं, जो अच्छाई से अहंकार को भर रहे हैं। अहंकार पाप है। धर्म की गहन दृष्टि अहंकार पाप है। साधक का एक ही काम है कि वह ऐसे जीए जैसे है नहीं। क्या करे? जहां भी उसे लगे, मेरा मैं उठ रहा है, वहीं साक्षी हो जाए और उसे कोई सहयोग न दे। रास्ते से चले, उठे, बैठे, गुजरे, ऐसे जैसे कि हवा आती हो, जाती हो । भीतर कहीं भी मौका न दे कि मैं निर्मित हो रहा हूं, मैं बन रहा हूं, मजबूत हो रहा हूं। इसकी सतत स्थिति बनी रहे जागरण की, तो ही एक घड़ी आती है, जब मैं मिट जाता है और साधक शून्य हो जाता है। उसी शून्य में अवतरण होता है। उसी ना- कुछ में, जब सब जगह खाली हो जाती है, तो साधक अतिथिगृह बन जाता है, प्रभु के निवास का । फिर प्रभु उतर सकता है। प्रभु उतर आए, फिर कोई ध्यान रखने की जरूरत नहीं है। फिर तो ध्यान रखना भी बाधा है। फिर तो इसकी भी फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं कि मैं हूं या नहीं हूं। वह उतर आया, उसके बाद वह जाने। लेकिन जब तक वह नहीं उतरा है, तब तक साधक को अत्यंत सचेष्ट भाव से जीने की जरूरत है कि उसके भीतर कहीं भी मजबूत न होता हो। मैं बस, यह एक बात खयाल में रहे और आदमी अपने को सिफर करता जाए, शून्य करता जाए। एक घड़ी आ जाए कि भीतर कोई मैं का भाव न उठता हो। उसी घड़ी में मिलन हो जाएगा। उसी क्षण आप नहीं, और परमात्मा हो जाता है। एक और मित्र ने पूछा है कि फूल खिलते हैं मौसम में, चांद उगता है समय से, पानी भाप बनता है सौ . डिग्री पर । अगर सारा जगत प्रयोजनहीन है, तो इतनी नियमितता कैसे ? सारी क्रिया, गतिशीलता अगर लीला ही है, आनंद ही है, तो इतनी प्रगाढ़ नियमबद्धता क्यों है ? 350 • न रहे, जहां खेल हो, वहां नियम का बहुत ध्यान ध्या रखना पड़ता है। खेल टिकता ही नियम पर है। क्योंकि और तो टिकने की कोई जगह नहीं होती, सिर्फ नियम ही होता है। दो आदमी ताश खेल रहे हैं। तो रूल्स होते हैं, नियम होते हैं, जिनसे चलना पड़ता है। क्योंकि खेल में और तो कुछ है ही नहीं, सिर्फ नियम के ही आधार पर तो सारा मामला है। अगर दो ताश के खेलने वाले एक नियम को न मानते हों, खेल बंद हो जाएगा। खेल टिकता ही नियम पर है। इसलिए आप खयाल रखें, अगर आप अपने काम-धंधे में बेईमानी करते हैं, तो कोई आपकी इतनी निंदा नहीं करेगा। लेकिन अगर आप ताश खेलते वक्त बेईमानी करें और नियम का उल्लंघन करें, तो सभी आपकी निंदा करेंगे। खेल में अगर कोई बेईमानी करे, तो बहुत निंदित हो जाता है, क्योंकि वह तो खेल का आधार ही खींच रहा है। खेल का आधार ही नियम है। इस जगत में इतनी नियमबद्धता इसीलिए है कि यह परमात्मा का खेल है। और चूंकि उसी का खेल है, उसी को नियम पालने हैं। अपना खेल वह बंद भी कर सकता है। अगर वह नियम नहीं मानता है, तो खेल अभी बंद हो जाता है। मगर उसके अलावा कोई है भी नहीं, अपने ही नियम हैं, अपना ही मानना है। इसीलिए इतनी नियमबद्धता है। इस नियमबद्धता का कारण यह नहीं है कि जगत में कोई प्रयोजन है। जहां प्रयोजन हो, वहां तो बिना नियम के भी चल सकता है। क्योंकि प्रयोजन ही काम करवा लेगा। लेकिन जहां प्रयोजन न हो, वहां तो नियम ही सब कुछ है। क्योंकि भविष्य तो कुछ भी नहीं है, आगे तो 'कुछ' भी नहीं है पाने को । नियम ही एकमात्र आधार है। छोटे बच्चे भी खेल खेलते हैं, तो नियम बना लेते हैं। सारे खेल | नियम पर खड़े होते हैं। नियम के बिना खेल असंभव है। ये सारे खेल जो हम चारों तरफ देख रहे हैं, नियम पर खड़े हैं। इसलिए विज्ञान नियम की खोज कर पाता है। इसे थोड़ा समझ लें। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के चार चरण विज्ञान तो खड़ा ही नियम पर है। अगर जगत में नियम न हो, तो विज्ञान बिलकुल खड़ा नहीं हो सकता। विज्ञान नियम की खोज कर लेता है कि सौ डिग्री पर पानी भाप बनता है। यह नियम की खोज है। अगर कभी निन्यानबे पर बनता हो और कभी डेढ़ सौ पर बनता और कभी बनता ही न हो, तो फिर विज्ञान खड़ा नहीं हो सकता। विज्ञान नियम का तो पता लगा लिया है, लेकिन वैज्ञानिक से पूछो कि प्रयोजन क्या है ? तो वैज्ञानिक कहता है, प्रयोजन का तो कोई पता नहीं चलता। इसलिए विज्ञान कहता है, प्रयोजन का हमें कोई भी पता नहीं है। हम इतना ही बता सकते हैं कि ऐसा है। क्यों है? किस लिए है ? इसका कोई उत्तर नहीं है। हम से यह मत पूछो। हमसे व्हाई, क्यों मत पूछो। हमसे सिर्फ व्हाट, क्या है, इतना ही पूछो। हम बता सकते हैं, सौ डिग्री पर पानी गर्म होता है। लेकिन क्यों डिग्री पर गर्म होता है ? निन्यानबे पर होने में क्या अड़चन थी ? और निन्यानबे पर होता, दुनिया में कौन-सी खराबी हो जाती ? या एक सौ एक डिग्री पर होता, तो दुनिया में कौन-सी विकृति आने वाली थी? और सौ डिग्री पर ही होता है, इसका क्या लक्ष्य है? यह भी विज्ञान कहता है, हम कुछ नहीं कह सकते। कोई लक्ष्य नहीं दिखाई पड़ता, कोई प्रयोजन नहीं दिखाई पड़ता। एक नियम- वर्तुलता दिखाई पड़ती है, कि नियम आवर्तित होता रहता है। धर्म कहता है, कोई प्रयोजन नहीं है। हमें बहुत घबड़ाहट लगती है इस बात से कि कोई प्रयोजन नहीं है। क्योंकि तब सब बातें फिजूल मालूम पड़ती हैं। अगर कोई प्रयोजन नहीं, तो सब बात फिजूल मालूम पड़ती है। लेकिन आप समझें थोड़ा। आपको फिजूल इसीलिए मालूम पड़ती है कि आप अब तक प्रयोजन से ही जीते रहे हैं। प्रयोजन के कारण ही, प्रयोजन की धारणा के कारण ही फिजूल मालूम पड़ती है। अगर कोई प्रयोजन है ही नहीं, तो कोई चीज फिजूल भी नहीं है। प्रयोजन हो, तो कोई चीज फिजूल हो सकती है। प्रयोजन हो ही न जगत में, तो फिर कोई चीज यूजलेस नहीं है, कोई चीज फिजूल नहीं है। क्योंकि फिजूल को जांचिएगा कैसे ? अगर सभी प्रयोजनरहित है, तो फिर कोई चीज व्यर्थ नहीं है। न कोई चीज सार्थक है, न कोई चीज व्यर्थ है। बस, चीजें हैं। ऐसा जो स्वीकार कर लेता है, उसके जीवन से अशांति के सारे कारण विदा हो जाते हैं। ऐसा जो मान लेता है, समझ लेता है, गहरे में इसकी प्रतीति हो जाती है, उसके जीवन में कोई बेचैनी नहीं रह जाती। कोई बेचैनी नहीं रह जाती। बेचैनी का उपाय ही नहीं रह | जाता । परम शांति और परम विश्राम में उतरने का मार्ग इस अनुभव को पा लेना है कि सब खेल है। 351 आप रात सपना देखते हैं। कोई आपकी चोरी करके ले जा रहा है। किसी ने आपकी पत्नी की हत्या कर दी है। आप बड़े बेचैन होते हैं, बड़े परेशान होते हैं। रोते हैं सपने में। घबड़ाहट में नींद खुल जाती है। तो देखते हैं कि आंख से आंसू बह रहे हैं। छाती जोर से धड़क रही है। ब्लड-प्रेशर बढ़ गया होगा । लेकिन नींद खुलते ही आप हंसने लगते हैं। क्योंकि आपको पता चलता है, जो था, वह स्वप्न था। तब फिर आप यह नहीं पूछते कि यह आदमी मेरी पत्नी की हत्या क्यों किया ? फिर आप यह नहीं पूछते कि वह एक आदमी चोरी करके ले गया है, उसने पाप किया? फिर आप यह सवाल ही नहीं पूछते । आप इतना ही जानकर कि वह स्वप्न था, एक खेल था मन का, शांत हो जाते हैं। फिर हृदय की धड़कन अपनी जगह लौट आती है। खून ठीक चलने लगता है। पसीना बंद हो जाता है। आंसू सूख जाते हैं। आप फिर विश्राम में, नींद में प्रवेश कर जाते हैं। स्वप्न में क्या तकलीफ आ गई थी? क्योंकि तब स्वप्न वास्तविक मालूम पड़ता था, इसलिए घबड़ा गए थे। जैसे ही पता चला स्वप्न है, घबड़ाहट खो गई, शांत हो गए। जब तक जगत में आपको प्रयोजन मालूम पड़ता है, तब तक आप परेशान रहेंगे। जिस क्षण आपको लगेगा, जगत लीला है, स्वप्नवत, एक खेल, कोई प्रयोजन नहीं, उसी क्षण आप स्वप्न के बाहर हो जाएंगे। यह गहनतम आधारभूमि है, जिसके सहारे आदमी विराट को अपने में उतार पा सकता है। जब तक आपको लग रहा है, सब तरफ वास्तविकता है, रियलिटी है; जब तक आपको लग रहा है, ऐसा होना ही चाहिए, इसके बिना जीवन बेकार हो जाएगा, तब तक आप बेचैन और परेशान होंगे और जीवन को बेकार कर लेंगे। | क्योंकि परेशानी और बेचैनी में ही नष्ट हो जाएगी ऊर्जा। यह ऊर्जा अगर ठहर जाए, शांत हो जाए, तो इस शांत ऊर्जा से जो झील बन | जाती है मौन की, तरंगरहित, उसी झील में संपर्क हो जाता है अनंत से, विराट से, प्रभु से । एक और मित्र ने पूछा मान लें और समझ लें कि सब नियति का खेल है, है कि अगर आपकी बात हम Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो जगत आलस्य छा जाएगा। गीता दर्शन भाग-5 तो छा जाने दें। ऐसे आपको क्या तकलीफ हो रही है ? आपको पता है, आलसियों ने क्या बुरा किया है जगत का? हिटलर कोई आलसी नहीं है, चंगेज खां कोई आलसी नहीं है, तैमूरलंग कोई आलसी नहीं है। दुनिया के जितने उपद्रवी हैं, कोई भी आलसी नहीं है। आप एकाध आलसी का नाम बता सकते हैं, जिसने दुनिया को कोई नुकसान पहुंचाया हो ? नुकसान पहुंचाने के लिए भी तो आलस्य नहीं चाहिए न ! दुनिया के पूरे इतिहास में एक आदमी नहीं है, जिसको हम दोष दे सकें, जो आलसी रहा हो, जिसने किसी को कोई हानि पहुंचाई हो। आलसी न चोर हो सकता है, न राजनीतिज्ञ हो सकता है। न गुंडा हो सकता है, न हत्यारा हो सकता है। आलसी से क्या तकलीफ है आपको ? आलसी के ऊपर दोष ही क्या हैं? सब दोष तो कर्मठ लोगों के ऊपर हैं। सब उपद्रव का जाल तो कर्मठ लोगों के ऊपर है। दुनिया में थोड़ा कर्म कम हो, तो हानि नहीं होगी। फिर आपको पता नहीं है । जो आलसी हो सकता है, वह आलसी होता ही है। जो नहीं हो सकता, उसके होने का कोई उपाय नहीं है। नियति का अर्थ यह है कि जो जो हो सकता है, वही हो सकता है। जो कर्मठ हो सकता है, वह कर्मठ रहेगा ही । उसको आप अगर कोठरी में भी बंद कर दें, तो भी वह कुछ न कुछ कर्म करेगा। वह बच नहीं सकता। तिलक, लोकमान्य तिलक बंद थे कारागृह में। तो लिखने का कोई सामान नहीं था, तो कोयले से दीवाल पर लिखते रहते थे। गीता रहस्य उन्होंने कोयले से लिख-लिखकर शुरू किया। आपके सामने कोई सब कलम - कागज, एयरकंडीशंड दफ्तर भी रख दे, तो भी आप कुछ लिखेंगे जरूरी नहीं है। जो लिख सकता है, वह जेलखाने में कोयले से भी लिखेगा। जो नहीं लिख सकता है, उसको लिखने का सब सामान भी हो, तो सामान ही देखकर उनके प्राण और शांत हो जाएंगे। वह कुछ नहीं लिख सकेगा। आप जो कर सकते हैं, वह करते हैं। आपको एक कहानी कहूं। जापान के एक राजा को मौज थी। वह आलसियों का बड़ा प्रेमी था। वह कहता था, आलसी बड़ा अनूठा आदमी है। और फिर आलसी का कोई कसूर नहीं है। भगवान ने किसी को आलसी पैदा किया, तो उसका क्या कसूर है ! वह राजा खुद भी आलसी था । | आलसियों का बड़ा प्रेमी था । उसने सारे जापान में एक डुंडी पिटवाई। और उसने कहा कि जितने भी आलसी हों, उनको सरकार की तरफ से पेंशन मिलेगी। क्योंकि भगवान ने उनको आलसी | बनाया, वे कर भी क्या सकते हैं! और भगवान की वजह से वे परेशान हों ! उसके मंत्री बहुत हैरान हुए कि यह तो बड़ा उपद्रव का काम है। | इसमें तो पूरा मुल्क आलसी हो जाएगा और यह खजाना लुट जाएगा अलग। खजाना आलसी तो भरते नहीं, कर्मठ भरते हैं। और आलसी पेंशन पाने लगें मुफ्त, तो सभी आलसी हो जाएंगे। पर राजा का हुक्म था, तो उन्होंने कोई तरकीब निकाली फिर । उन्होंने राजा से कहा, यह तो ठीक है। लेकिन असली आलसी | कौन है, इसका कैसे पता चलेगा? राजा ने कहा, यह भी कोई पता | लगाना है! यह तो पता चल जाएगा। तुम खबर कर दो कि जो लोग भी पेंशन लेने को उत्सुक हैं, राजमहल में इकट्ठे हो जाएं। राजधानी से कोई दस हजार आदमी इकट्ठे हो गए। सम्राट ने सबके लिए घास की झोपड़ियां बनवाई थीं । उन सबको ठहरा दिया। रात सम्राट ने कहा, झोपड़ियों में आग लगा दो। जो आदमी झोपड़ी से बाहर न भागें, उनको पेंशन देंगे। चार आदमी नहीं भागे। जब झोपड़ी में आग लग गई तो उन्होंने अपने कंबल ओढ़ लिए। उनके पड़ोस के लोगों ने कहा भी कि आग लगी है। उन्होंने कहा कि अगर कोई हमें ले जाए बाहर, तो ले जाए। बाकी यह अपने बस बात नहीं है। जो आलसी है, उसको आप कर्मठ बना भी कहां पाते हैं! जो कर्मठ है, उसे आलसी बनाने का कोई उपाय नहीं है। जिंदगी में हर आदमी जैसा है, वैसा है, यह नियति की धारणा है। इससे आप परेशान न हों कि लोग आलसी हो जाएंगे। जिन मित्र ने पूछा है, लगता है, आलसी टाइप हैं। लोग हो जाएंगे, इसका तो क्या डर है। उनको डर होगा अपना । वे होंगे आलसी । समझा-बुझाकर कर्म में लगे होंगे। धक्का दे रहा होगा पिता, पत्नी, कोई धक्का दे रहा होगा कि लगो कर्म में। तो वे लगे होंगे अपने को समझाकर । सुनकर उन्हें घबड़ाहट हुई होगी कि यह तो बात गड़बड़ है। संसार आलसी हो जाएगा! संसार नहीं हो जाएगा। लेकिन अगर आप आलसी हो सकते हैं, तो देर मत करें, हो जाएं। किसी की मत सुनें, चुपचाप हो जाएं। क्योंकि वही आपका 352 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के चार चरण स्वभाव है, वही आपका स्वधर्म है। फिर डरें मत। ध्यान रहे, इसका मतलब क्या होता है ? इसका मतलब यह होता है कि फिर आलसी होने से जो परिणाम भोगना पड़ें, वे भोगें । पत्नी गाली देगी। पिता डंडा लेकर खड़ा हो जाएगा। पास-पड़ोसी निंदा करेंगे। सब जगह बदनामी होगी। उसको शांति से सुनना कि वे लोग बदनामी करने में बंधे हैं, बदनामी कर रहे हैं। मैं आलसी हूं, मैं आलसी हूं। अगर आप इतना भी कर पाएं, तो आपका आलस्य ही आपकी साधना हो जाएगी। कर्म भी साधना बन जाता है, अगर हम उसे स्वीकार कर लें। आलस्य भी साधना बन जाता है, अगर हम उसे स्वीकार कर लें। अपने स्वभाव को स्वीकार करके जो निष्ठापूर्वक जीता है, परमात्मा उससे दूर नहीं है। वह स्वभाव कुछ भी हो। एक दूसरे मित्र ने भी यही पूछा है । उनको डर यह है कि अगर यह बात मान ली जाए कि नियति ठीक है, तो फिर चोर चोरी करता रहेगा, पापी पाप करेगा, हत्या करने वाला हत्या करेगा, फिर तो दुनिया बिलकुल विकृत हो जाएगी । फिर दुनिया का क्या होगा ? दु निया का इतना डर क्या है ? आपसे दुनिया चल रही "है? डर सदा अपना है। अगर हत्यारा सुनेगा कि नियति है; सब भगवान ने पहले से किया हुआ है; जिनको मारना है, अर्जुन से वे कह रहे हैं, उनको मैं पहले मार चुका, तो हत्यारा सोचेगा, बिलकुल ठीक। जिसको मुझे मारना है, भगवान उसको पहले से मार चुके हैं। मैं तो निमित्त मात्र हूं। यह हत्यारे का ही डर है उसके भीतर । लेकिन अच्छा है, अगर नियति की बात सोचकर आपके भीतर की असलियत बाहर आती हो, तो यह आत्म-निरीक्षण के लिए बड़ी कीमती है। अगर आपको ऐसा लगता हो कि स्वीकार कर लो सब और पहला खयाल यह आता हो कि लेकर तिजोड़ी पड़ोसी की नदारद हो जाओ; तो यह आत्म-निरीक्षण के लिए बड़ा उपयोगी है। इससे आपके भीतर जो छिपा है, वह प्रकट होता है। आप अभी तक अपने को समझ रहे हों कि साधु हैं, आप हैं चोर; नियति के विचार ने आपको जाहिर कर दिया, उजागर कर दिया आपके सामने, नग्न रख दिया। आप अब तक सोचते हों, बड़ा शांतिवादी हूं; और अब पता चला कि दो-चार की हत्या करने में हर्ज क्या है ! वे कृष्ण तो पहले ही हत्या कर चुके हैं, मैं तो अर्जुन हूं, निमित्त मात्र ! तो मैं कर दूं? तो आपको पता चला कि साधुता | वगैरह सब ओछी, थोथी, ऊपर-ऊपर थी। भीतर यह असली खूनी छिपा है। नियति का विचार भी आपको आत्म-निरीक्षण का कारण बन जाएगा, एक और दूसरी बात, नियति के विचार की पूरी श्रृंखला को समझ लेना जरूरी है। आप सोचते हों कि मैं किसी का सिर खोल दूं, क्योंकि यह तो नियति है । लेकिन वह भी आपका सिर खोलेगा, तब ? तब भी नियति ही मानना । तब नाराज मत हो जाना। तब चिंतित मत होना। जब आप किसी की तिजोड़ी लेकर जाएं, वह तो ठीक है। लेकिन जब कोई आपकी तिजोड़ी लेकर चला जाए, या चार आदमी रास्ते में मिलकर आपकी तिजोड़ी छीन लें...। मैंने सुना है, एक चोर पर मुकदमा चला। तीसरी बार मुकदमा चला। और मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि तुम तीसरी बार पकड़े गए हो। दो बार भी तुम्हारे खिलाफ कोई गवाही नहीं मिल सकी, कोई | चश्मदीद गवाह नहीं मिला, जिसने तुम्हें चोरी करते देखा हो । अब तुम तीसरी दफे भी पकड़े गए हो, लेकिन कोई गवाह नहीं है। तुम क्या अकेले ही चोरी करते हो? कोई साझीदार, कोई पार्टनर नहीं रखते? उस चोर ने कहा कि दुनिया इतनी बेईमान हो गई कि किसी से साझेदारी करना ठीक नहीं है। 353 चोर भी सोचते हैं कि ईमानदार से साझेदारी करो, कि दुनिया इतनी बेईमान हो गई कि साझेदारी चलती ही नहीं! अकेले ही करना है, जो करना है। किसी का भरोसा नहीं है। चोर भी चाहता है कि कोई भरोसे वाला आदमी मिले। ध्यान रखना, आप जब किसी का सिर खोल दें, तभी नियति नहीं है। जब वह लौटकर आपका सिर खोल दे, तब भी नियति है । अगर दोनों की स्वीकृति हो, तो आप जाएं और सिर खोल दें; देर मत करें। अगर ये दोनों की स्वीकृति हो कि जब आप किसी की चोरी करें, तब भी; और जब कोई आपका सब छीनकर ले जाए, तब भी । नियति का मतलब यह नहीं है कि आपके पक्ष में जो है वह नियति । नियति के दोनों पहलू हैं। ध्यान रहे, जो आदमी नियति को स्वीकार कर लेता है, उसका जीवन इतना शांत, इतना मौन हो जाता है कि अगर परमात्मा ही चाहे, तो ही उससे चोरी होगी। इसे समझ लें ठीक से । वह इतना मौन और शांत हो जाता है सब स्वीकार करके कि Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 अगर परमात्मा ही चाहे, तो ही उससे हत्या होगी। आप, परमात्मा है कि जैसे नंगा नहा रहा है और सोच रहा है कि कपड़े कहां चाहे कि न हो हत्या, तो भी कर रहे हैं। आप, परमात्मा चाहे कि न | सुखाएंगे? कपड़े भी तो हों! तो वह चिंता में ही पड़ा है। वे नहा भी हो चोरी, तो भी कर रहे हैं। आप अपना ही हिसाब लगाकर जी रहे नहीं रहे हैं इसी डर से कि कपड़े कहां सुखाएंगे? हैं। इस जगत की विराट योजना में आपकी अलग ही दुनिया है। दुनिया इससे बुरी हालत में और क्या हो सकती है, जिस हालत आपका अलग अपना ढांचा है। अलग पटरियां हैं, उन पर आप | में है! और इतनी बुरी हालत में किस कारण से है? इसलिए नहीं दौड़ रहे हैं। | कि हमने नियति को मान लिया है, इसलिए इतनी बुरी हालत में है। नियति मानने वाले का अर्थ यह है कि जो भी है, उसे समग्रता | इसीलिए कि हम सब कोशिश में लगे हैं इसे और अच्छा बनाने में स्वीकार है, जो भी परिणाम हो। वह यह नहीं कहेगा कि यह बुरा की। हमने इसे स्वीकार नहीं किया है। हम सब कोशिश में लगे हैं हुआ मेरे साथ। अगर कल आप पकड़ गए चोरी में और अदालत | | इसे बनाने की। हम सब इसे अच्छा करने की कोशिश में लगे हैं, ने आपको सजा दी, तो आप क्या कहेंगे फिर ? क्या आप यह कहेंगे | | अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने इरादे से। अपनी-अपनी कि मेरे साथ बुरा हुआ, मैं तो नियति का ही काम कर रहा था? छोटी-छोटी दुनिया सबने बांट रखी है, उसको अच्छा कर रहे हैं। मजिस्ट्रेट भी नियति का ही काम कर रहा है। और वह जो पुलिस एक चोर भी अगर चोरी कर रहा है, तो किस लिए? कि बच्चों वाला आपको हथकडियां डाले हए खडा है, वह भी नियति का ही के लिए शिक्षा दे सके: कि उसकी पत्नी के पास भी एक हीरे का काम कर रहा है। नियति की स्वीकृति का अर्थ है, इस जगत में अब | | हार हो जाए; कि उसके पास भी एक छोटा मकान हो, अपनी मुझे कोई भी शिकायत नहीं। बगिया हो, कि अपनी एक गाड़ी हो। वह भी अपने कोने में अपनी इसे ठीक से समझ लें। दुनिया को अच्छा बनाने में, हीरे से जड़ने में, बगीचे से बसाने में नियति की स्वीकृति का अर्थ है कि कोई शिकायत नहीं मुझे लगा हुआ है। जगत में। जो भी हो रहा है, उसकी मर्जी। फिर मैं आपसे कहता हूं जो भी हम इस दुनिया में कर रहे हैं, उस सबमें हम कुछ अपनी कि अगर इतनी हिम्मत हो आपकी, सब स्वीकार करने की, तो मैं नजर से अच्छा करने की कोशिश में लगे हैं। अच्छा करने के लिए आपको हक देता हूं कि चोरी, हत्या, जो भी करना हो, करना। हम सोचते हैं, थोड़ा बुरा भी करना पड़े, तो हर्ज क्या है, कर लो! लेकिन इतनी स्वीकृति पहले आ जाए। हम सोचते हैं, इतना अच्छा करेंगे, इसमें थोड़ी-सी बुराई भी हुई, अब तक ऐसा हुआ नहीं। जब इतनी स्वीकृति आ जाती है, तो तो क्षम्य है। आदमी अपने को तो छोड़ ही देता है। आप हत्या करते हैं इसलिए नियति का अर्थ है कि हम दुनिया को बनाने की चिंता में नहीं कि आप अहंकार से जीते हैं। किसी ने जरा-सी चोट पहुंचा दी,.. | लगे हैं। दुनिया जैसी है, उसको उसके हाल पर छोड़कर, हम जहां मिटा डालूंगा उसको! किसी ने जरा-सी गाली दे दी, तो आप आग | हैं, वहां चुपचाप जी रहे हैं। हम दुनिया को छू भी नहीं रहे हैं कि से भर जाते हैं। वह आग आपके अहंकार से आती है। | इसको अच्छा बनाएंगे। ऐसी अगर संभावना बढ़ जाए जगत में, तो जो आदमी नियति को मान लेता है, उसका अहंकार तो समाप्त दनिया इससे लाख गना बेहतर होगी। हो गया। वह कहता है, मैं तो हूं ही नहीं। अब जो भी हो। इस दुनिया को सुधारने वाले लोगों ने जितना उपद्रव खड़ा किया है, हालत में जो भी होगा, उसका जिम्मा परमात्मा का है, आपका उतना किसी ने भी खड़ा नहीं किया। वे मिस्चीफ मेकर्स हैं। उनकी जिम्मा नहीं है। बातों से ऐसा लगता है कि सारी दुनिया अच्छी करने में वे लगे हैं, और यह दुनिया, हमें डर लगता है कि कहीं बिगड़ न जाए। जैसे| लेकिन वे चीजों को विकृत करते चले जाते हैं। क्यों? क्योंकि वे कि दुनिया बहत अच्छी हालत में है और बिगड़ने का और कोई परमात्मा के हाथ से. नियति के हाथ से. यंत्र अपने हाथ में ले लेते उपाय भी है। हैं, कर्ता स्वयं हो जाते हैं। लोग मेरे पास निरंतर आते हैं, वे इसी फिक्र में रहते हैं कि दुनिया । यह हमें बहुत उलटा लगेगा, क्योंकि हमारे सोचने का सारा ढांचा बिगड़ जाएगी! जैसे कि अभी कुछ बचा है बिगड़ने को! क्या बचा इस पर निर्भर है कि हम कुछ करें, कुछ करके दिखाएं। बाप अपने है बिगड़ने को? क्या डर है अब खोने के लिए? हमारी हालत ऐसी | बेटे को समझा रहा है, कुछ करके दिखाओ, दुनिया में आए हो तो। 354 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 साधना के चार चरण इतना ही काफी होगा कि दुनिया को तुम्हारे होने का पता ही न देख रहा है अग्नि की लपटें मेरे मुंह से निकलती हुई, योद्धाओं को चले। इससे बड़ी और कोई बात तुम नहीं कर सकते हो। तुम ऐसे | | दौड़ता हुआ मृत्यु में, मेरे मुंह में, उसका कारण है। मैं लोकों का रह जाओ कि पता ही न चले कि तुम थे। तुम्हारे जाने पर कहीं कोई नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं। इस क्षण मैं एक महानाश शोर-शराबा न हो, कहीं कोई पत्ता भी न हिले। तो तुम, परमात्मा | के लिए उपस्थित हुआ हूं। इस क्षण एक विराट विनाश होने को है। जैसा चाहता है, उस ढंग से जीए। और उस विराट विनाश के लिए मेरा मुंह मृत्यु बन गया है। मैं इस लेकिन कुछ करके दिखाओ, उसका मतलब है, अहंकार को | समय महाकाल हूं। यह मेरा एक पहलू है विध्वंस का। यह मेरा कुछ प्रकट करके दिखाओ। यह जो हमारे सोचने का ढंग है, एक रूप है। कर्मवादी, वह नियति के बिलकुल प्रतिकूल है। लेकिन इसका यह एक रूप है मेरे सृजन का, एक रूप है मेरे विध्वंस का। अभी मतलब नहीं है कि जो नियति को स्वीकार कर लेगा, वह कुछ | मैं विध्वंस के लिए उपस्थित हूं। यह तेरे सामने जो युद्ध के लिए करेगा ही नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि कुछ करेगा ही नहीं। तत्पर शूरवीर खड़े हैं, मैं इन्हें लेने आया हूं। ये मेरी तरफ दौड़ रहे हमारे तर्क बड़े अजीब हैं। एक मित्र कहता है कि वह कुछ करेगा हैं, ऐसा ही नहीं। मैं इन्हें लेने आया हूं। ये पतंगों की तरह दौड़ते ही नहीं; और एक मित्र कहता है, वह हत्या करेगा, चोरी करेगा। | दीए की तरफ जो योद्धा हैं, ये अपने आप दौड़ रहे हैं, ऐसा नहीं। या तो करेगा तो बुरा करेगा, नियति को करने वाला; और या फिर मैं इन्हें निमंत्रण दिया हूं। ये थोड़ी ही देर में मेरे मुंह में समा जाएंगे। कुछ करेगा ही नहीं। ये दो हमारी धारणाएं हैं। है। तूने भविष्य में झांककर देख लिया है। मेरे मुंह में तू अभी जो देख नहीं, नियति को स्वीकार करने वाला कर्ता नहीं रहेगा। परमात्मा | रहा है, वह थोड़ी देर बाद हो जाने वाली घटना है। जो करवा रहा है, करता रहेगा। अपनी तरफ से कुछ करना नहीं | - इस संबंध में थोडी-सी समय की बात समझ लें। जोड़ेगा। बहेगा, तैरेगा नहीं। उसकी धारा में बहता चला जाएगा। भविष्य वही है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता। नहीं दिखाई पड़ता, • और बुरा! बुरा तो हम करते ही तब हैं, जब अहंकार हममें गहन | इसलिए हम सोचते हैं, नहीं है। क्योंकि जो हमें दिखाई पड़ता है, होता है। सब बुराई की जड़ में मैं है। जिसके पास मैं नहीं है, उससे सोचते हैं, है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, सोचते हैं, नहीं है। भविष्य कुछ बुरा नहीं होने वाला है। और अगर बुरा हमें दिखाई भी पड़े, हमें दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए सोचते हैं, नहीं है। तो परमात्मा की कोई मर्जी होगी, उस बुरे से कुछ भला होता होगा। लेकिन जो नहीं है, वह हो कैसे जाएगा? जो नहीं है, वह आ अब हम सूत्र को लें। कैसे जाएगा? शून्य से तो कुछ आता नहीं। जो किसी गहरे अर्थ में इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर कृष्ण बोले, हे अर्जुन! मैं लोकों | आ ही न गया हो, वह आएगा भी कैसे? का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों | एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक डेलाबार प्रयोगशाला में, आक्सफोर्ड को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की में, फूलों के चित्र ले रहा था। और एक दिन बहुत चकित हुआ। सेना में स्थित हुए योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे। | उसने एक बहुत ही संवेदनशील नई खोजी गई फिल्म पर एक इससे तू खड़ा हो और यश को प्राप्त कर तथा शत्रुओं को जीत, | गुलाब की कली का चित्र लिया। लेकिन वह चकित हो गया। कली धनधान्य से संपन्न हो। ये सब शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे | तो थी बाहर और चित्र आया फूल का। तो घबड़ा गया कि यह हुआ हुए हैं। कैसे! पर उसने प्रतीक्षा की। और हैरानी तो तब उसकी बढ़ गई कि हे सव्यसाचिन्! तू तो केवल निमित्त मात्र हो जा। तथा इन | | जब वह कली खिलकर फूल बनी, तो वह ठीक वही फूल थी, द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह, जयद्रथ और कर्ण और भी बहत-से जिसका चित्र आ गया था। मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योद्धाओं को तू मार और भय मत कर, | | डेलाबार प्रयोगशाला एक अनूठी प्रयोगशाला है दुनिया में। और निस्संदेह तू युद्ध में वैरियों को जीतेगा, इसलिए युद्ध कर। | वहां वे प्रयोग करते हैं इस बात के कि अगर फूल थोड़ी देर बाद यह नियति की धारणा की पूरी व्याख्या इस सूत्र में है। | खिलने वाला है, तो किसी गहरे सूक्ष्म तल पर अभी भी पंखुड़ियां हे अर्जुन! इस क्षण तू जो मेरा भयंकर रूप देख रहा है, खिल गई होंगी। तब तक, जब यह घटना घटी थी, आज से कोई विकराल, इस क्षण तू जो देख रहा मेरे मुंह से मृत्यु, इस क्षण तू जो | दस साल पहले, तब तक वैज्ञानिकों के पास कोई व्याख्या नहीं थी 355] Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 कि यह फूल का फोटो कैसे आया? जो फूल अभी है नहीं, थोड़ी आए। और उसके हाथ की चमड़ी पर रोग फैल गया। तब उसने जो देर बाद होगा; अभी तो कली है, तो फूल का चित्र आने का अर्थ चित्र लिया हाथ का, तब उसे पता चला कि वह ठीक जो तीन महीने क्या हुआ? पहले झलक मिली थी, वही झलक गहरी हो गई है। फिर उसने लेकिन फिर रूस में एक दूसरे विचारक और वैज्ञानिक ने, जो स्वस्थ हाथों के चित्र लिए। उनमें किरणों की झलक अलग है; कि फोटोग्राफी पर काम कर रहा है गहन पिछले तीस वर्षों से, उसने हारमोनियस है। सब किरणें लयबद्ध हैं। बीमार-लय टूट जाती है। राज खोजा निकाला। उसने हजारों चित्र लिए हैं भविष्य के, थोड़ी | उसका कहना है कि अगर हाथ में कोई बीमारी आ रही हो, तो देर बाद के। और उसने जो आधार खोज निकाला है. वह यह है कि तीन महीने पहले हाथ की किरणों की लय टट जाती है। उसका जब फूल की कली खिलती है, तो खिलने के पहले-अभी फूल कहना यह भी है कि बहुत शीघ्र हम अस्पतालों में इसकी व्यवस्था तो बंद है-खिलने के पहले फूल के आस-पास का जो कर सकेंगे कि आदमी बीमार होने के पहले सूचित किया जा सके, प्रकाश-आभा है, प्रकाश-वर्तुल है, फूल की पत्तियों से जो किरणें | कि तुम फलां बीमारी से इतने महीने बाद परेशान हो जाओगे। अभी निकल रही हैं, वे खिल जाती हैं पहले। वे रास्ता बनाती हैं पंखुड़ियों इलाज कर लो, ताकि वह बीमारी न आ सके। के खिलने का; वे पहले खिल जाती हैं। प्रकाश की सूक्ष्म किरणें भविष्य का अर्थ है कि हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है। ऐसा समझें पहले खिल जाती हैं, ताकि रास्ता बन जाए। फिर उन्हीं के आधार कि मैं एक बहुत लंबे वृक्ष के नीचे बैठा हूं, आप वृक्ष के ऊपर बैठे पर, उन्हीं प्रकाश की किरणों के आधार पर फूल की पंखुड़ियां | हैं। एक बैलगाड़ी रास्ते से आती है; मुझे दिखाई नहीं पड़ रही है। खिलती हैं। रास्ता लंबा है, मुझे दिखाई नहीं पड़ रही। मेरे लिए बैलगाड़ी अभी तो वह जो चित्र आया था धुंधला, वह उन प्रकाश की पत्तियों नहीं है; भविष्य में है। आप झाड़ के ऊपर बैठे हैं, आपको बैलगाड़ी का था, जो असली हमारी आंख में दिखाई पड़ने वाली पत्तियों के | दिखाई पड़ती है। आप कहते हैं, एक बैलगाड़ी रास्ते पर आ रही पहली खिलती हैं। है। मैं कहता हूं, झूठ। बैलगाड़ी रास्ते पर नहीं है। आप कहते हैं, इस रूसी वैज्ञानिक का कहना है कि हम बहुत शीघ्र आदमी की थोड़ी देर में दिखाई पड़ेगी। तुम्हारे लिए अभी भविष्य में है, मेरे मृत्यु का चित्र ले सकेंगे। क्योंकि मरने के पहले प्रकाश के जगत लिए वर्तमान में है, क्योंकि मुझे दूर तक दिखाई पड़ रहा है। । में उसकी मृत्यु घट जाती है। हम तो बहुत दिन से मानते हैं कि छ: फिर बैलगाड़ी आती है और मैं कहता हूं, आपकी भविष्यवाणी महीने पहले, मरने के छः महीने पहले आदमी की जो आभा है, | सच थी। कोई भविष्यवाणी न थी, सिर्फ दूर तक दिखाई पड़ रहा उसका जो ऑरा है, उसका जो प्रकाशमंडल है, वह धूमिल हो जाता था। फिर बैलगाड़ी चलती हुई आगे निकल जाती है। थोड़ी देर बाद है। और प्रकाशमंडल की किरणें जो बाहर जा रही थीं, वे लौटकर | । मुझे दिखाई नहीं पड़ती। मैं कहता हूं, बैलगाड़ी फिर खो गई। आप वापस अपने में गिरने लगती हैं, जैसे पंखुड़ी बंद हो जाती है। | वृक्ष के ऊपर से कहते हैं, अभी भी नहीं खोई बैलगाड़ी। अभी भी इस रूसी वैज्ञानिक का कहना है कि अब हम चित्र ले सकते हैं। रास्ते पर है, क्योंकि मुझे दिखाई पड़ रही है। एक और अनूठी घटना उसको खुद घटी। वह प्रयोग कर रहा था | जैसे जमीन पर बैठकर अलग दिखाई पड़ता है, वृक्ष पर बैठकर कुछ फूलों के चित्र ले रहा था। वह चकित हुआ कि हाथ में फूल | ज्यादा दिखाई पड़ता है। ठीक चेतना की भी अवस्थाएं हैं। जहां हम लिए हुए उसने एक चित्र लिया, तो उसके हाथ का जो चित्र आया, खड़े हैं...। वह बहुत अजीब था। ऐसा कभी नहीं आया था। हाथ का उसका ___ जैसे मैंने चार अवस्थाएं कहीं आपसे। पहली, जहां मैं की भीड़ चित्र कई बार आया था फूल के साथ। लेकिन इस बार इस हाथ की | है। वहां से हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। जब तक ठीक हमारी हालत बड़ी अजीब थी, जैसे हाथ अस्तव्यस्त था। और हाथ में जो | आंख के सामने न आ जाए, हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। फिर एक किरणें दिखाई पड़ रही थीं, वे एक-दूसरे से लड़ रही थीं। लेकिन | मैं रह जाए; हमारी दृष्टि बढ़ जाती है। हम ऊंचे तल पर आ गए; हाथ ठीक वैसा ही था। कोई तकलीफ न थी। कोई अड़चन न थी। | भीड़ से ऊपर उठ गए। एक बड़े वृक्ष पर बैठे हुए हैं। हमें दूर तक कोई बीमारी न थी। दिखाई पड़ने लगता है। कोई चीज आती है, उसके पहले दिखाई तीन महीने बाद बीमार पड़ा वह और उसके हाथ में फोड़े-फुसी पड़ने लगती है। फिर तीसरा और ऊंचा तल है, जहां कि मुझे पता 356 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ साधना के चार चरण चल गया कि मैं नहीं हूं। यह बड़ी ऊंचाई आ गई। इस ऊंचाई से वे आ चुकी है। इनकी मृत्यु एक अर्थ में घटित हो चुकी है। मैं इन्हें चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं, जो बहुत दूर हैं; कभी होंगी। फिर एक मार ही चुका हूं अर्जुन। अब तू तो सिर्फ मुर्दो को मारने के काम में और ऊंचाई है, जहां कि मैं नहीं हूं, यह भी नहीं बचा। यह आखिरी लगाया जा रहा है। ऊंचाई है। इससे ऊपर जाने का कोई उपाय नहीं है। यहां से सब मुल्ला नसरुद्दीन की मुझे एक घटना याद आती है। मुल्ला दिखाई पड़ने लगता है। ऐसी अवस्था के व्यक्ति को हमने सर्वज्ञ | | नसरुद्दीन के गांव में एक योद्धा आया। और वह योद्धा काफी हाउस कहा है। इसके लिए फिर कुछ भी भविष्य नहीं रह जाता है। इसके | | में बैठकर अपनी बहादुरी की बड़ी चर्चा करने लगा। और उसने लिए सभी कुछ वर्तमान हो जाता है। | कहा, आज युद्ध बड़ा घमासान था। और मैंने न मालूम कितने ___ यह जो कृष्ण में अर्जुन को दिखाई पड़ा योद्धाओं का समा जाना | लोगों की गर्दने साफ कर दीं। गिनती भी नहीं है। कितने लोगों को और वह घबड़ाकर पूछने लगा। कृष्ण उससे कह रहे हैं कि तू | | मैंने काटकर गिरा दिया, जैसे कोई घास काट रहा हो। भयभीत न हो अर्जुन। मैं इन युद्ध के लिए इकट्ठे हुए वीरों का अंत नसरुद्दीन भी बैठा था, उससे नहीं रहा गया। उसने कहा, यह करने के लिए आया हूं। मैं इस समय महाकाल हूं। उसकी ही | | कुछ भी नहीं। एक दफा मेरे जीवन में भी ऐसा मौका आया था। झलक तूने देख ली, जो थोड़ी देर बाद होने वाला है। उसका | युद्ध में मैं भी गया था। और गिनती तो नहीं की, लेकिन फिर भी प्रि-व्यू, उसकी पूर्व-झलक तुझे दिखाई पड़ गई है। अंदाज से कहता हं. कम से कम पचास आदमियों की टांगें मैंने ऐसे इससे तू खड़ा हो, यश को प्राप्त कर, शत्रुओं को जीत। ये काट डाली, जैसे घास काटा हो। शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। तू यह चिंता भी मत | उस योद्धा ने कहा, टांगें! हमने कभी सुना नहीं कि टांगें भी युद्ध कर कि तू इन्हें मारेगा। तू यह ध्यान भी मत रख कि तू इनके मारने में काटी जाती हैं! सिर काटने चाहिए थे। नसरुद्दीन ने कहा, सिर का कारण है। तू कारण नहीं है, तू निमित्त है। | तो कोई पहले ही काट चुका था। वह मौका मुझे नहीं मिला। मैं तो निमित्त और कारण में थोड़ा फर्क हमें समझ लेना चाहिए। कारण गया तो देखा कि सिर तो कटे पड़े थे, मैंने कहा, क्यों चूकना। मैंने का तो अर्थ होता है, जिसके बिना घटना न घट सकेगी। निमित्त का टांगें काट डालीं। कोई गिनती नहीं है। अर्थ होता है, जिसके बिना भी घटना घट सकेगी। यह कृष्ण अर्जुन से यही कह रहे हैं कि तू बहुत परेशान मत हो, आप पानी गर्म करते हैं। गर्म करना, आग कारण है। अगर आग | जिनको तू मारने की सोच रहा है, उनको मैं पहले ही काट चुका हूं। न हो, तो फिर पानी गर्म नहीं हो सकेगा। कोई उपाय नहीं है। लेकिन | | टांगें ही काटने का तेरे ऊपर जिम्मा है, सिर कट चुके हैं। और ये जिस बर्तन में रखकर आप गर्म कर रहे हैं, वह कारण नहीं है, वह | टांगें काटने के कारण, अकारण ही तू यश को प्राप्त हो जाएगा, धन निमित्त है। इस बर्तन के न होने पर कोई दूसरा बर्तन होगा, कोई को, राज्य को। वह तेरी मुफ्त उपलब्धि होगी, सिर्फ निमित्त होने के तीसरा बर्तन होगा। बर्तन न होगा, तो कोई और उपाय भी हो सकता कारण। जिन्हें तू सोचता है कि इन्हें मारने से हिंसा लगेगी, वे मर है। जिस चल्हे पर आप गर्म कर रहे हैं. यह चल्हा न होगा. तो कछचके हैं. वे मत हैं। त सिर्फ मर्दो को आखिरी धक्का दे रहा है। जैसे और होगा। कोई सिगड़ी होगी। कोई स्टोव होगा। कोई बिजली का | | ऊंट पर कोई आखिरी तिनका रखे और ऊंट बैठ जाए। बस, तू यंत्र होगा। कोई और उपाय हो सकता है। गर्मी तो कारण है। लेकिन | आखिरी तिनका रख रहा है। और ऊंट बैठने के ही करीब है। तू ये सब निमित्त हैं। | नहीं सहारा देगा, तो कोई और यह तिनका रख देगा। यह पैर काटने आप गर्म कर रहे हैं, यह भी निमित्त है। कोई और गर्म कर | | का काम दूसरा भी कर सकता है, क्योंकि गर्दन काटने का असली सकता है-कोई पुरुष, कोई स्त्री, कोई बच्चा, कोई बूढ़ा, कोई | | काम हो चुका है। नियति उन्हें काट चुकी है। जवान। आप भी नहीं होंगे, तो कोई गर्म नहीं होगा पानी, ऐसा नहीं | | इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि दुर्योधन जहां खड़ा है, है। एक बात, आग चाहिए, वह कारण है। बाकी सब निमित्त है।। | उसके साथी जहां खड़े हैं, उसके मित्रों की फौज जहां खड़ी है, वे निमित्त बदले जा सकते हैं, कारण नहीं बदला जा सकता। | जो कुछ भी कर चुके हैं, घड़ा भर चुका है, फूटने के करीब है। तू कृष्ण यह कह रहे हैं, कारण तो मैं हूं, तू निमित्त है। अगर तू नहीं | | मुफ्त ही यश का भागी हो जाएगा। तू यह मौका मत छोड़। और मारेगा, कोई और मारेगा। इनकी मृत्यु होने वाली है। इनकी मृत्यु ध्यान रखना कि तू निमित्त ही था, इसलिए किसी अहंकार को बनाने 357 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 गीता दर्शन भाग-588 की चेष्टा मत करना, कि मैं जीत गया, कि मैंने मार डाला। अगर आप किसी को रास्ते में से चलते में से गिर रहा हो कोई, इसमें दोहरी बातें हैं। एक तो कृष्ण यह कह रहे हैं, तू नियति को | सम्हाल लें; अखबार में कोई खबर नहीं छपेगी। रास्ते में कोई चल स्वीकार कर ले। जो हो रहा है, उसे हो जाने दे। और दूसरा, उससे | रहा हो, धक्का देकर गिरा दें, दूसरे दिन खबर छप जाएगी। कुछ भी महत्वपूर्ण जो बात है, वह यह कह रहे हैं कि अगर तू जीत | अच्छा करिए, दुनिया में किसी को पता नहीं चलेगा। कुछ बुरा जाएगा...। और जीत जाएगा, क्योंकि मैं तुझसे कहता हूं, जीत | करिए, फौरन पता चल जाएगा। निश्चित है। जीत हो ही गई है। तु जैसा है, उसके कारण तू जीत __ अखबार उठाकर देखते हैं आप! पहली लकीर से लेकर आखिरी गया है। तू जो करेगा, उसके कारण नहीं। तू जैसा है, उसके कारण | | लकीर तक, सारी लकीर उन लोगों के बाबत है, जो कुछ उलटा तू जीत गया है। कर रहे हैं। कहीं कोई दंगा-फसाद हो रहा हो, कहीं कोई हड़ताल राम और रावण को युद्ध पर खड़े देखकर कहा जा सकता है कि | | हो रही हो, कहीं कोई चोरी, कहीं डाका, कहीं कोई ट्रेन उलटाई हो, राम जीत जाएंगे। जिसको जीवन की गहराइयों का पता है, जिसे सूत्र कहीं कुछ उपद्रव हुआ हो, तो अखबार में खबर बनती है। पढ़ने आते हैं, वह कह सकता है कि राम जीत जाएंगे। राम जीत ही आदमी उलटे में उत्सुक है, तो हो सकता है, लकड़ी का टुकड़ा . गए हैं। क्योंकि रावण जो भी कर रहा है, वे हारने के ही उपाय हैं। उलटा बहे। जो टुकड़ा उलटा बहेगा, हम पहले से ही कह सकते बुराई हारने का उपाय है। राम कुछ भी बुरा नहीं कर रहे हैं। वे जीतते | | हैं किनारे खड़े हुए कि यह हारेगा। इसमें कोई बड़ी बुद्धिमत्ता की जा रहे हैं। वह जो अच्छा करना है, वह जीतने का उपाय है। तो हारने | | जरूरत नहीं है। क्योंकि धारा के विपरीत लकड़ी का टुकड़ा बहने के पहले भी कहा जा सकता है कि रावण हार जाएगा। की कोशिश कर रहा है। यह हारेगा, अर्जुन! कृष्ण कह सकते हैं हारने के पहले कहा जा सकता है कि दुर्योधन और उसके साथी | कि यह हारेगा। हार जाएंगे। उन्होंने जो भी किया है, वह पाप पूर्ण है। उन्होंने जो भी | । और जो नदी की धारा के साथ बह रहा है, हम कह सकते हैं, किया है, वह बुरा है। सबसे बड़ी बुराई उन्होंने क्या की है? सबसे | | इसको हराने का कोई उपाय नहीं है। इसको हराइएगा कैसे? इसने बडी बराई उन्होंने यह की है कि जगत की सत्ता से अपने को तोडकर कभी जीतने की कोई कोशिश ही नहीं की। इसको हराइएगा कैसे? वे निरे अहंकारी हो गए हैं। उन्होंने प्रवाह से अपने को तोड़ लिया है।। | यह तो नदी की धारा में पहले से ही बह रहा है, स्वीकार करके। ऐसा समझें। हमें दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए समझना मुश्किल | | यह तो कहता है, धारा ही मेरा जीवन है। जहां ले जाए, जाऊंगा। होता है। एक नदी में हम दो लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े डाल दें। कहीं और मुझे जाना नहीं है। और एक टुकड़ा चेष्टा करने लगे नदी के विपरीत धारा में बहने की। राम नदी की धारा में बहते हुए हैं। इसलिए पहले से ही कहा जा करेगा नहीं, क्योंकि लकड़ी के टुकड़े इतने नासमझ नहीं होते, | | सकता है, वे जीतेंगे। रावण हारेगा, वह धारा के विपरीत बह रहा है। जितने आदमी होते हैं। मगर मान लें कि आदमियों जैसे लकड़ी के यह कृष्ण अर्जुन से जो कह रहे हैं, यह किसी पक्षपात के कारण टुकड़े हैं। आदमियों की बीमारी उनको लग गई। आदमियों के साथ | | नहीं कि मैं तेरे पक्ष में हूं, तेरा मित्र हूं, इसलिए तू जीतेगा। इसका रहने से इनफेक्शन हो गया। और एक टुकड़ा नदी की तरफ ऊपर गहन कारण यह है कि कृष्ण देख सकते हैं कि अर्जुन जिस पक्ष में बहने लगा। खड़ा है, वह धारा के अनुकूल बहता रहा है। और अर्जुन के क्योंकि आदमी को हमेशा धारा के विपरीत बहने में मजा आता | | विपरीत जो लोग खड़े हैं, वे धारा के प्रतिकूल बहते रहे हैं। उनकी है। धारा में बहने में क्या रखा है? कोई भी बह जाता है। कुछ उलटा | हार निश्चित है। वे हारेंगे, पराजित होंगे। करो। चौगड्डे पर आप शीर्षासन लगाकर खड़े हो जाएं, भीड़ लग | | इसलिए तू नाहक ही अड़चन में पड़ रहा है। और तेरी अड़चन जाएगी। कोई देखने नहीं आएगा! क्या, मामला तझे धारा के विपरीत बहने की संभावना जटाए दे रही है। त है क्या है ? सिर के बल जो आदमी खड़ा है, उलटा कुछ कर रहा है। | क्षत्रिय। तेरी सहज धारा, तेरा स्वधर्म यही है कि तू लड़। और लड़ने यह आकर्षित करता है। | में निमित्त मात्र हो जा। तू संन्यास की बातें कर रहा है, वे उलटी आदमी उलटा करने में उत्सुक है। क्यों? क्योंकि उलटे से बातें हैं। अहंकार सिद्ध होता है। सीधे से कोई अहंकार सिद्ध होता नहीं। अर्जुन अगर संन्यासी हो जाए, तो प्रभावित बहुत लोगों को 3581 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के चार चरण 83 करेगा। प्रभावशाली व्यक्ति था। लेकिन हो नहीं पाएगा संन्यासी। से अगर टक्कर लेनी पड़े, तो क्या उपाय है? क्योंकि पुरुष शरीर और अगर संन्यास लेकर बैठ भी जाए कहीं जंगल में ध्यान वगैरह से तो ज्यादा ताकतवर है। इसलिए अमेरिका में नगर-नगर में करने. तो ज्यादा देर नहीं चलेगा ध्यान वगैरह उसका। एक हरिण जजत्स के स्कल खलते जा रहे हैं। स्त्रियां ट्रेनिंग ले रही हैं। और दिखाई पड़ जाएगा और उसके हाथ धनुष-बाण खोजने लगेंगे। | थोड़े सावधान रहना, आज नहीं कल यहां भी लेंगी ही। और एक कौआ ऊपर से बीट कर देगा, तो पत्थर उठाकर उसका अगर जुजुत्सु की ट्रेनिंग ठीक से ले ली हो, तो बड़े से बड़ा वह वहीं फैसला कर देगा। वह जो उसका होना है, जो स्वधर्म है ताकतवर पुरुष साधारण कमनीय स्त्री से हार जाता है। कला क्या उसका, वह योद्धा है। उसमें कहीं भी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे | है? कला यही है, जो कृष्ण कह रहे हैं। कि वह संन्यासी हो सके। जुजुत्सु की कला यह है कि विराट के साथ रहना। इस आदमी तो कृष्ण उससे कह रहे हैं कि तू नदी में उलटे बहने की कोशिश की फिक्र मत करना, विराट की फिक्र करना। इस आदमी से सीधे कर रहा है। अगर तू सोचता है कि मैं ऐसा करूं, वैसा करूं; यह । | मत लड़ना। तुम तो विराट के साथ सहयोग करना। फिर यह ठीक नहीं है, वह ठीक है...। कृष्ण उससे कह रहे हैं, तू सिर्फ बह आदमी नहीं जीत सकेगा। उसके सहयोग का पूरे का पूरा प्रशिक्षण जा, नियति के हाथ में छोड़ दे। तू निमित्त हो जा। उनकी हार है, पूरी साधना है कि विराट से कैसे सहयोग करना।। निश्चित है। और विपक्ष में खड़े योद्धा मेरे मुंह में जा रहे हैं, मृत्यु | | तो जुजुत्सु का पहला नियम है कि जुजुत्सु का साधक जब खड़ा में, यह निश्चित है। वे पहले ही मारे जा चुके हैं। ये द्रोणाचार्य, होगा, तो वह यह नहीं कहता कि मैं लड़ रहा हूं। वह अपने को भीष्म पितामह, ये जयद्रथ और कर्ण, जो महाप्रतापी हैं, महावीर हैं, पहले समर्पित कर देता है विराट को, कि अब मैं परमात्मा को इनसे भी तू भय मत कर। क्योंकि जिनके साथ ये खड़े हैं, वे गलत समर्पित हूं। अगर तेरी मर्जी हो, तो जो हो। फिर वह लड़ता है। फिर लोग हैं। उनके साथ ये पहले ही डूब चुके। लड़ने में वह हमला नहीं करता। जुजुत्सु का साधक हमला नहीं भीष्म पितामह भले आदमी हैं। लेकिन गलत लोगों के साथ करता, सिर्फ हमला सहता है। वह कहता है, तुम मुझे मारो, मैं खडे हैं। अक्सर भले आदमी कमजोर होते हैं। और अक्सर भले सहंगा. क्योंकि परमात्मा मेरे साथ है। आदमी कई दफा चुपचाप बुराई को सह लेते हैं और बुराई के साथ आप जानकर हैरान होंगे कि अगर कोई व्यक्ति बिलकुल शांत खड़े हो जाते हैं। ये जो खड़े हैं बुराई के साथ, ये कितने ही भले सहने को राजी हो और आप सा मार दें उसको और वह जरा भी हों, और इनके पास कितनी ही शक्ति हो, तेरी शक्ति से ये नहीं विरोध ने करे, अचेतन विरोध भी न करे...। साधना यही है। क्योंकि कटेंगे, विराट की शक्ति के विपरीत होने से ये कट गए हैं। अगर कोई घूसा आपको मारने आता है, तो अचेतन आप कड़े हो इस अर्थ को ठीक से समझ लें। जाते हैं। आपने विरोध शुरू कर दिया, आपकी हड्डियां कड़ी हो जाती . तू इन्हें नहीं मार पाएगा। अर्जुन और कर्ण में सीधा मुकाबला हो हैं। जुजुत्सु की कला कहती है कि आपकी हड्डियां अगर कड़ी हो गई सकता था। और कुछ तय करना मुश्किल है कि कौन जीतेगा। वे और उसने चोट मारी, तो कड़े होने की वजह से टूट जाती हैं; उसकी एक ही मां के बेटे हैं। और कर्ण रत्तीभर भी कम नहीं है। डर तो यह चोट से नहीं टूटतीं। अगर आप नर्म रहे और आपने जरा भी रेसिस्ट है कि वह ज्यादा भी साबित हो सकता है। लेकिन हारेगा। कोई नहीं किया, आप सहने को राजी रहे, कि तुम घुसा मारो, हम तुम्हारे ताकत के कारण ही नहीं, हारेगा इसलिए कि विराट की शक्ति के चूंसे को पी जाएंगे, क्योंकि विराट हमारे साथ खड़ा है-उसका हाथ विपरीत खड़ा है। जो विराट चाहता है, उसके विपरीत खड़ा है। | टूट जाएगा; हाथ में फ्रैक्चर हो जाएगा। विराट के विपरीत खड़ा होना खतरनाक है। फिर कभी छोटा आदमी और यह वैज्ञानिक है। इसको आप ऐसा भी देख सकते हैं कि भी हरा सकता है। एक बैलगाड़ी में आप बैठे हैं और एक शराबी बैठा है। बैलगाड़ी जापान में जुजुत्सु, जूडो की कला होती है। उसमें छोटा बच्चा उलट जाए, आपको फ्रैक्चर हो जाएंगे, शराबी को बिलकुल नहीं भी पहलवान को हरा देता है। स्त्री भी पुरुष को हरा देती है। अभी होंगे। शराबी रोज गिर रहा है सड़क पर। कम से कम इतना तो तो पश्चिम में चूंकि स्त्रियों का आंदोलन चलता है, लिब मूवमेंट, | सीखो उससे! कि चोट नहीं खाता। रोज सुबह देखो, फिर ताजे हैं! स्वतंत्रता का, तो सभी स्त्रियां जुजुत्सु सीख रही हैं। क्योंकि पुरुषों नहा-धोकर फिर चले जा रहे हैं! और रोज गिर रहे हैं, इनको चोट 359 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 क्यों नहीं लगती? शराबी अपने को अलग नहीं रखता। जब शराब पी लेता है, तो बेहोश हो गया, वह प्रकृति का हिस्सा हो गया। अब उसको कोई होश नहीं कि मैं हूं। अब वह गिरता है, तो कड़ा नहीं हो पाता। बैलगाड़ी उलट रही है, आप भी उलट रहे हैं, वह भी उलट रहा है आपके साथ। आप सम्हल गए, बचने लगे। आपका अहंकार आ गया कि मैं बचूं। और शराबी का कोई अहंकार नहीं आया, वे लुढ़क गए। जैसे ही बैलगाड़ी लुढ़की, उसी के साथ लुढ़क गए। उनका कोई विरोध नहीं है, कोई प्रतिरोध नहीं है; को-आपरेशन है, सहयोग है। उनको चोट नहीं लगेगी। छोटे बच्चे गिरते हैं, उनको चोट नहीं लगती। जैसे-जैसे बड़े होने लगते हैं, चोट लगने लगती है। जिस दिन से आपके बच्चे को चोट लगने लगे, समझना कि अहंकार निर्मित हो गया। जब तक उसको चोट नहीं लग रही, तब तक अहंकार नहीं है। वह गिरता है, तो गिरने के साथ होता है। रोकता नहीं कि अरे, मैं गिर रहा हूं। अभी कोई है नहीं, जो गिरने से रोके अपने को। वह गिर जाता है। गिरकर वह उठ जाता है। कहीं कोई चोट घटती नहीं। यह जो कृष्ण का कहना है कि तू जीता ही हुआ है, वह इसीलिए कि तू उस पक्ष में है, जो बुराई के साथ नहीं है। तू विपरीत नहीं बह रहा है, तू साथ बह रहा है। और ये हारे ही हुए हैं। ये विपरीत बह रहे हैं। यह नियति तय हो गई है अर्जुन, इसलिए तू व्यर्थ चिंतित न हो, निस्संदेह तू जीतेगा; युद्ध कर। आज इतना ही। पांच मिनट रुकें, कीर्तन के बाद जाएं। 13601 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 आठवां प्रवचन बेशर्त स्वीकार Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-548 संजय उवाच और आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा तथा प्रजा के एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलि।पमानः किरीटी। । स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिए हजारों नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः बार नमस्कार-नमस्कार होवे। आपके लिए फिर भी प्रणम्य ।। ३५।। बारंबार नमस्कार होवे! अर्जुन उवाच और हे अनंत सामर्थ्य वाले, आपके लिए आगे से और पीछे स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहष्यनुज्यते च । से भी नमस्कार होवे। हे सर्वात्मन. आपके लिए सब ओर रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च से नमस्कार होवे, क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप सब सिद्धसंघाः।। ३६ ।। संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं। कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकत्रे। अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ।। ३७ ।। त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । एक मित्र ने पूछा है कि जीवन में छोटे-बड़े दुख के । वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं कारण कभी-कभी मन अशांत, निराश और बेचैन विश्वमनन्तरूप ।। ३८॥ बन जाता है। तो संसार में ही रहकर मन सदा शांत, वायुर्यमोऽग्निवरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । । । प्रसन्न और उत्साहित कैसे रखें? नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ।।३९।। नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व। नियति की जो बात हम कर रहे हैं, उसे अगर ठीक से अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्व समाप्नोषि IUI समझ लें, तो मन शांत हो जाएगा। और कोई भी ततोऽसि सर्वः।। ४०।। उपाय मन को शांत करने का नहीं है। और सब उपाय इसके उपरांत संजय बोला कि हे राजन्, केशव भगवान के ऊपरी-ऊपरी हैं, उनसे थोड़ी-बहुत राहत मिल सकती है, लेकिन इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, मन शांत नहीं हो सकता। कांपता हुआ नमस्कार करके, फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम | लेकिन नियति की बात थोड़ी कठिन है, समझ में थोड़ी मुश्किल करके, भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गदगद वाणी से बोला- से पड़ती है। मन अशांत होता है, नियति का विचार कहेगा, उस हे अंतर्यामिन, यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और अशांति को स्वीकार कर लें। उसके विपरीत शांत होने की कोशिश प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित होता है और अनुराग मत करें। मन उदास है, नियति का विचार कहेगा, उदासी को को भी प्राप्त होता है, तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं स्वीकार कर लें, प्रफुल्लित होने की चेष्टा न करें। क्योंकि असली में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार । अशांति अशांति के कारण नहीं, अशांति को दूर हटाने के विचार करते हैं। से पैदा होती है। हे महात्मन्, ब्रह्मा के भी आदि कर्ता और सबसे बड़े आपके ___ असली उदासी उदासी से नहीं, कैसे मैं प्रफल्लित हो जाऊं, इस लिए वे कैसे नमस्कार नहीं करें, क्योंकि हे अनंत, हे देवेश, | धारणा से, इस विचार, इस आकांक्षा से पैदा होती है। उदासी को हे जगनिवास, जो सत, असत और उनसे परे अक्षर अर्थात स्वीकार कर लें, और आप पाएंगे शीघ्र ही कि उदासी विलीन हो सच्चिदानंदघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं। गई है। उसकी स्वीकृति में ही उसका अंत है। . और हे प्रभो, आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं। आप इस कैसे दुखी न हों, यह न पूछे। दुखी हैं, दुख को स्वीकार कर लें। जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य | वह भाग्य। वह नियति। वह है। उससे लड़ें मत। उससे सब लड़ाई और परम धाम हैं। हे अनंतरूप, आपसे यह सब जगत छोड़ दें। उसके पार जाने की आकांक्षा भी छोड़ दें। उससे विपरीत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण है। की मांग भी छोड़ दें। उसे स्वीकार कर लें कि यह मेरी नियति, यह 362 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेशर्त स्वीकार मेरा भाग्य | मैं दुखी हूं, बात यहां पूरी हो गई। दुख से राजी हो जाएं और फिर देखें कि दुख कैसे टिक सकता है। अशांति को स्वीकार कर लें और आप शांत हो जाएंगे। हमारी अशांति अशांति नहीं है। हमारी अशांति शांति की चाह से पैदा होती है। इसलिए जो लोग शांति के लिए बहुत आकांक्षी हो जाते हैं, उनसे ज्यादा अशांत कोई भी नहीं होता । रोज न मालूम कितने लोगों को इस संबंध में इस उलझन पड़ा हुआ देखता हूं। जिस दिन से आपको खयाल हो जाता है कि शांत कैसे हों, उस दिन से आपकी अशांति बढ़ेगी। क्योंकि अशांति तो है ही, अब एक नई अशांति भी शुरू हो गई कि शांत कैसे हों ! और अशांत आदमी कैसे शांत हो सकता है? और अशांत आदमी पूजा भी करेगा, तो उसकी अशांति ही होगी उसकी पूजा प्रकट। और अशांत आदमी ध्यान भी करेगा, तो उसका ध्यान भी उसकी अशांति से ही निकलेगा। अशांत आदमी मंदिर भी जाएगा, तो अपनी बेचैनी को साथ ले जाएगा। अशांत गीता भी पढ़ेगा, तो करेगा क्या? अशांति से अशांति ही निकल सकती है। इसलिए आप कुछ भी करें, करेगा कौन? वह जो अशांत है, वही कुछ करेगा । ध्यान रहे, एक बहुत मनोवैज्ञानिक, आधारभूत नियम, कि अगर आप अशांत हैं, तो आप जो भी करेंगे, उससे अशांति बढ़ेगी। कौन करेगा ? अशांत आदमी कुछ करेगा। वह और अशांति को दुगुनी कर लेगा, तीन गुनी कर लेगा। ऐसा समझें कि एक आदमी पागल है और वह अब ठीक होने की कोशिश कर रहा है — खुद ही । वह क्या करेगा? वह थोड़ा ज्यादा पागल हो सकता है, और कुछ भी नहीं कर सकता। उसकी कोशिश भी पागलपन से ही निकलेगी। छोड़ें, पागल से शायद हमारा मन राजी न हो। एक लोभी आदमी है, वह लोभ छोड़ने की कोशिश कर रहा है। वह करेगा क्या? यह लोभ छोड़ने की कोशिश भी लोभ से ही निकलेगी। वह आदमी लोभी है। तो अगर कोई उसको विश्वास दिला दे कि अगर तू इतना दान करता है, तो स्वर्ग में तुझे भगवान के मकान के बिलकुल पास मकान मिल जाएगा। अगर यह पक्का हो जाए, तो वह दान कर सकता है। मगर यह दान लोभ से निकलेगा। स्वर्ग में जगह बिलकुल निश्चित हो जाए, यह लोभ ! तो दान कर सकता है वह। मगर यह दान लोभ के विपरीत नहीं है, लोभ का हिस्सा है। इसलिए जिनको आप दान करते देखते हैं, यह मत समझना कि वे लोभ से मुक्त हो गए हैं। सौ में निन्यानबे मौके पर तो यही हालत है कि यह उनका नया लोभ है। इस जमीन पर उनके लोभ का अंत नहीं हो रहा है, वह परलोक तक जा रहा है। वे यहां ही नहीं इंतजाम कर लेना चाहते हैं, मरने के बाद भी उनका लोभ फैल गया है। वे वहां भी इंतजाम कर लेना चाहते हैं । लोभी आदमी क्या करेगा? जो भी करेगा, वह लोभ के कारण ही कर सकता है। क्रोधी आदमी क्या करेगा? वह जो भी करेगा, क्रोध के कारण कर सकता है। आप जो हैं, उसके रहते, आप जो भी करेंगे, वह आपसे ही | निकलेगा। और अगर नीम से पत्ता निकलेगा, तो वह कड़वा होगा। और आपसे जो पत्ता निकलेगा, वह आपका ही स्वाद वाला होगा। | नियति का विचार यह कहता है कि आप कुछ करें मत। आप कर नहीं सकते कुछ, आप सिर्फ राजी हो जाएं। इसका प्रयोग करके देखें । अशांति आई है बहुत बार और आपने शांत होने की कोशिश की है और अब तक हो नहीं पाए हैं। इस दूसरे प्रयोग को करके देखें। अशांति आए, स्वीकार कर लें कि मैं अशांत हूं। मैं आदमी ऐसा हूं कि मुझे अशांति मिलेगी। मैंने ऐसा कर्म किया होगा कि मुझे अशांति मिल रही है। मेरी नियति में अशांति का ही पात्र हूं मैं, इसे स्वीकार कर लें। इस अशांति से रत्ती मात्र संघर्ष न करें। क्या होगा ? जैसे ही आप स्वीकार करते हैं, अशांति तिरोहित होनी शुरू हो जाती है। क्योंकि स्वीकार का भाव ही उसकी मृत्यु | बन जाता है । जिस दुख के लिए हम राजी हो गए, वह दुख कहां रहा? हम तो ऐसे लोग हैं कि सुख के लिए भी राजी नहीं हो पाते। दुख के लिए राजी होना तो बहुत मुश्किल है। लेकिन जिस बात के लिए हम राजी हो गए... । | अभी कुछ ही दिन पहले एक महिला मेरे पास आई। उसके पति मर गए हैं। स्वाभाविक है, दुखी हो। अभी युवा है, कोई तीस-बत्तीस साल की उम्र है। अभी शादी हुए ही दो-चार साल हुए | थे | योग्य है। पढ़ी-लिखी है । सुशिक्षित है। किसी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। तो समझदारी के कारण वह रोई भी नहीं। अपने को समझाया, रोका, संयम किया। लोगों ने बड़ी प्रशंसा की। जिन्होंने भी देखा उसके धैर्य को दृढ़ता को, सभी ने प्रशंसा की। तीन महीने पति को मरे हो गए हैं। अब उसको हिस्टीरिक फिट अपने शुरू हो गए हैं, अब उसको चक्कर आकर बेहोशी आ जाती है। 363 मैं सारी बात समझा। मैंने उससे कहा कि तू पति के मरने पर रोई | नहीं, वही उपद्रव हो गया है। पति के होने का सुख तूने जाना, तो Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-50 दुख कौन जानेगा? और पति के प्रेम में तू आनंदित थी, तो पति के लेकिन सुख-दुख तो हमारी समझ में आ जाते हैं। जब कोई आ विरह में दुखी कोई और होगा? वह नियति का हिस्सा है। जिसके | जाता है, कहता है, शांत-अशांति। तो लगता है, यह कोई दूसरी साथ हमने सुख पाया, उसके अभाव में दुख पाएगा कौन ? तुझे ही | | बात कर रहा है। बात वही है। वही के वही सिक्के हैं। नाम बदल पाना होगा। इसमें बंटवारा नहीं हो सकता कि सुख तो मैं पा लूं और | गए हैं। दुख न पाऊं। वह तो चुन लिया तूने। जिस दिन पति के साथ रहकर आप शांति चाहते हैं। आप शांति चाहते हैं, इसलिए आपको सुख पाया था, उसी दिन यह दुख भी निर्धारित हो गया। यह दुख | अशांत होना पड़ेगा। क्योंकि वह दूसरा हिस्सा कौन स्वीकार करेगा? कौन पाएगा? तू रो। छाती पीट। आप शांति पा लेंगे, तो अशांति कौन पाएगा? आधा हिस्सा कहां उसने कहा, आप ऐसी सलाह देते हैं। मुझे तो जितने बुद्धिमान जाएगा? और सिक्के के दो पहलू अलग नहीं किए जा सकते। आदमी मिले, सब प्रशंसा करते हैं। मैंने कहा, वे ही तेरे हिस्टीरिया आप अशांति को भी राजी हो जाएं, अगर शांति चाहते हैं। तो के जन्मदाता हैं, वे बुद्धिमान आदमी जो तुझे मिले! जब तू पति के | दोनों को राजी हो जाएं। दोनों के लिए राजी होने में ही क्रांति घट पास सुखी हो रही थी, तब उन बुद्धिमानों ने तुझे नहीं कहा था कि जाती है। क्योंकि साधारणतया मन दोनों के लिए राजी नहीं होता, सुखी मत हो। अगर तूने सुख रोक लिया होता उस वक्त, तो अभी एक के लिए राजी होता है। मन की तरकीब यह है कि आधे को दुख भी न होता। लेकिन एक कदम उठा लिया, दूसरा उठाना ही पकड़ो, आधे को छोड़ो। यही मन का द्वंद्व है, यही उसका कष्ट है। पड़ेगा। तू दुखी हो ले, नहीं तो तू पागल हो जाएगी। जब आप दोनों के लिए राजी हो गए, आप मन के पार हो गए। या वह मेरी बातें सुनते समय ही फूट पड़ी। उसकी आंखों से आंसू दोनों को छोड़ दें, या दोनों को पकड़ लें, दोनों एक ही बात है। बहने लगे। उसने रोना शुरू कर दिया। वह आई थी, तब एक पहाड़ इसलिए जगत में दो उपाय हैं, दो विधियां हैं। परम अनुभूति के का बोझ उसके मन पर था, लौटते वक्त वह हल्की हो गई थी। | पाने की दो विधियां हैं। एक, दोनों को छोड़ दें—यह संन्यासी का उसने मुझे कहा, तो मैं हृदय भरकर रो सकती हूं? मार्ग है। दोनों को पकड़ लें-यह गृहस्थ का मार्ग है। दोनों का रोना ही चाहिए। हृदय भरकर रो ले। और लड़ मत। दुख आया परिणाम एक है। क्योंकि मन की तरकीब है, एक को पकड़ना और है, उसे स्वीकार कर ले। और ठीक से दुखी हो ले, ताकि दुख एक को छोड़ना। दोनों को छोड़ें, तो भी मन छूट जाता है। दोनों को निकल जाए। पकड़ लें, तो भी मन छूट जाता है। क्योंकि मन आधे के साथ जी उसकी अभी मुझे खबर मिली है कि वह हल्की हो गई है। फिट सकता है। बंद हो गए हैं। उसने रो लिया; हृदय भरकर दुखी हो ली। उसने ये दो उपाय हैं। या तो दोनों छोड़ दें-सुख भी, दुख भी; शांति स्वीकार कर लिया, दुख मेरी नियति है। भी, अशांति भी—फिर आपको कोई अशांत न कर सकेगा। या जिस चीज को हम स्वीकार कर लेते हैं, उसके हम पार हो जाते | दोनों पकड़ लें। दोनों पकड़ना सहज-योग है। जहां हैं...। हैं। अशांत हैं, अशांति को स्वीकार कर लें। लड़ें मत। फिर देखें, | | इन मित्र ने यही पूछा है कि घर में, संसार में रहते हुए कैसे क्या होता है। स्वीकृति क्रांतिकारी तत्व है। और जिस बात को हम | | शांति पाऊं? स्वीकार कर लेते हैं, उससे छुटकारा उसी क्षण शुरू हो जाता है। | | पहली बात, शांति पाने की कोशिश मत करें, अशांति को हमारा उपद्रव क्या है? सुख को हम पकड़ते हैं, दुख को हम स्वीकार कर लें। आप शांत हो जाएंगे। फिर इस दुनिया में आपको पकड़ते नहीं। दुख से हम बचना चाहते हैं। सुख कहीं छूट न जाए, कोई अशांत नहीं कर सकता। इस कोशिश में होते हैं। और हमें पता नहीं कि सुख और दुख एक | अगर मैं अशांति के लिए राजी हं, तो मुझे कौन अशांत कर ही सिक्के के दो पहलू हैं। तो जब हम सुख को पकड़ते हैं, तब हमने | | सकेगा? अगर मैं गाली के लिए राजी हूं, तो कौन मेरा अपमान कर दुख को पकड़ लिया, वह उसी का छिपा हुआ पहलू है। तो हम सकता है? मैं गाली के लिए राजी नहीं है, इसलिए कोई मेरा उलटा काम कर रहे हैं; सुख को पकड़ना चाहते हैं, दुख को हटाना अपमान कर सकता है। मैं अशांति के लिए राजी नहीं हूं, इसलिए चाहते हैं। यह नहीं होगा। या तो दोनों को छोड़ दें, या दोनों के लिए | कोई भी अशांत कर सकता है। और जितना हम शांत होने की राजी हो जाएं। दोनों हालत में आपके जीवन में क्रांति हो जाएगी। कोशिश करते हैं, उतने हम संवेदनशील हो जाते हैं। 364 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेशर्त स्वीकार 8 आप देखें, अक्सर घरों में यह हो जाता है। घर में अगर एकाध कि मैं उस दिन शांत हो गया, जिस दिन मैं सूखे पत्ते की तरह हो धार्मिक आदमी भूल-चूक से पैदा हो जाए, तो घर भर में उपद्रव हो गया। मैंने जगत को कहा कि जहां तू ले जाए, हम राजी हैं सूखे पत्ते जाता है। क्योंकि वह प्रार्थना कर रहा है, तो कोई अशांति खड़ी नहीं की तरह। दुख में ले जाओ, चलेंगे। नर्क में ले जाओ, चलेंगे। कर सकता। बच्चे खेल नहीं सकते। कोई शोरगुल नहीं कर अगर आप नर्क में जाने को राजी हैं, तो आपके लिए फिर नर्क सकता। जरा कुछ खटपट हुई कि वह आदमी उपद्रव मचाएगा। वह | | हो ही नहीं सकता। फिर जहां भी आप हैं, वहां स्वर्ग है। और जो बैठा है शांत होने को! बैठा है पूजा, प्रार्थना, ध्यान करने को! आदमी स्वर्ग के लिए दीवाना है, वह स्वर्ग में भी पहुंच जाए, तो लेकिन यह बड़ी अजीब बात है कि ध्यान करने वाला आदमी | नर्क में ही रहेगा। इतना परेशान क्यों होता है? गैर-ध्यान करने वाले इतने परेशान | मन की पकड़, वह जो आकांक्षा, जो वासना, यह चाहिए...। नहीं होते! यह ज्यादा आतुर होकर शांति को पकड़ने की कोशिश | | हम जब कहते हैं, मुझे यह चाहिए, तभी हम जगत के खिलाफ खड़े कर रहा है। जितनी आतुरता से शांति की मांग कर रहा है, उतनी | हो गए। और जब हम कहते हैं, जो मिल जाए...।। अशांति बढ़ रही है। छोटा-सा बच्चा फिर हिल नहीं सकता। बर्तन ऐसा समझें, दुखी आदमी का लक्षण है, वह कहता है, ऐसा हो, गिर जाए, आवाज हो जाए, तो उपद्रव हो जाए। एक आदमी घर में | | तो मैं सुखी होऊंगा। उसकी कंडीशन है। दुखी आदमी की शर्त है। धार्मिक हो जाए, पूरे घर को अशांत कर देगा। वह कहता है, ये शर्ते पूरी हो जाएं, तो मैं सुखी हो जाऊंगा। सुखी क्या, कठिनाई क्या हो रही है? वह समझ ही नहीं पा रहा है कि | आदमी बेशर्त है। वह कहता है, कुछ भी हो, मैं सुखी रहूंगा। मैं वह मांग क्या कर रहा है! वह जो मांग रहा है, वह असंभव है। | चाहता नहीं हूं कि ऐसा हो। जो भी होगा, उसको मैं चाहूंगा। इस . अगर हम ठीक से मन की प्रक्रिया को समझ लें, तो मन की फर्क को समझ लें। प्रक्रिया को समझकर जीवन बदला जाता है। प्रक्रिया यह है कि मन एक तो है कि मैं चाहता हूं कि ऐसा हो, यह दुखी होने का उपाय हमेशा चीजों को दो में तोड़ लेता है—मान-अपमान, सुख-दुख, है। एक यह कि जो हो जाए, वही मेरी चाह है। जो हो जाए, वही शांति-अशांति, संसार-मोक्ष-दो में तोड़ लेता है। और कहता है, मैं चाहूंगा। अगर परमात्मा दुख दे रहा है, तो वही मेरी चाह है, वही एक नहीं चाहिए, अरुचिकर है; और एक चाहिए, रुचिकर है। | मैंने मांगा है, वही मुझे मिला है, मैं राजी हूं। बस, यह मन का खेल है। इसका थोड़ा प्रयोग करके देखें, चौबीस घंटे, ज्यादा नहीं। इस मन से बचने के दो उपाय हैं। या तो दोनों के लिए राजी हो लड़ने का प्रयोग तो आप हजारों जन्मों से कर रहे हैं। एक चौबीस जाएं, मन मर जाएगा। या दोनों को छोड़ दें, तो भी मन मर जाएगा। | घंटे तय कर लें कि आज सुबह छः बजे से कल सुबह छः बजे जो आपके लिए अनुकूल मालूम पड़े, वैसा कर लें। अन्यथा | | तक, जो भी होगा, उसको मैं स्वीकार कर लूंगा। जरा भी विरोध, आपके शांत होने का फिर कोई उपाय नहीं है। द्वंद्व खड़ा नहीं करूंगा। जब तक आप शांत होना चाहते हैं, तब तक शांत न हो सकेंगे। देखें, चौबीस घंटे में आपकी जिंदगी में एक नई हवा का प्रवेश जब तक आप सुखी होना चाहते हैं, दुख आपका भाग्य होगा। | हो जाएगा। जैसे कोई झरोखा अचानक खुल गया और ताजी हवा और जब तक आप मोक्ष के लिए पागल हैं, संसार आपकी | आपकी जिंदगी में आनी शुरू हो गई। फिर ये चौबीस घंटे कभी परिक्रमा होगी। खतम न होंगे। एक दफा इसका अनुभव हो जाए, फिर आप इसमें दोनों के लिए राजी हो जाएं। मांग ही छोड़ दें। कह दें, जो होता गहरे उतरने लगेंगे। है, मैं राजी हूं। कोई विधि नहीं है शांत होने की, शांत होना जीवन-दृष्टि है। लाओत्से ने कहा है, हवाएं पूरब की तरफ ले जाती हैं सूखे पत्ते | कोई मेथड नहीं होता कि राम-राम, राम-राम जप लिया और शांत को, तो पत्ता पर । पूरब चला जाता है। और हवाएं बदल जाती हैं, पश्चिम हो गए। नहीं होंगे आप शांत। राम-राम भी आपकी अशांति ही की तरफ बहने लगती हैं, तो सूखा पत्ता पश्चिम की तरफ चला जाता | होगी। वह भी आप अशांत मन से ही जपते रहेंगे। वह भी आपकी है। हवाएं शांत हो जाती हैं, पत्ता जमीन पर गिर जाता है। हवाएं बेचैनी और बुखार का सबूत होगा, और कुछ भी नहीं। तूफान उठाती हैं, पत्ता आकाश में उठ जाता है। लाओत्से ने कहा है | शांत हो जाएं। कैसे? अशांति को स्वीकार कर लें। दुख को 365 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-58 स्वीकार कर लें। मृत्यु को स्वीकार कर लें, फिर आपकी कोई मृत्यु समझौते का मतलब यह है। नहीं है। जिसे हम स्वीकार कर लेते हैं, उसके हम पार हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि भाग्य के ऊपर छोड़ दें, तो शांत हो सकते हैं। शांत भी हमें होना है। अगर भाग्य के ऊपर छोड़ दें, तो भविष्य निर्माण करना हमारे हाथ में नहीं रह जाता। निर्माण भी हमें एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि मनुष्य करना है। वह मजा भी लेना है निर्माण करने का। और शांत होने यदि भविष्य का निर्माण करने की कोशिश करे, तो का मजा भी लेना है। तो हम कहते हैं, तरकीब निकाली जा सकती विक्षिप्त हो जाता है और अगर नियति को स्वीकार | है। कर्म अपने हाथ में रखें और परिणाम जब होगा, तब कह देंगे कर ले, तो शांत हो जाता है। सवाल यह उठता है कि कि ठीक, प्रभु की जो मर्जी! क्या इन दोनों के बीच कोई मध्य मार्ग, कोई | आधे में आप होंगे, आधे में प्रभु? या तो पूरे में प्रभु होगा या पूरे समझौता, कोई कंप्रोमाइज नहीं है? क्या ऐसा नहीं | |में आप। यह आधा-आधा नहीं चल सकता। यह दो नावों पर हो सकता कि आदमी अपने भविष्य निर्माण करने की | सवार होकर चलने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि दोनों नावें यथाशक्य चेष्टा करे, फिर परिणाम नियति के ऊपर | बिलकुल विपरीत दिशा में जा रही हैं। इनमें बुरी तरह फंसेंगे, और छोड़ दे? ऐसा ही हो, ऐसा दुराग्रह न रखे। तब | त्रिशंकु हो जाएंगे। एक टांग एक नाव पर, दूसरी टांग दूसरी नाव भविष्य भी थोड़ा-बहुत निर्माण होगा और व्यक्ति | पर; और दोनों विपरीत जा रही हैं। क्योंकि एक नियति का विचार विक्षिप्त भी नहीं होगा। कहता है, सब उसका है। इसलिए मेरे हाथ में कोई उपाय नहीं है। जो वह करवाएगा, मैं करूंगा। जो वह देगा, मैं ले लूंगा। जो नहीं देगा, नहीं देगा। वही है सब। करने वाला भी वही, पाने वाला भी 1 ही मन हमेशा बांटता है। जो मन कह रहा है कि भविष्य | वही, देने वाला भी वही। तब आप शांत हो पाएंगे। प निर्माण करने की चेष्टा करो, वह मन राजी नहीं होगा, | | आप सोचते हैं कि नहीं, थोड़ी दूर तक अपनी कोशिश भी कर कोई भी परिणाम आए उसके लिए। और जो मन किसी | लें। कुछ अपने करने से मिल जाए, वह भी ले लें। और न मिले, भी परिणाम के लिए राजी हो सकता है, वह भविष्य निर्माण की चेष्टा | | तो शांति भी ग्रहण कर लें, क्योंकि उसकी मर्जी। ये दोनों बातें नहीं के लिए व्याकुल नहीं होगा। हो सकतीं। वह कुछ करने की जो वृत्ति है, वही अशांति ले आएगी। जब आप सोचते हैं कि मैं भविष्य का निर्माण कर सकता हूं, समझौता नहीं हो सकता। तभी आप कर्ता हो गए। फिर परिणाम कोई भी आएगा, तो कैसे वे मित्र कहते हैं कि यथाशक्य चेष्टा करने से कुछ तो निर्माण राजी होंगे? फिर परिणाम अगर अनुकूल न आएगा, तो आपको | | होगा और विक्षिप्तता से भी बच जाएंगे! यह विचार उठेगा कि मैं ठीक से नहीं कर पाया; जैसा करना था, नहीं, जिस मात्रा में निर्माण होगा, उसी मात्रा में विक्षिप्त भी हो वैसा नहीं कर पाया; जो होना था, वह नहीं हुआ; या दुनिया मेरे जाएंगे। वही मात्रा होगी। कुछ निर्माण होगा, कुछ विक्षिप्त भी होंगे। विपरीत है, या शत्रु मेरे पीछे पड़े हैं। आप फिर स्वीकार न कर ___ हम कर क्या लेंगे? क्या, कर क्या पाते हैं? हम से पहले जमीन पाएंगे परिणाम को सहजता से। पर कितने लोग रहे हैं! अरबों-खरबों लोग रहे हैं। जिस जगह आप चेष्टा जो आपने की है पाने की कुछ, उस चेष्टा में ही छिपा है वह बैठे हैं, वैज्ञानिक कहते हैं, उस जगह -हर आदमी जहां खड़ा हो तत्व, जो आपको परिणाम स्वीकार नहीं करने देगा। और अगर आप सकता है, उतनी जगह में कम से कम दस आदमियों की कब्र परिणाम स्वीकार करने की क्षमता रखते हैं, तो चेष्टा भी आप क्यों | बन चुकी है। जहां आप बैठे हैं, वहां दस आदमी गड़े हुए हैं। जमीन करेंगे? परमात्मा जो करवा रहा है, उसके लिए राजी हो जाएंगे। | | पर एक इंच जमीन नहीं है, जहां कब्र नहीं बन चुकी है। सब मिट्टी नहीं; कोई समझौता नहीं है। जगत में सत्य के साथ कोई | शरीरों में घूम चुकी है। सब मिट्टी देह बन चुकी है। समझौता नहीं होता। सब समझौते झूठे होते हैं। हमारी मन की | | उन शरीरों ने भी न मालूम क्या-क्या करने के इरादे किए थे! उन तरकीबें होती हैं। हमारा मन यह कहता है कि दोनों हाथ लड्डु ! यह | | सबके करने के इरादे का क्या परिणाम है ? और क्या अर्थ है आज? Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 बेशर्त स्वीकार 8 उनका किया हुआ वैसा ही मिट जाता है, जैसे बच्चे रेत पर घर | | जाता है। उसका कोई आग्रह नहीं होता। आग्रह हो, तो ही चेष्टा हो बनाते हैं। और बना भी नहीं पाते और मिट जाता है। थोड़ी देर | सकती है। आग्रह न हो, तो चेष्टा नहीं होती; कर्म होता है, लगती है हमारे घरों के मिटने में। थोड़ा समय लगता है, इससे भ्रम कर्तारहित होता है। प्रयास, धक्का, जबरदस्ती नहीं होती। पैदा होता है। लेकिन सब मिट जाता है। पर हमारा मन ऐसा है कि हमारे पास दो ही तरह के उपाय हैं, क्या कर लेंगे आप? क्या बना लेंगे? बन भी जाएगा, तो क्या आमतौर से। एक रास्ता, आपने रास्ते पर देखा हो, एक आदमी होगा? वह जो नियति का विचार है, वह यह कहता है, आदमी कर जानवरों को हकेलकर ले जाता है, तो पीछे से डंडा मारता है। एक भी ले, तो क्या होगा? करने में अपनी शक्ति, अपना समय, अपना | रास्ता यह है कि कोई पीछे से हमें धक्का दिए जाए, तो हम चलते जीवन, अपना अवसर खो देगा। हैं। एक रास्ता यह है कि अगर होशियार हो कोई, तो आगे घास का इसका यह मतलब नहीं है कि आदमी कुछ भी न करे। आदमी | एक गट्ठर लेकर चलने लगे, तो भी जानवर उसके पीछे चलता है, कुछ किए बिना नहीं रह सकता, कुछ करेगा। लेकिन स्वयं को कर्ता | क्योंकि आगे आशा दिखाई पड़ती है कि वह घास मिलने वाला है। मानकर न करे। छोड़ दे उस पर। वह जो करवाए, कर ले। फिर वह | तो या तो भविष्य में परिणाम की आशा हो, या परिस्थिति में जो दे दे, ले ले। | जबरदस्ती का धक्का हो, इन दो से हम चलते हैं। कर्ता के चलने का जब हम छोड़ेंगे कर्म उस पर, तभी फल भी उस पर छूटेगा। कर्म | यही उपाय है। तो आपको अगर आशा न हो परिणाम की, तो फिर रखेंगे अपने हाथ में, फल छोड़ेंगे उसके ऊपर! यह बेईमानी शुरू कर्म करने का मन नहीं होता। अब अगर घास का गट्ठर न दिखता हो गई। हमने ईश्वर को भी धोखा देना शुरू कर दिया। इसका यह हो, तो फिर क्यों चलें? फिर चलने की कोई जरूरत नहीं है। और मतलब नहीं कि आपसे कर्म छीन लिया जाता है। सिर्फ कर्ता छीना | या फिर पीछे पत्नी, बच्चे, परिस्थिति धक्का न दे रही हो कि करो, जा रहा है, कर्म नहीं छीना जा रहा है। तो भी चलने का नहीं लगता, कि क्या सार? किसके लिए चलें? और मजा तो यह है कि जिसका कर्ता शांत हो जाता है, वह इतने लोगों को बच्चे पैदा हो जाते हैं, तो बहुत दौड़-धूप करते हैं, कर्म कर पाता है, जितने आप कभी भी न कर पाएंगे। क्योंकि | क्योंकि बच्चों के लिए जी रहे हैं। उनको पता नहीं कि बच्चे धक्के आपको कर्ता को भी ढोना पड़ता है। उसके पास सिर्फ कर्म रह जाते दे रहे हैं पीछे से! कि चलो, अब रुक नहीं सकते। अब उनको हैं। वह शुद्ध उसकी ऊर्जा कर्म बन जाती है। आपको तो अहंकार, लगता है कि जीने में कोई कारण आ गया। अब यह करना है। अब और कर्ता, और मैं, इसको काफी ढोना पड़ता है। ज्यादा शक्ति तो कर्तव्य है। इसी में व्यय होती है। कर्म तो आपसे होगा। लेकिन आप उसके ये दो उपाय हमें साधारणतः दिखाई पड़ते हैं। अहंकार पशु है, करने वाले नहीं होंगे। वह पशु की भाषा समझता है। नदियां बह रही हैं। अगर किसी नदी को यह खयाल आ जाए एक और, अहंकार से ऊपर, जीने का उपाय है। वह आत्मिक कि मुझे तो फलां जगह जाकर सागर में गिरना है, वह नदी पागल | जीवन है। वहां न आगे परिणाम का कोई सवाल है, न पीछे किसी हो जाएगी। नदियां बह रही हैं, कहीं कोई फिक्र नहीं है कि कहां धक्के का कोई सवाल है। आप जीवित हैं। जीवित होना...। जैसे गिरे, पूर्व में गिरे कि पश्चिम में; कि अरब की खाड़ी में गिरे कि | फूल खिला है, उससे सुगंध गिर रही है। इसलिए नहीं कि कोई रास्ते बंगाल की खाड़ी में; कहां गिरे, हिंद महासागर में कि पैसिफिक में; से गुजरेगा, उसके लिए; कि कोई बहुत बड़े सुगंध के पारखी आ नदी को कोई चिंता नहीं है। नदी बही जा रही है अपने स्वभाव से। | रहे हैं, उनके लिए। रास्ते से कोई न भी गुजरे, तो फूल की सुगंध पहाड़ आएंगे, काटेगी। रास्तों में अड़चनें होंगी, किनारा काटकर | गिरती रहेगी। क्योंकि फूल का अर्थ ही सुगंध का होना है। गुजरेगी। और एक दिन सागर में गिर जाएगी। नदी बेचैन नहीं है। जीवन का अर्थ कर्म है। न पीछे कोई आकांक्षा है, न आगे कोई लंबी यात्रा है, लेकिन कोई बेचैनी नहीं है। सवाल है। आप जीवित हैं। जीवित होने का अर्थ कर्म है। इस कर्म जो व्यक्ति सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देता है, वह भी ऐसे ही का होना आगे-पीछे से नहीं आ रहा है, भीतर से आ रहा है। भीतर यात्रा करता है। कर्म तो बहुत होता है उससे, लेकिन कर्ता नहीं से जब आता है, तो परमात्मा से आता है। पीछे से जब आता है, होता। फिर सागर जहां उसे गिरा लेता है, वहीं गिरने को राजी हो तब संसार के धक्के से आता है। आगे से जब आता है, तब मन 367 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 की वासना, इच्छा से आता है। जब भीतर से आता है, सहज, अभी और यहीं, जैसे नदी बह रही है, फूल खिल रहा है और सुगंध बरस रही है, ठीक ऐसे जब आपके भीतर से आने लगता है...। नियति का अर्थ है, जीवन को इस क्षण में भीतर से जीने का उपाय। अपने को छोड़कर परमात्मा की जो अनंतता अभी मौजूद है, उस अनंतता में अभी खिल जाने की व्यवस्था । अभी, यहीं । आगे-पीछे का कोई सवाल नहीं है। बहुत कर्म घटित होता है ऐसे आदमी से, लेकिन कर्म का बोझ नहीं होता ऐसे आदमी पर । ऐसा आदमी बहुत करता है, लेकिन कभी भी, मैं कर रहा हूं, ऐसी अस्मिता इकट्ठी नहीं होती। ऐसा आदमी जानता है, प्रभु ने जो करवाया, वह करवाया। जो नहीं करवाया, वह नहीं करवाया। जो उसकी मर्जी, यह उसका आखिरी भाव बना रहता है। समझौता नहीं है। सत्य के जगत में कभी कोई समझौता नहीं है। मन के जगत में सब समझौता है। मन हमेशा कोशिश करता है, सबको सम्हाल लो। और एक के साधने से सब सध जाता है । और सबको साधने से एक भी नहीं सध पाता है। एक प्रश्न और, और फिर मैं सूत्र लूं। उस प्रश्न को मैं रोके हुए हूं, इतने दिन से वह रोज पूछा जाता है। तो मैंने सोचा था, जिस दिन नहीं पूछेंगे, उस दिन जवाब दे दूंगा। आज नहीं पूछा है। एक सज्जन रोज ही पूछे चले जाते हैं कि क्या आप भगवान हैं? इसका साफ-साफ उत्तर दें। मे रे लिए भगवान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तो अगर कोई कि मैं भगवान नहीं हूं, तो वह असत्य बोल रहा है, मेरे लिए। मैं भगवान हूं, उतना ही जितने आप भगवान हैं। भगवान के के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। आपको पता हो या न पता हो । तो वे मित्र रोज लिखकर पूछे चले जाते हैं कि क्या आप भगवान हैं? अगर आप नहीं हैं, तो आप जाहिर करें। अपने शिष्यों को समझा दें कि वे आपको भगवान न कहें। न्होंने नाम नहीं लिखा है, नहीं तो मैं अपने शिष्यों को कहूं कि उनको भी भगवान कहें। मेरी कोशिश यह है कि आपकी समझ में आ जाए कि आप भगवान हैं। उनकी कोशिश यह है कि मेरी समझ में डाल दें कि मैं भगवान नहीं हूं! सारी चेष्टा धर्म की यह है कि आपको खयाल में आ जाए कि आप भगवान हैं। और जब तक यह खयाल न आ जाए, तब तक जीवन परेशानी होगी, दुख होगा, पीड़ा होगी। इससे कम में काम नहीं चलेगा। इससे कम में कोई तृप्ति भी नहीं है। इसके पहले कोई मंजिल भी नहीं है। इसके पहले उपद्रव ही है। यही है मुकाम । लेकिन हमें तकलीफ होती है। हमें तकलीफ होती है। तकलीफ क्या होती है ? क्योंकि हमने भगवान की कुछ धारणा बना रखी हैं। 368 उ वे मित्र बार-बार लिखते हैं कि भगवान ने तो सृष्टि बनाई, आपने सृष्टि बनाई ? -भावतः, भगवान की हमारी धारणा है, जिसने सृष्टि स्व बनाई। लेकिन हमारी यह कल्पना में भी नहीं है कि सृष्टि भी भगवान अपने भीतर अपने में से ही बनाएगा। और उसके बाहर तो कुछ लाने को है नहीं। भगवान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, कोई मैटीरियल भी नहीं है, जिससे वह सृष्टि बना ले। अगर वह सृष्टि भी बनाएगा, तो वह वैसे ही, जैसे | मकड़ी अपने ही भीतर से जाला बुनती है। वह मकड़ी का उतना ही हिस्सा है। सृष्टि भगवान से कुछ अलग है। क्योंकि उससे अलग कुछ है नहीं, जिसको वह बना दे, और जिसके आधार पर सृष्टि खड़ी कर दे। सृष्टि उसके ही भीतर से फैलाव है । तो सृष्टि स्रष्टा का हिस्सा है। और एक पत्थर भी जो रास्ते के किनारे पड़ा है, वह उतना ही भगवान है, जितना बनाने वाला भगवान हो। जो बनाया गया है, वह भी भगवान है। जो बनाने वाला है, वह भी भगवान है। और यह बनाने वाला, और बनाया गया का जो शब्द है हमारा, यह Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 बेशर्त स्वीकार हमारी भाषा की भूल है। में उन्हें कुछ पता नहीं है। कृष्ण तो बहुत स्पष्ट अर्जुन से इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि भगवान को कभी कुम्हार की II कहते हैं, सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं तरह मत सोचना कि वह घड़े को बना रहा है। क्योंकि कुम्हार मर | व्रज-सब छोड़ और मेरी शरण में आ। कृष्ण तो जाए, तो भी घड़ा रहेगा। घड़ा तो कुम्हार से अलग हो गया। कुम्हार | कहते हैं, मैं ही परात्पर ब्रह्म हूं। बुद्ध ने तो कहा है, मैंने वह पा के मरने से घड़ा नहीं मर जाएगा। लेकिन अगर भगवान न हो, तो लिया, जो अंतिम है। अब मैं मनुष्य नहीं, अब मैं बुद्ध हो गया हूं। यह जगत इसी क्षण विलीन हो जाएगा। इसलिए घड़ा और कुम्हार | | महावीर ने तो कहा है, आत्मा जब शुद्ध हो जाती है, तो उसी का की बात ठीक नहीं है। यहां बनाने वाला, जो बनाया है, उसमें | | नाम परमात्मा है। और मैं परिपूर्ण शुद्ध हो गया हूं। समाया हुआ है, अलग नहीं है। इन मित्र का खयाल ऐसा है कि महावीर, बुद्ध, कृष्ण के इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि भगवान है नर्तक की तरह, | अनुयायियों ने उनको भगवान कह दिया। उन्होंने नहीं कहा। अगर नटराज । एक नाच रहा है आदमी। तो नृत्य है और नृत्यकार है। वे थे, तो कहने में डर क्या है? और अगर वे नहीं थे या कहने में लेकिन अलग-अलग नहीं। अगर नृत्यकार चला जाए, तो नर्तन कुछ संकोच करते थे, तो अनुयायियों के कहने से भी नहीं हो बचेगा नहीं पीछे; वह भी उसी के साथ चला जाएगा। आप नृत्य जाएंगे। सीधी घोषणा है उनकी। और उन्होंने यही नहीं कहा कि वे को अलग नहीं कर सकते नत्यकार से। भगवान हैं, उन्होंने समझाने की कोशिश की है कि आप भी भगवान इसलिए हमने परमात्मा की नटराज की मूर्ति बनाई है। वह बहुत हैं। और जिसको इतना भी बल न हो कहने का कि मैं भगवान है, अर्थ की है। कुम्हार और घड़े वाली बात तो बचकानी है, और वह आपसे क्या कहेगा कि आप भगवान हैं! जिसको अपने पर जिनके पास बुद्धि कम है, उनके काम की है। नटराज का अर्थ यह इतना भरोसा न हो कि कह सके, वह आपसे क्या कहेगा कि आप है कि यह जो नृत्य है विराट, यह उससे अलग नहीं है। यह सारा | भगवान हैं! का सारा नृत्य नृत्यकार ही है, नर्तक ही है। तो मैं आपसे कहता हूं कि इस सृष्टि को बनाने में मेरा उतना ही हाथ है, जितना आपका, जितना एक पक्षी का, जितना एक पौधे | उन मित्र ने एक बात और पूछी है कि कृष्ण भगवान का, जितना राम का, कृष्ण का, बद्ध का। हम इस विराट के उतने थे, तो उन्होंने अर्जुन को तो विराट का दर्शन कराया। ही हिस्से हैं, जितना कोई और। आप करवा सकते हैं? __ आप स्रष्टा भी हैं, सृष्टि भी। आप नर्तक भी हैं, नृत्य भी। और जब तक आप समझते हैं कि आप सिर्फ नृत्य हैं, नर्तक नहीं, तब • तक आप भूल में हैं। क्योंकि नृत्य हो ही नहीं सकता नर्तक के | वायदा करता हूं, मैं करवा सकता हूं। लेकिन अर्जुन बिना। सृष्टि हो ही नहीं सकती स्रष्टा के बिना, अगर स्रष्टा उसके 01 होने की तैयारी चाहिए। भीतर मौजूद नहीं है। वह आपके भीतर भी मौजूद है। आपको हम कभी सोचते नहीं, हम क्या पूछ रहे हैं! उसकी खबर नहीं है, इसलिए परेशान हैं। मेरी तरफ से वायदा पक्का है। जिसको भी विराट के दर्शन करने हों, मैं करवाऊंगा। लेकिन आने के पहले छाती पर हाथ रखकर इतना भर सोच लेना कि अर्जुन जैसी तैयारी है? फिर कोई बाधा वे मित्र पूछते हैं कि राम को हम भगवान कहते हैं, नहीं है। फिर मेरे बिना भी दर्शन हो सकता है। कोई मेरी जरूरत कृष्ण को हम भगवान कहते हैं, बुद्ध को, महावीर को नहीं है। आपकी अर्जुन जैसी तैयारी हो, तो परमात्मा आपको कहीं कहते हैं। लेकिन उन्होंने खुद अपने को भगवान नहीं भी उपलब्ध हो जाएगा। वह अर्जुन की तैयारी जब होती है, तो वह कहा। और यहां ऐसा मालूम पड़ता है कि आप लोगों सब जगह उपलब्ध है। और जब अर्जुन की तैयारी नहीं होती, तब से अपने को भगवान कहला रहे हैं! वह आपके सामने भी खड़ा हो, तो आप यही पूछते रहेंगे, आप भगवान हैं? 369 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 जीवन को सदा इस दृष्टि से सोचें और सदा इस दृष्टि से पूछे | कृष्ण के प्रति गदगद वाणी से बोला। कि उस पूछने से आपके लिए क्या हो सकेगा? मैं भगवान हूं या ___ कंप रहा है अर्जुन। जो देखा है, उससे उसका रोआं-रोआं कंप नहीं हूं, इससे आपको क्या हो सकेगा? इससे क्या परिणाम होगा? गया है। भविष्य की झलक बड़ी खतरनाक हो सकती है। शायद आपकी जिंदगी कैसे इससे बदलेगी? सदा अगर कोई इतना खयाल इसीलिए प्रकृति हमें भविष्य के प्रति अंधा बनाती है। नहीं तो जीना रख सके, तो उसकी जिज्ञासा सार्थक, अर्थपूर्ण हो जाती है, बहुत मुश्किल हो जाए। उपयोगी हो जाती है। आप देखते हैं, तांगे में जुता हुआ घोड़ा चलता है, उसकी आंखों __ अकारण कुछ मत पूछते रहें। इतना तो खयाल निश्चित ही रखें | पर दोनों तरफ से पट्टी लगी होती है। अगर वह पट्टी न लगी हो, कि इसके उत्तर से आपको क्या होगा? आप इस उत्तर का क्या | तो घोड़ा सीधा नहीं चल पाता। वह पट्टी खुली हो, तो दोनों तरफ उपयोग करेंगे? यह आपकी जिंदगी को कहां से बदलेगा? आपकी | उसे दिखाई पड़ता है। उसकी वजह से अड़चन खड़ी होती है। फिर जिंदगी के लिए किस तरह औषधि बन सकेगा? वही प्रश्न पूछे, | वह सीधा नहीं चल पाता। तो दोनों तरफ से उसकी आंखें हम अंधी जो आपके लिए औषधि बन जाए। अन्यथा प्रश्नों का कोई अर्थ | | कर देते हैं। बस, सिर्फ वह आगे देख पाता है दो कदम। बस, एक . नहीं है। | सीधी रेखा में चलता रहता है। इसलिए मैं इस प्रश्न को टाल रहा था इतने दिन तक, और सोच | ठीक हम भी अंधे आदमी हैं। हमें भविष्य दिखाई नहीं पड़ता। रखा था, जिस दिन नहीं पूछेगे मित्र, उस दिन जवाब दे दूंगा। क्यों | भविष्य दिखाई पड़े, तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाएं। आप किसी ऐसा सोच रखा था कि नहीं पूछेगे उस दिन जवाब दूंगा? इसीलिए | स्त्री को प्रेम कर रहे हैं और उससे कह रहे हैं कि तेरे बिना मैं जी न कि शायद इतने दिन सुनकर बुद्धि थोड़ी आ जाए और न पूछे। और | सकूँगा। और आपको दिखाई भी पड़ रहा हो कि दो दिन बाद यह इतनी भी बुद्धि न आए, तो फिर उत्तर भी समझ में नहीं आएगा। मर जाएगी-न केवल मैं जीऊंगा, दूसरी शादी भी करूंगा। अगर इसलिए रुक गया था। यह भी आपको दिखाई पड़ रहा हो, तो किस मुंह से कह सकिएगा आज उन्होंने नहीं पूछा है, मान लेता हूं-डर तो यह है कि | कि तेरे बिना जी न सकूगा? मुश्किल हो जाएगा। जब दिख रहा हो शायद वे न भी आए हों लेकिन मान लेता हूं कि उन्हें थोड़ी समझ | | कि दो दिन बाद यह स्त्री मरेगी और मैं जीऊंगा। और न केवल आई होगी कि इन बातों के पूछने का कोई भी अर्थ नहीं है। जीऊंगा, कोई और स्त्री से शादी करूंगा। और उस स्त्री से भी मैं कौन भगवान है, कौन नहीं है, इससे क्या लेना-देना! एक बात | | यही कहूंगा कि तेरे बिना कभी न जी सकूँगा। का पता लगाइए कि आप भगवान हैं या नहीं हैं। बस, उसकी फिक्र ___आपको भविष्य दिखता नहीं है। बच्चा पैदा हो और उसको में लग जाइए। उसका पूरा भविष्य दिख जाए, कैसी मुश्किल हो जाए! जीना और जिस दिन आपको पता चल जाए कि आप भगवान हैं, उस बिलकुल असंभव हो जाए। एक-एक कदम चलना मुश्किल हो दिन डरिए मत, छिपाइए मत, खबर करिए। हो सकता है, आपकी | | जाए। आपको पता नहीं है, इसलिए अंधे की तरह शान से चले खबर से किसी के कान में भनक पड़ जाए और उसे भी खयाल | | जाते हैं। क्या कर रहे हैं, कोई फिक्र नहीं है। क्या हो रहा है, कोई आने लगे कि अगर यह आदमी भगवान हो सकता है, तो मुझमें | | फिक्र नहीं है। क्या परिणाम होगा, कोई फिक्र नहीं है। ऐसी क्या अड़चन है ? मैं भी थोड़ी चेष्टा करूं। शायद आपके गीत | । अतीत भूलता चला जाता है, भविष्य दिखाई नहीं पड़ता, को सुनकर किसी और को भी गीत गाने का खयाल आ जाए। इसलिए आप जी पाते हैं। अतीत भूले न, भविष्य दिखाई पड़ने शायद कोई और भी गुनगुनाने लगे। शायद आपको नाचता देखकर लगे, आप यहीं ठप्प हो जाएं। इंचभर हिलने का उपाय न रह जाए। किसी के पैरों में थिरकन आ जाए, शायद कोई और भी नाचने लगे। | आपको दिखाई पड़ जाए कि आप मरने वाले हैं, चाहे सत्तर साल अब हम सूत्र को लें। बाद सही; साफ दिखाई पड़ जाए कि फलां तिथि को मरने वाले हैं, इसके उपरांत संजय बोला कि हे राजन्! केशव भगवान के इस सत्तर साल बाद। लेकिन ये बीच के सत्तर साल बेकार हो गए। अब वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, कांपता हुआ, | | आप जी न सकेंगे। नमस्कार करके, फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम करके, भगवान, अब आप किस इरादे से मकान बनाएंगे? किसी और के रहने 13701 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ बेशर्त स्वीकार ® के लिए? किस इरादे से बैंक में धन इकट्ठा करेंगे? किसी और के | पड़ेगी। इसमें अहंकार को रस तो रह नहीं गया। भोग के लिए? किस इरादे से लड़ेंगे किसी से? अर्जुन ने देखा है कि वह जीतेगा। उसके योद्धा विपरीत जो खड़े अब कोई इरादा नहीं रह जाएगा। मौत सारे इरादों को काट देगी। हैं, वे मृत्यु में विलीन हो रहे हैं। उसकी जीत सुनिश्चित है, नियति और जीना तो पड़ेगा। अगर आपको यह भी पता हो कि सत्तर साल है, भाग्य है। जीना ही पड़ेगा। मौत इसी तरह होगी, जैसी होने वाली है। बीच में अगर जीत नियति है, तो फिर अहंकार को उससे कुछ भी रस आत्महत्या भी करने का कोई उपाय नहीं है; भविष्य नहीं है; भविष्य नहीं मिलेगा। फिर मैं नहीं जीतता हूं। जीतना था, इसलिए जीतता तो मरने का है खाट पर। फिर हाथ-पैर कंपते रहेंगे। पूरे जीवन आप हूं। फिर दुर्योधन नहीं हारता है। हारना था बेचारे को, इसलिए हारता कंपते रहेंगे। जो बहुत विचारशील लोग हैं, उनके कंपन का कारण है। तब न तो कोई रस है अपने अहंकार में और न दुर्योधन की हार यही है। में कोई रस है। तब तो हम पात्र हो गए, खिलौने हो गए। तब तो सोरेन कीर्कगार्ड ने, एक डेनिस विचारक ने लिखा है कि जिस हम गुड़ियों की तरह नाच रहे हैं; कोई भीतर से तार खींच रहा है। दिन से मुझे होश आया, मैं कंप रहा हूं। तब से मेरा कंपन नहीं | किसी को जिताता है, वह जीत जाता है। किसी को हराता है, वह रुकता। रात सो नहीं सकता हूं, क्योंकि मुझे पता है कि कल मौत | हार जाता है। किसका गौरव? किसका अपयश? है। और मैं हैरान हूं कि सारी दुनिया क्यों मजे से चली जा रही है! | अगर यह सच है कि मेरी जीत निश्चित है, तो अर्जुन कंप गया शायद इन्हें पता नहीं है कि कल मौत है। होगा इससे भी। क्योंकि तब तो मजा ही चला गया। तब किस मुंह भविष्य नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए हम बड़े निश्चित हैं। दिखाई | से वह कहेगा कि दुर्योधन को मैंने हराया; कि कौरव हारे पांडव से। पड़े तो बड़ी अड़चन हो जाए। अर्जुन को दिखाई पड़ा है, अभी | तब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया। कौरव हारे, क्योंकि नियति उसने देखा। एक झलक उसे मिली है। वह कंप रहा है, वह भयभीत | उनकी हारने की थी। पांडव जीते, क्योंकि नियति उन्हें जिता रही थी। हो रहा है। | और नियति दोनों के हाथ के बाहर है। यह भी बहुत भय देने वाली संजय कहता है, कांपता हुआ, हाथ जोड़े हुए, नमस्कार करता बात है। यह तो मजा ही चला गया! है, भयभीत हुआ प्रणाम करता है। गदगद भी हो रहा है। एक तो मृत्यु को देखा, उससे वह कंपित हो रहा है। दूसरा, उसकी स्थिति बड़ी दुविधा की है। जो दिखाई पड़ा है, वह उसकी | सुनिश्चित विजय को देखा। उससे भी, उससे भी वह भयभीत हो विजय है। जो दिखाई पड़ा है, उसमें वह जीतेगा, इसलिए आनंदित | | रहा है। अर्जुन योद्धा था। फेअर नहीं है अब लड़ाई। अब जो युद्ध भी हो रहा है। जो दिखाई पड़ा है, वह विराट की झलक है। यह | है, वह न्याय-संगत नहीं है। अब तो हारने वाले हारेंगे, जीतने सौभाग्य है। यह कृपा है। यह प्रसाद है। वह गदगद भी हो रहा है। वाला जीतेगा। और कृष्ण कहते हैं, मैं पहले ही काट चुका हूं और जो दिखाई पड़ा है, वह मृत्यु भी है। वह भयभीत भी हो रहा है।। | इनको, तू सिर्फ निमित्त है। यह भी कंपित कर देगा। क्षत्रिय का सारा और एक अर्थ से और भी भयभीत हो रहा है। क्योंकि जो विजय | मजा ही चला गया। अब यह युद्ध हो रहा है, जैसे हो या न हो सुनिश्चित हो, उसमें भी मजा चला जाता है। अगर आप एक खेल | बराबर है। एक झूठा युद्ध रह गया; एक सूडो, मिथ्या, भ्रामक। कसी के साथ, जिसमें आपकी जीत निश्चित है: खेल जिसमें सब बातें पहले से ही तय हों, उसमें क्या सार है? का मजा चला जाता है। खेल का तो मजा इसी में है कि जीत एक अर्थ में गदगद है कि कृष्ण ने अनुभव का मौका दिया; एक अनिश्चित है। आप जीत भी सकते हैं, हार भी सकते हैं। जिस खेल द्वार खोला अनंत का। और एक लिहाज से भयभीत है। दोनों बातें में आपको जीतना ही है, जिसमें कोई उपाय ही नहीं है हार का, वह | एक साथ! खेल खतम हो गया। वह तो एक बंधन हो गया। संजय कहता है, ऐसा भयभीत, साथ ही गदगद हुआ, प्रणाम इसे थोड़ा समझ लें, थोड़ा बारीक है। करके, अर्जुन कहने लगा, हे अंतर्यामिन् ! यह योग्य ही है कि जो अगर आपको पक्का ही है और कोई उपाय जगत में नहीं है कि आपके नाम और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित होता है और आप हार सकें, आप जीतेंगे ही, तो मजा ही जीत का चला गया। अनुराग को भी प्राप्त होता है। तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं और जीत से भी भय पैदा होगा। यह जीत भी एक जबरदस्ती मालूम | | में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार करते हैं। 371 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 यह योग्य ही है। ये दोनों बातें ही योग्य हैं कि कोई आपके नाम जब आप भगवान का नाम सुनकर दुखी होते हैं, तो आप खबर से हर्षित होता है, और कोई आपके नाम से भयभीत होता है। ये दे रहे हैं कि भगवान आपके लिए कहीं न कहीं मृत्यु से जुड़ा हुआ दोनों बातें ठीक ही हैं। क्योंकि जो मिटने जा रहा है आपको देखकर, है। कुछ आप कर रहे हैं, जो भगवान के सान्निध्य में टूटेगा और आप जिसके लिए विनाश बन जाते हैं, उसका भयभीत होना; और नष्ट होगा। कुछ आप कर रहे हैं, जो धारा के विपरीत है, जो निसर्ग वह जो आपको देखकर आनंद को, परम अवस्था को उपलब्ध होने के प्रतिकूल है। और जब भगवान का नाम सुनकर आप आनंदित जा रहा है, जिसके भीतर नए का सृजन हो रहा है, उसका हर्षित होते हैं, तब उसका अर्थ है कि आपके भीतर कोई धारा है, जो होना, दोनों ही ठीक हैं। भगवान के साथ बह रही है। तो नाम भी सुनकर आप प्रफुल्लित लेकिन अर्जुन को दोनों हो रहे हैं। और आपको भी दोनों होंगे। हो जाते हैं। क्योंकि इस जमीन पर देवता को अलग और राक्षस को अलग रामकृष्ण के सामने कोई नाम भी ले दे भगवान का, तो वे तत्क्षण खोजना बहुत मुश्किल है। वे दोनों मिले-जुले हैं। वे हर आदमी में समाधिस्थ हो जाते थे। नाम लेना मुश्किल हो गया था। क्योंकि फिर हैं। वे आदमी के दो पहलू हैं। मन दो के बिना होता ही नहीं। वे छ:-छः घंटे, बारह-बारह घंटे समाधि में रह जाते थे। सड़क से इसलिए आप ऐसा देवता पुरुष भी नहीं खोज सकते, जिसका गुजर रहे हैं, तो उनके भक्तों को उन्हें सम्हालकर ले जाना पड़ता था कोई हिस्सा राक्षसी न हो। और आप ऐसा कोई राक्षस भी नहीं खोज कि कहीं कोई जयरामजी ही न कर दे। नहीं तो वहीं नाचने लगते, सकते, जिसका कोई हिस्सा देवता जैसा न हो। रावण के भीतर भी | | और वहीं सड़क पर गिर जाते, होश खो देते। कई बार तो कई-कई एक कोना राम का होगा, और राम के भीतर भी एक कोना रावण | दिन लग जाते उनका वापस होश आने में। वे इतने आनंद्रित हो जाते का होगा। अन्यथा उनका संसार में होने का कोई उपाय नहीं है। | कि यह जगत विसर्जित हो जाता, वे अपने में लीन हो जाते। इस जगत में प्रकट होने का उपाय है मन। और मन है द्वंद्व। उनको सम्हालकर ले जाना पड़ता था कि कहीं कोई असमय में इसलिए अच्छे से अच्छे आदमी में थोड़ी-सी कालिख कहीं न कहीं | नाम न ले दे, कोई अकारण ऐसे ही सहज नाम न ले दे। फिर उन्हें लगी होती है। बुरे से बुरे आदमी में भी एक चमकदार रेखा होती | दिनों तक पानी पिलाना पड़ता, दूध देना पड़ता, क्योंकि उनको है। वही उन दोनों को आदमी बनाती है। नहीं तो वे आदमी नहीं रह शरीर की कोई सुध न रह जाती। और जब उन्हें होश आता, तब वे जाएंगे। नहीं तो उनके आदमी होने का कोई उपाय नहीं रह जाएगा। छाती पीटकर रोने लगते कि क्या तू नाराज है, इतने जल्दी वापस यहां तो हर आदमी दोनों है। भेज दिया! क्या तू नाराज है कि अपने से इतनी जल्दी दूर कर दिया! इसलिए जब परम अनुभव का द्वार खुलता है, तो दोनों बातें एक वापस बुला ले। उनकी आंख से आंसू बहते। वापस बुला ले। कोई साथ घटती हैं। वह जो आपके भीतर राक्षस है. वह भयभीत होने नाम ले दे तो। लगता है। और वह जो आपके भीतर दिव्य है, वह आनंदित होने ___ क्या था? रामकृष्ण बड़ी, जिसको हम कहें, शुद्धतम देह, शरीर लगता है। परमात्मा के सामने दोनों बातें एक साथ घट जाती हैं। | जैसे पवित्रतम, जैसे रोआं-रोआं इतना पवित्र कि नाम भी भगवान यह तो तोड़कर कहा है, ताकि समझ में आ सके। का पर्याप्त, कि रोआं-रो0 कंपित होकर भीतर लीन हो जाए। अर्जुन कहता है, लोग अनुराग को उपलब्ध होते हैं, हर्षित होते शरीर जैसे इतना संवेदनशील। हैं, आपके कीर्तन, आपके नाम को सुनकर। और ऐसे लोग भी हैं, __पुजारी थे रामकृष्ण तो दक्षिणेश्वर के मंदिर में। तो पूजा करने जो भागते हैं दसों दिशाओं में। और देखता हूं सिद्धगणों को भी कि | जाते थे, पूजा का थाल गिर जाता हाथ से। क्योंकि देखते महाकाली पैर झुकाए, घुटने टेके, आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह ठीक ही | की मूर्ति, वह देखते ही थाल गिर जाता। दीए बुझ जाते। वे नीचे है अंतर्यामिन्! गिर जाते। पूजा न हो पाती। आज अर्जुन को लगा कि ऐसा क्यों है। ऐसा क्यों है कि कोई | | पूजा करने के लिए भी बड़ा कठोर मन चाहिए। पूजा करने के भगवान का नाम सुनते ही पीड़ित और दुखी क्यों हो जाता है? | | लिए भी इतना तो मन चाहिए कि डटे रहे। रामकृष्ण से पूजा ही न और कोई भगवान का नाम सुनते ही आनंदित, प्रफुल्लित क्यों हो हो पाती, क्योंकि थाल हाथ से छूट जाता। देखते आंखों में काली जाता है? की, और सुध-बुध खो देते। फिर बाद के दिनों में तो उन्हें मंदिर में |372 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 बेशर्त स्वीकार - नहीं ले जाते थे। पूजा कोई और कर लेता। क्योंकि मंदिर में जाना गीता के संबंध में उन्हें नहीं पूछना है, क्योंकि गीता वे खतरनाक था। समझ चुके होंगे! यहां किस लिए आते हैं, पता नहीं। और जिस दिन रामकृष्ण को अनुभव हुआ, उस दिन वे यहां आने का कोई प्रयोजन नहीं है। गीता समझ ही दक्षिणेश्वर की छत पर चढ़ गए, छप्पर पर, और जोर-जोर से | | गए हों, तो यहां आने का क्या प्रयोजन है! चढ़ जाएं किसी मंदिर चिल्लाने लगे कि जिसकी मुझे खोज थी, वह मिल गया। अब | पर और चिल्ला दें कि आ जाओ, जिनको पाना हो। मुझे मिल जिनको चाहिए, वे जल्दी आओ! कहां हैं वे लोग, जिन्हें मैं बांट गया! कीर्तन के संबंध में उन्हें अड़चन है। दूं? आओ जल्दी दूर-दूर से। जहां भी, जिसको भी आकांक्षा हो, किया है कभी कीर्तन? अगर किया है, तो अड़चन नहीं हो जल्दी आ जाए। क्योंकि जो मुझे चाहिए था, वह मिल गया। सकती। और नहीं किया है, तो सवाल नहीं उठाना चाहिए। जो नहीं क्या मिल गया? एक संगति, एक संगीत, एक लयबद्धता। उस | किया है, उसके बाबत नहीं पूछना चाहिए। अड़चन यही होगी कि परमात्मा और अपने बीच एक स्वर का तालमेल मिल गया। अब, | | यह क्या है कि लोग नाचने लगते हैं, होश खो देते हैं! अड़चन यही जैसे ही वह स्वर का तालमेल बैठ जाता है. वैसे ही रामकष्ण नहीं है कि स्त्री-पुरुष साथ-साथ नाच रहे हैं! रह जाते, भगवान हो जाते हैं, परमात्मा हो जाते हैं। __ अगर इतनी भी बेहोशी न हो कि स्त्री-पुरुष भी न भूलें, तो क्या कीर्तन का मतलब ही केवल इतना है कि एक सुर-ताल बैठ खाक कुछ भूलेगा! यह भी होश बना रहा कि मैं पुरुष हूं, वह पास जाए। और वह जो आदमी होने का होश है, वह खो जाए, और वह | | में खड़ी स्त्री है, आप कीर्तन कर रहे हैं? इतना भी होश न भूले, तो जो परमात्मा होने का होश है, वह आ जाए। यह रामकृष्ण की जो | क्या खाक कीर्तन होगा? बेहोशी है, यह सिर्फ एक तरफ से बेहोशी है, आदमी की तरफ से। ___ कीर्तन तो पागलों का रास्ता है, वे जो भूलने को तैयार हैं बाहर दूसरी, भीतर की तरफ से तो परम होश है। को। फिर क्या होता है. इसे करने का थोडे ही सवाल है। कीर्तन • तो रामकृष्ण कहते थे कि तुम सोचते हो, मैं बेहोश हो गया! तुम कुछ किया थोड़े ही जाता है। कीर्तन तो अपने को धारा में छोड़ना उलटा सोचते हो। जब मैं होश में आता हूं तुम्हारे सामने, तब मैं | है, फिर जो हो जाए। पर देखने वाले को अड़चन होगी, देखने वाले बेहोश हो जाता हूं। मैं जिसको भीतर देख रहा था, वह फिर मुझे को सदा ही अड़चन होगी। क्योंकि देखने वाला बाहर खड़ा है। दिखाई नहीं पड़ता। तुम जिसे बेहोशी कहते हो, वह होश है मेरे ___ करके देखें। थोड़ी देर के लिए होश खोकर देखें। थोड़ी देर के लिए। और तुम जिसे होश कहते हो, वह बेहोशी है। जब मेरी आंख | | लिए एक दूसरे जगत में प्रवेश करें; और एक दूसरा होश उपलब्ध संसार की तरफ होश से भर जाती है, तो मैं वहां भूल जाता हूं। और | करें। थोड़ी देर को बह जाएं बाहर से और भीतर हो जाएं। और होने जब यहां मेरा पर्दा गिर जाता है, तो मैं वहां हो जाता हूं। दें, जो हो रहा है; छोड़ दें परमात्मा में। पूरे चौबीस घंटे छोड़ना कीर्तन का इतना ही अर्थ है अध्यात्म में कि उससे हम एक नाम शायद मुश्किल होगा। क्योंकि आपको खयाल है, दुकान आप के सहारे, एक शब्द के सहारे, एक गीत के सहारे, एक धुन के चलाते हैं। आपको खयाल है, आप नहीं होंगे, तो संसार का क्या सहारे, एक नृत्य की गति के सहारे, वह जो मनुष्य होने का होश होगा! आपके बिना कुछ चलेगा नहीं! शायद पूरे समय छोड़ना है, वह खो रहे हैं; और वह जो परमात्मा होने का होश है, उसकी मुश्किल हो, घड़ी, आधा घड़ी को...। तरफ जा रहे हैं। कीर्तन सिर्फ एक व्यवस्था है, जिससे थोड़ी देर को हम छोड़ देते हैं। हम अपने को नहीं चलाते, हम सिर्फ छोड़ देते हैं; एक लेट गो। अपने को ढीला छोड़ देते हैं धुन के ऊपर। और धीरे-धीरे भीतर एक मित्र ने पूछा है कि गीता के संबंध में उन्हें कुछ जहां ले जाना चाहता है, ले जाने लगता है। फिर पैर थिरकने लगते भी नहीं पूछना। लेकिन यहां जो कीर्तन होता है, उस हैं। हाथ-पैर मुद्राएं बनाने लगते हैं। आंखें बंद हो जाती हैं। किसी संबंध में उन्हें बड़ी अड़चन है! दूसरे लोक में प्रवेश हो जाता है। फिर फिक्र छोड़ें कि कौन बाहर खड़ा है। उसकी थोड़े ही फिक्र करनी है। उसकी फिक्र करिएगा, तो भीतर नहीं जा सकते। 373 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 कीर्तन की कला खो गई, क्योंकि हम अति बुद्धिमान हो गए हैं। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है । जिन मित्र ने पूछा है, बुद्धिमान आदमी हैं। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। इसलिए वे कहते हैं, गीता के संबंध में कुछ नहीं पूछना है। क्योंकि गीता तो बुद्धिमानी खुद ही समझ लेगी । कीर्तन से अड़चन है। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। बुद्धिमानी का काम संसार है। यहां तो बुद्धि छोड़कर, बुद्धि फेंककर कोई प्रवेश करता है। और ये जो मैं इतनी बातें आपसे बुद्धि की कर रहा हूं, सिर्फ इसी आशा में कि किसी दिन आप ऊब जाएंगे इस बुद्धि से। इसे छोड़कर, उतारकर, बाहर इसके निकलने की कोशिश करेंगे। अगर बुद्धिमानी से इतनी बात भी समझ में आ जाए कि बुद्धि काफी नहीं है, तो बस, बुद्धि का काम पूरा हो गया। अगर बुद्धिमानी इतना समझा दे कि इसको छोड़कर पार जाना है, कहीं दूर, इससे हटना है, इसके बंधन और सीमाओं के पार, तो बुद्धिमानी का काम पूरा हो गया । बुद्धिमान आदमी हम उसको कहते हैं, जो बुद्धिमानी को छोड़ने की भी क्षमता रखता है। यह कीर्तन तो बुद्धि को छोड़ने की बात है। वह अर्जुन कह रहा है कि आज मैं समझ पाता हूं कि आपके प्रभाव से, आपके प्रभाव के कीर्तन से जगत हर्षित होता है, अनुराग भर जाता है । पर कोई हैं, जो घबड़ाते हैं, भागते हैं, भयभीत होते हैं । और देखता हूं कि सिद्धों के समुदाय भी कंपित आपको नमस्कार कर रहे हैं। हे महात्मन्! ब्रह्मा के भी आदि कर्ता और सबसे बड़े आपके लिए वे कैसे नमस्कार न करें! क्योंकि हे अनंत, हे देवेश, हे जगन्निवास, जो सत असत और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानंदघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं। और हे प्रभु, आप आदि देव और सनातन पुरुष हैं, और आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं । हे अनंत रूप, आपसे यह सब जगत व्याप्त और परिपूर्ण है। और आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा तथा प्रजा के स्वामी ब्रह्मा, ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिए हजारों हजारों बार नमस्कार। आपके लिए बार-बार नमस्कार । और अनंत सामर्थ्य वाले, आपके लिए आगे से, पीछे से, नमस्कार । हे सर्वात्मन्! आपके लिए सब ओर से नमस्कार होवे। क्योंकि अनंत पराक्रमशाली, आप, संसार को बार, सब तरफ व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं। ये सारे वचन परमात्मा के प्रति एक धन्यभाव के वचन हैं, एक अहोभाव । अर्जुन भयभीत हुआ है, लेकिन धन्यभागी भी हुआ है। यह अनूठा, अद्वितीय अवसर उसे मिला है कि एक झलक उसे मिली | है विराट में, जहां सब सीमाएं टूट जाती हैं। जहां जानने वाला और जाना जाने वाला एक हो जाते हैं। और जहां सृष्टि और सृष्टि का निर्माता, वे भी पीछे छूट जाते हैं। और मूल आश्रय और परमधाम का अनुभव होता है। वह धन्यभागी हुआ है। वह अपने धन्यभाग को प्रकट कर रहा है। उसकी वाणी बड़ी अजीब-सी लगेगी। वह कहता है, नमस्कार, बार-बार नमस्कार, हजार बार नमस्कार। आगे से नमस्कार, पीछे से नमस्कार। लगेगा, क्या कह रहा है यह! नमस्कार तो एक दफा कहने से भी काम चल जाएगा। लेकिन उसका मन नहीं भरता है। वह सब तरफ से नमस्कार कर रहा है, फिर भी उसे लगता है कि जो मुझे मिला है, उसका अनुग्रह मैं मान भी न पाऊंगा। उससे उऋण होने की तो कोई व्यवस्था नहीं है, उसका अनुग्रह भी न मान पाऊंगा। कहा जाता है, कठिन है पिता के ऋण से मुक्त होना, कठिन है मां के ऋण से मुक्त होना। लेकिन असंभव नहीं। गुरु के ऋण से मुक्त होना असंभव है । और गुरु के ऋण से मुक्त होने का कोई | उपाय नहीं है। क्योंकि जो अनुभव गुरु के माध्यम से उपलब्ध होता है, यह जो कृष्ण के माध्यम से अर्जुन को हुआ, अब इस अनुभव के लिए कोई भी तो मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। कुछ भी नहीं दिया जा सकता। सच तो यह है कि देने वाला भी कहां बचा अब ? क्या दे ? अब जो भी दे, सब छोटा है, व्यर्थ है। सिर्फ नमस्कार रह जाता है, सिर्फ नमन रह जाता है। गुरु का हमने जो इतना आदर किया है, वह किसी और कारण से नहीं। क्योंकि कुछ और करने का उपाय ही नहीं है। उसे हम कुछ | दे भी नहीं सकते। कुछ दें, तो व्यर्थ है। जो हम देंगे, वह संसार का कुछ हिस्सा होगा। और वह हमें संसार के पार ले गया। उस संसार के पार ले जाने वाले अनुभव के लिए संसार का कुछ भी दें, पूरा संसार भी दें, तो बेमानी है। अब हम क्या कर सकते हैं? सिर्फ एक अनुग्रह का भाव रह जाता है। 374 इसलिए अर्जुन कह रहा है, नमस्कार, नमस्कार, हजार बार नमस्कार ! कई बहाने खोज रहा है कि आप देवों के देव, आप परमात्मा, आप ब्रह्मा के भी पिता! Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेशर्त स्वीकार वह कुछ भी कह रहा है। वह बच्चों जैसी बात है। वह जो कुछ भी कह रहा है, एक ही बात है। वह हर तरफ से कोशिश कर रहा है कि आपको मैं नमस्कार कर सकूं। उस विराट के सामने हमारे पास नमन के सिवाय और नहीं है, झुक जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है । एक बहुत मजे की बात है कि सिर्फ भारत अकेला मुल्क है, जहां गुरु के चरणों में झुकने की लंबी धारा है। और अगर कहीं भी यह बात गई है, तो वह भारत से गई है। दुनिया में कहीं भी गुरु के चरणों में सिर रखकर अपने को सब भांति समर्पित करने की कोई धारणा नहीं है। कुछ भी इसलिए पश्चिम से जब लोग आते हैं, तो उन्हें जो सबसे मुश्किल बात खटकती है, वह गुरु के प्रति इतनी अनन्य श्रद्धा खटकती है। इतनी श्रद्धा उनको अंधापन मालूम पड़ती है। और उनका मालूम पड़ना ठीक ही है। क्योंकि किसी के चरणों में सिर रखना, और किसी के प्रति इस तरह सब समर्पित कर देना, अजीब-सा मालूम पड़ता है और लगता है, यह तो एक तरह की मानव- प्रतिष्ठा हो गई ! यह तो मनुष्य की पूजा हो गई ! और उनका लगना ठीक है, क्योंकि उन्हें जो दिखाई पड़ रहा है, वह मनुष्य ही है। लेकिन अगर किसी शिष्य को विराट की थोड़ी-सी भी किरण मिली हो किसी के द्वारा, तो अब वह क्या करे? वह कहां जाए ? वह कैसे अपने भार को हल्का करे? उसके पास एक ही उपाय है कि वह सब तरह से झुक जाए। और यह झुकना बड़ा अदभुत है। यह झुकना दोहरे अर्थों में अदभुत है। जो मिला है, उसका अनुग्रह इससे प्रकट होता है। और इस झुकने | में और मिलने की संभावना सघन हो जाती है। जो बिलकुल झुकना जानता है, उसे सब मिल जाएगा। यह सवाल नहीं है कि वह कहां झुकता है। झुकने की कला जिसे आती है ! हम तो, कई लोग ऐसे हैं, जो नदी में खड़े हैं, पैर पानी में डूबे हैं, लेकिन झुक नहीं सकते, इसलिए प्यासे मर रहे हैं। क्योंकि झुकें, चुल्लू बनाएं, पानी को भरें, तब प्यास बुझ सके। खड़े हैं नदी में, लेकिन अकड़े हैं। झुक नहीं सकते। वह घड़ा भी, जो पानी में जाए, नझुके, आड़ा न हो, तो भर नहीं सकता; अकड़ा रहे। हम नदी में खड़े हैं, परमात्मा चारों तरफ बह रहा है, मगर झुक नहीं सकते। कैसे झुकें ! वह जो झुकने का डर है, वह हमें अटका देता है। धर्म की खोज झुकने की कला है। और जो झुककर चुल्लू भर लेता है, फिर उसे पता चल गया रहस्य। फिर तो वह पूरा झुककर पानी में डुबकी भी मार ले सकता है। फिर तो वह जानता है कि अगर सिर को मैं बिलकुल झुका दूं और पानी के नीचे ले जाऊं, तो मैं पूरा ही नहा जाऊंगा। अर्जुन कह रहा है कि जो मैंने जाना, जाना कि तुम्हीं हो सब कुछ। इसलिए हम गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश, क्या-क्या नहीं कहते रहे हैं ! जिन्होंने कहा होगा, हमें लगता है, कैसे लोग रहे होंगे ! लेकिन जिन्होंने कहा है, उन्होंने किसी कारण से कहा है । अगर हम बिना कारण के कह रहे हैं, तो जरूर हमें अजीब-सी बात लगती है कि गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही सब कुछ ! यही अर्जुन कह रहा है कि तुम्हीं सब कुछ हो, परात्पर ब्रह्म तुम्हीं हो। उसने देखा। गुरु झरोखा बन गया। उसके द्वार से उसने पहली दफा झांका। सारी सीमाएं हट गईं; अनंत सामने आ गया। उस अनंत की छाया उस पर पड़ी। पहली दफा जो स्वप्न था, वह टूटा | और सत्य उदघाटित हुआ है। उसका अनुग्रह स्वाभाविक है। आज इतना ही। पांच मिनट रुकें । कीर्तन करें, और फिर जाएं। 375 Page #406 --------------------------------------------------------------------------  Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 नौवां प्रवचन चरण-स्पर्श का विज्ञान Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । जहां तक मांग है, वहां तक प्रभु से कोई संबंध स्थापित अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ।। ४१।। नहीं होता। प्रार्थना मांग नहीं है। ज्यादा उचित हो कि यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु । कहें, प्रार्थना धन्यवाद है, मांग नहीं। जो नहीं मिला है, एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये उसकी मांग नहीं है प्रार्थना; जो मिला है, उसके अनुग्रह का त्वामहमप्रमेयम् ।। ४२।। धन्यवाद है, बैंक्स गिविंग है। पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुगरीयान् । __कुछ मांगें मत। आपकी मांग ही आपके और परमात्मा के बीच न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो में बाधा बन जाएगी। क्योंकि जब भी हम कुछ मांगते हैं तो उसका लोकत्रयेऽप्यप्रतिम्प्रभाव ।। ४३ ।। अर्थ क्या होता है? उसका अर्थ होता है, जो हम मांग रहे हैं, वह तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् । परमात्मा से भी बड़ा है। पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायाहसि देव एक आदमी परमात्मा से धन मांग रहा है। उसका अर्थ हुआ कि सोढ़म।। ४४।। लक्ष्य धन है; परमात्मा तो केवल साधन है। एक आदमी सुख मांग हे परमेश्वर, सखा ऐसे मानकर आपके इस प्रभाव को न रहा है। उसका अर्थ हुआ कि सुख बड़ा है। परमात्मा से मिल जानते हुए, मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी, हे कृष्ण, हे | | सकता है, इसलिए परमात्मा से मांग रहे हैं। लेकिन परमात्मा केवल यादव, हे सखे, इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है; | माध्यम हो गया; परमात्मा केवल साधन हो गया। हम परमात्मा से और हे अच्युत, जो आप हंसी के लिए विहार, शय्या, आसन भी सेवा ले रहे हैं। और भोजनादिकों में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने | जब भी हम कुछ मांगते हैं, तो जो मांगते हैं, वह महत्वपूर्ण है। भी अपमानित किए गए हैं, वे सब अपराध, अप्रमेयस्वरूप | जिससे हम मांगते हैं, वह महत्वपूर्ण नहीं है। वह अगर महत्वपूर्ण अर्थात अचिंत्य प्रभाव वाले, आपसे मैं क्षमा कराता हूं। | मालूम होता है, तो सिर्फ इसीलिए कि जो हम चाहते हैं, वह उससे हे विश्वेश्वर, आप इस चराचर जगत के पिता और गुरु से | मिल सकता है। लेकिन उसका महत्व द्वितीय है, दोयम है, नंबर भी बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अतिशय प्रभाव वाले, दो है। तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, तो परमात्मा से कुछ भी मांगा नहीं जा सकता। और जो मांगते फिर अधिक कैसे होवे। हैं, उनका परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। परमात्मा को तो, जो इससे हे प्रभो, मैं शरीर को अच्छी प्रकार चरणों में रखकर | मिला है, उसके लिए धन्यवाद दिया जा सकता है। और जो मिला और प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न | है, वह बहुत है, असीम है। होने के लिए प्रार्थना करता हूं। हे देव, पिता जैसे पुत्र के __लेकिन जो मिला है, उसके लिए हम धन्यवाद नहीं देते। जो नहीं और सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रिय स्त्री के, वैसे मिला है, उसके लिए हम मांग करते हैं, शिकायत करते हैं। अभाव ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने के लिए योग्य हैं। ही हमारा मन देखता है। जो हमारे पास है, जो हमें मिला है, अकारण! जीवन, अस्तित्व, जो खिलावट हमें मिली है, उसके लिए कोई अनुग्रह नहीं है। एक मित्र ने पूछा है, प्रभु से प्रार्थना करते हैं, तो कहते | प्रार्थना अनुग्रह का भाव है। हैं कि सारे दुख मेरे मिटा दे, सुख ही सुख शेष रह | ऐसा हुआ कि रामकृष्ण के पास जब विवेकानंद आए, तो उनके जाएं। और आपने कहा कि सुख और दुख एक ही घर की हालत बड़ी बुरी थी। पिता मर गए थे। और पिता मौजी सिक्के के दो पहलू हैं। तो प्रभु से हम क्या मांगें? | आदमी थे, तो कोई संपत्ति तो छोड़ नहीं गए थे, उलटा कर्ज छोड़ क्या प्रार्थना करें? | गए थे। और विवेकानंद को कुछ भी न सूझता था कि कर्ज कैसे चुके। घर में खाने को रोटी भी नहीं थी। और ऐसा अक्सर हो जाता | था कि घर में इतना थोड़ा-बहुत अन्न जुट पाता, कि मां और बेटे | 378 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-स्पर्श का विज्ञान* दोनों थे, तो एक का ही भोजन हो सकता था। मांगने वाला। अन्यथा हम प्रार्थना ही नहीं करते। जब मांगना होता तो विवेकानंद मां को कहकर कि मैं आज घर भोजन नहीं लूंगा, | | है, तभी प्रार्थना करते हैं। जब नहीं मांगना होता, तो प्रार्थना भी खो किसी मित्र के घर निमंत्रण है, मां भोजन कर ले, इसलिए घर से जाती है। हमारी सारी प्रार्थना भिक्षु की, मांगने वाले की प्रार्थना है। बाहर चले जाते। कहीं भी गली-कूचों में चक्कर लगाकर-कोई हम भिक्षा-पात्र लेकर ही परमात्मा के सामने खड़े होते हैं। यह ढंग मित्र का निमंत्रण नहीं होता-वापस खुशी लौट आते कि बहुत उचित नहीं है। यह प्रार्थना का ढंग ही नहीं है। फिर प्रार्थना क्या है ? अच्छा भोजन मिला, ताकि मां भोजन कर ले। साधारणतः लोग समझते हैं कि प्रार्थना कुछ करने की चीज रामकृष्ण को पता लगा तो उन्होंने कहा, तू भी पागल है। तू है कि आपने जाकर स्तुति की, कि गुणगान किया, कि भगवान जाकर मां से क्यों नहीं मांग लेता! तू रोज यहां आता है। जा मंदिर की बड़ी प्रशंसा की-कुछ करने की चीज है। प्रार्थना न तो मांग है में और मां से मांग ले, क्या तुझे चाहिए। रामकृष्ण ने कहा तो और न कुछ करने की चीज है। प्रार्थना एक मनोदशा है। विवेकानंद को जाना पड़ा। रामकृष्ण बाहर बैठे रहे। आधी घड़ी | | उचित होगा कहना कि प्रार्थना की नहीं जाती, आप प्रार्थना में हो बीती। एक घड़ी बीती। घंटा बीतने लगा। तब उन्होंने भीतर | | सकते हैं। यू कैन नाट डू प्रेयर, यू कैन बी इन इट। प्रार्थना में हो झांककर देखा। विवेकानंद आंख बंद किए खड़े हैं। आंख से आनंद सकते हैं, प्रार्थना की नहीं जा सकती। वह कोई कृत्य नहीं है कि के आंसू बह रहे हैं। सारे शरीर में रोमांच है। आपने कुछ किया-घंटा बजाया, नाम लिया। वे सब बाह्य फिर जब विवेकानंद बाहर आए, तो रामकृष्ण ने कहा, मांग उपकरण हैं। प्रार्थना भीतर की एक मनोदशा है; एस्टेट आफ माइंड। लिया मां से? विवेकानंद ने कहा, वह तो मैं भूल ही गया। जो मिला दो तरह की मनोदशाएं हैं। मांग, डिजायर, वासना। वासना है, वह इतना ज्यादा है कि मैं तो सिर्फ अनुग्रह के आनंद में डूब कहती है, यह चाहिए। मन की एक दशा है कि यह चाहिए, यह गया। अब दोबारा जब जाऊंगा, तब मांग लूंगा। चाहिए, यह चाहिए। चौबीस घंटे हम वासना में हैं, यह चाहिए, दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे दिन भी यही हुआ। रामकृष्ण ने | यह चाहिए, यह चाहिए। एक क्षण ऐसा नहीं है, जब वासना न हो। कहा, पागल, तू मांगता क्यों नहीं है? तो विवेकानंद ने कहा कि कुछ न कुछ चाहिए। चाह धुएं की तरह चारों तरफ घेरे रहती है। आप नाहक ही मेरी परीक्षा ले रहे हैं। भीतर जाता हूं, तो यह भूल __एक स्थिति है, वासना। अगर आप मांग लेकर प्रार्थना कर रहे ही जाता हूं कि वे क्षुद्र जरूरतें, जो मुझे घेरे हैं, वे भी हैं, उनका कोई | | हैं, तो वासना ही बनी हुई है, स्थिति बदली ही नहीं। वहां आप फिर अस्तित्व है। जब मां के सामने होता है, तो विराट के सामने होता | | कुछ मांग रहे हैं। बाजार में कुछ मांग रहे थे। पत्नी से कुछ मांग रहे हूं, तो क्षुद्र की सारी बात भूल जाती है। यह मुझसे नहीं हो सकेगा। | थे। पति से कुछ मांग रहे थे। बेटे से, बाप से कुछ मांग रहे थे। रामकृष्ण ने अपने शिष्यों को कहा कि इसीलिए इसे भेजता था, | समाज से कुछ मांग रहे थे। राज्य से कुछ मांग रहे थे। संसार से कि अगर इसकी प्रार्थना अभी भी मांग बन सकती है, तो इसे प्रार्थना कुछ मांग रहे थे। अब परमात्मा से मांग रहे हैं। जिससे मांग रहे थे, की कला नहीं आई। अगर यह अब भी मांग सकता है प्रार्थना के | | वह बदल गया, लेकिन मांगने वाला मन, वह भिखारी वासना क्षण में, तो इसका मन संसार में ही उलझा है, परमात्मा की तरफ | मौजूद है। कभी इससे मांगा, कभी उससे मांगा। जब कहीं भी न उठा नहीं है। | मिल सका, तो लोग भगवान से मांगने लगते हैं। सोचते हैं, जो आप पूछते हैं कि क्या मांगें? कहीं नहीं मिला, वह भगवान से मिल जाएगा! मांगते लेकिन जरूर मांगें मत। मांग संसार है। और जो मांगना छोड़ देता है, वही | | हैं। यह वासना है। केवल परमात्मा में प्रवेश करता है। तो कुछ भी न मांगें। सुख नहीं, | प्रार्थना बिलकुल उलटी अवस्था है। वासना है दौड़, कुछ जो कुछ भी मत मांगें। मोक्ष भी मत मांगें, मुक्ति भी मत मांगें। क्योंकि | | नहीं है, उसके लिए। प्रार्थना, जो है, उसका आनंदभाव। प्रार्थना है मांग ही उपद्रव है। मांग ही बाधा है। वह जो मांगने वाला मन है, | ठहर जाना, वासना है दौड़। वासना है भविष्य में, प्रार्थना है अभी वह प्रार्थना में हो ही नहीं पाता। और यहीं। प्रार्थनापूर्ण चित्त का अर्थ है, मिट गया अतीत, मिट गया साधारणतः हमने सारी प्रार्थना को मांग बना लिया है। मांगना | भविष्य; यह क्षण सब कुछ है। चाहते हैं, तभी हम प्रार्थना करते हैं। प्रार्थी का मतलब ही हो गया | खड़े हैं परमात्मा की प्रतिमा के सामने। और यह प्रतिमा कहीं भी 379 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 हो सकती है। एक वृक्ष में हो सकती है। एक नदी में हो सकती है। एक व्यक्ति में हो सकती है। आपके बेटे की आंखों में हो सकती है। आपकी पत्नी की आंखों में हो सकती है। पत्थर में हो सकती है। आकार में, निराकार में, कहीं भी हो सकती है। जहां भी आप ऐसा क्षण खोज लें कि आपमें अब कोई दौड़ नहीं है मन की, मन ठहर गया है, जैसे धारा रुक गई हो और कोई गति नहीं है। इस क्षण में जो आनंदभाव उत्पन्न हो जाता है, और जो थिरक फैल जाती है; इस क्षण में जो पुलकित हो उठते हैं प्राण के कण-कण; भीतर तक, केंद्र तक, जो भनक सुनाई पड़ने लगती है अनंत के स्वर की, वह प्रार्थना है। इस प्रार्थना से भी नृत्य पैदा हो जाता है। क्योंकि जब प्राण आनंदित होते हैं, तो पैर भी नाचने लगते हैं। इस आनंद से स्वर भी फूट पड़ता है। जब भीतर की वीणा बजती है, तो गीत भी फूट पड़ता है। यहीं फर्क है। आप भी जाकर मंदिर में गीत गा सकते हैं मीरा का। लेकिन आप गा रहे हैं कुछ पाने लिए। मीरा ने भी गाया था। गाया था, कुछ भीतर मिल गया था, उसकी भनक शरीर तक दौड़ गई। मीरा नाचने लगी, गाने लगी। इस गाने और नाचने में प्रार्थना नहीं है। ये तो प्रार्थना के परिणाम हैं। यह तो प्रार्थना की बाइ-प्रोडक्ट है। यह तो जैसे गेहूं उगता है, उसके साथ भूसा भी उग आता है। जब भीतर प्रार्थना होती है, तो यह आनंद बाहर भी प्रकट होने लगता है। पर हम तो मीरा को बाहर से देखते हैं, तो हमें लगता है, मीरा गीत गा रही है, नाच रही है। शायद हम भी नाचें और गीत गाएं ऐसा ही, तो जो मीरा को भीतर हुआ, वह हमें भी हो जाए। यहीं तर्क की भूल हो जाती है । यहीं भूल हो जाती है। मीरा को जो भीतर हो रहा है, उसके कारण नृत्य पैदा हो रहा है। नृत्य के कारण भीतर कुछ होता होता, तो सभी नर्तकियां मीरा हो जातीं। और गीत के कारण अगर कुछ भीतर होता होता, तो सभी गायक कभी के वहां पहुंच गए होते। आप कितना अच्छा गा पाएंगे? कुशल गायक हैं; उनसे आप क्या जीत पाएंगे? कुशल नर्तक हैं; आप क्या नाच पाएंगे? नहीं; मीरा को जो हुआ है, यह गान में और नृत्य में तो उसकी प्रतिध्वनि भर सुनाई पड़ रही है। वह जो हुआ है, वह इसके बाहर है । इसलिए जरूरी नहीं है कि गान और नृत्य पैदा हो ही। क्योंकि महावीर को हमने नाचते नहीं देखा। बुद्ध को हमने गाते नहीं देखा। तो कोई ऐसा भी जरूरी नहीं है कि वह धुन बाहर इस भांति आए। 380 वह अनेक रूपों में आ सकती है, व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करेगी। बुद्ध के बाहर वह नाचकर नहीं आती। बुद्ध के बाहर वह प्रशांत, घनी शांति बनकर आती है। बुद्ध का व्यक्तित्व अलग है। भीतर तो वही घटता है, जो मीरा को घटता है। भीतर बुद्ध के भी वही घटता है। लेकिन मीरा स्त्री है। और मीरा के पैरों में जो है, वह बुद्ध के पैरों में नहीं है; और मीरा की वाणी में जो है, वह बुद्ध की वाणी में नहीं है। बुद्ध का व्यक्तित्व और है। तो वही घटना भीतर घटती है, लेकिन जिससे छनकर आती है, वह व्यक्तित्व अलग है। तो बुद्ध के बाहर वह प्रगाढ़ शांति हो जाती है । जिसने बुद्ध को देखा है, वह सोच ही नहीं सकता कि वह परम अनुभव नृत्य कैसे बनेगा ! क्योंकि बुद्ध को तो देखा है, तो वे बिलकुल शांत हो गए हैं। कुछ भी कंपन नहीं होता बाहर । पत्थर की मूर्ति हो गए। जिन्होंने मीरा को देखा है, वे भरोसा नहीं कर सकते कि शांत! इस तरह की शांत स्थिति कैसे बनेगी? क्योंकि मीरा को हमने बावली होते देखा, पागल होते देखा। उसका शरीर नृत्य से भर गया। ये व्यक्तियों के भेद हैं। लेकिन आप चाहें तो बुद्ध जैसे मूर्ति बनकर भी बैठ जा सकते हैं; तो भी भीतर की घटना नहीं घटेगी। क्योंकि भीतर की घटना प्राथमिक है; बाहर जो घटता है, वह गौण है। वह उसका परिणाम है । वह उसका फल है। बाहर से भीतर की तरफ जाने का कोई उपाय नहीं है। भीतर से ही बाहर की तरफ आने का उपाय है। प्रार्थना, ठहरा हुआ क्षण है मन का। वासना, भागता हुआ क्षण मन का । वासना है दौड़; प्रार्थना है ठहराव अगर आप विश्राम के क्षण में किसी वृक्ष के पास बैठ गए, तो वह वृक्ष आपके लिए थोड़ी देर में परमात्मा हो जाएगा। जहां भी हम विश्राम के क्षण में हो जाते हैं, वहीं परमात्मा प्रकट हो जाता है। एक और मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, राम, ये भगवान थे। ये भगवान नहीं थे। क्योंकि भगवान तो निराकार है और ये सब तो साकार थे! तो हो सकता है, उनको भगवान की अनुभूति हुई हो, लेकिन वे भगवान नहीं थे । 'कार क्या है? किसे हम आकार कहते हैं? इस जगत आ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-स्पर्श का विज्ञान कुछ भी है जो साकार है ? इस जगत में सभी कुछ निराकार है। लेकिन हमारे पास देखने वाली आंखें सीमित हैं। इसलिए निराकार भी हमें आकार ही दिखाई पड़ता है। आप अपनी खिड़की से आकाश को देखते हैं, तो खिड़की के बराबर चौखटे में ही आकाश दिखाई पड़ता है। आप अपने नीले चश्मे से जगत को देखते हैं, तो जगत नीला दिखाई पड़ता है। आपकी देखने की क्षमता के कारण आकार निर्मित होता है, अन्यथा आकार कहीं भी नहीं है। आप कहेंगे, यह तो बात कुछ जंचती नहीं। हमारे शरीर का तो कम से कम आकार है! वहां भी आकार नहीं है। कहां आपका शरीर समाप्त होता है, आपको पता है? अगर सूरज ठंडा हो जाए - दस करोड़ मील दूर है - अगर ठंडा हो जाए, तो आपके शरीर का आपको पता है क्या होगा? उसी वक्त ठंडा हो जाएगा। तो आपका शरीर आपकी चमड़ी पर नहीं समाप्त होता । वह दस करोड़ मील दूर जो सूरज है, वह भी आपके शरीर का हिस्सा है। क्योंकि उसके बिना आप जी नहीं सकते। वह जो दस करोड़ मील दूर सूरज है, वह भी आपके शरीर का हिस्सा है, क्योंकि आपका शरीर उसके बिना जी नहीं सकता। शरीर जुड़ा है उससे । कहां आपका शरीर खत्म होता है? आपके ऊपर? अगर आपके पिता न होते, तो आप हो सकते थे ? पीछे लौटें! तब आपको पता चलेगा, अरबों-खरबों वर्षों का जो इतिहास है, उससे आपका शरीर निर्मित हुआ है। करोड़ों-करोड़ों वर्ष से जीवाणु चल रहा है, वह आपका शरीर बना है। अगर उस श्रृंखला में एक जीवाणु अलग हो जाए, तो आप नहीं होंगे। तो समय में पूरा इतिहास आपमें समाया हुआ है। अभी इस क्षण सारा जगत आपमें समाया हुआ है। अगर इस जगत में जरा भी फर्क हो जाए, आप नहीं होंगे। तो आपका शरीर अनंत- अनंत शक्तियों का एक मेल है। आपको जितना दिखाई पड़ता है, उसको आप शरीर मान लेते हैं। और अगर यह सच है कि अनंत इतिहास आपमें समाया हुआ है, तो अनंत भविष्य भी आपमें समाया हुआ है। वह आपसे ही पैदा होगा। आप कहां शुरू होते हैं? कहां समाप्त होते हैं? आपने अपने जन्म दिन को अपना जन्म-दिन समझ लिया है, यह आपकी समझ की सीमा है। कब आप पैदा हुए? आपका जीवाणु चल रहा है अरबों-अरबों खरबों वर्षों से। जब आप पैदा नहीं हुए थे, तब वह आपकी मां में था, आपके पिता में था । और जब आपके मां-बाप भी पैदा नहीं हुए थे, तब वह किसी और में था। लेकिन वह चल रहा है। आप थे अनंत काल से । और आप जब नहीं होंगे, तब भी वह चलता रहेगा अनंत काल तक । कहां आपका शरीर समाप्त होता है? कहां शुरू होता है? कहां है सीमा उसकी ? अभी इस क्षण में भी कहां है उसकी सीमा ? किस | जगह हम मानें कि यहां मेरा शरीर समाप्त हुआ ? सूरज को हम अपने शरीर का हिस्सा मानें या न मानें? यह बड़ा सवाल है। वैज्ञानिक पूछते हैं कि इसमें कहां हम समाप्त करें शरीर को ? वहां सूरज पर जरा-सी हलचल होती है और आपमें फर्क हो जाता है। आपको पता नहीं है। पिछले बीस वर्षों में सूरज और आदमी के शरीर पर गहन अध्ययन हुए हैं। अमेरिका के एक रुग्ण चिकित्सालय में, बड़े हैरान थे कि किसी-किसी दिन विक्षिप्त लोगों का जो हिस्सा था, उसमें | किसी-किसी दिन पागल ज्यादा पागल मालूम पड़ते थे। और | कभी-कभी बहुत शांत मालूम पड़ते थे और कभी-कभी बहुत पागल मालूम पड़ते थे। और जब यह पागलपन का दौर आता था, तो किसी एक पागल को नहीं आता था, यह सारे पागलों को आता | था । ऐसा लगता था कि एक पीरियाडिकल सर्किल है। जैसे समुद्र में बाढ़ आती है, उतर जाती है; ज्वार चढ़ता है, भाटा आ जाता है। तो तीन वर्ष तक निरंतर उन पागलों के रिकार्ड को रखा गया कि किस दिन, कब, क्यों? कोई कारण नहीं मिलता था। क्योंकि भोजन में कोई फर्क पड़ा ? नहीं पड़ा। कोई अधिकारी बदले गए? नहीं बदले गए। कोई चिकित्सा बदली गई ? नहीं बदली गई। कोई फर्क नहीं है। जैसी व्यवस्था है, रूटीन, वैसा सब चल रहा है। अचानक एक दिन सारे पागल ज्यादा पागल हो जाते हैं। एक दिन सारे पागल ज्यादा शांत हो जाते हैं। सब तरह की खोजबीन के बाद जो नतीजा हाथ में आया, वह यह कि सूरज से संबंध है। सूरज पर तूफान जब उठते हैं, तब वे | पागल ज्यादा पागल हो जाते हैं। और जब सूरज का तूफान शांत हो जाता है, तो वे पागल शांत हो जाते हैं। और अब तो एक पूरा विज्ञान खड़ा हो रहा है कि सूरज पर जो कुछ घटता है, उसका ठीक अध्ययन किए बिना, आदमी के जीवन | में क्या घटता है, नहीं कहा जा सकता। हर नब्बे साल में सूरज पर बड़ी क्रांति घटित होती है। और जमीन पर जो भी उपद्रव होते हैं, वे हर नब्बे साल के पीरियड में होते हैं। हर ग्यारह साल में सूरज 381 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-568 पर छोटा तूफान आता है। जमीन पर जो युद्ध होते हैं, उनका | अभी भी हैं। नहीं तो अभी तक तिरोहित हो गए होते। अगर पहचान पीरियाडिकल जो वर्तुल है, वह ग्यारह साल है। गए होते, तो वह रास्ता आपको दिख गया होता, तो आप अभी तक अमेरिका में ऐसा अध्ययन हो, तो समझ में आता है। रूस में | वाष्पीभूत होकर दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते। हम हैं इसलिए, भी इस तरफ अध्ययन हुए हैं। और रूस के मनोवैज्ञानिक और | | तभी तक हम हैं, जब तक हम नहीं पहचान पाते, जब तक हमें नहीं वैज्ञानिक भी चकित हो गए हैं। और रूस में तो मानना बहुत | दिखाई पड़ पाता। मुश्किल है कि उन्नीस सौ सत्रह की जो क्रांति है, वह लेनिन, एक व्यक्ति में भी हमें झलक मिल जाए विराट की, तो फिर सब ट्राटस्की और कम्यूनिज्म के कारण नहीं हुई, बल्कि चांद या सूरज | | में मिलने लगेगी। वह तो शुरुआत है। कोई राम और कृष्ण अंत पर कोई उपद्रव हुआ, उसके कारण हुई। थोड़े ही हैं, शुरुआत हैं। उनमें दिखाई पड़ जाए, तो फिर कहीं भी पर रूस भी क्या करे! आज का सारा अध्ययन यह बता रहा है | | दिखाई पड़ने लगेगी। फिर हमारा अनुभव हो गया। कि सूरज पर जो भी घटित होता है, आदमी उससे तत्क्षण प्रभावित | | इसलिए हमने पत्थर की भी मूर्तियां बनाईं। जिन्होंने पत्थर की होता है। तत्क्षण! और आदमी के जगत में जो भी घटित होता है, | । मूर्तियां बनाईं, बड़े होशियार लोग थे। क्योंकि उन्हें एक दफा दिखाई वह सूरज से, तारों से जुड़ा है। | पड़ गया, तो फिर पत्थर में भी दिखाई पड़ने लगा। एक दफा दिखाई कहां आप समाप्त होते हैं? कहां आपकी सीमा है? | पड़ जाए, तो कहीं भी दिखाई पड़ेगा। फिर पत्थर में भी वही दिखाई आपकी भी सीमा नहीं है। राम की तो फिक्र छोड़ें, कृष्ण की तो | | पड़ेगा। फिर कोई कारण नहीं है। फिर कहीं कोई बाधा नहीं है। फिर फिक्र छोड़ें। आप भी असीम हैं। यहां प्रत्येक बिंदु विराट है। और | | कोई रुकावट रोक नहीं सकती। जो मुझे दिख गया एक दफा, वह यहां प्रत्येक बूंद सागर है। हमें बूंद दिखाई पड़ती है, क्योंकि देखने | | फिर मैं कहीं भी देख लूंगा। की हमारी क्षमता सीमित है। लेकिन देखने के लिए बड़ी बात यह नहीं है कि राम भगवान हैं तो जैसे-जैसे क्षमता बढ़ती है. वैसे-वैसे आकार छटने लगता| या नहीं। यह बड़ा सवाल नहीं है। यह असंगत है। बड़ा सवाल यह है और निराकार दिखाई पड़ने लगता है। जैसे-जैसे क्षमता विराट है कि मेरे पास भगवान को देखने की आंख है या नहीं! होने लगती है, बड़ी होने लगती है, विराट प्रकट होने लगता है। | बुद्ध के पिछले जन्म की घटना है कि बुद्ध पिछले जन्म में, जब जिस दिन हमारे पास देखने का कोई ढांचा नहीं रह जाता, दृष्टि पूरी वे अज्ञानी थे और बुद्ध नहीं हुए थे...। अज्ञान का एक ही मतलब मुक्त और शून्य हो जाती है, उस दिन हम विराट के सामने खड़े हो | | है हमारे मुल्क में कि जब तक उनको पता नहीं चला था कि मैं जाते हैं। | भगवान हूं। जब तक वे जानते थे कि मैं आदमी हूं। तब जब वे राम को आप देखते, तो आप तो आदमी ही कहते। क्योंकि आप अज्ञानी थे, उनके गांव में एक बुद्धपुरुष का आगमन हुआ। तो बुद्ध आदमी के सिवाय राम में भी कुछ नहीं देख सकते हैं। आप कृष्ण उनका दर्शन करने गए। उनके चरणों में गिरकर नमस्कार किया। को देखते, तो उनको भी आदमी कहते। क्योंकि आपके देखने का और जब वे नमस्कार करके खड़े हुए, तो बहुत चकित हो गए। ढंग! लेकिन कुछ और तरह के देखने वाले लोग भी हैं। उन्होंने कृष्ण समझ में नहीं पड़ा कि क्या हो गया! वे जो बुद्धपुरुष थे, उन्होंने में देख लिया भगवान को, उन्होंने राम में देख लिया भगवान को। बुद्ध के चरणों में सिर रखकर नमस्कार किया। __लोग मुझसे पूछते हैं कि राम हुए, कृष्ण हुए, बुद्ध, महावीर हुए, | तो बुद्ध बहुत घबड़ा गए और उन्होंने कहा, आप यह क्या करते जीसस हुए, लाओत्से हुए, ये सब बहुत पहले हुए, अब क्यों नहीं | हैं! इससे मुझे पाप लगेगा। मैं आपके पैर छुऊं, यह उचित है। होते हैं? क्योंकि आप पा चुके हैं, मैं अभी भटक रहा हूं। आप मंजिल हैं, __ अब भी होते हैं। लेकिन पहले उन्हें पहचानने वाले ज्यादा लोग | मैं अभी रास्ता हूं। मैं आपके चरणों में झकं, यह ठीक है। अभी मेरी थे, अब उन्हें पहचानने वाले कम लोग हैं। बस, उतना ही फर्क है। खोज बाकी है, आपकी खोज पूरी हो गई। आप क्यों मेरे चरणों में और आप इस फिक्र में न पड़ें। अगर आप बुद्ध के समय भी होते, झुकते हो? तो आप बुद्ध को पहचान नहीं सकते थे। और आप थे। यह कहना । तो उन बुद्धपुरुष ने बुद्ध को कहा, तुझे वही दिखाई पड़ता है ठीक नहीं कि होते; आप थे। और नहीं पहचान पाए, इसीलिए आप अभी, जो तू देख सकता है। मैं तेरे भीतर उसको भी देखता हूं, जो | 382| Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 चरण-स्पर्श का विज्ञान तुझे दिखाई नहीं पड़ता है। मैंने जिसे पा लिया है, वह मुझे तेरे भीतर | तुम आ गए, तुम हल कर दो। तुम मेरे पैर पकड़ो और उस तरफ भी दिखाई पड़ता है। मैं तेरे चरण नहीं छू रहा हूं; मैं उसके चरण छू | कर दो, जहां वह न हो। रहा हूं। और एक दिन तुझे भी वह दिखाई पड़ जाएगा। यह समय कहानी बड़ी मीठी है। और यह कि पुजारियों ने उनके पैर सब का भर फासला है। चरणों में कोई फर्क नहीं है; समय भर का तरफ करने की कोशिश की और बड़ी मुश्किल में पड़ गए, जहां फासला है। जो आज तुझे दिखाई नहीं पड़ रहा है, मुझे दिखाई पड़ | | पैर किए, वहीं मक्का हट गया। मक्का हटा कि नहीं, यह बड़ा रहा है, वह कल तुझे भी दिखाई पड़ जाएगा। सवाल नहीं है। बड़ा सवाल यही है कि सच में ही कहां पैर करिएगा और जब बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो उन्होंने पहला स्मरण अपने जहां भगवान नहीं है! पिछले जन्म के उस बुद्धपुरुष का किया है। उन्होंने कहा कि आज नानक को अगर एक दफा दिखाई पड़ गया है उसका होना, तो मैं समझ पाया कि उन्हें क्या दिखाई पड़ा होगा। आज मुझे भी | अब कोई जगह नहीं है, जहां वह न हो। अब वह सब जगह है। दिखाई पड़ रहा है, लेकिन यह सदा मेरे साथ था और मुझे दिखाई | अब तो कहीं भी पैर करो, कहीं भी सिर रखो। पैर भी उस पर ही नहीं पड़ा। | पड़ेंगे, सिर भी उस पर पड़ेगा। उठो-बैठो तो उसके भीतर, चलो नजर न हो, तो आपके पास भी रखी हो संपदा, तो भी दिखाई | | तो उसके भीतर, अब वही है और कुछ भी नहीं है। नहीं पड़ सकती। अंधे के पास दीया जल रहा हो, क्या अर्थ है ? | देखने की क्षमता हो, नानक की आंख हो, तो फिर सब जगह और बहरे के पास वीणा बज रही हो, क्या अर्थ है? कोई अर्थ नहीं | | है। और हमारी आंख हो, तो फिर कहीं भी नहीं है। फिर हमको है। क्योंकि वह घटना घट ही नहीं रही है। जब तक आपके पास | चिंता इसकी भी होती है कि राम में भी शक होता है, बुद्ध में भी संवेदना की इंद्रिय न हो, तब तक कुछ भी नहीं है। शक होता है। अगर आपको भगवान दिखाई न पड़ता हो राम में, तो इसकी | और आप ऐसा मत समझना कि आपको ही शक होता है। उस फिक्र में मत पड़ना कि राम भगवान हैं या नहीं। इसका आपके पास | दिन भी जो लोग थे, उनको भी शक था। कोई सारे लोगों ने बद्ध निर्णय करने का कोई उपाय नहीं है। कोई मापदंड, कोई तराजू नहीं | | को मान लिया था, ऐसा नहीं है; कि सारे लोगों ने महावीर को मान है, जिस पर नाप सकें कि कौन आदमी भगवान है और कौन नहीं | | लिया था, ऐसा नहीं है; कि सारे लोगों ने कृष्ण को मान लिया था, है। इस फिक्र में भी मत पड़ना। यह व्यर्थ की कोशिश है। | ऐसा भी नहीं है। बहुत थोड़े से लोग पहचान पाते हैं। अगर आपको राम में, कृष्ण में, बुद्ध में, कहीं भगवान न दिखाई | ___ जो पहचान ले, वह धन्यभागी है। इस पहचानने से कोई कृष्ण पड़ते हों, तो आप इस फिक्र में पड़ना कि मेरे पास आंख भगवान को फायदा होता है, ऐसा नहीं है। इस पहचानने से, वह जो पहचान को देखने की है या नहीं! उसकी खोज में लग जाना। जिस दिन वह | लेता है, उसको ही फायदा हो जाता है। एक में भी दिख जाए, तो आंख आपके पास होगी, उस दिन राम में ही नहीं, रावण में भी देखने की कला आ जाती है, फिर सब में देखा जा सकता है। भगवान दिखाई पड़ेंगे। उस दिन फिर कोई जगह ही न बचेगी, जहां वे न हों। नानक गए मक्का, तो सो गए रात। थके थे। पुजारी बहुत चिंतित एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि कीर्तन के समय हम हुए, वे आए। क्योंकि नानक ने पैर कर लिए थे मक्का के पवित्र अपने मन के सामने कौन-सी छवि रखें, जिससे मन मंदिर की तरफ। तो उन पुजारियों ने कहा कि नासमझ, अपने को | | केंद्रित हो जाए? बड़ा ज्ञानी समझता है, और इतनी भी तुझे अक्ल नहीं कि पवित्र | मंदिर की तरफ पैर किए हुए है! तो नानक ने कहा कि तुम मेरे पैर वहां कर दो, जहां उसका पवित्र | न को केंद्रित नहीं करना है, मन को विसर्जित करना मंदिर न हो। मैं भी बड़ी चिंता में हूं। तुम आ गए, अच्छा हुआ। 01 है। इन दोनों में फर्क है। मैंने भी बहुत सोचा कि पैर कहां करूं, क्योंकि वह सब जगह मौजूद मन केंद्रित भी हो जाए, तो भी मन रहेगा। कोई छवि है। और कहीं तो पैर करूंगा! सोना है मुझे थका-मांदा हूं। अब | | मन में बना ली, तो छवि पर मन केंद्रित हो जाएगा। लेकिन छवि 383 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 रहेगी, मन भी रहेगा। दो बने रहेंगे। कीर्तन का अंतिम लक्ष्य, ध्यान का अंतिम लक्ष्य, प्रार्थना का, पूजा का अंतिम लक्ष्य - एक बच रहे, छवि कोई न रहे। तो जब आप कीर्तन कर रहे हैं, तो छवि की फिक्र न करें। छवि आ जाए, तो हटाने की भी फिक्र न करें। छवि न आए, तो लाने की भी फिक्र न करें। आप तो सिर्फ लीन होने की, डूबने की फिक्र करें। मिटने की फिक्र करें। जब आप एकाग्र करने की चेष्टा करते हैं, तो मन पर तनाव पड़ता है। तनाव बेचैनी पैदा करेगा। एकाग्र करने की चेष्टा ही मत करें । खोने की चेष्टा करें। जैसे बूंद सागर में डूब रही है, ऐसे आप विराट में डूब रहे हैं, निराकार में खो रहे हैं। जैसे दीए को कोई फूंककर बुझा दे और वह खो जाए शून्य में, ऐसे आप भी खो रहे हैं । लीन होने की चिंता करें, डूबने की चिंता करें, मिटने की चिंता करें। एकाग्र करने की चेष्टा मत करें, विसर्जित होने की, मेल्टिंग, जैसे बर्फ पिघल रही है। एक खयाल कर लें, जैसे बर्फ हो गए आप और पिघल रहे हैं, और बहते जा रहे हैं, और नदी में लीन होते जा रहे हैं। पिघलने की, खोकी, डूबने की ! अगर आपके कीर्तन में यह भाव - दशा बनी रहे, धीरे-धीरे नृत्य गहन होने लगेगा, धीरे-धीरे आवाज प्रगाढ़ होने लगेगी। और धीरे-धीरे नृत्य के साथ आपके भीतर बहुत कुछ टूटने लगेगा, समाप्त होने लगेगा। वह जो अहंकार था, वह गिरने लगेगा। कोई क्या कहेगा! कोई क्या सोचेगा ! मैं क्या पागलपन कर रहा हूं! वह सब समाप्त होने लगेगा। धीरे- धीरे-धीरे आप भूल जाएंगे कि आप हैं, भूल जाएंगे कि जगत है । और जब यह विस्मरण का क्षण आ किन समझ में आए कि मैं कौन हूं, न समझ में आए कि चारों तरफ कौन है, तो समझना कि यह स्मृति की शुरुआत हुई। इस विस्मरण में, जगत की तरफ से इस विस्मरण में भीतर का स्मरण आना शुरू हो जाता है। जब जगत भूलने लगता है, तो परमात्मा याद आने लगता है। परमात्मा के याद आने का मतलब यह नहीं है कि कोई छवि याद आने लगती है। परमात्मा के याद आने का मतलब यह है कि वह जो जिसको विलियम जेम्स ने ओशनिक फीलिंग कहा है, समुद्र होने की भाव- दशा । बूंद होने का भाव नहीं, समुद्र होने का भाव आने लगता है। फिर आप विराट हो जाते हैं । और फिर हवाएं चलती हैं, तो ऐसा नहीं कि आपके बाहर चल रही हैं, आपके भीतर चलती हैं। वृक्ष 384 हिलते हैं, तो आपके बाहर नहीं, आपके भीतर हिलते हैं। चांद-तारे आपके भीतर चलते हैं। आपके आस-पास जो लोग नाच रहे हैं और कीर्तन कर रहे हैं, वे भी आपके बाहर नहीं रह जाते, आपके भीतर प्रवेश हो जाते हैं। आप फैलकर बड़े हो जाते हैं। और आपके भीतर सब होने लगता है। छवि की बहुत फिक्र न करें। आ जाए, तो हटाने की भी चेष्टा मत करें। क्योंकि हटाने में भी फिर चेष्टा शुरू हो जाती है। आ जाए तो राजी, न आए तो राजी। अगर आप किसी छवि को प्रेम करते रहे हैं, तो वह आ जाएगी। अगर कृष्ण से आपका लगाव है, तो जब आप मस्त होंगे तो पहली घटना यही घटेगी कि कृष्ण आपको दिखाई पड़ने लगेंगे। अगर आपका क्राइस्ट से प्रेम है, तो आप मस्त होते से, पहली घटना, क्राइस्ट के पास आप पहुंच जाएंगे। मजे से उनको रहने दें। उनको हटाने की भी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन उन पर एकाग्र होने की भी कोई जरूरत नहीं है। धीरे-धीरे वे भी खो जाएंगे। और जब वे भी खो जाएंगे, तब निराकार प्रकट होता है। जहां राम भी खो जाते हैं, कृष्ण भी खो जाते हैं, बुद्ध भी, क्राइस्ट भी...। क्योंकि वे हमारे अंतिम पड़ाव हैं। इसे ठीक से समझ लें। जहां संसार समाप्त होता है, वहां खड़े हैं क्राइस्ट, बुद्ध, कृष्ण । उनकी प्रतिमाएं आखिरी तख्ती है, जहां संसार समाप्त होता है; वहां वे खड़े हैं। जब उनका भाव आता है, तो उसका अर्थ है कि अब हम किनारे आ गए। लेकिन उन तख्तियों को पकड़कर रुक नहीं जाना है। देखते रहना है, और आगे, और आगे, और आगे, जहां वे भी खो जाएंगे, वहां लीन हो जाना है। देखते-देखते, आनंद से, धीरे-धीरे सब छोड़ देना है। यह छोड़ने की घटना शरीर को छोड़ने से शुरू होती है। कीर्तन की यही मौज और आनंद है कि आप शरीर को छोड़ दिए हैं। से लोग मुझसे पूछते हैं कि कोई व्यवस्था होनी चाहिए। कोई ढंग नृत्य, कोई ताल, लय, यह सब व्यवस्था होनी चाहिए ! व्यवस्था से कीर्तन का कोई संबंध नहीं है। सच तो यह है कि कीर्तन व्यवस्था तोड़ने का एक उपाय है। कि आपके भीतर अब कोई व्यवस्था करने की चेष्टा नहीं है। आपने छोड़ दिया शरीर को, जैसा जो हो रहा है, आप होने दे रहे हैं। अब आप बीच-बीच में नहीं आ रहे हैं कि कैसा पैर उठाऊं, कैसा पैर न उठाऊं । अब जो हो रहा है, होने दे रहे हैं। और यह छोड़ना शरीर का पहला अनुभव है विसर्जन का। फिर Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-स्पर्श का विज्ञान मन को भी छोड़ देना है। जो हो रहा है, होने देना है। धीरे-धीरे शरीर और मन अपने आप गति करने लगेंगे और आप सिर्फ साक्षी रह जाएंगे, अपने ही शरीर, अपने ही मन के । मैं पढ़ रहा था, रूसी अंतरिक्ष यात्री पैकोव जब पहली दफा छत्तीस घंटे जमीन की परिधि में परिक्रमा किया, तो उसने अपने संस्मरण लिखे लौटकर । उसने अपनी डायरी में लिखा है... । क्योंकि जैसे ही जमीन का गुरुत्वाकर्षण समाप्त होता है, हाथ-पैर निर्भर हो जाते हैं, वेटलेस हो जाते हैं। अंतरिक्ष में कोई वजन तो नहीं है। वजन तो आप में भी नहीं है। जमीन की कशिश की वजह से वजन मालूम पड़ता है। दो सौ मील जमीन के पार जाने के बाद वजन समाप्त हो जाता है, आप निर्धार हो जाते हैं। तो पैकोव ने लिखा है कि जब मैं सोने लगा, तो बड़ी मुसीबत मालूम पड़ी। क्योंकि मेरा पूरा शरीर तो बेल्ट से बंधा था, लेकिन मेरे दोनों हाथ ऐसे अधर में लटक जाते थे। तो मैं उनको खींचकर नीचे कर लेता। खींचकर नीचे कर लेता तब तो ठीक, लेकिन जैसे ही झपकी आनी शुरू होती, मेरा खिंचाव बंद हो जाता, हाथ दोनों फिर अधर में लटक जाते! तो उसने लिखा है कि बीच आधी रात में नींद खुली, अपने दोनों हाथ ऐसे लटके हुए देखकर मुझे पहली दफे साक्षी भाव हुआ, कि मेरा शरीर अपना ही शरीर, अपने बस के बाहर ऐसा अधर में लटका हुआ है! कीर्तन की गहराई में जब शरीर को आप बिलकुल छोड़ देते हैं उन्मुक्त, और जो होता है, होने देते हैं, तत्क्षण आपको भीतर लगता है कि मैं शरीर से अलग हूं। अब शरीर अपनी गति से चल रहा है। शरीर अपनी गति कर रहा है और मैं देख रहा हूं। जैसा पैकोव को हुआ होगा, ऐसा कीर्तन में आपको सहज ही हो सकता है। और बड़े मजे की बात है कि आज नहीं कल अंतरिक्ष यात्रा को हम आत्म-साधना के लिए उपयोग में ला सकेंगे। और अतीत में साधकों को जो काम वर्षों तक करके हल होता था, वह अंतरिक्ष में साधक को घंटों में भी हो जा सकता है। क्योंकि जमीन पर रहकर, मैं शरीर नहीं हूं, इस भाव का अनुभव करने में वर्षों लग जाते हैं, क्योंकि जमीन पूरे वक्त खयाल दिलाती है कि तुम शरीर हो । इसलिए हमारा साधक हिमालय के पहाड़ पर दूर जाता था, ऊंचाई पर । जितनी ऊंचाई पर जाता था, जमीन से जितना दूर, उतना निर्भर होना आसान हो जाता था। इसलिए हमने कैलाश खोजा था। लेकिन अब कैलाश छोटी-मोटी जगह है। अब हम अंतरिक्ष में, जमीन को बिलकुल छोड़ सकते हैं। और जब अंतरिक्ष यान में किसी साधक का शरीर हवा में ऐसे उड़ रहा हो, जैसे कि गुब्बारा गैस का भरा हुआ हवा में होता है, तब यह अनुभव करना बिलकुल आसान होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। कीर्तन आपको निर्धार कर जाता है, शरीर को आप छोड़ देते हैं, बच्चे की तरह। कभी-कभी तो नृत्य बड़ा क्रांतिकारी काम कर देता है। सूफियों में दरवेश नृत्य की व्यवस्था है। दरवेश नृत्य वैसा होता है, जैसे बच्चे चक्कर लगाते हैं, एक ही जगह खड़े होकर फिरकनी करते हैं। तो दरवेश नृत्य में एक ही जगह खड़े होकर फिरकनी की तरह चक्कर लगाया जाता है, व्हिरलिंग। जब आप जोर से एक ही | जगह खड़े होकर चक्कर लगाते हैं, सिर घूमने लगता है, चक्कर मालूम होता है । लगता है, गिर जाऊंगा, गिर जाऊंगा। लेकिन अगर आप गिरें न और लगाए चले जाएं, तो थोड़ी ही देर में आपको पता लगेगा कि शरीर चक्कर लगा रहा है और आप खड़े हो गए। छोटे बच्चों को बहुत मजा आता है। मां-बाप रोकते हैं कि म | करो, चक्कर आ जाएगा। मत रोकना। क्योंकि छोटे बच्चों को जो मजा आता है फिरकनी मारने में, वह मजा थोड़े से आत्मा के सुख | का ही है। क्योंकि फिरकनी मारने में उनको लगता है कि मैं शरीर नहीं हूं। शरीर घूमने लगता है यंत्र की तरह, और बीच में वे खड़े हो जाते हैं। बच्चे निर्दोष हैं, उनको यह जल्दी हो जाता है। नृत्य भी आपको बचपन में ले जाना है। कीर्तन आपको बच्चे की तरह सरल कर देना है। जो हो रहा है, होने देना है। और भीतर सजग शांत देखते रहना है। यह साक्षी भाव बना रहे और अपने को विसर्जित करने की धारणा बनी रहे, तो आपका कीर्तन सफल हो जाता है। अब हम सूत्र को लें। हे परमेश्वर ! सखा ऐसा मानकर आपके इस प्रभाव को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी, हे कृष्ण, हे यादव, | हे सखे, इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है और हे अच्युत, आप हंसी के लिए, विहार, शय्या, आसन और भोजनादिकों में अकेले अथवा सखाओं के सामने भी अपमानित किए गए हैं, वे सब अपराध, अप्रमेयस्वरूप, आपसे मैं क्षमा कराता हूं। यह बड़ी मधुर बात है। बहुत मीठी, अत्यंत आंतरिक । जिस दिन अर्जुन को दिखाई पड़ा है कृष्ण का विराट होना, उनका परमात्मा होना, उस दिन स्वाभाविक है कि उसका मन अनेक-अनेक पीड़ाओं, अनेक-अनेक शरमों, अपराध भाव से भर जाए। क्योंकि इन्हीं कृष्ण को अनेक बार कंधे पर हाथ रखकर उसने कहा 385 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-500 है, हे यादव, हे मित्र, हे सखा! इस विराट को मित्र की तरह को छोड़कर; वह जो बूढ़ा था, वह जो पड़ोस में ही रहता था। और व्यवहार किया है। आज सोचकर भी भय लगता है। आज सोचकर उसका जो व्यवहार था, वह ऐसा था कि बड़ा कठोर था। भी उसे लगता है कि मैंने क्या किया। क्या समझा मैंने उन्हें अब __फिर रवींद्रनाथ ने लिखा है कि लेकिन एक दिन सारी बात बदल तक। और मैंने कैसा व्यवहार किया। काश. मझे पता होता कि क्या गई। जा रहा था समद्र के किनारे, वर्षा हई थी थोडी. और रास्ते के छिपा है उनके भीतर, तो ऐसा व्यवहार मैं कभी न करता। | किनारे डबरों में पानी भर गया था। सांझ उतर गई। चांद आ गया। लेकिन बड़े मजे की बात है कि यह अर्जुन को ही लगता हो, ऐसा | | पूरे चांद की रात थी, डबरों में, गंदे डबरों में सड़क के किनारे, चांद नहीं है। अगर आप पत्नी हैं, या अगर आप पति हैं, या पिता हैं, या | की छवि बनने लगी, बड़ी प्यारी। फिर सागर के किनारे जाकर देखा बेटा हैं, जिस दिन आपको परमात्म-अनुभव होगा, उस दिन आपको चांद को। फिर अचानक एक खयाल आया कि चांद तो चांद ही है, भी लगेगा कि पत्नी के साथ मैंने कल तक कैसा व्यवहार किया। चाहे सागर का स्वच्छ जल हो और चाहे सड़क के किनारे बने गंदे क्योंकि तब आपको पत्नी में भी वही दिखाई पड़ जाएगा। तब | | डबरे का गंदा जल हो, चांद के प्रतिबिंब में तो कोई गंदगी नहीं आपको लगेगा, मैंने नौकर के साथ कैसा व्यवहार किया! क्योंकि | | होती। चाहे वह गंदे डबरे में बन रहा हो और चाहे स्वच्छ जल में तब आपको नौकर में भी वही दिखाई पड़ जाएगा। तब आपको | | बन रहा हो, प्रतिबिंब तो गंदा नहीं होता गंदे जल के कारण। लगेगा, अब तक जो भी मैंने किया, वह नासमझी थी। क्योंकि इस खयाल के आते ही समाधि लग गई। यह खयाल अनूठा है। जिसको मैं जो समझ रहा था, वह वह है ही नहीं। यह तो प्रतीक है। इसका मतलब हुआ कि सीमाएं सब टूट गईं। और प्रतिबिब कहा अर्जुन का यह कहना, यह सभी अनुभवियों को अनुभव होगा। | | भी बन रहा हो उसका, चाहे राम में, चाहे रावण में, बराबर हो रवींद्रनाथ ने लिखा है कि जब उनकी गीतांजलि प्रकाशित हुई गया। समाधि लग गई, आनंद से हृदय भर गया। नाचता हुआ घर और उन्हें नोबल प्राइज मिली। नोबल प्राइज जब तक न मिली थी, | | की तरफ लौटने लगा। रास्ते पर वह आदमी मिला। आज मुझे डरा तब तक तो कोई फिक्र उनकी करता नहीं था। जब नोबल प्राइज | नहीं पाया, आज उसे देखकर भी मैं आनंदित हुआ। उसे मैंने गले मिली, तो स्वागत-समारंभ शुरू हो गए। सारे कलकत्ते ने स्वागत | | लगा लिया। आज उसने मेरी आंख में आंख झांककर देखा, लेकिन किया। विरोधी भी मित्र बन गए। मुझसे कहा नहीं कि क्या ईश्वर का अनुभव हुआ है। उसने कहा, लेकिन एक बढा उनके पडोस में था. जो नोबल प्राइज से जरा तो अच्छा हो गया। मालम पडता है. हो गया। भी न डरा। और वह बूढ़ा उन्हें बड़ा परेशान किए हुए था, कि जब | रवींद्रनाथ ने लिखा है, उस दिन के बाद तीन दिन तक ऐसी दशा उनकी कविताएं छपती थीं, तो वह बूढ़ा अक्सर उनको रास्ते में मिल | | बनी रही कि जो मिल जाए, उससे ही गले मिलने का हो मन-मित्र जाता आते-जाते और कहता कि सुन! परमात्मा का अनुभव हुआ | | हो कि शत्रु हो, अपरिचित कि परिचित, नौकर, मित्र-कोई भी है? क्योंकि वे परमात्मा के बाबत कविताएं लिख रहे थे। ऐसा उनसे | | हो। और फिर आदमी चुक गए, तो गाय, घोड़े, उनसे भी गले कोई भी नहीं पूछता था। कविता ठीक है कि नहीं, यह अलग बात | | मिलना होने लगा। फिर वे भी चुक गए, तो वृक्ष, पत्थर, दीवाल। है। लेकिन ऐसा उनसे कोई भी नहीं पूछता था कि परमात्मा का | | और रवींद्रनाथ ने लिखा है कि दीवाल से मिलकर भी वही अनुभव अनुभव हुआ है! होने लगा, जो अपनी प्रेयसी से मिलकर हो। बूढ़ा ऐसी तेज आंख से देखता था कि रवींद्रनाथ ने कहा है कि | | लेकिन उस दिन लगा कि अब तक जो मैंने लोगों से व्यवहार उस आदमी से जितना मैं डरता था, किसी से भी नहीं डरता था। | किया है, वह बड़ा बुरा था। जाकर क्षमा मांगने गया उस बूढ़े से कि और हिम्मत भी नहीं पड़ती थी कहने की कि अनुभव हुआ है, मुझे माफ कर दो। मैं तुम्हें पहचान ही न पाया कि तुम कौन हो। क्योंकि अनुभव हुआ भी नहीं था। और उससे कहने में कोई सार | | आज पहचान पाया हूं, तो सबसे क्षमा मांगने के सिवाय और कोई भी नहीं था। उसकी आंख ही डरा देती थी। उपाय नहीं है। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैंने बड़े प्रेम के गीत गाए, बड़ी मित्रता | जिस दिन आपको भी थोड़ी-सी झलक मिलेगी, सिवाय क्षमा के, लेकिन मेरे मन में उस बूढ़े के प्रति कोई सदभाव कभी नहीं मांगने के और कोई उपाय नहीं रह जाएगा। क्योंकि चारों तरफ वही जन्मा। मैं सारे जगत के प्रति प्रेम का गीत गा सकता था उस बूढ़े | | विराट मौजूद है, और हम उसके साथ जो व्यवहार कर रहे हैं, वह 386 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-स्पर्श का विज्ञान बड़ा ओछा है। पर होगा ही व्यवहार ओछा, क्योंकि दृष्टि ओछी है। क्योंकि वह विराट तो कहीं दिखता ही नहीं है। ऐसा मैंने सुना है; एक सूफी कथा है। एक सम्राट अपने बेटे पर नाराज हो गया, क्योंकि बेटा कुछ उपद्रवी, हठधर्मी था, उच्छृंखल था। नाराज इतना हो गया कि एक दिन उसने बेटे को राज्य का निकाला दे दिया। उसे कहा कि तू राज्य को छोड़कर चला जा । एक बेटा था। बड़ा कष्ट था, लेकिन छोड़ना पड़ा। बाप की भी जिद थी, बेटा भी जिद्दी था। बाप का ही बेटा था, एक से ही ढंग थे; दोनों अहंकारी थे। बेटे ने भी छोड़ दिया। राज्य की सीमा में मत टिकना ! तो राज्य की सीमा में न टिककर दूसरे राज्य में चला गया। राजा का बेटा था। कभी जमीन पर पैदल भी नहीं चला था, कभी कोई काम भी नहीं किया था। तो सिवाय भीख मांगने के कोई उपाय नहीं रहा। थोड़ा-बहुत तंबूरा बजाना जानता था, थोड़ा गीत - वीत का शौक था, तो गीत, तंबूरा बजाकर भीख मांगने लगा । दस वर्ष बीत गए । बाप बूढ़ा हुआ, मरने के करीब आया । तो अब उसे लगा कि क्या करे, उस बेटे को खोजा जाए! तो वजीरों को भेजा कि कहीं भी मिले, शीघ्र ले आओ। मौत मेरी करीब है; वही मालिक है, जैसा भी है। उस दिन जब उस छोटे-से गांव में, जहां एक चाय की दूकान सामने वह भावी सम्राट भीख मांग रहा था...। गर्मी के दिन थे और आग बरस थी और रास्ते तप रहे थे, उन पर पैदल नंगे चलना मुश्किल था। उसके पास जूते नहीं थे। तो वह भीख मांग रहा था एक छोटे-से बर्तन में और लोगों से कह रहा था कि जूते के लिए मुझे पैसे चाहिए। होटल में जो लोग चाय-वाय पी रहे थे, • गरीब-गुरबे, उसको पैसे, दो पैसे, थोड़ी-बहु चिल्लर उसके बर्तन में थी । वजीर का रथ आकर रुका। वजीर ने देखा; पहचान गया । वस्त्र अब भी वही थे, दस साल पहले पहनकर जो घर से निकला था। फट गए थे, चीथड़े हो गए थे, गंदे हो गए थे, पहचानना मुश्किल था कि ये सम्राट के वस्त्र हैं। लेकिन पहचान गया मंत्री। आंखें वही थीं। चेहरा काला पड़ गया था। शरीर सूख गया था। हाथ में भिक्षा पात्र था। पैर में फफोले थे । मंत्री नीचे उतरा। वह भिक्षा पात्र फैलाए हुए था। भिक्षा पात्र ! पास में रथ आकर रुका है, सोचा कि भिक्षा पात्र इस तरफ करूं । देखा मंत्री है। हाथ से भिक्षा पात्र छूट गया। एक क्षण में दस साल मिट गए। मंत्री चरण पर गिर पड़ा और कहा कि महाराज, वापस चलें। भीड़ इकट्ठी हो गई। गांव सब आ गया पास। लोग पैरों पर गिरने लगे। वे, जिनके सामने वह भीख मांग रहा था, जो अभी भीख देने से कतरा रहे थे, वे उसके पैरों पर गिरने लगे, कहने लगे, माफ कर देना, हमें क्या पता था ! एक क्षण में सब बदल गया, सारे गांव का रुख । एक क्षण में बदल गया राजकुमार का रुख भी । अभी वह भिखारी था, एक क्षण में सम्राट हो गया। कपड़े वही रहे, शरीर वही रहा, आंखें बदल गईं। रौनक और हो गई। जिंदगी, जैसा हम उसे देख रहे हैं, हमारी आंख से जो दिखाई पड़ रही है जिंदगी, हमारी आंख के कारण है। आंख बदल जाए, सारी जिंदगी बदल जाती है। और तब सिवाय क्षमा मांगने के कुछ भी न रह जाएगा। वह पूरा गांव पैरों पर गिरने लगा कि क्षमा कर देना, बहुत भूलें हुई होंगी हमसे । निश्चित हुई हैं। हमने तुम्हें भिखारी समझा, यही बड़ी भूल थी! 387 अर्जुन यही कह रहा है कि हमने तुम्हें मित्र समझा, यही बड़ी भूल थी। और मित्र समझकर हमने वे बातें कही होंगी, जो मित्रता में कह दी जाती हैं। और मित्र एक-दूसरे को गाली भी दे देते हैं। सच तो यह है कि जब तक गाली देने का संबंध न हो, लोग मित्रता ही नहीं समझते! जब तक एक-दूसरे को गाली न देने लगें, तब तक समझते हैं, अभी पराए हैं, अभी कोई अपनापन नहीं है। तो मित्र समझा है। कभी कहा होगा, ऐ कृष्ण! कभी कहा होगा, | ऐ यादव ! कभी कहा होगा, ऐ मित्र ! क्षमा कर देना । हठपूर्वक बहुत-सी बातें कही होंगी। हठपूर्वक अपनी बात मनवानी चाही होगी। तुम्हारी बात झुठलाई होगी। विवाद किया होगा। तुम गलत हो, ऐसा भी कहा होगा। तुम गलत हो, ऐसा सिद्ध भी किया होगा। अवमानना की होगी । ठुकराया होगा तुम्हारे विचार को । 1 और हे अच्युत, हंसी के लिए ही सही, तुमसे वे बातें कही होंगी, जो नहीं कहनी चाहिए थीं। विहार में, शय्या पर, आसन में, भोजन करते वक्त, मित्रों के साथ, भीड़ में, एकांत में, दूसरों के सामने, न मालूम क्या-क्या कहा होगा! न मालूम किस-किस भांति आपको अपमानित किया होगा! या दूसरे अपमानित कर रहे होंगे, तो सहमति भरी होगी, विरोध न किया होगा । ये सब अपराध, अप्रमेयस्वरूप, अचिंत्य प्रभाव वाले, आपसे मैं क्षमा कराता हूं। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 आपको अब जैसा देख रहा हूं और अब तक जैसा आपको | | है। और मित्रता में बहुत समय ऐसे वचन भी कहे हैं, जो शत्रु से देखा, इन दोनों के बीच जमीन-आसमान का भेद पड़ गया है। तो भी नहीं कहने चाहिए। उन सबकी मैं क्षमा चाहता है। जो व्यवहार मैंने आपसे किए थे अनजान में, न जानते हुए आपको, | | हे विश्वेश्वर! आप इस चराचर जगत के पिता और गुरु से भी न पहचानते हुए आपको, उन सबके लिए मुझे माफ कर देना। । | बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अतिशय प्रभाव वाले, तीनों लोकों इस जगत से भी हम माफी मांगेंगे, क्योंकि जगत परमात्मा है। | में आपके समान दूसरा कोई भी नहीं है। अधिक तो कैसे होवे? और हम जो व्यवहार उससे कर रहे हैं, वह परमात्मा के साथ किया | | इससे हे प्रभो, मैं शरीर को अच्छी प्रकार चरणों में रखकर और गया व्यवहार नहीं है। अगर मानकर भी चलें आप-अभी आपको प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लि पता भी नहीं है, सिर्फ मानकर चलें कि यह जगत परमात्मा है और | प्रार्थना करता हूं। हे देव, पिता जैसे पुत्र के और सखा जैसे सखा चौबीस घंटे के लिए प्रत्येक व्यक्ति से ऐसा व्यवहार करने लगें, जैसे के और पति जैसे प्रिय स्त्री के, वैसे ही आप भी मेरे अपराध को वह परमात्मा है, तो आप पाएंगे कि आप बदलने शुरू हो गए, आप सहन करने के लिए योग्य हैं। दूसरे आदमी हो गए। आपके भीतर गुणधर्म बदल जाएगा। मैं जानता हूं कि आप क्षमा कर देंगे। और मैं जानता हूं कि आप . सूफियों की एक परंपरा है, एक साधना की विधि है, कि जो भी | बुरा न लेंगे, अतीत में जो हुआ है। मैं जानता हूं कि आप दिखाई पड़े, उसे परमात्मा मानकर ही चलना। अनुभव न हो, तो | महाक्षमावान हैं और जैसे प्रियजन को कोई क्षमा कर दे, आप मुझे भी। कल्पना करनी पड़े, तो भी। क्योंकि वह कल्पना एक न एक कर देंगे। फिर भी मैं क्षमा मांगता हूं। शरीर को ठीक से चरणों में दिन सत्य सिद्ध होगी। और जिस दिन सत्य सिद्ध होगी, उस दिन रखकर...। किसी से क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। मंसूर ने कहा है कि अगर परमात्मा भी मुझे मिल जाए, तो मुझे हमें खयाल में नहीं है कि शरीर की प्रत्येक अवस्था मन की क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी। क्योंकि मैंने उसके सिवाय किसी में और अवस्था से जुड़ी है। शरीर और मन ऐसी दो चीजें नहीं हैं। इसलिए कुछ देखा ही नहीं है। आज तो विज्ञान बाडी एंड माइंड, शरीर और मन, ऐसा न कहकर, अर्जुन को मांगनी पड़ रही है, क्योंकि अब तक उसने परमात्मा | साइकोसोमेटिक, मनोशरीर या शरीरमन, ऐसा एक ही शब्द को में भी कृष्ण को देखा है, एक मित्र को देखा है, एक सखा को देखा प्रयोग करने लगा है। और ठीक है, क्योंकि शरीर और मन एक है। फिर मित्र के साथ जो संबंध है...। | साथ हैं। और प्रत्येक में कुछ भी घटित हो, दूसरे में प्रभावित होता ध्यान रहे, मित्रता कितनी ही गहरी हो, उसमें शत्रुता मौजूद रहती | है। जैसे कभी सोचें...। है। और मित्रता चाहे कितनी ही निकट की हो, उसमें एक दूरी तो पश्चिम में दो विचारक हुए हैं, लेंगे और विलियम जेम्स। उन्होंने रहती ही है। एक सिद्धांत विकसित किया था, जेम्स-लेंगे सिद्धांत। वह उलटी मन का जो द्वंद्व है, वह सब पहलुओं पर प्रवेश करता है। आप बात कहता है सिद्धांत, लेकिन बड़ी महत्वपूर्ण। आमतौर से हम किसी को शत्रु नहीं बना सकते सीधा। शत्रु बनाना हो, तो पहले | | समझते हैं कि आदमी भयभीत होता है, इसलिए भागता है। मित्र बनाना जरूरी है। या कि आप किसी को सीधा शत्रु बना सकते जेम्स-लेंगे कहते हैं, भागता है, इसलिए भयभीत होता है। आमतौर हैं? सीधा शत्रु बनाने का कोई उपाय नहीं है। शत्रुता भी आती है, | से हम समझते हैं, आदमी प्रसन्न होता है, इसलिए हंसता है। तो मित्रता के द्वार से ही आती है। असल में शत्रुता मित्रता में ही | जेम्स-लेंगे कहते हैं, हंसता है, इसलिए प्रसन्न होता है। और उनका छिपी रहती है। कहना है कि अगर यह बात ठीक नहीं है, तो आप बिना हंसे प्रसन्न इसलिए बुद्धिमानों ने कहा है कि जिनको शत्रु न बनाने हों, उनको | | होकर बता दीजिए! या बिना भागे भयभीत होकर बता दीजिए! मित्र बनाने से बचना चाहिए। अगर आप मित्र बनाएंगे, तो शत्रु भी । ___ उनकी बात भी सच है; आधी सच है। आधी आम आदमी की बनेंगे ही। क्योंकि मित्र और शत्रु कोई दो चीजें नहीं हैं। शायद एक बात भी सच है। ही घटना के दो छोर हैं; दो सघनताएं हैं एक ही तरंग की। असल में भय और भागना दो चीजें नहीं हैं। भय मन है और तो अर्जुन यह कह रहा है कि मित्रता में बहुत बार शत्रुता भी की | भागना शरीर है। प्रसन्नता और हंसी दो चीजें नहीं हैं। प्रसन्नता मन 388 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-स्पर्श का विज्ञान है और हंसी शरीर है। और शरीर और मन एक-दूसरे को तत्क्षण प्रभावित करते हैं, नहीं तो शराब पीकर आपका मन बेहोश नहीं होगा। शराब तो जाती है शरीर में, मन कैसे बेहोश होगा ? शराब मजे से पीते रहिए। शरीर को नुकसान होगा, तो होगा। मन को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन मन तत्क्षण बेहोश हो जाता है। और जब आपका मन दुखी होता है, तो शरीर भी रुग्ण हो जाता है। अब तो शरीरशास्त्री कहते हैं कि जब मन दुखी होता है, तो शरीर की रेसिस्टेंस, प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाती है। अगर मलेरिया कीटाणु फैले हुए हैं, तो जो आदमी मन में दुखी है, उसको जल्दी पकड़ लेंगे; और जो मन में प्रसन्न है, उसको नहीं पकड़ेंगे। वह आप जानकर हैरान होंगे कि प्लेग फैली हुई है, सबको पकड़ रही है, और डाक्टर दिन-रात प्लेग में काम कर रहा है, उसको नहीं पकड़ रही। कारण क्या है ? डाक्टर अति प्रसन्न है अपने काम से। सेवा कर रहा है, उससे आनंदित है। उसे प्लेग कोई बीमारी नहीं है, एक प्रयोग है। उसे प्लेग जो है, वह कोई खतरा नहीं है, बल्कि एक चुनौती है, एक संघर्ष है, जिसमें वह जूझ रहा है। वह प्रसंन्नचित्त है, वह आनंदित है, वह बीमार नहीं पड़ेगा। क्यों ? क्योंकि शरीर की प्रतिरोधक शक्ति, रेसिस्टेंस, जब आप प्रसन्न होते हैं, तब ज्यादा होती है; जब आप दीन, दुखी, पीड़ित होते हैं भीतर, तो कम हो जाती है। कीटाणु भी बीमारियों के आप पर तब तक हमला नहीं कर सकते, जब तक आप दरवाजा न ,कि आओ, मैं तैयार हूं। और जब आप इतने प्रसन्नता से भरे होते हैं, तो चारों तरफ आपके एक आभा होती है, जिसमें कीटाणु प्रवेश नहीं कर सकते। चौबीस घंटे में बीमारी पकड़ने के घंटे अलग हैं। और अब आदमी के भीतर की जो खोज होती है, उससे पता चलता है कि चौबीस घंटे में कुछ समय के लिए आप पीक आवर में होते हैं, शिखर पर होते हैं अपनी प्रसन्नता के । कोई क्षण में चौबीस घंटे में एक दफा आप बिलकुल नादिर, नीचे, आखिरी अवस्था में होते हैं। उस आखिरी अवस्था में ही बीमारी आसानी से पकड़ती है। और शिखर पर कभी बीमारी नहीं पकड़ती । वह जो शिखर का क्षण है आपके भीतर प्रसन्नता का, वह शरीर और मन का एक ही है। वह जो खाई का क्षण है, वह भी एक ही है। शरीर और मन जुड़े हैं। आप जब किसी के प्रति क्रोध से भरते हैं, तो आपकी मुट्ठियां भिंचने लगती हैं, और दांत बंद होने लगते हैं, और आंखें सुर्ख हो जाती हैं, और आपके शरीर में एड्रीनल और दूसरे तत्व फैलने लगते हैं खून में, जो जहर का काम करते हैं, जो आपको पागलपन से भरते हैं। अब आपका शरीर तैयार हो रहा है। आपको पता है कि क्यों मुट्ठियां भिंचने लगती हैं? क्यों दांत कसमसाने लगते हैं? आदमी भी जानवर रहा है। और जानवर जब क्रोध से भरता है, तो नाखून से चीर-फाड़ डालता है, दांतों से काट डालता है। आदमी भी जानवर रहा है। उसके शरीर का ढंग तो अब भी जानवर का ही है। इसलिए दांत भिंचने लगते हैं, हाथ बंधने लगते हैं। और शरीर काम शुरू कर देता है, जहर खून में फैल जाता है कि अब आप किसी की हत्या कर सकते हैं। आपको पता है, क्रोध में आप इतना बड़ा पत्थर उठा सकते हैं जो आप शांति में कभी नहीं उठा सकते! क्योंकि आप पागल हैं। इस वक्त आप होश में नहीं हैं। इस वक्त कुछ भी हो सकता है। जब क्रोध में ऐसा होता है, तो प्रेम में इससे उलटा होता है। जब आप प्रेम से भरते हैं तब आपको पता है, आप बिलकुल रिलैक्स हो जाते हैं, सारा शरीर शिथिल हो जाता है, जैसे शरीर को अब कोई भय नहीं है। क्रोध में शरीर तन जाता है, प्रेम में शिथिल हो जाता है। जब आप किसी के आलिंगन में होते हैं प्रेम से भरे हुए, तो आप छोटे बच्चे की तरह हो जाते हैं, जैसे वह अपनी मां की छाती से लगा हो - बिलकुल शिथिल, लुंज-पुंज । अब आपके शरीर में जैसे कोई तनाव नहीं है कहीं। | मन, शरीर, एक साथ बदलते चले जाते हैं। आप कभी तने रहकर प्रेम करने की कोशिश करें, तब आपको पता चल जाएगा। असंभव है । या कभी ढीले होकर क्रोध करने की कोशिश करें, तो पता चल जाएगा। असंभव है। कभी आपने खयाल किया है कि जब आप किसी को अपमानित करना चाहते हैं, तो आपका मन होता है, निकालूं जूता और दे दूं सिर पर । मगर क्यों ऐसा होता है? और ऐसा एक मुल्क में नहीं होता, सारी दुनिया में होता है। एक जाति में नहीं होता, सब जातियों में होता है। एक धर्म में नहीं होता, सब धर्मों में होता है। दुनिया के किसी कोने में कितने ही सांस्कृतिक फर्क हों, लेकिन जब आप किसी को अपमानित करना चाहते हैं, तो अपना जूता उसके सिर पर रखना चाहते हैं। असल में जूता तो केवल सिंबल है। आप अपना पैर रखना | चाहते हैं। लेकिन वह जरा अड़चन का काम है। किसी के सिर पर पैर रखना, जरा उपद्रव का काम है। उसके लिए काफी जिमनास्टिक, योगासन इत्यादि का अभ्यास चाहिए । एकदम से 389 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 रखना आसान नहीं होगा, उसके लिए सर्कस का अनुभव चाहिए। तो फिर सिंबल का काम करते हैं। जूता सिंबल का काम करता है, कि हम जूते को सिर पर मार देते हैं। हम उससे यह कह रहे हैं कि तुम्हारा सिर हमारे पैर में! लेकिन क्या इसका मतलब है? सारी दुनिया में यह भाव एक-सा है । इससे विपरीत श्रद्धा है, जब हम किसी के चरणों में सिर को रख देना चाहते हैं। यह बड़े मजे की बात है कि सारी दुनिया में अपमान करने के लिए सिर पर पैर रखने की भावना है, लेकिन सम्मान करने के लिए सिर्फ भारत में पैर पर सिर रखने की धारणा है। इस लिहाज से भारत की पकड़ गहरी है आदमी के मन के बाबत | इसका यह मतलब हुआ कि सारी दुनिया में अपमान करने की व्यवस्था तो हमने खोज ली है, सम्मान करने की व्यवस्था नहीं खोज पाए। और अगर यह बात सच है कि हर मुल्क में हर आदमी को अपमान हालत में ऐसा भाव उठता है, दूसरी बात भी सच होनी चाहिए कि श्रद्धा के क्षण में सिर को किसी के पैर में रख देने का भाव उठे । यह, भीतर जो घटना घटेगी, तभी ! इसका यह मतलब हुआ कि श्रद्धा को जितना हमने अनुभव किया है, संभवतः दुनिया में कोई मुल्क अनुभव नहीं किया। अगर अनुभव करता, तो यह प्रक्रिया घटित होती । क्योंकि अगर अनुभव करता, तो कोई उपाय खोजना पड़ता, जिससे श्रद्धा प्रकट हो सके। तो एक तो श्रद्धा की यह अभिव्यक्ति है क्षमा-याचना के लिए। अर्जुन कह रहा है कि सब भांति आपके चरणों में अपने शरीर को रखकर मांगता हूं माफी | मुझे माफ कर दें। लेकिन इतनी ही बात नहीं है, थोड़ा भीतर प्रवेश करें। तो सिर जब किसी के चरणों में रखा जाता है...। अभी जब बाडी- इलेक्ट्रिसिटी पर काफी काम हो गया है, तो यह बात समझ में आ सकती है। आपको शायद अंदाज न हो, लेकिन उपयोगी होगा समझना। और इस संबंध में थोड़ी जानकारी लेनी आपके फायदे की होगी। हर शरीर की गतिविधि विद्युत से चल रही है। आपका शरीर एक विद्युत यंत्र है, उसमें विद्युत की तरंगें दौड़ रही हैं। आप एक बैटरी , जिसमें विद्युत चल है, बहुत लो वोल्टेज की, बहुत कम शक्ति की। लेकिन बड़ा अदभुत यंत्र है कि उतने लो वोल्टेज से सारा काम चल रहा है। अभी इंग्लैंड में एक वैज्ञानिक ने कुछ तांबे की जालियां विकसित की हैं, वे काम की हैं। वह आपके शरीर के नीचे तांबे की जालियां | रख देता है और आपके हाथों में और आपके पैरों में तांबे के तार | बांध देता है | और आपके शरीर की ऋण विद्युत को आपके शरीर की धन विद्युत से जोड़ देता है। आपके भीतर जो निगेटिव, पाजिटिव पोल हैं विद्युत के, उनको जोड़ देता है। उनके जोड़ते से ही आप एकदम शांत होने लगते हैं। अब तो इसका इंग्लैंड के अस्पतालों में उपयोग हो रहा है। उनको जोड़ते से ही आप शांत होने लगते हैं। कितना ही अशांत आदमी हो, तीस मिनट में एकदम गहरी नींद में खो जाएगा। क्योंकि उसकी दोनों विद्युत शक्तियां एक-दूसरे को शांत करने लगती हैं। अगर उलटे तार जोड़ दिए जाएं, तो शांत आदमी अशांत होने लगता । | उसके भीतर की विद्युत अस्तव्यस्त होने लगती है। और यह एक आदमी का ही नहीं। अगर इसका और गहरा प्रयोग करना हो, तो एक स्त्री को एक जाली पर लिटा दिया जाए, एक जाली पर पुरुष को; और उनके ऋण धन को जोड़ दिया जाए, तो और भी शीघ्रता से, और भी शीघ्रता से शांति होने लगती है। आपको अपनी पत्नी या प्रेयसी के पास बैठकर जो शांति मिलती है, उसमें अध्यात्म बहुत कम, बिजली ज्यादा है। आपकी ऋण-धन | विद्युत जुड़ जाती है। और अगर प्रेम गहरा हो तो ज्यादा जुड़ जाती है, क्योंकि आप एक-दूसरे को ज्यादा से ज्यादा निकट लेना चाहते हैं। अगर प्रेम ज्यादा न हो, तो आप भला निकट हों, अपने को दूर | रखना चाहते हैं। एक तरह का बचाव बना रहता है, वह बाधा बन जाती है। यह तो दस-पच्चीस लोगों के ग्रुप में भी प्रयोग किया जाता है। दस-पच्चीस लोगों को इकट्ठा जोड़ दिया जाता है एक श्रृंखला में, | तब और भी जल्दी परिणाम होते हैं। भारत इस रहस्य को किसी दूसरे कोने से सदा से जानता रहा है। | गुरु के चरणों में सिर रखना, गुरु के साथ उसकी विद्युत का जोड़ है। उसके चरणों में सिर रखते ही गुरु की जो विद्युत धारा है, वह शिष्य में प्रवाहित होनी शुरू हो जाती है। और ध्यान रहे, विद्युत के प्रवाहित होने के लिए दो ही जगहें हैं, या तो हाथ या पैर - अंगुलियां। नुकीला कोना चाहिए, जहां से | विद्युत बाहर जा सके। और जहां से विद्युत भीतर लेनी हो, उसके लिए सिर से अच्छी कोई जगह नहीं है। उसके लिए गोल जगह चाहिए, जहां से विद्युत ग्रहण की जा सके। रिसेप्टिविटी के लिए सिर बहुत अच्छा है; दान के लिए अंगुलियां बहुत अच्छी हैं। 390 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ चरण-स्पर्श का विज्ञान - व्यवस्था पूरी यह थी—वह तो अभी उन्होंने इंग्लैंड में का तो पता चलता है। विद्युत-यंत्र बनाए और उसका फायदा लिया, हम हजारों साल से । तो अब तो आप ध्यान में हैं या नहीं, इसको यंत्र से नापा जा ले रहे हैं-व्यवस्था यह थी कि गुरु के चरणों में शिष्य सिर रख | सकता है। यंत्र बता देता है कि अल्फा तरंगें चल रही हैं, तो आप दे। सिर का मतलब है, रिसेप्टिव हिस्सा, ग्राहक हिस्सा। और | | ध्यान में हैं। चरणों का अर्थ है, दान देने वाला हिस्सा। और गुरु अपने हाथों को ___ तो साल्टर यह प्रयोग कर रहा था कि आदमी ही ध्यान में हो सिर के ऊपर रख दे, आशीर्वाद में। तो गुरु दोनों तरफ से, पैर की | | सकते हैं कि जानवर भी ध्यान में पहुंचाए जा सकते हैं! तो एक अंगुलियों से, हाथ की अंगुलियों से, दायक हो जाता है। और जो | | बिल्ली को विद्युत की तरंगें देकर अल्फा की हालत में लाता था। नीचे झुका है, उसकी तरफ आसानी से विद्युत बह पाती है। इसलिए | और बिल्ली को भूखा रखता था और जब उसमें अल्फा तरंगें आ शिष्य नीचे है, गुरु ऊपर है। जाती थीं, यंत्र बताता कि अल्फा तरंगें आ गईं, तब उसको दूध, अगर आपको सच में श्रद्धा का भाव जन्मा है, तो आप फौरन | | मिठाई देता था। अनुभव करेंगे कि आपके सिर में अलग तरह की तरंगें गुरु के तो बिल्ली तरकीब सीख गई कि जब अल्फा तरंगें मिलती हैं, चरणों से प्रवाहित होनी शुरू हो गईं। और आपका सिर शांत हुआ तभी उसको दूध, मिठाई मिलती है। जब उसको भूख लगती, तो जा रहा है। कोई चीज उसमें बह रही है और शांत हो रही है। बिल्ली चुपचाप शांत खड़े होकर आंख बंद करके ध्यान करने 'मनुष्य का शरीर विद्युत-यंत्र है। अब तो विद्युत के छोटे यंत्र भी लगती! जब उसको भूख लगती। क्योंकि उसको पता चल गया बनाए गए हैं, जो आपके मस्तिष्क में लगा दिए जाएं, तो वे धीमी | भीतर कि कब मन की कैसी हालत होती है, तब मुझे दूध मिलता गति से आपके मस्तिष्क में विद्युत की तरंगें फेंकेंगे। उन तरंगों से | | है, तो वह आंख बंद करके खड़ी हो जाती। और बिल्ली अल्फा आप शांत होने लगेंगे। | तरंगें पैदा करने लगी बिना विद्युत की सहायता के! नींद के लिए रूस ने ट्रैक्वेलाइजर्स करीब-करीब बंद कर दिए। तो मुझे तो बहुत आशापूर्ण मालूम पड़ा। अगर बिल्ली कर हैं। उन्होंने विद्युत-यंत्रों का उपयोग शुरू कर दिया है। क्योंकि वे सकती है, तो आप भी कर सकते हैं। ऐसी क्या मुश्किल है! ऐसी कहते हैं, ट्रैक्वेलाइजर तो भीतर जाकर शरीर को अस्तव्यस्त भी क्या मुश्किल है! करता है, विद्युत-येत्र किसी तरह अस्तव्यस्त नहीं करता। और ___ अर्जुन कह रहा है कि चरणों में सिर रखकर आपसे प्रसन्न होने मनुष्य के ही शरीर में नहीं, पशुओं के शरीर में भी मस्तिष्क से अगर | की प्रार्थना करता हूं, मुझे क्षमा कर दें। और मैं जानता हूं कि आप विद्युत डाली जाए, वे भी शांत हो जाते हैं। तो क्षमा कर ही देंगे। लेकिन जो मैंने किया है अतीत में, वह मेरे अभी एक अमेरिकन विचारक, साल्टर एक प्रयोग कर रहा था, ऊपर बोझ है। उस बोझ से मुझे मुक्त हो जाना जरूरी है। उसके अपनी बिल्ली के ऊपर। मैं बहुत चकित हुआ! वह अपनी बिल्ली | | लिए चरणों में सब छोड़ देता हूं। के मस्तिष्क में विद्युत की तरंगें फेंक रहा था, और वैसी अवस्था आज इतना ही। पैदा कर रहा था, जिसको वैज्ञानिक अल्फा वेव्स कहते हैं। पांच मिनट रुकें। कीर्तन में सम्मिलित हों, और फिर जाएं। मस्तिष्क में चार तरह की तरंगें हैं विद्युत की। एक तो वे तरंगें हैं, जो आप सामान्यतः सोच-विचार में लगे होते हैं, तब चलती हैं। उनको नापने का उपाय है। क्योंकि प्रति सेकेंड उनकी खास फ्रीक्वेंसी होती है। फिर उनसे बाद की तरंगें हैं, अल्फा उनका नाम है। जब आप शांत सोए होते हैं, रिलैक्स होते हैं या ध्यान में होते हैं, तब अल्फा होती हैं। फिर उसके बाद की भी तरंगें हैं, जब आप बिलकुल प्रगाढ़ निद्रा में होते हैं, जहां स्वप्न भी नहीं होता। और उसके बाद की भी तरंगें हैं, जिनके बाबत अभी पश्चिम में कोई समझ पैदा नहीं हो सकी है कि वे किसकी खबर देती हैं। इन तीन 391 Page #422 --------------------------------------------------------------------------  Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 दसवां प्रवचन मनुष्य बीज है परमात्मा का Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-5 ॐ अदृष्टपूर्व हषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे। अगर अपने आपको भी देखा, तो उसका उल्लेख क्यों तदेव में दर्शय देवरूपं प्रसीद देवेश जगनिवास ।। ४५ ।। । नहीं किया गया है? और अगर नहीं देखा, तो क्यों? किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव । तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूते।। ४६ । । श्रीभगवानुवाच गह प्रश्न कीमती है और बहुत सोचने योग्य। मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् । प कोई भी व्यक्ति अपनी मृत्यु नहीं देख सकता। मृत्यु तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न सदा दूसरे की ही देखी जा सकती है। क्योंकि मृत्यु दृष्टपूर्वम् ।। ४७ ।। बाहर घटित होती है. भीतर तो घटित होती ही नहीं। समझें।। न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दान व क्रियाभिर्न तपोभिरुः । आपने जब भी मृत्यु देखी है, तो किसी और की देखी है। आपकी एवंरूपः शक्य अहं नलोके द्रष्टुं त्वदन्येन मृत्यु की जो धारणा है, वह दूसरों को मरते देखकर बनी है। ऐसा कुरुप्रवीर ।। ४८।। नहीं है कि आप बहुत बार नहीं मरे हैं। आप बहुत बार मरे हैं। हे विश्वमतें, मैं पहले न देखे हुए आश्चर्यमय आपके इस लेकिन जो भी आपकी मृत्यु की धारणा है, वह दूसरे को मरते हुए रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूं और मेरा मन भय से अति देखकर आपने बनाई है। व्याकुल भी हो रहा है। इसलिए हे देव, आप उस अपने जब दूसरा मरता है, तो आप बाहर होते हैं। शरीर निस्पंद हो चतुर्भुज रूप को ही मेरे लिए दिखाइए । हे देवेश,हे | जाता है। श्वास बंद हो जाती है। हृदय की धड़कन समाप्त हो जाती जगनिवास, प्रसन्न होइए। | है। खून चलता नहीं। आदमी बोल नहीं सकता। निष्प्राण हो जाता और हे विष्णो, मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए है। लेकिन भीतर जो था, वह तो कभी मरता नहीं। तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूं। और आदमी अपनी मौत कैसे देख सकता है! इसलिए भीतर जो इसलिए हे विश्वरूप, हे सहस्रबाहो, आप उस ही चतुर्भुज | मर रहा है, वह नहीं देख सकता कि मैं मर रहा हूं। वह तो अब भी रूप से युक्त होइए। | पाएगा कि मैं जी रहा हूं। अगर होश में है, तो उसे दिखाई पड़ेगा इस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना को सुनकर श्रीकृष्ण भगवान कि मैं जी रहा हूं। अगर बेहोश है, तो खयाल में नहीं रहेगा। बोले, हे अर्जुन, अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के हम बहुत बार मरे हैं, लेकिन बेहोशी में मरे हैं। इसलिए हमें कोई प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय, सबका आदि और खयाल नहीं है। हमें कुछ पता नहीं है कि मृत्यु में क्या घटा। अगर सीमारहित विराट रूप तेरे को दिखाया है, जो कि तेरे सिवाय एक बार भी हम होश में मर जाएं, तो हम अमृत हो गए। क्योंकि दूसरे से पहले नहीं देखा गया। तब हम जान लेंगे कि बाहर ही सब मरता है। जो मेरा समझा था, है अर्जन. मनष्य-लोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला मैंन | वह टट गया. बिखर गया. शरीर नष्ट हो गया। लेकिन मैं। मैं अब वेद के अध्ययन से, न यज्ञ से तथा न दान से और न भी हूं। क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे सिवाय दूसरे से देखा कोई व्यक्ति कभी स्वयं की मृत्यु का अनुभव नहीं किया है। जो जाने को शक्य हूं। लोग बेहोश मरते हैं, उन्हें तो पता ही नहीं चलता कि क्या हुआ। जो लोग होश से मरते हैं, उन्हें पता चलता है कि मैं जीवित हूं। जो मरा, वह शरीर था, मैं नहीं हूं। एक मित्र ने पूछा है, भगवान कृष्ण के विकराल __इसलिए ऐसा सोचें, और तरह से। अगर आप कल्पना भी करें स्वरूप में अर्जुन देवताओं को कंपित होते हुए देखता | अपने मरने की, तो कल्पना भी नहीं कर सकते। अनुभव को छोड़ है, अन्यों को मृत्यु की ओर जाते हुए देखता है। | दें। कल्पना तो झूठ की भी हो सकती है। और आपने सुना होगा, लेकिन क्या उसने अपने आपको इस विकराल रूप | कल्पना तो किसी भी चीज की हो सकती है। कल्पना ही है। लेकिन में नहीं देखा? मृत्यु के मुंह में जाते नहीं देखा? और | आप अपने मरने की कल्पना करें, तब आपको पता चलेगा, वह 1394 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ मनुष्य बीज है परमात्मा का नहीं हो सकती। आप कुछ भी उपाय करें, अपने शरीर को मरा हुआ देख लेंगे। लेकिन आप देखने वाले बाहर जिंदा खड़े रहेंगे, कल्पना में भी! कितना ही सोचें कि मैं मर गया, कैसे मरिएगा! कल्पना में भी नहीं मर सकते। क्योंकि वह जो सोच रहा है, वह जो देख रहा है, कल्पना जिसे दिखाई पड़ रही है, वह साक्षी बना हुआ जिंदा रहेगा। असली में तो मरना मुश्किल है, कल्पना में भी मरना मुश्किल है। लोग कहते हैं, कल्पना असीम है। कल्पना असीम नहीं है। आप मृत्यु की कल्पना करें, आपको पता चल जाएगा, कल्पना की भी सीमा है। इसलिए अर्जुन सबको तो देखता है मृत्यु के मुंह में जाते, स्वयं को नहीं देखता। स्वयं को कोई भी नहीं देख सकता। अगर अर्जुन स्वयं को भी मृत्यु में जाते देखे, तो देखेगा कौन फिर? जो मृत्यु में जा रहा है वह अलग हो जाएगा, और जो देख रहा है वह अलग हो जाएगा। अगर अर्जुन देख रहा है मृत्यु में जाते, तो अर्जुन का शरीर भला चला जाए मृत्यु में, अर्जुन नहीं जा सकता; वह बाहर खड़ा रहेगा। वह देखने वाला है। वह आत्मा है, उसे हमने इसीलिए द्रष्टा कहा है। वह सब देखता है। वह मृत्यु को भी देख लेता है। इसलिए अर्जुन को खयाल नहीं आया। आने का कोई उपाय भी नहीं है। वह बाहर है, वह देखने वाला है । और सब मर रहे हैं - मित्र भी, शत्रु भी, बड़े-बड़े योद्धा - लेकिन अर्जुन को खयाल भी नहीं आ रहा कि मैं मर रहा हूं, या मैं मर जाऊंगा। इसलिए बड़े मजे की बात है, आप रोज लोगों को मरते देखते हैं, आपको भय भी पकड़ता है, लेकिन आप विचार करें, कभी भीतर यह बात मजबूती से नहीं बैठती है कि मैं मर जाऊंगा । ऊपर-ऊपर कितना ही भयभीत हो जाएं कि मरना पड़ेगा, लेकिन भीतर यह बात घुसती नहीं कि मैं मर जाऊंगा। भीतर यह भरोसा बना ही रहता है कि और लोग ही मरेंगे, मैं नहीं मरूंगा । यह भरोसा प्रतिफलन है उस गहरे आंतरिक केंद्र का, जहां मृत्यु कभी प्रवेश नहीं करती। उसके बाहर-बाहर ही मृत्यु घटित होती है। आपका घर आपसे छीना जाता है बहुत बार आपके वस्त्र आपसे छीने जाते हैं बहुत बार, जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, व्यर्थ हो जाते हैं, नए वस्त्र मिल जाते हैं। लेकिन आप ! आप कभी भी नष्ट नहीं होते। इसलिए अपनी मृत्यु की कल्पना असंभव है। अपनी मृत्यु का दर्शन भी असंभव है। और जो अपनी मृत्यु का दर्शन करने की कोशिश कर लेता है, वह अमृत का अनुभव कर लेता है। समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं अपनी मृत्यु का अनुभव करने की | कोशिश हैं। सब प्रक्रियाएं, योग की सारी चेष्टा इस बात की है कि आप होशपूर्वक अपने को मरता हुआ देख लें। क्या होगा? सब मर जाएगा, आप बच जाएंगे। रमण को ऐसा हुआ कि उन्हें लगा कि उनकी मृत्यु आ रही है। वे बीमार हैं, उनकी मृत्यु आ रही है। और जब मृत्यु आ ही रही है, | तो उससे लड़ना क्या, हाथ-पैर ढीले छोड़कर वह लेट गए। उन्होंने | कहा, ठीक है। जब मृत्यु आ रही है, तो आ जाए। मैं मृत्यु को भी | देख लूं कि मृत्यु क्या है ! सब शरीर ठंडा हो गया। ऐसा लगने लगा कि शरीर अलग हो गया। लेकिन सब शरीर मरा हुआ मालूम पड़ रहा है, फिर भी रमण को लग रहा है, मैं तो जिंदा हूं। वही अनुभव उनके जीवन में क्रांति बन गया। उसके पहले वे रमण थे, उसके बाद वे भगवान हो गए। | उसके पहले तक उन्होंने जाना था, मैं यह शरीर हूं, जो मरेगा। इसके बाद उन्होंने जाना कि यह शरीर मैं नहीं हूं। जो नहीं मरेगा, वह मैं हूं। सारा तादात्म्य बदल गया। सारी दृष्टि बदल गई। एक नए जन्म | की— अमृत, एक नए जीवन की शुरुआत हो गई। योग की सारी प्रक्रियाएं आपको स्वेच्छा से मरने की कला सिखाने की हैं। पुराने शास्त्रों में कहा है, आचार्य, गुरु, मृत्यु है । | क्योंकि जिस गुरु के पास आपको मृत्यु का अनुभव न हो पाए, वह गुरु ही क्या ! लेकिन मृत्यु का अनुभव बड़ा विरोधाभासी है। एक तरफ जो भी आपने अपने को समझा था - नाम, धाम, पता-ठिकाना, शरीर — सब मर जाता है । और जो आपने कभी नहीं सोचा था आपके भीतर, एक ऐसे केंद्र का आविर्भाव हो जाता है, जिसकी मृत्यु का कोई उपाय नहीं है, जो अमृत है। अर्जुन को इसलिए अनुभव नहीं हुआ । और आपको भी तभी तक मृत्यु का भय है, जब तक आपने अनुभव नहीं किया है। आपके भीतर क्या मरणधर्मा है और क्या अमृत है, इसका भेद ही | ज्ञान है। आपके भीतर क्या-क्या मर जाने वाला है और क्या-क्या नहीं मरने वाला है, इसकी भेद-रेखा को खींच लेना ही ज्ञान है। समाधि में वही भेद-रेखा खिंच जाती है। आप दो हिस्सों में साफ हो जाते हैं। एक आपकी खोल है, जो मरेगी, क्योंकि वह जन्मी है। जो जन्मा है, वह मरेगा। और एक आपके भीतर की गिरी है, जो नहीं मरेगी, | क्योंकि वह जन्मी भी नहीं है। शरीर का जन्म है, आपका कोई जन्म 395 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 नहीं है। शरीर का जन्म है, शरीर की मृत्यु है। जो आपको मां-बाप | | करके देख लेता है। से मिला है शरीर, वह मरेगा। लेकिन जो आप हैं, उसके मरने का | | कठिन नहीं है। अगर प्रयोग करें, तो सरल है। अगर मानते ही कोई उपाय नहीं है। रहें, तो बहुत कठिन है। अगर प्रयोग करें, तो बहुत सरल है। लेकिन ऐसा विश्वास करके मत बैठे रहना। विश्वास करने की क्योंकि आप अलग हैं ही। सिर्फ थोड़े से होश को बढ़ाने की जरूरत हमारी बड़ी जल्दी होती है। और मतलब की बात हो, इच्छा के है भीतर। आंख बंद करके भीतर देखने की क्षमता विकसित करने अनुकूल हो, हम जल्दी विश्वास कर लेते हैं। हम सब चाहते हैं कि की जरूरत है। न मरें, इसलिए आत्मा अमर है, इसमें विश्वास करने के लिए हमें लेकिन मौत तो बहुत दूर है। आप अपनी नींद को भी नहीं देख बहुत तर्क की जरूरत नहीं पड़ती। हमारा भय ही काफी तर्क हो पाते, तो मौत को कैसे देख पाएंगे? आप रोज सोते हैं शाम। जिंदगी जाता है। कोई भी हमसे कहे, आत्मा अमर है, हमारा दिल बड़ा | में साठ साल जीएंगे, तो बीस साल सोने में बिताएंगे। छोटा-मोटा खुश होता है कि चलो, मरेंगे नहीं। इस पर विश्वास कर लेने में | काम नहीं है नींद, एक तिहाई जिंदगी उसमें जाती है। बीस साल आप जल्दी कर देते हैं लोग। जल्दी मत करना। विश्वास से कुछ हल न | सोते हैं, अगर साठ साल जिंदा रहते हैं। लेकिन आपको पता है कि होगा। अनुभव ही एकमात्र हल है। | नींद क्या है? कभी आपने होशपूर्वक नींद को देखा है ? कि नींद उतर मैं कहता हूं, इससे मान मत लेना। कृष्ण कहते हैं, इससे मत रही मेरे ऊपर। छा रही। सब तरफ से मुझे घेर रही। शरीर सुस्त हुआ मान लेना। बुद्ध कहते हैं, इससे मत मान लेना। उनके कहने से | | जा रहा। नींद प्रवेश करती जा रही है और मैं देख रहा हूं। ' सिर्फ प्रयोग करने के लिए तैयार होना है, मान मत लेना। इतना ही आप नींद को भी नहीं देख पाते, तो मौत को कैसे देखिएगा? समझना कि कहते हैं ये लोग, प्रयोग करके हम भी देख लें। और मौत तो बहुत गहरी मूर्छा है। नींद तो बहुत छोटी मूर्छा है। अगर अनुभव मिल जाए, तो ही मानना, अन्यथा मत मानना। | जरा-सा कोई बर्तन गिर जाए, तो खुल जाती है। इससे ज्यादा नहीं तो हमारी हालत ऐसी है कि बिना अनुभव के हम माने चले| गहराई नहीं है। एक मच्छड़ काट जाए, तो खुल जाती है। बहुत जाते हैं। बिना अनुभव के जो मान्यता है, वह ऊपर-ऊपर होगी, गहरी नहीं है। लेकिन इतनी उथली चीज में भी आप होश नहीं रख थोथी होगी, कागजी होगी, जरा-सी वर्षा होगी और बह जाएगी, | पाते, तो मौत में कैसे रख पाएंगे? टिकने वाली नहीं है। ऊपर-ऊपर की जो मान्यता है, वह मृत्यु में| प्रयोग अगर करेंगे, तो जिसको भी मृत्यु के संबंध में जागना है, आपको सजग न रख पाएगी, आप बेहोश हो जाएंगे। उसे नींद से प्रयोग शुरू करना चाहिए। रात जब बिस्तर पर पड़ें, तो डाक्टर तो अब एनेस्थेसिया का प्रयोग करते हैं बड़ा आपरेशन आंख बंद करके एक ही खयाल रखें कि मैं जागा रहूं। शरीर को करना हो तो। लेकिन मृत्यु सबसे बड़ा आपरेशन है। क्योंकि | ढीला होने दें, होश को सजग रखें। और खयाल रखें कि मैं देख आपका समस्त शरीर-संस्थान आपसे अलग किया जाता है। लं, नींद कब आती है? कब मेरा शरीर जागने से नींद में प्रवेश इसलिए प्रकृति भी उसे होश में नहीं कर सकती। प्रकृति भी आपको | | करता है? कब गियर बदलता है? कब मैं नींद की दुनिया में प्रवेश बेहोश कर देती है, मरने के पहले आप बेहोश हो जाते हैं। | करता हूं? उसे देख लूं! बस, चुपचाप देखते रहें। वह इतना बड़ा आपरेशन है, उससे बड़ा कोई आपरेशन नहीं है। पता नहीं चलेगा कब नींद लग गई, और देखने का खयाल भूल कोई डाक्टर एक हड्डी अलग करता है, कोई डाक्टर दो हड्डी अलग | जाएगा! सुबह होश आएगा कि देखने की कोशिश की थी, लेकिन करता है, कोई हृदय को बदलता है। लेकिन पूरा संस्थान, आपका | | देख नहीं पाए; नींद आ गई और देखना खो गया। लेकिन सतत पूरा शरीर मृत्यु अलग करती है आपसे। वह गहरे से गहरी सर्जरी लगे रहें। अगर तीन महीने निरंतर बिना किसी विघ्न-बाधा के आप है। उसमें आपको बेहोश कर देना एकदम जरूरी है। इसलिए मौत नींद के साथ जागने की कोशिश करते रहे, तो किसी भी दिन यह के पहले आप बेहोश हो जाते हैं। अगर मौत में होश रख पाएं, तो घटना घट जाएगी कि नींद उतरेगी आपके ऊपर, जैसे सांझ उतरती आपको पता चल जाएगा कि आपकी कोई मृत्यु नहीं है। है, अंधेरा छा जाता है, और आप भीतर जागे रहेंगे; आप देख ध्यान जो साधता है, वह धीरे-धीरे मौत में भी होश रख पाता है। पाएंगे कि नींद यह है। क्योंकि मरने के पहले बहुत बार वह अपने को शरीर से अलग जिस दिन आपने नींद देख ली, उस दिन आपने एक बहुत बड़ा 396 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य बीज है परमात्मा का कदम उठा लिया। बहुत बड़ा कदम उठा लिया। फिर दूसरा प्रयोग | तो दो दफे लगती होगी दिन में, तीन दफा लगती होगी। न खाएं, है कि नींद रात लगी रहे, लगी रहे, लगी रहे, लेकिन भीतर एक तो दिनभर लगती है! भूख पीछा करती है। शरीर तो भूखा होता ही कोने में होश भी बना रहे कि मैं सो रहा हूं, करवट बदल रहा हूं, है, आत्मा भी भीतर भूख से भर जाती है। मच्छड़ काट रहा है, हाथ-पैर ढीले पड़ गए हैं। अब जागने का क्षण | उपवास का प्रयोग इसी तरह का प्रयोग है, जैसा नींद का प्रयोग करीब आ रहा है, अब मैं जाग रहा हूं। है। शरीर को भूख लगे और आप भीतर बिना भूख के रहें, तो दोनों जिस दिन आप सांझ से लेकर सुबह तक, शरीर सोया रहे और | क्रियाएं अलग हो जाएंगी। आप जागे रहें, अब कोई कठिनाई नहीं है; अब आप मृत्यु में प्रवेश | जिस दिन आपको साफ हो जाएगा, शरीर को भूख लगी और कर सकते हैं। तब बहुत आसान है, तीसरी बात। इतना अगर सध मैं तृप्त भीतर खड़ा हूं, कोई भूख नहीं है, उस दिन आपको भेद जाए-इसमें वर्षों लग सकते हैं लेकिन इतना सध जाए, तो का पता चल जाएगा। शरीर सो गया, आप जागे हुए हैं, भेद का आप दूसरे आदमी हो जाएंगे, एक नए आदमी हो जाएंगे। आपने | | पता चल जाएगा। और जब भेद का पता चलेगा, तभी जब मृत्यु अपनी नींद पर विजय पा ली। होगी, शरीर मरेगा, आप नहीं मरेंगे, तब आपको उस भेद का भी और जिसने अपनी नींद पर विजय पा ली, उसको मृत्यु पर| | पता चल जाएगा। विजय पाने में कोई कठिनाई नहीं, क्योंकि मृत्यु एक और बड़ी नींद | | नींद से शुरू करें, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे भीतर भेद साफ होने है, और गहन मूर्छा है। अगर आप नींद में जग पाते हैं, तो आपको | लगता है, रोशनी भीतर बढ़ने लगती है। रोशनी हमारे पास है, हम तत्क्षण पता चलने लगेगा कि आप अलग हैं और शरीर अलग है। उसे बाहर उपयोग कर रहे हैं, भीतर कभी ले नहीं जाते। तो सारी क्योंकि शरीर सोएगा और आप जगेंगे। दुनिया को देखते हैं, अपने भर को छोड़ देते हैं। ध्यान रहे, आपको तब तक शरीर के और आत्मा के अलग होने इसलिए अर्जुन को दिखाई नहीं पड़ा। क्योंकि मृत्यु तो किसी को का पता नहीं चलेगा. जब तक आप कोई ऐसा प्रयोग न करें जिस भी दिखाई नहीं पड़ती है अपनी सिर्फ दसरे की दिखाई पड़ती है। प्रयोग में दोनों की क्रियाएं अलग हों। अभी आपको भूख लगती | ___ इसलिए दूसरे के संबंध में जो भी आपको दिखाई पड़ता है, है, तो आपके शरीर को भी लगती है, आपको भी लगती है। बहुत | उसको बहुत मानना मत, वह झूठा है, ऊपर-ऊपर है। अपने संबंध मुश्किल है तय करना कि शरीर को भूख लगी कि आपको लगी। | में भीतर जो दिखाई पड़े, वही सत्य है, वही गहरा है। और जब अभी आप जो भी कर रहे हैं, उसमें आपकी क्रियाओं में तालमेल | | आपको अपना सत्य दिखाई पड़ेगा, तभी आपको दूसरे का सत्य है, शरीर और आप में तालमेल है। आपको कोई न कोई ऐसा | भी दिखाई पड़ेगा। जिस दिन आपको पता चल जाएगा, मैं नहीं अभ्यास करना पड़े, जिसमें आपको कुछ और हो रहा है, शरीर को | | मरूंगा, उस दिन फिर कोई भी नहीं मरेगा आपके लिए। फिर आप कुछ और हो रहा है। बल्कि शरीर को विपरीत हो रहा है, आपको कहेंगे कि वस्त्र बदल लिए। विपरीत हो रहा है। रामकृष्ण की मृत्यु हुई, तो पता चल गया था कि तीन दिन के लोगों ने भूख के साथ भी प्रयोग किया है। उपवास वही है। वह भीतर वे मर जाने वाले हैं। जो लोग भी जाग जाते हैं, वे अपनी मौत इस बात का प्रयोग है कि शरीर को भूख लगेगी और मैं स्वयं को | | की घोषणा कर सकते हैं। क्योंकि शरीर संबंध छोड़ने लगता है। भूख न लगने दूंगा। भूखे मरने का नाम उपवास नहीं है। अधिक | कोई एकदम से तो छटता नहीं कोई छः महीने लगते हैं शरीर को लोग उपवास करते हैं, वे सिर्फ भूखे मरते हैं। क्योंकि शरीर को भी संबंध छोड़ने में। लगती है भूख, उनको भी लगती है। बल्कि सच तो यह है कि इसलिए मरने के छः महीने पहले, जिसका होश साफ है, वह भोजन करने में उनकी आत्मा को जितनी भूख का पता नहीं चला | | अपनी तारीख कह सकता है कि इस तारीख, इस घड़ी मैं मर था, उतना उपवास में पता चलता है। जाऊंगा। तीन दिन पहले तो बिलकुल संबंध टूट जाता है। बस ___ भोजन करते में तो पता चलता नहीं; जरूरत के पहले ही शरीर | आखिरी धागा जुड़ा रह जाता है। वह दिखाई पड़ने लगता है कि बस को भोजन मिल जाता है। भूख भीतर तक प्रवेश नहीं करती। | | अब एक धागा रह गया है, यह किसी भी क्षण टूट जाएगा। .. उपवास कर लिया, उस दिन दिनभर भूख लगी रहती है। खाते वक्त | तो रामकृष्ण को तीन दिन पहले पता हो गया था कि उनकी मृत्यु Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गीता दर्शन भाग-588 आ रही है। तो उनकी पत्नी शारदा रोती थी, चिल्लाती थी। रामकृष्ण म ह सवाल महत्वपूर्ण है। और जो लोग गणित को उसको कहते थे कि पागल, तू रोती-चिल्लाती क्यों है, क्योंकि मैं समझते हैं, उन्हें बिलकुल ठीक साफ समझ में आ नहीं मरूंगा। लेकिन शारदा कहती थी, सब डाक्टर कहते हैं, सब जाएगा कि ऐसा ही होना चाहिए। अंश कभी अंशी प्रियजन कहते हैं कि अब आपकी मृत्यु करीब है! और वे कहते थे, | नहीं हो सकता। टुकड़ा पूर्ण कैसे हो सकता है ? टुकड़ा टुकड़ा है। तू उनकी मानती है या मेरी! मेरी मानती है या उनकी! मैं नहीं हम एक सागर से एक चुल्लू भर पानी ले लें, तो वह सागर मरूंगा। मैं रहूंगा यहीं। नहीं है, सागर का अंश हो सकता है। यह सीधा गणित है। लेकिन शारदा को कैसे भरोसा आए! रामकृष्ण का यह कहना, स्वभावतः, एक रुपए का नोट एक रुपए का नोट है, वह सौ का उनके अपने भीतर के अनुभव की बात है। वे कह रहे हैं कि मैं नहीं हो सकता. सौ का एक हिस्सा हो सकता है. सौवां हिस्सा हो नहीं मरूंगा। सकता है। यह सीधा गणित है। और जहां तक गणित जाता है, वहां रामकृष्ण को कैंसर हुआ था। कठिन कैंसर था, गले में था और तक बिलकुल ठीक है। भोजन-पानी सब बंद हो गया था। बोलना भी मुश्किल हो गया था। लेकिन धर्म गणित से आगे जाता है। और धर्म बड़ा उलटा पर रामकृष्ण ने कहा है कि देख, तुझसे मैं कहता हूं, जिसको कैंसर | गणित है। उसे थोड़ा समझने के लिए चेष्टा करनी पड़े। क्योंकि हुआ था, वही मरेगा। मुझे कैंसर भी नहीं हुआ था। यह गला रुंध सामान्य गणित तो हम रोज उपयोग करते हैं, हमें पता है। धर्म का गया है, यह गला बंद हो गया है, यह गला सड़ गया है, यह कैंसर गणित हमें बिलकुल पता नहीं है। धर्म के गणित का पहला सूत्र यह से भर गया है, लेकिन मैं देख रहा हूं कि मैं यह गला नहीं हूं। तो है कि वहां अंशी और अंश एक हैं। गला मर जाएगा, यह शरीर गल जाएगा, मिट जाएगा, लेकिन मैं | आपने ईशावास्य का पहला सूत्र सुना है! उस पूर्ण से पूर्ण नहीं मरूंगा। निकल आता है और पीछे भी पूर्ण शेष रह जाता है। आप किसी सौ पर हमें कैसे भरोसा आए? क्योंकि हमें अनुभव न हो। हम तो रुपए में से एक रुपए का नोट बाहर निकालें, पीछे निन्यानबे शेष मानते हैं कि हम शरीर हैं। तो जब शरीर मरता है, तो हम मानते हैं | रहेंगे, सौ शेष नहीं रहेंगे। लेकिन यह सूत्र तो बड़ी गजब की बात कि हम भी मर गए। हमारे जीवन की भ्रांति हमारी मृत्यु की भी भ्रांति कहता है। यह कहता है कि सौ में से सौ भी बाहर निकाल लो, तो बन जाती है। भी सौ ही पीछे शेष रह जाता है! पूर्ण से पूर्ण भी निकाल लो, तो - अर्जुन को दिखाई नहीं पड़ा, आपको भी दिखाई नहीं पड़ेगा। भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। जिस दिन मत्य के द्वार पर आप खडे हो जाएंगे और देखेंगे कि मर । इसका क्या मतलब हआ? यह तो हमारे सारे गणित की रहा है सब कछ. तब भी एक आप बाहर खडे रहेंगे। आप नहीं मर व्यवस्था गडबड हो जाती है। अगर यह उपनिषद का सत्र सही है, रहे हैं, आपके मरने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए अर्जुन बात तो हमारा सारा गणित गलत है। अध्यात्म के जगत में गणित गलत नहीं कर रहा है अपनी मृत्यु की। है। उसके कारण हैं। उसे हम दो-तीन तरह से समझें, तो खयाल में आ जाए। पहली तो बात यह कि जो निराकार है, उसमें से हम अंश को एक और मित्र ने भी बहुत गहरा सवाल पूछा है। बाहर नहीं निकाल सकते। कोई उपाय नहीं है। आप सागर में से उन्होंने पूछा है कि हम सब भगवान हैं। सब भगवान चुल्लू भरकर पानी बाहर निकाल लेते हैं, क्योंकि सागर के बाहर के अंश हैं, यह तो समझ में आ जाता है। लेकिन भी जगह है। इसलिए आप पानी भर लेते हैं चुल्लू में। अंश पूर्ण नहीं हो सकता, अंश तो अंश ही होगा। तो ऐसा समझें कि सागर ही सागर है और सागर के बाहर कोई हम भगवान के अंश हैं, यह तो समझ में आ जाता | जगह नहीं है। फिर आप चुल्लू भी भर लें, तो आपकी चुल्लू में है, लेकिन भगवान हैं, यह समझ में नहीं आता। तो | अंश नहीं होगा, पूरा सागर ही होगा। बाहर तो हम इसलिए निकाल इतना ही कहना उचित है कि हम भगवान के अंश हैं, | लेते हैं कि बाहर सुविधा है। सागर में से चुल्लू भर पानी बाहर लेकिन भगवान हैं, यह कहना उचित नहीं है। निकाल लेते हैं। 398 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मनुष्य बीज है परमात्मा का ___ परमात्मा से चुल्लू भर निकालना मुश्किल है। क्योंकि परमात्मा ऐसा समझिए कि एक आदमी आपसे कहता है कि थोड़ा-थोड़ा के बाहर कोई जगह नहीं है, सिर्फ वही है। उसके बाहर निकालिएगा आपसे प्रेम है, थोड़ा-थोड़ा! क्या मतलब होता है थोड़ा-थोड़ा प्रेम कैसे? कौन निकालेगा? कहां निकालेगा? उसके बाहर निकालने | का? या तो प्रेम होता है या नहीं होता। थोड़ा-थोड़ा प्रेम जैसी कोई का कोई उपाय नहीं है। चीज नहीं होती। हो भी नहीं सकती। इसलिए परमात्मा को खंड-खंड करने का भी उपाय नहीं है। __ आप कहते हैं कि मैं थोड़ा-थोड़ा चोर हूं। थोड़ा-थोड़ा कोई चोर आप अखंड परमात्मा हो, टुकड़े-टुकड़े नहीं हो। टुकड़ा हो नहीं | | होता है। या तो आप चोर हैं या चोर नहीं हैं। थोड़ा-थोड़ा आप क्यों सकता उसका। और अगर परमात्मा का टुकड़ा हो जाए, तो हमने | | कहते हैं? कहते हैं कि मैं लाख की चोरी नहीं करता; ऐसे, पैसे दो बड़ा भारी काम कर लिया। मार ही डाला उसको। उसके टुकड़े नहीं पैसे ही चुराता हूं। इसलिए थोड़ा-थोड़ा चोर हूं। हो सकते, कि आप एक टुकड़ा हो, मैं एक टुकड़ा हूं और तीसरा | लेकिन एक पैसे की चोरी भी उतनी ही चोरी है, जितनी लाख आदमी तीसरा टुकड़ा है। ऐसे उसके कोई टुकड़े नहीं हो सकते। रुपए की चोरी। यह लाख और एक का फासला चोरी का फासला क्योंकि टुकड़ा होगा उसका, जिसके बाहर भी कोई जगह हो। नहीं है। चोरी करने की जो चित्त-दशा है, वह एक पैसे में भी उतनी परमात्मा का कोई टुकड़ा नहीं हो सकता। ही है, जितनी करोड़ में। इसलिए करोड़ की चोरी बड़ी और एक इसलिए जो लोग कहते हैं, हम परमात्मा के अंश हैं, बिलकुल पैसे की चोरी छोटी, यह सिर्फ नासमझ कहेंगे, जिनको सिर्फ गणित गलत कहते हैं। क्योंकि अंश का मतलब है, आप टुकड़ा हो गए, आता है; जिनको गणित के पार कुछ दिखाई नहीं पड़ता। आप अलग हो गए। आप परमात्मा में हैं पूरे के पूरे और पूरा का | ___चोरी बराबर होती है। एक पैसे की चोरी में भी आप पूरे चोर होते पूरा परमात्मा आप में है। इसमें कोई बंटाव के उपाय नहीं हैं। काटने | हैं, और एक करोड़ की चोरी में भी उतने ही चोर होते हैं, पूरे चोर की कोई सुविधा नहीं है। डिवीजन नहीं हो सकते। क्योंकि वह होते हैं। क्या आप चुराते हैं, इससे चोर होने में फर्क नहीं पड़ता। या अकेला ही है। कैसे बांटिए? कौन बांटे? कहां बांटे ? कहां है जगह | तो आप चोर हैं, या चोर नहीं हैं। इन दोनों के बीच बंटाव नहीं है। जिसमें हम बांट लें? ठीक ऐसे ही, या तो आप परमात्मा हैं पूरे के पूरे, और या और दो टुकड़ों के बीच तो फासला हो जाता है। आपके और बिलकुल नहीं हैं। बीच में, थोड़े-थोड़े परमात्मा, ऐसा समझौता परमात्मा के बीच जरा भी फासला नहीं है। इसलिए आपको टुकड़ा | हमारा गणित करने वाला जो मन है, वह करता है। उससे हमें राहत नहीं कहा जा सकता। आप एक फल के दो टुकड़े कर लेते हैं, दोनों | भी मिलती है, लेकिन वह सत्य नहीं है। में फासला हो जाता है। आपके और परमात्मा के बीच इंचभर भी | असीम को खंडों में नहीं बांटा जा सकता। फासला नहीं है। आपको टुकड़ा नहीं कहा जा सकता। आपको आस्पेंस्की ने, रूस के एक बहुत बड़े गणितज्ञ ने एक किताब अंश नहीं कहा जा सकता। या तो आप पूरे के पूरे परमात्मा हैं और | लिखी है, टर्शियम आर्गानम। गणित के ऊपर लिखी गई मनुष्य के या बिलकुल परमात्मा नहीं हैं। इन दो के बीच तीसरा कोई उपाय | इतिहास में श्रेष्ठतम पुस्तकों में एक है। खुद आस्पेस्की का भी दावा नहीं है। है कि तीन ही किताबें दुनिया में हैं, जिनमें वह एक है। और उसके मगर हमारी बुद्धि समझौते के लिए तैयार रहती है। वह सोचती दावे में जरा भी दंभ नहीं है। दावा बिलकुल सही है। है कि पूरा परमात्मा कहना तो जरा जरूरत से ज्यादा हो जाएगा। ___ तर्क और गणित के सिद्धांत पर पहली किताब लिखी है अरस्तू और बिलकुल परमात्मा नहीं हैं, तो भी बड़ी मन को दीनता मालूम | ने। उस किताब का नाम है, आर्गानम। आर्गानम का मतलब है, पड़ती है। इसलिए ऐसा कहो कि थोड़े-थोड़े परमात्मा हैं, | पहला सिद्धांत। फिर दूसरी किताब लिखी है बेकन ने। उस किताब जरा-जरा! का नाम है, नोवम आर्गानम, नया सिद्धांत। और आस्पेस्की ने लेकिन जरा-जरा परमात्मा का क्या मतलब होता है ? थोड़े-थोड़े | तीसरी किताब लिखी है, टर्शियम आर्गानम, तीसरा सिद्धांत, परमात्मा का क्या मतलब होता है? थोड़ा परमात्मा पूरे परमात्मा से गणित का तीसरा सिद्धांत। और आस्पेंस्की ने अपनी किताब में जो कम होगा! तो वह परमात्मा ही नहीं होगा। थोड़े परमात्मा का क्या ऊपर ही घोषणा की है, वह बड़ी मजेदार है। वह यह है कि दोनों मतलब होगा? सिद्धांतों के पहले भी मेरा सिद्धांत मौजूद था। ये दोनों किताबें 1399] Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 गीता दर्शन भाग-50 लिखी गईं, उसके पहले भी मेरा सिद्धांत मौजूद था। तकलीफ होती है। क्या कारण है ? क्या-क्या तकलीफें हैं हमारे मन उन दोनों किताबों में, जो प्रश्न आपने पूछा है, उसी गणित का | | में मानने में कि हम अपने को परमात्मा मान लें? विस्तार है, कि अंश कभी भी अंशी के बराबर नहीं हो सकता, खंड बड़ी तकलीफें हैं। क्योंकि परमात्मा मानते से ही आप जैसे हैं, कभी अखंड के बराबर नहीं हो सकता। और आस्पेंस्की ने लिखा | वैसे ही जी न सकेंगे। तब चोरी करने को हाथ बढ़ेगा और आप है कि खंड अखंड के बराबर है, टुकड़ा पूरे के बराबर है। क्यों? | अपने को परमात्मा मानते हैं, बड़ी घबड़ाहट होगी कि यह मैं क्या क्योंकि असीम के गणित में खंड हो ही नहीं सकता। कर रहा हूं! तब किसी की जेब काटने को हाथ बढ़ेगा और परेशानी इसीलिए ईशावास्य का सूत्र बड़ा कीमती है कि पूर्ण से पूर्ण को होगी कि यह मैं क्या कर रहा हूँ! आपका यह खयाल भी, विचार निकाल लें, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। क्यों शेष रह जाता | | भी कि मैं परमात्मा हूं, आपकी जिंदगी को बदल देगा; आप वही है? क्योंकि आप निकाल ही नहीं सकते, तरकीब यह है। आप | | आदमी नहीं रह जाएंगे, जो आप हैं। निकाल ही नहीं सकते। पूर्ण से पूर्ण को निकाला नहीं जा सकता। । एक चौबीस घंटे परमात्मा की तरह मानकर जीकर देखें। कल्पना आप सिर्फ वहम में पड़ते हैं कि निकाल लिया। इसीलिए पीछे पूर्ण । ही सही, एक्ट ही करना पड़े, कोई हर्ज नहीं। एक चौबीस घंटे ऐसे शेष रह जाता है। वह सिर्फ आपका धोखा था कि मैंने निकाला। | जीकर देखें, जैसे मैं परमात्मा हूं। आपकी जिंदगी दूसरी हो जाएगी। निकालने का कोई उपाय नहीं है। इससे घबड़ाहट है! हम अपने चोर को, बेईमान को, बदमाश आपको लगता है कि आप अंश हैं, यह धोखा है। अंश होने का | को बचाना चाहते हैं। तो कोई हमसे कह दे, शैतान हो, तो हमें कोई कोई उपाय नहीं है। आप पूरे के पूरे परमात्मा हैं, अभी और यहीं।। एतराज नहीं होता। कोई हमसे कह दे, भगवान हो, तो हमें बेचैनी ऐसा भी नहीं कहता हूं कि कल हो जाएंगे। क्योंकि जो आप नहीं | शुरू होती है, क्योंकि वह झंझट की बात कह रहा है। अगर मान हैं, वह आप कल भी नहीं हो पाएंगे। और जो आप नहीं हैं, वह | लें, तो फिर जो हम हैं, वही हम न रह पाएंगे, उसमें बदलाहट करनी होने का कोई उपाय नहीं है। कल हो सकता है. आपको पता चले. पडेगी। और उसमें हम बदलाहट नहीं करना चाहते हैं। तो फिर लेकिन हैं आप अभी और यहीं। जितनी भी देरी आपको लगानी है, उचित यही है कि हम न मानें। वह आप पता लगाने में कर सकते हैं, होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन बिलकुल इनकार करने की भी हिम्मत नहीं होती, क्योंकि बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो बुद्ध से पूछा गया कि तुम्हें क्या हर आदमी गहरे में तो चाहता है कि परमात्मा हो। वह चाह मिला? तो बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी मुझे नहीं, सिर्फ मैंने उलटा स्वाभाविक है। वह चाह वैसे ही है, जैसे बीज चाहता है कि वृक्ष खोया! हो। जैसे कि बीज चाहता है कि खिले, फूल बने, आकाश में सुगंध पूछने वाला चकित हुआ होगा। क्योंकि हम सोचते हैं, ज्ञान में बिखराए। जैसे बीज चाहता है कि ऊपर उठे, सूरज को चूमे, मिलना चाहिए। हम तो लोभ से जीते हैं। हमारा तो गणित फैलाव आकाश में खिले। वैसे ही आपके भीतर भी जो असलियत छिपी का है। और बुद्ध कहते हैं कि मिला मुझे कुछ भी नहीं, उलटा खो है, वह प्रकट होना चाहती है। इसलिए वह कहती है, बढ़ो, फैलो, गया! क्या खो गया? विस्तीर्ण हो जाओ। तो बुद्ध ने कहा, मेरा अज्ञान खो गया। और जो मुझे मिला है, । और विस्तीर्ण होने का अंतिम आयाम भगवान है। वही वह अब मैं जानता हूं कि मुझे सदा ही मिला हुआ था। वह मैंने कभी | विस्तीर्णता का आखिरी रूप है। और जब तक आदमी भगवान न खोया ही नहीं था। सिर्फ मुझे पता नहीं था। जो मेरी ही संपदा थी, | हो जाए, तब तक कोई तृप्ति नहीं है। क्योंकि जब तक जो आपके वह मेरी ही आंख से ओझल थी। जिस जमीन पर मैं सदा से खड़ा | भीतर छिपा है, वह पूरी तरह खुल न जाए, प्रकट न हो जाए, उसकी था, उसको ही मैं देख नहीं रहा था और सारी तरफ खोज रहा था। | पंखुड़ी-पंखुड़ी खिल न जाए, तब तक कोई चैन नहीं है। अपने को छोड़कर मैं सब तरफ भटक रहा था। और मैं सदा से था। इसलिए आदमी इनकार भी नहीं कर पाता, स्वीकार भी नहीं कर जो मुझे मिला है, वह उपलब्धि नहीं है, आविष्कार है, सिर्फ मैंने | पाता, ऐसी दुविधा में जीता है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि उघाड़कर देख लिया है। | उसके कोई खंड नहीं हए हैं। वह अखंड है। और वह अखंड की आप परमात्मा हैं अभी और यहीं। लेकिन हमें यह मानने में | | तरह ही आपमें मौजूद है, उसे स्वीकार करें। और उसके साथ जीने Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मनुष्य बीज है परमात्मा का पिन की कोशिश शुरू करें। यह विचार भी आपके जीवन में क्रांति बन बिलकुल मरणासन्न हैं। क्योंकि आप आ गए, नहीं तो आप बच जाएगी। यह विचार का बीज भी भीतर पड़ जाए, तो धीरे-धीरे, नहीं सकते थे। उनके पास आ गए, अब बच जाएंगे, नहीं तो बच धीरे-धीरे चारों तरफ आपका सब कुछ बदलने लगेगा। नहीं सकते थे। छोटी-सी फुसी आपको हो, तो वे कैंसर जैसी हमारे विचार भी क्षुद्र हैं। हम विराट विचार तक को स्वीकार घबड़ाहट पैदा कर देते हैं। क्योंकि तभी आपका शोषण किया जा करने में घबड़ाते हैं। हम क्षुद्र विचार में जीते हैं, क्योंकि हमारा | सकता है। तभी आपका शोषण किया जा सकता है। व्यक्तित्व उसके आस-पास आसानी से रह पाता है। | और फंसी भी केंसर हो सकती है, अगर भरोसा आ जाए। विराट को जगह दें थोड़ी। अभी खयाल ही सही, कोई बात नहीं। भरोसा बड़ी चीज है। बहुत बड़ी चीज है। क्योंकि भरोसा काम क्योंकि जो आज विचार है, वह कल व्यक्तित्व बन जाएगा। और | करना शुरू कर देता है। आपके भीतर एक खयाल बैठ गया कि मैं जो आज छिपा हुआ बीज है, वह कल वृक्ष हो जाएगा। जो आज | बीमार हूं, तो आप बीमार हो जाएंगे। सोचा है, वह कल हो जाएगा। मेरे एक शिक्षक थे, मेरी बात मानने से राजी नहीं थे। मैं उनसे बुद्ध ने कहा है, तुम जो भी हो गए हो, वह तुम्हारे पिछले विचारों | | कहता था, जो आदमी मान ले, धीरे-धीरे हो जाता है। वे कहते थे, का परिणाम है। और तुम जो विचार आज कर रहे हो, वह तुम कल | | यह बात ठीक नहीं है। क्योंकि कोई कितना ही मान ले कि मैं हो जाओगे। इसलिए विचार में थोड़ी बुद्धिमानी बरतना। | नेपोलियन है, नेपोलियन तो नहीं हो जाऊंगा, पागल हो जाऊंगा! • लेकिन हम विचार में कोई बुद्धिमानी बरतते नहीं। हम सोचते | | जिस यूनिवर्सिटी में मैं पढ़ता था, वे वहीं शिक्षक थे, मेरे शिक्षक हैं, विचार से क्या लेना-देना है? लेकिन एक आदमी के मन में | थे। जहां हमारा डिपार्टमेंट था, वहां से कोई एक मील के फासले अगर यह विचार बैठ जाए कि मैं परमात्मा हूं, तो एक बात पक्की | | पर वे नीचे यूनिवर्सिटी के कैम्पस में ही रहते थे। है कि उसके शैतान को सविधा मिलनी मुश्किल हो जाएगी। गी। और क दिन योजना बनाई। कोई पंद्रह दिन बाद. जब उनसे एक आदमी को यह विचार बैठ जाए कि मैं शैतान हूं, तो उसके यह बात हुई थी। पंद्रह दिन बाद मैं उनके घर गया और उनकी पत्नी शैतान को बहुत सुविधा मिलनी शुरू हो जाएगी। | को मैंने कहा कि मेरी प्रार्थना है, स्वीकार कर लें। एक प्रयोग में मनसविद कहते हैं कि आप वही हो जाते हैं, जिसका स्वप्न लगा हूं, किसी को कहना मत। सुबह उठते ही अपने पति को कहना आपमें पैदा हो जाता है। अभी तो मनसविद कहते हैं कि स्कूल में कि आज तबीयत कुछ खराब है क्या? पीला चेहरा मालूम पड़ता किसी बच्चे को गधा, मूर्ख नहीं कहना चाहिए। क्योंकि अगर यह है! रात सोए नहीं क्या? आंख लाल-लाल दिखाई पड़ती है! धारणा मजबूत हो जाए, तो वह यही हो जाएगा, जो उसके शिक्षक । उनकी पत्नी ने कहा, लेकिन वे बिलकुल ठीक हैं! मैंने कहा, कह रहे हैं। और दुनिया में इतने जो गधे दिखाई पड़ते हैं, इसमें नब्बे | | इसकी फिक्र न करें। छोटा प्रयोग कर रहा हूं। आप सिर्फ इतना करें। परसेंट शिक्षकों का हाथ है। ये बेचारे गधे थे नहीं, इनको गधे कहने | और वे जो भी कहें, यह कागज की एक पट्टी दे जाता हूं, इस पर वाले लोग मिल गए। और उन्होंने धारणा इतनी मजबूत बिठा दी कि | | ठीक उन्हीं के शब्द लिख देना, वे जो भी वक्तव्य दें इसके उत्तर में। अब ये भी मानते हैं, अब ये भी स्वीकार करते हैं। फिर उनके नौकर को कहा, बाहर बगीचे के माली को कहा, कि मनसविद कहते हैं. किसी को ऐसा कहना गलत है। किसी को जब वे बाहर आएं, तो कृपा करके इतना ही पूछना कि आपके पैर बीमार कहना गलत है। अभी तो मनसविद कहते हैं कि चिकित्सक | | कुछ डांवाडोल मालूम पड़ते हैं! तबीयत ठीक नहीं है क्या? वे जो के पास जब कोई बीमार आए, तो उसे ऐसे व्यवहार करना चाहिए, कहें, इस कागज पर लिख लेना। फिर रास्ते में एक पोस्ट आफिस जैसे वह बीमार नहीं है। दवा भला दे, लेकिन व्यवहार ऐसे करे, | | पड़ता था, उसके पोस्ट मास्टर को जाकर कहा कि जब वे यहां से जैसे वह बीमार नहीं है! क्योंकि उसका व्यवहार दवा से ज्यादा | | निकलें, कृपा करके तुम बाहर रहना। इतना उनसे पूछ लेना कि क्या मूल्यवान है। क्योंकि व्यवहार उसके मन में चला जाएगा; दवा | | बात है, बहुत दिन बाद दिखाई पड़े। तबीयत खराब हो गई थी क्या? केवल शरीर में जाएगी। ऐसा रास्ते में कोई दस जगह मैं लोगों को चिट्ठियां देकर आया। लेकिन जो क्वैक डाक्टर हैं, धोखेधड़ी वाले डाक्टर हैं, वे | | डिपार्टमेंट का जो चपरासी था, उससे मैंने कहा कि तू एकदम आपको देखकर ही ऐसी घबड़ाहट पैदा करते हैं कि जैसे आप| | उठकर उनको संभाल लेना कि आप बिलकुल गिरे पड़ते हैं। वह 4011 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 बोला, लेकिन वे नाराज होंगे। ऐसा कैसे करूंगा। मैंने कहा, तू बिलकुल फिक्र मत कर। जिम्मा मेरा है। तू एकदम संभाल लेना, कुर्सी पर बिठा देना कि आपकी हालत तो खराब हो रही है ! उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि कौन कहता है कि मेरी हालत खराब है! मैं बिलकुल ठीक हूं। रात अच्छी तरह सोया । पट्टी पर पत्नी के लिखा हुआ था कि मैं बिलकुल ठीक हूं। रात अच्छी तरह सोया । तुझे कोई वहम पैदा हो गया ? तेरी आंख में कुछ भूल है। लेकिन इतनी ताकत, जब बाहर माली ने उनसे पूछा कि मालिक, तबीयत कुछ खराब है? उनके उत्तर में नहीं थी। माली की चिट्ठी पर लिखा हुआ था कि हां, रात से कुछ थोड़ा ढीला-ढीला अनुभव कर रहा हूं। अभी सिर्फ कमरे और बाहर का फर्क पड़ा है। और जब पोस्ट मास्टर ने उनसे पूछा कि क्या बात है, बहुत दिन से दिखाई नहीं पड़े। तबीयत कुछ खराब है ? तो उन्होंने कहा, हां रात से कुछ थोड़ा-सा बुखार है। और जब कमरे के चपरासी ने आकर उनको संभाला और कुर्सी पर बिठाला, तो उन्होंने चपरासी से कहा कि तू पूछताछ मत कर। जाकर किसी और प्रोफेसर की गाड़ी ले आ, मुझे घर पहुंचा। मेरा शरीर तप रहा है और हालत मेरी ठीक नहीं है। और जब मैंने ये दसों चिट्ठियां उनके सामने रात को जाकर रखीं, तो उन्हें एक सौ तीन डिग्री बुखार था। मैंने कहा, ये चिट्ठियां पढ़िए और बिस्तर के बाहर निकल आइए। यह बुखार झूठा है या सच ? यह बुखार सच है, क्योंकि थर्मामीटर पकड़ता है। उसको झूठा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि सचाई का और उपाय क्या है ? थर्मामीटर पकड़ ले, तो चीज सत्य होती है। कहा, यह बुखार सच है, लेकिन सिर्फ एक धारणा का परिणाम है। सुबह से मैं आपके चारों तरफ प्रचार कर रहा हूं कि आप बीमार हैं। और यह बीमारी का खयाल आपको पकड़ गया है। आदमी आदमी नहीं है; आदमी सिर्फ एक संभावना है। और अगर पश्चिम में डार्विन ने लोगों को समझा दिया कि आदमी बंदर की औलाद है और आदमी को अगर भरोसा हो गया, तो पता नहीं आदमी बंदर की औलाद है या नहीं, आदमी बंदर की औलाद के जैसा व्यवहार करेगा। यह भरोसा आ जाना चाहिए। यह सवाल बड़ा नहीं है कि वह सच में है या नहीं। अभी तक तय भी नहीं है कि वह बंदर की औलाद है। लेकिन डार्विन ने जो भरोसा पश्चिम को दिला दिया कि आदमी बंदर की औलाद है, उसका बड़ा परिणाम हुआ। जब आदमी बंदर की औलाद है, तो बात ही खत्म हो गई, हमने स्वीकार कर लिया कि हम बंदर जैसे हैं। जब फ्रायड ने लोगों को भरोसा दिला दिया कि आदमी सिवाय कामवासना के सिवाय सेक्सुअलिटी के और कुछ भी नहीं है, तो पता नहीं वह ठीक कह रहा है कि गलत, लेकिन जिनको भरोसा आ गया कि हम सिर्फ सेक्स हैं, सिर्फ कामवासना हैं, वे कामवासना में ही ठहर गए। अगर आज पश्चिम पूरी तरह कामवासना से भर गया है, तो उसका जिम्मा फ्रायड पर है, जिसने एक धारणा दे दी। 402 आदमी एक संभावना है फ्लेक्सिबल, बड़ी लोचपूर्ण संभावना है। यही उसकी खूबी है। आप किसी कुत्ते को कुछ और नहीं बना सकते; वह कुत्ता ही रहेगा। किसी शेर को कुछ नहीं बना सकते; वह शेर ही रहेगा। फ्लेक्सिबल नहीं है, फिक्स्ड है, लोच नहीं है। आदमी लोचपूर्ण है। आदमी को जो धारणा दे दें, वह वही बन जाएगा। जब मैं आपसे कहता हूं, आप ईश्वर हैं, तो मैं आपको एक धारणा दे रहा हूं परम विस्तार की । उस धारणा का आज ही फल नहीं हो जाएगा। आज ही आप एकदम से छलांग लगाकर ईश्वर नहीं हो जाएंगे, वह मैं जानता हूं। लेकिन वह धारणा अगर गहरे में बैठ जाए, तो वह आपके भीतर जो छिपा है, उसका आविष्कार हो जाएगी। और ईश्वर होना आपकी नियति है, आपके भीतर छिपा है। आप कितने ही जन्मों-जन्मों तक टालते रहें, बच न सकेंगे। इसलिए ईश्वर को कोई जल्दी भी नहीं है कि आप अभी ही ईश्वर हो जाएं। समय की वहां कोई कमी नहीं है। अनंत समय पड़ा है। आप कितने ही जन्म भागते रहें, दौड़ते रहें, सब कुछ करते रहें, एक न एक दिन आप उसके जाल में गिर जाएंगे। लेकिन जब तक आप नहीं गिरते | हैं, तब तक अकारण दुख भोगते हैं। जो मैं जोर देकर कहता हूं कि आप परमात्मा हैं, उसका कुल | कारण गहरे में इतना है कि जो आपकी अंतिम नियति हैं, जो डेस्टिनी है, जो आपकी आखिरी होने की संभावना है, वह परमात्मा है। और वह आपका बीज भी है। क्योंकि आखिर में केवल वही हो सकता है, जो आज ही छिपा हो । शून्य से कुछ भी पैदा नहीं होता । जो मौजूद हो, उसी का उदघाटन होता है। - अगर आपके मन में यह खयाल बैठ जाए और यह खयाल | सत्य के अत्यंत अनुकूल है — कि आप खंड नहीं हैं, अखंड आपके भीतर विराजमान है। यह कैसे अखंड विराजमान होगा? इसे थोड़ा हम समझें। स्वामी राम कहा करते थे कि ऐसा हुआ एक बार कि एक राजा Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मनुष्य बीज है परमात्मा का 0 के महल में एक कुत्ता घुस गया। राजा ने जो महल बनाया था, | लेने जरूरी हैं। और पहला सूत्र यह है कि अंत में जो आप हो उसमें उसने हजारों कांच के टुकड़े लगाए थे। हर कांच का टुकड़ा जाएंगे, वह आप आज और अभी-यहीं हैं। कितना ही समय लगे, एक दर्पण था। कुत्ता जब अंदर गया, तो उसने देखा कि लाखों कुत्ते | लेकिन समय केवल वही प्रकट कर पाएगा, जो आपमें छिपा था। खड़े हैं। हर कांच के दर्पण में एक-एक कुत्ता खड़ा था, पूरा का | महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को हम भगवान कहते हैं इसीलिए परा। ऐसा नहीं कि एक टकडा कि लाख कांच लगे थे. तो लाख कि उनमें वह प्रकट हो गया है. जो हममें प्रकट नहीं है। लेकिन टुकड़े हो गए कुत्ते के और एक-एक टुकड़ा एक-एक कांच में | | हममें और उनके स्वभाव में कोई फर्क नहीं है। सिर्फ अभिव्यक्ति दिखाई पड़ने लगा। लाख कांच लगे थे, तो लाख कुत्ते हो गए, पूरे | | का फर्क है। के पूरे। पूरा कुत्ता टुकड़ों में दिखाई पड़ने लगा। ऐसा समझिए कि दो कवि हैं। एक कवि चुप बैठा है और एक __ कुत्ता घबड़ाया, भौंका। लाख कुत्ते भौंके। कुत्ता घबड़ा गया और | कवि गा रहा है। जो गा रहा है, वह आपको कवि मालूम पड़ेगा। भी ज्यादा। क्योंकि लाख कुत्ते भौंक रहे थे चारों तरफ से। चीखा। | जो चुप है, वह कवि नहीं मालूम पड़ेगा। लेकिन कवि होने में जरा दौड़ा। कुत्ता कांच के आईनों की तरफ दौड़ा। कांच के आईनों के भी अंतर नहीं है। वह भी गाएगा। वह भी गा सकता है। वह गाएगा कुत्ते कुत्ते की तरफ दौड़े। कुत्ता वहां मर गया उसी रात। लड़ता रहा | ही; भीतर उसके गीत मौजूद है, वह प्रकट होगा। रातभर। मर गया। एक बीज पड़ा है और एक वृक्ष लगा है। वृक्ष में फूल खिल गए करीब-करीब आदमी की हालत ऐसी है। आपमें परमात्मा पूरा | हैं, और बीज में तो कुछ भी पता नहीं चलता है, कंकड़-पत्थर की प्रतिबिंबित हो रहा है। आप एक दर्पण हैं, एक मिरर। हर आदमी | | तरह पड़ा हुआ है। आपको वृक्ष अलग दिखाई पड़ता है, आप वृक्ष एक मिरर है। और आदमी ही क्यों, पौधा, पशु, पक्षी, सभी; | | को नमस्कार करते हैं, बीज को नहीं। लेकिन बीज में भी वृक्ष छिपा समस्त कण इस जगत के दर्पण हैं। और आपमें परमात्मा पूरा | | है। और यह जो वृक्ष आज खड़ा है, कल यह भी बीज की तरह कहीं छलक रहा है, पूरा उसका प्रतिबिंब बन रहा है; कट नहीं गया, | | पड़ा था। और आज जो बीज की तरह पड़ा है, कल भविष्य में वृक्ष टुकड़ा नहीं हो गया। लेकिन आप अपने में बनते प्रतिबिंब को नहीं | हो जाएगा। देख रहे हैं। आप भी उस कुत्ते का व्यवहार कर रहे हैं। आप.भौंक | | आप बीज हैं परमात्मा के, जब मैं जोर देता हूं कि आप परमात्मा रहे हैं आस-पास के दर्पणों में, वहां से उत्तर आ रहा है। घबड़ा रहे | | हैं। इसकी स्वीकृति, इसका सहज स्वीकार आपके विकास में हैं, परेशान हो रहे हैं! सहयोगी, साथी बन जाता है। इसका अस्वीकार संकुचन दे देता है। जिंदगी एक चिंता है, क्योंकि संघर्ष है चारों तरफ। वह कुत्ता जैसे आप अपने भीतर कुंद होकर बंद हो जाते हैं। फिर आपकी मर्जी। मर गया उस रात उस महल में, हम भी संसार में ऐसे ही परेशान __ अब हम सूत्र को लें। होकर मरते हैं। और जिससे हम परेशान हो रहे थे, वह और हम, | हे विश्वमूर्ते! मैं पहले न देखे हुए आश्चर्यमय आपके इस रूप एक का ही प्रतिबिंब थे। और जिससे हम परेशान हो रहे थे, वह | | को देखकर हर्षित हो रहा हूं। और मेरा मन भय से अति व्याकुल हमारी ही छाया थी और हम उसकी छाया थे। लेकिन यह गहन भी हो रहा है। इसलिए हे देव! आप उस अपने चतुर्भुज रूप को ही अनुभव तभी संभव हो पाता है, जब विचार की एक पृष्ठभूमि तैयार | मेरे लिए दिखाइए। हे देवेश! हे जगनिवास! प्रसन्न होइए। हो जाए। पहले न देखे हुए आश्चर्यमय आपके इस रूप को देखकर हर्षित जब मैं कहता हूं कि आप परमात्मा हैं, तो सिर्फ इसलिए कि एक | भी हो रहा हूं। और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है। विचार की भूमिका तैयार हो जाए और फिर आप इस यात्रा पर | | अर्जुन बड़ी दुविधा में है। दोहरी बातें एक साथ हो रही हैं। निकल पाएं। राबिया, एक सूफी फकीर औरत के बाबत सुना है मैंने कि वह आप जिद्द करते हैं कि नहीं हैं। आप जिद्द यह कर रहे हैं कि हमें | | हंसती भी थी और रोती भी थी, साथ-साथ! और जब लोग उससे इस यात्रा पर नहीं जाना हो, आपकी मर्जी। आपको | पूछते कि राबिया, क्या त पागल हो गई? त हंसती भी है और रोती जबर्दस्ती इस यात्रा पर नहीं भेज सकता है। भी है, साथ-साथ! हमने रोते हुए लोग भी देखे, हमने हंसते हुए लेकिन अगर जाना हो, तो आपको इस यात्रा के कुछ सूत्र समझ लोग भी देखे। बाकी दोनों साथ-साथ करता हुआ हमने कभी नहीं 403] Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 देखा । कारण क्या है ? तो राबिया कहती, हंसती मैं उसे देखकर, और रोती मैं तुम्हें देखकर। हंसती मैं उसे देखकर, जो छाया है चारों तरफ। और रोती मैं तुम्हें देखकर कि तुम्हें बिलकुल दिखाई नहीं पड़ रहा! हंसती हूं मैं उसे देखकर जो मुझे आज अनुभव आ रहा है, और रोती हूं मैं उसे सोचकर जो मैंने कल तक माना था। हंसना और रोना एक साथ जब घटित हो, तो हम आदमी को पागल कहते हैं। क्योंकि सिर्फ पागल ही हंसते और रोते एक साथ हैं। क्योंकि हम तो बांट लेते हैं समय में चीजों को। जब हम रोते हैं, तो रोते हैं; जब हंसते हैं, तो हंसते हैं। दोनों साथ-साथ नहीं करते। लेकिन जब कोई बहुत परम अनुभव घटित होता है, जिससे जिंदगी दो हिस्सों में बंट जाती है; पिछली जिंदगी अलग हो जाती है और आने वाली जिंदगी अलग हो जाती है; हम एक चौराहे पर खड़े हो जाते हैं। जहां पीछा भी दिखाई पड़ता है, आगा भी । और जहां दोनों बिलकुल भिन्न हो जाते हैं, और दोनों के बीच कोई संबंध भी नहीं रह जाता। वहां दोहरी बातें एक साथ घट जाती हैं। तो अर्जुन को हर्षित होना भी हो रहा है, भयभीत होना भी हो रहा है । वह प्रसन्न भी है, जो उसने देखा । अहोभाग्य उसका। और वह घबड़ा भी गया है, जो उसने देखा । इतना विराट है, जो उसने देखा, कि वह कंप रहा है। अपनी क्षुद्रता का भी अनुभव तभी होता है, जब हम विराट के सामने होते हैं। नहीं तो अपनी क्षुद्रता का भी अनुभव कैसे हो ? हमको किसी को भी अपनी क्षुद्रता का अनुभव नहीं होता, क्योंकि मापदंड कहां है जिससे हम तौलें कि हम क्षुद्र हैं? जो मेंढक अपने कुएं के बाहर ही न गया हो, उसे कुआं सागर दिखाई पड़े तो कुछ गलत तो नहीं है, बिलकुल तर्कयुक्त है। तो मेंढक जब सागर के किनारे जाएगा, तभी अड़चन आएगी। कहते हैं न कि ऊंट जब तक पर्वत के पास न पहुंचे, तब तक अड़चन नहीं होती। क्योंकि तब तक वह खुद ही पर्वत होता है। पर्वत के करीब पहुंचकर पहली दफा तुलना पैदा होती है। अर्जुन की घबड़ाहट तुलना की घबड़ाहट है। पहली दफा बूंद सागर के निकट है। पहली दफा ना कुछ सब कुछ के सामने खड़ा है। पहली दफा सीमा असीम से मिल रही है। तो घबड़ाहट है। जैसे नदी सागर में गिरती है तो घबड़ाती होगी। अज्ञात में, अनजान में, अपरिचित में प्रवेश हो रहा है। और ओर-छोर मिट जाएंगे, नदी खो जाएगी! जिब्रान ने लिखा है कि जब नदी सागर में गिरती है, तो लौटकर पीछे जरूर देखती है । रास्ता जाना-माना परिचित था । अतीतस्मृति; भविष्य - अपरिचित, अनजान । यह अर्जुन ऐसी ही हालत में खड़ा है, जहां मिट जाएगा पूरा। | रत्ती भी नहीं बचेगी। और अब तक अपने को जो समझा था, वह कुछ भी नहीं साबित हुआ, क्षुद्र निकला और विराट सामने खड़ा है। इसलिए भयभीत भी हो रहा है और हर्षित भी हो रहा है। नदी जब सागर में गिरती है, तो अतीत खो रहा है, इससे भयभीत भी होती होगी; और अज्ञात मिल रहा है, इससे हर्षित भी होती | होगी। तो नदी नाचती हुई गिरती है। उसके पैर में भय का कंपन भी | होता होगा और आनंद की पुलक भी होती है, क्योंकि अब विराट से एक होने जा रही है। जिस दिन गेटे मर रहा था, तो कहते हैं, वह आंख खोलकर | देखता था बाहर, फिर आंख बंद कर लेता था। फिर आंख खोलकर बाहर देखता था, फिर आंख बंद कर लेता था। किसी ने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो? तो गेटे ने कहा, मैं देख रहा हूं उस दुनिया को जो छूट रही है और आंख बंद करके देख रहा हूं उस दुनिया को जो आ रही है। और मैं दोनों के बीच बड़ा खिंचा हुआ हूं। जो छूट रहा है, वह व्यर्थ था, लेकिन फिर भी उसके साथ रहा, लगाव हो गया | है। जो मिल रहा है, सार्थक है, लेकिन अपरिचित है, भय भी लगता है। पता नहीं क्या होगा परिणाम ? अर्जुन कह रहा है, हर्षित भी हो रहा हूं और मेरा मन अति भय | से व्याकुल भी हो रहा है। इसलिए हे देव! आप अपने चतुर्भुज रूप को ही ले लें। हे देवेश ! हे जगन्निवास! प्रसन्न हो जाएं, वापस लौट आएं। सीमा में खड़े हो जाएं। असीम को तिरोहित कर लें। इस असीम से मन कंपता है। और हे विष्णो! मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए तथा | गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूं। इसलिए हे विश्वरूप! हे सहस्रबाहो ! आप उसी चतुर्भुज रूप से युक्त जाइए। 404 यहां मन की एक और गतिविधि समझ लेनी चाहिए। जो न हो, मन उसकी मांग करता है। जो मिल जाए, तो जो नहीं हो जाता है, मन उसकी मांग करने लगता है। अर्जुन खुद ही कहा था कि मुझे दिखाओ अपना विराट रूप, असीम हो जाओ। अब तो मैं देखना चाहता हूं; अनुभव करना चाहता हूं। अब सीमा से मेरी तृप्ति नहीं है। अब तो मैं पूरा का पूरा, Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मनुष्य बीज है परमात्मा का जैसे तुम हो अपने नग्न सत्य में, वैसे ही निर्वस्त्र, तुम्हें तुम्हारी पूरी ही जाए, तो फिर? नग्नता में, सत्यता में देख लेना चाहता हूं। यही अर्जुन की मांग थी, अर्जुन की भी यही हालत है। वह दरवाजे के भीतर घुस गए; यह उसकी ही प्रार्थना थी। और अब देखकर वह कह रहा है. वापस उन्होंने कंडी बजा दी। अब परमात्मा मिल गया. अब वे लौट आओ; अपने पुराने रूप में खड़े हो जाओ। अब तो वही ठीक | | कि नहीं, वापस! फिर मुझे खोजने दो। फिर तुम अपनी सीमा में खड़े है। तुम्हारा चार हाथों वाला वह रूप, उसी में तुम वापस आ जाओ। | | हो जाओ, ताकि फिर मैं असीम को खोजूं। अब तुम फिर मुस्कुराओ। प्रसन्न हो जाओ। | अब तुम फिर गदा हाथ में ले लो। अब तुम चतुर्भुज हो जाओ। तुम जो खो जाता है, हम उसकी मांग करने लगते हैं। जो मिल जाता | वही हो जाओ! क्योंकि तुम तो मुझे मिटाए दे रहे हो। अब मेरा कोई है, वह हमें व्यर्थ दिखाई पड़ने लगता है। कुछ भी मिल जाए, तो हमें अर्थ ही नहीं रह जाता, कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। डर लगता है। पीछे लौटना चाहते हैं, आगे जाना चाहते हैं। मगर जो | आपको खयाल में नहीं है। जो लोग दूर तक सोचते हैं, उनको मिल जाए, उसके साथ राजी रहने की हमारी हिम्मत नहीं है। खयाल में है। रवींद्रनाथ ने बड़ा गहरा व्यंग्य किया है। रवींद्रनाथ ने लिखा है एक गीत, कि खोजता था परमात्मा को | बर्दैड रसेल ने अपने एक वक्तव्य में ठीक यही बात कही है। अनंत-अनंत कालों से। और बड़ा बेचैन रहता था। और बड़ा | | रसेल ने कहा है कि मैं हिंदुओं के मोक्ष से बहुत डरता हूं। मुझे रोता-चिल्लाता था। और बड़ी तपश्चर्या करता था। और कभी सोचकर ही बात भयावनी मालूम पड़ती है। और सच में है। आपने किसी दूर तारे के किनारे उसकी शक्ल भी दिखाई पड़ती थी। जब सोचा नहीं कभी, इसलिए फिक्र नहीं है। रसेल कहता है कि मैं यह तक वहां पहुंचता था, तब तक वह दूर निकल जाता था। बड़ी | | सोचकर ही बहुत भयभीत हो जाता हूं कि मोक्ष मिल जाएगा, फिर व्याकुलता थी, मिलन का बड़ा आग्रह था। रोता, तड़पता, छाती | | क्या? देन व्हाट? और बड़ी कठिनाई यह है कि मोक्ष से संसार में पीटता, भटकता था। | वापस नहीं आ सकते। संसार से तो मोक्ष में जा सकते हैं। एनट्रेंस फिर एक दिन ऐसा हुआ कि उसके दरवाजे पर ही पहुंच गया। तो है, एक्जिट नहीं है। मोक्ष से वापस नहीं लौट सकते। वहां से सीढ़ियां चढ़ गया। दरवाजे पर तख्ती लगी थी कि यही है उसका कोई दरवाजा नहीं, जिसमें से निकल भागे, बाहर आ गए। मकान, जिसकी तलाश थी। हाथ में सांकल ले ली दरवाजे की। | तो रसेल कहता है, मोक्ष की बात ही घबड़ाती है कि वहां न दुख जन्मों-जन्मों की प्यास पूरी होने के करीब थी। ठोंकने ही वाला था | | होगा, न सुख होगा, परम शांति होगी, लेकिन कितनी देर? अनंत सांकल कि तभी मन ने कहा कि जरा सोच ले, अगर परमात्मा मिल | काल तक? अनंत काल तक शांति, शांति, शांति! बहुत बोर्डम, ही गया, तो फिर तू क्या करेगा? फिर तू क्या करेगा? अब तक तू | | बहुत ऊब पैदा हो जाएगी। स्वाद में थोड़ी बदलाहट तो चाहिए ही उसको खोजता था। और वह आखिरी खोज है। और अगर मिल आदमी को। थोडा दख आता है. तो सख में फिर मजा आ जाता ही गया, फिर तू क्या करेगा? फिर तेरे होने का क्या अर्थ? | है। थोड़ी अशांति होती है, तो शांति की फिर चाह पैदा हो जाती है। रवींद्रनाथ ने बड़ी मीठी कविता लिखी है। लिखा है कि धीरे से | | लेकिन वहां कोई विघ्न-बाधा ही न होगी। वहां एक-सुरा संगीत सांकल मैंने छोड़ दी कि कहीं आवाज न हो जाए। कहीं वह बाहर | होगा, जिसमें कभी ऊंची-नीची ताल न होगी। वहां सा रे ग म प ही न आ जाए! कहीं वह आकर आलिंगन में ही न ले ले कि आ। ध नि नहीं होगा। वहां बस सा तो सा। सा सा सा सा सा चलता बहुत दिन से खोजता था, अब मिलन हो जाए। जूते हाथ में निकाल | रहेगा अनंत काल तक! लिए, कि कहीं सीढ़ियों से लौटते वक्त आवाज न हो जाए! और | ___ उसमें, रसेल कहता है, घबड़ा जाएगी तबीयत। और निकलने फिर मैं जो भागा हूं, तो मैंने लौटकर नहीं देखा। का रास्ता नहीं है। और यहां तो प्रभु से प्रार्थना करते थे कि मोक्ष __ अब मैं फिर खोज रहा हूं। अब मैं पूछता हूं लोगों से कि कहां | | पहुंचा दो। फिर क्या करेंगे? मोक्ष के बाद कोई उपाय नहीं है। तो है उसका मकान? और मुझे उसका मकान पता है। और अब मैं | | रसेल कहता है, इससे तो नरक भी बेहतर है, उसमें से कम से कम जगह-जगह | बाहर तो आ सकते हैं! और कम से कम कुछ मजा तो रहेगा। कुछ बताओ। और मुझे उसका रास्ता पता है। और कभी भूल-चूक से | | चीजें तो बदलेंगी। फिर संसार ही क्या बुरा है। भी उसके घर के पास से मैं नहीं गुजरता हूं। क्योंकि अगर वह मिल | यह रसेल ठीक कहता है। अगर सोचेंगे, तो घबड़ाहट होगी। 405 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 लेकिन ऐसा नहीं है कि बुद्ध और महावीर और कृष्ण ने बिना सोचे यह बात कही है। अगर आप अपनी बुद्धि को लेकर मोक्ष में चले जाएंगे, तो वही होगा, जो रसेल कह रहा है। क्योंकि बुद्धि द्वंद्व है। वह एक को नहीं सह सकती, उसको दो चाहिए। लेकिन मोक्ष की अनिवार्य शर्त है, बुद्धि को दरवाजे पर छोड़ जाना। इसलिए वहां कोई कभी नहीं ऊबता । ध्यान रहे, बोर्डम के लिए बुद्धि जरूरी है। बुद्धि के नीचे भी बोर्डम पैदा नहीं होती, बुद्धि के ऊपर भी बोर्डम पैदा नहीं होती । आपने किसी गाय-भैंस को बोर होते हुए देखा है? कि भैंस बैठी है, बोर हो गई ! कि बहुत ऊब गई ! वही घास रोज चर रही है। वही सब रोज चल रहा है। भैंस को कोई ऊब नहीं है। क्यों? क्योंकि ऊब पैदा होती है बुद्धि के साथ। बुद्धि तुलना करने लगती है— जो था, जो है, जो होगा इसमें । तौलने लगती है, तो फिर भेद अनुभव होने लगता है । फिर कल भी यही भोजन मिला, आज भी यही मिला, परसों भी यही मिला, तो ऊब पैदा होने लगती है। भैंस को पता ही नहीं कि कल भी यही भोजन किया था। कल समाप्त हो गया। कल तो बुद्धि संगृहीत करती है, बुद्धि स्मृति बनाती है। भैंस जो भोजन कर रही है, वह नया ही है । कल जो किया था, वह तो खो ही गया, उसका कोई स्मरण ही नहीं है। कल जो होगा, उसकी कोई खबर नहीं है; आज काफी है। के पार भी नहीं। रसे ठीक कहता है। अगर बुद्धि को लिए ही कोई घुस जाएगा मोक्ष में, तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा। लेकिन कोई घुस नहीं | सकता, इसलिए चिंता की कोई जरूरत नहीं है। यह अर्जुन ऐसी ही दिक्कत में पड़ा है। इसको दिखाई पड़ रहा है विराट | अब इसको याद आता है कृष्ण का वह प्यारा मुख, जिससे मित्रता हो सकती थी, जिसके कंधे पर हाथ रखा जा सकता था, जिसे कहा जा सकता था, हे यादव, हे कृष्ण, अरे सखा ! | जिससे मजाक की जा सकती थी। उसको पकड़ने का मन होता है। सारी दुनिया में यह बात विचारणीय बनी रही है कि आखिर भारत में हिंदुओं ने परमात्मा की इतनी साकार मूर्तियां क्यों निर्मित | कीं ? इतनी निराकार की बात करने के बाद इतनी साकार मूर्तियां क्यों निर्मित कीं ? मुसलमानों को कभी समझ में नहीं आ सका कि उपनिषद की इतनी ऊंचाई पर पहुंचकर भारत, जहां परम निराकार की बात है, फिर क्यों गांव-गांव, घर-घर में मूर्ति की पूजा कर रहा है? इस सूत्र में उसका रहस्य है। इस मुल्क ने निराकार को देखा है । और जिन्होंने इस मुल्क में निराकार को देखा है, उन्होंने अपने पीछे आने वालों के लिए साकार | मूर्तियां बना दीं। क्योंकि उन्हें पता है कि निराकार बहुत घबड़ा देता है, अगर बिना तैयारी के कोई वहां पहुंच जाए। उसमें मिटने की | तैयारी चाहिए। उसके पहले साकार ही ठीक है। उसके कंधे पर हाथ रखा जा सकता है। उसका शादी-विवाह रचाया जा सकता है। उसको कपड़े-गहने पहनाए जा सकते हैं। वह कुछ गड़बड़ नहीं करता। उसके साथ तुम्हें जो करना हो, तुम कर सकते हो । भोजन करवाओ तो करवाओ। लिटाओ तो लिटाओ। सुला दो । उठा दो। द्वार बंद कर दो, खोल दो। करना हो ! इसलिए बुद्धि के नीचे भी बोर्डम नहीं है। कोई जानवर ऊबा हुआ नहीं है। जानवर बड़े प्रसन्न हैं । कोई आदमी के पार गया आदमी, बुद्ध, महावीर, ऊबे हुए नहीं हैं। उनकी प्रसन्नता फिर प्रसन्नता है। क्योंकि जो बुद्धि हिसाब रखती थी, उसको वे पीछे छोड़ आए। आदमी परेशान है, जो भैंस और भगवान के बीच में है। उसकी बड़ी तकलीफ है, वह ऊबा हुआ है। आदमी का अगर एकमात्र लक्षण, जो जानवर से उसे अलग करता है, कोई खोजा जाए, तो वह बोर्डम है, ऊब है। हर चीज से ऊब जाता है। : एक सुंदर स्त्री के पीछे दीवाना है; मिली नहीं, मिल नहीं गई स्त्री किं ऊब शुरू हो गई ! दो-चार दिन में ऊब जाएगा। सब सौंदर्य बासा पड़ जाएगा, पुराना पड़ जाएगा। एक अच्छे मकान की तलाश है; मिला नहीं कि दो-चार - आठ दिन में सब बासा हो जाएगा। एक अच्छी कार चाहिए; वह मिल गई। दो-चार-आठ दिन में बासी हो जाएगी। दूसरी कार नजर को पकड़ने लगेगी। कभी-कभी बहुत कंट्राडिक्टरी लगता है। शंकराचार्य जैसा बुद्धि तौलती है, ऊबती है। बुद्धि के नीचे भी ऊब नहीं, बुद्धि व्यक्ति, जो शुद्ध निराकार की बात करता है, फिर वह भी मूर्ति के 406 परमात्मा को जिन्होंने विराट में झांका है, उन्होंने आदमी के लिए मूर्तियां निर्मित करवा दी हैं। क्योंकि उन्हें पता चल गया कि आदमी जैसा है, अगर ऐसा ही सीधा विराट में खड़ा हो जाए, तो या तो विक्षिप्त हो जाएगा, घबड़ा जाएगा, और या फिर खड़ा ही नहीं हो पाएगा; देख ही नहीं पाएगा; आंख ही नहीं खुलेगी। इसलिए निराकार का इतना चिंतन करने वाले लोगों ने भी साकार को हटाया नहीं, साकार को बने रहने दिया । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य बीज है परमात्मा का सामने नाचता है, कीर्तन करता है! वह भी गीत गाता है मूर्ति के आप कितने अर्जुनों को पहले दिखा चुके हैं? तो मैंने उनसे पूछा सामने! बड़ी कठिन बात मालूम पड़ती है। क्योंकि पश्चिम में जो | कि तुम पहले पुराने कृष्ण की ही फिक्र करो कि कितने अर्जुनों को लोग वेदांत का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं, यह कंट्राडिक्टरी है। | पुराने कृष्ण पहले दिखा चुके थे। यह शंकर के व्यक्तित्व में बड़ा विरोधाभास है। एक तरफ तो वेदांत ___ एक को ही दिखा पाए। और यही पहला भी था और यही की इतनी ऊंची बात कि सब माया है। और फिर इसी माया, मिट्टी | आखिरी भी। क्योंकि अर्जुन जैसा समर्पण अति कठिन है। उतना के बने हुए भगवान के सामने गीत गाना और नाचना और तल्लीन सहज-भाव से छोड़ देना गुरु के हाथों में अति कठिन है-उतना हो जाना! निस्संदेह, उतनी पूर्ण श्रद्धा से, उतने समग्र भाव से। यही अर्थ है इस सूत्र में उसका रहस्य है। इस सूत्र का कि तेरे सिवाय दूसरे से पहले नहीं देखा गया है। शंकर को तो पता है, जो उन्हें दिखाई पड़ा है। लेकिन उनके पीछे कृष्ण के संबंध में यह बात सच है कि कृष्ण ने इस रूप में, कृष्ण जो लोग आ रहे हैं, अब वे उनके संबंध में भी समझ सकते हैं। कि | के रूप में जिसे दिखाया, वह अकेला अर्जुन है। और यह पहला जो शंकर को दिखाई पड़ा है, यह अगर किसी को आकस्मिक रूप कहा है उन्होंने। लेकिन बाद में भी किसी दूसरे को नहीं दिखाया है। से दिखाई पड़ जाए, कहीं कोने से टूट पड़े कोई धारा और इसका यह आखिरी भी है। अनुभव हो जाए, तो झेलना मुश्किल हो जाएगा। वह इम्पैक्ट, वह अर्जुन पाना अति कठिन है। इसे थोड़ा सोच लें। आघात तोड़ जाएगा। कृष्ण हो जाना इतना कठिन नहीं है, जितना अर्जुन पाना कठिन इसलिए मूर्ति को रहने दो, जब तक कि अमूर्ति के लिए तैयार न | | है। जब मैं ऐसा कहूंगा, तो आपको थोड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी। हो जाए व्यक्तिः। तब तक चलने दो उसे अपने खेल-खिलौनों के | कृष्ण हो जाना इतना कठिन नहीं है, जितना अर्जुन होना कठिन है। साथ, जब तक कि वह इतना प्रौढ़ न हो जाए कि सब छोड़ दे। बुद्ध कृष्ण हो जाते हैं, महावीर कृष्ण हो जाते हैं, लेकिन अर्जुन होना यह अर्जुन यही मांग कर रहा है कि तुम मूर्त बन जाओ, अमूर्त | बड़ा कठिन है। क्योंकि कृष्ण होना तो स्वयं पर स्वयं की श्रद्धा से नहीं। और तुम्हारी मूर्ति वापस ले आओ। होता है। अर्जुन होना स्वयं की दूसरे पर श्रद्धा से होता है, जो बड़ी इस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना को सुनकर, कृष्ण बोले, हे अर्जुन! जटिल बात है। अनग्रहपर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरा परम | स्वयं पर भरोसा रखना तो इतना कठिन नहीं है। क्योंकि हमारा तेजोमय, सबका आदि और सीमारहित विराट रूप तुझे दिखाया, । | भरोसा स्वयं पर होता ही है थोड़ा कम-ज्यादा। यह बढ़ जाए, जिस जो कि तेरे सिवाय दूसरे से पहले नहीं देखा गया। दिन आदमी अपने में पूरे भरोसे से भर जाता है, उस दिन कृष्ण की यह बड़ा उपद्रव का वचन है। क्योंकि इसमें बड़ी उलझनें हैं। जो | | घटना घट जाती है। यह तो सहज है, क्योंकि एक ही आदमी की लोग गीता में गहन चिंतन करते हैं, मनन करते हैं, उनको बड़ी | | बात है, अपने पर ही भरोसा करना है। लेकिन अर्जुन होना अति कठिनाई होती है। तेरे सिवाय दूसरे से पहले नहीं देखा गया, इसका | | कठिन है, क्योंकि दूसरे पर ऐसे भरोसा करना है कि जैसे वह मेरी क्या मतलब है? क्या अर्जुन पहला अनुभवी है, जिसने परमात्मा आत्मा है और मैं उसकी परिधि हूं। का विराट रूप देखा? यह बात तो उचित नहीं मालूम पड़ती। अनंत इसलिए अर्जुन को खोजना कृष्ण को भी मुश्किल पड़ा है। एक काल से आदमी है, अनंत सिद्धपुरुष हुए हैं, अनंत जाग्रत चेतनाएं | | अर्जुन कृष्ण को उपलब्ध हुआ है। राम को कभी कोई ऐसा अर्जुन हुई हैं। क्या अर्जुन पहला आदमी है? उपलब्ध हुआ, पता नहीं। बुद्ध को कभी कोई ऐसा अर्जुन उपलब्ध यह अर्थ नहीं हो सकता इस वाक्य का। इस वाक्य का केवल | हुआ, पता नहीं। जीसस को कभी कोई ऐसा अर्जुन उपलब्ध हुआ, एक ही अर्थ है और वह यह कि कृष्ण के द्वारा यह रूप अर्जुन को पता नहीं। उनके पास भी बहुत लोगों को घटनाएं घटी हैं, लेकिन दिखाया गया, यह पहली घटना है कृष्ण के द्वारा। अर्जुन जैसी विराट अनुभव की घटना नहीं घटी। __ मैंने पीछे कहा कि अगर कोई अर्जुन बनने को तैयार हो, तो यह | | तो कृष्ण का यह कहना इस अर्थ में सार्थक है कि इस प्रकार का विराट दिखाया जा सकता है। एक मित्र मेरे पास आए और उन्होंने | समर्पण मुश्किल है, अति दूभर है। और इस प्रकार का समर्पण हो, कहा कि मुझे पक्का तो पता नहीं है कि मैं अर्जुन हूं या नहीं, लेकिन तो ही यह घटना घट सकती है। 407] Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ गीता दर्शन भाग-5 हे अर्जुन! मनुष्य-लोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला मैं न वेद के अध्ययन से, न यज्ञों के करने से, न दान से, न क्रियाओं से, न उग्र तपों से ही तेरे सिवाय दूसरे से देखे जाने योग्य शक्य हूं। यह बड़ी गहरी और महत्वपूर्ण बात कही है। कहा है कि वेद के अध्ययन से भी यह नहीं होगा। यज्ञों के करने से भी यह नहीं होगा । दान से भी नहीं होगा। क्रियाओं से योग की भी नहीं होगा। उग्र तपों से भी यह नहीं होगा। क्यों नहीं होगा ? वेद के अध्ययन से क्यों नहीं होगा ? क्यों, यज्ञ कोई साधेगा, तो नहीं होगा ? क्यों नहीं योग की क्रियाएं इस स्थिति में ले जाएंगी ? यह नहीं होगा इसलिए कि वेद का अध्ययन हो, या यज्ञ हो, या योग की साधना हो, ये सारी की सारी प्रक्रियाएं स्वयं पर भरोसे से होती हैं। इनमें व्यक्ति अपना ही केंद्र होता है। ये समर्पण के प्रयोग नहीं हैं। ये सब संकल्प के प्रयोग हैं | और अर्जुन की घटना समर्पण से घटेगी, संकल्प से नहीं । कोई कितना ही योग साधे, वह अर्जुन नहीं बन पाएगा, कृष्ण बन सकता है। इसे थोड़ा समझ लेना । कितना ही योग साधे, कृष्ण बन सकता है। इसलिए हम कृष्ण को महायोगी कहते हैं। वह बुद्ध बन सकता है। क्योंकि संकल्प अगर इस जगह पहुंच जाए कि मैं अपने भीतर प्रवेश करता जाऊं अपनी ही शक्ति से, तो एक दिन उस बिंदु का अनावरण कर लूंगा, जो मुझमें छिपा है। लेकिन तब मैं अर्जुन नहीं रहूंगा, मैं कृष्ण जाऊंगा । अर्जुन दूसरी ही प्रक्रिया है । वह संकल्प नहीं, समर्पण है। वहां स्वयं खोज नहीं करनी, जिसने खोज लिया है, उसके चरणों में अपने को छोड़ देना है। तो अर्जुन है, मीरा है, चैतन्य हैं, इनकी पकड़ दूसरी है; यह दूसरा उपाय है। जगत में दो तरह के मन हैं। एक, जो संकल्प से पाएंगे परमात्मा को। दूसरे, जो समर्पण से पाएंगे परमात्मा को समर्पण में अपने बिलकुल छोड़ देना है। रामकृष्ण कहते थे उनकी बात से इस सूत्र को मैं पूरा करूं – रामकृष्ण कहते थे, नदी को पार करने के दो ढंग हैं। एक तो है कि नाव को खेओ पतवार से यह संकल्प है। और एक है कि प्रतीक्षा करो। जब हवाएं अनुकूल हों, तब पाल बांध दो और नाव में चुपचाप बैठ जाओ। नाव खुद चल पड़े। पाल में भरी हुई हवाएं उसे ले जाने लगें। यह समर्पण है। कृष्ण की हवा है, अर्जुन ने तो सिर्फ नाव के पाल खोल दिए । अर्जुन खुद नहीं चला रहा है नाव को। हवा कृष्ण की है। बुद्ध खुद चला रहे हैं। पाल वगैरह नहीं हैं उनकी नाव पर। और | पाल वगैरह वे पसंद भी नहीं करते। मरते वक्त बुद्ध ने आनंद को कहा है, अपने पर ही भरोसा रखना, किसी और पर नहीं । स्वभावतः, जिसने नदी को नाव को खेकर पार किया हो पतवारों से, वही कहेगा । एक है समर्पण, कि छोड़ दो नाव उस पर, अनुकूल हवाओं के लिए। वह ले जाए पार या डुबा दे, तो भी समझना कि वही किनारा | है । या खुद अपने ही बल से नदी को पार कर लेना । इसलिए कृष्ण कहते हैं, न वेद के अध्ययन से, न यज्ञ अनुष्ठान से, न योग की क्रिया से, न उग्र तपश्चर्या से यह होता है अर्जुन, जो तुझे हुआ है। यह समर्पण से होता है। आज इतना ही पांच मिनट रुकें। कीर्तन पूरा करें और जाएं। और कीर्तन में सम्मिलित हों। बैठे रहें अपनी जगह, लेकिन कीर्तन में भाग लें। 408 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 ग्यारहवां प्रवचन मांग और प्रार्थना Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् । व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ।। ४९ ।। संजय उवाच इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः । आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ।। ५० ।। अर्जुन उवाच दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन । इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः । । ५१ ।। इस प्रकार के मेरे इस विकराल रूप को देखकर तेरे को व्याकुलता न होवे और मूढभाव भी न होवे और भयरहित, प्रीतियुक्त मन वाला तू उस ही मेरे इस शंख, चक्र, गदा, पद्म सहित चतुर्भुज रूप को फिर देख । उसके उपरांत संजय बोला, हे राजन्, वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुज रूप को दिखाया और फिर महात्मा कृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत हुए अर्जुन को धीरज दिया। उसके उपरांत अर्जुन बोला, हे जनार्दन, आपके इस अतिशांत मनुष्य रूप को देखकर अब मैं शांतचित्त हुआ अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूं। एक मित्र ने पूछा है कि क्या कोई मनुष्य बच्चे की भांति सरल हो, जिसे कोई भी ज्ञान नहीं, परमात्मा को पा सकता है? यदि हां, तो कैसे ? जी सस का बहुत प्रसिद्ध वचन है...। पूछा किसी ने कि कौन आपके राज्य का प्रवेश का अधिकारी होगा ? प्रभु के राज्य में कौन प्रवेश कर सकेगा? तो जीसस ने कहा, जो बच्चों की भांति सरल और निर्दोष हैं वे । लेकिन इसमें बहुत कुछ समझने जैसा है। एक तो, जीसस ने यह नहीं कहा कि जो बच्चे हैं वे । जीसस ने कहा, जो बच्चों की भांति सरल हैं वे । नहीं तो सभी बच्चे परमात्मा में प्रवेश कर जाएंगे। बच्चे की भांति सरल कौन होगा? बच्चा कभी नहीं हो सकता। बच्चे की भांति सरल का अर्थ ही यह हुआ कि जो | बच्चा नहीं है और बच्चे की भांति सरल है । शरीर की उम्र बढ़ गई | हो, मन की उम्र बढ़ गई हो, संसार को जान लिया हो, फिर भी जो बच्चे की भांति सरल हो जाता है। तो एक तो बचपन है, जो मां-बाप से मिलता है। वह शरीर का बचपन है। वह बचपन अज्ञान से भरा हुआ है। उस बचपन में परमात्मा को जानने का कोई उपाय नहीं है । बच्चा सरल है, लेकिन अज्ञान के कारण सरल है। यह सरलता झूठी है। बच्चे की सरलता | झूठी है ! इसे ठीक से समझ लें। क्योंकि सरलता के पीछे वह सब जहर छिपा है, जो कल जटिल बना देगा। यह सिर्फ ऊपर-ऊपर है । भीतर तो, बच्चे के भीतर वही सब छिपा है, जो जवानी में | निकलेगा, बुढ़ापे में निकलेगा। वह सब मौजूद है। यह बच्चा ऊपर से सरल है, भीतर तो जटिल है। और ऊपर भी इतना सरल नहीं है, जितना हम मानते हैं । फ्रायड की खोजों ने काफी जाहिर कर दिया है कि बच्चे भी बहुत जटिल हैं। आप सोचते ही हैं कि बच्चा क्रोध नहीं करता; सच तो | यह है कि बच्चे जितना क्रोध करते हैं, बड़े नहीं कर पाते। आप | सोचते ही हैं कि बच्चा ईर्ष्या से नहीं भरता; बच्चे भयंकर रूप से | ईर्ष्यालु होते हैं। और दूसरे के हाथ में खिलौना देखकर उनको जितनी | बेचैनी होती है, उतना दूसरे की कार देखकर आपको नहीं होती। और आप सोचते ही हैं कि बच्चों में घृणा नहीं होती। और सोचते ही हैं कि बच्चों में हिंसा नहीं होती । बच्चे भयंकर रूप से हिंसक होते हैं। और जब तक कीड़ा उनको दिखाई पड़ जाए कोई चलता हुआ, उसको तोड़-मरोड़ न डालें, तब तक उनको चैन नहीं मिलती। बच्चा तोड़ने में भी काफी रस लेता है, विध्वंस में भी काफी रस लेता है। ईर्ष्या से भी भरा होता है, हिंसा से भी भरा होता है। और आप सोचते ही हैं कि बच्चे में कामवासना नहीं होती; वह भी भ्रांति है। क्योंकि आधुनिकतम सारी खोजें कहती हैं कि बच्चे में सारी कामवासना भरी है, जो बाद में प्रकट होने लगेगी। आप खयाल करें। हालांकि हमारा मन बहुत सी बातों को मानने को तैयार नहीं होता, क्योंकि हमारी बहुत-सी धारणाओं को चोट | लगती है। घर में अगर लड़का पैदा होता है, तो लड़के और बाप | के बीच थोड़ी-सी कलह बनी ही रहती है। वह दो पुरुषों की कलह है । और मनोविज्ञान कहता है कि एक स्त्री के लिए ही वह कलह है, मां के लिए। वह जो बच्चा है और बच्चे का बाप जो है, वे दोनों अधिकारी हैं एक स्त्री के । और बच्चा पसंद नहीं करता कि बाप 410 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मांग और प्रार्थना हि सेक्स ज्यादा बाधा डाले। और बाप भी ज्यादा पसंद नहीं करता कि बच्चा बच्चा नहीं रहना चाहता, क्योंकि बचपन उसे दुखद मालूम पड़ रहा इतना बीच में आ जाए कि पत्नी और उसके बीच खड़ा हो जाए। है। बचपन के अपने दुख हैं, जो आप भूल गए हैं। वे बच्चों का बाप की दोस्ती बेटे से मुश्किल से होती है। लेकिन मां की दोस्ती निरीक्षण करने से पता चलते हैं। बेटे से हमेशा होती है। एक तो बच्चे को लगता है, वह बिलकुल परतंत्र है, कोई बेटी हो, तो बाप की दोस्ती होती है, मां की दोस्ती नहीं हो पाती। स्वतंत्रता नहीं। हर बात में किसी की हां और किसी की न को बेटी और मां के बीच सूक्ष्म कलह निर्मित हो जाती है। जैसे-जैसे | | स्वीकार करना पड़ता है। बच्चा जल्दी बड़ा होना चाहता है। यह लड़की बड़ी होने लगेगी, वैसे-वैसे मां और लड़की के बीच उपद्रव | गुलामी है। बच्चा कमजोर है; सब ताकतवर हैं उसके आस-पास। शुरू हो जाएगा। जैसे-जैसे लड़का बड़ा होने लगेगा, बाप और | | इससे उसके अहंकार को भारी ठेस लगती है। वह भी बड़ा होना लड़के के बीच उपद्रव शुरू हो जाएगा। फ्रायड चाहता है, और कहना चाहता है, मैं भी कछ हं। हर चीज पर निर्भर जेलेसी है; यह कामवासना ही इसके पीछे मूल आधार है। । | है। खुद कुछ भी नहीं कर सकता। असहाय है, हेल्पलेस है। बच्चा उतनी ही कामवासना से भरा है, जितना कोई और। फर्क इसलिए बच्चा सुख में नहीं हो सकता। यह सुख बूढ़े का खयाल सिर्फ इतना है कि अभी उसकी कामवासना का यंत्र तैयार हो रहा है, धारणा है, पीछे लौटकर। फिर आपको याद कितनी है? पांच है। जिस दिन यंत्र तैयार हो जाएगा, वासना फूट पड़ेगी। चौदह वर्ष | साल के पहले की तो याद होती नहीं है। मुश्किल से, कोई बहुत में, तेरह वर्ष में वासना फूट पड़ेगी। यंत्र तो बन रहा है, वासना अच्छी याददाश्त हो, तो चार साल; उसके पहले की आपको याद भीतर परी है, वह रास्ता खोज रही है। यंत्र परे होते से ही उसका नहीं होती। विस्फोट हो जाएगा। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि चार साल पहले की आपको याद क्यों बच्चे को हम जितनी सरलता मानकर चलते हैं, वह मानी हुई | नहीं है? स्मृति तो होनी चाहिए! आप जिंदा रहे! मां के पेट से पैदा है। और उस मानने का कारण भी अहंकार है। क्योंकि हर आदमी | | हुए, चार साल तक आप जिंदा थे, घटनाएं घटीं। उनकी स्मृति क्यों यह मानना चाहता है कि बचपन में मैं बड़ा पवित्र था। इस भ्रांति के खो जाती है? आपका मन उनकी स्मृति को खो क्यों देता है ? तो दो कारण हैं, एक तो आपको बचपन की ठीक-ठीक याद नहीं। बड़ी अनूठी बात हाथ में आई है। और वह यह कि चार साल की और दूसरा, जिंदगी इतनी बुरी है और जिंदगी इतनी बेहूदी और कष्ट जिंदगी इतनी दुखद है कि मन उसे याद नहीं करना चाहता। दुख को और संकट से भरी है कि मन कहीं न कहीं राहत खोजना चाहता | | हम भुलाना चाहते हैं। है। तो कम से कम बचपन स्वर्ग था, इसको मान लेने से थोड़ी राहत । __लेकिन हम भूल भी नहीं सकते, क्योंकि जो घट गया है, वह मिलती है। स्मृति में दबा है। इसलिए अगर आपको बेहोश किया जाए, दो ही उपाय हैं, या तो आगे स्वर्ग माने भविष्य में, जो कि सम्मोहित, हिप्नोटाइज किया जाए, तो आपको सब याद आ जाता मुश्किल है, क्योंकि वहां मौत दिखाई पड़ती है। इसलिए आगे स्वर्ग | है। ठीक पहले दिन जब आप पैदा हुए और जो आपने पहली को मानने में बड़ा मुश्किल होता जाता है। और रोज आपकी उलझन | चीख-पुकार मचाई थी, इस दुनिया में आते ही से जो आपने दुख बढ़ती जाती है। इसलिए आगे स्वर्ग होगा, इसमें भरोसा नहीं | की पहली घोषणा की थी, उससे लेकर सब याद आ जाता है। गहरे बैठता; आगे नर्क हो सकता है। लेकिन स्वर्ग कैसे होगा आगे! रोज | सम्मोहन में आपके मन की सारी परतें उघड़ आती हैं और सब याद जब उलझन बढ़ती जाती है और जिंदगी टूटती जाती है और आदमी | आ जाता है। बूढ़ा होने लगता है, तो आगे नर्क दिखाई पड़ता है। सम्मोहन के जो नतीजे हैं, वे ये हैं कि बचपन बहुत दुखद है। तो आदमी कहीं तो राहत चाहता है, सांत्वना चाहता है। लौटकर | | इसलिए हम उसे भूल गए हैं। जो दुखद है, उसे याद करना मन नहीं अपने बचपन में स्वर्ग को रख लेता है। तो सभी लोग बचपन की | | चाहता। जो सुखद है, उसे याद करना चाहता है। याद करते रहते हैं कि बड़ा सुखद था। यह सुखद होना एक भ्रांति | - तो हम बचपन में जो सुख है, उसको चुन लेते हैं। और जो दुख है, मन के लिए एक सांत्वना है। न तो बचपन सुखद है...। । है, उसे भूल जाते हैं। उसी सुख को इकट्ठा करके बाद में हम कहते बच्चों से पूछे। सभी बच्चे जल्दी बड़े होना चाहते हैं। कोई बच्चा हैं, बचपन स्वर्ग था। न तो बचपन स्वर्ग है; न बचपन में कोई ऐसी 4111 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 58 सरलता है, जैसा हम सोचते हैं। लेकिन सरलता लगती है, उसके खाली, जीवन के सारे बोझ से खाली, रिक्त, शून्य। अब उसने जो कुछ कारण जरूर होने चाहिए। भी जाना, सब पटक दिया। अब चेतना अकेली रह गई है। एक तो बच्चा क्षण-क्षण जीता है। यह बात सच है। न तो अतीत | ऐसा समझें कि एक दर्पण है। दर्पण पर कोई आता है, तो चित्र का बहत हिसाब रखता है, क्योंकि हिसाब रखने के लिए जितनी बनता है। ठीक ऐसे ही हमारे भीतर प्रज्ञा है, बुद्धि है। उस पर सब बुद्धि चाहिए, वह उसके पास नहीं है। न भविष्य की योजना बनाता | चित्र बनते हैं। संसार भर के चित्र बनते हैं। जो भी सामने आता है, है, क्योंकि भविष्य की योजना के लिए जितनी समझ चाहिए, वह | जाता है, उसके चित्र बनते हैं। भी उसके पास नहीं है। वह क्षण-क्षण जीता है, जैसे पशु जीते हैं। लेकिन दर्पण दो तरह के हो सकते हैं। एक दर्पण तो होता है अभी जी लेता है। फोटोग्राफर के कैमरे में, जहां प्लेट लगी है। वह भी दर्पण है, इसलिए बच्चा आप पर नाराज हो जाता है, घड़ीभर बाद भूल | | लेकिन खास तरह का दर्पण है। उसमें खास रासायनिक तत्व लगाए जाता है। इसलिए नहीं कि उसको क्रोध नहीं था, बल्कि इसलिए कि | गए हैं। उसमें जो प्रतिबिंब बनेगा, वह बनेगा ही नहीं, पकड़ भी अभी हिसाब रखने वाला मन विकसित नहीं हुआ है। घड़ीभर पहले| लिया जाएगा। वह जो फोटोग्राफर की प्लेट है, एक दफा काम में नाराज हो लिया, घड़ीभर बाद हंसने लगा। वह भूल गया कि नाराज | | आ सकती है। उसमें फिर जो पकड़ गया, तो प्लेट खराब हो गई। हुआ था, अब हंसना नहीं चाहिए इस आदमी के साथ। इन दोनों | अब उसका दुबारा उपयोग नहीं हो सकता। के बीच संबंध बिठालने की बुद्धि अभी विकसित नहीं हुई है। | दर्पण है, उसका हजार बार उपयोग हो सकता है। क्योंकि दर्पण तो बच्चे की सारी सरलता उसके क्षण-क्षण जीने, बुद्धिहीन | | | में प्रतिबिंब बनता है, लेकिन पकड़ता नहीं है। आप गए, प्रतिबिंब होने, अज्ञान में होने के कारण है। ऐसी सरलता से कोई परमात्मा | चला गया, दर्पण फिर खाली हो गया। को नहीं पा सकता। एक और सरलता है, जो जीवन के सारे । आदमी अपने मन का दो तरह से उपयोग कर सकता है, अनुभव को जानने के बाद, इस अनुभव को उतारकर रख देने से | फोटो-प्लेट की तरह या दर्पण की तरह। जो आदमी फोटो-प्लेट उपलब्ध होती है। की तरह अपने मन का उपयोग करता है. वह सब चीजों को संगहीत जिंदगी एक बोझ है अनुभव का। बच्चा बड़ा हो रहा है, अनुभव करता जाता है, पकड़ता जाता है। जिंदगी में जो भी होता है, सब इकट्ठा कर रहा है। एक दिन ऐसी घड़ी अगर आपके जीवन में आ इकट्ठा करता जाता है-कूड़ा-करकट, गाली-गलौज; किसने जाए कि आपको पता लगे, यह सारा अनुभव व्यर्थ है। यह जो क्या कहा, क्या नहीं कहा; क्या पढ़ा, क्या सुना-जो भी होता है, जाना, जो सीखा, जो जीया, सब व्यर्थ है, कचरा है। और आप इस सब इकट्ठा करता जाता है। सारे कचरे को पटक दें अपने सिर से नीचे, तो आपको एक नया यही इकट्ठा बोझ भीतर आत्मा का बुढ़ापा हो जाता है। यह जो बचपन मिलेगा। आप फिर वैसे सरल हो जाएंगे, जो निर्भार होने बोझ है, यही बुढ़ापा है आध्यात्मिक अर्थों में। शरीर हो सकता है से कोई भी हो जाता है। आपका जवान भी हो। लेकिन यह जो बोझ है भीतर, यही वह सरलता जीसस का मतलब है, कि जो बच्चों की भांति सरल | आध्यात्मिक बुढ़ापा है। होंगे। बच्चों की भांति सिर्फ उदाहरण है। संत फिर से बच्चे की जिस दिन आपको यह समझ में आ जाता है कि मैं मन का एक भांति हो जाता है। या ठीक से हम कहें, तो संत सच में पहली बार | और तरह का उपयोग भी कर सकता हूं, मिरर लाइक, दर्पण की बच्चा होता है। क्योंकि कोई बच्चा बच्चा है नहीं। उसके भीतर सब | तरह; आप इस सारे बोझ को पटक देते हैं और खाली दर्पण हो जाते रोग छिपे हैं, जो बड़े हो रहे हैं। समय की देर है, सब रोग प्रकट हो | | हैं। यह जो खाली दर्पण हो जाना है, यह है बचपन आध्यात्मिक जाएंगे। रोग मौजूद हैं, उनका बीज तैयार है। सिर्फ पानी पड़ेगा, धूप | अर्थों में निबोझ, निर्भार। लगेगी और सब प्रकट हो जाएगा। __ जीसस इसकी बात कर रहे हैं। अगर आप ऐसे बच्चे हो सकते तो बच्चे की जो सरलता है, वह झूठी है। संत की सरलता ही हैं, तो परमात्मा को पाने के लिए और कुछ भी न करना पड़ेगा। सच्ची है। क्योंकि अब रोग छूट गए। अब भीतर कुछ बचा नहीं; इतना करना काफी है। संत खाली है। खालीपन सरलता है। अनुभव से खाली, ज्ञान से, लेकिन इसका मतलब यह हुआ कि बच्चे तो न पा सकेंगे। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मांग और प्रार्थना आपको एक दफे भटकना पड़ेगा। एक दफे बोझ इकट्ठा करना | एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि स्वीडन के एक वैज्ञानिक पड़ेगा। अनुभव से गुजरना पड़ेगा, संसार की पीड़ा झेलनी पड़ेगी। डाक्टर जैक्सन ने आत्मा को तौलने के संबंध में कुछ और इस पीड़ा के झेलने के बाद अगर आप इस सबको छोड़ने को खोज की है और कहा है, आत्मा का वजन इक्कीस राजी हो जाएं, तो ही आपकी जिंदगी में असली बचपन का जन्म | ग्राम है। अगर आत्मा तौली जा सकती है, तो फिर होगा। उसे पकड़ा भी जा सकता है। और अगर आत्मा को इसलिए हमने इस मुल्क में ब्राह्मणों को द्विज कहा है। सभी | पकड़ सकते हैं, तो फिर उसे उपयोग में भी ला सकते ब्राह्मण द्विज नहीं होते। सभी ब्राह्मण ब्राह्मण भी नहीं होते। लेकिन हैं। क्या आत्मा की तौल हो सकती है? हमारे कहने में बड़ा अर्थ है। द्विज का अर्थ है, ट्वाइस बॉर्न, जिसका दुबारा जन्म हुआ। उसको ही द्विज कहा जाता है, जिसने इस बचपन को पा लिया, जिसका दुबारा जन्म हो गया। जो फिर टा क्टर जैक्सन की खोज मूल्यवान है। इसलिए नहीं कि से ऐसे पैदा हो गया, जैसे गर्भ से ताजा आ रहा हो–कुंआरा, OI उन्होंने आत्मा तौल ली है, जिसे उन्होंने तौला है, उसे अछूता, जगत में जिसने रहकर भी कुछ पकड़ा नहीं। वे आत्मा समझ रहे हैं। लेकिन उनकी तौल मूल्यवान कबीर ने कहा है, ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया। कहा कि बहुत | | है। आदमी सैकड़ों वर्षों से कोशिश करता रहा है कि जब मृत्यु जतन से ओढ़ी तेरी चादर, और फिर जैसी थी, वैसी रख दी; जरा | | घटित होती है, तो शरीर से कोई चीज बाहर जाती है या नहीं जाती भी दाग नहीं लगने दिया। यह बचपन का मतलब है। जिंदगी में | है? और बहत प्रयोग किए गए हैं। जीए, लेकिन इस जिंदगी की काल कोठरी में कोई कालिख न लगी। | इजिप्त में तीन हजार साल पहले भी आदमी को इजिप्त के एक यो लगी भी, तो उसे पोंछने की क्षमता जुटा ली। और जब वापस फैरोह ने कांच की एक पेटी में बंद करके रखा मरते वक्त। क्योंकि निकले इस कोठरी के बाहर, तो वैसे शुभ्र थे, जैसे इस कोठरी में अगर आत्मा जैसी कोई चीज बाहर जाती होगी, तो पेटी टूट जाएगी, कभी गए ही न हों। | कांच फूट जाएगा, कोई चीज बाहर निकलेगी। लेकिन कोई चीज जीवन के अनुभव से गुजरना तो जरूरी है, अन्यथा जीवन का बाहर नहीं निकली। कोई उपयोग ही नहीं रह जाता। इतना ही उपयोग है। ध्यान रहे, यहां स्वभावतः, दो ही अर्थ होते हैं। या तो यह अर्थ होता है कि जो भी दुख-सुख घटित होता है, उसका इतना ही उपयोग है कि | आत्मा को बाहर निकलने के लिए कांच की कोई बाधा नहीं है। जैसे आप इस बोझ को समझ-समझकर एक दिन इसके पार उठ सकें। | कि सूरज की किरण निकल जाती है कांच के बाहर, और कांच नहीं और जिस दिन आप पार उठ जाते हैं, उसी दिन दुख-सुख बंद हो टूटता। या यह अर्थ होता है। या तो यह अर्थ होता है कि कोई चीज जाते हैं और आनंद की वर्षा शुरू हो जाती है। बाहर नहीं निकली। पूछा है कि फिर क्या करना जरूरी है? फैरोह ने तो यही समझा कि कोई चीज बाहर नहीं निकली। कुछ भी करना जरूरी नहीं है। इतना अगर कर लिया कि जिंदगी | क्योंकि कोई चीज बाहर निकलती, तो कांच टूटता। समझा कि कोई के कचरे को हटा दिया मन से और खाली कर लिया मन और दर्पण | आत्मा नहीं है। की तरह शांत हो गए, तो सब हो गया। परमात्मा तत्क्षण दिखाई | | फिर और भी बहुत प्रयोग हुए हैं। रूस में भी बहुत प्रयोग हुए पड़ जाएगा। वह भीतर मौजूद ही है। हम इतने भरे हैं, उस भरे के | | कि आदमी मरता है, तो उसके शरीर में कोई भी अंतर पड़ता हो, कारण वह दिखाई नहीं पड़ता। वह निकट ही मौजूद है, लेकिन | | तो हम सोचें कि कोई चीज बाहर गई। लेकिन अब तक कोई अंतर हमारी आंखों में इतने कंकड़-पत्थर पड़े हैं कि वह दिखाई नहीं | | का अनुभव नहीं हो सका था। पड़ता। बचपन की आंख मिल जाए ताजी. कंआरी। वह अभी और | जैक्सन की खोज मूल्यवान है कि उसने इतना तो कम से कम यहीं उपलब्ध हो जाता है। | सिद्ध किया कि कुछ अंतर पड़ता है, इक्कीस ग्राम का सही। अंतर पड़ता है, इतनी बात तय हुई कि आदमी जब मरता है, तो अंतर पड़ता है। मृत्यु और जीवन के बीच थोड़ा फासला है, इक्कीस ग्राम 1413/ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 का सही! अंतर पड़ जाता है। आपको जीवित रखती है। अब यह जो इक्कीस ग्राम का अंतर पड़ता है, स्वभावतः जैक्सन | सब जीवन एक तरह की जलन, एक तरह की आग है। सब वैज्ञानिक है, वह सोचता है, यही आत्मा का वजन होना चाहिए। जीवन आक्सीजन का जलना है। चाहे दीया जलता हो, तो भी क्योंकि वैज्ञानिक सोच ही नहीं सकता कि बिना वजन के भी कोई आक्सीजन जलती है और चाहे आप जीते हों, तो भी आक्सीजन चीज हो सकती है। वजन पदार्थवादी मन की पकड़ है। बिना वजन जलती है। तो एक तफान आ जाए और दीया जल रहा हो. तो आप के कोई चीज कैसे हो सकती है! तूफान से बचाने के लिए एक बर्तन दीए पर ढांक दें। तो हो सकता वैज्ञानिक तो सूरज की किरणों में भी वजन खोज लिए हैं। वजन | है तूफान से दीया न बुझता, लेकिन आपके बर्तन ढांकने से बुझ है, बहुत थोड़ा है। पांच वर्गमील के घेरे में जितनी सूरज की किरणें| | जाएगा। क्योंकि बर्तन ढांकते ही उसके भीतर जितनी आक्सीजन पड़ती हैं, उनमें कोई एक छटांक वजन होता है। इसलिए एक किरण | | है, उतनी देर जल पाएगा, आक्सीजन के खत्म होते ही बुझ जाएगा। आपके ऊपर पड़ती है, तो आपको वजन नहीं मालूम पड़ता। | आदमी भी एक दीया है। आक्सीजन भीतर प्रतिपल जल रही है। क्योंकि पांच वर्गमील में जितनी किरणें पड़ें दोपहर में, उनमें एक आपका पूरा शरीर एक फैक्टरी है, जो आक्सीजन को जलाने का छटांक वजन होता है। - काम कर रहा है, जिससे आप जी रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिक तो तौलकर चलता है। मेजरेबल, कुछ भी हो | | तो जैसे ही आदमी मरता है, भीतर की सारी प्राणवायु व्यर्थ हो जो तौला जा सके, तो ही उसकी समझ गहरी होती है। एक बात | | जाती है, बाहर हो जाती है। उसको जो पकड़ने वाला भीतर मौजूद अच्छी है कि जैक्सन ने पहली दफा मनुष्य के इतिहास में तौल के | | था, वह हट जाता है, वह छूट जाती है। उस प्राणवायु का वजन आधार पर भी तय किया कि जीवन और मृत्यु में थोड़ा फर्क है। इक्कीस ग्राम है। कोई चीज कम हो जाती है। स्वभावतः, वह सोचता है कि आत्मा | लेकिन विज्ञान को वक्त लगेगा अभी कि प्राणवायु का वजन इक्कीस ग्राम वजन की होनी चाहिए। नापकर वह तय करे। और अगर जैक्सन को पता चल जाए कि यह अगर आत्मा का कोई वजन है, तो वह आत्मा ही नहीं रह जाती, | प्राणवाय का नाप है. तो सिद्ध हो गया कि आत्मा नहीं है, प्राणवायु पहली बात। क्योंकि आत्मा और पदार्थ में हम इतना ही फर्क करते | ही निकल जाती है। हैं कि जो मापा जा सके, वह पदार्थ है। इससे कुछ सिद्ध नहीं होता। क्योंकि आत्मा को वैज्ञानिक कभी अंग्रेजी में शब्द है मैटर, वह मेजर से ही बना हुआ शब्द है, जो भी न पकड़ पाएंगे। और जिस दिन पकड़ लेंगे, उस दिन आप तौला जा सके, मापा जा सके। हम माया कहते हैं, माया शब्द भी | समझिए कि आत्मा नहीं है। माप से ही बना हुआ शब्द है, जो तौली जा सके, नापी जा सके, | | इसलिए विज्ञान से आशा मत रखिए कि वह कभी आत्मा को मेजरेबल, माप्य हो। . | पकड़ लेगा और वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो जाएगा कि आत्मा है। पदार्थ हम कहते हैं उसे, जो मापा जा सके, तौला जा सके। जिस दिन सिद्ध हो जाएगा, उस दिन आप समझना कि महावीर, और आत्मा हम उसे कहते हैं, जो न तौली जा सके, न मापी जा बुद्ध, कृष्ण सब गलत थे। जिस दिन विज्ञान कह देगा आत्मा है, सके। अगर आत्मा भी नापी जा सकती है, तो वह भी पदार्थ का | | उस दिन समझना कि आपके सब अनुभवी नासमझ थे, भूल में पड़ एक रूप है। और अगर किसी दिन विज्ञान ने यह खोज लिया कि | गए थे। क्योंकि विज्ञान के पकड़ने का ढंग ऐसा है कि वह सिर्फ पदार्थ भी मापा नहीं जा सकता, तो हमें कहना पड़ेगा कि वह भी | | पदार्थ को ही पकड़ सकता है। वह विज्ञान की जो पकड़ने की आत्मा का विस्तार है। व्यवस्था है, वह जो मेथडॉलाजी है, उसकी जो विधि है, वह पदार्थ यह जो इक्कीस ग्राम की कमी हुई है, यह आत्मा की कमी नहीं | को ही पकड सकती है. वह आत्मा को नहीं पकड सकती। है, प्राणवायु की कमी है। आदमी जैसे ही मरता है, उसके शरीर के | | पदार्थ वह है, जिसे हम विषय की तरह, आब्जेक्ट की तरह देख भीतर जितनी प्राणवायु थी, वह बाहर हो जाती है। और आपके सकते हैं। और आत्मा वह है, जो देखती है। विज्ञान देखने वाले को भीतर काफी प्राणवायु की जरूरत है, जिसके बिना आप जी नहीं | | कभी नहीं पकड़ सकता; जो भी पकड़ेगा, वह दृश्य होगा। जो भी सकते। आक्सीजन की जरूरत है भीतर, जो प्रतिपल जलती है और | पकड़ में आ जाएगा, वह देखने वाला नहीं है; वह जो दिखाई पड़ 414 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांग और प्रार्थना रहा है, वही है । द्रष्टा विज्ञान की पकड़ में नहीं आएगा। और धर्म और विज्ञान का यही फासला है। अगर विज्ञान आत्मा को पकड़ ले, तो धर्म की फिर कोई भी जरूरत नहीं है। और अगर धर्म पदार्थ को पकड़ ले, तो विज्ञान की फिर कोई भी जरूरत नहीं है। हालांकि दोनों तरह के मानने वाले पागल हैं। कुछ पागल हैं, जो समझते हैं, धर्म काफी है, विज्ञान की कोई जरूरत नहीं है। वे उतने ही गलत हैं, जितने कि कुछ वैज्ञानिक समझते हैं कि विज्ञान काफी है और धर्म की कोई जरूरत नहीं है। विज्ञान पदार्थ की पकड़ है, पदार्थ की खोज है। धर्म आत्मा की खोज है, अपदार्थ की, नान - मैटर की खोज है। ये दोनों खोज अलग हैं। इन दोनों खोज के आयाम अलग हैं। इन दोनों खोज की विधियां अलग हैं। अगर विज्ञान की खोज करनी है, तो प्रयोगशाला में जाओ। और अगर धर्म की खोज करनी है, तो अपने भीतर जाओ। अगर विज्ञान की खोज करनी है, तो पदार्थ के साथ कुछ करो। अगर धर्म की खोज करनी है, तो अपने चैतन्य के साथ कुछ करो तो इस चैतन्य को न तो टेस्ट ट्यूब में रखा जा सकता है; न तराजू पर तौला जा सकता है; न काटा-पीटा जा सकता है सर्जन की टेबल पर कोई उपाय नहीं है। इसका तो एक ही उपाय है कि अगर आप अपने को सब तरफ से शांत करके भीतर खड़े हो जाएं जागकर, तो इसका अनुभव कर सकते हैं। यह अनुभव निजी और वैयक्तिक हैं। एक मित्र ने यह सवाल भी पूछा है कि धर्म और विज्ञान में क्या फर्क है ? यही फर्क है। विज्ञान है परंपरा, समूह की । धर्म है निजी अनुभव, व्यक्ति का । विज्ञान प्रमाण दे सकता है, धर्म प्रमाण नहीं दे सकता। धर्म केवल अनुभव दे सकता है, प्रमाण नहीं। विज्ञान कह सकता है, सौ डिग्री पर पानी गर्म होता है। हजार लोगों के सामने पानी गर्म करके बताया जा सकता है। सौ डिग्री पर पानी गर्म हो जाएगा, प्रमाण हो गया। धर्म जिन बातों की चर्चा करता है, वे किसी के सामने भी प्रकट करके नहीं बताई जा सकतीं, जब तक कि वह दूसरा आदमी अपने भीतर जाने को राजी न हो। और वह भी भीतर चला जाए, तो किसी दिन दूसरे के सामने प्रमाण नहीं दे सकेगा। धर्म के पास कोई प्रमाण नहीं है, सिर्फ अनुभव है। विज्ञान के पास प्रमाण है, अनुभव कुछ भी नहीं है। तो अगर आपको प्रमाण इकट्ठे करने हों, तर्क इकट्ठे करने हों, तो विज्ञान उचित है । और अगर आपको जीवन का अनुभव पाना हो, जीवन के रहस्य में उतरना हो, तो धर्म की जरूरत है। 415 और धर्म और विज्ञान पृथ्वी पर सदा बने रहेंगे, क्योंकि उनके आयाम अलग हैं, उनकी दिशाएं अलग हैं। जैसे आंख देखती है और कान सुनता है। अगर आंख सुनने की कोशिश करे, तो पागल हो जाएगी। और अगर कान देखने की कोशिश करे, तो पागल हो जाएगा। उनके आयाम अलग हैं, उनके डायमेंशन अलग हैं। विज्ञान और धर्म का क्षेत्र ही अलग है। वे कहीं एक-दूसरे को ओवरलैप नहीं करते, एक-दूसरे के ऊपर नहीं आते। अलग-अलग हैं। इसलिए कोई झगड़ा भी नहीं है, कोई कलह भी नहीं है। न तो विज्ञान धर्म को गलत सिद्ध कर सकता है और न सही । और न धर्म विज्ञान को गलत सिद्ध कर सकता है और न सही। उनका कोई संबंध ही नहीं है। उनके यात्रा-पथ अलग हैं, उनका कहीं मिलना नहीं होता। इसलिए दोनों की भाषा को अलग रखने की कोशिश करें, तो | आपके अपने जीवन में सुविधा बनेगी। जहां पदार्थ की बात सोचते हों, वहां विज्ञान की सुनें; और जहां चेतना की बात सोचते हों, वहां | विज्ञान की बिलकुल मत सुनें, वहां धर्म की सुनें। और इन दोनों को मिलाएं मत। इन दोनों को आपस में गड्डमड्ड मत करें। अन्यथा आपका जीवन एक कनफ्यूजन हो जाएगा। तो डाक्टर जैक्सन जो कहते हैं, वे ठीक कहते हैं। उन्होंने एक कीमती बात खोजी । लेकिन वह आत्मा का वजन नहीं है। वह ज्यादा से ज्यादा प्राणवायु का वजन हो सकता है। आत्मा का कोई वजन नहीं है। एक मित्र ने पूछा है, गीता जैसे अमृत-तुल्य परम रहस्यमय उपदेश को भगवान ने अर्जुन को ही क्यों दिया ? अर्जुन में ऐसी कौन-सी योग्यता थी कि वह इसके लिए पात्र था ? उसका ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तप था ? g छ बातें खयाल में लेने जैसी हैं, वे गीता को समझने में उपयोगी होंगी, स्वयं को समझने में भी । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 अर्जुन का कोई भी तप नहीं है। तप की भाषा ही अलग है। | चिंता नहीं है। सोने को, कचरे को, सबको परमात्मा के चरणों में अर्जुन का प्रेम है, तप नहीं है। तप की भाषा अलग है। तप की भाषा | | डाल देना है। सोने को कचरे से अलग नहीं करना है। कचरे सहित है संकल्प की भाषा। एक आदमी कहता है कि मैं पाकर रहूंगा। | सोने को भी परमात्मा के चरणों में डाल देना है। और कह देना है, अपनी सारी ताकत लगा दूंगा। जो भी त्याग करना है, करूंगा। जो | जो तेरी मर्जी। भी खोना है, खोऊंगा। जो भी श्रम करना है, करूंगा। अपनी सारी समर्पण का अर्थ है, अपने को छोड़ देना है किसी के हाथों में। ताकत लगा दूंगा। अब वह जो चाहे। यह छोड़ना ही घटना बन जाती है। यह प्रेम का आपको खयाल है, हिंदुस्तान में दो संस्कृतियां हैं। एक तो है | मार्ग है। आप तभी छोड़ सकते हैं, जब प्रेम हो। संकल्प में प्रेम की आर्य संस्कृति और दूसरी है श्रमण संस्कृति। श्रमण संस्कृति में जैन | कोई जरूरत नहीं है; समर्पण में प्रेम की जरूरत है। और बौद्ध हैं। आर्य संस्कृति में बाकी शेष लोग हैं। अर्जुन का प्रेम है कृष्ण से गहन, वही उसकी पात्रता है। वहां प्रेम कभी आपने समझा इस श्रमण शब्द का क्या अर्थ होता है? | ही पात्रता है। उसका प्रेम अतिशय है। उस प्रेम में वह इस सीमा श्रमण का अर्थ है, श्रम करके ही पाएंगे। चेष्टा से मिलेगा| तक तैयार है कि अपने को सब भांति छोड़ सका है। परमात्मा-तप से, साधना से, योग से। मुफ्त नहीं लेंगे। प्रार्थना क्या घटना घटती है जब कोई अपने को छोड़ देता है? हमारी नहीं करेंगे, प्रेम में नहीं पाएंगे; अपना श्रम करेंगे और पा लेंगे। एक | | जिंदगी का कष्ट क्या है? कि हम अपने को पकड़े हुए हैं, हम अपने सौदा है, जिसमें अपने को दांव पर लगा देंगे। जो भी जरूरी होगा; को सम्हाले हुए हैं। यही हमारे ऊपर तनाव है, यही हमारे मन का करेंगे। भीख नहीं मांगेंगे, भिक्षा नहीं लेंगे, कोई अनुग्रह नहीं | | खिंचाव है कि मैं अपने को सम्हाले हुए हूं, पकड़े हुए हूं। स्वीकार करेंगे। आपको पता है, चिकित्सक कहते हैं कि अगर कोई आदमी तो महावीर परम श्रमण हैं। वे सब दांव पर लगा देते हैं और । | बीमार हो और उसे नींद न आए, तो फिर बीमारी ठीक नहीं हो पाती। घोर संघर्ष, घोर तपश्चर्या करते हैं। महातपस्वी कहा है उन्हें लोगों | | कोई भी बीमारी हो, बीमारी के ठीक होने के लिए नींद आना जरूरी ने। बारह वर्ष तक, बारह वर्ष तक निरंतर खड़े रहते हैं धूप में, | | है। क्यों? दवा से ठीक करें। लेकिन चिकित्सक पहले नींद की छांव में, वर्षा में, सर्दी में। बारह वर्ष में कहते हैं कि सिर्फ तीन सौ | | फिक्र करेगा। नींद की दवा देगा, कि पहले नींद आ जाए। क्यों? साठ दिन उन्होंने भोजन किया। मतलब ग्यारह वर्ष भूखे, बारह ___ क्योंकि आप बीमार हैं, और जब तक आप जग रहे हैं, आप वर्ष में। कभी एक दिन भोजन किया, फिर महीनेभर भोजन नहीं | | बीमारी को जोर से पकड़े रहते हैं, उसको छोड़ते नहीं हैं। कांशस, किया, फिर दो महीने भोजन नहीं किया। सब तरह अपने को | | सचेतन जकड़ बनी रहती है बीमारी की आपकी छाती के ऊपर, मन तपाया और तप कर पाया। के ऊपर-मैं बीमार हूं, मैं बीमार हूं! नींद में गिरते ही सब आपके यह समर्पण के विपरीत मार्ग है, संकल्प का। इसमें अहंकार को | | हाथ से छूट जाता है। और जैसे ही छूटता है, वैसे ही प्रकृति काम तपाना है। और इसमें अहंकार को पूरी तरह दांव पर लगाना है। | शुरू कर देती है। सुबह तक आप बेहतर हालत में उठते हैं। इसमें अहंकार को पहले ही छोड़ना नहीं है। अहंकार को शुद्ध करना रोज सांझ आप थके सोते हैं। क्यों थकते हैं आप? थकते हैं है। और शुद्ध करने की प्रक्रिया का नाम तप है। अहंकार को शुद्ध | इसलिए कि आपको लग रहा है कि मैं कर रहा हूं। मैं कर रहा हूं, करने की प्रक्रिया का नाम तप है। तो थक जाते हैं। रात नींद में खो जाते हैं, सुबह ताजे हो जाते हैं। जैसे सोने को हम आग में डाल देते हैं। तप जाता है। जो भी क्योंकि कम से कम रात आपको कुछ नहीं करना पड़ा। छोड़ दिया, कचरा होता है, जल जाता है। फिर निखालिस सोना बचता है। जो हुआ। नींद में आप गिर जाते हैं उस स्रोत में, जहां आपके श्रम महावीर कहते हैं कि जब निखालिस अस्मिता बचती है तपने के | की कोई भी जरूरत नहीं है। बाद, सिर्फ मैं का भाव बचता है, शुद्ध मैं का भाव, तपते-तपते- | प्रेम जागते हुए नींद में गिर जाना है। थोड़ा कठिन लगेगा तपते, तब आत्मा परमात्मा हो जाती है। वह शुद्धतम अहंकार ही समझना। प्रेम का मतलब है, होशपूर्वक, जागते हुए किसी में गिर आत्मा है। यह एक मार्ग है, इसमें सोने को तपाना जरूरी है। जाना और छोड़ देना अपने को कि अब मैं नहीं हूं, तू है। प्रेम एक एक दूसरा मार्ग है, जो समर्पण का है, जिसमें तपाने वगैरह की तरह की नींद है जाग्रत। इसलिए प्रेम समाधि बन जाती है। कोई Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मांग और प्रार्थना ध्यान करके पहुंचता है, तब बड़ा श्रम करना पड़ता है। कोई प्रेम न आती हो, तो मजे से पड़े रहें। और नींद न आने का मजा लेते करके पहुंच जाता है, तब श्रम नहीं करना पड़ता। रहें। नहीं आ रही, मजा है। नींद आ जाएगी। आप नींद के लिए लगेगा कि प्रेम बहुत आसान है। लेकिन इतना आसान नहीं है। सीधा कुछ मत करें। सीधी चेष्टा बाधा है। शायद ध्यान ही ज्यादा आसान है। अपने हाथ में है। कुछ कर सकते फ्रांस के एक बहुत बड़े विचारक, गहन अनुभवी, कुए ने एक हैं। प्रेम आपके हाथ में कहां? हो जाए, हो जाए; न हो जाए, न हो | | सूत्र विकसित किया है। वह सूत्र है, ला आफ रिवर्स इफेक्ट, जाए। लेकिन अगर छोड़ने की कला धीरे-धीरे आ जाए...।। | विपरीत परिणाम का नियम। कुछ चीजें हैं कि जिनमें आप अगर हमें पता नहीं कि जिंदगी में जो भी महत्वपूर्ण है, वह छोड़ने की | | प्रयास करें, तो उलटा परिणाम हाथ आता है। कला से मिलता है। कुछ लोगों को नींद नहीं आती, इन्सोमेनिया, | नींद वैसी ही चीज है, आपको उलटा परिणाम हाथ आएगा। अनिद्रा की बीमारी हो जाती है। तो हजार उपाय करने पड़ते हैं, फिर अगर आप लाने की कोशिश करेंगे, नींद नहीं आएगी। अगर आप भी नींद नहीं आती। जितना वे उपाय करते हैं, उतनी ही नींद | | सब कोशिश छोड़ देंगे, थक जाएंगे कोशिश कर-करके, छोड़ देंगे, मुश्किल हो जाती है। नींद आ जाएगी। उन्हें एक सूत्र का पता नहीं है कि नींद चेष्टा से नहीं आ सकती।। नींद गहन चीज है, आपके हाथ में नहीं है। परमात्मा और भी आपको अगर नींद न आती हो–यहां काफी लोग होंगे, जिनको | | गहन है। नींद तो प्रकृति है। परमात्मा और भी गहन है। वह आपके नहीं आती होगी। और अगर आपको अब भी नींद आती है, तो | हाथ में बिलकुल नहीं है। आप प्रिमिटिव हैं, थोड़े असभ्य हैं। सभ्य आदमी को कहां नींद! | यह समर्पण के सूत्र के कहने वालों का नियम है कि आप सभ्य आदमी तो इतना बेचैन हो जाता है कि नींद-वींद कहां! अगर परमात्मा को पकड़ने, खोजने की चेष्टा मत करें। आप सिर्फ अपने आपको नींद आती है, तो आपमें बुद्धि की कमी है। बुद्धिमान को उसमें छोड़ दें, जैसे नींद में छोड़ देते हैं। डूब जाएं। कह दें कि आदमी को कहां नींद! उसकी बुद्धि चलती ही रहती है। वह लाख | तू है और अब मैं नहीं हूं। अब तुझे जो करना हो, उसके लिए मैं कोशिश करता है सोने की, बुद्धि चलती चली जाती है। लोग चेष्टा | राजी हूं। नियति की बात इसमें सहयोगी होगी। केवल नियति को मानने आज अमेरिका में करीब-करीब पचास से साठ प्रतिशत लोग वाला ही पूरा समर्पण कर सकता है। जो मानता है कि मैं कछ कर बिना शामक दवा के नहीं सो सकते। और अमेरिकी मनस | | सकता हूं, वह समर्पण नहीं कर सकता। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस सदी के पूरे होते-होते ऐसा आदमी ___ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि संकल्प से नहीं पहुंचा जा सकता। खोजना मुश्किल हो जाएगा अमेरिका में, जो बिना दवा के सोता | संकल्प से लोग पहुंचे हैं, संकल्प से पहुंचा जा सकता है। मगर है। वह अनूठी चीज हो जाएगा, कि कोई आदमी सिर रख लेता है | गीता का वह मार्ग नहीं है। और अर्जुन की वह पात्रता नहीं है। तकिए पर और सो जाता है! इसलिए अर्जुन ने कोई तप नहीं किया है। अगर आप प्रेम को ही ऐसे लोगों की तकलीफ है कि कैसे सोएं! तो कोई कहता है, | | तप कहें, तब बात दूसरी है। प्रेम भी तप है। क्योंकि जो करता है, गिनती करो एक से सौ तक, फिर सौ से वापस एक तक! कोई | | वह प्रेम में वैसे ही जलता है, जैसे कोई आग में जलता हो। और कहता है, मंत्र पढ़ो। कोई कहता है, राम-राम जपो। कोई कुछ | | शायद प्रेम की आग और भी गहन आग है। और शायद साधारण कहता है, कोई कुछ कहता है। लोग करते भी हैं। और जितना करते आग ऊपर-ऊपर जलाती होगी, प्रेम की आग भीतर तक राख कर हैं, उतना ही पाते हैं कि नींद और भाग गई। क्योंकि नींद के आने जाती है। अगर प्रेम को भी तप कहें, तब मुझे कोई अड़चन नहीं है। का एक ही सूत्र है कि आप कुछ मत करें। आप चुपचाप पड़ जाएं, | लेकिन तब भाषा को साफ समझ लेना जरूरी है। ताकि नींद आ सके। तप उनका मार्ग है, जो कहते हैं, हम कोशिश करके पा लेंगे। जब आप नहीं करते हैं कुछ, तब नींद आती है। नींद के लाने के प्रेम उनका मार्ग है, जो कहते हैं, हमारी कोशिश से क्या होगा! हम लिए कुछ करना नहीं पड़ता। कुछ भी करना बाधा है। नींद उतरती असहाय हैं। तुम उठा लो। है आपके ऊपर, जब आप कुछ भी नहीं करते। अगर आपको नींद | इसलिए तप के मार्ग पर ईश्वर को मानने की भी जरूरत नहीं है। 417] Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-58 महावीर ने ईश्वर को नहीं माना। बुद्ध ने ईश्वर को नहीं माना। थी। नदी से जो लड़ेगा, वह डूबेगा। प्राचीन योग-सत्रों ने कहा है कि मानो ईश्वर को तो ठीक है: न | जिसको हम तैरने वाला कहते हैं. वह क्या सीख लेता है. मानो, तो भी चलेगा। योग साधो, घटना घट जाएगी। ईश्वर को आपको पता है! तैरना कोई कला थोड़े ही है। वह यही सीख लेता मानने, न मानने की कोई जरूरत नहीं है। है कि नदी में मुर्दा कैसे हुआ जाए, बस। तैरना कोई कला है ? तैरने लेकिन प्रेम के मार्ग पर तो ईश्वर को मानकर ही चलना होगा। | में करते क्या हैं आप? हाथ-पैर थोड़े तड़फड़ा लेते हैं। वह भी जो नहीं तो समर्पण कैसे करिएगा? किसको समर्पण करिएगा? ईश्वर सिक्खड़ है, वह तड़फड़ाता है। जो जानता है, वह हाथ-पैर हो या न हो, अगर आप समर्पण कर सकते हैं, तो आप पा लेंगे। | छोड़कर भी नदी पर तैर लेता है। वह मुर्दा होना सीख गया है। अब परम अनुभूति। वह नदी से लड़ता नहीं है। वह नदी के खिलाफ कोई कोशिश नहीं इसलिए प्रेम का मार्ग मानकर चलता है कि ईश्वर है परम केंद्र | करता। वह नदी को कहता है कि तू भी ठीक, मैं तेरे साथ राजी हूं! जीवन का, अस्तित्व का। उसमें हम अपने को छोड़ देते हैं। हम | वह तैरने लगता है। अपनी तरफ से अपने को नहीं ढोते। प्रेम के पथिक का कहना है | नदी में मुर्दे की भांति हो जाएं, तो आप अर्जुन हो जाएंगे। फिर कि सब तरह के प्रयास ऐसे ही हैं, जैसे कोई आदमी अपने जूते के कोई आपको डुबा न सकेगा। अर्जुन की योग्यता थी कि वह अपने फीते पकड़कर खुद को उठाने की कोशिश करे। यह नहीं हो | को छोड़ सका। वही भक्त की योग्यता है। सकता। छोड़ दो। कृष्ण के सामने अर्जुन की एक ही योग्यता है कि वह छोड़ सका पूरा का पूरा। अगर आप भी छोड़ सकते हैं, तो जो अर्जुन को घटा, एक मित्र ने पूछा है कि शायद मैं ठीक से समझ नहीं वह आपको भी घट जाएगा। नहीं छोड़ सकते हैं, तो बेहतर है फिर पाया। आप कहते हैं, प्रार्थना में मांगें मत; कोई अर्जुन के रास्ते पर न चलें। फिर महावीर का रास्ता है, पतंजलि का | | वासना, आकांक्षा न करें। क्या आपका यह मतलब है रास्ता है, उस पर चलें। फिर चेष्टा करें, श्रम करें। कि प्रार्थना में कुछ मांगा जाए, तो वह पूरा नहीं होगा? हम ऐसे बेईमान हैं कि हम दोनों के बीच समझौता खोज लेते हैं। चेष्टा भी नहीं छोड़ते, और चाहते हैं, मुफ्त में मिल भी जाए। कहते हैं, हम अपने को छोड़ेंगे भी नहीं, और वैसी ही घटना घट नहीं ; मेरा यह मतलब नहीं है। वह तो पूरा हो जाएगा, जाए, जैसी अर्जुन को घटी। पर अर्जुन को घटी इसलिए कि वह UI प्रार्थना बेकार हो जाएगी। आपने सस्ते में प्रार्थना बेच छोड़ सका। दी। जिससे परमात्मा मिल सकता था, उससे आपने आपको पता है, आप अगर जिंदा आदमी हों और तैरना नहीं | एक बेटा पा लिया। जिससे परमात्मा मिल सकता था, उससे आपने जानते, तो नदी में डूबकर मर जाएंगे। अगर आपको नदी में फेंक कोई नौकरी पा ली। आपने बहुत सस्ते में प्रार्थना बेच दी! दें और आप तैरना न जानते हों, तो आप डूबकर मर जाएंगे। लेकिन यह मेरा मतलब नहीं है कि प्रार्थना में आप मांगेंगे, तो पूरा नहीं आपने एक बात कभी देखी, कि जब आप मर जाएंगे, तब आपकी | होगा। पूरा हो जाएगा, यही खतरा है। क्योंकि तब आप प्रार्थना के लाश ऊपर तैरने लगेगी! उसको नदी न डुबा सकेगी! | साथ गलत संबंध जोड़ लेंगे और व्यर्थ की चीजें मांगते चले बड़े मजे की बात है! जिंदा आदमी डूब मरा; मुर्दे को नदी नहीं जाएंगे। वह पूरा हो जाएगा। पूरा इसलिए नहीं हो जाएगा कि डुबा पा रही है! मुर्दे की क्या खूबी है ? मुर्दे की पात्रता क्या है ? और परमात्मा आपकी प्रार्थना पूरी करने आ रहा है। इसलिए भी नहीं। आपकी क्या कमी थी? जिंदा थे, तब फंस मरे। और अब मरकर क्योंकि आपकी क्षुद्र प्रार्थनाओं का क्या मूल्य है! ' मजे से ऊपर तैर रहे हैं, और नदी अब कुछ भी नहीं कर सकती! प्रार्थना इसलिए पूरी हो जाती है कि प्रार्थना अगर आपने पूरे भाव मुर्दे की एक ही पात्रता है कि अब उसने नदी पर अपने को छोड़ | से की है, तो आप ही उसके पूरे करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। दिया। उसकी और कोई पात्रता नहीं है। अब वह लड़ नहीं सकता, | + अगर आपने प्रार्थना पूरे भाव से की है, तो आपका मन सशक्त हो यही उसकी योग्यता है। आप लड़ रहे थे, वही आपकी अयोग्यता | | जाता है। अगर आपने प्रार्थना पूरे भाव से की है, तो आपके मन Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मांग और प्रार्थना की शक्ति ही उस प्रार्थना के कार्य को पूरा करवा देती है। | हैं, तो उसमें इंटरव्यू लेने वाले का तो थोड़ा हाथ है ही, आपका भी कोई आपकी प्रार्थना में आ नहीं रहा है। आप अकेले ही हैं। वह | | काफी हाथ है। ज्यादा आपका ही हाथ है। मोनोलाग है, एकालाप है; उसमें कोई दसरा उत्तर नहीं दे रहा है। __ आप जिस ढंग से प्रवेश करते हैं उसके दफ्तर में। आपकी लेकिन अगर आपने बलपूर्वक कोई प्रार्थना की है, तो उस प्रार्थना | शक्ल-सूरत आपने जैसी बना रखी है, कुटी-पिटी, हारी हुई। भीतर को बलपूर्वक करने में आप बलशाली हो गए। और वह जो | | से आप डरे हुए हैं और पहले ही सोच रहे हैं कि नौकरी तो मिलनी बलशाली हो जाना है आपके मन का, वही सूक्ष्म शक्तियों को | | नहीं है। ये वाइब्रेशंस आप लेकर उसके दफ्तर में प्रवेश करते हैं। विकीर्णित कर देता है और घटना घट जाती है। अगर संदेह से की | | वह आपकी तरफ देखकर ही निगेटिव हो जाता है। है, तो घटना नहीं घटती। क्योंकि संदेह अगर साथ मौजूद है, तो | | आप उसको निगेटिव कर रहे हैं। आप उसको नकार से भर देते आप बलशाली हो ही नहीं पाते। | हैं। आपको देखकर ही उसके मन में आकर्षण पैदा नहीं होता कि लेकिन प्रार्थना पूरा कर देगी। आप जो भी मांगेंगे, पूरा हो जाएगा। | खींच ले आपको पास या आपके पास खिंच जाए, ऐसा लगता है यह मेरा मतलब नहीं था। मेरा मतलब यह था कि जब आप | कि कब आदमी यह बाहर निकले। और जैसे ही आप उसके चेहरे मांगते हैं, तब वह प्रार्थना नहीं रही, मांग ही हो गई। | पर देखते हैं कि इसको लग रहा है कि कब यह आदमी बाहर प्रार्थना तो वह शुद्ध क्षण है, जब आपका और विराट का मिलन | | निकले, आप और कंप जाते हैं। आपको पक्का हो जाता है कि गई, होता है। वहां छोटी-छोटी मांगें बीच में खड़ी न करना। उन क्षुद्र | | यह नौकरी भी गई! यह आप ही कर रहे हैं। बातों के कारण आड पड जाएगी। और छोटी-छोटी चीजें इतनी | अगर आप प्रार्थना कर सकें किसी मंदिर में जाकर. चाहे वहां बड़ी आड़ बन जाती हैं, जिसका हिसाब नहीं है। कोई देवता हो या न हो, यह सवाल बड़ा नहीं है। असली हो देवता, 'कभी खयाल किया, आंख में एक छोटा-सा तिनका चला जाए, | | नकली हो, यह भी सवाल नहीं है। अगर आप किसी मंदिर में और सामने हिमालय भी खड़ा हो, तो फिर हिमालय भी दिखाई नहीं | | जाकर प्रार्थना कर सकें पूरे भरोसे के साथ; यह प्रार्थना किसी देवता पड़ता; आंख बंद हो जाती है। एक छोटा-सा तिनका पूरे हिमालय | | को नहीं बदलेगी, आपको बदल देगी। आप उस मंदिर से जब को ढंक देता है; आंख ही बंद हो जाती है। छोटी-सी मांग आंख - लौटेंगे, अब भरोसा होगा। आत्मविश्वास होगा। पैरों में ताकत को बंद कर देती है। फिर परमात्मा सामने भी खड़ा हो, तो दिखाई होगी। आंखों में रौनक होगी। नहीं पड़ता। और जब आप दफ्तर में प्रवेश करेंगे किसी नौकरी के, तो ___परमात्मा के पास मांगते हुए मत जाना। इसका यह मतलब नहीं | आपके भीतर एक यस मूड होगा, एक हां का भाव होगा कि नौकरी है कि आपके मन की ताकत नहीं है। आपके मन की बड़ी ताकत | मिलने वाली है, प्रार्थना पूरी होने वाली है। अब कोई रोक नहीं है। और अगर आप पूरे भरोसे से कोई बात को तय कर लें, वह हो | सकता; परमात्मा मेरे साथ है। यह जो आप भीतर प्रवेश कर रहे जाएगी। उसको कोई परमात्मा बीच में आपके पूरा करने नहीं | हैं, आपकी तरंगें अब दूसरी हैं, पाजिटिव हैं, विधायक हैं। जो भी आता। आप ही पूरा कर लेते हैं। इतने के लिए तो आप भी काफी आदमी आपको देखेगा, वह खिंचेगा, आकर्षित होगा। आप मैग्नेट परमात्मा हैं! बन गए। ये जो मन की क्षमताएं हैं—मन की क्षमताएं हैं, अगर आप कोई | प्रार्थना ने किसी परमात्मा के विचार को नहीं बदला; प्रार्थना ने विचार बहुत गहरे में मन में ले लेते हैं, तो आपका मन उस विचार | आपको बदल दिया। को पूरा करने में संलग्न हो जाता है। और आपके पास न मालूम | __ और आपकी प्रार्थनाएं परमात्मा के विचार को कैसे बदल कितनी सूक्ष्म शक्तियां हैं, जिनका आपको पता नहीं है, जिनका | | पाएंगी? इसका तो मतलब यही हुआ कि जब तक आपने प्रार्थना आपको खयाल नहीं है। नहीं की थी, परमात्मा कुछ गलती में था! आपने सलाह दी, तब समझें। आपको नौकरी नहीं मिल रही है। आप पच्चीस इंटरव्यू उनको अक्ल आई! अब तक नौकरी नहीं दिलवा रहे थे, अब दे आए। और जहां भी जाते हैं, वहीं से खाली हाथ लौट आते हैं। नौकरी दिलवा रहे हैं। कभी आपने सोचा कि जब आप इंटरव्यू देकर खाली हाथ लौटते - या तो इसका यह मतलब होता है, या इसका यह मतलब होता 1491 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 58 है कि रिश्वत की तलाश में था परमात्मा! जब तक आप हाथ-पैर कर रहा है। न जोड़ो, फूल-पत्ती न चढ़ाओ, नारियल न पटको, सिर न पटको | यहां एक बात समझ लेने जैसी जरूरी है कि विराट का और उनके पैरों में, तब तक वे राजी न होंगे। आपकी स्तुति की खोज | व्यक्ति का संबंध मां और बेटे का संबंध है। कहता हूं, मां और बेटे थी, खुशामद, कोई रिश्वत! तो यह तो ब्लैकमेलिंग है। आदमी को का; बाप और बेटे का नहीं-सोचकर। पीछे आपसे बात करूंगा। नौकरी दिलवाना है, तो पहले सिर पटकवाओ। विराट और व्यक्ति के बीच जो संबंध है वह मां और बेटे का नहीं, न परमात्मा आपकी रिश्वत की तलाश में है, न आपकी संबंध है। क्योंकि हम विराट से उत्पन्न होते हैं। उसकी ही लहरें, स्तति की. न आपकी प्रार्थना की। लेकिन जो आप कर रहे हैं, उससे | उसकी ही तरंगें हम हैं। वही हममें खिला। वही हममें फूल-पत्ता आप बदल रहे हैं। आप दूसरे आदमी होकर प्रवेश कर रहे हैं। | बना। वही हमारा व्यक्तित्व है। यह जो आपका आकर्षण है पाजिटिव बिंदु का, विधायक बिंदु । तो हमारे और विराट के बीच जो संबंध है, वह वही होगा जो का, इसका परिणाम होगा। नौकरी मिल सकती है। और नौकरी | एक मां और बेटे के बीच है। क्योंकि मां के गर्भ में बेटा बड़ा होता मिल जाएगी, तो आपका एक भाव दृढ़ हो जाएगा कि प्रार्थना से | है उसके अंग की भांति, उसके शरीर की भांति। कुछ भेद नहीं मिली। अब आप और मजबूत हो जाएंगे। अब दुबारा किसी दूसरी | होता। मां मरेगी, तो उसका बेटा मर जाएगा। और बेटा भीतर मर । जगह प्रार्थना करके जाएंगे, तो आपके पैरों की ताकत अलग होगी। | जाए, तो मां की मौत घट सकती है। दोनों एक हैं। एक से ही जुड़े आप हवा में उड़ेंगे। यह आत्मविश्वास काम करता है। | हैं। बेटा अपनी सांस भी नहीं लेता; मां से ही जीता है। मां का ही प्रार्थना आत्मविश्वास देती है। आत्मविश्वास आपकी शक्तियों। प्राण उसका प्राण है। मां के साथ एक साथ एक है। जैसे लहर को विधायक बना देता है। अविश्वास अपने पर, नकारात्मक बना | सागर के साथ एक है। देता है। फिर यह बेटा पैदा होता है। तो जैसे मां का ही एक हिस्सा बाहर तो यह मैंने नहीं कहा कि प्रार्थना करेंगे, तो कोई मांग पूरी नहीं | गया, जैसे मां का ही एक अंग अनंत की यात्रा पर निकला। यह होगी। पूरी हो जाएगी, यही खतरा है। पूरी न होती, तो शायद आप | कहीं भी रहे, कितना ही दूर रहे, मां से बहुत सूक्ष्म तंतुओं से जुड़ा कभी न कभी प्रार्थना में मांग बंद कर देते। वह पूरी हो जाती है, तो रहता है। मांग आदमी जारी रखता है। अगर सच में ही मां और बेटे की घटना घटी हो...। सच में धन्यभागी हैं वे, जिनकी प्रार्थनाएं कभी पूरी नहीं होतीं। क्योंकि | | इसलिए कहता हूं कि सभी के भीतर नहीं भी घटती। कुछ माताएं तब उनको समझ में आ जाएगा कि प्रार्थना में मांग व्यर्थ है। तो केवल जननी होती हैं, माताएं नहीं। कोई बहुत भाव से जन्म नहीं शायद किसी दिन वे उस सार्थक प्रार्थना को कर सकें, जिसमें मांग देती। एक जबरदस्ती थी, एक बोझ था, एक काम था, निपटा नहीं होती, सिर्फ भाव होता है। दिया। इन माताओं का बस चलेगा, तो आज नहीं कल, जैसा आज ठीक से समझ लें, प्रार्थना मांग नहीं, दान है। अगर आप | वे बच्चे के पैदा होने के बाद नर्स को पालने के लिए रख लेती हैं, परमात्मा को अपने को देने गए हैं, तो प्रार्थना है; अगर उससे कुछ | आज नहीं कल वे किसी नर्स को गर्भ के लिए भी रख लेंगी। और लेने गए हैं, तो प्रार्थना नहीं है। पश्चिम में उपाय हो गए हैं अब कि आपका बेटा किसी दूसरे के अब हम सूत्र लें। | गर्भ में बड़ा हो सकता है। तो जो सुविधा-संपन्न हैं, वे अपने गर्भ इस प्रकार के मेरे इस विकराल रूप को देखकर तेरे को | में बड़ा नहीं करेंगी, वे किसी और के गर्भ में बड़ा कर लेंगी। व्याकुलता न होवे और मूढ़भाव भी न होवे और भयरहित, ___मां का मतलब तो यह है कि इस बेटे में मैं जन्मी, इस बेटे में प्रीतियुक्त मन वाला तू उस ही मेरे इस शंख, चक्र, गदा, पद्म सहित | | मेरा जीवन आगे फैला। जैसे वृक्ष की एक शाखा दूर आकाश में चतुर्भुज रूप को फिर देख। | निकल जाए, बस ठीक मेरी एक शाखा आगे गई। कृष्ण ने कहा, मैं लौट आता हूं वापस साकार में, सगुण में, | जीवन इतना इकट्ठा मालूम पड़े जिस मां को भी, उसके और ताकि तुझे भय न होवे, तेरे मन को राहत मिले, सांत्वना मिले। | उसके बेटे के बीच हजारों मील के बीच भी संबंध होता है। इस पर इसलिए मैं अपने उसी रूप में वापस लौट आता हूं, जिसकी तू मांग | बड़ा काम हुआ है। और अगर बेटा बीमार पड़ जाए, तो मां बेचैन 1420| Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मांग और प्रार्थना हो जाती है। हजारों मील के फासले पर! अगर बेटा मर जाए, तो | अस्तित्व हृदयहीन नहीं है। मां को तत्क्षण आघात पहुंचता है। यही विज्ञान और धर्म की समझ का भेद है। विज्ञान कहता है, अभी रूस के कुछ वैज्ञानिक पशुओं के साथ प्रयोग कर रहे थे, | अस्तित्व है हृदयहीन, हार्टलेस। कुछ भी करो, अस्तित्व तुम्हारी तो बहुत चकित हुए। और पता चला कि पशुओं में मातृत्व शायद | सुनने वाला नहीं है। कुछ भी करो, अस्तित्व के पास कान नहीं हैं ज्यादा है मनुष्यों की बजाय! खरगोश पर वे प्रयोग कर रहे थे। तो | | कि तुम्हारी सुने। कुछ भी करो, अस्तित्व को पता भी नहीं चलेगा। खरगोश के बच्चों को रखा गया ऊपर और उनकी मां को वे ले गए | | यह विज्ञान की दृष्टि है। अस्तित्व है गहन उपेक्षा में। तुम क्या हो, नीचे समुद्र में एक पनडुब्बी में। और उन्होंने बच्चों को ऊपर सताना हो या नहीं हो, कोई प्रयोजन नहीं है। शुरू किया, जब मां पनडुब्बी में नीचे थी। जैसे ही उन्होंने बच्चों को ___धर्म कहता है, यह असंभव है। अगर हम अस्तित्व के ही हिस्से सताना शुरू किया, मां वहां बेचैन हो गई। उन्होंने सब यंत्र लगा| हैं, तो यह असंभव है कि अस्तित्व हमारे प्रति इतना उपेक्षा से भरा रखे थे, ताकि उसकी बेचैनी नापी जा सके कि वह कितनी परेशान | हो। अस्तित्व हमारे प्रति किसी गहरे लगाव में न हो, यह नहीं माना है। और जब उन्होंने बच्चों को मार डाला, तो उसकी परेशानी का जा सकता, क्योंकि हम अस्तित्व से पैदा हुए हैं। अगर हम अस्तित्व कोई अंत नहीं था, वह बेहोश हो गई परेशानी में। से ही पैदा हुए हैं और उसी में लीन हो जाएंगे, तो हम उसी का खेल यह प्रयोग कोई सौ बार किया। और हर बार अनुभव हुआ कि | | हैं। तो अस्तित्व प्रतिपल हमारे प्रति सजग है, और अस्तित्व वह खरगोश और उसकी मां के बीच समय और स्थान का कोई हृदयपूर्ण है। फासला नहीं है। उनके भीतर कुछ अंतरंग वार्ता चल रही है। निरंतर | वह जो मुसलमान अपनी मस्जिद के मीनार पर खड़े होकर कोई अंतरंग संबंध चल रहा है। कोई ध्वनि-तरंगें उन दोनों को जोड़े | | अजान दे रहा है, कबीर ने उसकी खूब मजाक की है। वह मजाक हुए हैं। एक अर्थ में सही और एक अर्थ में बिलकुल गलत है। कबीर ने तो मां और बेटे के बीच जैसा संबंध है, उससे भी गहन- कहा है कि क्या तेरा खुदा बहरा हो गया है, जो तू इतने जोर से उदाहरण के लिए कह रहा हूं मां और बेटे का अस्तित्व और चिल्ला रहा है! यह बात सच है। इतने जोर से चिल्लाने की कोई आपके बीच संबंध है। आप अस्तित्व के ही हिस्से हैं। अस्तित्व ही | जरूरत भी नहीं है। मौन में भी कहा जा सकता है, तो भी वह सुन आपमें फैल गया है और दूर तक। आप अस्तित्व हैं। लेगा। यह मतलब है कबीर का। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि अस्तित्व आपको। लेकिन यह जो जोर से चिल्ला रहा है, इसकी भी एक सचाई है। दुख नहीं देना चाहता। अस्तित्व आपको भयभीत भी नहीं करना । यह असल में यह कह रहा है कि मैं तो बहुत कमजोर हूं, मेरी चाहता। क्यों करना चाहेगा? मां बेटे को क्यों दुख देना चाहेगी? | आवाज तुझ तक पहुंचे न पहुंचे, तो अपनी पूरी ताकत लगाकर • अस्तित्व आपको परेशान नहीं करना चाहता। और अगर आप चिल्ला रहा हूं। और यह भरोसा है मेरा कि तू बहरा नहीं है, सुन परेशान हैं, तो वह आप अपने ही कारण होंगे। अगर भयभीत हैं, | ही लेगा। जोर से इसलिए नहीं चिल्ला रहा हूं कि तू बहरा है, जोर तो अपने ही कारण होंगे। अगर दुखी हैं, तो अपने ही कारण होंगे। से इसलिए चिल्ला रहा हूं कि मैं कमजोर हूं। अस्तित्व आपको दुखी नहीं करना चाहता। तो कबीर की बात एक अर्थ में ठीक है, खुदा बहरा नहीं है। जीवन तो आपको पूरे आनंद का मौका, सुविधा, अवसर, लेकिन दूसरी बात में गलत है। यह जो अजान देने वाला है, यह सामर्थ्य, सब देता है। आप ही कुछ गड़बड़ कर लेते हैं। आप ही कमजोर है। यह सिर्फ अपनी कमजोरी जाहिर कर रहा है। यह कह बीच में खड़े हो जाते हैं और अस्तित्व और अपने बीच बाधा बन | रहा है, मैं असहाय हैं। जाते हैं। बच्चा देखता है कि मां नहीं है पास, तो जोर से चिल्लाने लगता . यह जो कृष्ण का कहना है कि मैं वापस लौट आता हूं। यह | है, रोने लगता है। इसलिए नहीं कि मां बहरी है, बल्कि सिर्फ इसका सूचक है कि अस्तित्व से आप जो भी गहन भाव से प्रार्थना इसलिए कि बच्चा कमजोर है। उसकी आवाज का उसे खुद ही करेंगे, अस्तित्व से जो भी गहन भाव से आप कहेंगे, प्रेमपूर्वक भरोसा नहीं है। इसलिए जोर से चिल्ला रहा है। अस्तित्व से जो भी आप निवेदन करेंगे, अस्तित्व बहरा नहीं है, यह जो सूत्र है, कृष्ण कहते हैं, मैं वापस लौट आता हूं, यह इस Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 तरफ से बात की खबर है कि अस्तित्व वैसा ही हो जाएगा, जैसी आपकी | सीता-सावित्री, ऐसी कुछ। लोगों ने पूछा कि तुम बूढ़े हुए जा रहे गहरी-गहरी मौन प्रार्थना होगी। जैसा गहरा भाव होगा. अस्तित्व हो, तलाश कब पूरी होगी? क्या इतने दिन से खोजते-खोजते तुम्हें वैसा ही राजी हो जाएगा। कोई पूर्ण स्त्री नहीं मिली? उसने कहा, एक दफे मिली, लेकिन इसके बड़े इंप्लीकेशंस हैं, इसकी बड़ी रहस्यपूर्ण उपपत्तियां हैं। | मुसीबत, वह भी किसी पूर्ण पुरुष की तलाश कर रही थी! मिली, इसका मतलब यह हुआ कि आप जो भी कर रहे हैं, वह भी | बाकी मैं उसके योग्य नहीं था। अस्तित्व ने रूप ले लिया है आपकी वासनाओं के कारण। आपने | हमारी वासनाएं हैं विरोधी। हम जो मांग करते हैं, वे एक-दूसरे मांगी थी एक सुंदर स्त्री, वह आपको मिल गई। आपने मांगा था | को काट देती हैं। अस्तित्व हमारी सब मांगें पूरी कर देता है, यह एक मकान, वह घटित हो गया। आपने चाहा था एक सुंदर शरीर, | जानकर आप हैरान होंगे। लेकिन आपको पता ही नहीं, आप क्या स्वस्थ शरीर, वह हो गया। | मांगते हैं। कल जो मांगा था, आज इनकार कर देते हैं। आज जो आप कहेंगे, नहीं होता। मांगी थी सुंदर स्त्री, मिल गई कुरूप। | मांगते हैं, सांझ इनकार कर देते हैं। आपको पता ही नहीं कि आपने मांगा था सुंदर-स्वस्थ शरीर, मिल गई बीमारियों वाली देह। | इतनी मांगें अस्तित्व के सामने रख दी हैं कि अगर वह सब पूरी करे, लेकिन उसमें भी आप खयाल करें कि उसमें भी आपकी ही मांग | तो आप पागल होंगे ही, कोई और उपाय नहीं है। और उसने सब रही होगी। आपको जो भी मिल गया है, उसमें कहीं न कहीं आपकी | | पूरी कर दी हैं। मांग रही होगी। आपकी मांगें बड़ी कंट्राडिक्टरी हैं, विरोधाभासी हैं। जिन्होंने धर्म में गहन प्रवेश किया है, वे जानते हैं कि आदमी की इसलिए अस्तित्व भी बड़ी दिक्कत में होता है। क्योंकि आप एक जो भी मांगें हैं, वे सब पूरी हो जाती हैं। यही आदमी की मुसीबत है। दसरी तरफ से खद ही गलत कर लेते हैं। ये कष्ण राजी हो गए. यह इस बात की खबर है कि अस्तित्व अभी एक लड़की मेरे पास आई और उसने कहा कि मुझे पति राजी है, जरा सोच-समझकर उससे कुछ मांगना। बेहतर हो मत ऐसा चाहिए, शेर जैसा। सिंह हो। दबंग हो। लेकिन सदा मेरी माने!| | मांगना; उसी पर छोड़ देना कि जो तेरी मर्जी। तब आपकी जिंदगी अब मुश्किल हो गई। अब इनको एक ऐसा पति मिलेगा जो देखने | | में कष्ट नहीं होगा, क्योंकि तब उसकी मर्जी में कोई विरोध नहीं है। में शेर हो और भीतर से बिलकुल भेड़-बकरी हो। तब इसको | | समर्पण का यही अर्थ है कि तू जो ठीक समझे, वह करना। . तकलीफ होगी। इसकी मांगें विरोधी हैं। जो दबंग होगा, वह तुझसे हम में से जो बड़े से बड़े लोग हैं, वे भी इतनी हिम्मत नहीं कर क्यों दबेगा? वह सबसे पहले तुझी को दबाएगा। सबसे निकट तेरे | पाते। को ही पाएगा। जीसस सूली पर लटके हैं। आखिरी क्षण में जब फांसी लगने अब इस स्त्री की जो मांग है, विरोधाभासी है, कंट्राडिक्टरी है। लगी और हाथ-पैर में खीले ठोंक दिए गए, तो जीसस के मुंह से हालांकि उसे खयाल भी नहीं है। निकला, हे परमात्मा! यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? पुरुष ऐसी स्त्री चाहता है, जो बहुत सुंदर हो। ऐसी स्त्री जरूर शिकायत का स्वर था। क्या दिखा रहा है? इसका मतलब साफ चाहता है, जो बहुत सुंदर हो; लेकिन साथ में वह ऐसी स्त्री भी | | था कि यह मैंने सोचा नहीं था कि तू मुझे यह दिखाएगा! यह भी चाहता है, जो बिलकुल पक्की पतिव्रता हो। साथ में वह यह भी | | मैंने नहीं सोचा था कि मुझे और तू यह दिखाएगा! यह भी कभी चाहता है कि किसी आदमी की नजर मेरी स्त्री की तरफ बुरी न पड़े। सोचा नहीं था कि तेरे भक्त को, तेरे बेटे को, इकलौते बेटे को, अब वह सब उपद्रव की बातें चाह रहा है। बहुत सुंदर स्त्री होगी, और ऐसी तकलीफ झेलनी पड़ेगी! इसमें सब बात आ गई। इसमें दसरों की नजर भी पडेगी। और ध्यान रहे. बहत संदर स्त्री भी बहत | पूरी इच्छा का जाल आ गया। सुंदर पुरुष की तलाश कर रही है, आपकी तलाश नहीं कर रही है। | | लेकिन जीसस बहुत सजग आदमी थे, तत्क्षण उन्हें समझ भी तो पतिव्रता होना जरा मुश्किल है। | आ गई कि भूल हो गई। इस वाक्य को बोलते ही, कि यह तू मुझे मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बहुत देर तक अविवाहित रहा। क्या दिखा रहा है, समझ आ गई कि भूल हो गई। दूसरा वाक्य लोग उससे पूछते कि मुल्ला विवाह क्यों नहीं कर लेते? वह कहता उन्होंने कहा, नहीं-नहीं। तेरी मर्जी पूरी हो। तू जो कर रहा, है, वही कि मैं एक पूर्ण स्त्री की तलाश कर रहा हूं, सर्वांग सुंदर, सती, ठीक है। | 4221 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मांग और प्रार्थना इस क्षण में ही जीसस क्राइस्ट हो गए। इस एक वाक्य के फासले चलना होगा। महात्मा आपके धीरज और सांत्वना के लिए बहुत बार में दूसरे आदमी हो गए। एक क्षण पहले जब जीसस ने कहा, यह आपकी मर्जी के अनुकूल भी चलता है। वह दया से भरा है। तू मुझे क्या दिखा रहा है। यह मनुष्य की आवाज है, जिसमें मनुष्य मैं पढ़ रहा था, एक यहूदी विचारक है, अब्राहिम हैसिल। उसने की वासनाएं ईश्वर के अनुकूल-प्रतिकूल खड़ी हैं। जिसमें मनुष्य एक बहुत पुरानी यहूदी किताब से उल्लेख किया है। बड़ा मीठा कह रहा है कि आखिरी मेरी इच्छा पूरी होनी चाहिए। तू भी मेरी वचन है। हिब्रू में है। उसका अंग्रेजी अनुवाद उसने किया है। वह इच्छा पूरी कर, तो ही मैं प्रसन्न रहूंगा। मेरी प्रसन्नता में शर्त है, जो बड़ा अजीब मालूम पड़ता है। वाक्य यह है, गॉड इज़ नाट योर मैं चाहता हूं, वह हो। और आदमी को पता नहीं कि वह जो चाहता | | अंकल; ही इज़ नाट नाइस, ही इज़ नाट गुड; गॉड इज़ एन है, वह अगर पूरा हो जाए, तो वह कभी प्रसन्न नहीं होता। मगर अर्थक्वेक। ईश्वर आपके चाचा नहीं हैं; न भले हैं, न दयावान हैं; सोचता है। ईश्वर एक भूकंप है। एक क्षण में जीसस ने कहा कि दाइ विल बी डन-तेरी मर्जी ईश्वर तो भूकंप है। इसलिए जो मरने को तैयार हैं, वही उसमें पूरी हो। मैं छोड़ता हूं। भूल हो गई। क्षमा कर दे। आदमी विलीन | प्रवेश कर पाते हैं। लेकिन अगर हमारी मांग सीमा की है, तो हो गया। ईश्वर, भगवत्पुरुष प्रकट हो गया। इसी क्षण जीसस, महात्मा प्रकट होते हैं। महात्मा ईश्वर का वह रूप है. जो हमारे मरियम का बेटा, ईश्वर का बेटा क्राइस्ट हो गया। | अनुकूल है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। महात्मा परमात्मा का वह फर्क हो गया। ये दो व्यक्तित्व हैं अलग-अलग। जीसस मर | | रूप है, जो हमारे अनुकूल है। गया, सूली के पहले। सूली जीसस को नहीं लगी। वह तो जीसस इसलिए कृष्ण को हमने पूर्ण अवतार कहा, क्योंकि बहुत जगह इसी वक्त बंद हो गया, जब उसने कहा कि तेरी मर्जी। सूली क्राइस्ट वह हमारे अनुकूल नहीं हैं। राम को हमने आंशिक अवतार कहा, को लगी। इसलिए फिर सूली सूली नहीं थी। फिर सूली भी आनंद क्योंकि वे बिलकुल हमारे अनुकूल हैं। राम में भूल-चूक खोजनी था। फिर कोई फर्क न रहा। फिर सूली भी उससे मिलन का द्वार है। मुश्किल है। कृष्ण में भूल-चूक काफी हैं। भूल-चूक इसलिए नहीं फिर वह चाहता है सूली, तो यही सेज है उसकी। फिर इसमें कोई कि उनमें भूल-चूक हैं। भूल-चूक इसलिए हैं कि हमारे साथ फर्क नहीं है। | तालमेल नहीं खाता। ___ कृष्ण ने कहा कि मैं पूरा किए देता हूं। तू जैसा चाहता है, वैसा राम और सीता का संबंध समझ में आता है। कृष्ण और उनकी मैं वापस हुआ जाता हूं। | गोपियों का संबंध सज्जन से सज्जन आदमी को जरा चिंता में डाल ___ वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे | | देता है कि यह जरा ठीक नहीं है। जरा ऐसा लगता है कि यह बात ही अपने चतुर्भुज रूप को दिखाया। और फिर महात्मा कृष्ण ने | न ही उठाओ। कृष्ण में कुछ है, जो हमें डराता भी है। सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत हुए अर्जुन को धीरज दिया। इसलिए हम उनको पूर्ण अवतार कहे हैं, क्योंकि हम उनसे पूरे जैसा मैं अभी कह रहा था कि जीसस और क्राइस्ट का फर्क, राजी नहीं हो पाते। वे पूर्ण हैं। हम इतने अधूरे हैं कि हम उनके ऐसा संजय और व्यास ने बड़ा फर्क कर दिया। आधे हिस्से से ही राजी हो सकते हैं। राम को हमने अधूरा अवतार कहा, वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति दयावान होकर अपने | | कहा है, क्योंकि हम उनसे पूरे राजी हो जाते हैं। हम पूरे राजी हो चतुर्भुज रूप को ग्रहण किया और फिर महात्मा कृष्ण ने...। | जाते हैं, वे हमारे इतने अनुकूल हैं कि पूरे नहीं हो सकते, बात फिर भगवान कृष्ण नहीं कहा संजय ने। क्योंकि जैसे ही वे सीमा | जाहिर है। हमसे इतना उनका मेल है कि वे अधूरे ही होंगे। वे में आ गए, वे जैसे ही रूप में बंध गए, जैसे ही उनकी चारों भुजाएं आंशिक अवतार होंगे। प्रकट हो गईं, और जैसे ही अर्जुन के मनोनुकूल वे खड़े हो गए, | इसलिए व्यास कहते हैं, महात्मा कृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर इस भगवान शब्द छोड़ दिया। तत्क्षण कहा, महात्मा कृष्ण ने सौम्यमूर्ति | भयभीत अर्जुन को धीरज दिया। होकर इस भयभीत हुए अर्जुन को धीरज दिया। हे जनार्दन, आपके इस अतिशांत मनुष्य रूप को देखकर अब __महात्मा और परमात्मा में इतना ही फर्क है। परमात्मा आपकी मर्जी | मैं शांत-चित्त हुआ अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूं। के अनुकूल नहीं चल सकता। आपको उसकी मर्जी के अनुकूल । अर्जुन ने कहा कि यह देखकर आपका सीमा में वापस लौट 423 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-5 ॐ आना, मैं अपने स्वभाव को उपलब्ध हो गया हूं। स्वभाव जागतिक है; वह मनुष्य का नहीं है। यह स्वभाव क्या है अर्जुन का? अर्जुन कह रहा है, मैं अपने स्वभाव में आ गया। मनुष्य का स्वभाव सशर्त है। वह कहता है, ऐसे होओ, ऐसे | परमात्मा के साथ साधक और भक्त का यही फर्क है, यह होओगे तो ही। खयाल आखिरी ले लें। सुना है मैंने कि तुलसीदास एक बार...। पता नहीं कहां तक साधक कहता है, तुम जैसे हो, वैसा ही मैं तुम्हें देखने आऊंगा; सच है। लेकिन कहानी है कि तुलसीदास एक बार कृष्ण के मंदिर | अपने को बदलूंगा। यह संकल्प का रास्ता है। वह कहता है, मैं अपने में गए वृंदावन। तो वे तो थे राम के भक्त। और वे तो धनुर्धारी राम को बदलंगा। अगर तुम ऐसे हो, तो मैं अपने को बदलंगा। अपनी को ही सिर झुकाते थे। वहां देखा कि कृष्ण बांसुरी लिए खड़े हैं। | नई आंख पैदा करूंगा। और तुम जैसे हो, वैसा ही तुम्हें देखूगा। तो कहा गया है कि तुलसीदास ने कहा कि ऐसे नहीं, जब तक | | कृष्णमूर्ति का सारा जोर यही है कि उस पर कोई धारणा लेकर धनुष-बाण हाथ न लोगे, तब तक मैं न झुनूंगा। | मत जाना। अपनी सब धारणा छोड़ देना। सत्य जैसा है, उसे तुम यह एक अर्थ में बड़ी अजीब-सी बात है। इसका मतलब हुआ | वैसे ही देखने को राजी होना। उसके लिए खुद को जितना तपाना कि आदमी भगवान पर भी शर्ते लगाता है कि ऐसे हो जाओ, तो | पड़े, गलाना पड़े, मिटाना पड़े, खुद की मूर्छा जितनी तोड़नी पड़े, ही! मेरे अनुकूल हो जाओ, तो ही! इसका तो मतलब यह हुआ कि | तोड़ना। लेकिन खुद को निखारना, उस पर कोई आग्रह मत करना भक्त भगवान को भी बांधता है। सोचता है, भगवान मुझे मुक्त | कि तू ऐसा हो जा। करें, लेकिन चेष्टा यह करता है कि मैं भी भगवान को बांध लूं। | साधक संकल्प से अपने को बदलता है। और एक दिन, जिस लेकिन इसका एक और अर्थ भी है। और वह यह कि मैं हूं | दिन शून्य हो जाता है, शांत, शुद्ध, उस दिन सत्य को देख लेता है। मनुष्य। मेरी प्रीति-अप्रीति है। मेरे लगाव-अलगाव हैं। मैं तुम्हें | । भक्त! भक्त कहता है कि मैं जैसा हूं, हूं। मैं अपने को बदलने उसी रूप में देखना चाहता है, जो मेरे अनकल हो। और इसलिए वाला नहीं, तम्हीं मझे बदलना। और जब तक मैं ऐसा हं. तब तक देखना चाहता हूं उस रूप में, ताकि मैं जैसा हूं, वैसा का वैसा | | मेरी शर्त है कि तुम ऐसे प्रकट होना। भक्त यह कहता है कि मेरा तुम्हारे चरणों में झुक सकू। मेरा जैसा स्वभाव है, उसका ध्यान | | आग्रह है कि जब तक मैं नहीं बदला हूं, और मैं अपने को क्या रखो। वह यह नहीं कह रहे हैं कि तुम्हारा बांसुरी लिए हुए रूप जो बदल सकूँगा, तुम्हीं बदल सकोगे। और तुम भी मुझे तभी बदल है, वह भगवान का नहीं है। होगा। मेरे लिए नहीं है। मेरी पात्रता सकोगे, जब मेरा तुमसे नाता, तालमेल बन जाए। अभी मैं जैसा नहीं है उस रूप को स्वीकार करने की। तुम तो धनुष-बाण लेकर | हूं, इससे ही संबंध बनाओ। तो तुम इस शक्ल में आ जाओ, इस राम हो जाओ, तो मैं तुम्हारे चरणों में झुक जाऊं। रूप में खड़े हो जाओ। मैं तुम्हें कृष्ण की तरह, राम की तरह, कथा बडी मीठी है। और कथा यह है कि मर्ति बदल गई. और क्राइस्ट की तरह चाहता हं. ताकि मेरा संबंध बन जाए। संबंध बन कृष्ण की मूर्ति की जगह राम धनुष-बाण लिए प्रकट हुए, तो | | जाए, तो फिर तुम मुझे बदल लेना। तुलसीदास झुके। ___ यह बड़ी मजेदार बात है। भक्त यह कह रहा है कि मैं अपने को अर्जुन कह रहा है, अब मैं अपने स्वभाव में आ गया, तुम्हें | | क्या बदलूंगा? कैसे बदलूंगा? मुझे कुछ भी तो पता नहीं है। और वापस वही देखकर, जो तुम थे। | मेरी सामर्थ्य, शक्ति कितनी है? कि कैसे अपने को शुद्ध करूंगा? __ अर्जुन अपने स्वभाव के बाहर चला गया था? एक अर्थ में चला | | मैं तो अशुद्ध, जैसा भी हूं, यह हूं। तुम ऐसे ही मुझे स्वीकार कर गया था। और एक अर्थ में अपने गहरे स्वभाव में चला गया था। | लो। लेकिन इस अशुद्ध आदमी की धारणा है। तो तुम इस शक्ल इस अर्थ में बाहर चला गया था कि मनुष्य की बुद्धि के जो परे है, | में आ जाओ, ताकि मेरा संबंध जुड़ जाए। एक दफा संबंध जुड़ जाए वह उसके दर्शन में आ गया और वह भयभीत हो गया। उसकी सारी | और मैं तुम्हारी नाव में सवार हो जाऊं, फिर तुम जहां मुझे ले जाओ, की सारी मनुष्यता डांवाडोल हो गई। मनुष्य की पकड़ में न आ ले जाना। लेकिन अभी मेरी मर्जी की नाव बनकर आ जाओ। सके, ऐसा उसे दिख गया। और एक अर्थ में वह अपने गहरे । दोनों ही तरह घटना घटती है। जो अपनी सब धारणाओं को स्वभाव में चला गया था। लेकिन वह स्वभाव कास्मिक है, वह गिरा देता है, उसके लिए कोई नाव की जरूरत नहीं रह जाती। उसे 424 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मांग और प्रार्थना उस पार जाने की भी जरूरत नहीं रह जाती, वह इसी पार मुक्त हो आज इतना ही। जाता है। रुकें पांच मिनट, कोई उठेन। कीर्तन में सम्मिलित हों। और बैठे लेकिन दुरूह है मार्ग। एक-एक इंच अपने को बदलना है। . ही न रहें। दर्शक न रहें। सम्मिलित हो जाएं। भागीदार हो जाएं। जिसको बदलना है, उसके ही द्वारा बदलाहट लानी है, इसलिए | ताली तो पीट ही सकते हैं। कड़ी तो दोहरा ही सकते हैं। बड़ा कठिन है। जैसे बीमार अपना ही इलाज कर रहा है। डाक्टर भी बीमार हो जाए, तो दूसरे डाक्टर के पास जाता है, क्योंकि खुद का इलाज करने में घबड़ाहट लगती है। दूसरे के इलाज में तो एक दूरी होती है, तटस्थता होती है, निरीक्षण, डायग्नोसिस आसान होती है। खुद का ही इलाज करना हो, तो बड़ा मुश्किल हो जाता है। कोई बड़े से बड़ा सर्जन भी खुद का आपरेशन न करेगा।। हाथ कंप जाएंगे। खुद का तो दूर है, बड़ा सर्जन अपनी पत्नी का भी आपरेशन करने को राजी नहीं होता। अगर पत्नी से झगड़ा हो, तो बात दूसरी है। थोड़ा लगाव हो, तो राजी नहीं होगा। अगर मार ही डालना चाहता हो, तो बात अलग है। नहीं तो डरेगा, क्योंकि हाथ कंपने लगेगा। राग बीच में आ जाता है। और अपने को ही बदलना है, तो अपने से तो बहुत राग है। इसलिए भक्त कहता है, यह अपने बस की बात नहीं कि हम अपने को बदल लें। हम तो जैसे हैं, वैसे हैं। हम अपने को छोड़ सकते हैं तेरे चरणों में, बुरे-भले, चोर-बेईमान, जैसे भी हैं, छोड़ सकते हैं। तू ही बदल लेना। यह भी संभव होता है। और इन दो में साफ होना जरूरी है, नहीं तो आदमी दोनों में डोलता रहता है। दोनों के बीच कोई मार्ग नहीं है। या तो स्पष्ट समझ लेना कि मुझे खुद ही बदलना है, तब फिर किसी परमात्मा को, किसी गुरु को, किसी को बीच में लाने की | जरूरत नहीं है। फिर कितनी ही हो लंबी यात्रा और कितने ही अनंत युग लगें, लड़ते रहना। वह भी बुरा नहीं है। वह भी मनुष्य की गरिमा के अनुकूल है। लेकिन अगर लगता हो कि यह हमसे न हो सकेगा, यह लड़ाई लंबी है, और हम चुक जाएंगे, टूट जाएंगे, तो फिर व्यर्थ लड़ना मत। फिर समर्पण कर देना। सीधा इसी क्षण छोड़ देना। यह भी मनुष्य की गरिमा के अनुकूल है। क्योंकि वही समर्पण भी कर पाता है, जो कम से कम इतना तो अपना मालिक है कि छोड़ सके। आप वही छोड़ सकते हैं, जिसके आप मालिक हैं। ये दो हैं रास्ते, समझौता कोई भी नहीं है। इनमें से जो ठीक-ठीक चुन लेता है अपने अनुकूल रास्ता, वह पहुंच जाता है; व्यर्थ भटकाव से बच जाता है। Page #456 --------------------------------------------------------------------------  Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 11 बारहवां प्रवचन आंतरिक सौंदर्य Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 श्रीभगवानुवाच और बात नहीं कि कोई भगवान को खोजे। क्योंकि खोजा केवल सुदुर्दशीमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम । उसी को जा सकता है, जिसे हमने खो दिया हो। जिसे हमने खोया देवा अप्यस्य लपस्य नित्यं दर्शनकाक्षिणः।। ५२ ।। ही नहीं है, उसे खोजने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब यह पता नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न वेज्यया। चल जाए कि मैं भगवान हूं, तभी खोज असंगत है, उसके पहले शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ।। ५३ ।। असंगत नहीं है। उसके पहले तो खोज करनी ही पड़ेगी। भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । खोज से भगवान न मिलेगा, खोज से सिर्फ यही पता चल ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ।। ५४ ।। | जाएगा कि जिसे मैं खोज रहा हूं वह कहीं भी नहीं है, बल्कि जो मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः।। | खोज रहा है वहीं है। खोज की व्यर्थता भगवान पर ले आती है, निवरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।। ५५।।। खोज की सार्थकता नहीं। इस प्रकार अर्जुन के वचन को सुनकर श्रीकृष्ण भगवान इसे थोड़ा समझना कठिन होगा, लेकिन समझने की कोशिश बोले, हे अर्जुन, मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ करें। है कि जिसको तुमने देखा है, क्योंकि देवता भी सदा इस यहां खोजने वाला ही वह है जिसकी खोज चल रही है। जिसे रूप के दर्शन करने की इच्छा वाले हैं। आप खोज रहे हैं वह भीतर छिपा है। इसलिए जब तक आप खोज और हे अर्जुन, न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ करते रहेंगे, तब तक उसे न पा सकेंगे। लेकिन कोई सोचे कि बिना से इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला में देखा जाने को शक्य हूं खोज किए, ऐसे जैसे हैं ऐसे ही रह जाएं, तो उसे पा लेंगे, वह भी कि जैसे मेरे को तुमने देखा है। | न पा सकेगा। क्योंकि अगर बिना खोज किए आप पा सकते होते, परंतु हे श्रेष्ठ तप वाले अर्जुन, अनन्य भक्ति करके तो इस - तो आपने पा ही लिया होता। बिना खोज किए मिलता नहीं, खोजने प्रकार चतुर्भुज रूप वाला में प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्व | से भी नहीं मिलता। जब सारी खोज समाप्त हो जाती है और खोजने से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात | वाला चुक जाता है, कुछ खोजने को नहीं बचता, उस क्षण यह एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूं। घटना घटती है। हे अर्जुन, जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सब कुछ मेरा कबीर ने कहा है, खोजत-खोजत हे सखी रह्या कबीर हिराइ। समझता हुआ संपूर्ण कर्तव्य-कमों को करने वाला है और खोजते-खोजते वह तो नहीं मिला, लेकिन खोजने वाला धीरे-धीरे मेरे परायण है अर्थात मेरे को परम आश्रय और परम गति खो गया। और जब खोजने वाला खो गया, तो पता चला कि जिसे मानकर मेरी प्राप्ति के लिए तत्पर है तथा मेरा भक्त है और | हम खोजते थे वही भीतर में आसक्तिरहित है अर्थात स्त्री, पुत्र और धनादि संपूर्ण हम जब परमात्मा को भी खोजते हैं, तो ऐसे ही जैसे हम दूसरी सांसारिक पदार्थों में स्नेहरहित है और संपूर्ण भूत-प्राणियों में | | चीजों को खोजते हैं। कोई धन को खोजता है, कोई यश को खोजता वैर-भाव से रहित है, ऐसा वह अनन्य भक्ति वाला पुरुष है, कोई पद को खोजता है। आंखें बाहर खोजती हैं-धन को, पद मेरे को ही प्राप्त होता है को, यश को, ठीक। हम भगवान को भी बाहर खोजना शुरू कर देते हैं। हमारी खोज की आदत बाहर खोजने की है। उसे भी हम बाहर खोजते हैं। बस वहीं भूल हो जाती है। वह भीतर है। वह एक मित्र ने पूछा है कि सृष्टि और स्रष्टा यदि एक हैं खोजने वाले की अंतरात्मा है।। और अगर हम स्वयं भगवान ही हैं, तो फिर भगवान | लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं आपसे कह रहा हूं कि खोजें को पाने या खोजने की बात ही असंगत है। मत। आप खोज ही कहां रहे हैं जो आपसे कहूं कि खोजें मत। जो खोज रहा हो, खोजकर थक गया हो, उससे कहा जा सकता है, रुक जाओ। जो खोजने ही न निकला हो, जो थका ही न हो, जिसने खोज श्चित ही असंगत है। इससे ज्यादा बड़ी भूल की कोई की कोई चेष्टा ही न की हो, उससे यह कहना कि चेष्टा छोड़ दो, 1428 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक सौंदर्य नासमझी है। चेष्टा छोड़ने के लिए भी चेष्टा तो होनी ही चाहिए। | जो खोज ही नहीं रहे हैं। उनसे तो मैं कहूंगा, खोजो। जहां भी तुम्हारी एक मजे की बात इससे मुझे स्मरण आती है। एक मित्र ने पूछी सामर्थ्य हो, वहां खोजो। मूर्ति में, शास्त्र में, तीर्थ में, जहां तुम खोज भी है, उपयोगी होगी। कृष्ण भी कहते हैं कि वेद में मैं नहीं मिलूंगा, . सको, खोजो। तुम्हारे मन को थोड़ा थकने दो। खोज व्यर्थ होने दो। शास्त्र में नहीं मिलूंगा, यज्ञ में नहीं मिलूंगा, योग में, तप में नहीं तभी तुम भीतर मुड़ सकोगे। जिंदगी में छलांग नहीं होती, जिंदगी में मिलूंगा। लेकिन आपको पता है यह किन लोगों से कहा है उन्होंने? | एक क्रमिक गति होती है। जो वेद में खोज रहे थे, यज्ञ में खोज रहे थे, तप में खोज रहे थे, | __ आप भी सुन लेते हैं कि शास्त्र में नहीं है, तो फिर क्या फायदा? योग में खोज रहे थे, उनसे कहा है। आपसे नहीं कहा है। आप तो खोज ही नहीं रहे हैं। बुद्ध ने कहा है, शास्त्रों को छोड़ दो, तो ही सत्य मिलेगा। | एक मित्र ने पूछा है कि जब कृष्ण खुद ही कहते हैं लेकिन यह उनसे कहा है जिनके पास शास्त्र थे। कृष्णमूर्ति भी लोगों | कि शास्त्र में नहीं है, तो फिर यह गीता समझाने से से कह रहे हैं, शास्त्रों को छोड़ दो, सत्य मिलेगा। लेकिन वे उनसे क्या होगा? रामायण पढ़ने से क्या होगा? जब खुद कह रहे हैं जो शास्त्र को पकड़े ही नहीं हैं। आप छोड़िएगा खाक? | कृष्ण ही कहते हैं कि वेद में कुछ नहीं है, तो गीता जिसको पकड़ा ही नहीं उसको छोड़िएगा कैसे? में कैसे कुछ हो सकता है? कृष्णमूर्ति को सुनने वाले लोग सोचते हैं कि तब तो ठीक। सत्य तो हमें मिला ही हुआ है, क्योंकि हमने शास्त्र को कभी पकड़ा ही नहीं। जिसने पकड़ा नहीं है वह छोड़ेगा कैसे? और सत्य मिलेगा + क कहते हैं वे। वे मित्र ठीक पूछ रहे हैं कि अगर छोड़ने से। पकड़ना उसका अनिवार्य हिस्सा है। UI कृष्ण की ही बात हम मान लें, तो फिर गीता में भी आपके पास जो है वही आप छोड़ सकते हैं। जो आपके पास क्या रखा है? लेकिन इतनी बात भी आपको पता चल नहीं है उसे कैसे छोड़िएगा? आपकी खोज होनी चाहिए। और जब | | जाए कि वेद में नहीं है, इतना भी गीता से पता चल जाए, तो बहुत आप खोज से थक जाएंगे; ऊब जाएंगे; परेशान हो जाएंगे; जब न | | पता चल गया। अगर शास्त्र पढ़ने से इतना भी पता चल जाए कि खोजने को कोई रास्ता बचेगा, न खोजने की हिम्मत बचेगी; जब | शास्त्र बेकार हैं, तो काफी पता चल गया। यह भी आपको अपने सब तरफ फ्रस्ट्रेटेड, सब तरफ उदास टूटे हुए आप गिर पड़ेंगे, उस | से कहां पता चलता है! गिर पड़ने में उसका मिलना होगा। क्योंकि जब बाहर खोजने को । मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, कृष्णमूर्ति कहते हैं कि किसी कुछ भी नहीं बचता, तभी आंखें भीतर की तरफ मुड़ती हैं। और | की मत मानो, अपना खोजो। मैं उन लोगों से पूछता हूं कि तुम जब बाहर चेतना को जाने के लिए कोई मार्ग नहीं रह जाता, तभी कृष्णमूर्ति की मानकर चले आए हो। और कृष्णमूर्ति ने समझाया है चेतना अंतर्गामी होती है। कि किसी की मत मानो। और तुम मुझे कह रहे हो, कृष्णमूर्ति कहते एक गरीब आदमी से हम कहें कि तू धन का त्याग कर दे, एक हैं कि किसी की मत मानो, हम अब किसी की न मानेंगे। पर तुमने भिखमंगे से हम कहें कि तू बादशाहत को लात मार दे। भिखमंगे | किसी की मान ली। कृष्णमूर्ति कहते हैं, गुरु से कुछ न मिलेगा। तुम सदा तैयार हैं बादशाहत को लात मारने को। लेकिन बादशाहत कृष्णमूर्ति के पास किसलिए गए थे? और अगर इतना भी तुम्हें कहां है जिसको वे लात मार दें? धन कहां है जिसे वे छोड़ दें? और | मिल गया, तो कृष्णमूर्ति इतने के लिए कम से कम तुम्हारे गुरु हो जिसके पास धन नहीं है, वह धन को कैसे छोड़ेगा? और जिसके | गए। और फिर अब तुम बार-बार क्यों जा रहे हो, जब कृष्णमूर्ति पास बादशाहत नहीं है, वह बादशाहत कैसे छोड़ेगा? हम वही कहते हैं, गुरु से कुछ न मिलेगा। छोड़ सकते हैं जो हमारे पास है। तो वर्ष दर वर्ष कृष्णमूर्ति को सुनने वालों को देखें। चालीस साल तो ध्यान रखें, जब मैं आपसे कहता हूं कि परमात्मा को खोजने से वे ही शक्लें बार-बार वहां बैठी हुई दिखाई पड़ेंगी। ये क्या सुन की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि वह खोजने वाले में छिपा है, रहे हैं अगर गुरु से कुछ भी न मिलेगा! तो कृष्णमूर्ति से कैसे मिलेगा! तो मैं यह उनसे कह रहा हूं जो खोज रहे हैं, उनसे नहीं कह रहा हूं लेकिन अगर इतना भी मिल गया, तो भी कुछ कम नहीं है। 429 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 गीता दर्शन भाग-503 ..ध्यान रहे, जीवन बहुत विरोधाभासी है। गुरुओं ने सदा ही कहा | तब एक बूढ़े आदमी ने कहा, लेकिन तू उतरा हुआ था अमृतसर है कि गुरुओं से नहीं मिलेगा। लेकिन यह खबर भी उनसे ही मिली पर। अब तू उतर रहा है हरिद्वार पर। और इन दोनों में फर्क है। है। शास्त्रों ने सदा कहा है कि शास्त्र में क्या रखा है! लेकिन यह एक आदमी है, जिसने शास्त्र छुए ही नहीं। वह भी बड़ा प्रसन्न पता भी शास्त्र से ही चला है। चेष्टा करने से ही पता चलेगा कि | हो जाता है सुनकर कि शास्त्रों से कुछ भी नहीं मिलेगा। उसकी चेष्टा से नहीं मिलता है। और जब यह पता चलेगा, तो यह अनुभव | प्रसन्नता यह नहीं है कि वह समझ गया, उसकी प्रसन्नता यह है कि और है। अच्छा, तो जो शास्त्र पढ़-पढ़कर ज्ञानी बने जा रहे थे, वे भी कोई __दो तरह के लोग हैं। मैंने सुना है, एक बार ऐसा हुआ कि एक ज्ञानी नहीं हैं। मैं पहले से ही उतरा हुआ हूं! अगर तुमको उतरना ही तीर्थ की यात्रा पर जाने वाले लोगों की भीड़ थी एक स्टेशन पर। | है, तो हम पहले से ही उतरे हुए हैं। अगर एक बार फिर ज्ञान को सारे लोग जा रहे थे हरिद्वार। शायद अमृतसर का स्टेशन था। और छोड़कर अज्ञानी बनना पड़ेगा, तो हम तो अज्ञानी पहले से ही हैं! एक आदमी कहने लगा कि मैं ट्रेन में तभी चढूंगा जब मुझे फिर तो तुमने कमाई ही क्या की! तुमने व्यर्थ समय गंवाया। और नाहक उतरना न पड़े। और अगर उतरना ही है, तो चढ़ने का फायदा क्या। अकड़ रहे थे कि शास्त्र पढ़ लिया। वेद के ज्ञाता हो गए! वह आदमी ठीक तर्क की बात कह रहा था। वह कह रहा था, लेकिन उसको पता नहीं है कि एक अज्ञान ज्ञान के पहले का है। अगर इस ट्रेन में से उतरना ही है-बहुत भीड़-भड़क्का था और | और एक अज्ञान वह है जो ज्ञान के बाद आता है। ज्ञान के बाद के घुसना भी बहुत मुश्किल था—उस आदमी ने कहा कि अगर इसमें | अज्ञान से ज्ञान के पहले के अज्ञान का कोई भी संबंध नहीं है। कहां से उतरना ही है, तो इतनी दिक्कत चढ़ने की क्या करनी! हम तो अमृतसर! कहां हरिद्वार! उनमें बड़ी यात्रा का फर्क है। उतरे ही हुए हैं। और अगर इतनी मुसीबत करके जान जोखिम में । ज्ञान के पहले जो अज्ञान है, वह सिर्फ अज्ञान है। ज्ञान के बाद, डालकर भीतर घुसना है, तो फिर एक बात पक्की कर ली जाए कि | | जब ज्ञान को भी कोई छोड़ देता है, तब जो अज्ञान घटित होता है, इसमें से उतरना तो नहीं पड़ेगा! वह चित्त की निर्दोषता है, निर्भारता है। वह अज्ञान नहीं है, वही उसके मित्रों ने कहा कि बातचीत में समय मत गंवाओ। सीटी | ज्ञान है। बजी जा रही है, ट्रेन जा रही है। उन्होंने जबरदस्ती खींचकर...।। इसलिए सुकरात ने कहा है कि जब कोई जान लेता है, तो वह वह आदमी चिल्लाता ही रहा। वह ज्ञानी था! वह आदमी चिल्लाता कह देता है कि अब मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। इसलिए उपनिषदों ही रहा कि पहले यह तो पक्का पता चल जाए कि इससे उतरना तो | | ने कहा है कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी नहीं पड़ेगा? इतनी मुश्किल से चढ़ रहे हैं। हाथ-पैर टूटे जा रहे हैं। महाअंधकार में भटक जाते हैं! तो फिर बचेगा कौन? ये उपनिषद हड्डियां खराब हुई जा रही हैं। तुम मुझे खींचे जा रहे हो। यह तो कहते हैं, अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी और बताओ कि इससे उतरना तो नहीं पड़ेगा? उन्होंने कहा, यह पीछे | | महाअंधकार में भटक जाते हैं। तो फिर बचेगा कौन? समझ लेंगे। तुम पहले अंदर! उसको किसी तरह खिड़की से अंदर | वह बचेगा, जो ज्ञान के बाद आने वाले अज्ञान को उपलब्ध होता कर लिया। | है। जो नहीं खोजते, वे तो परमात्मा को पाते ही नहीं। जो खोजते खैर, वह आदमी किसी तरह अंदर हो गया। फिर हरिद्वार पर | हैं, वे और दूर निकल जाते हैं। लेकिन खोज के बाद भी खोज के उतरने की नौबत आ गई। वह आदमी फिर कहने लगा कि मैंने | | छोड़ देने की एक घटना है, वे उसे पा लेते हैं। पहले ही कहा था, अगर उतरना ही है, तो चढ़ने से क्या मतलब | | ये तीन बातें हैं। आप, जो कि खोज ही नहीं रहा है। साधु, था। हम तो उतरे ही हुए थे। उसके मित्रों ने कहा, उतरो भी। अब । | संन्यासी, पंडित, खोज रहा है-कोई तप में, कोई शास्त्र में, कोई यह गाड़ी यहां से जाएगी। फिर उसे खींचने लगे। वह आदमी कहने | कहीं और। और एक तीसरा ज्ञानी, परमहंस, जो खोज भी छोड़ लगा, तुम हो किस तरह के लोग! कभी चढ़ने के लिए खींचते हो, दिया, शास्त्र भी छोड़ दिया। जो अब बैठ गया, जैसा है वैसा ही कभी उतरने के लिए खींचते हो! और तुम्हीं! और तुमको इतनी भी हो गया। अब कहीं भी नहीं खोजने जाता। बुद्धि नहीं आती कि तुम दोनों काम कर रहे हो उलटे! मैं तो पहले । यह जो न जाने वाली चेतना है, यह भीतर प्रवेश कर जाती है। ही उतरा हुआ था। | यह न जाने वाली चेतना स्वयं में प्रज्वलित हो जाती है। यह कहीं 430 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ आंतरिक सौंदर्य ६ न जाने वाली चेतना नया आयाम पकड़ लेती है। आपने सुनी हैं दस दिशाएं। जो जानते हैं, वे कहते हैं, ग्यारह दिशाएं हैं। दस दिशाएं बाहर हैं और एक दिशा भीतर है। जब दसों दिशाएं बेकार हो जाती हैं, तब चेतना भीतर की तरफ मुड़ती है। जब और कहीं नहीं मिलता वह, तभी आदमी अपने में खोजता है- आखिरी समय में, अंतिम क्षण में । तो अगर आपको पता चल गया कि आप भगवान हैं, तब तो बात ही खतम हो गई। खोज व्यर्थ है। अगर मेरे कहने से मान लिया, तो अभी खोज करनी पड़ेगी। मेरे कहने से मान ली गई बात आपका अनुभव नहीं है। मेरे कहने से खोज शुरू होगी, अनुभव नहीं हो जाएगा। और ट्रेन में अभी चढ़ना होगा। और अगर आपकी यह जिद हो कि अगर उतरना ही है बाद में तो हम चढ़ेंगे नहीं, तो आपकी मर्जी। लेकिन फिर आप समझ लेना कि अमृतसर पर ही खड़े हैं। फिर हरिद्वार की तरफ गति नहीं हो रही । चढ़ें भी, उतरें भी। सीढ़ियों पर चढ़ना भी पड़ता है, उतरना भी पड़ता है। जो स्त्रीढ़ियों पर नहीं चढ़ता, वह नीचे की मंजिल पर रह जाता है। जो फिर जिद करता है कि मैं सीढ़ियों से उतरूंगा नहीं, वह सीढ़ियों पर रह जाता है। वह भी ऊपर की मंजिल पर नहीं पहुंचता। ऊपर की मंजिल पर वह पहुंचता है, जो सीढ़ियों पर चढ़ता है, फिर सीढ़ियों को पकड़ नहीं लेता, सीढ़ियों को छोड़ भी देता है। बुद्ध ने कहा है, कुछ नासमझ मैंने देखे हैं एक गांव में। वे नदी पार किए थे नाव में बैठकर। और फिर उन्होंने सोचा कि जिस नाव ने हमें नदी पार करवा दी उसको हम कैसे छोड़ सकते हैं! तो कुछ दिन तो वे नाव पर रहे। लेकिन नाव पर कब तक रहते ? भोजन की तकलीफ हो गई, मुसीबत हो गई। तो फिर उन्होंने सोचा, उचित यह है कि हम उतर जाएं और नाव को सिर पर लेकर चल पड़ें। क्योंकि जिस नाव ने हमको पार करवा दिया उसे हम कैसे छोड़ सकते हैं? और अगर छोड़ना ही था, तो फिर हम चढ़े ही क्यों थे? तो वे नाव को सिर पर लेकर गांव में निकले। गांव के लोगों ने पूछा, तुम यह क्या कर रहे हो ? बुद्ध उस गांव में थे । । बुद्ध ने कहा, ये पंडित हैं। ये बड़े ज्ञानी हैं। ये बड़े ज्ञानी हैं, अज्ञानी तो उसी पार रह गए, वे नाव पर ही नहीं चढ़े। ये ज्ञानी हैं। नाव पर चढ़ गए थे। लेकिन इनकी मुसीबत यह हो गई कि अब इन पर ज्ञान चढ़ गया है। यह नाव इनके ऊपर चढ़ गई। अब ये उसको छोड़ नहीं पा रहे हैं। अब ये शास्त्र को ढो रहे हैं। यह तो 431 और मूढ़ता हो गई। इसलिए उपनिषद ठीक कहते हैं, अज्ञानी भटकते हैं अंधकार में, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं। फिर से अज्ञानी होना जरूरी है। लेकिन वह फिर से अज्ञानी होना बड़ी और बात है । खोज छोड़नी पड़ती है, लेकिन करने के बाद । संसार छोड़ना पड़ता है, लेकिन जानने के बाद। त्याग मूल्यवान है, लेकिन भोग के बाद। अन्यथा उसका कोई मूल्य नहीं है। एक मित्र ने पूछा है कि भक्त अपनी पसंद के अनुसार इष्ट का साकार दर्शन कर लेते हैं। रामकृष्ण ने काली का किया या मीरा ने कृष्ण का या अर्जुन ने चतुर्भुज रूप कृष्ण का। क्या इस अवस्था को परम ज्ञान की अवस्था मान सकते हैं? य ह परम ज्ञान के पहले की अवस्था है; परम ज्ञान की नहीं। क्योंकि परम ज्ञान में तो दूसरा बचता ही नहीं। न काली बचती है, न कृष्ण बचते हैं, न क्राइस्ट बचते हैं। यह आखिरी है, सीमांत । यह आखिरी है। संसार समाप्त हो गया, अनेकता समाप्त हो गई, सब समाप्त हो गया। लेकिन द्वैत अभी भी बाकी रह गया, भक्त है और भगवान है। अभी भक्त भगवान नहीं हो गया है। अभी भक्त है और भगवान है। अभी दो बाकी हैं। सारा जगत खो गया। विविध रूप खो गए। सारे रूप दो में समाविष्ट हो गए। सारा जगत दो रह गया अब । भक्त है और भगवान है । सब तिरोहित हो गया। लेकिन दो अभी बाकी हैं। यह परम ज्ञान के ठीक पहले की अवस्था है। जैसे सौ डिग्री पर जब पानी उबलता है। अभी भाप नहीं बना है, उबल रहा है। बस अब भाप बनने के करीब है। एक क्षण और, और पानी भाप बन जाएगा। ठीक यह सौ डिग्री अवस्था है, बस जरा-सी देर है । जरा-सी देर है कि भगवान भी खो जाएगा और भक्त भी खो जाएगा और एक ही बच रहेगा। उसको फिर कोई चाहे तो भगवान कहे, और चाहे कोई भक्त कहे, चाहे कोई नाम न दे, कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बच रहेगा, अनाम। वह अद्वैत की अवस्था है। अद्वैत परम ज्ञान है। परम ज्ञान की हमारी परिभाषा बड़ी अनूठी है। परम ज्ञान हम तब Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 कहते हैं, जब जानने वाला न बचे, जाना जाने वाला न बचे। दोनों हमारी आसक्ति संसार में ही नहीं बनती, हमारी आसक्ति हमारी खो जाएं। दृश्य और द्रष्टा दोनों खो जाएं। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो | साधना के उपाय से भी बन जाती है। अब किसी जैन को कहो कि जाएं। मात्र ज्ञान रह जाए। सिर्फ जानना मात्र रह जाए। न तो उस तरफ महावीर के दो टुकड़े कर दो। किसी बौद्ध को कहो कि बुद्ध के दो कुछ हो जानने को, न इस तरफ कुछ हो जानने वाला। बस, सिर्फ टुकड़े कर दो! राम के भक्त को कहो कि हटाओ, फेंक दो इस मूर्ति ज्ञान रह जाए। उस ज्ञान की आखिरी घड़ी को परम ज्ञान कहा है। को मन से! बेचैनी होगी कि क्या बातें कर रहे हैं! यह कोई बात हुई महावीर ने उसे कैवल्य कहा है। कैवल्य का अर्थ है, बस, | धर्म की? अध्यात्म हुआ? यह तो घोर नास्तिकता हो गई। केवल ज्ञान। कुछ नहीं बचा। वह जो खोज रहा था, वह भी नहीं है लेकिन रामकृष्ण जानते थे कि जो आदमी कह रहा है, वह ठीक अब। जिसको खोज रहा था, वह भी नहीं है अब। वह दोनों का द्वंद्व | | तो कह रहा है। यह मेरी मजबूरी है कि मैं न तोड़ पाऊं।' विलीन हो गया। अब सिर्फ होना मात्र, जस्ट बीइंग, जस्ट लेकिन उस गुरु ने कहा, तू मेरे सामने बैठ और ध्यान कर। और कांशसनेस, सिर्फ होश भर बचा है। वे दोनों छोर खो गए। दोनों | जैसे ही काली भीतर आए, उठाना तलवार और तोड़ देना! रामकृष्ण छोरों के बीच में जो ज्ञान की घटना घटती है, वही बची है। ने कहा, लेकिन मैं तलवार कहां से लाऊंगा? उस गुरु ने बड़ी तो काली का दर्शन परम ज्ञान नहीं है। कृष्ण का दर्शन भी परम | । कीमती बात कही। उस गुरु ने कहा कि तू काली को ले आया । ज्ञान नहीं है। राम का दर्शन भी परम ज्ञान नहीं है। परम ज्ञान के | भीतर, तलवार न ला सकेगा! काली कहां थी पहले? तू काली को पहले की आखिरी सीढ़ी है, जहां से आप सीढ़ियां छोड़ देते हैं। | ले आया, तो तलवार तो तेरे बाएं हाथ का खेल है। जैसे काली को ऐसा हआ रामकृष्ण के जीवन में। रामकृष्ण तो काली के भक्त तूने कल्पना से अपने भीतर विराजमान करके साकार कर लिया है, थे। अनूठे भक्त थे। और उस जगह पहुंच गए, जहां काली और वे | ऐसे ही उठा लेना तलवार को। ही बचे। लेकिन तब उनको एक बेचैनी होने लगी कि यह तो द्वैत रामकृष्ण ने कहा, तलवार भी उठा लूंगा, तो तोड़ नहीं पाऊंगा। है, और अद्वैत का अनुभव कैसे हो? अभी भी दो तो हैं ही, मैं हूं, | मैं भूल ही जाऊंगा। तुमको भी भूल जाऊंगा, तुम्हारी बात को भी काली है। अभी दो की दई नहीं खोती। अभी दो तो बने ही रहते हैं। भल जाऊंगा। काली दिखी कि मैं तो मंत्रमग्ध हो जाऊंगा। मैं तो तो वे एक अद्वैत गुरु की शरण में गए। उस अद्वैत गुरु को उन्होंने | नाचने लगूंगा। मैं फिर यह तलवार नहीं उठा सकूँगा। कहा कि अब मैं क्या करूं? ये दो अटक गए हैं, इसके आगे अब तो उस गुरु ने कहा कि फिर मैं कुछ करूंगा बाहर से। एक कांच कोई गति नहीं होती। अब दिखाई भी नहीं पड़ता कि जाऊं कहां? | का टुकड़ा गुरु उठा लाया और उसने रामकृष्ण को कहा कि जब मैं शांत हो जाता हूं; काली खड़ी हो जाती है। मैं होता है, काली होती | देखेंगा कि तू मस्त होने लगा, डोलने लगा...। क्योंकि जब भीतर है। बड़ा आनंद है। गहन अनुभव हो रहा है। लेकिन दो अभी बाकी | काली आती, तो रामकृष्ण डोलने लगते, हाथ-पैर कंपने लगते, हैं। एक आखिरी अभीप्सा मन में उठती है कि एक कैसे हो जाऊं? | रोएं खड़े हो जाते। और चेहरे पर एक अदभुत आनंद का भाव, तो जिस गुरु से उन्होंने कहा था, उसने कहा, फिर थोड़ी हिम्मत | मस्ती छा जाती। तो उस गुरु ने कहा कि मैं तेरे माथे पर इस कांच जुटानी पड़ेगी। और हिम्मत कठिन है और मन को चोट करने वाली | से काट दूंगा; जोर से लहूलुहान कर दूंगा; दो टुकड़े चमड़ी को है। गुरु ने कहा कि भीतर जब काली खड़ी हो, तो एक तलवार काट दूंगा। और जब मैं यहां तेरी चमड़ी काटूं, तब तुझे खयाल उठाकर दो टुकड़े कर देना। रामकृष्ण ने कहा कि क्या कहते हैं, अगर आ जाए, तो चूकना मत। उठाकर तलवार तू भी दो टुकड़े तलवार उठाकर दो टुकड़े! काली के! ऐसी बात ही मत कहें! ऐसा | भीतर कर देना। सुनकर ही मुझे बहुत दुख और पीड़ा होती है। और ऐसा ही किया गया। गुरु ने कांच से काट दी माथे की तो गुरु ने कहा, तो फिर तू अद्वैत की फिक्र छोड़ दे। क्योंकि अब | चमड़ी, ठीक जहां तृतीय नेत्र है। ऊपर से नीचे तक चमड़ी को दो काली ही बाधा है। अब तक काली ही साधक थी, साधन थी, | टुकड़े कर दिया। खून की धार बह पड़ी। रामकृष्ण को भीतर होश सहयोगी थी; अब काली ही बाधा है। अब सीढ़ी छोड़नी पड़ेगी। | आया। वे तो नाच रहे थे। मस्त हो रहे थे भीतर। होश आया। अब तू सीढ़ी को मत पकड़। माना कि इसी सीढ़ी से तू इतनी दूर हिम्मत की और उठाकर तलवार से काली के दो टुकड़े कर दिए। आया है, इसलिए मोह पैदा हो गया है, आसक्ति बन गई है। रामकृष्ण, और काली के दो टुकड़े! यह भक्त की आखिरी हिम्मत 1432] Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक सौंदर्य है। यह आखिरी हिम्मत है। इससे बड़ी हिम्मत नहीं है जगत में। और जो इतनी हिम्मत न जुटा पाए, वह अद्वैत में प्रवेश नहीं कर पाता। काली विसर्जित हो गई। रामकृष्ण अकेले रह गए। या कहें कि चैतन्य मात्र बचा। छः दिन बाद होश में आए। आंखें खोलीं, तो जो पहले शब्द थे, वे ये थे कि कृपा गुरु की, आखिरी बाधा भी गिर गई। दि लास्ट बैरियर हैज फालेन । रामकृष्ण के मुंह से शब्द आखिरी बाधा, लास्ट बैरियर ! सोचने में भी नहीं आता। रामकृष्ण के सामान्य भक्तों ने इस उल्लेख को अक्सर छोड़ दिया है, क्योंकि यह उल्लेख उनके पूरे जीवन की साधना के विपरीत पड़ता है। इसलिए बहुत थोड़े से भक्तों ने इसका उल्लेख किया है। बाकी भक्तों ने इसको छोड़ ही दिया है। क्योंकि यह तो मामला ऐसा हुआ कि जब उतरना ही था, तो फिर चढ़े क्यों? इतनी मेहनत की। काली के लिए रोए - गाए, नाचे - चिल्लाए, चीखे, प्यास से भरे, जीवन दांव पर लगाया। फिर काली को पा लिया। फिर दो टुकड़े किए। तो वह लिखने वाले भक्तों को बड़ा कष्टपूर्ण मालूम पड़ा है। इसलिए अधिक भक्तों ने इस उल्लेख को छोड़ ही दिया है। मगर यह उल्लेख बड़ा कीमती है। और जिनको भी भक्ति के मार्ग पर जाना है, उन्हें याद रखना है कि जिसे हम आज बना रहे हैं, उसे कल मिटा देना पड़ेगा। आखिरी छलांग, सीढ़ी से भी उतर जाने की, नाव भी छोड़ देने की, रास्ता भी छोड़ देने का, विधि भी छोड़ देने की। तो जो रामकृष्ण को हुआ है काली के दर्शन में, वह अंतिम नहीं है। अंतिम तो यह हुआ, जब काली भी खो गई। जब कोई प्रतिमा नहीं रह जाती मन में, कोई शब्द नहीं रह जाता, कोई आकार नहीं रह जाता, जब सब शब्द शून्य हो जाते हैं, सब प्रतिमाएं लीन हो जाती हैं असीम में, सब आकार निराकार में डूब जाते हैं, जब न मैं बचता हूं, न तू बचता है...। एक बहुत बड़े विचारक, यहूदी चिंतक और दार्शनिक बूबर ने एक किताब लिखी है, आई एंड दाउ । इस सदी में लिखी गई दो-चार अत्यंत कीमती किताबों में से एक है। और इस सदी में हुए - चार कीमती आदमियों में से मार्टिन बूबर एक आदमी है। बूबर ने लिखा है कि अंतिम जो अनुभव है परमात्मा का, वह है, आई एंड दाउ – मैं और तू । लेकिन यह अंतिम नहीं है। यह अंतिम के पहले का है। लेकिन यहूदी विचार हिम्मत नहीं कर पाता आखिरी छलांग की। यही फर्क है । यहूदी, इस्लाम, ईसाइयत, ये तीनों में से कोई भी आखिरी हिम्मत नहीं कर पाते, आखिरी छलांग की। अंतिम तक जाते हैं, बिलकुल आखिर तक चले जाते हैं, लेकिन दो को बचा लेते हैं। फिर दो को छोड़ने की मुश्किल हो जाती है। इसलिए इस्लाम कभी भी राजी नहीं हो पाया कि मंसूर जो कहता है, अनलहक — मैं ब्रह्म हूं - यह बात ठीक है। क्योंकि यह तो बात आखिरी हो गई ! यह तो परमात्मा के साथ एक होने की बात ठीक नहीं है, अधार्मिक मालूम पड़ती है। इसलिए मंसूर की हत्या कर दी गई। इस्लाम कभी सूफियों को राजी नहीं हो पाया स्वीकार करने को पूरी तरह से। हालांकि सूफी ही इस्लाम की गहनतम बात है। वही उनका रहस्य है। वही उनकी आत्मा है। लेकिन इस्लाम कभी राजी | नहीं हो पाया। क्योंकि इस्लाम अंतिम के पहले रुक जाता है, दो, परमात्मा और भक्त । ईसाइयत भी रुक जाती है, परमात्मा और भक्त। यहूदी भी रुक जाते हैं, परमात्मा और भक्त । लेकिन इससे कोई अड़चन नहीं आती। क्योंकि जो आदमी यहां तक पहुंच जाता है, वह नहीं रुकता। इसे थोड़ा समझ लें। इस्लाम भला रुक जाता हो। लेकिन इस्लाम को मानकर भी जो आदमी इस आखिरी जगह पहुंच जाएगा, उसको तो फिर खयाल में आ जाता है कि अब यह आखिरी बात और रह गई । संसार का आखिरी हिस्सा और रह गया। इसे भी छोड़ दूं। वह इससे छलांग लगा लेता है। सूफी वे ही मुसलमान हैं, जिन्होंने छलांग लगा ली। | लेकिन इस्लाम की जो व्यवस्था है धर्म की, वह दो पर रुक जाती है। आम भक्ति के जितने भी दर्शन हैं, वे दो पर रुक जाते हैं। परम ज्ञान वह नहीं है। लेकिन उसके बिना भी परम ज्ञान नहीं होता, यह खयाल में रखना। उससे सौ डिग्री तक पानी उबल जाता है, और आखिरी छलांग आसान हो जाती है। जिनमें हिम्मत है, वे लगा लेते हैं। और उस समय तक पहुंचते-पहुंचते हिम्मत भी आ जाती है। जिसने सारा संसार खो दिया, वह अब इस एक परमात्मा की प्रतिमा को भी कब तक सम्हाले छाती से लगाए हुए फिरेगा? जो सब को छोड़ चुका, जिसने सारे बंधन तोड़ दिए, जिसने सारा बोझ हटा दिया, वह इस प्रतिमा को भी कब तक ढोएगा? एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, कितनी देर तक ? एक दिन वह इसे भी कहेगा, अब यह भी बोझ हो गई । इसको भी विसर्जित करता हूं। इसलिए हमने हिंदुस्तान में एक व्यवस्था की है कि हम परमात्मा 433 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-5 की मूर्ति बनाते हैं। गणेशोत्सव आता है, गणेश की मूर्ति बनाते हैं। काफी शोरगुल मचाते हैं, भक्ति-भाव प्रकट करते हैं । और फिर जाकर समुद्र में विसर्जित कर आते हैं! यह प्रतीक है असल में कि जैसे अभी इस मिट्टी की मूर्ति के साथ खेल रहे हो, बना रहे हो, नाच रहे हो, गा रहे हो और फिर हिम्मत से विसर्जित कर आते हो, ऐसे ही अंत में एक दिन परमात्मा की सब प्रतिमाएं विसर्जित करने की हिम्मत रखना । इस हिम्मत का प्रशिक्षण होता रहे। इसलिए हिंदुस्तान अकेला मुल्क है, जहां हम भगवान को बनाते और मिटाते, दोनों काम करते हैं। दुनिया में कोई कौम भगवान को बनाने और मिटाने के दोनों काम नहीं करती। बनाने का काम करते हैं कुछ लोग; वे मिटा नहीं पाते। कुछ लोग इस डर से कि फिर मिटाना पड़े, बनाने का काम ही नहीं करते। जैसे इस्लाम है। वह प्रतिमा नहीं बनाता कि कहीं प्रतिमा में फंस न जाएं। ईसाइयत ने प्रतिमाएं बना ली हैं, लेकिन उनको विसर्जन करने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाता । इस मुल्क में हमने एक अनूठा प्रयोग किया। हम भगवान के साथ भी खेलते हैं। बना लेते हैं। और जब बना लेते हैं, तो पूरी भक्ति-भाव प्रकट करते हैं। कोई ऐसा नहीं कि अपने ही बनाए हुए हैं, क्या भक्ति प्रकट करनी ! अभी खुद ही रंगा-रोपा है इनको । अब क्या इनके चरणों में गिरना ! नहीं, उसकी हम फिक्र छोड़ देते हैं। जैसे ही हमने प्रतिष्ठा कर ली कि भगवान हैं, हम चरणों में गिर जाते हैं। और समारोह पूरा हुआ, और हम कंधों पर अर्थी उठाकर उनको समुद्र में, नदी में, सरोवर में डुबा आते हैं। यह बनाना और मिटाना, चढ़ना और उतरना, खोजना और खोज छोड़ देना, ज्ञान इकट्ठा करना, और ज्ञान का त्याग कर देना, दोनों की सम्मिलित जो व्यवस्था है, यह ध्यान में रहे, तो आप कभी भटकेंगे नहीं। अन्यथा भटकाव हो सकता है। यह अनुभव द्वैत का है, परम ज्ञान के एक क्षण पहले का, लेकिन परम ज्ञान नहीं है। एक मित्र ने पूछा है कि कीर्तन के संबंध में आप कहते हैं, धुन लगाएं, सम्मिलित हों । तो क्या शरीर के बिना कीर्तन में सम्मिलित नहीं हुआ जा सकता? क्या मन ही मन में कीर्तन नहीं किया जा सकता ? ब राबर किया जा सकता है। लेकिन और किन-किन बातों में आप यह शर्त रखते हैं? जब किसी को प्रेम करना होता है, तो मन ही मन में करते हैं कि शरीर को भी बीच में लाते हैं? तब नहीं कहते कि प्रेम मन ही मन में नहीं किया जा सकता! शरीर को क्यों बीच में लाना ! कितनी चीजों में खयाल रखते हैं इसका ? अगर बाकी सब चीजों में खयाल रखते हों, मैं राजी हूं। बिलकुल शरीर का उपयोग मत करें । कीर्तन भीतर ही भीतर हो जाएगा। लेकिन अगर बाकी सब चीजों में शरीर को लाते हैं, तो धोखा मत दें अपने को । क्या है शरीर को कीर्तन में लाने में? जब किसी को प्रेम करते हैं, तो उसको गले लगा लेते हैं। क्यों शरीर को बीच में लाते हैं? | हाथ हाथ में ले लेते हैं। क्यों हाथ को बीच में ले आते हैं? ऐसे दूर खड़े रहें बुद्ध की मूर्ति बने हुए ! मन ही मन में! लेकिन तब आपको लगेगा कि अरे, यह समय खो रहा है। यह मन ही मन में कब तक करते रहेंगे ? आपका मन और आपका शरीर अभी दो नहीं हैं। अभी आपका | मन और आपका शरीर एक है। अभी जल्दी मत करें। अभी आपका | मन आपके शरीर का ही दूसरा छोर है। वह शरीर से ही संचालित हो रहा है। शरीर ही उसको अभी गति दे रहा है। इसलिए उचित है कि कीर्तन में अभी शरीर को भी डूबने दें, तो ही आपका मन डूब पाएगा। और जिस दिन आप मन ही मन में डुबाने में सफल हो जाएंगे, मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं रहेगी। आपको खुद ही पता चल जाएगा कि शरीर को बीच में लाने की कोई जरूरत नहीं, मन में ही हो जाता है। तो आप मन में कर लेना। लेकिन जब तक यह नहीं हो सकता, तब तक शरीर से ही शुरू करें। आप शरीर में जी रहे हैं, इसलिए आपकी सब यात्रा शरीर से ही शुरू होगी। और जो यह धोखा देगा अपने को कि शरीर का क्या करना है, वह असल में धोखा दे रहा है। वह धोखा यह दे रहा है कि वह करना ही नहीं चाहता। आदमी वहीं से तो चल सकता है, जहां खड़ा है। जहां आप खड़े नहीं हैं, वहां से चलेंगे कैसे? आपकी मन में स्थिति क्या है? अभी आपको शराब पिला दें, तो शराब तो शरीर में जाती है, मन में तो जाती नहीं। क्या आप समझते हैं, आप होश में बने रहेंगे? आप | बेहोश हो जाएंगे। क्यों बेहोश हो गए आप? शराब तो शरीर में जाती है, कोई मन में तो जाती नहीं। कोई आत्मा में तो घुस नहीं जाती शराब। मन में आप होश में रहे आइए, पी लीजिए शराब, 434 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 आंतरिक सौंदर्य क्या हर्ज है! तब आपको पता चलेगा कि हर्ज का है मामला। | आपको पता ही होता कि मेरी गिरी अलग है, खोल अलग है। भीतर अभी कोई आपको एक धक्का मार दे जोर से, तो धक्का शरीर मैं अपनी मौज ले रहा हूं, शरीर को कोई पता नहीं चल रहा। पूछने तक ही लगता है कि मन तक चला जाता है? मन तक चला जाता | का कारण दूसरा है। शायद बहुत ही कच्चे नारियल हैं। बहुत ज्यादा है। सच तो यह है कि शरीर को बाद में पता चलता है, मन को | जुड़े हैं। शायद अभी भीतर गिरी भी नहीं है, पानी ही पानी है। पहले पता चल जाता है। तो अभी आपका शरीर और मन बहुत __ क्यों, यह डर क्यों हो रहा है कि शरीर से भाग न लें? यह डर करीब-करीब हैं, अभी दूरी नहीं है उसमें। हो रहा है कि पास-पड़ोस में कोई देख न ले। कि अरे, आप कंप मैं निरंतर एक घटना कहता रहा हूं। एक मुसलमान फकीर हुआ, | रहे हैं। ताली बजा रहे हैं! आनंदित हो रहे हैं! आपको कोई रोते फरीद। एक आदमी उसके पास आया और फरीद से पूछने लगा कि | देखे, तो कोई एतराज नहीं। आपको कोई उदास देखे, तो किसी को मैंने सुना है कि मंसूर को काट डाला जब, तब भी मंसूर हंसता रहा। | एतराज नहीं। आप बिलकुल रोती शक्ल बनाए हुए जिंदगीभर जीते यह भरोसा नहीं आता इस बात पर। और यह भी मैं सुनता हूं कि | | रहें, तो कोई आप पर संदेह और दिक्कत नहीं खड़ी करेगा। आप जीसस को सूली लगा दी गई और उन्होंने कहा कि ये जो सूली | जरा मस्त हों, कि आपके आस-पास के लोग परेशान! और वे लगाने वाले लोग हैं, हे परमात्मा, इन्हें माफ कर देना। यह बात भी आपसे कहेंगे, आपको क्या हो रहा है? क्या होश खो रहे हैं? जैसे जंचती नहीं। कोई मुझे पत्थर मारे, कोई मुझे सूली लगाए, कोई मेरी | | दुखी होना ही समझदारी है, और मस्त होना यहां नासमझी है। गर्दन काटे, यह मैं नहीं कर सकता हूं। मैं समझने आया हूं। ठीक भी है, दुखी लोगों के समाज में जो आदमी मस्त होगा, वह तो फरीद ने उसे उठाकर एक नारियल दे दिया। भक्त फरीद को | समाज से अलग जा रहा है, और दूसरे लोगों में ईर्ष्या पैदा कर रहा नारियल चढ़ा देते थे। एक नारियल उठाकर दे दिया और कहा कि है। तो ईर्ष्या जब पैदा होती है, जो दूसरे लोग उसकी निंदा करेंगे। तू इसको फोड़ कर ला। एक ही बात का खयाल रखना कि गिरी | उसको कहेंगे कि तू पागल है। क्योंकि कोई अपने को पागल नहीं भीतर की साबित रहे, टूट न पाए। मानना चाहता। और यह भीड़ उदास लोगों की; इसकी संख्या वह नारियल कच्चा था। वह आदमी मुश्किल में पड़ गया। ज्यादा है। वे कहेंगे कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, इसलिए उसकी ऊपर की खोल तोड़े, तो भीतर की गिरी टूटे, क्योंकि वह इतने मस्त नजर आ रहे हो! कच्चा नारियल था। बड़ी कोशिश की, लेकिन गिरी टूट गई। ___ एक आदमी ने मुझसे आकर कहा कि जब से मैं ध्यान करने लगा लौटकर आया और उसने कहा, माफ करना। मैं गिरी को बचा न हूं, मस्त रहने लगा हूं, तो मेरी पत्नी परेशान है। वह आपके पास पाया, क्योंकि खोल और गिरी बिलकुल जुड़ी हैं। नारियल कच्चा | आना चाहती है। वह कहती है, इनको क्या हो गया है ? इतनी मस्ती है। आप भी किस तरह की बात करते हैं! तो कभी देखी नहीं। इनके दिमाग में कुछ खराबी तो नहीं हो गई? फरीद ने दूसरा नारियल उठाकर दिया। वह सूखा नारियल था। मस्ती खराबी का लक्षण है! पहले ये क्रोध भी करते थे, अब इनसे कहा कि अब इसकी फिक्र कर तू। इसको तोड़ ला, गिरी बचा | कुछ कहो, तो ये हंसते हैं! तो उससे ऐसा डर लगता है कि कहीं . लाना। उसने बजाकर देखा। उसने कहा कि इसमें कोई अड़चन नहीं | | इनके दिमाग में कोई नट-बोल्ट ढीला तो नहीं हो गया! क्योंकि है। खोल तोड़ देंगे, गिरी बच जाएगी। क्योंकि खोल और गिरी के | स्वभावतः, जब कोई गाली दे, तो लड़ने को तैयार होना चाहिए। ये बीच फासला पैदा हो गया। हंसते हैं। तो फरीद ने कहा, अब तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है। जीसस हम सबको ऐसा लगेगा, क्योंकि भीड़ पागलों की है। उसमें नारियल थे सूखे हुए, और तू नारियल है गीला। अभी तेरी गिरी | | अगर कोई आदमी होश से भर जाए, मस्त हो जाए, आनंदित हो और खोल जुड़े हुए हैं। अभी तू यह फिक्र मत कर। अभी तो तेरी | | जाए, तो हम शीघ्र ही उसको दिक्कत में डाल देंगे। खोल पर जो होगा, वह गिरी तक जाएगा। वह जो मित्र को डर लग रहा है, वह पड़ोसियों का डर है। वह ___ अभी शरीर और मन इकट्ठा है आपका। जिन मित्र ने पूछा है, | डर है कि कोई क्या कहेगा? तो मन ही मन में करो! उसके पूछने का अगर कारण यह होता कि उनका शरीर और मन अगर मन-मन में ही करना हो, तो और सब चीजें भी मन में अलग-अलग हो गया है, तो वे पूछते ही नहीं। क्या पूछना है! | करना, तब कीर्तन भी करना। अगर और सब चीजें शरीर से कर | 435] Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 रहे हैं, तो कीर्तन भी आपको शरीर से ही करना होगा। आप जहां हो जाता है, जो कि बहुत अनूठा है। हैं, वहीं से यात्रा हो सकती है। असल में सबसे ज्यादा कुरूप लोग वे ही होते हैं, जो खुद को दो छोटे-छोटे प्रश्न और हैं, फिर मैं सूत्र लेता हूं। | सुंदर मानते हैं। उनमें एक तरह की कुरूपता, प्रकट कुरूपता होती है, जो उनके चेहरे पर छाई होती है। चाहे वे कितना ही रंग-रोगन करें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लिपाई-पुताई कितनी ही शरीर एक बहिन ने पूछा है कि आपने कल कहा कि सुंदर | की करें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर उनको यह खयाल है स्त्री पूर्ण पुरुष की प्रतीक्षा करती है। तो क्या कुरूप | कि मैं सुंदर हूं, तो वह जो अहंकार है, वह सब तरफ से उनके स्त्री पूर्ण पुरुष की प्रतीक्षा नहीं कर सकती? क्या | व्यक्तित्व को कुरूप कर जाता है। उनकी सौंदर्य की स्थिति सतह कुरूप स्त्री को अधिकार नहीं है कि वह पूर्ण पुरुष से ज्यादा नहीं होती। की प्रतीक्षा करे? उसका भी मन तो होता है, बहिन ___ कुरूप से कुरूप व्यक्ति भी सुंदर हो जाता है, अगर उसके भीतर ने लिखा है, कि वह भी सुंदर पुरुष को पाए। और | उसे यह पता चल जाए कि मैं कुरूप हूं। और जैसा हूं, उसमें जरा यह भी पूछा है कि कुलप स्त्री भी क्यों सुंदर पुरुष भी झूठ करने की इच्छा न रह जाए, प्रामाणिक हो जाए उसका भाव, को पाना चाहती है? और कुरूप पुरुष भी क्यों सुंदर तो उसके भीतर से एक नए सौंदर्य का जन्म शुरू हो जाता है। और स्त्री को पाना चाहता है? जितना भीतर का सौंदर्य बढ़ता है, उतना ही शरीर उस सौंदर्य से आविष्ट होता चला जाता है। संतों के चेहरे पर जो सौंदर्य है, वह शरीर का नहीं है। वह कुछ 3 सका कारण है कि अपने को कोई कुरूप नहीं मानता! भीतर से आने वाली किरणों का है। O और कोई कारण नहीं है। अपने को कोई कुरूप नहीं | इस जगत में दो तरह के सौंदर्य हैं। एक तो सौंदर्य है शरीर का, मानता! अपने को तो लोग सुंदर ही मानते हैं! कुरूप | | आकृति का। एक सौंदर्य है अंतस का, अंतरात्मा का। आकृति का से कुरूप व्यक्ति भी अपने को तो सुंदर ही मानता है। इसलिए उस | | सौंदर्य तो बिलकुल काल्पनिक बात है। काल्पनिक कहता हूं संबंध में तो विचार करता ही नहीं। इसलिए कि आज जो सुंदर है, कल फैशन बदल जाए, तो कुरूप _ और यह अगर शरीर तक ही बात होती, तो मैं इस प्रश्न का उत्तर हो जाता है। ही नहीं देता। यह हमारे अध्यात्म की भी स्थिति है। हम अपने को | ऐसा समझें कि अगर जमीन पर एक ही आदमी हो, तो वह सुंदर तो ठीक मानते ही हैं, और अपने को ही मापदंड बनाकर सारे जगत | | होगा कि कुरूप होगा? उसको क्या कहिएगा? वह न सुंदर होगा, को तौलते हैं। यही भूल है।। | न कुरूप होगा। क्योंकि सुंदर और कुरूप की मान्यता तय करने अगर कोई व्यक्ति अपने को पहली दफे सोचेगा, तो अपने से | वाले दूसरे लोग हैं, वे तय करते हैं। ज्यादा कुरूप किसी को भी न पाएगा, अपने से बुरा किसी को नहीं चीन में गाल की हड्डी कुरूप नहीं समझी जाती, क्योंकि मंगोल पाएगा, अपने से बेईमान किसी को नहीं पाएगा। और जब अपने जाति की गाल की हड्डी बड़ी होती है। हिंदुस्तान में गाल की हड्डी को ठीक से देख लेगा, तो जो भी मिल जाए इस जगत में, उसे कुरूप है। चीन में चपटी नाक कुरूप नहीं समझी जाती। आर्य मुल्कों लगेगा कि अनुकंपा है परमात्मा की, क्योंकि मैं तो इसके बिलकुल में, हिंदुस्तान में, इंग्लैंड में, जर्मनी में चपटी नाक कुरूप है। क्यों? योग्य नहीं था। नीग्रो होंठ बड़े, सुंदर समझते हैं। और नीग्रो स्त्रियां पत्थर और ऐसा व्यक्ति जो अपने में ये सारी बुराइयां देख लेगा, वह लटकाकर होंठों को बड़ा करती हैं। क्योंकि बड़ा होंठ सुंदर है, सक्षम हो जाता है इन बुराइयों के पार होने में। क्योंकि बुराई के पार | क्योंकि बड़े होंठ के चुंबन की बात ही और है। सारी आर्य कौमें होने का पहला सूत्र है, उसकी पहचान। जो ठीक से देख लेता है। पतले होंठ को पसंद करती हैं। और बड़ा होंठ हो, लटका हुआ होंठ कि मैं बुरा हूं, वह अच्छा होना शुरू हो गया! और जो ठीक से देख हो, तो शादी होनी लड़की की मुश्किल हो जाए। क्या मतलब लेता है कि मैं कुरूप हूं, उसके जीवन में एक सौंदर्य का अवतरण हुआ? कौन है सुंदर? 436 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक सौंदर्य अगर हम तीन हजार साल के ज्ञात इतिहास को देखें, तो सब फ्रायड का कहना है कि दो व्यक्तियों में जब भी प्रेम होता है, सौ तरह के लोग सुंदर समझे गए हैं। सब तरह के लोग। अलग-अलग में निन्यानबे मौकों पर एकतरफा होता है, वन वे ट्रैफिक होता है। तरह से लोगों ने संदर समझा है। मान्यता की बात है। प्रचलन की एक स्त्री एक परुष को चाहती है, क्योंकि वह परुष उसे संदर बात है। फैशन की बात है। सौंदर्य बाहर का तो दूसरों की नजर की | मालूम पड़ता है। उस पुरुष की अपनी धारणा है सौंदर्य की, वह बात है। भीतर का सौंदर्य ही अपनी बात है। | किसी और स्त्री को चाहता है। वह उसे सुंदर मालूम पड़ती है। वह लोगों की मान्यता का जो सौंदर्य है, उसका कोई मूल्य नहीं है। स्त्री किसी और पुरुष को चाहती है, उसे कोई और सुंदर मालूम मगर हम लोगों की मान्यता से ही जीते हैं। पब्लिक ओपीनियन! | पड़ता है। लोग क्या कहते हैं! जो लोगों की मान्यता से जीता है, वह दो व्यक्तियों की धारणाओं का मेल बहुत मुश्किल है, क्योंकि दो सांसारिक आदमी है और वह सांसारिक ही रहेगा। व्यक्ति इतने अलग-अलग हैं कि धारणाओं का मेल होता नहीं। लोगों की मान्यता से मुक्त हो जाएं। अपनी तरफ अपनी नजर इसलिए जब प्रेमी मिल जाते हैं, तो भी तकलीफ पाते हैं; नहीं मिलते, से देखें। अपने को ही खोजें कि मैं क्या हूं? सोचें कि आप अकेले तो भी तकलीफ पाते हैं। नहीं मिलते हैं तो सोचते हैं, मिल जाते तो हैं जमीन पर। क्या हैं? सुंदर हैं, कुरूप हैं? अच्छे हैं, बुरे हैं? झूठे पता नहीं, स्वर्ग मिल जाता। और मिल जाते हैं, तो लगता है कि यह हैं, सच्चे हैं? सोचें। और इस तरह जीएं कि आपको अपनी कोई | तो नर्क अपने हाथ से बुला लिया। दो व्यक्ति मिल नहीं पाते। बुराई, कोई कुरूपता ढांकनी न पड़े, बल्कि आपके भीतर का सौंदर्य | इसलिए जिस व्यक्ति को सच में ही प्रेम का आविर्भाव करना आविर्भूत हो और आपकी सारी बुराई को, सारी कुरूपता को बहा | | है, उसे समझ लेना चाहिए कि दूसरा करेगा या नहीं करेगा, इसकी ले जाए। | फिक्र छोड़ दे। प्रेम से भर जाए। और जितना प्रेम कर सके, करता सभी सुंदर को पाना चाहते हैं। जिन बहिन ने पूछा है, ठीक पूछा | | रहे। प्रेम को मांगेन। है। कुरूप स्त्री भी सुंदर को पाना चाहती है। लेकिन उसे पता होना | | इस जगत में प्रेम से उसी को आनंद मिलता है, जो करता है और चाहिए कि जिस सुंदर को वह पाना चाहती है, वह भी सुंदर को ही | मांगता नहीं। जो मांगता है, वह कर नहीं पाता, और आनंद तो उसे पाना चाह रहा होगा। इसलिए मेल कहां होगा? | मिलता ही नहीं है। अब हम सूत्र को लें। इस प्रकार अर्जुन के वचन को सुनकर कृष्ण बोले, हे अर्जुन, एक मित्र ने दो-तीन दिन से निरंतर पूछा है, जवाब | मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ है कि जिसको तुमने मैंने नहीं दिया, क्योंकि मैंने सोचा कि इससे गीता का | देखा है। देवता भी इस रूप के दर्शन की इच्छा रखने वाले हैं। कोई संबंध नहीं है। पूछा है कि एक स्त्री के प्रेम में चतुर्भुज रूप कृष्ण का सहज रूप नहीं है। वे कोई चार हाथ हैं वे। और वर्षों हो गए, समझा-समझाकर परेशान वाले नहीं हैं। वे दो ही हाथ वाले हैं, जैसे सभी आदमी हैं। लेकिन हो गए, अब तक वे यह नहीं समझा पाए उस स्त्री | अर्जुन ने चाहा था कि वे चतुर्भुज रूप वाले प्रकट हों, चार हाथ को कि प्रेम क्या है। और वह स्त्री उनके प्रेम में नहीं वाले प्रकट हों। है। तो. कैसे उसको समझाएं? यह चार हाथ एक प्रतीक है। हजार हाथ वाले रूप की भी हमने परमात्मा की कल्पना की है, वह भी एक प्रतीक है। मां बच्चे को | उठाती है दोनों हाथों में। ये दो हाथों से उठाने तक तो मनुष्य का प्रेम ल ड़ा मुश्किल है, बड़ा कठिन है। क्योंकि आप जिसको | | है। लेकिन जहां परमात्मा चार हाथ से किसी को उठाता है, वहां प चाहते हैं, उसके भी अपने मापदंड हैं, उसकी भी | | मनुष्य के ऊपर के प्रेम की खबर लाने के लिए दो हाथ हमने और अपनी चाह के हिसाब हैं, उसकी अपनी वासनाएं हैं। जोड़े हैं। जैसे परमात्मा दोहरी माता है हमारी, दोहरे अर्थों में। वह और यह बड़े मजे की बात है कि जब भी दो व्यक्तियों में एक दूसरे | | इस जगत में तो हमको सम्हाले ही हुए है, उस जगत में भी को चाहता है, तो दूसरा उतना ही नहीं चाह सकता। सम्हालेगा। ऐसे हमने चार हाथ की कल्पना की है। | 437 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 यह प्रतीक है, काव्य-प्रतीक है, कि परमात्मा हमें इस जगत में | मिलता है। उसे कुछ करना नहीं पड़ता। वह तैरता रहता है, जैसे भी सम्हाले है और उस जगत में भी। उसके चार हाथ हैं, वह चारों | कि विष्णु तैर रहे हैं क्षीरसागर में। ऐसा बच्चा मां के पेट के द्रवीय दिशाओं से हमें सम्हाले हुए है। सब ओर से हमें सम्हाले हुए है। | पदार्थों के क्षीरसागर में तैरता रहता है। कोई चिता नहीं। कोई फिक्र उसके हाथ में हम सुरक्षित हैं। हम छोड़ सकते हैं अपने को, वहां | नहीं। कोई उपद्रव नहीं। संसार का कोई पता नहीं। कोई दूसरा नहीं, कोई असुरक्षा नहीं है। | कोई स्पर्धा नहीं। कोई मृत्यु का पता नहीं। कुछ भी पता नहीं। कृष्ण के तो दो ही हाथ हैं। लेकिन अर्जुन ने जब यह विराट रूप | | निश्चित, परम शांति में बच्चा रहता है। देखा, तो उसने प्रार्थना की कि अब मैं इतना घबड़ा गया हूं कि तुम ___ मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मोक्ष की जो धारणा है, वह मनुष्य के चार हाथ वाले की तरह प्रकट हो जाओ, तो ही मेरी घबड़ाहट शांत मन में जो गहरा गर्भ का अनुभव है, उसी का विस्तार है। वे थोड़ी हो सकती है। वह यह कह रहा है कि मैं इतना असुरक्षित हो गया दूर तक ठीक कहते हैं। क्योंकि हमें खयाल ही कैसे मिलता है हूं, इतनी इनसिक्योरिटी मुझे मालूम पड़ रही है कि मैं मरा; मिट | आनंद का? दुख हम जानते हैं। सुख भी थोड़ा-बहुत जानते हैं। गया। अब मैं इस, जो अनुभव मुझे हुआ है, यह ट्रामैटिक है। अब | लेकिन हम सबके मन में यह भी लगा रहता है कि आनंद मिले। इस अनुभव से मैं उबार न सकूँगा अपने को कभी। अब यह भय | आनंद का हमें अनुभव कहां है? हम सब चाहते हैं, शांति मिले। मेरा पीछा करेगा। अब मैं सो न सकूँगा। अब मैं उठ न सकूँगा। शांति को हम जानते तो हैं नहीं। इसलिए बिना जाने किसी चीज की यह मौत जो मैंने देखी है, यह अतिशय हो गई। अब तुम्हारे पुराने | वासना कैसे जगती है? दो हाथ अकेले काम न करेंगे। अब तुम जैसे थे, उतने से ही काम 'जब तक दुनिया में कार नहीं थी, तो किसी आदमी के मन में न चलेगा। अब तुम और भी प्यारे होकर प्रकट हो जाओ। वासना नहीं जगती थी कि कार हो। बैलगाड़ी हो, अच्छे बछड़े ___ इसका मतलब यह है कि अब तुम अनंत प्रेम होकर प्रकट हो | | वाली हो, रथ हो-वह होता था। लेकिन कार हो, ऐसा किसी जाओ। तुमने जो मौत मुझे दिखा दी, उसको संतुलित करने के लिए आदमी के मन में वासना नहीं जगती थी। लेकिन अब जगती है, दूसरे पलड़े पर तुम चारों हाथ फैलाकर मुझे झेल लो, ताकि मैं | क्योंकि अब कार दिखाई पड़ती है। चारों तरफ मौजूद है। सुरक्षित हो जाऊं। शांति को आदमी जानता ही नहीं, अशांति को ही जानता है, तो . यह सिर्फ काव्य-प्रतीक है चार हाथ का। इसका मतलब यह है। | यह शांति की आकांक्षा कहां से जगती है! मनसविद कहते हैं कि कि तुम मां का हृदय बन जाओ मेरे लिए। और ऐसी मां का, जो इस वह जो गर्भ का नौ महीने का अनुभव है, वह गहरे अचेतन में बैठ जगत में ही नहीं, उस जगत में भी! जिसकी गोद में मैं सिर रख दूं गया है। वहां हमको पता है कि नौ महीने हम किसी गहरी शांति में और भूल जाऊं जो मैंने देखा है। जो मैंने देखा है, उसे मैं भूल जाऊं। रह चुके हैं। नौ महीने जिंदगी निश्चित थी, सुरक्षित थी। मृत्यु का मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मृत्यु से जितना भय आदमी के मन | कोई भय न था। हम अकेले थे। और सब तरह से मालिक थे। में है. उसी भय के कारण आदमी मोक्ष को खोजता है। और कल्पवक्ष के नीचे थे। मनोवैज्ञानिक और अनूठी बात कहते हैं, वह शायद समझ में हमने कल्पना की कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष होंगे, उनके नीचे आदमी एकदम से न भी आए। वे कहते हैं, मोक्ष की जो धारणा है आदमी | बैठेगा। इच्छा करेगा, करते ही इच्छा पूरी हो जाएगी। आपको अगर की, वह वही है, जो बच्चे को गर्भ की स्थिति में होती है। जब बच्चा | कल्पवृक्ष मिल जाए, तो बहुत सम्हलकर उसके नीचे बैठना। गर्भ में होता है, तो पूर्ण सुरक्षित, एब्सोल्यूटली सिक्योर्ड होता है। क्योंकि आपको अपनी इच्छाओं का कोई भरोसा नहीं है। कोई असुरक्षा नहीं होती गर्भ में। कोई भय नहीं होता। कोई चिंता ___ मैंने सुना है, एक दफा एक आदमी—वह यहां मौजूद होगा नहीं। कोई जिम्मेवारी नहीं। कोई नौकरी नहीं खोजनी। कोई मकान आदमी–एक दफा कल्पवृक्ष के नीचे पहुंच गया भूल से। उसको नहीं बनाना। कोई भोजन इकट्ठा नहीं करना। कल की कोई फिक्र पता भी नहीं था कि यह कल्पवृक्ष है। उसके नीचे बैठकर उसको ऐसे नहीं है। सब आटोमैटिक है। ही लगा कि बहुत भूख लगी है, अगर कहीं भोजन मिल जाता...। बच्चा गर्भ में पूर्ण मोक्ष की हालत में है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं। वह एकदम चौंका, एकदम थालियां चारों तरफ आ गईं। वह थोड़ा सब उसको मिल रहा है। बिना मांगे मिलता है। जरूरत के माफिक डरा भी कि यह क्या मामला है, कोई भूत-प्रेत तो नहीं है यहां! कहीं 438 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आंतरिक सौंदर्य यहां कोई भूत-प्रेत न हो! थालियां तिरोहित हो गईं, भूत-प्रेत चारों और जैसे आप हैं, वैसे ही सत्य का आपको अनुभव होता है। तरफ खड़े हो गए। वह घबड़ाया कि यह तो बड़ा उपद्रव है, कोई | अगर आप रस से भरे हैं, प्रेम से भरे गए हैं, तो सत्य जिस रूप में गला न दबा दे! भूत-प्रेतों ने उसका गला दबा दिया। प्रकट होता है, वह प्रेम होता है। अगर आप गणित, तर्क, विचार, ___आपको अगर कल्पवृक्ष मिल जाए, तो भागना, क्योंकि आपको साधना, तप, हिसाब से भरे गए हैं, कैलकुलेटेड, तो जो सत्य अपनी इच्छाओं का कोई पक्का पता नहीं कि आप क्या मांग बैठेंगे! प्रकट होता है, उसका रूप गणित होता है। क्या आपके भीतर से निकल आएगा! आप झंझट में पड़ जाएंगे, अरस्तू ने कहा है कि परमात्मा बड़ा गणितज्ञ है। किसी और ने वहां पूरा हो जाता है सब कुछ। नहीं कहा। क्योंकि अरस्तू बड़ा गणितज्ञ था। और अरस्तू सोच ही __मनसविद कहते हैं कि कल्पवृक्ष की कल्पना गर्भ की ही अनुभूति नहीं सकता था परमात्मा की और कोई छवि, जो गणित से भिन्न हो। और स्मति का विस्तार है। गर्भ में बच्चा जो भी चाहता है. चाहने | क्योंकि गणित अरस्तू के लिए परम सत्य है। और गणित से ज्यादा के पहले–कल्पवृक्ष के नीचे तो पहले चाहना पड़ता है, फिर सत्यतर कुछ भी नहीं है। इसलिए अरस्तू को लगता है, परमात्मा मिलता है-गर्भ में बच्चा चाहता है, उसके पहले मां के शरीर से | भी एक बड़ा गणितज्ञ है और सारा जगत गणित का एक खेल है। उसे मिल जाता है। बच्चे को कभी वासना की पीड़ा नहीं होती। जो मीरा से कोई पूछे, तो मीरा कहेगी, परमात्मा एक नर्तक है। सारा मांगता है, मांगने के पहले मिल जाता है। वह तृप्त होता है, पूर्ण जगत नृत्य का एक विस्तार है। तृप्त होता है। - अगर बुद्ध से कोई पूछे, तो बुद्ध कहेंगे, परम शून्य, शांति, ___ यह जो कृष्ण का विराट, विकराल, भयंकर रूप देखकर अर्जुन | | मौन। विराट मौन, जहां कुछ भी नहीं है; न लहर उठती है, न मिटती घबड़ा गया है। वह कह रहा है, तुम चारों हाथ वाले गर्भ बन है। सदा से ऐसा ही है। जाओ। मैं तुममें डूब जाऊं, तुम्हारे प्रेम में, तुम्हारी सुरक्षा में। जो यह प्रत्येक व्यक्ति जिस तरह से पहुंचता है, जो उसके पहुंचने मैंने देखा है, इसको बैलेंस कर दो। दूसरे पलड़े पर इतना ही प्रेम, | की व्यवस्था होती है, जो उसका अपना व्यक्तित्व का ढांचा होता इतनी ही सुरक्षा बरसा दो। है, उसके अनुकूल परमात्मा उसे प्रतीत होता है। और जब वह उसे कृष्ण कहते हैं, तेरे लिए, जो अति दुर्लभ है और देवता भी जिसे भाषा देता है, तब और भी अनुकूल हो जाता है। देखने को तरसते हैं, वह मैं तेरे लिए प्रकट करता हूं। हे अर्जुन, न | | कृष्ण कह रहे हैं कि तप से तो यह रूप मिलने वाला नहीं, वेदों से, न तप से, न दान से, न यज्ञ से, इस प्रकार चतुर्भुज रूप | क्योंकि तपस्वी इस रूप की मांग भी नहीं करता। वाला मैं देखा जाने को शक्य हूं, जैसा तू मुझे देखता है। परंतु हे महावीर की हम सोच भी नहीं सकते कि वे कहें कि सत्य, चार श्रेष्ठ तप वाले अर्जुन, अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार चतुर्भुज | भुजाओं वाला हमारे सामने प्रकट हो! असंभव। अशक्य। रूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्व से जानने के लिए अकल्पनीय। महावीर कहेंगे कि क्या मतलब है चार भुजाओं वाले तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एकीभाव से प्राप्त होने के लिए | से! ऐसे सत्य की कोई जरूरत नहीं। महावीर के लिए सत्य कभी भी शक्य हूं। चार भुजाओं वाला सोचा भी नहीं जा सकता। जो छीन-झपट करता है तप से, जो सौदा करता है कि मैं यह ___ अर्जुन कह रहा है कि चार भुजाओं वाला सत्य। प्रेमपूर्ण सत्य। देने को तैयार हूं, मुझे यह अनुभव चाहिए, उसको तो यह अनुभव | मां के हृदय जैसा, गर्भ जैसा सत्य। जहां मैं सुरक्षित हो जाऊं। मैं नहीं मिल पाता, क्योंकि यह अनुभव प्रेम का है। सत्य को | | भयभीत हो गया हूं। एक छोटे बच्चे की पुकार है, जो इस जगत में रूखा-सूखा साधक पा लेता है; लेकिन चार भुजाओं वाला, | अपनी मां को खोज रहा है। इस पूरे अस्तित्व को जो मां की तरह प्रेमपूर्ण, भक्त ही पा पाता है। साधक भी सत्य को पा लेता है। | देखना चाहता है। लेकिन उसका जो अनुभव होता है, वह सत्य का होता है, | | तो कृष्ण कहते हैं, लेकिन अनन्य भक्ति से जिसने पुकारा हो, मैथमेटिकल, गणित का। भक्त का जो सत्य का अनुभव होता है, | प्रेम से जिसने पुकारा हो, उसके लिए मैं प्रत्यक्ष हो जाता हूं इस रूप वह होता है काव्य का, प्रेम का। गणित का नहीं, पोएटिकल। भक्त | | में। न केवल प्रत्यक्ष हो जाता हूं, बल्कि वह मुझमें प्रवेश भी कर पहुंचता है रस से डूबा हुआ। | सकता है और मेरे साथ एक भी हो सकता है। 439] Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-500 हे अर्जुन, जो पुरुष केवल मेरे लिए ही सब कुछ मेरा समझता | उसका नहीं है; जिसका अहंभाव पूरा समर्पित है और जो—यह हुआ संपूर्ण कर्तव्य-कर्मों को करने वाला और मेरा परायण है | बड़ा कठिन मालूम पड़ेगा सूत्र-और जो आसक्तिरहित है। पत्नी अर्थात मेरे को परम आश्रय और परम गति मानकर मेरी प्राप्ति के | में, बच्चे में, धन में जिसकी कोई आसक्ति नहीं है। जिसने अपना लिए तत्पर है तथा मेरा भक्त है और आसक्तिरहित है; स्त्री, पुत्र, सारा प्रेम मेरी तरफ मोड़ दिया है। धनादि संपूर्ण सांसारिक पदार्थों में स्नेहरहित है और संपूर्ण | इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक खतरनाक मतलब है, जो भूत-प्राणियों में वैर-भाव से शून्य है, ऐसा वह अनन्य भक्ति वाला | लोग आमतौर से ले लेते हैं। वह मतलब यह है कि पत्नी को प्रेम मत पुरुष मेरे को ही प्राप्त होता है। करो, बच्चे को प्रेम मत करो। सब तरफ से प्रेम को सिकोड़ लो और इस अंत में दो-तीन बातें समझ लेने जैसी हैं और बहुत उपयोग | परमात्मा के चरणों में डाल दो। यह आमतौर से लिया गया मतलब की हैं। जो साधक हैं, उनके लिए बहुत काम की हैं। है, जो खतरनाक है। क्योंकि इसका परिणाम, इसका परिणाम एक पहली बात, कृष्ण कहते हैं, जो सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दे। प्रेम | | ऐसा आदमी होता है, जो सब तरफ से सूख जाता है, रसहीन हो जाता छोड़ता है, घृणा छोड़ने से डरती है। क्योंकि घृणा में अपने को | | है। और यह पत्नी और बच्चे और परिवार और मित्रों से जो प्रेम को सुरक्षित खुद ही करना होता है। प्रेम छोड़ता है। प्रेम का मतलब ही | | खींचता है, इस छीना-झपटी में ही प्रेम मर जाता है। है कि हम दूसरे पर सब छोड़ दें। यह करीब-करीब ऐसा है, जैसे एक लगाए हुए पौधे को कोई मैंने सुना है, एक युवक विवाह करके लौट रहा था। पानी के | उखाड़कर कहीं और लगाने चला। और उखाड़कर प्रेम को पत्नी की जहाज से यात्रा कर रहा था। जोर का तूफान आया, उसकी प्रेयसी | तरफ से, परमात्मा में लगाने में ही प्रेम की जड़ें सूख जाती हैं। वह कंपने लगी और घबड़ाने लगी, लेकिन वह युवक शांत था। उसकी | | परमात्मा तक कभी पहुंच नहीं पाता। पत्नी से तो उखड़ जाता है, प्रेयसी ने कहा कि तुम इतने शांत क्यों हो! यहां तो मौत दिखाई और परमात्मा तक कभी पहुंच नहीं पाता। लेकिन यह आम भाव पड़ती है। नाव डूबेगी लगता है। मल्लाह भी घबड़ा गए हैं। उस | है, जो लोगों ने लिया है। युवक ने कहा, घबड़ाओ मत। ऊपर जो है, मैंने सब उस पर छोड़ | मेरी ऐसी दृष्टि नहीं है। मेरा मानना यह है कि पत्नी के प्रति भी दिया है। उसकी स्त्री ने कहा, कुछ भी हो, छोड़ा हो या न छोड़ा हो, तुम्हारा जो प्रेम है, वह भी कृष्ण का ही प्रेम है, तुम्हारा प्रेम नहीं है। यहां मौत खड़ी है! | तुम अपने को हटा लो; प्रेम को मत हटाओ। क्योंकि जब कर्मों में उस युवक ने अपनी म्यान से तलवार खींच ली। नंगी चमकती तुम कहते हो कि सब कर्म उसके हैं, तो प्रेम भी उसका है। पत्नी हुई तलवार थी, उसने अपनी प्रेयसी, पत्नी के कंधे पर तलवार के प्रति तुम्हारा जो प्रेम है, वह भी कृष्ण का है, तुम्हारा नहीं है। रखी। पत्नी हंसने लगी। उसने कहा, यह तुम क्या खेल कर रहे हो! और पत्नी में तुम्हें जो भी दिखाई पड़े, पत्नी को देखना बंद कर देना उस युवक ने पूछा कि नंगी चमकती हुई तलवार; जरा-सा धक्का | | और कृष्ण को देखना शुरू करना। और तेरी गर्दन अलग हो जाए; तुझे मेरे हाथ में तलवार देखकर ___ बच्चे से हटाना मत प्रेम को। उसमें सूख जाएगा। पौधा बहुत भय नहीं लगता? तो उसकी पत्नी ने कहा, तुम्हारे हाथ में तलवार | कमजोर है। वैसे ही तो प्रेम नहीं है। बच्चे से क्या खाक प्रेम है! या देखकर भय कैसा? तुमसे मेरा प्रेम है। | पत्नी से क्या प्रेम है! ऐसे ही ऊपर-ऊपर तो लगाए हुए हैं। मौसमी उस युवक ने तलवार भीतर रख ली और उसने कहा कि उससे | | पौधा है। उसको उखाड़कर परमात्मा में लगाने गए, उखाड़ की मेरा प्रेम है। उसके हाथ में तूफान देखकर मुझे कोई भय नहीं | | छीना-झपटी में ही टूट जाता है। और जड़ें उसकी इतनी कमजोर हैं लगता। उसकी मर्जी। अगर डुबाने में ही हमें कुछ लाभ होता होगा, | कि वह परमात्मा तक पहुंचती नहीं। तो ही वह डुबाएगा। और अगर बचने में कोई हानि होती होगी, तो | बेहतर तो यह है कि पत्नी में ही और थोड़े गहरे जड़ों को पहुंचा वह हमें नहीं बचाएगा। उस पर छोड़ा हुआ है। | देना। इतने गहरे पहुंचा देना कि पत्नी ऊपर रह जाए और भीतर प्रेम छोड़ता है पूरा। परमात्मा हो जाए। और बच्चे में प्रेम को इतना उंडेल देना कि बच्चा तो कृष्ण कहते हैं, जिसने पूरा मेरे ऊपर छोड़ा है। और जो दिखना बंद हो जाए और बाल-गोपाल दिखाई पड़ने लगे! तो पत्नी प्रत्येक काम को ऐसे करता है, जैसे वह मेरा, कृष्ण का काम है, नहीं रही, बच्चा नहीं रहा। सारा प्रेम परमात्मा को समर्पित हो गया। 440 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ आंतरिक सौंदर्य ये दो रास्ते हैं। पहला रास्ता आमतौर से प्रचलित है, मैं उसके हैं, उसी कचरे के ढेर से पैदा हुए हैं। उसी का विस्तार हैं। उसी सख्त खिलाफ हूं। मेरी व्याख्या तो यही है कि जहां भी तुम्हारा प्रेम मवाद, उसी खून, उसी हड्डी-मांस का थोड़ा सा और फैलाव हैं। हो, वहां परमात्मा को देखना शुरू करना। प्रेमी को भूल जाना और अगर आपको प्रेम हटाना है संसार से, जबरदस्ती, तो आपको परमात्मा को देखना। धीरे-धीरे वही पौधा जो तुम्हारी पत्नी पर लगा घृणा पैदा करनी पड़ेगी। वैर-भाव पैदा करिए, तो आप कहीं प्रेम था, जड़ें फैला लेगा और परमात्मा में प्रवेश कर जाएगा। क्योंकि को हटा पाएंगे। तुम्हारी पत्नी में काफी परमात्मा है। तुम्हारे पति में काफी परमात्मा और कृष्ण का दूसरा सूत्र है कि वैर-भाव किसी से रखना मत। है। कोई परमात्मा की वहां कमी नहीं है। और कहीं उखाड़कर ले | | इस संसार में किसी के प्रति वैर-भाव न रह जाए। बड़ी मुश्किल जाने की जरूरत नहीं है; वहीं गहरा करने की जरूरत है। बात है। संसार में वैर-भाव न रहे, यह तभी हो सकता है, जब प्रेम की गहराई प्रार्थना बन जाती है। और प्रेम अगर पूर्ण गहन संसार में प्रेम-भाव इतना गहरा हो जाए कि वैर-भाव न बचे। हो जाए, तो जहां पहुंच जाता है, वहीं परमात्मा है। तो संसार से प्रेम को मत तोड़ना, संसार में प्रेम की धारा को गहन __ कृष्ण कहते हैं, सारा प्रेम मुझे दे दे। वे यह नहीं कहते कि उखाड़ | करना। गहन करना। और खोदना। और खोदना। और संसार के ले कहीं से। वे यह कहते हैं, सारा प्रेम मुझे दे दे। जहां से भी दे, प्राणों तक प्रेम को पहुंचा देना। कोई वैर-भाव न रह जाएगा। और मुझको ही देना। तेरी नदी कहीं से भी गिरे, मेरे सागर में ही गिरे। उस प्राण के केंद्र पर ही परमात्मा है। रास्ता कोई भी हो, किनारे कोई भी हों; किनारों से छूटकर तू सागर पांच मिनट रुकेंगे। आज आखिरी दिन है, इसलिए बिना कीर्तन तक नहीं पहुंच सकेगा। किनारों में बहना मजे से, लेकिन जानना | | किए कोई भी न जाए। और बीच में कोई उठे न। जब तक धुन चले, कि ये किनारे भी सागर में पहुंचा रहे हैं। तब तक बैठे ही रहें, खड़े भी न हों। पांच मिनट साथ में जोर से जीवन की सारी प्रेम-धारा परमात्मा की तरफ बहने लगे, और कीर्तन में भागीदार हों। शरीर को भी थोड़ा भाग लेने दें। कहीं आसक्ति न रह जाए। यह मेरा अर्थ है। सारी आसक्ति परमात्मा की तरफ बहने लगे। और जिस दिन सारी आसक्ति परमात्मा की तरफ बहने लगे, उस दिन स्वभावतः जगत में कोई वैर-भाव न रह जाएगा। यह मेरी व्याख्या समझें, तो ही खयाल में आएगा। अगर आप पहली गलत व्याख्या समझते हैं, तो जगत पूरा वैरी हो जाता है। वह पति पत्नी को छोड़कर भागता है, पत्नी वैरी हो जाती है। और जिससे आप प्रेम को तोड़ते हैं, तो तटस्थ होना मुश्किल है। प्रेम को अगर तोड़ते हैं, तो घृणा पैदा करनी पड़ती है, तभी तोड़ पाते हैं। जिस पत्नी को मैंने प्रेम किया है, अगर आज उससे मैं प्रेम को हटाऊं, तो मुझे एक ही काम करना पड़ेगा कि मुझे इसके प्रति घृणा पैदा करनी पड़ेगी! इसलिए साधु-संत लोगों को कहते हैं कि क्या है तुम्हारी पत्नी में। मांस-हड़ी. मांस-मज्जा. पीप. खन. यही सब भरा हुआ है। इसको देखो। इसको देखने से वितृष्णा पैदा होगी। इसको देखने से घृणा पैदा होगी। किस पत्नी के पीछे दीवाने हो रहे हो, इसमें है ही क्या? सिर्फ कचरे का ढेर है भीतर। उसको जरा देखो। लेकिन जिस पत्नी में कचरे का ढेर है, और जो साधु-संन्यासी समझा रहे हैं, उनके भीतर क्या है? वही कचरे का ढेर है। और मजा यह है कि वे कचरे के ढेर से ही पैदा हुए हैं। जिस मां से पैदा हुए Page #472 --------------------------------------------------------------------------  Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का हिन्दी साहित्य उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद-सूत्र) कबीर सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर मैं पूरा पाया मगन भया रसि लागा चूंघट के पट खोल न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद) शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा (दो भागों में) मीरा कृष्ण गीता-दर्शन (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति पद धुंघरू बांध झुक आई बदरिया सावन की दादू सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास महावीर महावीर-वाणी (दो भागों में) महावीर-वाणी (पुस्तिका) जिन-सूत्र (चार भागों में) महावीर या महाविनाश महावीर ः मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे अरी, मैं तो नाम के रंग छकी एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में) सुंदरदास हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में) पलटू अजहूं चेत गंवार सपना यह संसार काहे होत अधीर अष्टावक्र महागीता (छह भागों में) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरथुस्त्रः नाचता-गाता मसीहा (जरथुस्त्र) धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर का सोवै दिन रैन मलूकदास कन थोरे कांकर घने रामदुवारे जो मरे दरिया कानों सुनी सो झूठ सब अमी झरत बिगसत कंवल झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा अन्य रहस्यदर्शी भक्ति -सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) भजगोविन्दम् मूढ़मते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम (नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई) नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास) संतो, मगन भया मन मेरा (रज्जब) कहै वाजिद पुकार (वाजिद) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख) सहज-योग (सरहपा-तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चुसें (लाल) गुरु-परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप (रैदास) झरत दसहुं दिस मोती (गुलाल) प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति. आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी रहिमन धागा प्रेम का उड़ियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली साहेब मिल साहेब भये जो बोलैं तो हरिकथा बहुरि न ऐसा दांव ज्यूं था त्यूं ठहराया ज्यूं मछली बिन नीर दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहिं पीवत रामरस लगी खुमारी रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच आपुई गई हिराय बहुतेरे हैं घाट कोंपलें फिर फूट आईं फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी चेति सकै तो चेति क्या सोवै तू बावरी एक एक कदम चल हंसा उस देस कहा कहूं उस देस की पंथ प्रेम को अटपटो मूलभूत मानवीय अधिकार Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया मनुष्यः भविष्य की एकमात्र आशा सत्यम् शिवम् सुंदरम् रसो वै सः सच्चिदानंद पंडित-पुरोहित और राजनेता : मानव आत्मा के शोषक ॐ मणि पद्मे हुम् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः हरि ॐ तत्सत् एक महान चुनौती ः मनुष्य का स्वर्णिम भविष्य मैं धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं रजनीश ध्यान योग हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् नेति-नेति मैं कहता आंखन देखी पतंजलिः योग-सूत्र (दो भागों में) साधना-शिविर साधना-पथ ध्यान-सूत्र जीवन ही है प्रभु माटी कहै कुम्हार सूं मैं मृत्यु सिखाता हूं जिन खोजा तिन पाइयां समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की) साधना-सूत्र (मेबिल कॉलिन्स) तंत्र संभोग से समाधि की ओर तंत्र-सूत्र (आठ भागों में) पत्र-संकलन क्रांति-बीज पथ के प्रदीप अंतर्वीणा प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं देख कबीरा रोया स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का शिक्षा में क्रांति नये समाज की खोज बोध-कथा मिट्टी के दीये ध्यान, साधना, योग ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति ओशो के संबंध में भगवान श्री रजनीशः ईसा मसीह के पश्चात सर्वाधिक विद्रोही व्यक्ति संपर्क सूत्रः ओशो कम्यून इंटरनेशनल, 17 कोरेगांव पार्क, पूना 411001 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशोटाइमस... विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र एक वर्ष में 24 अंक ༣། ། བཤད། हिंदी व अंग्रेजी में संयुक्त रूप से प्रति तीन माह में प्रकाशित होने वाली रंगीन पत्रिका संपर्क सूत्रः ताओ पब्लिशिंग प्रा. लि. 50, कोरेगांव पार्क, पूना-411001 फोनः 660963 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले फ्लैप से आगे रामायण है, वह राम के जीवन की लंबी कथा है। बाइबिल है, वह जीसस के अनेक-अनेक अवसरों पर अनेक-अनेक अलग-अलग लोगों को दिए गए वक्तव्य हैं। कुरान है, वह ईश्वर का संदेश है मनुष्य जाति के प्रति, मोहम्मद के द्वारा निवेदित। लेकिन कोई भी डायलाग नहीं है सीधा। गीता सीधा डायलाग है। मैं-त की हैसियत से दो दनियाएं सामने खड़ी हैं। एक तरफ सारी मनुष्यता का डांवाडोल मन अर्जुन में खड़ा है और एक तरफ सारी भगवत्ता अपने सारे निचोड़ में कृष्ण में खड़ी है। और इन दोनों के बीच सीधी मुठभेड़ है, सीधा एनकाउंटर है। यह बहुत अनूठी घटना है। इसलिए गीता एक अनूठा अर्थ ले.ली है। वह फिर साधारण धार्मिक किताब नहीं है। उसको हम और किसी किताब के साथ तौल भी नहीं सकते। वह अनूठी है। -ओशो Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो सत्य को श्रुति, स्मृति या शास्त्र नहीं मानते। उनकी दृष्टि में सत्य प्रत्यक्ष का विषय है। इसलिए तो सत्य का कोई शास्त्र नहीं होता। हां, तर्क का शास्त्र हुआ करता है। सत्य तो दर्शन है-'प्रत्यक्ष' है, 'ज्ञानलक्ष्ण प्रत्यक्ष' भी नहीं। ओशो के अनुसार इस सत्य का अर्जन करना पड़ता है, इस सत्य को जन्म देना पड़ता है। डा. कुमार विमल कुलपति, नालंदा खुला विश्वविद्यालय, पटना A RESEL BOOK